मनुष्य भी जानवर है, पर विकसित होकर उसने सबसे बुरा व्यवहार जानवरों से ही किया, जो उपयोगी थे
उन्हें पालतू बना लिया. कहते हैं कुत्ते मनुष्य के सबसे पुराने साथी है. हजारों
साल के इस ‘साथ’ ने मनुष्यों में सहअस्तित्व की कुछ रेखाएं तो खींचीं हैं हालाँकि
वे गहरी नहीं हैं. गहरी होतीं तो हथिनी के गर्भाशय को मनुष्य विस्फोट से क्यों
उड़ाता?
यह संस्मरण कुत्ते बीजो पर है. रंग-आलोचक सत्यदेव त्रिपाठी पशुओं (पालतू) पर
लगातार लिख रहें हैं. बैलों पर लिखा उनका संस्मरण आपने समालोचन पर पढ़ा है. कुछ
वर्ष पहले कवि-आलोचक गणेश पाण्डेय ने कुत्ते पर पूरा उपन्यास लिखा था- ‘रीफ़’.
यह अंक उस हथिनी
और उसके बच्चे को मनुष्यों की तरफ से क्षमा याचना करते हुए प्रस्तुत हैं.
संस्मरण
बीजो की यात्रा
सत्यदेव त्रिपाठी
26 अप्रैल, 2020 को अपना बीजो
हमें छोड़कर अपनी महायात्रा पर निकल गया. कोरोना न आया होता, तो 26-27 अप्रैल को मैं मुम्बई में
उसके पास होता.
लेकिन इस महामारी की तालेबन्दी (लॉकडाउन) लगने के समय इत्तफाक़ से मैं अपने गाँव (आज़मगढ़) के घर पहुँच गया था. और सबसे सुरक्षित जगह रहने पर इतरा ही रहा था कि बन्दी का
ठीक एक महीना बीतते-बीतते 21 अप्रैल की सुबह मुम्बई से कल्पनाजी (पत्नी) का भेजा वीडियो आया, जिसमें फर्श पर नीमबेहोशी में लेटे बीजू के सूजे
नथुने और भारी हो आये मुँह से बहती लार देखकर यह इतराना परम दुर्भाग्य का सबब लगने
लगा. उसके अंतिम प्रयाण के आसार साफ दिख रहे थे. अंत समय साथ न हो पाने का क्लेश
सालने लगा था, किंतु उसकी उत्कट जिजीविषा और डॉक्टर उमेश
जाधव की चिकित्सा पर कहीं भरोसा भी था और 14 सालों के अपने
गहन लगाव व गाढ़े सह-वास की भावात्मक आस्था का सम्बल भी. इसी के बल विश्वास-सा था कि चार सालों से ढेरों स्वास्थ्य-संकटों से ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ के बल जिस तरह पार पाता रहा है, अब इस आसन्न मौत को भी मेरे आने तक टाल ही देगा. लेकिन काल से अपनी इस अंतिम
होड़ में वह पाँच दिन ही जूझ पाया. शायद उसे भी मेरे-अपने आसंगों के
चलते भरोसा था कि चाहे कहीं रहूँ, उसके पास पहुँचने के लिए मुझे एक दिन काफी है.
लेकिन इस बार के प्रकोप की वैश्विक विवशता से वह बेचारा अनजान था और मैं मजबूर....
कोरोना-बन्दी के बावजूद अकुल (बेटे) की तत्परता से डॉ. जाधव लगभग रोज़ ही उपचार के लिए आते रहे. जो कुछ
भी उचित व कारग़र लगा, करते रहे- सुई (इंजेक्शन) लगाते रहे, दवाएँ चढ़ाते रहे.
तल्लीन सम्मोहित-सी अवस्था में बेटा उनके साथ मंत्रवत सबकुछ कराता रहा. पहले दिन ही जाँच के लिए ख़ून ले गये– कैंसर का
अन्देशा था. गले में बड़ी-सी गिल्टी निकल आयी थी. पानी के अलावा कुछ अन्दर जा न रहा
था. हाँ, अपने बेहद पसन्दीदा पेडिग्री के दो-चार दाने अवश्य किसी-किसी तरह निगल
ले रहा था. प्राय: हर गतिविधि को मोबाइल में कैद करके भेजती हुई
कल्पनाजी यथासम्भव मेरी अनुपस्थिति की पीड़ा को पूरने का उपक्रम करती रहीं. मैं
चित्रलिखे-सा देखता रहा...जिन्दगी भर खाने पर इतना ज़ोर देने वाला, मेरी तरह खाने के लिए कुख्यात बीजो के न खा पाने की दयनीयता देखी न जा रही थी.... आख़िर परसों सुबह 11 बजे के वीडियो में डॉक्टर के परीक्षण के दौरान
ही उसकी साँस थमने और अकुल द्वारा नयी मोटी चद्दर में लपेटे जाने तथा इन
कोरोना-दिनों के ख़ास सेवक राहुल के सहयोग से गाड़ी की डिक्की में रखने और डिक्की के
बन्द होने के दृश्य के साथ लगभग चौदह सालों की उसकी इहलीला का पटाक्षेप हो गया.... बीजो की जिन्दगी का कारवाँ गुज़र गया, हम गेट के बाहर
निकलती बेलिनो की डिक्की देखते और हाथ मलते रह गये....
पहली प्रतिक्रिया मन में उभरी– चलो, मुक्त हुआ, बहुत हलकान हो रहा था. हमें भी राहत हुई– सर्वाधिक कल्पनाजी को, क्योंकि सबकुछ के बावजूद आठो याम की अनिवार्य
देखरेख तो अंतत: उनके माथे ही भींजती थी. लेकिन मुक्ति की राहत का ख्याल नितांत
फौरी निकला. घर से उसके जाते ही सूनापन पसरने लगा– घर में, मन में...बीजू की जोड़ीदार चीकू की सूनी आँखों और मूक बेचैनियों में, परेल स्थित श्वान-श्मशान में दफ़ना के एक-डेढ बजे के
आसपास बेटा लौट आया था. इसके बाद कुछ हाल-चाल लेने-देने के लिए जैसे बचा ही न हो.... हालाँकि बीजो यहाँ गाँव
भी आया था मेरे साथ. तीन-चार दिन रहा था. पूरे गाँव की परिक्रमा की थी. उसकी
सुन्दरता व स्वभाव से घर व पास-पड़ोस भी बीजो से काफी मुतासिर है. सुनकर सभी उदास व मेरे
प्रति सदय भी हो रहे, लेकिन मेरी भरी-भरी यादों के
सामने सबके आसंग रीते हैं. अपनी यादों में डूबा मैं तो अकेला... लेकिन वहाँ वे दोनो माँ-बेटे तो मिलके
यादों को बाँटके हल्के हो सकते हैं..’, पर शायद ऐसा हो नहीं पा रहा
है.... हम तीनो ‘अपने ही में हूँ मैं साक़ी, पीने वाला, मधुशाला’ की पूर्णता के
एकांतों में, अपने दिवंगत प्यारे बीजो की तमामोतमाम हलचलों के
सूनेपन में डूब-उतरा रहे हैं.... अब जब वह सदा के दुनियावी
दृष्टि में ओझल हो चुका है, सोते-जागते, उठते-बैठते, उसके रूप-गुण-क्रियादि के एक-एक दृश्य बरबस आँखों में उभर रहे हैं...
सन् 2006 के अक्तूबर वगैरह के किसी दिन की बात है, जब अकुल अपना खुला लैपटॉप लेकर पास आया और एक सुन्दर से श्वान-शिशु की तस्वीर दिखाते हुए पूछा – कैसा लग रहा है यह? मैंने सहज ही
कहा – ‘सुन्दर है...बहुत सुन्दर’. और उसने चहक
कर कहा – ‘तो ले आऊँ’? बताया कि गोरेगाँव के किसी एजेण्ट की मार्फ़त
मिलेगा आठ हजार रुपये में....
‘पैसे से कोई ‘पेट’ (पालतू) नहीं आयेगा’ - मेरा गँवईं
पारम्परिक मन बिदक उठा था.
फिर स्पष्ट किया कि जिस नस्ल-जाति का जैसा
कहो, मैं एक-दो महीने के भीतर मँगा दूँगा, पर पैसे देकर खरीदेंगे नहीं. यदि फिर भी तुम
पैसे देकर लाये, तो हमारा-तुम्हारा हिसाब
अलग-अलग हो जायेगा....
मेरी इस कड़ी और निर्णायक बात को सुनकर उस वक्त तो वहाँ से
हट गया था, पर सप्ताह-दस दिनों बाद सन् 2006 के नवम्बर महीने
की वह छ्ठीं तारीख़ थी, जब सुबह ही सुबह मैं अखबार पढ़ रहा था, आके सामने बैठा और पूर्ण विश्वास के स्वर में स्मित अदा के साथ बोला – डैडी, मैं वह डॉगी लाऊँगा – खरीदके ही लाऊँगा...और हिसाब भी अलग
नहीं करूँगा...’. दो मिनट की अपलक मौन समक्षता के बाद मैं धीरे
से मुस्कुरा उठा और वह हाहा-हाहा करके हँसने लगा.... असल में
लैपटॉप के पर्दे पर बिराजमान उस प्यारी सूरत पर मैं भी रीझ गया था और उसके आने की
कामना कर रहा था.... फिर क्या, उसी शाम इस नायक
का आगमन होके रहा...और फिर तो खरीदकर पेट्स लाने का चलन बन गया. आगे
चलकर पैसे से डोबरमैन श्वान गबरू आया, चित्तू (बिल्ली) आयी और मेरी जडता भी टूटी....
बमुश्क़िल 15-20 दिनों का जन्मा रहा होगा. चेहरा मासूमियत-भोलेपन की सहज मिसाल, जिसमें और इजाफा किये दे रहा था उसका भूसर सफेद (ऑफ व्हाइट) रंग...जो आगे चलकर नहलाने के बाद
उजले जैसा चमकने लगता था. सबसे अधिक ध्यान खींचते थे लप्चे-लटकते व गरदन मुड़ने की अनुहारि पर लचकते कान. आँखों में चहुँओर को देख लेने की
सुस्त जिज्ञासा, किंतु चेहरे पर परम निश्चिंतता के भाव.... तब आँखों के नीचे नाक तक का भाग अपेक्षाकृत लम्बोतरा लगता था, जो उसके बड़े होने के साथ ही मोटाते हुए समरूप होता गया. अपेक्षाकृत मोटी पूँछ
बढ़ने के साथ सानुपातिक रूप से मोटी ही बनी रही, पर शृंगार थी
उसके रूप का.... कुल मिलाकर इतना सुडौल व दर्शनीय था बन्दा कि
बरबस पड़ जाये नज़र, तो पूरा देख लेने पर भी जल्दी न हटे– ‘तिन्ह देखे अली सतभायउँ ते, तुलसी तिन ते मन फेरि न
पाये’. उस नन्हीं-सी हस्ती का
सम्पूर्ण प्रभाव भी बहुत मोहक यूँ था, कि जगह के अनजानेपन या नये लोगों के प्रति
अपरिचय-भाव के निशां तक नहीं थे.... तब तो ख़ैर छोटा था, ऐसी बातों का
उसे पता ही न रहा, पर बड़े होने पर सिद्ध हुआ कि यही उसका स्व-भाव था. उसे ऐसे कुछ की पड़ी ही नहीं थी.... कभी भी कहीं
भी ले जाओ, सहज ही चला जाता- रह लेता. छोटे-छोटे सुघर तराशे-से पैर इतने कोमल लगे थे (बाद में खूब भारी व मजबूत हुए) कि कैसे चलेंगे
की चिंता के साथ ‘इन्हें जमीन पर मत उतारना, मैले हो जायेंगे’ की याद आ गयी थी.
