हिंदी
समाज में कलाओं को लेकर उत्सुकता और उत्साह का अभाव है. ख़ासकर जब इसकी तुलना हम मराठी
और बांग्ला जाति से करते हैं. यह बढत इन दोनों भाषाओं ने ‘पुनर्जागरण’ काल में ही अर्जित कर लिया था.
जगदीश
स्वामीनाथन का जन्म हिंदी भाषी क्षेत्र
में हुआ और यही उनका कर्म क्षेत्र भी बना. वह भारतीय चित्रकला के कुछ शीर्ष चित्रकारों
में एक हैं. उनके शिष्य और उल्लेखनीय चित्रकार विवेक टेंबे स्वामीनाथन के
संस्मरणों को लिपिबद्ध कर रहें हैं जिन्हें आप समालोचन पर लगातार पढ़ रहें हैं.
यह
तीसरा हिस्सा है जो यहाँ प्रस्तुत है. चित्रकला की अनजानी दुनिया का दरवाज़ा खोलता
हुआ.
जगदीश स्वामीनाथन
उस्ताद के क़िस्से मेरे हिस्से (तीन)
विवेक टेंबे
उस्ताद के घर हाज़िरी
अगले
सोमवार को मैं नयी दिल्ली पहुँच गया, जल्दी से
तैयार हो कर उस्ताद के घर पहुँचा , उस्ताद भी तैयार बैठे
नाश्ता कर रहे थे. अम्मा जी ने मुझे भी नाश्ता दिया, इडली,
दाना मेथी और तेल की बड़ी स्वादिष्ट चटनी , नाश्ता
कर हम गढी स्टूडियो के लिए रवाना हुए.
स्वामी
जी, ललित कला अकादमी के एग्जीक्यूटिव बोर्ड
मेम्बर थे, इस नाते उन्हें और कृष्ण खन्ना जी को एक एक
स्वतंत्र स्टूडियो मिला हुआ था. उस्ताद ने मेरा एडमिशन भी ग्राफिक स्टूडियो में
करवा दिया और अपने स्टूडियो की बालकनी मुझे
पेन्टिंग करने के लिए दे दी.
पहले
दो स्टूडियो ग्राफिक के थे तीसरा उस्ताद
का और चौथा कृष्ण खन्ना जी का, परली तरफ
के चार स्टूडियो स्कल्पचर और सेरेमिक के लिए थे, इन सभी
स्टूडियो के लिए एक एक स्टूडियो सुपरवाइजर भी नियुक्त था. उस्ताद ने मेरा उनसे
परिचय भी करवा दिया. ग्राफिक स्टूडियो के सुपरवाइजर डाकोजी देवराज (जिन्हें सब
देवराज के नाम से पुकारते थे) से मेरी अच्छी मित्रता हो गई थी. वे मेरा एक बडे भाई
की तरह ख्याल रखते, यहीं
मेरी मुलाकात सरोज पाल गोगी और मंजीत बावा
से हुई और जल्दी ही हम तीनों घनिष्ठ मित्र बन गये. मंजीत और गोगी, दिल्ली स्कूल ऑफ आर्ट में साथ पढ़े थे. इसलिए वे पहले से ही एक दूसरे से
परिचित थे. मैंने देवराज के निर्देशन में एचिंग शुरू कर दी, साथ
ही बालकनी में पेन्टिंग भी. उस्ताद का भी
कैनवास ईज़ल पर लगा था पर रंग लगने की सम्भावना अभी नज़र नहीं आ रही थी.
मेरी जानकारी में उस्ताद देश के ऐसे दुर्लभ चित्रकार थे जिन्होंने चित्र रचना के
लिए कोई स्केच बुक जैसी सुविधा का शायद ही उपयोग किया हो .
वे
अक्सर कहा करते
"जो बिंध गया सो मोती"
सो यूँ कहें कि अभी माहौल बना नहीं था. या अभी समय था.
दूसरे दिन मुझे थोड़ी देर हो गयी थी, मुझे लगा कि आज डांट जरूर पडेगी, पर ऐसा कुछ न हुआ. उस्ताद कुछ ज्यादा ही तैय्यार हो कर बैठे थे.
