कवि-आलोचक शिरीष मौर्य इधर विषय केन्द्रित कविताएँ लिख रहें हैं. बौद्धमत से सम्बंधित सिद्धों के ‘चर्यापद’ को आधार बनाकर लिखी उनकी कुछ कविताएँ आपने समालोचन पर अभी कुछ दिनों पहले पढ़ी हैं.
प्रस्तुत श्रृंखला ‘राग पूरबी’ पश्चिम द्वारा अपनी राजनीतिक आवश्यकताओं के कारण निर्मित ‘पूरब’ से आमना-सामना करती हैं. पूरब के अपने पूरबीपन (एशियाई) के महीन रेशों को खोलती हैं, उसकी गरमाहट को महसूस करती हैं. एक तरह से ये कविताएँ सभ्यताओं के आपसी रिश्तों की एक असमाप्त कविता बन जाती है. भाषा में भी इसका ख्याल रखा गया है. कविता जब इतिहास में प्रवेश करती है तब महाकाव्य का रास्ता निकलता है. यह समय महाकाव्यों का तो नहीं है. यह समय सत्य की असंख्य श्रृंखलाओं का है.
प्रस्तुत है इस श्रृंखला की ये १७ कविताएँ.
भूमिका
राग पूरबी
जब
मग़रिब में
सूरज
डूबता
है
बजता
है
मशरिक़
में
राग
पूरबी
संझा
की द्वाभा वाला
एक
राग ख़ास
जिसके
मग़रिब
और मशरिक़
ऋषभ
और धैवत
दोनों
कोमल
किसी
सपने
सरीखे
शेष
शुद्ध
ज्यों
चलता संसार का
अपना
सब
कारोबार
(प्रो.एडवर्ड सईद और इज़रायली कवि येहूदा आमीखाई की स्मृति को ये कविताएं सादर समर्पित हैं.)
राग पूरबी
शिरीष मौर्य
राग पूरबी १.
ये
रसोईघरों में
पुलाव
बनने की रुत है
कई
रोज़ से
जो
हर वक़्त कड़क धूप
गिर
रही थी
मकानों,अहातों
खेतों, बाज़ारों
इंसानों
की देह और
किरदारों
पर
उन
सब पर अब
मशरिक़ी
हवाओं की
मेहरबानी
है
सब
ओर पानी पानी है
रसोईघर
में बनते
पुलाव
की महक
और
बरतनों की खनक
निहायत
मशरिक़ी चीज़ें
पहले
से नहीं थीं
अब
हैं
बरतन
बेआवाज़
मशरिक़ी मिट्टी के थे
खिचड़ी
थी शायद मशरिक़ी
लेकिन
पुलाव
थोड़ा
मग़रिबी था
घोड़े
भी
मग़रिब
से आए और
मशरिक़ी
चारागाहों में
चरने
लगे
और
उनके साथ इधर पिछले कई सालों में
तवारीख़
को भी
चर
गए कुछ लोग
घोड़ों
की पीठ पर जीन कसने का
काम
उन्हीं का था
उन्हीं
ने हर हमले की तैयारी की
इंसानी
रिश्तों की लहलहाती फ़स्लों पर
लीद
करते रहे
उनके
सिखलाए घोड़े
और
आम इंसान घोड़ों की नस्ल पर
इठलाते
रहे
हम
तब समझे
मसले
की संज़ीदगी
जब
हमारे
पुलाव में
लीद
की महक आने लगी
हमें
जिन घोड़ों की सवारी करनी थी
उन्हीं
की लीद तले दबी हुई है
हमारी
दुनिया
और
ये दुनिया भी क्या अजब चीज़ है
साहब
हमें
उन्हीं रास्तों पर ले जाती है
तवारीख़
में जहाँ
हमें
हमारी पहली रोटी मिली थी
और
हमारे ख़ून का पहला कतरा
गिरा
था
राग पूरबी २
पूछना
था
कि
पहली रोटी किसने बनाई
मग़रिब
ने
या
मशरिक़ ने?
पूछता
हूँ पहला तेग़
पहला
तबर
पहली
तोप किसने बनाई?
किसने
ईजाद किया
फाँसी
का फन्दा ?
तीर
ओ कमान का ख़याल
पहले
किसे आया?
संगसार
कर देने का चलन
किसने
चलाया?
क़ानून
में
सज़ा
ए मौत मग़रिब का फ़ैसला था
कि
मशरिक़ का?