शुक्र ये था कि संक्रमण से बचाने के लिए उसे महीने भर एक कमरे में बन्द रखना था– आज के कोरोना वाली यही सामाजिक असंपृक्ति (सोशल डिस्टैसिंग). सो, उसे रसोईंघर की बगल के कक्ष में रखा गया. इस कूकर जैसी जाति के लिए पहली बार ऐसा करते हुए उस वक़्त अजूबा भी लगा था, पर महीने भर के अनुभव ने इसकी अहमियत को समझा दिया था. फिर कुछ सालों बाद आये गबरू के लिए ऐसी साज-सँभार अनिवार्य लगी– मेरी एक और जड़ता टूटी, आगे चलकर लक्ष्य किया गया कि उसी कमरे में बीजो सर्वाधिक रहना चाहता था– वहीं असली सुक़ून मिलता था उसे.
शुक्र ये था कि संक्रमण से बचाने के लिए उसे महीने भर एक कमरे में बन्द रखना था– आज के कोरोना वाली यही सामाजिक असंपृक्ति (सोशल डिस्टैसिंग). सो, उसे रसोईंघर की बगल के कक्ष में रखा गया. इस कूकर जैसी जाति के लिए पहली बार ऐसा करते हुए उस वक़्त अजूबा भी लगा था, पर महीने भर के अनुभव ने इसकी अहमियत को समझा दिया था. फिर कुछ सालों बाद आये गबरू के लिए ऐसी साज-सँभार अनिवार्य लगी– मेरी एक और जड़ता टूटी, आगे चलकर लक्ष्य किया गया कि उसी कमरे में बीजो सर्वाधिक रहना चाहता था– वहीं असली सुक़ून मिलता था उसे.
अब नामकरण की बारी थी. अकुल का सोचा-समझा नाम आया– Bijou, जिसे हिन्दी में ठीक-ठीक लिखना हो, तो ‘बिजौ’ या ‘बिजोउ’ होगा. उसी ने बताया- यह फ्रेंच शब्द
है, जिसका अर्थ होता है- ज्वेल (जेवेल - Jewel) . आज तो सोने-चाँदी या गहनों की हर दूसरी दुकान ‘ज्वेलरी शॉप’ ही होती है - याने यह शब्द आभूषण के अर्थ में व्यवहृत हो रहा
है. लेकिन ठीक-ठीक कहना हो, तो शायद अभिप्रेत है- ‘रत्न’ या ‘रत्नजड़ित आभूषण’. तात्पर्य बेशकीमत से है. इस भाव के लिए बोलचाल में ज्यादा
प्रचलित शब्द है हीरा– ‘बड़ा हीरा आदमी है हीरामन’ (तीसरी कसम). लेकिन ऐसा अर्थगर्भित नाम ‘बिजौ’ या ‘बिजोउ’ कदाचित उच्चरित तो हो सकता है, लेकिन इससे बुलाना तो बिल्कुल असहज है- पुकारा जाना तो असम्भव. फिर हम घर वाले तो किसी तरह कमोबेस साध भी सके- अर्ध शुद्ध ही सही, हमेशा ‘बीजो’ बोलते रहे, लेकिन सरनाम तो हुआ ‘बीजू’ ही, जिसमें अंग्रेजी का कोई चिह्न तक नहीं – नितांत लोक
शब्द. यहाँ तक भी ठीक था, लेकिन जौनपुर की ठेंठ गँवईं सेविका निर्मला व
गोरखपुर की उषा ने बीजू को हमारे गाँवों में मशहूर ‘नाम’ बना दिया - ‘बिरजू’, जो शुद्ध ‘ब्रजराज’ के ‘बृजराज’ का अपभ्रंश है.
हाईस्कूल में गणित के हमारे सरनाम व सरहँग (डॉमिनेटिंग) अध्यापक ब्रजराज राय ‘बिरजू माट्साहब’ ही कहलाये. और गाँव के दो-तीन दिनों तो अधिकांश ने लाड़ से ‘बिजुआ’-‘बिरजुआ’ कहा.... बहरहाल, फ्रांस से सम्मौपुर (आज़मगढ) तक की यह नाम-यात्रा मेरे लिए ‘एहि कर’ नाम अनेक अनूपा’ के वाचक रूप में बड़ी रोचक रही, जिसमें ‘कहहिं सबै अपने बल बूता’ का सहज गुर भी
शामिल है.... लेकिन फ्रेंच Bijou का यह ह्स्र देखकर अगली बार बेटे ने भारतीय लोक
के मुताबिक विशुद्ध देसी नाम गबरू ही चुना – शब्द-संस्कृति की सही दिशा रवां हुई.
वे दिन सचमुच बड़े सुहाने थे. युनिवर्सिटी से आते ही सबसे
पहले बीजो-कक्ष में जाते और दिन भर की उसकी एक-एक गतिविधि की चर्चा करते, रात-रात को जब उठते, जाके देख-निहार आते. उसकी
तमाम मुद्राओं-गतियों-अदाओं के फोटो लेते रहते. लेकिन वो बात कि पूत के पाँव
पालने में ही दिखते हैं, को साकार करते हुए बीजो की दो आदतें उसकी
अबोधावथा से ही नुमायां होने लगीं- जो भी दो, खा लेता– वैसे देते वही, जो डॉक्टर कहते. और जो कुछ करने के लिए कहो, अपनी समझ के मुताबिक ठीक-ठीक वैसा मानने-करने की कोशिश करता.... हाँ, बचपने में कभी ऐसा भी होता, जब अपने खिलन्दड़ेपन में उसे कहो कुछ, तो करता कुछ.... परन्तु उसकी रूपाकृति के सलोनेपन में उसकी ये
बचकानी शरारतें (चाइल्डिश मिस्चीव्स) भी रमणीय बन
जातीं.... एक बार सुबह घूमते हुए कुछ लंतरानी की. छोटा था, तो डाँटा नहीं, पर बतौर नसीहत दरवाज़े के बाहर छोड़ के दरवाज़ा बन्द कर लिया. सोचा था– अभी चिल्ला के दरवाजा पीटेगा...पर वह चुप. दस मिनट बाद
देखने निकला, तो गायब. होश उड़ गये. जिधर से घुमा के लाया था, उधर ही भागा, तो अपने घर के पीछे वाले रोड पर ठीक बीच में निश्चिंत
बैठा मिला - सर पीट लिया...! लेकिन बुलाया, तो पीछे-पीछे चला आया – जैसे कुछ हुआ ही न हो. ऐसे में कभी शंका भी होती, पगलेट तो नहीं है...!! लेकिन उसकी भलमंसाहत के साथ इस बेफिक्री को मिला
दिया जाये, तो ये सब उसके भावी संतत्त्व की निशानियां थीं.
अच्छी तरह चलने-दौडने लगा था, तब से ही मैं
अपने रोज़ाना के प्रभात-भ्रमण में कभी-कभार उसे जुहू तट पर लिये जाता. पट्टा बिना
लगाये टहलाना ग़ैरकानूनी है, पर मेरी समझ में यह समाता नहीं. शायद यह चेतना (सेंसिबिलिटी) गाँव से बनी है, जहाँ ये लोग
छुट्टे-छुट्टे हमारे पीछे-पीछे सारे खेत-सिवान घूम आते हैं – हल्कू के झबरा (पूस की रात - प्रेमचन्द) की तरह मना करने
के बावजूद. इस प्रकार जिस मुम्बई में पट्टे के बिना कुत्तों को लेके बाहर निकलने
पर जुर्माना और सज़ा आम बात है, उसी में यह गैरकानूनी काम मैं सरेआम आज तक करता
आ रहा हूँ - पूरे विश्वास के साथ – ‘पाप हो या पुण्य
हो, कुछ भी नहीं मैंने किया है आज तक आधे हृदय से’.... सो, अपने इन्हीं सब अनुभवों व धारणाओं से परिचालित उस नन्हें से लगभग आज्ञाकारी
बच्चे बीजो को भी छुट्टा लेकर चलता रहा.... सच में संज्ञान होने के पहले का 3-4 महीने का समय इतना लुभावना बीता कि आज भी उसकी
अनुभूति से तन-मन पुलकित हो उठता है. यूँ तो बुलबुल-गौरैये-तोते, गाय-बैल-भैंसें, कुत्ते-बिल्ली-चूहे...आदि दर्जनाधिक प्राणी हमारे जीवन में आये, जिसमें आधे दर्जन से अधिक तो श्वान
ही रहे. सबने बहुत सुख-दुख दिये, लेकिन इनके दो शीर्ष हैं– बीजो और बच्ची. बच्ची भी रोज़ मथती है, कभी तो अक्षरों में उतरे बिना मानेगी नहीं. लेकिन
बीजो पहला व अब तक का आख़िरी पालतू रहा, जिसका प्रशिक्षण हुआ. खरीदने की तरह यह भी
मेरे मानस में पैठे संस्कारों के अनुरूप न था, पर शहरी चलन और
बीजो के अभिजात नस्ल के मुताबिक कराना तो था ही.
