(कथाकार
रणेंद्र के सौजन्य से : Photo by Igor
Prosto Igor ) |
साहित्य की अपनी कोई राजनीति नहीं
होती, साहित्य समाज की राजनीति करता है और इसके लिए समाज को समझने और उसे बेहतर
करने की इच्छा शक्ति उसमें होनी चाहिए. कविता का सौन्दर्य साहस और संघर्ष से भी
निखारा जा सकता है. कबीर इस अर्थ में बड़े राजनीतिक कवि हैं. समाज की राजनीति के
मूल जाति और धर्म को उसकी वास्तविकता में वह समझते हैं और उसे अनभय होकर सम्बोधित
करते हैं.
आधुनिक हिंदी कविता में इस धारा का
विकास हुआ है. पंकज चौधरी की कविताएँ इसका प्रमाण हैं. जाति, वर्ग और धर्म
के इस त्रिगुट की राजनीति को वह तिलमिला
देने के हद तक अभिव्यक्त करते हैं. उनमें
कबीर की ही तरह गहरे व्यंग्य करने का हुनर
है.
उनकी कुछ नई कविताएँ प्रस्तुत
हैं.
पंकज चौधरी की कविताएँ
रेणु का शुद्धिकरण
कोई
उन्हें मुखर्जी बता रहा है
कोई
उन्हें चटर्जी
कोई
उन्हें भट्टाचार्जी बता रहा है
कोई
उन्हें बनर्जी.
कोई
उन्हें कोइराला बता रहा है
कोई
उन्हें सिन्हा
कोई
उन्हें झा बता रहा है
कोई
उन्हें मिश्रा.
कोई
उन्हें पाठक बता रहा है
कोई
उन्हें त्रिपाठी
कोई
उन्हें शर्मा बता रहा है
कोई
उन्हें पांडे.
कोई
उन्हें सिंह बता रहा है
कोई
उन्हें ठाकुर
कोई
उन्हें चौहान बता रहा है
कोई
उन्हें सिसोदिया.
मैला
आंचल, परती
परिकथा
आदिम
रात्रि की महक, मृदंगिया,
पंचलाइट,
संवदिया
ठेस,
तीसरी कसम के रचनाकार को
महानता
के वृत्त में
मंडल
(धानुक) बनाकर
कैसे
शामिल किया जा सकता है?
हम और कम हिंदुस्तानी हो रहे
पहले
से अधिक हम भूमिहार हो रहे
पहले
से अधिक हम ब्राह्मण हो रहे
पहले
से अधिक हम राजपूत हो रहे
पहले
से अधिक हम कायस्थ हो रहे.
पहले
से अधिक हम वैश्य हो रहे
पहले
से अधिक हम बनिया हो रहे.
पहले
से अधिक हम जाट हो रहे
पहले
से अधिक हम गुर्जर हो रहे.
पहले
से अधिक हम यादव हो रहे
पहले
से अधिक हम कुर्मी हो रहे
पहले
से अधिक हम कुशवाहा हो रहे.
अब
हम भी कुम्हार हो रहे
अब
हम भी कहार हो रहे
अब
हम भी हज्जाम हो रहे
अब
हम भी बढ़ई हो रहे.
अब
हम भी चमार हो रहे
अब
हम भी दुसाध हो रहे
अब
हम भी खटिक हो रहे
अब
हम भी वाल्मीकि हो रहे.
अब
हम भी मुसलमां हो रहे.
पहले
से हम और कम हिंदुस्तानी हो रहे!
प्रेम
पहला
भाजपाई है
तो
दूसरा कांग्रेसी
तीसरा
समाजवादी है
तो
चौथा मार्क्सवादी
पांचवां
सपाई है
तो
छठा लोजपाई
सातवां
तेदेपाई है
तो
आठवां शिवसेनाई
पहला
प्रचारक है
तो
दूसरा विचारक
तीसरा
राजनेता है
तो
चौथा अभिनेता
पांचवां
समाजशास्त्री है
तो
छठा अर्थशास्त्री
सातवां
कविगुरु है
तो
आठवां लवगुरु
एक
राजस्थान का रहने वाला है
तो
दूसरा पंजाब का
तीसरा
कर्नाटक का रहने वाला है
तो
चौथा बंगाल का
पांचवां
यूपी का रहने वाला है
तो
छठा बिहार का
सातवां
दक्षिण का रहने वाला है
तो
आठवां मध्य का
पहला
सांवला है
तो
दूसरा भूरा
तीसरा
तांबई है
तो
चौथा लाल
पांचवां
कत्थई है
तो
छठा गेहुंअन
सातवां
नीला है
तो
आठवां पीला
फिर
भी इनमें कितना प्रेम है
इस
प्रेम का कारण
कहीं
इनकी जाति का मेल तो नहीं है?
