नवस्तुति : अविनाश मिश्र और वागीश शुक्ल











वरिष्ठ पीढ़ी में कुछ लेखक-आलोचक ही हैं जो समकालीन लेखन से बखूबी परिचित हैं, युवा लेखकों को न केवल पढ़ते हैं, लिख कर या फोन से अपनी सहमति-असहमति भी दर्ज़ करते हैं. विष्णु खरे अब नहीं रहे. नरेश सक्सेना और वागीश शुक्ल जैसे कुछ लेखक अभी भी यह जरूरी संवाद बनाये हुए हैं.

कथाकार चंदन पाण्डेय ने अभी कल ही वागीश शुक्ल का ज़िक्र किया था कि कैसे उनके इन्टरव्यू को देखकर उस पर वागीश जी ने देर तक उनसे बात की.

ऐसा ही सुखद संयोग कवि अविनाश मिश्र के साथ भी घटित हुआ जब ‘नवस्तुति’ श्रृंखला की कविताओं को पढ़कर वागीश जी ने यह सुचिंतित टिप्पणी लिखी.

प्रायोजित आलोचना (लेख/संपादित-किताब) के इस बेशर्म दौर में किसी ईमानदार कवि के लिए यह कितनी आश्वस्ति की बात है कि कोई उसे पढ़ रहा है और उस पर लिख भी रहा है.

वागीश शुक्ल की यह टिप्पणी और फिर अविनाश मिश्र की ये कविताएँ ख़ास आपके लिए.


कवि से बड़ी कविता               
वागीश शुक्ल




अविनाश मिश्र की कविताओं का मैं उत्सुक पाठक हूँ और इस उत्सुकता की तफ़सील दर्ज़ करने के लिए कुछ समय से सोच रहा हूँ. इस इरादे को फ़िलहाल टालना ही ठीक लग रहा है किन्तु उनकी नवीनतम कविताओं जो नवदुर्गा को आश्रय मान कर लिखी गयी हैं, पर एक तात्कालिक टिप्पन करने का मन हो आया.

ये कविताएँ एक ठस अर्थ में भी `ताज़ा’ हैं क्योंकि ये बिलकुल अभी-अभी २५ मार्च २०२०—०२ अप्रैल २०२० के बीच लिखी गयीं जो विक्रमीय राज्यारोहण के २०७६ वर्ष पूरे हो चुकने पर प्रारम्भ होने वाले प्रमादी नामक संवत्सर के वासन्त नवरात्र का समय है. ये उस समय लिखी गयीं जब एक अभूतपूर्व संकट से निबटने के लिए हमारे देश ने एक अभूतपूर्व निर्णय लिया जिसको बताने के लिए खोजे गये अँग्रेज़ी शब्दों में social distancing और physical distancing के बीच चल रहे घमासान में हिन्दी के एक शब्द `संग-रोध ने पैठने की जुर्अत की है.

इस देशकाल-कीर्तन का सन्दर्भ रचना से नहीं, रचना-कार से जोड़ना चाहिए. आचार्य अभिनव गुप्त ने (‘नाट्यशास्त्र’ पर अपनी टीका में) देश और काल को काव्यास्वाद में विघ्न बताया था तथा सलाह दी थी कि प्रेक्षकों को नाट्यशाला में प्रवेश के पहले इनको बाहर ही छोड़ आना चाहिए. दूसरी ओर प्रत्येक अनुष्ठान के पहले हम घोषित करते हैं : मैं अमुक-वंशीय अमुक समय में अमुक स्थान पर.... मुझे इसमें कभी कोई सन्देह नहीं रहा है कि साहित्य-सर्जना एक सनातन-धर्मी अनुष्ठान है और मैं यहाँ इसे फिर एक बार स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यह कैसे है.

अनुष्ठान में हम अपना देशकाल सूचित करते हैं और अन्त में `इदम् न मम (= यह मेरे लिए नहीं)’ कह कर पूरे कृत्य को देवता के लिए समर्पित कर देते हैं. जिस देवता के निमित्त यह समर्पण होता है वह हमारे द्वारा सूचित देश-काल के निर्देशाङ्कन से भी परे होता है और उसके अपने देश-काल का भी कोई निर्देशाङ्कन नहीं होता. उसी प्रकार जिस आस्वादक के लिए साहित्य रचा जाता है वह रचयिता के देशकालाङ्कन से भी परे होता है और उसका भी अपना कोई देशकालाङ्कन नहीं होता—इसी ओर अभिनव गुप्त ने इशारा किया है जब वे आस्वादक के लिए यह आवश्यक मानते हैं कि वह अपना देश-काल छोड़ कर कविता के पास जाये. इसके साथ ही रचयिता अपना देश-काल सूचित करता है किन्तु इस प्रतिश्रुति के साथ कि यह रचना मेरे लिए नहीं है, मुझसे (और फलतः जिस देश-काल से मैं निर्देशित होता हूँ उससे) स्वतन्त्र है.

हमारे समय में साहित्यरचना और साहित्यास्वादन दोनों ही देशकाल की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं और इस प्रकार साहित्यकर्मी से विनम्रता का अधिकार छीन लिया गया है. वह पहले नियति के बनाये नियमों से स्वतन्त्र था अब वह मनुष्य के बनाये नियमों में कुछ जोड़ने-घटाने-सुधारने तक अपनी भूमिका को सीमित मानता है. उसके लिए साहित्य एक नक़ाब की हैसियत से अधिक महत्त्व नहीं रखता जिसके पीछे छिपा हुआ वह उसी हम्माम में घुस सके जिसमें समाज बनाने-चलाने की उम्मीदें पालने वाले मत-निर्माता (= opinion makers) घुसे हुए हैं.

मम्मट के शब्दों का सहारा लेते हुए मैंने ऊपर कहा था कि हमारे प्राचीन चिन्तन में कवि नियति के बनाये नियमों से स्वतन्त्र होता था. इसका तात्पर्य यह है कि उसे यह मालूम था कि ये नियम पारमार्थिक सत्य नहीं हैं, इनकी सत्ता केवल व्यावहारिक है जिसका अर्थ यह है कि इनके विकल्प सम्भव हैं. अतः वह उनसे जकड़ा नहीं था और संसृति की किसी भी निर्मिति को संशय से देख सकता था. उदाहरण के लिए उपनिषदों में कहीं लिखा है कि पहले जल हुआ फिर अग्नि आदि हुए, कहीं लिखा है कि पहले अग्नि हुई फिर जल आदि हुए. पढ़ने वाला घबड़ाता है कि क्या सच है. किन्तु आचार्यगण बताते हैं कि `सच’ दोनों में से कोई नहीं है क्योंकि सृष्टि स्वयं मिथ्या है इसका जो भी क्रम आपको समझ में आ जाय वही मान लीजिए क्योंकि उपनिषद् का प्रतिपाद्य सृष्टि का क्रम समझाना नहीं है. प्राचीन उदाहरण यह है कि जैसे ऐन्द्रजालिक जब रस्सी फेंक कर ऊपर चढ़ता है तब वह कभी पहले अपना सिर कट कर ज़मीन पर गिरता हुआ दिखा सकता है कभी पहले अपने हाथ, और यह बहस बेमानी है कि पहले क्या कट कर गिरता है. यदि इस उदाहरण से सन्तोष न हो तो यों समझ लीजिए कि यूक्लिद की ज्यामिति में समान्तर रेखाएँ कभी नहीं मिलतीं किन्तु उतनी ही गणितीय वैधता वाली ज्यामितियाँ भी हैं जिनमें समान्तर रेखाएँ मिलती हैं—कुछ ऐसी ही स्थिति हमारी ब्राह्माण्डिकी की है जिसे कोई चार विमाओं ( = dimensions) से समझाता है तो कोई दस से.

नियति से स्वतन्त्र होना यही है—चिन्तन और सर्जना को नियति-कृत किसी भी नियमावली के प्रति शंकालु होना चाहिए. इसलिए जब अविनाश मिश्र ने ‘सिद्धिदात्री’ में लिखा :

मैं संशय से न देखूँ कविता को
कि कविता संशय से देखे संसार को


तो `संसार का मतलब किसी समय-विशेष में किसी देश-विशेष की राज्य-व्यवस्था तक महदूद रखना कविता को महदूद करना होता है.