योग्य प्रशिक्षक की तलाश पूरी कर दी मेर मित्र स्व. डॉ. राम सागर पाण्डेय ने. महाराष्ट्र कॉलेज के उनके सहकर्मी, गणित-अध्यापक प्रो. दिनेश हट्ट्ंगड़ी कुत्तों के कुशल प्रशिक्षक (ट्रेनर) थे. पाण्डेयजी के कहने से सप्ताह में तीन दिनों सुबह 7 से 8 बजे तक बीजो को सिखाने आने के लिए सहर्ष तैयार हो गये. हम घर के पीछे जमनाबाई स्कूल के पश्चिमी द्वार के सामने वाली खुली जगह पर चले जाते – वहीं हमने कार चलाना भी सीखा है. नयी पीढ़ी (वह भी मीडिया वाली) की सुबह अमूमन देर से होती है और कल्पनाजी बाहर निकलने में परम आलसी ठहरीं. सो, दोनो एक-दो दिन ही आये. लेकिन मुझे तो बीजो को सीखते देखने का मज़ा लेना था. फिर सर का सिखाना तो लाजवाब. वे ख़ुद कुत्ता पालते भी थे और कुत्तों की कौशल-स्पर्धा (टैलेण्ट कॉण्टेस्ट) के लिए तैयार करते थे, लेके जाते थे. इतना बड़ा श्वान-प्रेमी मैंने दूसरा नहीं देखा. बीजो में रमते थे. उसे सहलाते हुए बतियाते-बतियाते कान के पास यूँ बुदबुदाने लगते गोया कोई मंत्र सिखा रहे हों. कभी यह किसी बड़े षडयंत्र की कानाफूसी लगती, कभी प्रेमी-प्रेमिका की गुह्य गुफ़्तगू...लेकिन इस सबका नतीजा यह हुआ कि बीजो उनके ताल पर नाचने लगा– ‘अनुहरि ताल गतिहि नट नाचा’.... सैल्यूट-बॉय-बॉय...आदि तो प्राथमिक व प्रदर्शन-परक थे, लेकिन काम के थे- ‘सिट’ कहते ही पिछले दो पाँवों पर अधबैठे हो जाना. ‘डाउन’ कहते ही चारो पैरों से बैठ जाना. ‘कम’ पर आ जाना, ‘गो’ पर चले जाना. ‘वेट’ पर जहाँ रहे, वहीं रुक कर बाट देखते रहना और ‘स्टे’ पर जिस मुद्रा में रहे, अगले आदेश तक उसी में रह जाना...आदि. इन उपयोगी सीखों से सम्पन्न हुए बीजो के लिए ‘दण्ड जतिन कर’ के रामराज्य की तरह पट्टे व ज़ंजीर की ज़रूरत ही खत्म हो गयी. ‘वेट’ और ‘कम’ तो इतने उपयोगी हुए कि जुहू जाने में सड़क पार करते हुए गाड़ी-मोटर की भीड़ आ गयी, तो ‘वेट’ कहते ही हमारे पाँव के पास रुक जाता और ‘कम’ कहते फिर चल पड़ता.... कोई मिल गया, बीजो से ‘वेट’ कहके दो मिनट बात कर ली, फिर ‘कम’ कह के चल पड़े.... कुछ खाने-पीने चले, ‘डाउन’ कह दिया, बीजोजी बालू पर पसर के बैठ गये, फिर ‘गेटअप’ कहा, उठ के चल पड़े.... इस सीखने में सर के सिखाने के कौशल के साथ बीजो की ग्राह्यता को भी श्रेय देना होगा.
लेकिन सिखाने का शृंगार तो यह रहा कि प्रशिक्षण के अंतिम
दौर में एक दिन जब हर दिन की तरह सिखाना हो जाने के बाद घर में बैठे चाय पी रहे थे, सर ने एक रुमाल बीजू को दिखाया और फिर घर के दूसरे कमरों में कहीं जाके रख आये.
आके बीजू को ख़ास तरह से टहोका. वह कमरे से निकला और 2-3 मिनटों में
रुमाल लेकर आ गया. यह कैसे–कब सिखाया, हमेशा साथ रहते हुए भी मैं जान न पाया और बीजो
समझ गया– कर लाया. फिर तो बचे लगभग 3-4 दिनों में तरह-तरह की चीज़ो को
छुपाने व भिन्न-भिन्न स्थानों से खोज निकालने की लुका-छिपी (हाइड ऐण्ड सीक) का यह अभ्यास-खेल रोज़ होता.
इस बावत पूछने पर सर ने ही बताया कि बीजू की यह लैब्रे प्रजाति आस्ट्रेलिया मूल की
है. इस प्रजाति को विशेष रूप से विकसित ही इसी प्रयोजन के लिए किया गया है कि मारे
गये शिकार-पक्षी को दूर जाके गन्ध के बल से ढूँढ
लाये.... उन्होंने यह भी बताया कि इस जाति वाले खाने के
लिए किसी की जान ले सकते हैं. लेकिन बाद में पता चला कि बीजो इसमें अपवाद है.
वैसे श्वान मात्र अपनी तेज घ्राण-श्रवण शक्ति के
लिए विख्यात है, पर इस रूप में खास तौर पर विकसित की गयी इस
लैब्रे प्रजाति में ये शक्तियां कई गुना ज्यादा होती हैं. फिर बीजो में इसकी गहराई
भी दिखी. उसे आहट ही नहीं, आहट की पहचान भी होती. अत: बीजो आवाज करे, तो किसी अनहोनी का कयास हो जाता. और यह भान उसे
अगल-बगल के परिसरों का भी होता. उसका भौंकना शेर की गर्जना जैसा होता – दूर तक
जाता. उसकी श्रवण-सीमा भी काफी बड़ी और विश्वस्त थी – क्या चिह्नित (ब्रैण्डेड) सामानों की ही तरह? घर के किसी सिरे
पर लेटे-लेटे उसे पता होता था कि पूरे परिसर में कहाँ-क्या हो रहा है.
बीजो की इस घ्राण-शक्ति की त्रासदी बनकर आता गणेश-विसर्जन. हमारे
घर की बगल वाली सड़क समुद्र की ओर जाती है, तो दोपहर से आधी रात तक तमाम गणपति के
साथ बाजे-गाजे की भयंकर आवाजें जब हमें इतना परेशान करती हैं, तो कई गुना अधिक
श्रवणीयता वाले बीजो के तो कान ही फटने को होते. घर के कहीं भीतरी कोने में छिप
जाता. फिर लैब्रे जाति खूँखार नहीं, प्रेमल होती है. ये नयन-सुखकारक तो होते
ही हैं. इसीलिए सम्भ्रांत इलाकों में जहाँ श्वान-पालन जरूरत व
रुचि से अधिक प्रतिष्ठा का प्रतीक है, इसी प्रजाति के पालतू श्वान बहुतायत में दिखते
हैं – सुबह का जुहू-तट इसका पक्का प्रमाण देता है.
हट्टंगड़ी सर ने प्रशिक्षण में अच्छे कामों पर सराहना के लिए
गले पे सहलाने और ‘गुड ब्वाय’ कहने का गुर बताया. इसका जम के पालन हुआ, सुफल भी खूब मिला. बस मैंने वो ‘गुड ब्वाय’ को ‘अच्छा बच्चा’ कर दिया, तो गुजराती घर
में ‘सरस दीकरो’ भी हुआ. इस तरह बीजो बेचारे को अंग्रेजी के साथ
मेरी हिन्दी और सामान्य रूप से घर की गुजराती भी सीखनी पड़ी. गलती करने पर ज़ोर से ‘नो’ कहना तथा तमाचे मारने की चेतावनी देना, पर मारना नहीं..., की सीख को भी बदस्तूर जारी रखा – सिर्फ ‘नो’ को ‘नहींईंईं’ करके. लेकिन खेद है कि लुका-छिपी वाला चमत्कारी पाठ (लेसन) हमारे किसी काम का न हुआ. रोज़ कुछ खोजवाने का
काम था नहीं और कोई घर आये, तो अपने बच्चे से शो करायें, के प्रदर्शन में हमारी रुचि नहीं. अत: उस नस्ल का
जातीय कौशल तो हम अनाड़ियों के बीच लुप्त ही हो गया. इसी रौ में घुमाने के दौरान
अपने ठीक बाईं तरफ रहते हुए कदम से कदम मिलाकर चलना भी सिखाया था, जो अनुशासन व लोकव्यवहार की दृष्टि से बहुत सही था, लेकिन वह करना
और रोज़-रोज़ करना...बड़ा मशीनी (मैकेनिकल) लगा. इसमें मुझे और बीज़ो दोनो को यांत्रिक हो जाना पड़ता था. हमारे लिए यह
भ्रमण सिर्फ़ व्यायाम नहीं, मस्ती भी है, सामाजिकता भी है
और एक प्रभाती संस्कृति भी. इसमें अपनी पुरानी अदा हमें भाती, जिसमें हम दोनो अपनी-अपनी तरह अपने-अपने कदम से चलें - साथ-साथ रहें, आस-पास रहें – न कि उतने पास-पास, कि घूमना भी काम करना (ड्यूटी) हो जाये. अत: इस ‘गुनमय फल
जासू’ को ‘निरस बिसद’ के कारण छोड़ना ही पड़ा.
सीखने के बाद बीजो के घर-बाहर दोनो के
व्यवहार में बड़े गुणात्मक परिवर्तन हुए. काश, हमारी भी शिक्षा
में ऐसा होता कि पढ़के निकलते, तो बच्चे संस्कारित हो जाते...!! बीजो प्राय: आज्ञाकारी तो था ही, अधिक अनुशासित
हो गया और सबसे अधिक यह कि जागरूक हो गया – जैसे सर ने
उसके दिल-दिमांग के बन्द दरवाज़े खोल दिये हों.... कुछ दिनों बाद की ही एक
घटना अपनी विरलता में दिलचस्प भी है और सनसनीखेज़ भी.... हम घूमने
निकलते, तो अँधेरा ही रहता. सड़क की बत्तियां जलती रहतीं. जुहू स्कीम के पाँचवे रोड से
सीधे सेण्टॉर होटेल वाले बीच पर जाते हुए दसवें रोड से थोड़ा आगे, अमिताभ बच्चन के ‘जलसा’ से थोड़ा पहले पहुँचे थे, बत्तियां अभी
बन्द हुई ही थीं कि सामने से आती एक सफेद मारुति वैन हमारे पास आके रुकी. बीजो सजग
हो गया – लगा कि सयाना हो गया है. आगे बैठे आदमी ने रास्ता पूछा. मैं इत्मीनान से बता
के चुका ही था कि पीछे का खिसकाऊ (स्लाइडिंग) दरवाज़ा खुला और
मेरे दाहिने खड़े बीजो ने झट से अन्दर छलांग लगा दी. दो पैर अन्दर पहुँचे कि मैंने
दाहिने हाथ से उसे पीठ-पेट से अँकवार में थाम लिया. अन्दर रिवाल्ववरधारी दिखा और
हथियारों का ज़खीरा. पर कोई हरकत न हुई, मैं बीजो को लिये पीछे हटा और वैन आगे बढ़ गयी.
आधे मिनट में इतना सब झटित हुआ कि कुछ समझ में न आया. हम दोनो हैरतंगेज़ आक्रोश से
वैन को जाते देख रहे थे और मेरे बताये की तरफ बायें मुड़ने के बाद कुछ राहत मिली.
बीजो की साँसें तेज थीं – हल्का हाँफ रह था. उसकी प्रत्युत्पन्न मति और साहस से चकित-हर्षित मैं उसे सहलाते हुए शांत करने के मिस अपने को भी आश्वस्त कर रहा था. तब
से कई दिनों जब वहाँ पहुँचते, रोम
भरभरा उठते थे. उस दिन से बीजो के प्रति विश्वास काफी बढ़ गया.