आज कुछ विशेष है अप्पा , मैंने पूछा तो उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया चलो आज तुम्हें गैलरी दिखाते हैं. सो हम उस्ताद की गाड़ी से रवाना हुए, उस्ताद की अंगूरी रंग की एम्बेसेडर गाड़ी थी, जो उन्होंने अपने चित्रकार मित्र सोहन कादरी से खरीदी थी. गाड़ी का ड्राइवर प्रीतम एक हंसमुख युवक था.
ड्राइविंग के दौरान उस्ताद प्रीतम को ड्राइविंग के निर्देश देते रहे, खासकर जब सडक के बीचोंबीच कोई गाय या चिड़िया बैठी हो, तो उनकी व्यग्रता बढ जाती. वे प्रीतम को बोलते रुक रुक, जब तक चिड़िया उड़ नहीं जाती.
वे
असहज रहते. मैंने कहा अप्पा वो तो उड जाया करेगी न, आप
क्यों व्यर्थ चिंता कर रहे हैं. पर मेरी बात पर उन्होंने कोई गौर किया हो ऐसा मुझे
बिल्कुल नहीं लगा. बहरहाल हम प्रसिद्ध
धुमिमल आर्ट गैलरी पहुँच गये, सीढ़ियां चढ कर उपर पहुंचे.
उपर दो हिस्से थे, पहले हिस्से में किसी की प्रदर्शनी लगी थी.
अन्दर वाले हिस्से में एक बडे से टेबल के पीछे एक सांवला सा व्यक्ति बैठा था.
उस्ताद को देखते ही उसका चेहरा हजार वॉट के बल्ब की तरह चमकने लगा. वो उस्ताद के
सामने लगभग बिछ सा गया था. बहुत आदर के साथ उठ कर उसने उस्ताद को बैठने के लिए
कुर्सी ठीक की. उस्ताद ने बताया कि ये रवि जैन हैं, धुमिमल
आर्ट गैलरी के मालिक. मेरा परिचय करवाते हुए बोले, ये विवेक
हैं, मध्यप्रदेश के युवा चित्रकार और मेरे मित्र हैं.
थोड़ी
औपचारिक बातचीत के बाद रवि बोले कुछ मंगवाया जाए स्वामीजी. उस्ताद की स्वीकृति से
उन्होंने नंदू से सेंडविच, समोसे और
चाय लाने का आदेश दिया, सेंडविच खा कर मैं बाहर गैलरी में आ
गया और पेंटिंग देखने लगा. थोड़ी देर में स्वामी जी बाहर आये, रवि जैन उन्हें छोड़ने बाहर तक आये थे. हम गैलरी से निकल कर सीधे गढी आ
गये. शाम को मंजीत भी आ गया. कुछ समय अकादमी के कार्यक्रम और कार्यशैली पर बात
होती रही, फिर उस्ताद बोले कि अब मैं घर जाऊंगा, तुम चाहो तो रुक जाओ. और वे अपनी गाड़ी में बैठ कर घर चले गए. कुछ देर बाद मंजीत ने मुझे लाजपत नगर छोड़ दिया.
अगले
दिन जब मैं उस्ताद के पास पहुंचा तो वो
अपने ब्रश सहेज रहे थे. मैंने कहा मैं कुछ करुं ? तो वे बोले क्या करोगे ! मैंने
कहा ब्रश धो लूं तो बोले- ठीक है, बाहर वॉश बेसिन है वहाँ धो लो. और उन्होंने धोने का तरीका समझा दिया. मैं
वॉश बेसीन पर आ गया और ब्रश धोने लगा तो मैंने देखा कि एक बड़ा अच्छा आर्ट वर्क
बेसिन के उपर लगा था. वह लग तो रहा था ग्राफिक प्रिंट की तरह, पर बना प्लास्टर ऑफ पेरिस का था. धुले ब्रश लेकर मैं कुछ अभीभूत सा उस्ताद
के पास पहुंचा, और उनसे उस कलाकृति के बारे में पूछा.
उन्होंने बडे खुश होते हुए बताया कि वो काम हिम्मत शाह का है और कुछ दिन पहले तक वे स्वामी जी के पास इसी घर में रहते थे और अब उन्होंने ग्रेटर कैलाश मे एक बरसाती किराये पर ले ली है. मैंने कहा, अप्पा मैं इन से मिलना चाहूंगा. उस्ताद मुसकुराते हुए बोले ज़रूर. उस्ताद ने कुछ रंग ब्रश सहेजे और सामान ले कर हम गढी स्टूडियो आ गये. ईज़ल के पास ही टेबल के उपर सारा सामान सज गया था. मुझे लगा कल से तो पक्का उस्ताद जी काम शुरू कर देंगे.