`स्वातन्त्र्य एक शक्ति है जिसका अर्थ अभिनव गुप्त ने `परप्रकाश्यता की अनुपस्थिति’ बताया है घड़ा स्वतन्त्र नहीं है क्योंकि बिना दिये की रोशनी के वह दिखता नहीं. अब हम `स्वातन्त्र्य’ का अर्थ `लिबर्टी’ लेते हैं जो एक परतन्त्रता से परिभाषित होती है वह टामस पैन ( = Thomas Paine) की उस मसीहाई घोषणा के अधीन है जिसके अनुसार हमारे भीतर वह शक्ति है कि हम एक संविधान बना कर दुनिया बदल सकते हैं. इस `दुनिया बदलने’ के अनेक प्रयोगों की डोरियों में बंधी कठपुतली की तरह नाचने में अपना अहोभाग्य मानने वाली कविता को ही `प्रतिरोध की कविता’ कहा जाता है. ख़िरद और जुनूँ के नामों की विनिमेयता को करिश्मासाज़ी[1] समझने वाले साहित्यबोध के समय में जब अविनाश मिश्र ‘स्कंदमाता’ में `कुलीनता की हिंसा’ को जानने में कवि होना पहचानते हैं और इसे दुनिया बदलने वाला कोई संविधान नहीं बताते क्योंकि `मुझसे पहले भी कवि’ यह जान चुके हैं तो यह अकुलीन हो पाने के साहस का रेखाङ्कन है— इसे ही मैंने ऊपर ‘विनम्रता का अधिकार’ कहा है.

कवि के विनम्र होने का क्या मतलब है जब कि उसका दावा नियति के नियमों से न बँधने का है? निःस्पन्द महाकाल के ऊपर आरूढ महाकाली को BDSM का एक `फोटो-आप मान कर जो नहीं रुकना चाहते वे उस समझ से समंजस हो सकेंगे कि यह स्पन्द का निःस्पन्दता पर अध्यारोप है. अध्यारोप का अर्थ है ‘अतद् ( = जो वह नहीं है) का ‘तद् (= जो वह है) पर आरूढ होना. इस प्रकार पारमार्थिक सत्ता निःस्पन्दता की है जिस पर स्पन्द की व्यावहारिक सत्ता आरूढ है. इस स्पन्द को ही शक्ति कहते हैं क्योंकि वह अभेद में भेद उभार सकता है, रस्सी में साँप दिखा सकता है पत्थर में मूर्ति उकेर सकता है— आवरण और विक्षेप की इन्हीं क्षमताओं के नाते उसे माया भी कहते हैं. इसी शक्ति का मूर्तन देवी के रूप में है और उसके आरोहण का स्वीकार ही विनम्रता है.

यह विनम्रता एक अस्त्रीकरण ( =weaponization) है. जो स्वयं शक्ति है उससे लड़ने का हथियार शक्ति कैसे हो सकता है? महाभारत’ में जब नारायणास्त्र चलता है तो उससे लड़ने के लिए जैसे-जैसे योद्धा उद्यत होते हैं वैसे-वैसे वह उग्र होता जाता है. अन्त में उसको शान्त करने का उपाय सबकी समझ में आता है और सब चुपचाप सिर झुकाए बैठ जाते हैं— यह सिर झुकाना ही उससे बचने का तरीक़ा है. शक्ति के स्पन्द को शान्त करने का एक ही तरीक़ा है—अपने में उसका या उसमें अपना विलोपन करना. यही विलोपन केवलाद्वैत में ‘अहं ब्रह्मास्मि’ के महावाक्य में नामीकृत और शाक्ताद्वैत में महाकाली के उस पुरुषायित में रूपीकृत होता है जिसकी चर्चा अभी आयी थी. यही व्यावहारिकता का पारमार्थिकता में विलोपन है जिसके बाद हमें अपनी प्रत्यभिज्ञा होती है. इस विलोपन को ही आराधना भी कहा जाता है.

जो कुछ भी दृश्य, बोध्य, वाच्य है इसी स्पन्द का चमत्कार है. इसलिए जब ‘स्कंदमाता’ में अविनाश मिश्र कहते हैं :

मुझे अपनी मूढता में मग्न रहने दो देवि,
तथ्यों और सूचनाओं का निषेध करने दो
ज्ञान नहीं है वह
ज्ञान की तरह प्रस्तुत है बस

तो मैं इसे इसी विलोपन के एक संस्करण की तरह पढ़ता हूँ और कविता की आराधना मानता हूँ.

अज्ञान को
`ज्ञान की तरह प्रस्तुत’ जान पाने के नाते ही ‘चंद्रघंटा’ में यह कहना सम्भव हो सका :

एक ही स्थापत्य में
कोई भवन देखता है कोई खँडहर
सत्यासत्य का भेद
दृष्टि-निर्भर है


`
कुलीनता की हिंसा’ भेद की यही दृष्टि-निर्भरता है जिसे साइब तबरेज़ी ने इस प्रकार पहचाना :

दिल+ए+तु चूँ गुल+ए+ रअना दुरंग उस्ताद० स्त
वगर्न० हुस्न+ए+ख़ज़ान+ओ+बहार यकदस्त स्त


[[ यह तुम्हारा दिल है जो गुल+ए+ रअना की तरह दो रंगों की उद्भावना करता है अन्यथा वसन्त और पतझड़ का सौन्दर्य एक ही है.

(
‘गुल+ए+ रअना’ का शाब्दिक अर्थ है `रूपगर्वित पुष्प’; यह भीतर से लाल और बाहर से पीला होता है.)]]

‘ब्रह्मचारिणी’ के तप-अनुशासन और रोमांच से अपरिचित नागरिकों की ओर से शोक हरने की प्रार्थना, जिन लोगों ने सुन्दरता जानी ही नहीं उन्हें सुन्दर करने की ‘महागौरी’ से की गयी याचना, वस्तुतः उन तमाम लोगों की ओर से ‘कालरात्रि’ के ध्यान का संकल्प है जो उन्हें भूल गये हैं, इस संकल्प का स्मरण ही ‘शैलपुत्री’ का स्मरण है. प्रकाशन के मरण से पनाह चाहती हुई सृष्टि की ओर से अपने सर्जनाहास के लिए चुने हुए अन्धकार में पहुँचाने की कृपा आदिस्वरूपा ‘कूष्माण्डा’ से माँगती हुई ये कविताएँ अपने स्थापत्य में प्रासादीय शिखरों की उत्तुंगता का दर्प नहीं दहाड़तीं, खुले आसमान के नीचे बनी पिन्डी में पुंजीभूत शक्ति-पीठ की ऊर्जा का वीणानुवाद करती हैं.

यों इन कविताओं में से प्रत्येक पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है किन्तु मैं इस लोभ का संवरण करता हूँ. इन कविताओं को परम्परा के सन्दर्भ में देखना .गलत नहीं है बशर्ते कि हम याद रखें कि `परम्परा’ व्याकरण की सुराग़रसाई से परे मानी गयी है और यह हमारी शब्द-सम्पदा में धातु और प्रत्यय से तराशे गये राजमार्ग से नहीं स्मरण की सुरंग से आयी है. स्मरण एक स्वाप्निक कर्तृत्व के विहार का उपवन है जिसमें छवियों का आकारग्रहण कर्मेन्द्रियों की पहुँच से दूर होता है और ज्ञानेन्द्रियों को उलटे पाँव चलने के लिए विवश होना पड़ता है. इसलिए ‘कात्यायनी’ के रक्तवर्णी घोषणापत्र की विचारपूर्ण प्रस्तावनाओं का रंग भले ही काले नमक का हो चुका हो, जिन सांध्यकालीन बैठकों में उसे शराब के साथ सलाद पर बुरका गया, उन से उठता हुआ बेतरह धुआँ उस घोषणापत्र की अभय-घोषणा को मूक कर पाने में अपनी असमर्थता को शिरोधार्य करने की रहस्साधना में ही पहचान पाता है :


ख़ल्क़े अज़ दूद+ए+तअय्युन ब०-जुनूँ गश्त अलम
शमअ-हा गुल ब०-सर अज़ शोख़ी+ए+परचम बर- ख़ास्त

                                                 —मिर्ज़ा बेदिल

[[ पूरी सृष्टि विक्षिप्त हो कर अपनी स्थिति के धुएँ का झण्डा घुमा रही है. (इस महफ़िल से) सभी दिये अपनी बुझती हुई बत्तियों के ध्वजोत्तोलन की चंचलता (के मार्ग) से ही बाहर निकले.

(गुल ब०सर =सिर पर `गुल’ धारण किये हुए. यहाँ `गुल’ में श्लेष है एक तरफ़ तो `गुल’ का अर्थ `फूल’ है जिससे तात्पर्य हुआ `पुष्पसज्जित सिर वाला अर्थात् गौरवान्वित’ दूसरी ओर `गुल’ उस पुष्पाकृति बिखराव को कहते हैं जो बुझने के कगार पर आये दिये की बत्ती के सिरे पर आ जाता है और जिसे काट देने पर उसकी रोशनी तेज़ हो जाती है.) ]]

हमारे समय में कवि अपने को कविता का बाप समझते हैं और सारा साहित्य-चिन्तन इस पितृसत्तात्मकता के उद्धरणों की चिनाई से बनता है. नवरात्र का समय कन्या-पूजन के माध्यम से पितृसत्तात्मकता की आलोचना का होता है. मैं उम्मीद करता हूँ कि ये कविताएँ उस आलोचना के स्मरण का जगराता बन सकेंगी जिसमें कोई उद्धरण नहीं है (शैलपुत्री).


wagishs@yahoo.com



[1]ख़िरद का नाम जुनूँ पड़ गया, जुनूँ का ख़िरद; जो चाहे आप का हुस्न+ए+ करिश्म०साज़करे हसरत मोहानी
___________________________________________________________________





नवस्तुति                    
अविनाश मिश्र




शैलपुत्री
_____

तुम्हारा स्मरण संकल्प का स्मरण है—
अनामंत्रण के प्रस्ताव और उसके प्रभाव का स्मरण

तुम्हारा स्मरण उस आलोचना का स्मरण है
जिसमें एक भी उद्धरण नहीं

रचना और पुनर्रचना के लिए
अपमान और व्यथा की अनिवार्यता का
स्मरण करता हूँ मैं
स्मरण करता हूँ
एकांत और बहिर्गमन के पार
ले चलने वाले विवेक का

मैं चाहता हूँ
एक असमाप्त स्मरण
चाहता हूँ
अनतिक्रमणीय चरण

चिरदरिद्र मैं माँगता हूँ
तुम्हारी शरण !