भारत
का यह कैसा खेल है!
साहित्य में आरक्षण
मैं
कहां कह रहा हूं कि
तुम
शेक्सपीयर नहीं हो?
गेटे
नहीं हो?
वर्ड्सवर्थ
नहीं हो?
वाल्ट
व्हिटमैन नहीं हो?
इलियट
नहीं हो?
एजरा
पाउंड नहीं हो?
पाब्लो
नेरूदा नहीं हो?
नाजिम
हिकमत नहीं हो?
तुम
सब हो
औेर
तुम्हारी असाधारणता का
मैं
क्या
आकाश,
सूर्य,
चंद्रमा,
सितारे
पृथ्वी,
महासागर भी साक्षी हैं.
तुम
जो नहीं हो
वही
तो वह है.
तुम
जेनरल कैटेगरी में टॉपर कवि होते हुए भी
रिजर्व
कैटेगरी के कवि हो!
उदाहरण
उसने
पच्चीस हजार के कपड़े खरीदे
बीस
हजार के जूते
अस्सी
हजार के गहने खरीदे
और
बीस हजार के खिलौने
उसने
दस हजार के फल-फूल भी खरीदे
तो
बीस हजार के मेवा-मिष्ठान्न.
ये
सब खरीदारियां
उस
दोस्त के सामने होती रहीं
जिसको
फकत दो हजार की दरकार थी
कर्ज
के रूप में.
मुंह
खोलकर बोला था उसने
लेकिन
आंखें नम कर चला आया.
अहम् ब्रह्मास्मि् ऊर्फ कोरोना वायरस
भूमिहार
सभा, भूमिहार
चेतना समिति
भूमिहार
विचार मंच, भूमिहार
प्रेरणा स्थल
भूमिहार
अभ्युदय दल, भूमिहार
मोर्चा
ब्राह्मण
सभा, ब्राह्मण
बचाओ समिति
ब्राह्मण
विचार मंच, ब्राह्मण
निर्माण स्थल
ब्राह्मण
उत्थान संघ, ब्राह्मण
हितकारिणी दल
राजपूत
सभा, राजपूत
जागृति मंच
राजपूत
उत्थान संघ, राजपूत
सेना
राजपूत
सम्मेलन, राजपूत
समाज सेवक संघ
कायस्थ
महासभा, कायस्थ
हिन्दू संघ
कायस्थ
जागरण मंच, कायस्थ
मिलन समारोह
कायस्थ
मेल, कायस्थ
प्रकोष्ठ, कायस्थ
एक्सप्रेस
वैश्य
महासभा, वैश्य
प्रेस, वैश्य
महारैली
अग्रवाल
विचार मंच, मोदी
युवक संघ
केजरीवाल
धर्मशाला, माहेश्वरी
प्रकाशन
कलबार
कॉलेज, तैली
दैनिक, सुनार
दर्पण
जाट
किसान मंच, जाट
अखाड़ा
जाट
मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल, जाट
अधिकार महासम्मेलन
गुर्जर
विकास पार्टी, गुर्जर
औषधालय
गुर्जर
आरक्षण समिति, गुर्जर
भोजनालय
यादव
महारैली, यादव
महासभा, यादव
विश्वविद्यालय
कुर्मी
सनलाइट सेना, कुर्मी
राजनीतिक दल, कुर्मी
मंदिर
कुशवाहा
पाठशाला, कुशवाहा
राज, कुशवाहा
संगम
‘’ब्रह्मजन
सुपर-100’’
अरे
ओ जात-पात में लिथड़े अगम-अगोचर, आपादमस्तक
ब्रह्मज्ञानियो,
अब
तक तुमने यही किया
जीवन
यही जिया
बताओ
तो अपने अलावा
किस-किसके
लिए तुम दौड़ गए?
