फोटो : तनवीर फारूकी (साभार : आशुतोष दुबे ) |
हाथ ख़ाली
हैं तिरे शहर से जाते जाते
जान होती
तो मिरी जान लुटाते जाते.
हम से
पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे
कम से कम
राह के पत्थर तो हटाते जाते.
राहत इंदौरी (१जनवरी १९५० – ११ अगस्त २०२०)
शायर
समाज की सोच और प्रतिरोध के नुमाइंदे होते
हैं, वे एक अर्थ में पब्लिक इंटेलेक्चुअल भी
हैं. इसलिए उनके सामने मज़हब के क़ायदे और दीवार तथा सत्ता की धौंस और लालच का कुछ ख़ास मतलब नहीं रहता है. वे समाज में पॉपुलर कल्चर का निर्माण करते हैं जिसमें इहलोकवादी दृष्टिकोण से
दुनिया चलती है. वे
कभी धर्मों के प्रतिपक्ष थे कभी सत्ता के.
राहत
इंदौरी उसी कड़ी के बेमिसाल शायर इस अर्थ में थे कि उन्होंने खुरदरी जमीन पर बिना 'शायरना' हुए शायरी की. वे एक चुनौती थे. उनके शेर तो रहेंगे ही. कब्र पर कुछ
फूल समालोचन की तरफ़ से भी.
उनकी
विशेषताओं की चर्चा कर रहें हैं मोहसिन ख़ान
राहत इंदौरी : एक ख़ुद्दार शायर
मोहसिन ख़ान
राहत इंदौरी अदब की दुनिया में तरक्कीपसंद
शायरों में शुमार होते हैं. उनकी ग़ज़लें सामाजिक, राजनीतिक
यथार्थ और मानवीय सरोकारों की कई विशेषताओं से युक्त हैं. उनकी ग़ज़लें विद्रोह का
स्वर रखती हैं, व्यवस्था परिवर्तन की माँग करती हैं, वतनपरसती की बात करती हुई अहम जज़्बा रखती हैं, मज़लूमों
के हक़ में खड़े रहने की ताक़त देती हैं, वे परंपरा को तोड़ते
हुए नए मानवीय मूल्यों को गढ़ती हैं, उनकी ग़ज़लें हाशिये के
समाज के मुद्दों को उठाती हैं और बहस-जिरह करती हैं. वे जिस अंदाज-ए-बयां से अपनी
बात रखते हैं और वह बात लोगों के दिलों में सीधे उतर जाती है, काग़ज़ पर उतरने वाली बात दिलों में उतार देना यह राहत इंदौरी की एक बेहद
मक़बूल कलात्मक विशेषता कही जानी चाहिए. शायरी के विषय में जितना दम और खम हैं उतना
ही अदायगी में भी नाज-ओ-अंदाज़ और नाटकीयता भरी पड़ी है.
राहत इन्दौरी का जन्म इंदौर में मरहूम रिफत
उल्ला कुरैशी के यहाँ ०१ जनवरी १९५० में हुआ. अब इस माहौल में वे ११ अगस्त २०२० को
इस फ़ानी दुनिया से अलविदा कह गए. अपने परिवार में वे जिस माहौल में रहे,
जिस मोहल्ले में रहे अदब की बातों के इर्द-गिर्द ही रहे. माहौल का
समूचा प्रभाव राहत साहब के ज़हन पर पड़ा और उनके भीतर शायर बनने का भाव कहीं जग सा
गया था. बचपन से ही राहत साहब को पढ़ने-लिखने का शौक़ था. एक मुशायरे के सिलसिले
में जाँ निसार अख्तर इंदौर आये हुए थे उस वक़्त राहत दसवीं जमात में थे. राहत साहब
उनसे मिलने पहुंचे और कहा कि हुजूर, मैं शाइर बनना चाहता हूँ,
मैं क्या करूँ? जाँ निसार अख्तर साहब ने कहा
कि अच्छे शाइरों का क़लाम पढ़ो, सौ-दो सौ शे'र याद करो. इस पर पंद्रह बरस के राहत ने जवाब दिया, हुज़ूर
मुझे तो हज़ारों शे'र याद हैं. उस वक़्त जाँ निसार अख्तर ने
सोचा भी नहीं होगा कि ये बच्चा एक दिन उनके साथ मंच से मुशायरे पढ़ेगा और दुनिया
का मशहूर शाइर हो जाएगा.