दुनिया
में मौत के तरीक़े
ज़्यादा
हैं
कि
इलाज के?
ये
भी इसी अहद का
एक
क़िस्सा है
कि
रोटियाँ कपड़े में लिपटी
ताख
पर धरी
बासी
हो जाती हैं
और
घर से दूर उन्हें कमाने वाला
आदमी
नादार
ओ नाशाद गुज़र जाता है
गुज़र
जाने से पहले
पूछता
है
फ़िलवक़्त
पायमाली कहाँ ज़्यादा है ?
जवाबदेही
किसी की नहीं
पर
बोलने से पहले
हर
कोई
ठीक
ठीक जान लेना चाहता है
कि
पूछने वाला
कहाँ
गुज़रा था
मग़रिब
में
कि
मशरिक़ में?
अजब
दुनिया है
साहब
इधर
मौत की वज्ह कोई नहीं पूछता
सिम्त
सब पूछते हैं
उधर
हौले से करवट बदल लेती हैं
क़ब्र
में ख़ामोश सोई हुई
हमारी
रूहें
राग पूरबी ३
आतिशपरस्ती
न
मग़रिबी थी न मशरिक़ी
ज़िन्दगी
की ज़रूरतों ने
आग
को चुना
जैसे
पानी को चुना
माँस
और अनाज को चुना
जूट
और कपास को चुना
फिर
उन ज़रूरतों ने
रहने
के इलाक़े चुने
न
जुनूब की फ़िक़्र की
न
शुमाल की
जुनूब
में
अकसर
ही समन्दर मिला
और
शुमाल में पहाड़
इंसान
की फ़ितरत ए तशद्दुद और
बहसतलबी
न
डूबने को तैयार थी
न
बर्फ़ में
गड़
जाने को
उसने
अपनी
दो सहूलियात और सिम्त चुनीं
मग़रिब
ओ मशरिक़
इंसानियत
के
सारे
काफ़िले इन्हीं दो सिम्त में
दफ़्न
हैं
अब
हवाएँ किसी सिम्त की हों
अपने
साथ
ख़ून
की ही बास लाती हैं
अजब
दुनिया है
साहब
मग़रिब
से देखें तो मशरिक़ में
और
मशरिक़ से देखें तो मग़रिब में
बरबाद
ओ तबाह नज़र
आती
है
राग पूरबी ४
अजब
दुनिया है
साहब
जिसमें
रहते हुए
हम
ताउम्र उन ताबीरों में उलझे रहे
जो
वाबस्ता थीं
किन्हीं
और के ख़्वाबों से
हम
नहीं जान पाए
कि
हमारे क़त्ल का भी ख़्वाब
देखा
था
किन्हीं
लोगों ने
किन्हीं
और लोगों ने
अपनी
ताबीरों में
हमें
मरने से बचाया था
हम
किसी के लबों पर प्यास
किसी
के दिल में आस
और
किसी के ज़ेहन में गुज़रे ज़माने की
बास
की तरह थे
महज
आज की नहीं
ये
तवारीख़ी बात है
कि
मशरिक़ ओ मग़रिब के सब रास्ते
हमेशा
से
कूच
ए नख़्ख़ास की तरह थे
जहाँ
गोबर
और
लीद की महक के बीच
सिर्फ़
गुबरैले ही थे
जो
अपनी ज़िन्दगी
अमन
ओ चैन से गुज़ारते थे
जिन
पर हर वक़्त पसमांदा डंगरों के
खुरों
की आवाज़ आती थी
दुनिया
उनके
मुँह और नाक से उठ रही
गर्म
भाप से भर जाती थी
अजब
दुनिया है
साहब
मग़रिब
की बात करें कि मशरिक़ की
तवारीख़
की बात करें कि मुस्तकबिल की
ख़्वाबों
की बात करें कि ताबीरों की
पसमांदा
डंगरों के
सिर्फ़
खुरों की आवाज़ आती है
क़त्ल
होने से पहले
वे
ख़ुद कभी किसी को नहीं पुकारते हैं
आज
भी
मुआशरे
में वे चंद गुबरैले ही हैं
जो
अमन ओ चैन से अपनी
ज़िन्दगी
गुज़ारते
हैं
राग पूरबी ५
मैंने
हवा को
उसकी
गिज़ा दी
और
पानी को उसकी
एक
दिन
मैं
मुल्क के सुल्तान को
