कोरोना, क्वारनटीन और लॉक डाउन ने समूचे विश्व को प्रभावित किया है, रहने, देखने और सोचने में फ़र्क आया है. यह फ़र्क
घर से शुरू हुआ है. घरेलू ब्योरे कविता
में लौटे हैं. घर के बाहर पलायन का जो सैलाब
आया था उसने भी क़लम में जख्म और दर्द भर दिए हैं. आदमी का असहाय हो जाना इतना कभी
नहीं दिखा था.
फ़रीद ख़ाँ की कविताएँ सब देखती
हैं. इस पूरे (अ)काल खंड की ह्रदयहीनता और मायूसी को दर्ज़ करती हैं.
उनकी कुछ नई
कविताएँ प्रस्तुत हैं.
फ़रीद ख़ाँ की कुछ कविताएँ
मैंने पहली बार रसोई देखी
मैंने पहली बार
रसोई देखी, अभी.
जब हर किसी के
लिए पूरा शहर बंद है
और कुछ लोगों
का चूल्हा भी बुझ गया है.
मैंने सत्य को
सुलगता देखा.
रसोई तो पहले
भी देखी थी पर असल में देखी नहीं थी.
जैसे हम कभी
अपने उस पैर को नहीं देखते
जिसके सहारे ही
हम खड़े हैं या चल पाते.
जब वह थक कर
चूर हो जाता है,
जब वह कुछ भी
करने से कर देता है इंकार.
तब ही देखते
हैं हम अपने पैर को.
तो, मैंने पहली
बार रसोई देखी,
चूल्हे से
निकलती लपटें देखीं.
गरम गरम कड़ाही
देखी.
फूलती पिचकती
रोटी देखी.
भगौने से उठता
भाप देखा.
उसमें उबलता
दूध देखा.
धुआँ देखा.
चिमटा देखा.
हाथ को आग से
जलते देखा.
नल का ठंडा
पानी देखा.
सब पहली बार.
सब पहली बार देखा.
जब पोर पोर में
पसीना देखा.
उसमें अपनी माँ
को देखा.
माँ को तवे पर
सिंकते देखा.
भात के साथ
उबलते देखा.
दाल के साथ
बहते देखा.
धैर्य को देखा,
धैर्य से देखा.
एक जीवन को
जलता देखा.
मैंने पहली बार
भूख को देखा.
मुँह में घुलते
स्वाद को देखा.
पेट में उतरता
अमृत देखा.
खाते हुए,
अघाते हुए
मैंने घर के
बाहर भूखा देखा.
उसके सूखे होंठ
को देखा.
आँखों में उसकी
लपटें देखीं.
मैंने इधर
देखा, मैंने उधर देखा.
मैंने ख़ुद को
नज़र चुराते देखा.
रंग
आग का रंग एक
होता है और राख का भी.
राख का रंग एक
होता है और उसकी धूल का भी.
धूल का रंग एक
होता है और उसे उड़ाने वाली हवा का भी.
हवा का रंग एक
होता है और अफ़वाहों का भी.
अफ़वाहों का रंग
दहशत में थरथर काँपने वाले लहू जैसा ही होता है.
और उन्माद का
रंग बिल्कुल तलवार जैसा होता है.
कत्लेआम का रंग
एक होता है और विध्वंस का भी.
और समाप्त भी
हर जगह एक जैसा ही होता है.
समा गई पिंकी धरती में
पिंकी चल पड़ी पैदल ही पूरे देश को दुत्कार
के.
थूक के सरकार के मुँह पे.
मुँह फेर के उनके वादों से
पिंकी चल पड़ी बारह सौ किलोमीटर दूर अपने देस.
थूक के सरकार के मुँह पे.
मुँह फेर के उनके वादों से
पिंकी चल पड़ी बारह सौ किलोमीटर दूर अपने देस.
एड़ी फट गई, सड़कें फट गईं.
वह चलती रही और चलती रही.
वह चलती रही और चलती रही.
अंतड़ियाँ चिपक गईं.
चमड़ी सूख गई चिलकती धूप में.
फिर भी वह अपने देस के सपने की तरफ़ बढ़ी जा रही थी निरंतर.