इस शायर ने न केवल उर्दू अदब के पारंपरिक
प्रतिमानों को तोड़ा, बल्कि शायरी का रुख भी
नई गलियों की तरफ मोड़ दिया और जहां सरलता, सहजता, सुबोधता और जनवादीता का सारा मजमा था. राहत साहब ने न केवल उर्दू अदब नए
आयाम दिए, बल्कि उन विषयों पर भी उन्होंने लिखा जिन्हें लोग
नजरअंदाज कर देते थे या जिन पर लिखना निषेध माना जाता था. यही उस शायर का हुनर था
जिसने उसे इतना मशहूर कर दिया कि वह आम जनता के दिलों पर राज करता है. आज जब राहत
साहब नहीं रहे तो फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर समस्त सोशल मीडिया इस बात की गवाही दे रहे हैं कि वह कोई मामूली
शायर नहीं था.
वह शायरी की दुनिया का एक अनोखा शायर रहा जिसने अपनी ज़बान को तल्ख़ रखा और विरोधों के स्वर को बुलंद रखा. न किसी को रुसवा किया न खुद रुसवा हुआ. बस सच के रास्ते पर चलता हुआ उन समस्त विरोधी विचारधारा, लोगों तथा विरोधी भावों के विरुद्ध अकेला खड़ा रहा जो कौमी एकता को तोड़ती है, जो सहिष्णुता को समाप्त करती है, जो नफरतों को फैलाती है. राहत इंदौरी अपनी ग़ज़लों में सदा इस बात का रंग भरते रहे कि यह मुल्क किसी एक का नहीं, बल्कि मुल्क है, सभी बराबर हैं. इसीलिए वह शायर डंके की चोट पर कहता है-
वह शायरी की दुनिया का एक अनोखा शायर रहा जिसने अपनी ज़बान को तल्ख़ रखा और विरोधों के स्वर को बुलंद रखा. न किसी को रुसवा किया न खुद रुसवा हुआ. बस सच के रास्ते पर चलता हुआ उन समस्त विरोधी विचारधारा, लोगों तथा विरोधी भावों के विरुद्ध अकेला खड़ा रहा जो कौमी एकता को तोड़ती है, जो सहिष्णुता को समाप्त करती है, जो नफरतों को फैलाती है. राहत इंदौरी अपनी ग़ज़लों में सदा इस बात का रंग भरते रहे कि यह मुल्क किसी एक का नहीं, बल्कि मुल्क है, सभी बराबर हैं. इसीलिए वह शायर डंके की चोट पर कहता है-
सभी
का ख़ून शामिल हैं यहाँ की मिट्टी में,
किसी
के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है.
हम
अपनी जान के दुश्मन को अपनी जान कहते हैं
मोहब्बत
की इसी मिट्टी को हिंदुस्तान कहते हैं.
इस संदर्भ में राहत इंदौरी ने एक इंटरव्यू
में खुद बताया है कि इन शे’र को कुछ लोगों ने तोड़-मरोड़ कर ग़लत अर्थों में
प्रस्तुत किया है, जिसमें राहत इंदौरी इस देश
का नागरिक नहीं, बल्कि एक मुसलमान है. इस बात का वे अफसोस
जताते रहे कि मेरे लेखन के इस दौर में मुझे शायर नहीं, बल्कि
मुसलमान शायर करार दिया जा रहा है.
उनका ये मतला सरहद की हिफ़ाज़त करने वाले
जांबाज़ लोगों के नज़र है जो रात-रात भर सरहदों पर ड्यूटी देते रहते हैं और जिंदगी
को अपनी मुश्किलों में डाले हुए हैं. सिर्फ इस खातिर कि उनका परिवार और हमारा आपका
परिवार चैन की नींद सो सके. शायर का ज़हन उस तरफ दौड़ता है जहां पर कड़ी मेहनत है,
मुश्किलात हैं और नए-नए किस्म की आपदाएं रेंग रही हैं. यह शायर की
संवेदनशीलता और कर्तव्यनिष्ठता है कि उसने उन लोगों को भी अपनी शायरी में जगह दी
है, जो दिन-रात सीमाओं पर डटे हुए हैं और हमारी हिफाज़त कर
रहे हैं.