उसकी
गिज़ा दूँगा
और
सबसे आख़िर में
आग
को
और
ख़ाक़ को
कोई
नहीं पूछेगा
कि मुझे
भी मेरे हिस्से की गिज़ा मिले
ये
किस पे फ़र्ज़ था
मुल्क
में हर आदमी को
उसके
हिस्से की गिज़ा मिले
ये
किस पे फ़र्ज़ है
कहीं
कुछ सुनाई नहीं देता
मैं
सुन पाता हूँ तो उन कीड़ों की
आवाज़
जो
देह को भीतर से खाते हैं
और
हवा की
जो
बाहर से सहलाती है
इन दिनों
राग पूरबी ६
मुल्क
में गर्म हवाएँ चलती हैं
हम
छुप जाते हैं
मुल्क
में ठंडी हवाएँ चलती हैं
हम
सो जाते हैं
बारिशें
होती हैं तो सूखा रहना
चाहते
हैं
धूप
हो तेज़ तो भीगना चाहते हैं
हम
मज़हबी किताबें पढ़ कर
ख़ुश
होना
और
मुल्क का आईन* पढ़ कर
रोना
चाहते हैं
एक
दिन
जब
हमारी गवाही होगी
हम झूठ
बोल देंगे
सच
पर
इस
तरह गिरेंगे
जैसे
मरहूम की देह पर
पछाड़ें
खा खा गिरते हैं
घर
के लोग
हमारे
पास ताबूत बहुत हैं
बहुत
सारे इंतिज़ाम कफ़न और दफन के
हम
अदालतों
से दया
और
हुक्मुरानों
से इंसाफ़ माँगने वाले
लोग
हैं
हमारा
कुछ नहीं हो सकता
हमें
याद ही नहीं
कि
तवारीख़ में रोटी और आग
पानी
और सहरा के बीच
ख़ाक़
पर
हमारे
बिस्तर थे
आज
हम
सितारों के लिए लड़ने
और
रोटी को
भूल
जाने वाले लोग हैं
लोग
भी क्या
गिरोह
ही हैं पूरे
हमारा
सितारा उफ़क़ पर
किस
ओर है
कोई
नहीं जानता
पर
हर कोई जानता है
झगड़ा
हमारा
राग पूरबी ७
दरिन्दों
में घायल तेंदुआ हूँ
चरिन्दों
में सींग टूटा हिरन
परिन्दों
में बेनाख़ून उकाब
दौर
ए आज़माइश में बेकार है
शाइस्तगी
की उम्मीद
मुझ
से
मैं
पुरबिया
जितना
टूटता
बिखरता हारता हूँ
और
भी
मुँहजोर
हुआ जाता हूँ
राग पूरबी ८
चींटियों
ने
उड़
उड़कर बारिशों का
एलान
किया
फ़ाख़्ताओं
ने
गुनगुनी
धूप के साथ आँगन में
उतर
कर
सर्दियों
की पहली ख़फ़ीफ़ 1
इबारत
लिख
हमारे
सिरहाने रख दी
बहारों
के तो थे हरकारे बहुत
ख़ियाबाँ
2 से लेकर
शाइर
तक
कौन
ज़्यादा आदिल 3 था
तितलियाँ
बेहतर
जानती हैं
गर्मियों
का परचम
आसमान
में लहराया जंगली सुग्गों ने
अज़ीज़ों
का
दिल
आबाद करते हुए
वो
आम के
बाग़ीचे
बरबाद करते रहे
पहरेदारों
ने
एक
हाँका भर लगाया
और
कुछ न कहा
इस
सब के बीच
तवारीख़
में
न
जाने कितने हुक्मरान बने
और
मिट गए
दुनिया
ज़ारशाही
से जम्हूरियत तक
आई
कुदरत
ने बनाया
सबसे
बेहतर आईन
और
हमारी
नींदों के तले
छुपा
दिया
कोई
हैरत नहीं
कि
नींद में ही मुस्कुराते हैं
तमाम
पसमांदा
लोग
और बस
उतनी भर देर मुल्क का
निज़ाम
रोशन रहता है
1.हल्का/नाज़ुक
2.फुलवाड़ी
3.न्याय
करने वाला
राग पूरबी ९
सुनो
ये जो हमें
बुख़ार
है
ये
बहुत लम्बे सफ़र पर
हाँक
दिए गए
घोड़े
की
बेहद
गर्म साँस हैं
नादानी
में देखे गए
ख़्वाब
लगातार
हमारे