भ्रमण अनुशासित यूँ हुआ कि साढ़े पाँच से पौने छह के बीच हम
निकल जाते और 7 बजे तक घर वापस. सप्ताह में एक रोज़ बीजो को
समुद्र में नहलाना – प्राय: रविवार को और रोज़ आते-जाते 10,000 कदम चलना. आते-जाते दो-एक लोग रोज़ ही आज्ञा माँगकर बीजो की फोटो लेते – बच्चे छूने की कोशिश करते.... चलते हुए भी रोक कर ऐसा करने वाले मिलते.
समुद्र में नहलाते हुए यह संख्या अधिक हो जाती.... कुछेक
व्यावहारिक लोग मुझे भी बीजो के साथ खड़े कर लेते.... लेकिन जब कभी
शाम को मैं घर होता और विख्यात जेवीपीडी इलाके की अपनी हाटकेश सोसाइटी में जॉगर्स
पार्क के किनारे से जमनाबाई स्कूल से होते हुए पुष्पानरसी पार्क तक घुमाने निकलता, तो प्राय: सभी भवनों-पार्कों-स्कूल के दरबानों-चालकों और आती-जाती काम करने वालियों...आदि द्वारा बीजो को
सहलाने-लाड़ करने, हालचाल पूछने वाले ढेरों होते.... सोसाइटी के झाडू वाले दादा को तो देखते ही बीजो ख़ुद दौड़ पड़ता.... कुछ लोग तो जेबों-आँचलों में सुदामा के चावल की तरह बिस्किट-नमकीन लाते और वर्षा बिल्डिंग वाले भाई तो पेडिग्री के दाने खरीदकर लाते.... जहाँ मुझे पूछने वाला कोई नहीं – पार्क के दरबान को कार्ड दिखाके अन्दर जाना
पड़ता है, वहाँ बीजो की इस लोकप्रियता के लिए मैंने गालिब से क्षमायाचना सहित उनके शेर
को फिर यूँ बदला – ‘ऐसा भी है कोई कि जो बीजो को न माने, बच्चा तो है सुन्दर और सरनाम बहुत है’....
अब तक जितने श्वान पालतुओं को मैं लेके घूमा, चहुँ ओर के सड़क के ‘जाति देखि गुर्राऊ’ कुत्तों से उनकी तकरार अवश्य हुई. लेकिन बीजो की ओर कुत्ते भौंकते हुए आते, पर वह अपनी राह चलता रहता - ‘हाथी चला जाता है, कुत्ते भौंकते रहते हैं’. और यह चमत्कार ही है कि
कभी किसी ने बीजो को छूआ नहीं. दो-चार बार ऐसा होते देख मैं भी निश्चिंत हो गया.
पूरे जीवन में सिर्फ़ एक बार कुत्तों ने उसे छूआ था. उत्पल संघवी स्कूल और अमिताभ
बच्चन के ‘सोपान’ वाले पुराने बँगले के बीच के 11वें रास्ते पर वह जगह बड़ी सुहानी है, जहाँ से होके मैं बार-बार पैदल गुजरना चाहता हूँ. वहीं तीन कुत्ते उसकी तरफ दौड़े
थे और एक ने पीछे से ज्यों ही छुआ, बीजो बिजली की गति से पलटा, धर दबोचा. दबोचे हुए ही शेष दोनो की तरफ देख के गरजा और दोनो भाग चले.... फिर पोंपों करते पहले वाले को भी छोड़ दिया और ‘संत न छोड़े संतई, कोटिक
मिलें असंत’ का प्रमाण बनकर ‘हृदयँ न हरष-विषाद कछु’ की तरह बीजो यों चलने लगा, गोया कुछ हुआ ही न हो. मैं स्तम्भित!! ख़ुद न देखता, तो विश्वास न
करता कि बीजो ने ऐसा किया. घर जाके बताया, तो वो हाल हुआ
कि कोई और बताता, तो झूठा कहा जाता.
घर में भी बीजो का रहना ऐसा ही दिलचस्प व उल्लेख्य है. बीजो
से दो साल पहले बच्ची घर में आ गयी थी. तब वह दो दिन की थी. अपने स्नेह-शऊर से उसने सबका दिल जीत लिया था. और कुत्ते-बिल्ली की
दुश्मनी सरनाम है. लेकिन बच्ची के इस विरोधी को तो कुछ पता ही न था. बल्कि उसे तो
बिल्ली से अपने जातीय बैर वाले सम्बन्ध का ही पता न था. असल में मूलत: उसके अन्दर बैर भाव था ही नहीं – जैसे जन्म से मनुष्य में नहीं होता, हम सिखाते
हैं. लेकिन अन्य प्राणियों में जातीय स्मृति जन्मना होती है. बिल्ली को देखते ही
छोटे-छोटे पिल्लों को गुर्राते देखा है मैंने. परंतु बीजो को कभी नहीं देखा. इसीलिए
हम लाड़ से उसे संत कहते और मनुष्य कहना भी उसका अपमान मानते. बीजो को श्वान-योनि
देने के लिए कभी विनोद में ब्रह्मा को कोसते हुए बीजो को रूप-आबण्टन में हुई विभागीय भूल (ऑफीशियल मिस्टेक इन बॉडी एलॉटमेण्ट) का परिणाम बताते.
गरज़ यह कि बीजो के इसी संत-स्वभाव ने बच्ची को धीरे-धीरे निडर बनाया.
बच्ची की रुचि के लिए बीजो अपनी पसन्द को छोड़ने लगा. बच्ची जहाँ बैठना-सोना चाहती, वहाँ से हट जाता. फिर बच्ची उसे हटाने लगी और वह हटने लगा. इस तरह बीजो पर बच्ची की हुकूमत चलने लगी– सबल पर निर्बल की हुकूमत– अभिनव व सच्चा जनतंत्र या रामराज्य. और एक दिन ऐसा हुआ कि
बीजो की पीठ पर बच्ची सोने लगी. इस दृश्य को देखकर लोग ताज्जुब करते, बीजो की उदारता का गुणगान करते, जिसमें सचाई भी है, लेकिन यह
सम्बन्ध इतना अनोखा भी नहीं – कई जगहों पर है. साथ रहते-रहते मनुष्य
लड़ते हैं – भाई महाभारत करते हैं. पशु-पक्षी पहले लड़ें भले, पर साथ रहने पर
अच्छे दोस्त होकर रह जाते हैं.... आगे चलकर आयी चीकू के साथ भी ऐसा हुआ. उसकी भी
हुकूमत चली बीजो पर और बड़ी बात तो यह कि बीजो के अनुकरण मात्र से वह एकदम पालतू हो
गयी– अलग से प्रशिक्षण की जरूरत न पड़ी.
बीजो क आगमन के साढ़े तीन साल बाद दिसम्बर, 2009 में मेरा काशी विद्यापीठ जाने का ठहर गया – योजना-तैयारी तो सालों
से चल रही थी. इससे सारी व्यवस्था में काफी परिवर्तन हुए. वहाँ किराये के घर में
मुझे व्यवस्थित कर देने के बाद कल्पना व अकुल ने बीजो को भी लाने का प्रस्ताव रखा.
दोनो अपनी पसन्द को मेरे लिए वार रहे थे– शायद मेरी-बीजो की
पारस्परिकता को देखते हुए. मुझे नये कदम उठाने पसन्द हैं. घर भी कल्पनाजी ने लिया
था बीजू को रखने लायक- बंगले का पूरा तलमंजिल. लेकिन मैं गृहपति को
द्वैध में नहीं डालना चाहता था. मन तो बहुत छटपटाया – शायद बीजो का
भी. बस, अपने घर की तलाश शुरू कर दी और अक्तूबर 2010 में निजी मकान (बना-बनाया) ले लिया. 8 दिसम्बर, 2010 को गृहप्रवेश
हुआ, तो बेटा एक दिन पहले बीजो को लेके आ गया. गृहोत्सव का मजा दूना हो गया.... फिर उत्सव के केन्द्र में बीजो आ गया. और आते ही थोक रूप में शहर के लगभग दो
सौ लोगों के सामने प्रस्तुत (इंट्रोड्यूस) भी हो गया. अगले दिन से बीजो की, उसके सुरूप
व सद्चरित्र का गाथाएं यहाँ भी कही-सुनी जाने लगीं. घर का नवोन्मेष (रेनोवेशन) कराते हुए मुख्य द्वार (मेन गेट) का नीचे वाला हिस्सा डेढ़ फिट कटाके तिरछी सलाखें लगायी गयीं - सिर्फ़ बीजो के लिए, ताकि वह वहाँ बैठ के सड़क और आने-जाने वालों को देख सके, जो उसे बहुत पसन्द है. इसमें एक और छूट उसने ले
ली, हमने दे दी. बाहर के बरामदे में अपने लोगों के लिए एक तख़्ता रखा गया, जिस पर बीजो बैठने-लेटने लगा. वहाँ से गेट के ऊपर से रोड दिखता. उसी के नीचे
वह सोता भी ज्यादा. ये दोनो जगहें उसकी पसन्दीदा हो गयीं. हमें बैठना होता, तो तख़्ते को साफ करके पोंछ लेते. यहाँ छत भी पहली ही मंजिल पर मिली, जो पूरे दिन खुली भी रहती. वहाँ भी बीजो किसी भी वक्त चला जाता और रेलिंग के
पास बैठता, जहाँ से सामने की पूरी सड़क व आधी कॉलोनी दिखती. कुल मिलाकर उसे अपनी मूल जगह
से छूटने का दुख भले हो, रहने का सुख कम न था– थैंक्स टु कल्पनाजी....
लेकिन छत से जुड़ा एक मामला भी उल्लेख्य है. सामने वाले
ग्रंडील जवान ठाकुर साहेब अपनी पहली मंजिल पर व्यायाम करते और बीजो को इससे जाने
क्या चिढ़ पैदा हो गयी कि तख़्ते पर खड़े होकर उनकी ओर भौंकने लगता. हमने बारहा मना
किया, विकासजी ने आके दोस्ती का हाथ बढ़ाया, खिलाने-पिलाने के रूप में कुछ घूस भी
दी. उनसे दोस्ती हो भी गयी, पर व्यायाम के वक़्त वे बीजो के लिए कुछ और हो जाते.