रात
की धड़कन जब तक जारी रहती है,
सोते
नहीं हम ज़िम्मेदारी रहती है.
उनकी वतन परस्ती का जज्बा उनकी शायरी को और
भी ऊँचे मकाम पर ले जाता है. एक आम आदमी जितना अपने मुल्क से प्यार करता है उतना
ही एक शायर भी अपने मुल्क से प्यार करता है. मुल्क को देखने का नजरिया,
उसकी आब-ओ-हवा को अपनी सांसों में उतारने का तरीका और अपनी पेशानी
पर मुल्क की अहमियत और गर्व को महसूस करने का तरीका राहत इंदौरी में कुछ और अलहदा
है इसीलिए वह कहते हैं-
मैं
जब मर जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना.
लहू
से मेरी पेशानी पर हिंदुस्तान लिख देना.
चाहे कोई उनकी और कौम की हंसी उड़ाए उससे वे
कभी भी हताश नहीं होते हैं, बल्कि
उनके भीतर गर्वोक्ति का भाव अपनी खुद्दारी और ज़िद के साथ जुड़ा हुआ है. वह अपने को
किसी भी रूप में किसी भी दशा में कमतर नहीं मानते हैं. उनका मानना है कि हर
व्यक्ति का अपना आत्मसम्मान होता है और उस आत्मसम्मान को उसे जीना आना चाहिए ये
उसका हक़ भी है. इसी आत्मसम्मान की वह सदा रक्षा करते रहे और सत्ता, सरकार, साजिशों के विरुद्ध सदा अपना सिर ऊंचा रखा. न
किसी के प्रभाव में आए, न बहकावे में, न
ही किसी से उन्होंने डर कर अपनी शायरी का रुख मोड़ लिया. वह एक सच्चे और बेदाग़
शायर होने के साथ एक जिद्दी, खुद्दार, अस्मिता
और अपने गर्व की रक्षा करने वाले शायर रहे हैं. इसीलिए उनकी शायरी में यह अशआर
बखूबी उनके स्वभाव को दर्शाने के साथ उनकी प्रवृत्ति को भी दर्शाते हैं-
हमारे
सर की फटी टोपियों पे तन्ज़ न कर,
हमारे
ताज अजायब घरों में रखे है.
जा
के ये कह दो कोई शोलो से, चिनगारी से,
फूल
इस बार खिले है बड़ी तय्यारी से.
बादशाहों
से भी फेंके हुए सिक्के ना लिए,
हमने
ख़ैरात भी माँगी है तो ख़ुद्दारी से.
चल रहे लोकतंत्र के खेल को भी वह बखूबी
समझते हैं और अफसोस के साथ जाहिर करते हैं कि इतना हल्कापन आज़ादी के बाद सियासत
में और पत्रकारिता में आएगा यह कभी सोचा भी नहीं था. जिस तरह से पत्रकारिता और
सियासत मिलकर एक हो गए हैं, ऐसी भयावह
कल्पना लोकतंत्र मैं कभी नहीं की जा सकती थी. लेकिन आज का दौर स्वार्थ का छिछला
उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है. इस संदर्भ में उनका अंतिम शेर हमें दुष्यंत कुमार की
भी याद दिलाता है. वह भी प्रजातंत्र की इस अवस्था से खिन्न, उदास
और हताश थे. व्यवस्था परिवर्तन की मांग करते हैं. राहत इंदौरी भी इतने ही उदास और
हताश हैं, लेकिन वह उन दोषियों की पगड़ियों को हवा में
उछालने के पक्षधर हैं जो आम जनता को धोखा दे रहे हैं ये उनका क्रांति का नज़रिया है.