करुणा
के दृश्यों से हाय! मुंह मोड़ गए
बन
गए पत्थर
अपने
लिए बहुत-बहुत ज्यादा लिया
दिया
बहुत-बहुत कम
मर
गया देश, अरे
जीवित रह गए तुम.
(कविता
में अंत की पंक्तियां मुक्तिबोध की कविता ‘’अंधेरे
में’’ से
साभार और सायास ली गई हैं.)
कोरोना और दिहाड़ी मजदूर
यह
उमड़ते हुए जनसैलाब जो आप देख रहे हैं
यह
किसी मेले की तस्वीर नहीं है
या
किसी नेता-अभिनेता का रैला भी नहीं है
यह
तस्वीर है
साहित्य
में वर्णित उन भारत भाग्यविधाताओं की
जो
दिल्ली, मुम्बई,
बेंगलुरु,
चंडीगढ़
गुड़गांव,
नोएडा,
गाजियाबाद जैसे स्मार्ट महानगरों
के निर्माता हैं.
तस्वीर
में छोटे-छोटे बच्चे जो दिख रहे हैं
और
उनके माथों पर भारी-भारी मोटरियां
वे
उनके दुखों और संतापों की मोटरियां हैं
वही
मोटरियां लेकर वे
अपने
तथाकथित वतन से परदेस को आए थे
और
फिर वही लेकर
परदेस
से अपने वतन को लौट रहे हैं.
हजारों
किलोमीटर की वतन वापसी के लिए
उनके
पास न कोई हाथी है, न
कोई घोड़ा है
वहां
पैदल ही जाना है.
रास्ते
में उन्हें सांप डंसेगा या बिच्छू
घडि़याल
जकड़ेगा या मगरमच्छ
पैरों
में छाले पड़ेंगे या फफोले
सूरज
की आग जलाएगी या बारिश के ओले
इसकी
चिंता करके भी वे क्या कर सकते हैं.
परदेस
में उनके हाथों को जब कोई काम ही नहीं रहा
घरों
से उनको बेघर ही कर दिया गया
राशन
की दुकानें जब खाक ही हो गईं
तब
वे करें तो क्या करें
जाएं
तो कहां जाएं.
वे
उसी वतन को लौट रहे हैं
जिनको
मुक्ति की अभिलाषा में छोड़ना
उन्हें
कतई अनैतिक-अनुचित नहीं लगा था
यह
जानते हुए भी
फिर
वहीं लौट रहे हैं
कि
वह उनके लिए किसी नरक के द्वार से कम नहीं है
उन्हें
पता है कि
जिनसे
मुक्ति के लिए उन्होंने गांवों को छोड़ा था
वे
उनसे इस बार कहीं ज्यादा कीमत वसूलेंगे
उन्हें
उनकी मजूरी के लिए
दो
सेर नहीं एक सेर अनाज देंगे
उनके
जिगर के टुकड़ों को
बाल
और बंधुआ मजदूर बनाएंगे
उनकी
बेटियों-पत्नियों को दिनदहाड़े नोचेंगे-खसोटेंगे
शिकायत
करने पर
डांर
में रस्सा लगाकर
ट्रकों
में बांधकर गांवों में घसीटेंगे
सर
उठाने पर सर कलम कर देंगे
आंखें
दिखाने पर आंखें फोड़ देंगे
नलों
से पानी पीने पर गोली मार देंगे
गले
में घड़ा और कमर में झाडूं फिर से बंधवाएंगे
जो
कमोबेश अभी भी गांवों में लोगों को भुगतना पड़ता है.
भारतीय
संविधान ने उनमें आजादी के जो पंख लगाए थे
वे
फिर से कतरे जाएंगे
मनुष्य
की गरिमा की अकड़ ढीली किए जाएंगे.
वे
जाएं तो जाएं कहां
करें
तो करें क्या.
अंधकार
युग में उन्हें ही क्यों ढकेला जा रहा है?
और
तो सवैतनिक अवकाश पर हैं
अपने-अपने
घरों में सुरक्षित हैं
और
वे सड़कों पर दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं!