बढ़ी जा रही थी अपने अम्मा-बाबू के सपने की तरफ़.
पर धरती से यह सब सहन न हुआ और वह भी फट गई.
समा गई पिंकी उसकी छाती में.
चमड़ी सूख गई चिलकती धूप में.
फिर भी वह अपने देस के सपने की तरफ़ बढ़ी जा रही थी निरंतर.
बढ़ी जा रही थी अपने अम्मा-बाबू के सपने की तरफ़.
पर धरती से यह सब सहन न हुआ और वह भी फट गई.
समा गई पिंकी उसकी छाती में.
सपने में अम्मा-बाबू के,
पिंकी ने अपना किवाड़ खटखटाया.
पिंजरे का तोता फड़फड़ाया.
पिंकी ने अपना किवाड़ खटखटाया.
पिंजरे का तोता फड़फड़ाया.
सो गए
वो सरकार की
लाज बचाने के लिए
ट्रेन की पटरी
पर सो गए और कट गए.
अब कोई भी ये
कह सकता है
कि सरकार का इसमें
क्या दोष है ?
प्रधानमंत्री
अकेला क्या क्या करेगा ?
कुछ रोटियाँ और
चटनी
उन्होंने
प्रधानमंत्री के खाने के लिए वहीं छोड़ दीं.
“अगर
प्रधानमंत्री खाएगा नहीं तो काम कैसे करेगा ?”
ऐसा उन्होंने
सोचा था.
सरकार की लाज
बचाने के लिए हर कोई सो रहा है.
हर किसी के लिए
एक ट्रेन भी चल पड़ी है
और
प्रधानमंत्री उनकी रोटियाँ बटोरने.
लावारिस की मौत
जो मर गया सड़क पर चलते
चलते
विश्व के मानचित्र पर वह पहले भी लावारिस ही था.
मौत उसकी स्थिति को बदल नहीं पाई.
विश्व के मानचित्र पर वह पहले भी लावारिस ही था.
मौत उसकी स्थिति को बदल नहीं पाई.
यह उस व्यक्ति की कहानी है
जिसे बताया गया था
कि भारत माता कोई और नहीं, तुम हो.
यही सोच कर तो उसने अपने कंधों पर पूरा शहर उठा रखा था.
अपने बीवी-बच्चों को भी उसमें लगा रखा था.
अपने गाँव-जवार को बुला रखा था.
उसके ही पैरों पर शहर चलता था.
उसके ही कंधों पर जहाज़ उड़ते थे.
कि भारत माता कोई और नहीं, तुम हो.
यही सोच कर तो उसने अपने कंधों पर पूरा शहर उठा रखा था.
अपने बीवी-बच्चों को भी उसमें लगा रखा था.
अपने गाँव-जवार को बुला रखा था.
उसके ही पैरों पर शहर चलता था.
उसके ही कंधों पर जहाज़ उड़ते थे.
उसी शहर ने, जायदाद लिखवाने के बाद निकाल दिए गए बूढ़ों की
तरह
उसको भी कह दिया, जाओ, तुमसे संक्रमण फैलता है.
उसको भी कह दिया, जाओ, तुमसे संक्रमण फैलता है.
उसके मुँह के शब्द सूख गए.
उसकी अभिव्यक्ति को काठ मार गया.
अपने बच्चे को क्या मुँह दिखाएगा,
यह सोच कर वह कट गया.
उसकी अभिव्यक्ति को काठ मार गया.
अपने बच्चे को क्या मुँह दिखाएगा,
यह सोच कर वह कट गया.
हम भारत के लोग
मैं चूंकि नागरिक हूँ अपने
देश का.
मैं देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आसीन हूँ.
मेरा फर्ज़ बनता है कि अपने मातहत काम करने वाले
राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सर्वोच्च न्यायाधीश की आलोचना करूँ.
अपने कर्मचारियों की आलोचना से उनकी कार्य कुशलता बनी रहती है.