यहां राहत इंदौरी का विद्रोही स्वर उन्हें और भी अधिक शायरी के क्षेत्र में बड़ा
बना देता है-
सबकी
पगड़ी को हवाओं में उछाला जाए,
सोचता हूँ
कोई अखबार निकाला जाए.
पीके जो
मस्त हैं उनसे तो कोई खौफ़ नहीं,
पीकर जो
होश में हैं उनको संभाला जाए.
आसमां ही
नहीं,
एक चाँद भी रहता है यहाँ,
भूल कर भी
कभी पत्थर न उछाला जाए.
अपने
हाकिम की फकीरी पे तरस आता है,
जो गरीबों
से पसीने की कमाई मांगे.
नए
किरदार आते जा रहे हैं,
मगर
नाटक पुराना चल रहा है.
सियासत मतलब के जिस सांचे में ढल चुकी है,
इसी से मुल्क की बदहाली का मंजर हमारी आंखों के सामने आया हैं.
सियासत ने जिस तरह से आम आदमी से कन्नी काट ली है, यह
लोकतंत्र की धीरे-धीरे की जाने वाली हत्या है. जब लोकतंत्र में चुनाव सिर पर आते
हैं तभी आम आदमी की हमारे रहनुमाओं को याद आती है. फिर तरह-तरह के हथकंडे अपनाए
जाते हैं, मतों का ध्रुवीकरण किया जाता है, या सरहदों पर कोई वाक़या दोहराया जाता है
और फिर से सत्ता को हथिया लिया जाता है. इसी संदर्भ में उनके मशहूर अशआर
लोकतंत्र की परतों को उधेड़ कर रख देते हैं.
सरहदों
पर बहुत तनाव है क्या,
कुछ पता
तो करो चुनाव है क्या,
और खौफ बिखरा है दोनों समतो में,
तीसरी
सम्त का दबाव है क्या.
राहत साहब न केवल सियासी चालबाजी,
लोकतंत्र की खामियों और असहिष्णुता पर प्रहार करने वाले शायर हैं,
बल्कि वे आमजीवन के गहरे अनुभव रखने वाले ऐसे शायर हैं जो अपने
आसपास की दुनिया को बड़े करीने से और बारीकी से देखते हैं. आज के माहौल में आमआदमी
को ज़िंदा रहने के लिए केवल एक तरह की बंधी-बंधाई ज़िंदगी का ढर्रा बदलना होगा,
क्योंकि उसके सामने एक तरह की ही चुनौती नहीं, बल्कि क़दम-क़दम पर उसे मुसीबतों का मुँह देखना है और उससे संघर्ष करना है.
हालात कैसे भी हों ज़िंदगी को चलते रहना लाज़मी है, ऐसे में
जिस तरह के रास्ते हों उनपर चलना भी मजबूरी है. घटनाएँ, आपदाएँ
और त्रासदियों ने किसी को नहीं छोड़ा है, राहत साहब उसकी
तैयारी रखने की बात कहकर हौसला बँधाते हैं.
उनकी शायरी में यथार्थ जीवन की कड़वी सच्चाई है, भीतरी छटपटाहट है, रिश्ते निभाने के खयालात हैं, अधूरे या कभी न पूरे होने वाले ख्वाब हैं, जिसमें बाजार की शर्तों से बंधा जीवन है. ऐसे जीवन के कई पहलुओं को उन्होंने बड़ी निकटता से महसूस किया तो लफ़्ज़ों में इस तरह से ढलकर सामने आए-
उनकी शायरी में यथार्थ जीवन की कड़वी सच्चाई है, भीतरी छटपटाहट है, रिश्ते निभाने के खयालात हैं, अधूरे या कभी न पूरे होने वाले ख्वाब हैं, जिसमें बाजार की शर्तों से बंधा जीवन है. ऐसे जीवन के कई पहलुओं को उन्होंने बड़ी निकटता से महसूस किया तो लफ़्ज़ों में इस तरह से ढलकर सामने आए-
आँख में
पानी रखो होठों पे चिंगारी रखो,
ज़िंदा
रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो.
राह के पत्थर से बढ़ कर कुछ नहीं हैं मंज़िलें,
रास्ते
आवाज़ देते हैं सफ़र जारी रखो.