तलुवों में
चिकोटियाँ
काटते हैं
हमारी
देह पर
हमारे
अरमानों का ख़फ़ीफ़ सा
एक
लिबास है
और पाँवों में सफ़र बबूलों की
घाटी का
एक
दिन
किसी
रेगिस्तानी दरिया में
लेटे
होंगे
हम
बेपैरहन
हमारे
घोड़े
महीनों
से सूखे बेबारिश मैदानों में
खुरों
से
घास
की सूखी जड़ें
उखाड़ेंगे
और
तपती
चट्टानों पर पड़ा होगा
हमारा
बुख़ार
सबसे
मुश्किल एक ख़याल
की
तरह
राग पूरबी १०
अजब
दुनिया है
साहब
जिसे
कीड़ों ने धरती के अंदर
क़ायम
किया
हमारे
पाँवों तले
कुछ
ही नीचे चलती रहीं
दीमकें
चींटियों
के ख़ानदान
अज़ल
से
वहाँ
आबाद रहे
उनके
अंडे हम अपनी पीठ पर
ढोते
रहे ख़्वाब में कई बार
हम
ख़ुद एक
बहुत
बड़ी चींटी थे
कोई
चींटी थी
बहुत
बड़ा एक आदमी
अजब
दुनिया है
साहब
जिसे
मछलियों ने पानी के सहारे
बुना
इंसानों
ने जाल बिछाए
तो
सबसे पहले
निकल
भागा पानी ही
अजब
दुनिया है
साहब
जिसे
चिड़ियों ने
हरदम
हरदम
हवाओं
पर सवार रक्खा
हंस
के
पंखों
से बना तकिया
अपने
बच्चों के सिरहाने
लगाती
रहीं माँएँ
लेकिन
बहुत
नाज़ुक एक अंडा
हर
बार
बच्चों
की
नींद
में टूट जाता था
और
वे
चीख़
कर जाग पड़ते
अजब
दुनिया है
साहब
जिसे
हम इंसानों ने
इस
धरती पर
ढेर
सारी तक़लीफ़ों और ख़्वाबों के सहारे
बसाया
अब
इस दुनिया में
हम
दीमकों
की तरह खाते हैं
मछलियों
की तरह
जीते
हैं
चींटियों
की तरह रेंगते
और
अपने
मैय्यार से
किसी
बच्चे के ख़यालों में
बहुत
संभाल कर
रखे
गए
बहुत
रंगीन ओ नायाब
अंडे
की तरह
गिर
कर टूट जाते हैं
हंस
के पंखों का तकिया
न
नींदों की
निगरानी
कर सकता है
न
ख़्वाबों की
माँओ!
पहली
ही फ़ुरसत में
उसे
पत्थर के किसी टुकड़े से
बदल
लाओ
राग पूरबी ११
याददाश्त
गहरे
भूरे रंग की
कोई चीज़
है
तमन्नाएँ
लाल
रंग की
बाद
में
दोनों
ही नीली पड़
जाती
हैं
मैं
देख
नहीं सका
पर
ख़ुशी का भी
एक
ख़ास रंग था
जब
वह
मेरी
ज़िन्दगी से
रुख़सत
हुई
ग़म
बेरंग
सा कुछ है
और
दर्द
के हैं कई रंग
आमाल
से जानता हूँ
भूख
का
एक
ही रंग नहीं होता
जैसा
कि
बताया
गया था
वो
तय होता है इस बात से
कि
भूख
किसे
लगी है
सबसे
अबूझ रंग
उस
प्यास
का है
जो
पीने को इंसान का
ख़ून
माँगती
है
और
उस
हसरत का
जो
प्यास बुझने के बाद
जगती
है
एक
और
प्यास
की तरह
राग पूरबी १२
यूनान
में एथेना
और रोम
में मिनर्वा थी
ज्ञान
की देवी
मेसोपोटामिया
में थी
निसाबा
सिंधु
के पार
सरस्वती
मग़रिब
हो कि मशरिक़
औरतों
के आँचल में
दुधमुँहे
बच्चे की तरह रहा और पला
ज्ञान
का संसार
मर्द
पहले
चरवाहे
फिर
ब्योपारी और लड़ाके बने
जिबह
करते रहे
हर
उस जिन्दा चीज़ को
जिसे
कभी
गोद
में उठा कर चूमा था
उन्होंने
हैरत
नहीं कि हरमीस 1 था
उनका
देवता
1.