इसीलिए मैं अपने साथी नागरिकों से भी अपील करता हूँ
कि वे जितना अपने घर में काम करने वाले कर्मचारियों की आलोचना करते हैं,
ताकि रोटियाँ अच्छी पक सकें और घर में साफ़ सफ़ाई बरकरार रहे,
उतनी ही आलोचना राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री
या सर्वोच्च न्यायाधीश की किया करें.
हम भारत के लोग यह वचन लें.
मैं देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आसीन हूँ.
मेरा फर्ज़ बनता है कि अपने मातहत काम करने वाले
राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सर्वोच्च न्यायाधीश की आलोचना करूँ.
अपने कर्मचारियों की आलोचना से उनकी कार्य कुशलता बनी रहती है.
इसीलिए मैं अपने साथी नागरिकों से भी अपील करता हूँ
कि वे जितना अपने घर में काम करने वाले कर्मचारियों की आलोचना करते हैं,
ताकि रोटियाँ अच्छी पक सकें और घर में साफ़ सफ़ाई बरकरार रहे,
उतनी ही आलोचना राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री
या सर्वोच्च न्यायाधीश की किया करें.
हम भारत के लोग यह वचन लें.
हिरण्यगर्भ
एक गर्भ से निकल कर
दूसरे गर्भ में आना है ज़िंदगी.
दूसरे से किसी तीसरे गर्भ में जाना है मृत्यु.
इनके बीच में जो कुछ है
वो सृष्टि है. वो माया है.
सब धोखा है. सब फ़ानी है.
दूसरे गर्भ में आना है ज़िंदगी.
दूसरे से किसी तीसरे गर्भ में जाना है मृत्यु.
इनके बीच में जो कुछ है
वो सृष्टि है. वो माया है.
सब धोखा है. सब फ़ानी है.
ताली
एक ताली हमारी
नाकामी के लिए.
माफ़ कीजिये, एक
ताली हमारी नाकामी को ढँकने के लिए.
जैसे मुँह
ढँकते हैं मास्क लगा कर, वैसे ही.
फिर एक ताली उन
मज़दूरों के लिए जो ट्रेन से कट गए
यहाँ फिर से एक
बार माफ़ी,
यह वाली ताली
उनकी याद मिटाने के लिए बजाएँ
और उस औरत की
भी याद मिटाने के लिए
जो रास्ते भर
प्रसव पीड़ा में रही
और अंत में
जन्म दिया एक बच्चे को जो मर गया.
मन में कोई
नकारात्मक विचार नहीं होना चाहिए.
हज़ार हज़ार
किलोमीटर दूर पैदल चलने वालों की तस्वीर
मन में अवसाद
भरती है और हमें अवसाद से ही लड़ना है.
इसलिए एक ताली
उन तस्वीरों के लिए
जिनमें फूल
खिलते हैं और परिंदे कलरव करते हैं
और उन तस्वीरों
को खींचने वालों के लिए भी एक ताली
जिसने महामारी
में भी वक़्त निकाला हमारे लिए.
हम थाली बजा कर
भी अपना मनोबल बनाए रख सकते हैं
या मोमबत्ती
जला कर इस देश को श्रद्धांजलि भी दे सकते हैं.
मुझे औरतों की बातें सुनाई नहीं देतीं
मुझे पत्नी की
बातें सुनाई नहीं देतीं.
कई बार ऐसा
होता है कि जो कान से न सुनाई दे
उसे आँखों से
सुन सकते हैं.
या आँखों से भी
न सुनाई दे तो स्पर्श से सुन सकते हैं.
सूंघ कर या चख
कर भी सुनी जा सकती हैं बहुत सारी बातें.
अतः अपनी तमाम
इन्द्रियों का ज़ोर लगा देता हूँ सुनने में
पर मुझे पत्नी
की बात सुनाई नहीं देती.
अपनी याददाश्त
पर थोड़ा ज़ोर लगा कर सोचा
कि मुझे माँ की
बात कब कब सुनाई दी है ?
मुझे नानी-दादी
की बात ही कब सुनाई दी ?
जिनके पलंग में
घुस कर अक्सर सो जाता था.
मुझे ठीक से
याद नहीं कि अपनी बहन की कोई बात सुनी हो.
“खाना पक गया, चलो खा लो”.