एक ही नदी के हैं ये दो किनारे दोस्तों,
दोस्ताना
ज़िंदगी से मौत से यारी रखो.
आते जाते पल ये कहते हैं हमारे कान में,
कूच का
ऐलान होने को है तैयारी रखो.
ये ज़रूरी है कि आँखों का भरम क़ायम रहे,
नींद रखो
या न रखो ख़्वाब मेयारी रखो.
ये हवाएँ उड़ न जाएँ ले के काग़ज़ का बदन,
दोस्तो
मुझ पर कोई पत्थर ज़रा भारी रखो.
ले तो आए शायरी बाज़ार में 'राहत' मियाँ,
क्या
ज़रूरी है कि लहजे को भी बाज़ारी रखो.
राहत साहब की शायरी में जीवनगत यथार्थ के
साथ चुनौतियों से टकरा जाने का अदम्य साहस भी है. आदमी कितनी ही मुसीबत में क्यों
न हो उसे मुसीबतों को तोड़ना है, खुद टूटना
नहीं है. क्योंकि मुसीबतें आती हैं और चली जाती हैं. कमजोर आदमी मुसीबतों से हार
जाता है, लेकिन राहत साहब की शायरी कमजोर आदमी के भीतर हौसला
भर देती है और मुसीबतों के सामने डटे रहना सिखाती है.
शाख़ों
से टूट जाएँ वो पत्ते नहीं हैं हम,
आँधी
से कोई कह दे कि औक़ात में रहे.
राहत साहब की शाइरी का एक मिज़ाज कलंदराना भी
है. उनके ये अशआर इस बात की तस्दीक करते हैं. वे कभी इस बात की परवाह नहीं करते कि
उनकी संदर्भ में किसी की क्या राय बनेगी या उन पर किस तरह के तंज़ कसे जाएंगे,
उन पर किस तरह की तोहमत लगाई जाएगी. यह एक कलाकार का मौजी मन होता
है, जिसे कभी-कभी वह खुद भी नहीं समझ पाता है. राहत साहब
अपनी मौज में रहने वाले शायर रहे हैं जो कभी कभी खुद की भी बात नहीं मानते हैं. वे
जड़ता और परम्पराओं के शिकार रहे हैं इसलिए वे इसको तोड़ने की बात भी करते हैं,
बात ही नहीं करते, बल्कि उन्होंने जड़ताओं,
रूढ़ियों को तोड़ा भी है. इस संदर्भ में उनकी बेपरवाह प्रवृत्ति इन
अशआरों के माध्यम से देखी जा सकती है-
एक
हुकुमत है जो इनाम भी दे सकती है,
एक कलंदर
है जो इनकार भी कर सकता है.
ढूंढता
फिरता है तू दैरो - हरम में जिसको,
मूँद ले
आँख तो दीदार भी कर सकता है.
राहत इन्दौरी ख़ूबियों का दूसरा नाम है तो
उनमें ख़ामियाँ भी है. मुनव्वर राना ने सही कहा है कि-
"एक अच्छे शाइर में ख़ूबियों के साथ साथ ख़राबियाँ भी होनी चाहिए, वरना फिर वह शाइर कहाँ रह जाएगा, वह तो फिर फ़रिश्ता हो जाएगा और फरिश्तों को अल्लाह ने शाइरी के इनआम से महरूम रखा है."
उनकी शायरी में गहरी मानवीय संवेदनाएं हैं.
जीवन में सभी एक न एक दिन अनुभव करते हैं कि भौतिक संपत्ति के कारण ही पारिवारिक
कलह जन्म लेती है. शायर की जिंदगी में भी कभी ऐसे पल आए होंगे तो उसने संपत्ति को
लेकर कभी विवाद नहीं किया, बल्कि
उसने अपना दिल बड़ा करके अपनी भी जमीन अपने भाई के हवाले कर देने का निश्चय किया.
मिरी
ख़्वाहिश है कि आँगन में न दीवार उठे,
मिरे भाई
मिरे हिस्से की ज़मीं तू रख ले.