धन- दौलत, व्यापार और सौभाग्य का यूनानी
देवता, जो बेहद धूर्त और
चालाक है.
राग
पूरबी १३
मर्द
का पंजा हो
शेर
जैसा
जहाँ
पड़े उतना माँस
नोच
ले
शेरदिली
की उम्मीद तो
उस
से
पहले
ही है
घोड़े
की तरह हो
जिंसी
ताक़त
अक़्ल
हो भेड़ियों जैसी
उकाब
की
चोंच
जैसी नाक
मज़बूत
बाँहें
हाथी
की सूँड़ की तरह
पानी
में मछली की तरह तैरे
पेड़
पर चढ़े
भालू
की तरह
अपनी
समझ में तो
अल्लाह
ने मर्द को भी इंसान ही
बनाया
था
माँओं
ने पोसा भी इंसान की ही
तरह
मर्दाना
फ़ितरत जिसे
कहते
हो
उसी
में थे
जानवर
हो जाने के
तमाम
इमकान
मर्दों
ने
दुनिया
को गाय की तरह दुहा
बकरे
की तरह
टटोलीं
इसके जिस्म की बोटियाँ
घोड़ों
की तरह
इसकी
सवारी की
रिसाले
बनाए
जीतनी
चाही हर जंग
दिनों
में
अजदहों
की तरह निगली
अपनी
गिज़ा
और
रातों में
बैलों
की तरह खड़े
ऊँघते
रहे
मज़हबी
किताबों में हुक्म था
मर्द
जिंसी ज़रूरतों के लिए बुलाएँ
तो
औरतें
हर
हाल बिना उज़्र
उनके
पास जाएँ
एक
नहीं
कई
वजहें थीं
कि
औरतें
मुँह
मोड़ लेतीं
लेकिन
उन्होंने
मुँह नहीं
मोड़ा
ये
जो
शेर
की तरह घोड़े की तरह हाथी की तरह
भालू
की तरह
ताक़तवर
मछली
की तरह चपल
भेड़ियों
की तरह चुस्त ओ चालाक
मर्दाना
जिस्म दिखते हैं
हर
तरफ़
सुपुर्दगी
ए ख़ाक के वक़्त
उनके
मुँह से
किसी
औरत के ख़ून की महक
आती
है
नमाज़
ए जनाज़ा तक
सूख
जाता है
किसी
औरत की छाती का
दूध
ये
दुनिया
सिर्फ़
अल्लाह की नहीं
औरतों
की भी बनाई हुई है
जाहिलो
!
राग पूरबी १४
नमाज़ों
के
मुसल्ले
बिछे
पूजा
की
चौकियाँ
सजीं
कोई
देवी देवता ऐसा
न
बचा
जिसे
पूजा न गया हो
मज़ारों
पर जाना सुन्नत तो
नहीं
था
पर
लोग गए
फ़क़ीर
अलख
जगाते रहे
पीर
लोगों की
मुरादें
पूरी करते रहे
अघोरियों
तांत्रिकों तक भी
गई
दुनिया
कुछ
आदमज़ात भी भगवान कहाए
ज्यों
गुनाह के मुजस्समे
बदकार
चिड़ियों
ने
कोई
इबादत कोई पूजा
नहीं
की
और
ख़ुश रहीं
मछलियों
ने अपने गलफड़े
आज़माए
और
ख़ुश रहीं
चीटिंया
रेंगती
रहीं अपनी तबील
क़तारों
में
अल्लाह
के
घर
तक का आटा
वे
अपनी पीठ पर
ढो
लाईं
और
ख़ुश रहीं
हर
कोई अपनी मेहनत से
ख़ुश
रहा
मुसल्ले
घरों
के कोनों में पड़े
सड़
गए
जिनके
बारे सोचा था
कि
एक दिन वे
जादुई
कालीन बनेंगे
लगातार
सीलन में रहने से
गल
गईं चौकियाँ
उनके
सहारे
कैसे
पार होता भवसागर
मरना
सब को था
पर
ज़र्रा ज़र्रा
जा ब
जा
मौत
की रवायत
यहाँ
इंसानों
ने चलाई
और
बिना ख़ुश रहे
एक
रोज़ रवायतन ही
वे
मर गए
उन्हें
मछलियों
ने गलफड़ों की
हवा
दी
चींटियाँ
ले गईं उन्हें अपनी