पीछे
कुआं था तो आगे खाई है
उनके
जीवन की यही कहानी है.
कोरोना
महामारी होगी
लेकिन
उनके लिए तो यह दोहरी-तिहरी महामारी है!
सारी
सभ्यताएं नदियों और नगरों की सभ्यताएं हैं
पहली
बार कोई नागर सभ्यता
उनके
लिए अभिशाप बनाई गई है.
वे
जाएं तो जाएं कहां
वे
करें तो करें क्या.
कबीर और कोरोना
यदि
वह ईश्वर है
भगवान
है
तब
फिर किसी मंदिर की मूर्तियों में ही कैसे कैद है?
यदि
वह अल्लाह है
खुदा
है, रहमान
है
तब
फिर किसी मस्जिद में ही क्यों खुदाया है?
यदि
वह गॉड है
तब
फिर कोई गिरिजाघर ही उसका क्यों घर है?
वह
क्या है, नहीं
है
इस
आपद् घड़ी में हमें बता दिया है
कि
जिसने इस पूरे ब्रह्मांड को रचा है
वह
मूर्तियों में कैसे समा सकता है?
वह
मस्जिद की दीवारों में क्योंकर खुदाएगा?
वह
गिरिजाघरों में क्यों दुबक जाएगा?
इस
महामारी में
जब
उसके अनुयायी भी
अपने-अपने
घरों में नजरबंद हो चुके हैं
वह
अपने निवासस्थानों को छोड़कर क्यों भाग जाएगा?
जिसकी
खोज
हजारों-लाखों
साल से जारी है
वह
किसी मंदिर, मस्जिद,
गिरिजाघर में
कैसे
मिल जाएगा?
जिसका
कोई रूप नहीं है
कोई
आकार नहीं है
वह
कैसे बार-बार
किसी
रूप में अवतार लेगा?
जो
दसों दिशाओं में है
आठों
पहर में है
जो
नृत्य करते पत्तों में है
पछाड़
खाते समुद्र की लहरों में है
जो
संगीत में है
जो
दीदारगंज की यक्षिणी में है
जो
पहाड़ों पर है
मैदानों
में है
जो
झूमती हवाओं में है
सूरज
की सुनहरी धूप में है
जो
खिलते फूलों में है
पत्रहीन
नग्न गाछों में है
जो
बिरहमन में है
जो
दलित में है
जो
शेख में है
जो
पसमांदा में है
जो
पंजाब में है
जो
ओडिशा की कालाहांडी में है
जो
काकेशियन में है
जो
अफ्रीकन में है
जो
साईबेरिया के बर्खोयानस्क में है
जो
अमेरिका की डैथ वैली में है
जो
बच्चों के आंसुओं में है
जो
उनकी मुस्कानों में है
जो
मुझमें है
जो
तुझमें है
वह
कहां नहीं है!
जो
निर्गुण है
उसे
किसी खास गुण में
किसी
खास स्थान पर
कैसे
बांध पाओगे?
यह
बात
कबीर
बाबा ने
कितना
पहले समझा दी थी!
मनुष्य प्रदत्त दुख को भी प्रकृति धोती है
मनुष्य
जब मुझे दुखी करता है
प्रकृति
से वह देखा नहीं जाता
मुझे
खुश करने के लिए वह
सौ
तरकीबें ढूंढती है
आत्मा
से आंसू लूढके
उससे
पहले ही उसको थाम लेती है.
मनुष्य
प्रदत्त दुख को भी प्रकृति ही धोती है.
प्रकृति
की एक खासियत और है
वह
दुख देती भी है तो सुख देने के लिए
मनुष्य
दुख देता है तो सुख देने के लिए नहीं.
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pkjchaudhary@gmail.com
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पंकज चौधरी
सितंबर, 1976 कर्णपुर, सुपौल (बिहार
प्रकाशन : कविता संग्रह 'उस देश की कथा' तथा पिछड़ा वर्ग और आंबेडकर का न्याय दर्शन (संपादित)
बिहार राष्ट्रंभाषा परिषद का 'युवा साहित्यकार सम्मान', पटना पुस्तक मेला का 'विद्यापति सम्मान' और प्रगतिशील लेखक संघ का 'कवि कन्हैोया स्मृति सम्मान'.