अंत में हारके उन्हें कसरत के लिए अन्दर भागना ही पड़ा. ऐसे विभ्रम-विश्वास उसके
कुछ और भी थे. मुम्बई के घर में तीसरी मंजिल वाली कृपा बेन और थोड़ा-बहुत दूसरी
मंजिल वाली जागृति बेन के साथ भी यही सलूक करता. इनके नीचे-ऊपर आते-जाते हुए
भौंकता ही. अज़नवियों में भी कुछेक विरलों को तो परिसर में आने ही नहीं देता. मुझे
तो यह बेसबब नहीं, उसकी छ्ठीं इन्द्रिय का संज्ञान लगता. इसी से मैंने उसे बरजना
भी बन्द कर दिया था, और कभी बरजता, तो मुँहदेखी वाला बरजना वह समझता भी. मुम्बई के
मुकाबले यहाँ कड़ी ठण्डक और भयंकर गर्मी का मौसम अवश्य त्रासद सिद्ध हुआ. शुरुआत
ठण्ड से हुई, जो लैब्रे की प्रकृति के अनुकूल होने से बीजो को
बहुत सता नहीं पायी. हाँ, गर्मी में बहुत परेशान हुआ. लेकिन पहले तो उसकी
पानी-प्रियता मुफ़ीद सिद्ध हुई– टिल्लू चलाके ठण्डे पानी से रोज़ नहला देते. किंतु असली
त्राण एसी था. दिन भर एसी में रहता. कॉलोनी में आम चर्चा होती कि पण्डितजी का एसी
तो कुत्ते के लिए चलता है, जबकि होनी यूँ चाहिए थी कि पण्डितजी का कुत्ता
भी एसी में रहता है.
प्रभात-भ्रमण के लिए तो जुहू का विकल्प बनारस तो क्या, किसी
समुद्र-विहीन शहर में हो नहीं सकता. डीएलडब्ल्यू-परिसर में स्थित
जंगल में बने जिस भ्रमण-मार्ग (वॉकिंग ट्रैक) पर मैं जाता हूँ, वहाँ भी श्वान
अग्राह्य ही होता... तो उसके सामने सूर्य-सरोवर के चारो
ओर की खुली जगह में जाने लगा. लेकिन हर स्थिति में ‘सुख-दु:खे समे कृत्वा
लाभालाभो जयाजयौ’ वाले बीजो को तो कोई फर्क पड़ा नहीं. उतने ही चाव से जाता.
उसे ‘संत’ यूँ ही थोड़े कहते हैं!! लेकिन सुख-सुविधाओं के मामले के अलावा जब बात
भावात्मकता की आती, तो बीजो की स्थितप्रज्ञता कमलनाल की भाँति टूट जाती – ‘पद्मपत्रमिवाम्भसा’
न रह पाती. गृह-प्रवेश के बाद दो-तीन दिनों में ही सब लोग चले गये. घर में रह गये
सिर्फ़ मैं और दीदी. मैं दिन भर विश्वविद्यालय चला जाऊँ, तो सिर्फ़ दीदी, जो मुम्बई के मंसायन से आने वाले बीजो के लिए एकाकीपने का सबब बनता. मेरे जाते
हुए उसकी छटपटाहट और आने के बाद का उतावलापन इसका प्रमाण देता. दीदी बताती कि साढ़े
तीन बजे से ही गाड़ी की आवाज अकनने लगता और मेन रोड से कॉलोनी की गली में घुसते ही
अपनी गाडी की आवाज पहचान जाता. गेट पे आ जाता. जब एक-दो दिनों के लिए
सेमिनारों में या एकाध सप्ताह के लिए मुम्बई जाने के लिए मेरी अटैची तैयार होने
लगती, तभी से ताड़ लेता और उदास हो जाता. यह मुम्बई में भी होता. कल्पनाजी भी कहतीं
कि जाते हुए उसे बतिया-बता के जाया करो, तब ठीक रहता है – गोया सुनके समझ जाता हो,
वरना बहुत तंग रहता है. बनारस में मेरे चले जाने पर रात को मेरा स्लीपर उठाके ले
जाता और उसी पर बैठके सोता. याद आता कि मेरे गोवा जाने पर पहली में पढ़ता हुआ बेटा
भी मेरा फोटो लेके सोता. सुनकर जी तडप जाता...और कई यात्राएं
रद्द भी कर देता.
बगल वाले अजय सिंह के साथ हमारा रिश्ता घर जैसा हो गया था– आज भी है, तो उनका दरवाज़ा (गेट) खुला देख या फिर खुलवा के वहाँ चला जाता और कुछ देर मन-बदलाव कर लेता. बिन्दुजी का बिस्किटादि से आतिथ्य भी ग्रहण कर लेता, ऐसे पड़ोस की कल्पना भी मुम्बई में नहीं की जा सकती. वाचस्पति भाई साहेब ने
बीजो को अपने घर (सामने घाट) आमंत्रित किया. वे एक बार मुम्बई के घर में भी बीजो
से मिले थे. शकुंतला भाभी ने भरपूर आतिथ्य तो किया ही, पूरा घर-छत...आदि यूँ दिखाया– गोया पुराना मित्र आया हो. उतने समय अपने प्यारे पॉमेरियन
को कमरे में बन्द कर दिया था, ताकि ‘बाभन-कुत्ता-हाथी,
ये न जाति के साथी’ वाली श्वान-वृत्ति से कोई
अयाचित स्थिति न पैदा हो.... उन्होंने ही डॉक्टर भी मुहय्या कराया था, जो सालाना सुई लगाने के साथ गाहे-बगाहे इलाज़ भी करते. एक बार बड़ी-सी सुई लगाने
चले, तो बीजो को दोपट में बाँधने के लिए कहा. मैंने कहा– ‘मैं सहला रहा
हूँ, आप लगाइये’. जब बीजो ने चुप बैठे लगावा लिया, तो हैरत में पड़
बोले– ‘ऐसे तो आदमी भी नहीं लगवाते’. मैंने अपना आप्त वाक्य कहा – ‘यह बच्चा तो
स्थितप्रज्ञ संत है’.
भगीरथ-प्रयत्न के बावजूद महाराष्ट्र से मेरी सेवाएं स्थानांतरित न
हो पायीं. पुनर्ग्रहणाधिकार (लिएन) की तारीख़ (30 दिसम्बर, 2011) तक वापस पहुँचना तय था. इस तरह बीजो का काशी-निवास साल भर का
रहा. इस दौरान हम काशी में जब भी घूमने निकले, वह गाड़ी में साथ
होता. गोदौलिया में गंगा-आरती, सुबह के शूलटंकेश्वर, पूरे दिन सारनाथ...आदि
देख आये थे. बीएचयू परिसर में नये विश्वनाथ मन्दिर के आसपास तो प्रभात-भ्रमण कई बार हो जाता. काशी विद्यापीठ में तो नौकरी ही थी – एकाधिक बार बिहरना
हुआ. एक दिन नौका-विहार करते हुए गंगा उस पार रामनगर की गोद में रेत पर खेल
कर जुहू की याद ताज़ा कर चुके थे. अपने साथ गाँव की यात्रा करा ही चुके थे. ननिहाल
न ले जा पाये, जिसकी कचोट आज साल रही है.... जब वापस ले जाने के लिए अकुल के आने का दिन तय हो गया, तो कल्पनाजी ने मौज में कहा– ‘गंगा-स्नान तो करा दो बीजो को’. मैं भी मौज में आ गया. एक दोपहर
अपने घर से सर्वाधिक करीब और श्वान-स्नान हेतु किंचित् निरापद अस्सी घाट ले गया.
गंगा-सफाई के नाम पर करोडों रुपये खर्च होने के बावजूद उतनी ही गन्दी गंगा में तो
शव-दाह पर भी मैं नहीं नहाता. सो, पानी में उतरना था नहीं. जिधर भी ले जाऊँ, लोग नहाते दिखें – उसमें साधुवेश वाले भी. मैं संकोच में लिये घूम ही रहा था
कि एक नहाते हुए साधु ने ही हाथ से बुलाने का इशारा करते हुए पूछ दिया- ‘नहलाना है’? बस, मैंने कुदा दिया. साधु ने लोक लिया. और मल-मल कर नहलाते हुए श्लोक भी बोलता रहा – ‘गंगे च यमुने चैव गोदावरि
सरस्वती, नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेsस्मिन संन्निधिं कुरु’. इस अभिनव गंगा-स्नान को हम लतीफे की तरह लोगों
को सुनाते और अंत में जोड़ देते– साधु अवश्य ही बीजो-रूप पर रीझ गया
था....
लाते हुए तो देखा नहीं था, जाते हुए स्टेशन पहुँचाने गया,
तो गॉर्ड की केबिन में 2x2 फिट की वह बन्द कोठरी देखी, जिसमें 30 घण्टे
की यात्रा बीजो ने कैसे की होगी, अकल्पनीय लगा. बीजो के धैर्य और संतोष पर उसके
सामने माथा झुक गया. मैंने पहले देखा होता, तो आने देता ही नहीं. लेकिन बीजो को
अपने पास बुलाने के मेरे मोह को पूरा करने के लिए अकुल ने कैसी कठकरेजियत की पीड़ा
झेली, को समझ के भी सर नीचा हो गया.
मैं और बीजू दो-चार दिनों आगे-पीछे ही बनारस से मुम्बई आये
और अपनी-अपनी दैनन्दिनी में लग गये. मुम्बई वापसी पर घर-बाहर का बीजो-मित्र समुदाय
सिहाते हुए उछाह के साथ उससे मिला – ‘अरे बीजू आ गया’ करके दौड़ते और ‘कैसा था
बीजू’...करके भेंटने लगते. इसने भी सबके इस्तक़बाल को उनके आसंग के अनुसार अपनी अदा
में क़बूल किया – किसी का कुछ भूला नहीं था. और यदि मेरी नौकरी का यह अंतिम चरण था,
तो मोटे-मोटे तौर पर बीजो के जीवन का भी उत्तरार्ध शुरू हो रहा था. लैब्रे जाति
वालों के बारे में विश्रुत है कि उनके अंतिम दिन कठिन दैहिक कष्ट में बीतते हैं.
बीजो के ऐसे दिन थोड़े जल्दी ही आ गये. हालाँकि बुढ़ाई में लैब्रे नस्ल वालों के
शरीर जितने भारी हो जाते हैं, बीजो का कभी उतना हुआ नहीं या हमने होने नहीं दिया.
उनके जैसा अजलस्त भी नहीं हुआ कि चलना-फिरना दूभर हो जाये - रुक जाये और घर में
पड़े-पड़े गन्दगी करे.... अंतिम दिन तक चलता-फिरता रहा.... लेकिन बनारस से आने के
बाद एकाध साल में ही उसके दाहिने पट्ठे (पीछे के दाहिने पैर के बाहरी ओर घुटने के
ऊपर) में एक गुमटा निकलने लगा. डॉ परमार थे हमारे पशु-परिवार के चिकित्सक . उनकी दवा
शुरू हुई, पर गुमटा कम होने का नाम न ले. कई महीने बाद दूसरे डॉक्टरों से सलाह
लेने के सिलसिले में बेटे ने डॉ उमेश जाधव का चयन किया. उन्होंने भी महीनों
परीक्षण-प्रयोग किया. फिर फैसला दिया - इसे ऐसे ही रहने दें. हानिरहित (हार्मलेस)
है. काट के निकाला जा सकता है, पर जोख़म है. अब मानने के सिवा कोई उपाय न था. कोई
दो साल रहा वह गुमटा और और बढ़ते-बढ़ते आधा किलो से ज्यादा का हो गया था. चलते हुए
झूलता, पाँव में लड़ता-घिसता.... लेकिन हाय रे बीजो की अपरम्पार सहन-शक्ति और
धीरज!! वह चलता, जरूरत पड़ने पर दौड़ता.... क़ुदरत ने इतना सुन्दर रूप देके भेजा था,
लेकिन उसमें बट्टा लगाता चला गया. पर कहना होगा कि उसके चाहकों ने रूप-कुरूप का
भेद नहीं किया, वैसा ही प्यार-दुलार देते रहे.... परंतु ‘बीजो को क्या हुआ है’,
‘यह क्यों निकाला नहीं जा रहा’, बताते-समझाते थक जाना पड़ता.... कुछ अज़नवी श्वान-प्रेमियों
ने हमारी भर्त्सना भी की– इलाज़ नहीं कर सकते, तो रखते क्यों हैं? उन्हें लगा, हम
जीव को कष्ट देके पैसे बचा रहे हैं.