इससे ज़्यादा
मुझे याद नहीं कि मैंने कभी कुछ उनसे सुना हो.
कान बिल्कुल
ठीक है, ऐसा
कान के डॉक्टर ने कहा है.
फिर भी मुझे
औरतों की बातें सुनाई नहीं देतीं.
मादक और सारहीन
तुम्हारी हर
अंगड़ाई पर झरती है सोआ की गंध.
तुम्हारी
साँसों से आती है रोटी की भाप,
हींग की महक.
छौंके की छन
होती है तुम्हारी हर बात.
तुम आई, जैसे बंजर ज़मीन
पर उग आई हो कोई घास.
जीवन बन गया
जैसे उसना फरहर भात.
पर यहाँ तक
लिखते लिखते थक जाते हैं हाथ.
मादक और सारहीन
हो जाते हैं शब्द.
अपनी संस्कारगत
अभिव्यक्ति पर कर-कर के कुठाराघात
बड़ी मुश्किल से
गढ़ता हूँ तुम्हारे लिए एक स्थान.
पर अभी भी
तुम्हें रसोई की उपमाओं से बाहर नहीं देखा.
नहीं दिखा मुझे
तुम्हारी तनी हुई मुट्ठी में इंकलाब.
नहीं दिखी
तुम्हारी हिस्सेदारी.
नहीं सुन पाया
अभी तक तुम्हारा कदमताल.
तुम जेल में हो
और पल रहा है तुम्हारे गर्भ में एक तूफ़ान.
मैं सन्नाटे
में खड़ा हूँ हाथ में लिए अभी भी
तुम्हारे
काकुलों की महक,
चूड़ियों की खनक.
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फ़रीद ख़ाँ मुंबई में रहते हैं और
टीवी तथा सिनेमा के लिए पट कथाएं आदि लिखते हैं. उनकी कविताएँ सभी पत्र-पत्रिकाओं
में प्रकाशित हुईं हैं.
kfaridbaba@gmail.com
फरीद खान की कविताओं में उस तरफ हमारी नजर जाती है अमूमन जिधर नहीं जाती। अच्छी कविताओं के लिए बधाई
जवाब देंहटाएंइन कविताओं के लिए फरीद को बधाई। पिछली तिमाही में घटित जीवन को राजनीति और उसकी हृदयहीनता, चालाकी, अमानुषिकता ने जिस तरह कुचला है, उसका समझदार बयान हैं ये। इनमें एक घरेलू, अवसरवादी वर्ग की आत्मभर्त्सना भी शामिल है।
जवाब देंहटाएंयह हमारे वक़्त का बयान और दस्तावेज़ है. बढ़िया कविताएँ. हर बार पढ़ने पर कुछ नया अर्थ खुलता है.
जवाब देंहटाएंफरीद भाई ने बेहतरीन कविताएं लिखी हैं। कोरोना काल के सारे दर्द इन कविताओं में दर्ज हैं। किसी भी आपदा से हाशिए के लोग ही सबसे ज्यादा तबाह होते हैं फरीद भाई को इसका बखूबी खयाल है।
जवाब देंहटाएंफरीद जी की कविताएं बहुतअच्छी हैं
जवाब देंहटाएंभीतर तक झकझोर देती हैं। अभी के समय के बहुत महत्वपूर्ण कवि हैं। बहुत बहुत शुभकामनाएं।
फ़रीद भाई 'हम भारत के लोग' के कवि हैं। उन्हें अच्छी कविताओं के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएं■ शहंशाह आलम
Samkaleen aur savendanseelata se paripurna kavitayen hai aap ko bheetar tak jhakjor deti hai..farid ko acchi kavitaoyon ke liye badhai 🙏🏻
जवाब देंहटाएंसमालोचन और अरुण देव का आभार । फ़रीद खान साहब की कविताओं को एक साथ इस मंच पर पढ़ना। सम्वेदनाओं से भरी , वर्तमान समाज के दर्द और उसके मर्म को गहरे से महसूस किया जा सकता है ।
जवाब देंहटाएंHeartiest congratulations Farid bhai. I dont remember the last time i read somthing as good as your poems. Very different approach with deep thoughts. Kudos
जवाब देंहटाएंThe era of COVID-19 will go down in the history books as on of the bleakest of the current century. And Farid bhai's poems will be a terse reminder to the nation and hopefully to the world, about this gloomy time.