कुछ कविताएं गुजराती,अंग्रेजी आदि में अनूदित
pkjchaudhary@gmail.com
सुन्दर कविताएँ
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार कविताएँ। बधाई सर।
जवाब देंहटाएंसीधे प्रहार करती कविताएँ. वाह.
जवाब देंहटाएंपंकज चौधरी की ये बेधक कविताएँ हमारे देश, समाज और साहित्यिक दुनिया का निर्मम लेखा-जोखा है । इनमें व्यंग्य की तेज़ धार है । जैसे जैसे हम नए समय में प्रवेश करते हैं उतने ही जातिवादी, जाहिल और आदिम होते जाते हैं । यहाँ पीड़ा की अभिव्यक्ति के साथ प्रतिकार के कौड़े भी हैं । पंकज चौधरी के यहाँ हमारे समय की विडम्बना और विद्रूप प्रभावी ढंग से व्यक्त हुए हैं । पंकज चौधरी और समालोचन का आभार ।
जवाब देंहटाएंबड़े सवाल उठाती कविताएं। बेधक। जातिवाद पर गहरा प्रहार करती कविताएं। पंकज चौधरी जी हमारे समय के सवालों को तरतीब से अपनी कविताओं में उठाते हैं। सच की पक्षधरता पंकज भाई की कविताओं का मूलगामी संकल्प है। मैं पंकज चौधरी जी को, अरुण देव जी को, समालोचन को बहुत बधाई देता हूँ। समालोचन के ऐसे कामों से हम सब सम्बल पाते हैं। समालोचन का पथ प्रशस्त रहे
जवाब देंहटाएंवाह! क्या खूब कहा कि सारी सभ्यताएं नदियों व नगरों की सभ्यताएं है।
जवाब देंहटाएंजड़ता पर प्रहार करने वाली प्रवाहपूर्ण कविताएं।
जवाब देंहटाएंपंकज चौधरी अपनी बात साफ-साफ, बिना हकलाए कहते हैं।
जवाब देंहटाएंपंकज भाई की कविताओं को अनेक नज़रिए से देखा जा सकता है. उनकी कवितायें जाति- विमर्श की, श्रम के दोहन की कवितायें हैं जिनमें मुक्तिबोध , कबीर, ‘रेणु’ जैसे मानवता के काल यात्री मौजूद रहते हैं.
पंकज भाई की कवितायें अपनी डिटेलिंग के साथ शक की कोई गुंजायश नहीं छोड़ती. आप या तो असहमत हो सकते हैं या सहमत. बीच का कोई रास्ता नहीं है. जातीय – विमर्श में पंकज भाई की कवितायें उन तथाकथित दीन- हीन और vulnrable कहे जाने वाले समुदाय की मजबूत आवाजें हैं, जो ब्राह्मणवादियों – पितृसत्तात्मक वर्चस्व वाले संस्थाओं- संगठनों को चुनौती देती है. उत्तर भारतीय सामाजिक – सांस्कृतिक संरचना में जातीय- प्रतिरोध की मजबूत आवाज है, नया आत्मविश्वास है, चुनौती है.
‘कोरोना और दिहाड़ी मजदूर’ कविता मुझे नोचती है, घायल करती है, जख्म देती है. शताब्दियों में उत्पीड़ित मानव- समुदाय ने जो जीतें हासिल की थी, वो फिर छीनी जा रही है. कोरोना वर्चस्वादियों के लिए एक अवसर बनकर आया है. गाँव में मजदूर नहीं लौटना चाहते , लेकिन उनके पास कोई विकल्प नहीं छोड़ा गया. अब फिर से बंधुआ मजदूरी , बाल मजदूरी , सेर भर अनाज के बदले में नव- सामंतों के यहाँ खटना, स्त्रियों के शरीर का हिंसात्मक शोषण—सब ख़तरे आसन्न हो गये हैं.
“भारतीय संविधान ने उनमें आज़ादी के जो पंख लगाए थे
फिर कतरे जायेंगे.
मनुष्य की गरिमा की अकड़ ढीली किये जायेंगे .”
जो इन पंक्तियों का मर्म नहीं समझते, वे या तो नादाँ बच्चे हैं , या फिर शैतानी ताकतों से समझौताबद्ध.