ब्रह्मचारिणी
________

तप का एक अखंड कांड हो तुम—
देह की सामर्थ्य का सफल अनुशासन

विध्वंस जब अस्तित्व पर व्योम-सा सवार है
तुम मनोकामना का रोमांच हो

तुम्हारे तप
तुम्हारे अनुशासन
तुम्हारे रोमांच से अपरिचित
नागरिकों की देह नहीं जानती सामर्थ्य
वह जानती है बस—
सारी गिनतियों से बाहर छूट जाना

वे उपवास में हैं
वे विलाप में हैं
मनोकामना के लिए तप में नहीं
ताप में हैं

तप करो माँ, परंतु
तप से नागरिक-शोक हरो माँ !




चंद्रघंटा
_____

ध्वनियाँ गूँजती हैं,
पुकारती हैं—

गूँजती हैं—दसों दिशाओं में—
पुकारती हैं—ध्वनियाँ

ध्वनियों से संकट को परास्त करने की
युक्ति लेकर आए हैं आततायी—
इस नवयुग में
व्याधि और भय के प्रसार में
क्या यह तुम्हारे ही चरित्र,
तुम्हारी ही प्रेरणा से संभव है

एक ही स्थापत्य में
कोई भवन देखता है कोई खँडहर
सत्यासत्य का भेद
दृष्टि-निर्भर है

दुरभिसंधियों की विचित्र दुर्गंध में
दया जया !



कूष्माण्डा
______

सृष्टि संभव हुई है तुम से
आदिकवयित्री हो तुम

तब जब तम ही तम था
तुम प्रकाशित थीं

अब जब इतना प्रकाशन है
प्रकाशित होते ही मरण है
तब कहाँ कौन-से तम में
किस सृष्टि के लिए
कैसे सृजन के लिए
हँस रही हो तुम

क्या जन उसी तरह मरेंगे
जैसे वे जीवित हैं
या बचेंगे
तुम्हारी अष्टभुजाओं से

कृपा
आदिस्वरूपा !




स्कंदमाता
_______

विपत्ति तथा मूर्खता में
एक साथ फँस चुका है समय

दोष और दायित्व दूसरों पर
मढ़ देने का समय है यह

शत्रु तो बहुत दूर है
मित्र ही शत्रु हुए जाते हैं
हृदय अवसाद से भर चुका है
समीप सड़न से
शासन पतन से—
धर्म को नष्ट कर रहा है वह

मुझे अपनी मूढ़ता में मग्न रहने दो देवि,
तथ्यों और सूचनाओं का निषेध करने दो
ज्ञान नहीं है वह
ज्ञान की तरह प्रस्तुत है बस

मुझसे पूर्व भी जान चुके हैं कवि—
कुलीनता की हिंसा !




कात्यायनी
_______

तुम्हारा स्मरण अत्यंत कल्याणकारी है,
लेकिन तुम स्वयं विघ्नों से घिरी हुई हो

मैं तुम्हें तब से जानता हूँ
जब तुम्हारे पास अपना कोई घोषणापत्र नहीं था

मुक्ति के लिए तुम्हारा संघर्ष
विचारपूर्ण प्रस्तावनाओं से युक्त था
वे लाल आवरण वाले उस घोषणापत्र से ली गई थीं
जो आने वाली बारिशों में काले नमक के रंग का हो गया
जिसे सांध्यकालीन बैठकों में शराब के साथ सलाद पर बुरका गया
बेतरह धुएँ से भरी इन बैठकों ने सब कुछ धुँधला कर दिया

तुम उनमें से नहीं हो
जिन्हें जब कुछ मिलता है, तब वे ठुकराते हैं
तुम ठोकर लगाओगी;
यह जानकर चीज़ें तुम तक आईं ही नहीं

तुम देर से आईं,
और जल्द पहचानी गईं !




कालरात्रि
______

ध्यान करता हूँ,
तुम्हारा ध्यान करता हूँ

तुम्हारी अनूठी कालिमा,
तुम्हारे मुक्त केशों का ध्यान करता हूँ

तुम्हारी चमकती आँखों का
ध्यान करता हूँ बार-बार
तुम्हारे तने हुए स्तनों का
जिनसे पाया आश्रय और आहार
ध्यान करता हूँ तुम्हारी सारी मुद्राओं का
जिनसे पाया निर्भय व्यवहार

ध्यान करता हूँ
तुम्हारा ध्यान करना
तुम्हारा ध्यान न करना
आपदा को आमंत्रित करना है

तुम्हें भूल गया,
इसलिए तुम्हारा ध्यान करता हूँ !





महागौरी
______

संकट सुदीर्घ हो या संकीर्ण,
एक रचनाकार प्रथमतः सौंदर्य-साधक होता है

संकट में सौंदर्य का अन्वेषण,
रचना की भौतिकी है

सब कुछ सौंदर्य है
क्लेश कुछ नहीं
कष्ट का कोई अर्थ नहीं
यह दुःख व्यर्थ है
केवल कोलाहल है,
अगर रूपांतरित न हो सके सौंदर्य में

हे महाशक्ति,
क्या तुम उनकी दीनता देख नहीं सकतीं
जिन्होंने जानी ही नहीं सुंदरता—
सदियों से वंचित

उन्हें वर दो,
सुंदर कर दो !




सिद्धिदात्री
______

जब सारी कविताएँ हो चुकीं
तब भी शेष है एक कविता

उसे भी कोई कहेगा
कि उसका अनुकरण हो सके

इस प्रकार कविता होती रहेगी
और अनुकरण भी
और सारी कविताओं का हो चुकना भी
और एक कविता का शेष रहना भी
जिसे जब कोई नहीं रचेगा अम्बिके,
तब उसे रचूँगा मैं

यह सिद्धि दो मुझे
उसका अनुकरण कर सकूँ
कि उसका अनुकरण हो सके
अनिवार्य है यह कार्यभार

मैं संशय से न देखूँ कविता को
कि कविता संशय से देखे संसार को !
_____________________
darasaldelhi@gmail.com

30/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. प्रचण्ड प्रवीर9 अप्रैल 2020, 9:59:00 am

    अविनाश जी की कविताएँ बहुत प्रभावशाली है। वागीश सर का लेख उपलब्ध कराने के लिए समालोचन का आभार

    जवाब देंहटाएं
  2. लता तिवारी9 अप्रैल 2020, 10:02:00 am

    अरुण जी इसमें यह भी जोड़ देना चाहिए कि इस दौर में कोई इसे प्रकाशित भी कर रहा है. समालोचन इसी लिए समालोचन है. आभार इतनी अच्छी कविताओं के लिए और वागीश शुक्ल की टिप्पणी के लिए भी.

    जवाब देंहटाएं
  3. भिक्षु भारत9 अप्रैल 2020, 10:40:00 am

    निःसंदेह अविनाश मिश्र अच्छे कवि हैं, लेकिन इन कविताओं में वह बात नहीं दिखती। 'साहित्य-सर्जन एक सनातनधर्मी अनुष्ठान है' यह कह कर टिप्पणीकार ने इन कविताओं का और भी अवमूल्यन कर दिया है। निराला और विवेकानंद ने ऐसी कई कवितायें लिखी हैं। 'राम की शक्ति पूजा' जिसका सुदीर्घ सौंदर्यपूर्ण वृत्तांत है। बंग्ला भाषा में ऐसी बहुत सी कवितायें मिल जाएंगी।

    जवाब देंहटाएं
  4. कृष्ण कल्पित9 अप्रैल 2020, 11:16:00 am

    हमारे समय में कवि अपने को कविता का बाप समझता है । (हिन्दी) का साहित्य-भवन इसी पितृसत्तात्मक चिनाई से बना हुआ है । वागीशजी की यह कठोर और निर्मम टिप्पणी केवल अविनाश मिश्र या उनकी नव-श्रृंखला पर नहीं अपितु समूचे (हिन्दी) साहित्य पर है । यह चिराग़ कई आँधियों पे भारी है अर्थात ये दो पंक्तियां हिन्दी-आलोचना के भारी-भरकम ग्रन्थों पर भारी है ।
    अविनाश मिश्र संशय से इस संसार को देखते हैं । यही संशयग्रस्तता उनकी कविताओं की शक्ति है । संशय ही संशय को ख़त्म कर सकता है । संशय विहग उड़ावनहारी । वे नवस्तुति के मिस एक नया पुराण रचते हैं । पुराण का अर्थ पुराना नहीं पुराने को नया करना है । आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के पुर्ज़े जब हवाओं में उड़ रहे हैं तब हमें जो कुछ भी मूल्यवान है उसे कसौटी पर कस कर और ज़ोखिम उठाकर भी बचा लेना चाहिये । वागीशजी, अविनाश मिश्र और समालोचन का आभार !