यही बात उनकी शायरी को अधिक मानवीय सरोकारों
से जोड़ती है जो उनके जीवन के भीतरी पक्ष को खुले रुप में इंगित करती है कि यह
सारी चीजें यहीं रह जाएंगी, आदमी चला
जाएगा और हुआ भी यही कि सारी चीजें यहीं रह गईं, बचा तो
सिर्फ उनकी बेहतरीन क़लाम, जिसे पढ़कर पूरी दुनिया याद करती
रहेगी. आज हमारे बीच राहत साहब शारीरिक रूप से नहीं रहे, लेकिन
उनकी शायरी इस बात की गवाही देती रहेगी कि जब तक वह शायर हयात था तब तक अपनी
खुद्दारी से जीता हुआ समाज, राजनीति, वतन,
व्यक्ति सबकी अभिव्यक्ति बेलौस और निडर हो कर देता रहा.
दोज़ख के
इंतज़ाम में उलझा है रात दिन,
दावा ये
कर रहा है के जन्नत में जाएगा.
ख़्वाबों
में जो बसी है दुनिया हसीन है,
लेकिन
नसीब में वही दो गज़ ज़मीन है.
राहत इन्दौरी ने एम्.ए उर्दू में किया,
पीएच.डी. की और फिर सोलह बरस तक इंदौर विश्वविद्यालय में उर्दू की
तालीम दी. राहत इन्दौरी ने इसके साथ-साथ तक़रीबन दस बरसों तक उर्दू की त्रैमासिक
पत्रिका "शाख़ें" का सम्पादन भी किया.
राहत इन्दौरी की अभी तक ये किताबें मंज़रे आम पे आ चुकी है- धूप धूप (उर्दू),1978, मेरे बाद (नागरी )1984 पांचवा दरवेश (उर्दू) 1993, मौजूद (नागरी )2005 नाराज़ (उर्दू और नागरी , चाँद पागल है (नागरी ) 2011, डॉ क़दम और सही, नाराज़, मौजूद, रुत इत्यादि.
राहत साहब ने पचास से अधिक फिल्मों के लिए
गीत लिखे हैं जिसमे से मुख्य हैं- प्रेम शक्ति, सर,
जन्म, खुद्दार, नाराज़,
रामशस्त्र, प्रेम-अगन, हिमालय
पुत्र, औज़ार, आरज़ू, गुंडाराज, दिल कितना नादान है, हमेशा, टक्कर, बेकाबू, तमन्ना, हीरो हिन्दुस्तानी, दरार, याराना,
इश्क, करीब, खौफ़,
मिशन कश्मीर, इन्तेहा, श....
, मुन्ना भाई एम बी बी एस, मर्डर,
चेहरा, मीनाक्षी,जुर्म
और बहुत से ग़ज़ल और म्यूजिक एल्बम भी.
राहत इन्दौरी को अनेको अदबी संस्थाओं ने
नवाज़ा है जैसे- ह्यूस्टन सिटी कौंसिल अवार्ड, हालाक-ऐ- अदब -ऐ-जौक अवार्ड, अमेरिका, गहवार
-ए -अदब, फ्लोरिडा द्वारा सम्मान, जेदा
में भारतीय-दूतावास द्वारा सम्मान, भारतीय दूतावास ,रियाद द्वारा सम्मान, जंग अखबार कराची द्वारा सम्मान,
अदीब इंटर-नेशनल अवार्ड, लुधियाना, कैफ़ी आज़मी अवार्ड, वाराणसी, दिल्ली
सरकार द्वारा डॉ ज़ाकिर हुसैन अवार्ड, प्रदेश रत्न सम्मान
भोपाल, साहित्य सारस्वत सम्मान, प्रयाग,
हक़ बनारसी अवार्ड बनारस, फानी ओ शकील अवार्ड
बदायूं , निश्वर वाहिदी अवार्ड कानपुर, मिर्ज़ा ग़ालिब अवार्ड, झांसी, निशान-
ऐ- एज़ाज़, बरेली.