ये कविता समकालीन वैश्विक परिदृश्य में कविताई शैली का दस्तावेज है.
बधाई तो कह ही सकता हूँ पंकज भाई. आप हिंदी कविता के भविष्य है.
झूठ की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि युग बीत जाते हैं, बुद्ध से लेकर कबीर से होते हुए, वर्तमान समय तक न जाने कितने विचार आते हैं, कितनी क्रांतियाँ होती हैं, कितने साहित्य रचे जाते हैं, पर झूठ की जड़ें हम उखाड़ फेंकने में समर्थ, सक्षम नहीं हो पाते। जाति और संप्रदाय, ये दो ऐसे ही झूठ हैं जो मनुष्यता को लगातार कमजोर करते रहे हैं, जिस कारण प्रेम दुखी, उदास हुआ है।
जवाब देंहटाएंभाई पंकज चौधरी की कविताओं में हम इन्हीं दो झूठों के विरुद्ध मनुष्यता के भीतर उपजे आक्रोश की प्रतिध्वनि सुनते हैं। कवि के भीतर का प्रेम दुखी है, उदास है। कवि समाज-संसार की जड़ता, उसकी मृत अवधारणाओं और रूढ़िवादी सोच पर प्रहार करता है, ताकि मनुष्यता को शक्ति मिले, प्रेम को बल मिले! सच्चाई के पक्ष में खड़ी, झूठ की जड़ों पर प्रहार करती इन कविताओं के लिए पंकज चौधरी को बधाई, और अरुण देव जी का आभार जिन्होंने अपने समय की जरूरी कविताओं को 'समालोचन' जैसे महत्वपूर्ण पटल पर स्थान दिया!
पंकज भाई में व्यंग्य करने का हुनर है, लेकिन मेरी नजर में वे आमतौर पर सीधी चोट करते हैं, जो टारगेट को कंपा दे! सीधे और साफ लहजे में तल्ख स्वाद वाला आईना सामने कर देना उनकी ताकत और खासियत है।
जवाब देंहटाएंउनकी कविताएं एसर्शन की कविताएं हैं, उन्हें व्यंग्य के रूप में देखना उसकी ताकत और महत्त्व को कम करके आंकना है। व्यंग्य अपने असर में सत्ता को बहुत तकलीफ नहीं देता है। धूर्त सत्ताएं आमतौर पर उसकी अनदेखी करके या फिर उसे हास्य ठहरा कर मजा लेकर चुप रह जाती हैं, लेकिन सीधी चोट उसकी असली चिंता होती है।
वैसे भी धूर्त और छलवादी सत्ताओं के बरक्स अगर समान स्तर के छलवाद का ज्ञान नहीं है, तो सीधा सामना और सीधी चोट ही कारगर हथियार होती है। पंकज भाई, उसी हथियार के योद्धा हैं।
एक रौ में सारी कविताएँ पढ़ लीं। पढ़ क्या लीं, कविताएँ खुद, बिना किसी खुशामद के, पढ़ा ले गईं। बहुत धारदार कविताएँ। सिर्फ भारतीय समाज और चुनावी राजनीति में ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में भी हावी जातिवाद और जातिगत समीकरणों को बेबाकी से बेनकाब करने का पैनापन और साहस कवि पंकज चौधरी में बखूबी दिखता है, जो अमूमन हिंदी कविता के वर्तमान परिदृश्य में दुर्लभ है। इसके कारण भी इन्हीं जातिगत समीकरणों, दुराग्रहों और दुर्खेलों में सहज तलाशे जा सकते हैं। पंकज चौधरी की कविताओं में जातिगत यथार्थ और इनसे जन्मा विद्रूप इतना तीखा और वीभत्स है कि वहाँ शिल्प और कला की कलाबाजी करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। कविताएँ अपनी बात इन बैसाखियों के बिना भी बखूबी कह देती हैं। और हाँ, पंकज चौधरी अपनी आक्रामकता में किसी को नहीं बख्शते। न इधर के लोगों को, न उधर के लोगों को। और साहित्य में यह सब करने वालों के लिए उनकी कविताएँ बहुत बड़ा तमाचा तो हैं ही। बहुत बहुत बधाई पंकज भाय। और समालोचन को भी कि वहाँ बड़े संपादकीय दायित्व का निसंकोच निर्वाह किया गया।।