मैं
बहुत आतुर था उनका काम देखने और उन्हें काम करते हुए देखने के लिए. शाम को कृष्ण
खन्ना आये तो उस्ताद जी उनके स्टूडियो में चले गए, और
मैं ग्राफिक स्टूडियो में. थोड़ी देर बाद जब उस्ताद जी घर जाने के लिए निकले तो
मुझे बुलाकर बोले, विवेक कल तुम सीधे गढी स्टूडियो ही आ जाना.
मेरे
लिए सीधे गढी स्टूडियो पहुँचना ज्यादा सुविधाजनक था. जब मैं स्टूडियो पहुँचा तब तक
उस्ताद आये नहीं थे. वे कई संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर थे,
रोज़ एक दो मीटिंग तो होती हीं थी. आज भी कोई होगी, यह सोच कर मैं स्टूडियो चला गया. अंदर गोगी और देवराज बतिया रहे थे और एक
छोटा बच्चा नजदीक ही खेल रहा था. मुझे बच्चों से बड़ा लगाव था, सो मैं उससे बात करने लगा. गोगी ने बताया कि वो उसका बेटा मारिष है पर सब
उसे पुन्नू ही कहते थे. मैं अपनी प्लेट पर काम कर रहा था तभी स्टूडियो असिस्टेंट
वेद ने आकर बताया कि स्वामी जी याद कर रहे हैं.
मैं
जब अंदर पहुँचा तो देखा रिचर्ड बार्थोलोम्यू भी बैठे थे. मेरे अभिवादन के जवाब में
वे मुसकुरा दिये. उस्ताद ने बताया कि अगले साल गर्मियों में वरिष्ठ विद्यार्थियों
के लिए एक राष्ट्रीय समर आर्ट कैम्प का आयोजन किया जा रहा है. मैं कुछ नाम प्रस्तावित
कर सकता हूँ तो अभी दे दूं. मैंने छह नाम लिख कर रिचर्ड सर को सौंप दिये. मैं वापस
जाने लगा तो उस्ताद बोले कि कल या परसों नार्वे से अम्बादास आ रहे हैं और अपने गृह
नगर अकोला जाने के पहले वे दो तीन दिन घर पर रुकेंगे,
मैंने उनसे निवेदन किया है कि वे तुम्हें एक छोटा चित्र बना कर
दिखायें. सो कल सुबह पहले तुम घर ही आना. जी, मैंने कहा और
दोनों को अभिवादन कर वापस लौट आया.
उस्ताद ने बताया, विवेक ये अम्बादास हैं. अब दो तीन दिन तुम इनके साथ रहो. स्वामी हम दोनों को घर में ही छोड़कर मीटिंग के लिए ललित कला अकादमी चले गए. अम्बादास अकोला से थे सो उन्हें मराठी अच्छे से आती थी. बेहद शांत और सौम्य व्यक्तित्व. बातें करते करते उन्होंने एक 2 फीट बाय 2 फीट के कैनवास पर फेवीकोल का एक पतला सा कोट किया, और उसे सूखने रख दिया. फिर मुझसे बोले कि अब इस पर काम कल करेंगे. इतने में अम्मा जी ने खाना खाने बुलाया, खाना खाने के बाद मैंने अंबादास जी को कहा, आप थोड़ा आराम कर लें, मैं गढी स्टूडियो चला जाता हूँ. उन्हें नमस्कार कर मैं गढी चला आया.
गढी
में चौकड़ी जमी हुई थी, आज एक और नये चित्रकार
से परिचय हुआ. वे इंदौर से थे पर अब दिल्ली में ही बस गये थे. नाम था नरीननाथ. मैं
और गोगी अपना काम भी कर रहे थे और बातें भी. हमारी बातें चल ही रही थीं कि एक
सज्जन और आ गये, अंदर आते ही पूछा, स्वामी
नहीं आये क्या? देवराज ने मुझे बताया कि वो हिम्मत शाह हैं.