जवाब देंहटाएंSaari hi kavitaayein ekdum sateek hain. Par हिरण्यगर्भ mujhe sab se zyada choo gayi. Bahut hi behtareen :) Sochne par majboor kar dein.
फ़रीद साहब की लेखनी जीवन में विचरण करती है तो समाज राजनीति अर्थ का स्वतः अर्थपूर्ण समावेश होता जाता है... मानवीय संवेदनाओं से भरपूर युवा कवि की लेखनी सशक्त संवेदनशील रहे...
जवाब देंहटाएंKamal, behtrin hain farid bhai.... bahut pasand aayi... kamaal.....
जवाब देंहटाएंएक सजग कवि वो होता है जो अपने स्वयं के प्रति,अपने आसपास के समाज और देश में घटित होने वाली प्रत्येक घटनाओं के प्रति सदा जागरुक रहते हुए अपनी क़लम को समय के साथ धार देता हुआ अपने विचारों को व्यक्त करता है।फ़रीद की कविताएं ज्वलंत विषयों की ओर समाज का ध्यान इंगित करते हुए व्यवस्थाओं पर चोट करती हैंं।कोरोना के दौर में जो विकट हालात देश मे घटित हुए और प्रवासी भारतीयों की हृदयविदारक पीड़ा को उन्होनें अपनी कविताओं के मध्यम से बखूबी व्यक्त किया है। मैं इन बेहतरीन कविताओं के लिये उन्हें बधाई देता हुँ और उमीद करता हुँ कि आगे भी उनकी रचनायें पढ़ने को मिलते रहेंगी।
जवाब देंहटाएंनन्दन रौतेला ,अल्मोड़ा उत्तराखंड।
Wow amazing clarity and such command over langauge. Maza aa gaya !
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएं फरीद भाई। आपकी कविताएँ पढ़ना एक सुखद अनुभव है। बहुत ही सुंदर एवं अर्थपुर्ण रचनाएँ
जवाब देंहटाएंमन को छू जाने वाली कविताएं ।
जवाब देंहटाएंजीवन के सबसे करीब और हृदय स्पर्शी कविताएं। एक एक शब्द सांस लेते और जीते जागते अपना बायां दर्ज़ कराते हैं। फरीद खां की कविताएं नाटकों के पात्र की तरह आपके बीच आते जाते सटीक अभिनय करते हैं। आज की कविता के हस्ताक्षर फरीद खां को सलाम।
जवाब देंहटाएंBahot sundar aur jivant kavitaye..Jo apko sochne par majboor Karti hai..
जवाब देंहटाएंफ़रीद जी को पढ़ना सुखद है। ज़मीन से जुड़ी हुई कविताएं।
जवाब देंहटाएंबहुत ही मौज़ू। मुझे ज़्यादा द्रवित करने वाला साहित्य पसन्द नहीं पर फिर भी सभी कविताएं बढ़िया हैं। सबसे बढ़िया मुझे औरतों की बातें सुनाई नहीं देतीं हम भारत के लोग लगीं। हम भारत के लोग को तो गीत के रूप में भी लिखना चाहिए। जिसे लोग गा सकें! युवाओं का उद्घोष बन सकता है वो गीत।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविताएँ। समसामयिक विद्रूपताओं को रेखांकित करती। मुझे औरतों की बाते सुनाई नहीं देती और सो गए विशेष रूप से अच्छी लगीं। कवि को बधाई।
जवाब देंहटाएंबेहद सुंदर कवितायें फ़रीद जी।ज़मीन से जुड़ी और भावनाओं से भरी हुई 😊
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविताएं दिल को छूती हुईं
जवाब देंहटाएंफरीद की कविताएँ अपने समय और समाज को इस तरह देखती हैं कि जिस पर आम तौर पर आपकी नजर नहीं जाती वह भी साफ़ नज़र आता है|
जवाब देंहटाएंDada Prnam, bahut hi Kamal aur khoobsurat hai aapki sabhi kavitaayen .
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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