    जवाब देंहटाएं
  5. बधाई।लीक से हटकर।महत्त्वपूर्ण व्याख्या।नवप्रस्तुति उपयुक्त शीर्षक।

    जवाब देंहटाएं
  6. वागीश जी को मैं और तेजी निजी तौर पर जानते हैं। उनकी पुस्तकें हमारे पास हैं। उनके कुछ लेखों और एक साक्षात्कार के अँग्रेज़ी अनुवाद एक खण्ड के रूप में बहुत वर्ष पहले मैंने "Hindi" नामक अँग्रेज़ी पत्रिका में प्रकाशित किये थे। एक प्रकाण्ड विद्वान के तौर पर मैं उनका सम्मान करता हूँ। इसलिए उनकी टिप्पणी पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करूँगा।

    अविनाश की ये कविताएँ निश्चित ही बहुत सधी हुई, मंजी हुई कविताएँ हैं और इस वक्त हिन्दी में लिखी जा रही श्रेष्ठ कविताओं में हैं।

    जवाब देंहटाएं
  7. कूष्माण्डा
    ______

    सृष्टि संभव हुई है तुम से
    आदिकवयित्री हो तुम

    तब जब तम ही तम था
    तुम प्रकाशित थीं

    अब जब इतना प्रकाशन है
    प्रकाशित होते ही मरण है
    तब कहाँ कौन-से तम में
    किस सृष्टि के लिए
    कैसे सृजन के लिए
    हँस रही हो तुम

    क्या जन उसी तरह मरेंगे
    जैसे वे जीवित हैं
    या बचेंगे
    तुम्हारी अष्टभुजाओं से

    कृपा
    आदिस्वरूपा !

    अविनाश तुम प्रिय कवि हो।
    ऐसी कविताएं और ऐसी गहन व्यापक दृष्टि। वागीश जी को प्रणाम। समालोचन का आभार।

    जवाब देंहटाएं
  8. ज्योतिष जोशी9 अप्रैल 2020, 3:41:00 pm

    आज के इस कठिन समय में भारतीय काव्यालोचन को साक्ष्य मान वागीश जी ने अविनाश की इस शृंखला की कविताओं को जिस तरह परखा है, वह अपूर्व है। कविता अन्ततः ज्ञान अज्ञान के सत्यासत्य से परे की चीज है और एक तरह से विलोपन भी, जिसे वागीश जी आराधना कहते हैं। इस रूप में अविनाश की कविताएं अपने विन्यास में एक गहरी प्रार्थनाएं हैं जिनमें अर्थ कविता के सरलीकरण में नहीं, पाठक के चित्त के स्पंदन में उठती स्वर लहरियों में है। बधाई। साधुवाद वागीश जी के प्रति, जो अचानक जगा सके, अविनाश के प्रति, जिनकी यह सीरीज नवरात्र में पढ़ता रहा और धन्यवाद अरुण देव के प्रति, जो समालोचन पर इस सुंदर आलोचना के साथ अविनाश की कविताएं भी लेकर आए।

    जवाब देंहटाएं
  9. शिव किशोर तिवारी9 अप्रैल 2020, 5:29:00 pm

    असमिया में कहते हैं 'पानी घोला करा' माने साफ पानी वाली पुखरी को इतना मथो कि पानी कीचड़ से मिलकर अपारदर्शी हो जाय। वागीश जी ने वही किया है। कविताओं की अति साधारणता को अलक्ष्य करने में वे समर्थ हुए हैं । वागीश जी को बधाई ।

    मिश्र जी के सखा और सहायक बहुत हैं। इस दम पर कवि बनना चाहें तो लगे रहें । दूसरा रास्ता श्रमसाध्य है। पौराणिक शाक्त रूपक चुनने का मतलब है शाक्त ग्रंथों का, शाक्त धर्म से जुड़े तंत्र का अध्ययन करें । आचार में अनेक मंत्र चलते हैं जो किसी मूल ग्रंथ में नहीं मिलते परंतु साधना के अंग हैं । उनका शोध करना पड़ेगा । तब लिखने की शुरूआत होगी। कवित 'चंद्रघंटा' को लीजिए । इस देवी के नाम में घंटा है। मोदी ने थालियाँ-वालियाँ बजवाईं। दोनों को मिलाकर कविता भर का मसाला मिल गया। चंद्रघंटा का नाम केवल एक बार दुर्गासप्तशती की पोथी में एक अलग स्तोत्र में आता है। इस स्तोत्र में भी केवल एक बार। इस देवी की उत्पत्ति, उत्पत्ति का हेतु, स्वरूप क्या है इसके बारे में आपने क्या पता किया? मोदी को गालियाँ देना अभिप्रेत था तो उसके लिए यह तिनके की ओट क्यों ज़रूरी लगी? पहली कविता शैलपुत्री की कहानी सबको पता है। कवि ने सती से आरंभ करके पार्वती तक के पुराण को 'अनामंत्रित' और 'पुनर्रचना ' के निहायत स्थूल ध्वन्यार्थ में सीमित कर दिया। देवीभागवत में सती की कथा रोंगटे खड़े करने वाली है। शिव सती को दक्ष के यज्ञ में अनाहूत जाने को मना करते हैं । जवाब में सती अपने दस रूपों से शिव को आतंकित कर पिता के घर जाने का निर्णय लेती है। पिता के घर माता हुलसकर स्वागत करती हैं पर पिता उपेक्षा करते हैं । सती देखती है कि यज्ञ में उसके पति का 'भाग' नहीं है। वह यज्ञ का नाश करने लिए (अमर्ष-जनित आत्महत्या के लिए नहीं) छायासती के रूप में यज्ञ की अग्नि में प्रवेश करती है। इस कथा की अनंत नाटकीय संभावनाओं को कवि ने समझा भी नहीं । अनामंत्रित होना पता नहीं कौन सी ह्यूमन कंडिशन है!
    और समय देने लायक कुछ नहीं है यहाँ । अतः इत्यलम्।

    जवाब देंहटाएं
  10. मंगलेश डबराल9 अप्रैल 2020, 5:44:00 pm

    आस्थावानों-कर्मकांडियों के लिए अवश्य विचारणीय आलेख. लेकिन जो नवदुर्गा की धारणा और बहुत बाद में धर्मतंत्र में प्रविष्ट होने वाले चैत्र नवरात्र को समस्याग्रस्त करते हैं, उनके लिए कुछ भी नया नहीं.

    जवाब देंहटाएं
  11. कविता के लगभग तयशुदा समकालीन परिप्रेक्ष्य में अविनाश ने जिस तरह भुला दी गई परम्परा को समझने और आज व अब के सन्दर्भ में उसे नए सिरे से हासिल करने की कोशिश की है वह निश्चय ही उनके कवि को लेकर आश्वस्त करती है।

    जवाब देंहटाएं
  12. वागीश जी कालिखा भाष्य अपने आस्वाद से सम्मोहित कर लेती है और आलोच्य कविता के निहितार्थ को समझने की जादुई सोच से भावक को सक्षम बनाती है। निराला के बाद अविनाश के माध्यम से बागीशजी पढ़ने का मौका मिला। साधुवाद अविनाश।

    जवाब देंहटाएं
  13. यह कवितायें समकालीन हिंदी कविता का क्षेत्र-विस्तार हैं और बेहद सुचिंतित समीक्षा.।आपको बहुत बधाई