जिंदगी और मौत बरहक है,
लेकिन इन दोनों के बीच जो अमर हो जाता है, वह
सिर्फ रचनाकार, कलाकार ही होता है. राहत साहब ने जिस तरह की
जिंदगी खुलकर जी और वैसी ही पुरअसर शायरी की. अदब की दुनिया में वे बड़े एहतराम के
साथ याद किए जाते रहेंगे. उनकी शायरी हमें जिंदगी के एहसासात से रूबरू कराती है और
हमारे ज़हन में खुशबू की तरह उतर जाती है, जिसे पाकर हमारा
बदन और मन पाकीज़ा सा हो जाता है. उनकी कमी हमेशा खेलेगी और वे हमेशा याद आएंगे. वे
अपने ही संदर्भ में जाते-जाते क्या कह गए, इस पर भी गौर करना
जरूरी है-
ज़िन्दगी
की हर कहानी बे-असर हो जाएगी.
हम
न होंगे तो यह दुनिया दर ब दर हो जाएगी.
आदरणीय सम्पादक महोदय अरुण देव जी का बहुत आभार। उनके लिखे शब्द लेख को सार्थक कर गए। शुक्रिया!!!
जवाब देंहटाएंआम आदमी की खास जुबान खमोश हो गयी । नमन और श्रद्धांजलि ।
जवाब देंहटाएंआभार और नमन!
हटाएंआभार और नमन!
हटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13.8.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
डॉ मोहसिन भाई, बहुत उच्चकोटि का आलेख ।
जवाब देंहटाएंयदि कोई जानना चाहे कि 'राहत इंदौरी' होने के मायने क्या हैं? तो ये लेख पर्याप्त है।
मुझे नही लगता कि इतना उम्दा किस्म का लेख किसी ने राहत साहब पर लिखा होगा ।
💐💐💐
सर आपका स्नेह, निरंतर मिलता है, आपकी नवाज़िश, बेहद शुक्रिया💐
हटाएंबहुत वाजिब और जरूरी बातों के साथ राहत साहब की शख्सियत और शायरी का बेहतरीन तपसरा किया मोहसिन भाई, बहुत बहुत बधाई आपको और राहत साहब को जिंदाबाद के साथ सादर श्रद्धांजलि
जवाब देंहटाएंआदरणीय राजेश जी आपका बहुत आभार, स्नेह मिलता रहे आपसे।
हटाएं
जवाब देंहटाएंराहत इंदौरी केवल लोकप्रिय शायर ही नहीं थे, अदबी एतबार से भी उनके पास बहुत कुछ था. किसी भी कवि उनया शायर की सभी रचनाएं उत्कृष्ट नहीं होतीं, राहत इंदौरी की भी नहीं हैं. मंच का अपना अलग व्याकरण होता है यह सही है. पर जब मंच वाले राहत का शोर थम जाएगा, जब कोई आलोचक गम्भीरता से उनकी शायरी पर विचार करेगा, तब राहत इंदौरी के संजीदा शायर का स्वरूप सामने आएगा. बड़े- बड़े पुलों से नदियाँ पार करने वालों को 'मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैरके दरिया पार करो' क्या समझ में आएगा. समझते भी होंगे तो मान लेने की हिम्मत कहाँ! बच-बचाके लिखने वालों में है हिम्मत कि आज की तारीख़ में यह लिख दें कि----
" मेरा दावा है कि वो शख़्स आदमी भी नहीं,
वो जिसको लोग फरिश्ता बनाए बैठे हैं."
यह शेर तो बेख़ौफ़ शायर राहत इंदौरी ही कह सकते थे.
जन कवि नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल की बड़े-बड़े अहम्मन्य लोगों ने कम उपेक्षा की है! वो तो जब इन लोगों ने देख लिया कि इनको तो जनता ने दिल में बसा लिया है, तब वे लोग इनकी ओर विनत भाव से दौड़े और अब जय-जयकार करते नहीं थकते.
सच्ची कविता ज़िन्दा रहेगी, आलोचक नहीं अपनाएंगे तब भी, लोगों के दिलों में ज़िन्दा रहेगी.
----- शिव कुमार पराग
वाराणसी
13.08.2020
बहुत बढ़िया टिप्पणी, आपकी कही बात पर नज़र में है। आभार।
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