अंत में एक दिन उसमें से मवाद बहते दिखा. डॉ. जाधव आये.
देखकर कहा – अब काट के निकालना अनिवार्य है, वरना जहर फैल सकता है – पाँव से पूरी
देह तक. देर करनी न थी, हम चाहते भी न थे. हम तीनो लेकर गये डॉक्टर जाधव के
क्लीनिक. गुमटे के चहुँ ओर ही सुन्न किया (लोकल एनीस्थीसिया दिया) गया, वरना अनंत
बेहोशी में चले जाने का ख़तरा था. डॉक्टर के दो बलिष्ठ सहयोगी भी थे. शल्य-क्रिया
के मेज पर हम सबने उठा के लेटाया. गुमटे के चारो तरफ सफाई करने, बाल निकालने तक ही
हमें वहाँ रहने दिया गया. उसके वीडियो भी बनाये मैंने. फिर बीजो को छोड़के बाहर
जाने की पीड़ा का क्या कहें...!! लेकिन बीजो तो शांत सहयोग के सिवा कुछ कर ही नहीं
सकता था. बाद में डॉक्टर ने भी इसकी तस्दीक दी.... कल्पनाजी शल्य के बाद की हालत
को देखने से बचने के लिए घर में उसे रखने-सुलाने की माकूल व्यवस्था कराने के बहाने
थोड़ा पहले लौट आयीं. मैं बीजो को लेकर पीछे की सीट पर बैठा. शाम का वक्त था. यातायात
ठसा पड़ा था. बेटे ने इधर-उधर से मोड़-माड़ कर निकालते हुए कौशल पूर्वक गाड़ी चलायी,
तब भी दस मिनट का रास्ता लगभग डेढ़ घण्टे में तय हुआ. लेकिन बीजोजी कष्ट के बावजूद
मासूम बच्चे की तरह गोद में सर रखे और उदार बूढ़े की तरह बेआवाज कसमसाते पड़े रहे.
3-4 दिनों पट्टी (ड्रेसिंग) होती रही. बिना गुमटे के बीजो को देखना पुन: प्रीतिकर
लगा और इस बार ‘गुमटा निकल गया? कैसे निकला?’...आदि के उत्तर देना और इसके बाद
‘बड़ा अच्छा हुआ’, ‘शाबाश बीजू...’ आदि टिप्प्णियां सुनना खूब भला भी लगता रहा.
इतने से ही बेचारे बीजो की जान नहीं छूटी. इसी सबके बीच
उसके शरीर में जिवड़े दिखने लगे थे. पहले तो यह सोचकर कि कहीं से छूत लगी होगी,
जिससे आये होंगे और बढ़ गये होंगे, उन्मूलन के आम-ख़ास सारे उपाय हुए – जीव-नाशक
शैम्पू, छिड़कने व लेप करने की दवाएं.... समुद्र के पानी में मैं देर-देर तक
बिठाता, ताकि खारे पानी में अकुला के मरें – दो-चार उतराते भी थे मरके.... नीम का
तेल पोतके धूप में बिठा देने जैसे गँवईं इलाज भी किये. बार-बार बाल भी काट देते कि
उन्हें छिपने की जगह न रहे. इसके चलते बीजो के बाल भी उतने घउलर
(गझिन-लम्बे-बिखरे) नहीं हो पाते, जितने आम तौर पर लैब्रे वालों के हो जाते हैं.
लेकिन इतना सु-दर्शन बीजो प्राय: जड़ से कटे बालों में और भी अजीब दिखता. वही बीजो
है, पहचान में न आता. पर नियति के सामने क्या करते...!! बाल काटने के काम में
सर्वाधिक सक्रिय-सन्नद्ध कल्पनाजी होतीं – यहाँ तक कि बहुत बार ख़ुद भी काटतीं.
काटने के तरह-तरह के औज़ार लाके रख लिये. और बीजो बेचारा अपनी आज्ञाकारिता में इस
समर्पण भाव से कटवाता कि ‘बाल काट लो या देह, चूँ न करूँगा मैं’. उसे राहत भी होती.
फिर बाल बढ़ते भी जल्दी – लैब्रे-प्रकृति.
सब कुछ होता, पर जिवड़े उजहते (समूल खत्म होते) नहीं. दो-चार
दिन कुछ कम रहते, बीजो शांत रहता. फिर फैल जाते, वह छटपटाने लगता. जब रात को सब
कुछ शांत हो जाता, तो उसके सोने में जिवड़े उपराते. सोती रातों को बीजो कभी झटके
में अपने बिस्तर से उठके चल देता - शायद उनके ज्यादा काटने से हैरान होकर, तो गादी
पर दो-चार रेंगते हुए पाये जाते. लेकिन सुबह एक नहीं दिखते, सब उसकी देह में घुस
के समा जाते. गादी की खोल रोज़ बदली जाती. इन लघुतम तनधारी जिवडों की चालाकियों
(कनिंगनेस) के आईने में आज अतनुधारी कोरोना वायरस कुछ-कुछ समझ मे आ रहे हैं. उनसे
सताये जाते बीजो की छटपटाहट देखी नहीं जाती थी, आज शहरों में बसे-फँसे देश भर के
गाँवों के मजदूरों की भूखी-प्यासी दुर्दशा सुनी नहीं जा रही है. दिन में जब खाली
होतीं, उषा—निर्मलादि सेविकायें भी उसके जिवड़े निकालने लगतीं- गाँव मे ‘ढील हेरने’
की उनकी आदत का उपराम. हमारी भी आदत हो गयी थी कि जब भी रात को उठते, देखने के लिए
बत्ती जला देते और दो-चार उसके बदन पर ऊपर ही तथा दो-एक बिस्तर पर रेंगते हुए दिख
जाते. फिर सहज ही उन्हें चुटकी से पकड़कर निकालने चलते और खोज-खोज के निकालने में
लग जाते.... कटोरी में पानी ले लेते और एक-एक उसी में डालते हुए घण्टों निकालते
रहते.... कभी तो सुबह हो जाती. कितनी कटोरियां भर जातीं. हममें से प्राय: कोई सुबह
ऐसा करते पाया जाता.... कई बार दिन में अकुल भी ऐसा करते मिलता.
काफी दिनों बाद डॉक्टर की जाँच-परख से निष्कर्ष निकला कि
बीजो के शरीर में कुछ ऐसे तत्त्व हैं, जो जिवड़े पैदा कर रहे हैं. इस लिहाज से
दवायें-सुइयां शुरू हुई थीं. अपेक्षित आराम होते न पाकर डॉक्टर ने कुछ दवा बदली थी
कि इसी दौरान मैं पहुँच गया. मैं चाहे महीने बाद आऊँ, बीजो को भूलता नहीं कि सुबह
5 बजे घुमाने ले जाऊँगा. इसके लिए मेरे चाय बनाते-पीते हुए वह साथ-साथ रहता. उस दिन
किचन में खड़ा हुआ और अचानक धड़ाम से गिर गया. मैं घबरा के देखने लगा, तो साँसें
चलती हुई महसूस ही नहीं हुईं. चिल्ला के कल्पना को बुलाते व बीजो को झिझोड़ते हुए
फूट-फूट के रो पड़ा. विजड़ित-सी खड़ी रह गयीं कल्पना भी. 3-4 मिनट बाद उसके पेट में
हरकत हुई, तो जान में जान आयी. फिर धीरे-धीरे साँसें ठीक चलने लगीं. 9-10 बजे बेटा
नीचे आया, तो बताया कि दवा का असर है. डॉक्टर ने बताया है कि चक्कर भी आ सकता है
और बेहोशी भी. फिर तो मेरी रुलाई भी घर में खासा विनोद बन गयी.
उन दिनों इन रोगों-इलाजों एवं ढल गयी उम्र के कारण कुछ उल्लेख्य
परिवर्तन हुए थे... दरवाजे की घण्टी बजने पर दौड़ के पहुँचना, स्वागत करना या भड़कना
बहुत कम हो चला था. पूरे समय घर की बहुत सारी चहलकदमी भी काफी कम हो गयी थी. किसी
भी दरवाजे पर छेंक के बैठना श्वान-स्वभाव है, जो बढ़ गया – बहुत कहने पर ही हटता.
थोड़ी चिड़चिड़ाहट भी आ गयी थी. हमारे संग-साथ की आकांक्षा ज्यादा होने लगी थी – शायद
मानसिक आवश्यकता बढ़ने लगी थी. हमारी तरफ से प्रेम-लगाव के साथ अब देख-भाल (केयर)
की मात्रा स्वत: बढ़ गयी थी. लेकिन उसकी ख़ुराक़ व खाने में कोई कमी नहीं आयी थी.
तत्परता अब आग्रह हो चली थी.... सुबह जरा भी देर होने पर कल्पनाजी को जगा देता था,
जबकि पहले उठने का इंतज़ार करता था. अब उसकी बात तुरत न मानी जाये, तो नाराज़ हो
जाता. सिफारिश करके मनाने पर ही मानता था. इधर दो-चार सालों से महादेवी है, जो छह
बजे घर जाने के पहले उसकी रोटियां बनाती. 5 बजे से उसके पीछे पड़ जाता, चौका-बेलन
हाथ में उठवा के ही मानता. यह भोजन-वृत्ति भी अचानक चार दिन ही बन्द हुई, तो आसन्न
ख़तरे की घण्टी हम सुन पाये.