थोड़ी देर में वेद ने आकर बताया कि स्वामी जी आ गये हैं, मैं
और हिम्मत भाई उठ कर स्वामी जी के स्टूडियो में आ गये. स्टूडियो में अंबादास जी भी
थे. वे बड़ी गर्मजोशी से हिम्मत भाई से मिले. फिर उस्ताद ने मुझे हिम्मत भाई से भी
मिलवाया. फिर वे तीनों अपनी बातों में रम गये, मुझे संकोच
होने लगा,थोड़ी देर बाद मुझे लगा कि मुझे वहां नहीं रुकना
चाहिए.
उस्ताद
की अनुमति से मैं घर के लिए निकला. दूसरे दिन मैं थोड़ा जल्दी ही पहुँच गया,
अंबादास जी मेरा इंतज़ार ही कर रहे थे. बोले, विवेक
शुरू किया जाए. और उन्होंने कैनवास पर रंग लगाना शुरू किया. थोड़ा ज्यादा लिंन्सिड
ऑइल के साथ दो तीन रंग मिलाते हुए अंबादास जी ने पूरे कैनवास पर रंगों की एक पतली
सी तह चढा दी. फिर थोड़ा ठहर कर एक साफ प्याली में थोड़ा टर्पेन्टाइन लेकर चपटे ब्रश
से रेखांकन करना शुरू किया. मैंने देखा कि रंग कुछ अजीब तरह से कई रेखाओं में फट
रहा था. छोटे छोटे स्ट्रोक के साथ ही रचना करते हुए घंटे भर में उन्होंने पूरा
कैनवास भर दिया और मुझे देख कर मुसकुराते हुए बोले.. झाले पूर्ण.
मेरा
शानदार पहला पाठ खत्म हुआ. पर मेरे मन में बहुत सारे सवाल थे,
मैं जानना चाहता था कि पहले फेविकोल क्यों लगाया, बाद में ज्यादा लिन्सिड ऑइल के साथ रंग क्यों लगाये, बाद में रंग क्यों फट कर लाईनो के समूह से बना रहे थे.
(गुरु अंबादास के जवाब अगली क़िस्त में)
पिछला यहाँ क्लिक करके पढ़ें.
(सामग्री संयोजन : कला समीक्षक राकेश श्रीमाल)
विवेक टेंबे
भोपाल
9827253777
9827253777
घटनाएँ जैसे एक के बाद एक स्वतः खुलती चली जाती हैं। एक शब्द भी फालतू या इधर से उधर नहीं। दिक्कत यही कि यह बहुत जल्दी खत्म हो गया। - - हरिमोहन शर्मा
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 6.8.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
जवाब देंहटाएंhttp://charchamanch.blogspot.com
धन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
स्मरण का शिल्प उल्लेखनीय है।
जवाब देंहटाएंआपका स्मृति लेख पढ़ कर न जाने कितनी स्मृतियां सदृश हो गईं। सफेद झक्क धोती और खादी सिल्क के कुर्ते में स्वामी जी और उनका चमत्कारी सानिध्य।
जवाब देंहटाएंप्रत्यक्षतः चित्रकला से मेरा कोई विशेष संबंध न था पर मेरे पिता चित्रकार थे इसलिए ग्वालियर की आर्टिस्ट बिरादरी पिता के साथ मेरा परिवार भी थी। वे ग्वालियर आते अधिकतर युवा चित्रकारों से उनका सम्वाद होता।मैत्री,बैठक, गप्पगोष्ठी में मैँ भी साथ होता। सरस् वातावरण यकायक गम्भीर हो जाता जब स्वामी जी कला पर बात करते।सभी मंत्रमुग्ध उन्हें सुनते। फिर कभी भोपाल में भी ऐसे ही नमस्कार होता। उन्हें पता था कि रूपंकर कला से मेरा कोई प्रत्यक्ष रिश्ता नहीं पर सदा स्नेह से मिलते कभी साहित्य पर बात करते तो लगता कि खांटी साहित्य और भाषा के विद्वानों से साहित्य में इनका अध्ययन ,विचार और बयान भारी और अलग।
उनकी यह कविता हमेशा याद रहती है
ये सामने जो पहाड़ है
इसके पीछे भी एक पहाड़ है
जो दिखाई नहीं देता।
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