    जवाब देंहटाएं
  14. राजीव कुमार10 अप्रैल 2020, 11:24:00 am

    "साहित्य सर्जना एक सनातन धर्मी अनुष्ठान है।" ---- यह निष्कर्ष समझ में नहीं आता।

    जवाब देंहटाएं
  15. अविनाश मिश्र की कविताएँ पढ़ीं। नवदुर्गा की नवस्तुती! किस रूप में दुर्गा के इन रूपों को काल के इस खंड में याद किया जाए? यह इन कविताओं का हाज़िर और ग़ैरहाज़िर प्रश्न है। यह प्रश्न, पाठकों के लिए गंभीर और जटिल परेशनियाँ उत्पन्न करता है।
    परेशानी का सबब तब और बढ़ जाता है जब इन कविताओं को हम वागीश जी की लम्बी और उत्साही टिप्पणी के आलोक में पढ़ते हैं।
    परेशानी क्या है? सीधे -सीधे शब्दों में परेशानी है, प्राचीन को नवीन में दर्ज करने की? कैसे, जो पौराणिक है उसका आधुनिक में सामवेश किया जाए? यह कोई नई समस्या नहीं है। आधुनिक युग की शुरुआत ही से यह प्रश्न शाश्वत बना हुआ है। TS Eliot,WB Yeats, James Joyce, Virginia Woolf , Baudelaire, कुँवर नारायण और दुनिया के तमाम कवियों, लेखकों, सब के सामने यही समस्या थी?
    दूसरी कठिनाई इन कविताओं के आस्वादन की है । शक्ति पूजा की इस परम्परा को किस रूप में समझा जाए ? किस की है यह परम्परा? कौन है इसका पालक? क्या इसे सर्वव्यापी भारतीय परंपरा के रूप में दिखाया जा सकता है? क्या एक दलित इस शक्ति पूजा की परंपरा में भागीदार था/ है? और क्या स्त्रियाँ ही इस परम्परा का हिस्सा हैं/ थीं? नवरात्र में कन्या के पूजन को पितृसत्ता की आलोचना मान लेना, कितनी निर्दोष है यह संकल्पना!
    आज के इस दौर में, या कभी भी, अपनी परम्परा की लम्बी, गहरी परछाइयों से गुज़रते हुए, उसके प्रति अपने उतरदायित्व को भली भाँति समझते हुए, उसके आस्वादन की स्थिति कैसे पैदा की जा सकती? यह प्रश्न हर रचनाकार के सामने आता ही है। इस प्रश्न से जूझना उसकी रचना प्रक्रिया का अनिवार्य कर्म है।
    वागीश जी इन कठिन पक्षों को अभिनवगुप्त, मम्मट इत्यादि का ज़िक्र करते हुए यह कह कर दरकिनार कर देते हैं, कि “काव्यास्वाद में देश काल को विघ्न बताया गया है” !!
    क्या कविता देश काल से परे हो सकती है? यदि ऐसा है, तो कविता की भाषा में, उसके बिंबों में, उसके विषयों में पुरातन से लेकर अब तक, कोई भिन्नता का प्रश्न ही नहीं उठता। “देशकाल की बेड़ियाँ “ ही तो दरअसल किसी भी रचना को सार्वलौकिक बनाती हैं। इनसे निजात किस पारमार्थिक सत्य की और इशारा है? और क्या कविता मूलतः पारमार्थिक सत्य की तलाश ही है?
    “किसी भी निर्मिति को संशय से देखने” की दृष्टि सिर्फ़ पुरातन की ही नहीं आधुनिक की भी उतनी ही है, या शायद आधुनिक की अधिक ही हो।
    कविता और कवि का ahistorical और atemporal होना apolitcal होने की नाकाम कोशिश है। जो अंततः कविता को महदुद करने का ही काम करती है। ज़ाहिर है राजनीति से यहाँ सरोकार party politics या किसी विशेष ideology से नहीं है। यहाँ राजनीति से सरोकार “personal is political” की अवधारणा से है।
    इन कविताओं को देखने का एक नज़रिया और भी हो सकता है, जो सिर्फ़ परम्परा के रास्ते से होकर न गुज़रता हो। और वो रास्ता पुरातन और आधुनिक को साथ लेकर चलने का हो सकता है। जिसमें आधुनिक को सिरे से ख़ारिज न करते हुए उसके सरोकारों को समझने का प्रयास हो और आधुनिकता और परम्परा के विभिन्न आयामों के साथ संघर्ष की कहानी हो।और अविनाश ऐसा करते भी हैं। उसके कुछ उदाहरण इस तरह हैं :

    ध्वनियों से संकट को परास्त करने की
    युक्ति लेकर आए हैं आततायी—
    इस नवयुग में।

    एक ही स्थापत्य में
    कोई भवन देखता है कोई खँडहर
    सत्यासत्य का भेद
    दृष्टि-निर्भर है…

    तब जब तम ही तम था
    तुम प्रकाशित थीं

    अब जब इतना प्रकाशन है
    प्रकाशित होते ही मरण है…

    तथ्यों और सूचनाओं का निषेध करने दो
    ज्ञान नहीं है वह
    ज्ञान की तरह प्रस्तुत है बस…

    इन सभी उदाहरणों में परम्परा, अतीत और वर्तमान के बीच मध्यस्थता का कार्य करती है और उस और इशारा करती है जहाँ वर्तमान के तमाम उपद्रवों और विरक्तियों से घबराकर मनुष्य आत्म संरक्षण के लिए बैचेन हो उठता है।
    लेकिन क्या वर्तमान की आततायी प्रवर्तियों से बचने का रास्ता वागीश जी द्वारा इंगित किया हुआ है : अलौकिक, असंसारि, ज्ञानातित? या जैसा की कुछ आलोचकों का आरोप हो सकता है, कि इन कविताओं में वर्तमान की खुली छलाँग नहीं है , इस लिए ये प्रासंगिक नहीं है? ये दोनो ही रास्ते आधुनिकता के दोमुँह हैं, आपस में जुड़े हुए। एक आगे, एक पीछे । जिसे अंगेरजी में janus faced कहा गया है।
    अविनाश की कविताएँ हमें इस बीहड़ से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं दिखाती। रास्ता दिखाने को वे बाध्य भी नहीं हैं। लेकिन वे आधुनिक और परम्परा के आपसी रिश्ते की जटिलता को ज़रूर सामने रखती है। और ये कोई कम महत्वपूर्ण नहीं है।

    जवाब देंहटाएं
  16. वागीश जी की यह टिप्‍पणी अगर सिर्फ़ अविनाश मिश्र की कविताओं की समालोचना तक सीमित रहती तो साहित्‍य के मुझ जैसे सामान्‍य पाठकों के लिए यह कोई मसला नहीं होता। लेकिन, यह टिप्‍पणी साहित्‍य की रचना और आस्‍वाद को लेकर जिस तरह का सिद्धांत-निरूपण करती है वह साहित्‍य के सामाजिक सरोकार को दुलत्‍ती मार कर उसे समय के प्रति तटस्‍थ या उससे निरपेक्ष वैचारिक जाल की तरफ़ हाँकती नज़र आती है।

    हाँ,वागीश जी का यह साहस सचमुच शिरोधार्य है कि वे प्राचीन आचार्यों का हवाला देकर साहित्‍य की आधुनिक व्‍याख्‍या को उल्‍लेख करने लायक़ भी नहीं मानते। उनके सारे संदर्भ संस्‍कृत और फ़ारसी जैसी क्‍लासकीय भाषाओं तक सीमित हैं। आधुनिकता से उनका बैर इतना विकट है कि उसका प्रत्‍यक्ष उल्‍लेख न करके टामस पैन की उक्ति का उपहास उड़ाने लगते हैं।

    यह साफ़ साफ़ मनुष्‍य के चिंतन को अपने चयनित परिप्रेक्ष्‍य में महदूद करने की कार्रवाई है। मतलब जिस विचार या मत को महत्‍व न देना हो तो उसका उल्‍लेख ही न किया जाए!
    आखिर, साहित्‍य–सृजन के संबंध में वागीश जी जिसे ‘देशकाल की बेड़ी’बता रहे हैं उसे देशकाल की व्‍यापक प्रतिध्‍वनि मानने में क्या हर्ज है ? यह सचमुच विचित्र है कि वागीश जी को ‘दुनिया बदलने’ के प्रयोगों से इतनी नफ़रत है कि वे उनका उपहास करने की हद तक चले जाते हैं। कहना न होगा कि अगर साहित्‍य इतना ही सनातनधर्मी अनुष्‍ठान है तो फिर हमें सामाजिक और राजनीतिक व्‍यवस्‍था से उत्पीड़ित लोगों की व्यथा कहने वाले प्रेमचंद जैसे रचनाकारों का नाम अपनी स्‍मृति और साहित्‍य के अभिलेखागारों से उड़ा ही देना चाहिए!

    जवाब देंहटाएं
  17. मंगलेश डबराल10 अप्रैल 2020, 4:47:00 pm

    विजया सिंह के मुद्दे न सिर्फ इस आर्थ में ज़रूरी हैं कि कविता को कैसे पढ़ा जाए, बल्कि प्राचीन साहित्य के सन्दर्भ में भी वे सार्थक हैं. वागीश-जी को मानें तो रसास्वादन देश-काल से विमुक्त है और इस नज़रिए से हम-मिसाल के लिए--भवभूति के 'उत्तररामचरित' को 'रस: एक: करुण' की तरह, उसके कथ्य को परे खिसका कर देख सकते हैं. लेकिन शूद्रक के 'मृच्छकटिक, भास के 'मध्यम व्यायोग' या 'चातुर्भानी' आदि को इस मान्यता के आलोक में अपठनीय ही माना जाएगा. रसवाद और ध्वन्यालोक से पूर्णतः आलोकितों के लिए भी संस्कृत के अनेक आख्यान समस्यामूलक हैं. राधाबल्लभ त्रिपाठी ने संस्कृत काव्य की दूसरी परंपरा को भी रसवाद से अलग जाकर खोजा....मेरे खयाल से हिंदी की अंतिम रसवादी कविता 'भारती की 'कनुप्रिया' हैं लेकिन उसमें भी राधा यह पूछती है कि 'कनु, इस रस को, इस नए रस को क्या कहते है'!