जवाब देंहटाएंपंकज जी की कविताएं एक ओर जहां हमारे समय की विसंगतियों को सामने लाती है , वहीं जातिवाद जैसे गंभीर मुद्दे पर भी बात करती है। सभी कविताएं अच्छी लगी।कवि को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंपंकज चौधरी समय के साथ चलने वाले कवि हैं। वे हर तरफ देखते हैं और अन्याय को बारीकी से पहचान लेते हैं, इसलिए इनकी कविताओं में अन्याय करने वाले के खिलाफ गुस्सा दिखता है। वे जिस साहस से जातीय वर्चस्ववाद पर सवाल उठाते हैं, उसी शिद्दत से साम्प्रदायिकता पर भी प्रहार करते हैं।
यहां प्रस्तुत उनकी कविताएं समय की करवट को बखूबी बयां कर रही हैं।
यशस्वी प्रिय पंकज की कविताएँ हमारे जीवन-समाज के अन्तर्विरोध, छद्म और पाखंड को सीधे-सीधे खोलकर रख देती है। कवि बिना किसी भेद व आग्रह के अपने भारतीय समाज में व्याप्त जाति-वर्ण एवं धन के छद्म एवं विडम्बना को साहस एवं सरोकार से उजागर करता है, जिसके कारण हम भारतीयों का एक नागरिक व मनुष्य होना रह गया है। ये कविताएँ हमारे वर्तमान भारतीय समाज का सच्चा श्वेतपत्र है। कवि पंकज को बहुत साधुवाद है कि उन्होंने भारतीय जीवन-समाज की असली नब्ज पकड़ी है। फिलहाल उनके उज्जवल व सुखद भविष्य की सतत हार्दिक कामना।
जवाब देंहटाएंपंकज की कविताएं बहुत तेज चुभती हैं. कभी-कभी माथा भी झनझना देती है. पंकज की कविताओं को शिल्प और मेटाफर की जरूरत नहीं पड़ती है. पंकज की कविताएं सीधे और एकदम सामने से प्रहार करती हैं. शिल्प की जरूरत तो उनको होती है जो सच कहने से पहले हजार बार सोचते हैं और सच के लिए शिल्प और मेटाफर के खोल का सहारा लेते हैं. जो सच है वो खालिस सच है. नंगा और पारदर्शी सच.
जवाब देंहटाएंजाति एक सच है और जो इससे भागता है वो पाखंड रचता है. पंकज की कविताओं में जाति एक अनिवार्य तत्व है. क्यों न हो कविता में जाति? आखिर जातियों के राजनीतिकरण से ही तो लोकतंत्र मजबूत हो रहा है. मगर पंकज जातियों के राजनीतिकरण से ज्यादा कबीर की तरह कविताओं में जाति को लाते हैं. बहुत जिगड़ा वाला ही कोई इंसान होता है जो इस पाखंड भरी दुनिया में खुद को वर्णहीन घोषित करे. ऐसे कुछ महान लेखक हुए हैं. खैर.. पंकज चौधरी की कविताएं इसी तीक्ष्णता के साथ समाज के कुत्सित सच को नंगा करती रहे इसी उम्मीद के साथ...
पंकज जी की कविताएँ जाति-विन्यास को प्रकट करती हैं। इनमें जाति के सच को कई तरह से व्यक्त किया गया।
जवाब देंहटाएंकोरोना काल में परेशान लोग कौन हैं! पंकज जी ने बारीकी से पेश किया है कि ये वो लोग हैं जो गाँव के अन्याय से परेशान होकर महानगरों की तरफ गए थे। जाति-विन्यास की दृष्टि से इनमें से ज्यादातर लोग दलित-पिछड़ी जातियों से है। शोषण को पहचानने की नई शैली मौजूद है जाति-विन्यास की काव्य-भाषा में!
समालोचन का इस पाठक की तरफ से आभार और कवि पंकज चौधरी को बधाई!��
जवाब देंहटाएंहर कोण को समेटती हुई यथार्थपरक मारक कवितायेँ .....पंकज चौधरी जी को बधाई
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