बनारस से आने के कुछ ही बाद अपने परिसर में श्वानों की छह
आमद में से बची एकमात्र को अकुल की संवेदना फिर उठा लायी थी. वह चीकू त्रिपाठी आज कल्पनाजी
के शब्दों में ‘डेलीकेट डार्लिंग’ है. किंतु इसके अपने दुर्लालित्य भी हैं. जैसा
कि तब अकुल का अग्रकथन (प्रेडिक्शन) था, चीकू के साथ ने मनोवैज्ञानिक रूप से बीजो
की आयु-सेहत व सक्रियता में संजीवनी का काम किया है. इधर बीजो घूमते हुए कमजोरी से
थक के बैठ जाता, तो बार-बार जाके चीकू उसे सूँघती, सर लगाके उठाने का प्रयास करती
और न उठने पर कुछ दूर जाके उसकी तरफ दौड़ के आती – खेलने को आमंत्रित करती... आख़िर
बीजो को उठा के ही मानती. न उठने पर मेरे साथ इंतज़ार भी करती. रात को घूमने जाने
से कसरियाता, तो प्राकृतिक निपटान करा देने की गरज़ से बिना गट्ठी बाँधे ही पट्टा
गले में डाल देता. और जिस बीजो को कभी पट्टा बाँधा नहीं गया, वह पट्टा गले में आते
ही चल पड़्ता – पशु-प्रवृत्ति की दासता की बलिहारी...!! लेकिन तब वह निपटान करके
भाग भी आता. यह बात अलग है कि सुबह के भ्रमण में कभी आलस्य नहीं करता– पहले से ही
उठके तैयार रहता.... तभी तो सालों बाद अभी मार्च (2020) के पहले हफ्ते में एक सुबह
मौज-मौज में ही जुहू तक चला आया. पहुँच के तो दस मिनट बालू पर पड़ गया, पर फिर उठके
आ भी गया. क्या पता था कि यही उसकी अंतिम जुहू-यात्रा और 8 मार्च को वहाँ से आना,
मेरी उससे अंतिम भेंट होगी...!!
बीजो की देह गति तो कॉलोनी के चहुँ ओर से जुहू तट तक ही थी,
पर भावात्मक सम्बन्धों की उसकी दुनिया बहुत बड़ी थी. घूमते हुए मिलने वालों के
जिक्र हुए, घर आने वाला हर शख़्स भी बीजो का दोस्त हो जाता था. उसे वह अपनी स्मृति
में सँजो लेता था. इसीलिए दोस्तों-मेहमानों के अलावा दूधवाले, फल वाले, सामान पहुँचाने वाले (डेलीवरी ब्वाय), अख़बार वाले, बिजली-पानी की मरम्मत करने वाले और पोस्टमैन-कोरियर वाले तक...सबके साथ उसके सम्बन्धों-संवादों के अपने सिलसिले होते.... उसे चाहने वाले तमाम लोग
पूरे देश व विदेश में पहुँचे हैं. अवसान के दिन स्टेटस लगा दिया था. खबर पाकर सभी
अफसोस व संवेदना से भींगे-भरे हुए हैं. मुम्बई का तो पूछना ही क्या, दिल्ली-कलकत्ता, बड़ोदा-अहमदाबाद, पुणे-औरंगाबाद, आगरे-इलाहाबाद,
बस्ती- गोरखपुर...आदि से लेकर यूके-यूएस से भी सन्देश-फोन आने लगे –
महीनो आते रहे....
इन दिनों महाभारत चल रहा है. दर्जा पाँच की पुस्तक में ‘वीर
अभिमन्यु’ पाठ था, जिसमें अभिमन्यु की मृत्यु के बाद अर्जुन को मोह से उबारने के
लिए कृष्ण स्वर्ग ले जाते हैं. काश, आज ऐसा हो पाता...!! लेकिन डर जाता हूँ, कहीं
उसी तरह बीजो भी कोई अभिशप्त जीव रहा हो, जिसे 14 साल का मृत्युलोक-वास मिला रहा
हो और वहाँ जाने पर वह भी हमें न पहचाने. उसके भाव-कर्म को देखके उसका अभिशप्त
जीव होना तो पक्का लगता है, पर विश्वास है कि वहाँ भी हमें देखते ही वह उसी तरह
भाग के पास आयेगा, जैसे कुछ दिनों बाद बाहर से आने पर आता था.
उसी तरह गोद में बैठ-लिपटके छटपटायेगा और उसके लिए हमेशा लाये जाने वाले ‘मारी’ बिस्किट के पैकेट को मेरी जेब से निकालने के लिए मचलेगा...फिर हाथ से एक-एक बिस्किट खाते-खाते गोद में ही सो जायेगा....
उसी तरह गोद में बैठ-लिपटके छटपटायेगा और उसके लिए हमेशा लाये जाने वाले ‘मारी’ बिस्किट के पैकेट को मेरी जेब से निकालने के लिए मचलेगा...फिर हाथ से एक-एक बिस्किट खाते-खाते गोद में ही सो जायेगा....
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सम्पर्क :
मातरम्, 26-गोकुल नगर, कंचनपुर, डीएलडब्ल्यू,
वाराणसी-221004
9422077006
यह एक जरूरी संस्मरण है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल आदि भी कुत्ते, बिल्ली, तोते पाल रखे थे।
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद, सियारामशरण गुप्त आदि लिखित कहानियों को भी इस संस्मरण से समझा जा सकता है।
त्रिपाठी जी ने संस्मरण बहुत
जवाब देंहटाएंअच्छा लिखा है। एक सांस में पढ़ गया। मेरे उपन्यास का नाम 'रीफ़' ( REEF) है।
आपको पढ़ना सदैव रोचक होता है
जवाब देंहटाएंबीजो को लेकर सत्यदेव जी एक बार घर आए।उसकी दिव्य भव्यता याद आती है।संस्मरण अविस्मरणीय है।वाचस्पति, वाराणसी.
जवाब देंहटाएंडॉ सत्यदेव त्रिपाठी जी के घर हुई कई गोष्ठियों में जाते रहने का मौका मिला था ।बीजो बतरस की गोष्ठियों में चहलकदमी करता रहता था ।कई लोगों को उसकी उपस्थिति खलती भी रही थी पर जिन्हें डॉ त्रिपाठी जी के सानिध्य से लगाव था सभी उसे भली भांति परिचित थे ।आपका यह आलेख लोगों के लिए प्रेरणा दाई हो सकता है ।अभी दो दिन पूर्व ही केरल में घटी घटना नें हम सबको स्तब्ध कर दिया है ।मानवीय नृसंशता का चरम है केरल की घटना ।डॉ सत्यदेव त्रिपाठी जी बधाई के पात्र हैं ।अरुण देव जी के संपादक को प्रणाम निवेदित करना चाहता हूँ ।मानवीय रिश्तों का एक अप्रतिम उदाहरण वीजो की कथा में नीहित है ।
जवाब देंहटाएंसंत बीजो से मिलना प्रीतिकर रहा।
जवाब देंहटाएंबीजो की भौतिक उपस्थिति इस तरह कन्वर्ट हो गयी है कि उसकी यह काया 'हमको मिला जियावनहारा' कहते हुए देशकाल की सीमाओं से परे विचरती रहने वाली है।
बहुत बढ़िया, याद ताजा हो गई 'बीजू' का धवल रंग और कुछ - कुछ भालू का आभास देती छवि।
जवाब देंहटाएं"मनुष्य भी जानवर है, पर विकसित होकर उसने सबसे बुरा व्यवहार जानवरों से ही किया" यही तो हम मानव की कमी है कि जो चीजें हमारे अपने अस्तित्व के लिए जरूरी है हम उसे भी स्वार्थवश बरबाद किए जा रहे हैं। कहां हम दूसरे जन्म में विश्वास रखते हैं और कहां प्रकृति और प्राणियों का दोहन ऐसे कर रहे हैं जैसे बस अब आगे जीवन नहीं होगा और ना ही अपनी आने वाली पीढ़ियों की चिंता ! किसी के चले जाने का सत्य हमें यह बता देता है कि, हमारी कोई औकात नहीं, हम बेबस और मजबूर है । "अंत समय साथ न हो पाने का क्लेश सालने लगा था" मनुष्य का स्वभाव और संस्कारों का प्रभाव ही ऐसा है कि अंत समय में जाने वाले के पास रह उसकी सेवा का भाव जैसा हम अपने प्रियजनों के लिए सोचते हैं। यह ' कुकुर ' प्रियजन से कम नहीं बल्कि ज्यादा होते हैं ।
हमारे घर में भी कई पिल्ले लाए गए मेरे मझले भाई द्वारा, खरीदे नहीं गए " मेरी जडता भी टूटी.... " हमारी जड़ता अभी भी बनी हुई है जितने भी आए बस गली या सड़क से उठाए हुए थे। आज जब घर के बच्चे खरीद कर लाने कोई बात करते हैं तो सीरे से नकर दिया जाता है । हमारी शायद इसलिए चल रही है कि कोई अभी तक अकुल की तरह जिद्द और मनुहार नहीं कर रहा। "उसके रूप-गुण-क्रियादि के एक-एक दृश्य बरबस आँखों में उभर रहे हैं..." यह बिल्कुल वैसे ही है जैसे हर मां को अपना बच्चा सबसे सुंदर और गुनी लगता है । हमें हमारा स्पैडी बहुत भोला और मासूम लगता है , बच्चे से कम नहीं । प्यार से ऐसे उछल कर गले लगता है कि कोई और क्या लगेगा । उसका यह चाहना हमें कई बार डरा देता है कि कहीं उसके नाखून या दांत लग ना जाए । हमारे भी टॉमी, राजू (भाई का भी नाम है) और अब 'स्पैडी ' नाम रखा गया जिसने लाया उसी ने नाम रख दिया यह नाम दो - तीन दिन तक बदलता रहता जब तक सब राजी ना हो जाएं। नामकरण करें की परम्परा तो है और जो भी यह नाम रखता है उसमें ज्ञान और समझ के इतर, भाव की प्रगाढ़ता अधिक होती है । भले ही "यह फ्रेंच शब्द है, ...' नाम के उत्पत्ति की उसके मूल की जानकारी हो या न हो । जब हम छोटे थे और हफ़्ते दो हफ़्ते का टॉमी लाया गया । और जो महीने भर का ही रहा होगा कि चैत्र की नवरात्रि थी। माताजी नवरात्रि का कलसा रखती थीं । मुंबई जैसे शहर में एक ही कमरे में जगजननी माता और अपने टॉमी ( कुत्ते) को रखना संभव न था; पर रहा और माताजी की डांट को आज्ञाकारी बच्चे की तरह, समझता और मानता रहा । हम सभी उसके प्रशिक्षक थे; खास कर माताजी की डपट मुख्य प्रशिक्षक रही " कुत्तों के कुशल प्रशिक्षक" नहीं । वह घर के बाहर सूसू करता और तब तक वहीं खड़ा रहता जब तक माताजी पानी न डाल देती और उसके पैरों से पानी बह न निकलता । बचपन में ही उसके ऐसे गुण से माताजी प्रसन्न थी " पूत के पांव पालने में ..." कि बड़ा होगा तो भी कोई ज्यादा मुश्किल नहीं होगी। पर कोई भी ज्यादा जीवित नहीं रहा और सभी दुर्घटना से ही गए । माताजी ने कहा हमारे यहां नहीं ' सहता ' शायद उसके बाद भूल से भी किसी पिल्ले को घर नहीं लाया गया । अब जब बड़े भाई के बच्चे, जो अब बड़े हो गए हैं ले आए, भाभी के बहुत विरोध के बावजूद वो घर का सबसे लाडला है । कोई भी उसे बिना खिलाए नहीं रहता और अब तो भाभी भी खुद को नहीं रोक पाती हैं।
इसी तरह अचानक दुर्घटना के कारण मुंह से खून भलभला गया और हमारा टॉमी भी हमें छोड़ कर चला गया । सब रोए, पर उसे लाने वाला मझला भाई राजू फूटफूट कर रोया उसी ने एक बोरा लिया और माताजी की साड़ी और उसे लपेटक अपनी गोद में लिए बैठ गया रिक्शे में, हम छ: जन थे सो दो रिक्शे किए और पास के जंगल में जाकर दफन कर आए । "बेलिनो की डिक्की देखते और हाथ मलते रह गये...." ऐसे ही हम भी लाचार, मानमसोस कर रह गए । उस दिन घर में शोक ही पसरा रहा, ना खाने का मन था किसी का और न खाना बना ।
संध्या हो चली थी यह सब निपटते - निपटते, शायद जल्दी ही सो गए होंगे हम, अब याद नहीं । दुःख के समय नींद का आना शायद सबसे बड़ी दवा होती है ।
यह सब याद आता भी या नहीं पर आपका यह संस्मरण पढ़ा तो अचानक सब आंखों के आगे किसी चलचित्र की तरह चलने लगा।
लक्ष्मी तिवारी
सर आपकी लेखनी में जादू है। बीजो की स्थिति बड़ी पीड़ादायक रही।
जवाब देंहटाएंसंस्मरण पढ़ना अपनी यादों को ताजा करना है।
जवाब देंहटाएंअब इतने बडे लेख पढ़ने से बचने लगी हूँ।
किंतु सच कहूँ
इसे इक बार खोल के पढ़ना प्रारंभ किया तो बंद ही न कर पाई।
आखिरी शब्द पर ही मन ने विराम लिया।
बहुत दिनों बाद आपके कारण इतना अच्छा संस्मरण पढ़ने को मिला।
आपकी पाठक व प्रशंसक,
पूनम।
मोहक।
जवाब देंहटाएंलैब्राडोर रहा हो तो 14 साल की उम्र पूर्णायु हुई। मेरे अनुभव में अधिकतम 13 साल 6माह की आयु आई है। जाने का दुःख तो होता ही है, पर इतनी आयु संतोष का विषय भी है। आप लोगों ने बहुत जतन से रखा होगा।
भाई शिवजी, बीजो आगामी सितंबर में 14 वर्ष पूरे करता। मैंने लाने का उल्लेख दिनांक के साथ किया है, जिससे 13 साल सात महीने ही है। मैंने मोटे मोटे में लिखा है 14 साल। इस जानकारी के लिए शुक्रिया - जैसे रखा हमने, वो तो लेख के अलावा अब क्या और कहूँ...