    जवाब देंहटाएं
  18. प्रचण्ड प्रवीर10 अप्रैल 2020, 7:04:00 pm

    एक ज़िम्मेदार आलोचना पर विचार व्यक्त करने से पहले हमें थोड़ी तैयार अवश्य कर लेनी चाहिए। अभिनवगुप्त जिन सात रस विघ्नों की बात करते हैं वे इस तरह हैं - १. सम्भावना विरह २. स्वगत-परगत देशकालादि विशेषावेश ३. निजसुखादिविवशीभाव ४. प्रतीति-उपायवैकल्य ५. स्फुटत्व का अभाव ६, अप्रधानता ७. संशययोग। देशकालादिविशेषावेश का अर्थ है नाट्य के अर्थ को अपना या पात्रों का सुख दु:ख समझना। या नाट्यशास्त्र के पहले अध्याय में वर्णित - पाठक की मृत्यु - यह नहीं कहती कि रामायण की भाषा देश-काल विशेष की नहीं है, या उसके बिम्ब आधुनिक अर्थों के हैं, किन्तु उसके वर्णित विषय देश-काल की सीमा का अतिक्रमण कर के 'साधारणीकृत' हो जाते हैं।

    काव्य मूलत: परमार्थिक सत्य की तलाश नहीं, सत्य की तलाश अवश्य है। महादेवी वर्मा के शब्दों में 'सत्य' काव्य का साध्य है और सौन्दर्य उसका साधन है। हालांकि सम्प्रदाय विशेष से परमार्थ का मतलब 'पारलौकिक' न हो कर कुछ अलग हो जाता है। यशदेव शल्य के शब्दों में वामपंथ का परमार्थिक मूल्य उत्पादन और संसाधनों का सार्वभौमिक सुलभ वितरण है, उनके लिए यही परमार्थ है। और इस तरह परमार्थ की ही तलाश की जा रही होती है। इसलिए हम महादेवी वर्मा या सौन्दर्यवादी चिन्तनों से अपने सम्प्रदाय विशेष से प्रेरित हो कर सङ्कुचित होने के लिए स्वतन्त्र हैं।

    कविता का गैर-ऐतिहासिक या गैर-राजनैतिक कहना, यह पाठ्य से अन्य आरोपित अपेक्षा है जो पाठ्य के मूल कथ्य को समझने में या आस्वाद लेने में विघ्न है। जिस तरह अशुद्ध वर्तनी के साथ प्रस्तुत 'स्तुती' को 'स्तुति' पढ़ना और समझना एक विघ्न है। किन्तु अब हम विघ्नों के पार जाने के आदि हो चुके हैं, इसलिए आगे देखते हैं।

    जिन्होंने वागीश जी की पुस्तक - 'शहंशाह के कपड़े कहाँ हैं?' (२००६) नहीं पढ़ी, उन्हें पता नहीं कि वागीश जी प्राचीन (मम्मट, अभिनवगुप्त) से ले कर अर्वाचीन (देरिदा) दर्शन और समालोचना के अध्येता हैं। अत: आधुनिकता से बैर का आरोप निराधार है। ऐसा आरोप लगाने से पहले अपने अज्ञान पर शंका करना विनम्रता होती, लेकिन हमने अपनी यह विनम्रता खो रखी है।

    हम यह कैसे कहते हैं कि शूद्रक के मृच्छकटिकम में शृंगार रस नहीं है? या यह किसने कहा है कि बिना रस के कोई भी पाठ 'अपठनीय' है? इस तरह का आरोप अज्ञानता का राजनैतिक प्रदर्शन है। जिन्हें न पता हो, उनके लिए ध्यातव्य है कि संस्कृत काव्य समालोचना में रस के अलावा, ध्वनि, औचित्य, रीति, वक्रोक्ति, गुण-दोष और अलंकार - जैसे कई काव्य समालोचना सम्प्रदाय कम से कम हज़ार साल पुराने हैं। रस अपने मूल रूप में नाट्य से जुड़ा है। उस सिद्धान्त को हम अपने शेष पूर्वाग्रहों की तरह त्याग कर नहीं देख रहें हैं, जिसके कारण व्यक्तिगत या राजनैतिक जान पड़ते हैं।

    यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है कि राजनैतिक पक्षधरता बुरी है या त्याज्य है। यहाँ कहा जा रहा है कि कवि नियति (भाग्य नहीं, causal relationship के अर्थ में) के नियमों से परे अपने रचना का स्वतन्त्र संसार निर्मित करता है।

    इस को फिर से पढ़ें - "हमारे समय में कवि अपने को कविता का बाप समझते हैं और सारा साहित्य-चिन्तन 'इस' पितृसत्तात्मकता के उद्धरणों की चिनाई से बनता है. नवरात्र का समय कन्या-पूजन के माध्यम से पितृसत्तात्मकता की आलोचना का होता है."

    यहाँ कहा जा रहा है कि जब तक कवि अपने को कविता का जनक मानता है, जिसके कारण कविता का रूप संकुचित है, इस अर्थ में वह तात्कालिकता या मत-निर्माता के रूप तक सीमित है। जिन्हें इन्हीं नियमों तक रहना है, वे रहें। यह आलोचना कवि से बड़ी हो जाने वाली कविता के बारे में हैं, जो उसके दायरे को अतिक्रमित कर रही है।

    एक अच्छे पाठ की पहचान है कि वह बार-बार पढ़ी जाए और समझी जाए। अगर हम बोर्हेज की बौद्धिक कहानियों में 'रस' ही ढूँढेंगे तो इसमें न तो बोर्हेज़ का कोई दोष है, न ही रस सिद्धान्त का।

    जवाब देंहटाएं
  19. बलराम शुक्ल11 अप्रैल 2020, 12:41:00 pm

    संस्कृत और फ़ारसी से थोड़ा परिचय होने के आधार पर मुझे वागीश शुक्ल जी की गम्भीरता का कुछ अंशों में भान है। भारतीय साहित्य और विचार सरणि के विभिन्न युगों में विकसित एक दूसरे से अलग दीख पड़ने वाले सिद्धान्तों में एकता देख पाना और उन्हें एक धरातल पर ले आकर सुप्रस्तुत करना यह भगीरथ प्रयत्न है। इसे सहज साध पाने वाले सिद्धान्तकार की उपस्थिति किसी भी साहित्यिक परिवेश के लिए बाइसे फ़ख़्र है। जो लोग अपने बनाए ख़ेमों से बाहर नहीं निकलना चाहते वे आलोचना की इस जीवन्त बहुआयामिता से निष्प्रतिभ अवश्य हो सकते हैं।

    जवाब देंहटाएं
  20. संस्कृत और फ़ारसी से थोड़ा परिचय होने के आधार पर मुझे वागीश शुक्ल जी की गम्भीरता का कुछ अंशों में भान है। भारतीय साहित्य और विचार सरणि के विभिन्न युगों में विकसित एक दूसरे से अलग दीख पड़ने वाले सिद्धान्तों में एकता देख पाना और उन्हें एक धरातल पर ले आकर सुप्रस्तुत करना यह भगीरथ प्रयत्न है। इसे सहज साध पाने वाले सिद्धान्तकार की उपस्थिति किसी भी साहित्यिक परिवेश के लिए बाइसे फ़ख़्र है। जो लोग अपने बने बनाए ख़ेमों से बाहर नहीं निकलना चाहते वे आलोचना की इस जीवन्त बहुआयामिता से निष्प्रतिभ अवश्य हो सकते हैं।

    जवाब देंहटाएं
  21. मंगलेश डबराल12 अप्रैल 2020, 11:46:00 am

    वागीश-जी की गंभीरता ही नहीं, विद्वता और भाषिक विस्तार पर भी कोई बहस नहीं है, समकाल की कविता पढने की संस्कृतकालीन प्रविधियों के आग्रह और किसी भी तरह के द्वंद्वात्मक प्रत्ययों को नकारने पर है..आप स्वयं विद्वान् हैं और जानते होंगे कि संस्कृत साहित्य में भी सनातनता कोई मोनोलिथ नहीं है. नाटकों में कुलीन, श्रेष्ठी वर्ग संस्कृत बोलता है तो भृत्य, सेविकाएं, गणीकाएं, कुट्टीनियाँ प्राकृत में बात करती हैं. वागीश जी की प्रस्थापनाएं बेहद सवर्णवादी हैं और वे घरेलू पूजाओं-विवाहों में जल-तिल हाथ में लेकर यजमान द्वारा किये जाने वाले संकल्प--' वैवस्वत मन्वंतरे जम्बूद्वीपे भरतखंडे आर्यावर्त अंतर्गते' के इदं न मम: को भी साहित्य पर चस्पाँ कर देते हैं. (गलत मात्राओं के लिए खेद के साथ)