हटाएंसचमुच घर से जीव का जाना दुख देता है मगर इस आवागमन के नियम के आगे सब नतमस्तक होना पड़ता है!
हटाएंबहुत अच्छा संस्मरण।
आपका मैसेज आया। पोस्ट देखी पर पढ़ी नहीं। बीजू की फोटोज़ देखकर बहुत लाड भी आया तो बहुत दुःख भी हुआ।
हटाएंभाग्यशाली हूँ कि उस "संत" से एक बार मिलना हुआ था। बीजू उस दिन भी आपके पास शांति से बैठा था, वहीं चीकू में थोड़ी शरारत थी।
यह संस्मरण पढ़कर तब तक बहुत आनंद आया जब तक अकुल जी ने ढिठाई की व कहा कि उसे लाऊंगा भी और अपना हिसाब भी अलग नहीं करूंगा,बिजौ का बीजू और बिरजू बनना, गबरू का नामकरण, बच्ची का बीजू पर पूरा अधिकार जमा लेना, ठाकुर जी का कसरत करने पर बीजू की प्रतिक्रिया देना, साधु द्वारा गंगा स्नान करवाना।
पर बहुत-सी जगह आँखों को नम भी कर गया।
अब यही लगता है दुनिया में अगर सबसे भावनात्मक कोई है तो यही..हमारे पेट्स ही हैं। उनका जाना बहुत खलता है। आज भी जब मैं हमारे पेट्स- सोणी और सुंदर को याद करती हूँ तो आंखे भर आती हैं। जबकि मैं उनके साथ बमुश्किल2-3 महीने रही हूं। पर मैं उन्हें भूल नही पाती।
बीजू के जैसे ही गुण हमारी सोणी में भी थे। सब कहते कि ये तो पिछले जन्म में कोई सन्त ही थी ।
मेरे सामने ही बहुत पीड़ा सहन करके उसने दम तोड़ा। मुझसे नहीं देखा जा रहा था पर उपाय कुछ नहीं था।
बीजू के पास आपका होना सही होता या नहीं ये तो मैं नहीं कह सकती, पर हो सकता है ये उसके लिए सही समय हो, इस दर्द से छुटकारा पाने का।
भगवान उस शांत जीव को मोक्ष प्रदान करे🙏🙏🙏💐💐💐.
एक मुलाक़ात बीजू की हमसे भी हुई है । दुख है शायद आप के लिए, जीवन में संवेनशीलता के विभिन्न आयामों को आप ने जैसे उकेरा है आंखे भर आई,महादेवी को पढ़ाते समय आप उनके परिवार सदस्य(पालतू)का जिक्र बखूबी करते ऐसा लगता आप की भेंट होती रहती होगी उन सदस्यों से किन्तु लेख से पता चला कि उस संवेदना से आप जुहू स्थित घर पहुंचकर खुद ही परिचित होते रहते थे वह भी रोजाना । महादेवी का नीलू (कुत्ता)भी ऐसा ही रहा होगा । मेरा अभी तक किसी पालतू से ऐसा लगाव नहीं है किन्तु 'मेरे बचपन में घर भैंस थी जो कि कोई रिश्तेदार दान में के गया, दादा देना न चाहते थे तब भी वो के गए । दिन में ट्रक में लद कर १५ कीलो मीटर गई गई । सबने उसका स्वागत वहां वैसे ही किया जैसे नए पशु का किया जाता है किन्तु रात न जाने कब वह वहां से निकल पड़ी और सुबह के ४ बजे ठीक हमारे घर के बने अपनी जगह पर खड़ी उथल - पुथल कर रही थी घर के सभी लोगों को आहत के दौरान बाहर निकालकर देखना पड़ा, सब खुश लगा की जिसके लिए हम व्याकुल थे वो मिल क्या आश्चर्य भी हो रहा था वो अाई कैसे ? रास्ता कैसे पता आदि । मैं छोटी थी इतना करीब उसके कभी नहीं गई, उस दिन पहली बार उसको सहलाते हुए उसकी आंखों के आंसू देखकर लिपट कर रो दी और दादा को बोली अब इसे जाने मत देना।'आज यह लेख साल रहा है कि बहुत कुछ संसार में छूट रहा है । आप ने अपनी कलम से निरंतर यह प्रयास जारी रखा कि हमारी मानवता हमारे संवेदना संरक्षण से है । केरल की इस घटना से मानवता शर्मसार हुई ।
जवाब देंहटाएंप्रणाम सर,
जवाब देंहटाएंपढ़कर बहुत दुख हुआ.......आपका लेखन हमेशा रोचक लगा है पर आज बात अलग है| आज कहीं मन के भीतर एक शूल-सा चुभ रहा है.....इसमें मेरी भावुकता कम और बीजो के स्वभाव का अधिक हाथ है| मेरी आँखें नम और दिल भर आ रहा है| आँखों के सामने वे दिन तैर गए जब आपके यहाँ आती थी.... पहले-पहल तो बहुत डर लगा पर बाद में उसके संतत्व ने सचमुच उस डर को दूर कर दिया था| इतने सुंदर और भारी-भरकम दिखने के कारण मैंने एक बार कहा भी था कि इसका नाम गबरू होना चाहिए था पर उस नाम पर डॉबरमेन ने अधिकार कर रखा था| वैसे तो वह काफी बाद में आया था| पढ़ाई के लिए आपके घर की वारंवार यात्रा के दौरान उसके सौम्य स्वभाव से भी बहुत प्रभावित थे हम.....(युनिवर्सिटी में भी उसकी चर्चा होती थी....मेरी हार्दिक संवेदना स्वीकारिए......मुझे हमारे टाइगर की याद आ गयी| जानेवाले लोग किसी न किसी बहाने स्मृति का दरवाजा खटखटाते ही रहते हैं| कहने की बात नहीं...'जा तन लागे वो तन जाने' की तरह वे लोग ही जान सकते हैं जिन्होंने इनका साथ पाया है| हमारे साथ पाले पशु भी हमारे घर के सदस्य बन जाते हैं...बल्कि शायद वे हमसे उस तरह झगड़ते या बहस नहीं करते और ना ही छल करते हैं जैसे हम दो पैरों वाले प्राणी करते हैं इसलिए कुछ ज्यादा ही करीब हो जाते हैं....टाइगर के बाद फिर किसी और प्राणी को न पालने के पीछे किसी उत्तरदायित्व से पीछा छुड़ना या पशुओं के प्रति असहिष्णुता नहीं बल्कि इसी अनुभव से दोबारा गुज़रने का डर है| अंतिम समय में इनकी होने वाली दुर्दशा को न देख पाने की विवशता है......बहुत कुछ हैं मन में पर ....पुनश्च मेरी संवेदना स्वीकारिए और कल्पना मिस तक भी पहुंचाइएगा....
बहुत ही उम्दा लेख।
जवाब देंहटाएंबीजो के ऊपर सत्यदेव त्रिपाठी का संस्मरण बहुत अच्छा लगा। बीजो के साथ अपने रिश्ते का उन्होंने जिस आत्मीयता के साथ उल्लेख किया है वह सराहनीय है। जैसे हम किसी कुत्ते को परिवार का सदस्य मान लेते हैं वैसे ही कुत्ते भी पूरे परिवार को अपना परिवार मान लेते हैं। इस मनोविज्ञान को त्रिपाठी जी ने बहुत अच्छी तरह पेश किया है एक सुंदर संस्मरण के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएं- देवमणि पांडेय मुम्बई
बहुत अच्छा लिखा है, सर. पर पठन-पाठन-लेखन तो आपका प्रमुख कार्य रहा है....... और इस पर टिप्पणी करने की मेरी योग्यता भी नहीं.
जवाब देंहटाएंबीजो से आपका संबंध और उसकी मधुर यादें सदैव आप को आनंद प्रदान करेंगी. वह निश्र्चित ही एक ऐसा सहयात्री रहा है जिसका आपके निजी और पारिवारिक जीवन में बड़ा अहम् स्थान था.
ईश्वर उसे शान्ति दें! 🙏
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