    जवाब देंहटाएं
  22. नरेश सक्सेना12 अप्रैल 2020, 1:45:00 pm

    Mangalesh Dabral फिर भी संस्कृत और फ़ारसी काव्य शास्त्र की पूरी तरह अनदेखी न करके देखना चाहिये कि उनकी कौनसी चीज़ें समकालीन काव्य तत्वों के विरुद्ध
    पड़ती हैं और क्यों।
    बिना नमूनों यानी उदाहरणों के व्याख्या अनायास अधूरी या अमूर्तन का शिकार होजाती है।
    सनातनता कलाओं में होती तो है किंतु आंशिक ।
    मनुष्य की शारीरिक संरचना ज़रूर काफ़ी हदतक सनातन कही जासकती है। लेकिन कलाओं को इस स्तर पर नहीं उतारा जा सकता।
    उनका स्वरूप और इसीलिये उनके पैमाने परिवर्तनीय होते हैं।

    जवाब देंहटाएं
  23. मंगलेश डबराल12 अप्रैल 2020, 1:46:00 pm

    Naresh Saxena मैं सहमत हूँ. आपत्ति सिर्फ यह है कि संस्कृत काव्य या नाट्य को सिर्फ रस-सिद्धांत से नहीं समझा जा सकता. बहुत से नाटक नाट्य शास्त्र का उल्लंघन करके लिखे गए. भास के नाटक पंचरात्र, उरुभंगम, करणाभरणं, शूद्रक और बोधायन के नाटक, फिर चातुर्भानी., शूद्रक के नाटक, मध्यम व्यायोग आदि.. आज की कविता को रसवाद से व्याख्यायित नहीं किया जा सकता. मसलन, वह नव-रसों से बाहर किसी ऐसे रस की हो गयी हैस 'विडम्बना -रस' कहा जा सकता है. ऐसा कोई भाव नाट्यशास्त्र में नहीं. दिक्कत यह है कि विद्वज्जन नए भोजन को पुराने चम्मचों से खा रहे हैं, जैसा कि बेर्टोल्ट ब्रेख्त कहते थे. संस्कृत-फारसी काव्यशास्त्र हमें आलोकित करता है लेकिन जीवन को हमें नए औजारों से ही जानना होगा. राधाबल्लभ त्रिपाठी जी का काम 'संस्कृत काव्य की दूसरी परमपरा' इसी नयी दिशा में है.

    जवाब देंहटाएं
  24. Mangalesh Dabral पूरी तरह सहमत। नयी संरचना बिना नये औज़ारों के असंभव।
    चम्मचों की क्या, धातुयुग से पहले वाले कैंची और नेलकटर विहीन युग की बात सोचिये, बढ़े हुए नाख़ूनों वाले हाथों से ,बिना आग पर पकाये हुए व्यंजनों के स्वाद केलिये
    भाषा कम अभिनय ही अभिव्यक्ति का माध्यम था।
    सबकुछ आंगिक। न भाषिक न आहार्य।
    टैकनोलॉजी के विकास ने सभी कलाओं को आमूल बदल दिया है। हालांकि
    ग्यान ने संवेदना के स्वरूप को तो बदला है फिर भी आंसू प्राचीन हैं।
    कलाएं आनंद के लिये होती हैं, फिरभी वे आंसुओं की उपेक्षा नहीं कर सकतीं।

    जवाब देंहटाएं
  25. अज्ञानता और अविनम्रता के आरोपों को पढ़ कर वर्जिन्या वूल्फ़ की “ A Room of One’s Own” से वो वाक़या याद आ गया, जिसमें उन्हें और उनकी बहन को Oxbridge University की लाइब्रेरी से यह कह कर लौटा दिया गया था, “ कि जाइए प्रवेश के लिए सही तरीक़े से आग्रह कीजिए ”। यह सिर्फ़ संयोग नहीं कि देवी स्तुति (वर्तनी सुधार ली है) की कविताओं पर जो बहस छिड़ी है उसमें कविता कैसी होनी चाहिए का संवाद पिता और पुत्र के बीच ही हो रहा है।बार -बार दोहराया जा रहा है, कि कवि को कविता का बाप नहीं होना चाहिए, माताओं का कहीं कोई ज़िक्र नहीं है।और तो और पितृसत्ता पर भी संवाद पिता और पुत्र के बीच ही हो रहा है।
    यह कैसी आलोचना की परम्परा है, जिसमें कविता के मूल में तो देवी है लेकिन आलोचना में पिता और पुत्र ही हैं। और देवी पर कविता पुरुशवादी समाज में कोई नई बात नहीं है, क्योंकि देवी पूजनीय है, वरों की देनी वाली है, शक्ति है इत्यादि -इत्यादि। और यूँ भी, जब भी परम्परा की बात उठती है तो उसमें आम तौर पर माताओं का कोई ज़िक्र नहीं आता। कहाँ है उनकी परम्परा? सब परम्पराएँ पिताओं की ही हैं। विनम्र होने की बात भी स्त्रियों के तक़ाज़े से ही की गई है। गोया विनम्र होना स्त्रियोचित गुण है।
    पंडित जन अज्ञानता का आरोप स्त्रियों और शुद्रों पर लगाते ही आए हैं, इसमें कुछ भी नया नहीं है।लेकिन साथ ही यह भी सत्य है कि अतीत में स्त्रियों और शुद्रों को शिक्षा से वंचित भी उन्होंने ही रखा।इस परम्परा का एक चेहरा यह भी है।अभी हाल का उदाहरण बनारस विशविद्याल का है जहाँ के संस्कृत विभाग के छात्रों ने के एक मुसलमान अध्यापक से पढ़ने से इंकार कर दिया और उन्हें नौकरी छोड़ कर जाना पड़ा। ज़ाहिर है इस परम्परा में जो इस परम्परा का नहीं है उसका स्वागत नहीं है। इसी के चलते इसे पढ़ने समझने वाले आज बहुत कम लोग बचे हैं, और ज़्यादातर ब्राह्मण वर्ग से ही हैं। इस बात पर आप मुझ पर अन्य आरोप लगाने को स्वतंत्र हैं। हमारे अपने कॉलेज में संस्कृत के कोर्स में कुल दस छात्र भी नहीं हैं। हाँ अंग्रेज़ी विभाग में ज़रूर Indian Aesthetics का एक पेपर MA के कोर्स में है। लेकिन उसे पढ़ाने वाला कोई नहीं है।
    विनम्रता का तक़ाज़ा तो यह भी है, कि अपनी परम्परा में आप लोगों को बुलाएँ, स्वागत करें, न कि उन्हें उलट पैर वापस लौटा दें। तो अब जिन्होंने मम्मट, अभिनवगुप्त इत्यादि को नहीं पढ़ा है, वे चुपचाप सिर झुका के निकल जाएँ । कविताओं का आनंद लेने के लिए पहले दुर्गा के सब स्वरूपों के बारे में पढ़ें, शास्त्रों को खँगालें, रस के सिद्धांत को समझें । क्या कविता के लिए यह ज़रूरी है? दरअसल वागीश जी कविताओं को सिर्फ़ परम्परा से जोड़ कर उसका क्षेत्र सीमित कर रहे हैं।
    “वर्णित विषय देश -काल की सीमा का अतिक्रमण कर के ‘साधारणीकृत’ हो जाते हैं से क्या अभिप्राय है? किसी भी विषय के साधारण हो जाने में क्या समस्या है? यशदेव शल्य का ज़िक्र किया गया, तो यहाँ रेमंड विल्यम्ज़ का ज़िक्र भी बनता है। जिनका अति प्रचलित कथन : ‘culture is ordinary’, Cultural Studies के एक पूरे अध्यन का क्षेत्र खोलता है। फिर आगे वामपंथ में New Left ने साहित्य और संस्कृति पर बहुत काम किया है। जिसमें वे स्वयं साहित्य को सिर्फ़ material production से संचालित नहीं मानते। शल्य की ही बात करें तो “संसाधनो का सार्वभौमिक सुलभ वितरण” कोई मामूली आकांक्षा तो नहीं है। ख़ासकर ऐसे देश में जहाँ ८०% आबादी अब भी ग़रीबी की रेखा के नीचे है। उनका परमार्थ रोटी, कपड़ा और मकान ही है। और अगर इतना वे जुटा पाएँ तो आगे शिक्षा और स्वास्थ्य। आप इन्हें एक संकुचित आकांक्षा मानने को स्वतंत्र हैं।
    रही बात सत्य की तो सत्य कोई एक चीज़ तो नहीं है। देरिदा का ज़िक्र किया आया, तो देरिदा के ही हवाले से, “all interpretaion is misinterpretaion” । इससे अभिप्राय यह है कि हर व्याख्या उतनी ही सत्य और महत्वपूर्ण जितनी की कोई और। यह भी विनम्रता का एक तक़ाज़ा है।
    बोर्हेज की बौधिक कहानियों में कोई ओर रस न सही बौधिक रस तो मिलेगा ही। संस्कृत के रस सिद्धांत के हवाले से बौधिक रस कोई रस है या नहीं, यह आप बताएँ?

    जवाब देंहटाएं
  26. प्रचण्ड प्रवीर13 अप्रैल 2020, 2:17:00 am

    उपरोक्त लेख में कहीं केवल 'रस-सिद्धान्त' की बात नहीं कही गयी है। यह आरोप और समाधान विषयान्तर है। बात 'देश-काल' जैसे विघ्न की हो रही है। जिन द्वंद्वात्मक प्रत्ययों की आप बात कर रहे हैं, उसकी आप प्रस्थापना करिए - जैसे कि अधिकतर मत-निर्माता करते हैं और करते आ रहे हैं। ब्रेख्त का काव्य हो या गोदार का सिनेमा, कला को राजनैतिक औज़ार बनाने के लिए वे जितने स्वतन्त्र हैं, उसका खण्डन करने के लिए दार्शनिक प्रस्थापनाएँ उतनी स्वतन्त्र हैं। भातिवादी सतमीमांसा को ही नकार देते हैं, इससे क्या प्रत्ययवाद निरस्त हो जाता है? या भातिवादी या अस्तित्ववाद ही एकमात्र सत्य हो जाता है? यह आपत्तियाँ राजनैतिक अधिक हैं और लेख के कथ्य से हट कर हैं, जिन्हें सर्वणवादी या संस्कृतनिष्ठ या प्राचीन कहने को सभी स्वतन्त्र हैं, किन्तु इन आपत्तियों में से कोई भी कथ्य के आस-पास तर्क, युक्ति या गम्भीरता से नहीं टिक रहा है।

    मुझे नहीं लगता कि वागीश शुक्ल का अर्थ पितृसत्ता और मातृसत्ता के द्वन्द्व के रूप कुछ स्थापित करने का है। कृपया मूल पाठ पढ़ें और अपने पूर्वाग्रहों से बाहर निकलें।

    परम्परा में सभी लोग का स्वागत है। इस बहस में यहाँ पर किसी का न लौटाया जा रहा है न ही भगाया जा रहा है, हाँ उनके अज्ञान से अवगत अवश्य कराया जा रहा है। अगर उपरोक्त कथनों से मेरा अभिप्राय न समझ आया हो तो मैं स्पष्ट कर देना चाहूँगा कि रस सिद्धान्त काव्य समालोचना के लिए पर्याप्त नहीं है। हालांकि वागीश जी का यह अभिप्रेत नहीं है। साहित्य और काव्य को राजनीति का औजार बनाया जा सकता है जैसा कि वामपंथी चाहते और करते ही रहते हैं, लेकिन वे इससे परे भी हैं। जब आप बिना पढ़े खण्डन मण्डन पर उतारूँ हैं, तो उसे विनम्रता का अतिक्रमण अवश्य कहा जा सकता है।

    रस सिद्धान्त के अंतर्गत साधारणीकरण 'शैव दर्शन' से सम्मत एक तकनीकी शब्द है। बेहतर जानकारी के लिए अभिनवभारती देख सकती हैं। वामपंथ के नजरिए ने साहित्य का कितना सङ्कुचित बनाया है उसके लिए हम एक लम्बा विमर्श कर सकते हैं, वह इस लेख का और बहस का बिन्दु नहीं है। लेख में जो कहा गया है, वही आप कह रही हैं कि जो स्टालिन और माओ कहते हैं गरीब को रोटी दो और पीछे से बन्दूक की गोली का 'क्लॉउज' जाने और अनजाने में लगा देते हैं। आप उन्हें अवश्य पढ़िए और बहस कीजिए किन्तु गाँधी का आपके यहाँ कोई स्थान नहीं। उसी तरह आप वर्जिनिया वुल्फ पढ़ेंगी पर हज़ारीप्रसाद द्विवेदी या जयशङ्कर प्रसाद या महाप्राण निराला को पढ़ना तो छोड़िए भूले से उनका नाम भी न लेना चाहेंगी। अगर आपने वागीश जी की छंद-छंद पर कुङ्कुम पढा हो, निराला और शक्ति पूजा का अर्थ समझती होंगी। निर्माता या राजनैतिक औजार बनने में आपकी इच्छा है तो उसका भी यथोचित स्थान है। भरत मुनि के रस सिद्धान्त के में न तो कोई बौधिक अथवा बौद्धिक रस होता है, न ही हो सकता है। इसलिए आपसे निवेदन है कि यदि आप सत्यनिष्ठ हैं, और सच में उत्सुक हैं तो नाट्यशास्त्र या अभिनवभारती पढ़िए। आपकी निजी और वामपन्थी की प्रस्थापित व्याख्याओं को हम स्वीकार और अस्वीकार कर सकते हैं, किन्तु आपके अज्ञान और राजनैतिक पूर्वाग्रहों से प्रेरित अनुचित टिप्पणियों की हम निन्दा करते हैं। जिस चीज को आपने पढ़ा तक नहीं, जाना तक नहीं उस पर आप बिना समझे टीका टिप्पणी कर रही हैं।

    जवाब देंहटाएं
  27. शिव किशोर तिवारी13 अप्रैल 2020, 6:55:00 am

    प्रचण्ड प्रवीर जी, Ontology. (The damned autocorrect!). हिन्दी में सत् मीमांसा हो सकता है। सतमीमांसा कोई शब्द नहीं है। आपने जिस तरह लिखा है, यह सब बताने पर भी किसी की समझ में कुछ नहीं आयेगा। फिर भी प्रत्ययवाद= idealism. इतना और जोड़ देते हैं सुविधार्ध।
    मंगलेश जी, नहीं समझ में आयेगा। मांझा लपेटने में प्रचंड जी आपसे बहुत आगे हैं । कह आप दोनों कुछ नहीं रहे हैं । फिर भी, देखिए तकरीर की लज़्ज़त ...

    जवाब देंहटाएं
  28. प्रचण्ड प्रवीर13 अप्रैल 2020, 6:55:00 am

    Tewari Shiv Kishore सर ऐसा है कि हम कह बहुत कुछ रहे हैं, पर समझने वाले जान बूझ कर न समझ रहे हैं न समझना चाह रहे हैं। फिर भी आपकी सुविधा के लिए फिर से बता रहे हैं। अद्वैत वेदान्त और शिवाद्वयवाद दृष्टियों से, उनकी सत् मीमांसा और ज्ञान मीमांसा से सौन्दर्य चिन्तन की आलोचना का अधिकार उसे बिना जाने समझे नहीं मिल जाता है। अब साधारणीकरण नहीं समझते हैं, रस सिद्धान्त में आप नया रस निकाल रहे हैं, और फिर रस सिद्धान्त को दोष दे रहे हैं तो आप रेत में से तेल निकालने का काम कर रहे हैं। विवर्तवाद से आप यह अपेक्षा रखिए कि वह चार्वाकवादी दृष्टि का सम्मान करे, शून्यवाद से अपेक्षा करें कि वह आत्मवाद को अपने में समाहित कर ले, वैशेषिका से यह अपेक्षा करें कि वह अर्हतों की राह पर चले। क्यों भला? फिर भी यह आपको मांझा लपेटना लगता है तो फिर कहा ही क्या जा सकता है?

    जवाब देंहटाएं
  29. बलराम शुक्ल13 अप्रैल 2020, 6:56:00 am

    कितना अजीब है कि अब साहित्य में ये विशेष भावना से भावित लोग तय करेंगे कि कविता का विषय क्या हो और उसके आलोचना की सामग्री क्या हो? कवि इनकी जानकारी के दायरे वाली ही कविता लिखें। कविकर्म जिस पर किसी का ज़ोर नहीं उसे महदूद करने की सोचने वाले ये कौन है? बक़ौल फ़ैज़ - " सनम सिखलाएंगे राहे राहे ख़ुदा ऐसे नहीं होता।" अथवा दण्डी के अनुसार - "किमन्धस्याधिकारोस्ति रूपभेदोपलब्धिषु।" आजकल का कवि अगर कविता का बाप है तो यह आलोचक मण्डली ज़रूर कविता की 'धाय माँ' है। मरने तक दाइयाँ बच्चों को देखकर कहती ही रहती हैं - "यह मेरे हाथ का बच्चा है"। ये वे दाइयाँ हैं जिन्हें प्रसूतिगृह में जाने से पहले घरवाले कहते हैं- "देखना! हमें एक ख़ास तरह का बच्चा ही चाहिए।" और इन्हें इसका घातक आत्मविश्वास भी होता है। मज़्कूर जैसी अद्भुत कविताएँ जब आती हैं तो उन्हें अपना मसनद डोलता सा लगता है, और ऐसी कविता को अगर आलोचक भी मिल जाए तो इन्हें अपदस्थता का अनुभव होता है। यही बात है!

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.