पीठ
पर
अल्लाह
के घर तक
उनकी
यादों
के तिनके अपनी चोंच में
दबा
कर
उड़ती
हैं चिड़ियाँ
इस
तरह
कि
कोई तिनका
नीचे
खड़े
लोगों
के ज़ेहन में
नहीं
गिरता
राग पूरबी १५
हमने
बहुत
तरक़्क़ी की है
घरों
की छतों पर
धुआँ
जो
अजदाद के ज़माने में
भूखे
पेटों को
खाना
पकने की इत्तला
देता
था
अब
फ़साद का पता
देता
है
खाना
तो
अब हमारा मुआशरा
बे
धुआँ पका लेता है
पर
ख़ुद
इस
क़दर जलता है
कि
हर वक़्त
धुआँ
देता है
दूर
से
धूल
उठती दीखती थी
राह
पर
तो
लगता था अम्मा ने रस्ता
बुहारा
है
अब
रास्ते सब पक्के डामर
वाले
चैन
ओ अमन की ख़ातिर
पुलिस
के बूटों की आवाज़ से
गूँजते
हैं
उन
पर धूल
कभी
नहीं उड़ती
सिर्फ़
ख़ून बहता है
हमने
इतनी तरक़्क़ी की है
कि
जो रास्ते अम्मा ने बुहारे थे
हमारी
यादों में भी
अब
बाक़ी नहीं रहे
न उन
पर वो फूल बेला के
झरे
हुए चहुँओर
जिनकी
ख़ुश्बू को बुहार
हमारे
लिए
छोटे
छोटे ढेर बना देती थी
अम्मा
किनारे
किनारे
ख़ुश्बू
की राह से हम घर
लौटते
थे
घर
लौटना
अब
ज़िन्दगी में रूमान न रहा
न
अरमान
पहले
से बहुत बड़े और शानदार
घर
हैं हमारे पास
लेकिन
अब हम कभी कभी ही
घर
लौटते हैं
जबकि
पुराने वो घर
सब
ढह चुके
और
अम्मा की सिर्फ़ तस्वीर बची है
तो
मुझे
मेरी
हड्डियों से
ऐसी
आवाज आती है
जैसी
उन घरों में
अचानक
किसी
खम्बे या शहतीर के
टूट
जाने से आती थी
मैं
अपने टूट गए पाँवों पर
एक
समूचा
पुराना
घर लिए चलता हूँ
और
मेरे लड़खड़ा कर
गिर
जाने की
कोई
गुंजाइश भी
अब
नहीं
बची है
राग पूरबी १६
मशरिक़
में रहती थी
अम्मा
मैं
शुमाल से उसे पुकारता था
तो
हमेशा
हवाओं
के साथ
मेरी
पुकार
मग़रिब
में भटक
जाती
थी
मैं
चला जाता था
दूर
जुनूब तक
अम्मा
को
पुकारते
पुकारते
गठिया
की वजह से
अम्मा
धीरे धीरे चलती थी
उसने
सारे घर को
चलना
सिखाया था
और
घर
अब
बहुत तेज़ चलता था
अम्मा
पीछे रह जाती थी
और
फिर
एक
दिन वो बहुत पीछे
रह
गई
आज
जब
दा'इम चोटों के चलते
मैं
भी
पीछे
छूटने लगा हूँ
तो
अम्मा मेरे साथ चलती है
एक
दिन
मैं
भी बहुत पीछे छूट जाऊँगा
तब
शायद
सिर्फ़
अम्मा ही मेरे साथ रहे
पुराने
सामान में कभी मिले
मेरा
जूता
तो
समझ लेना
अब
मैं कहीं आता जाता नहीं
सिर्फ़
अम्मा के साथ
रहता
हूँ
अम्मा
की वह याद पूरबी
मेरे
रहने को
एक
घर है अब.
राग पूरबी १७
मैं
ख़ुश दिखता हूँ
जो
ख़ुश रहने से कहीं ज़्यादा
ज़रूरी
चीज़ है
मैं
चलता हूँ
तो
मेरी कोशिश नहीं दिखती
बस
चलना दिखता है
बोलूँ
तो
जामुन
की डाल सी चरमराती है
सर
के ऊपर
बैठूँ
कहीं थक कर
तो
गिर जाता है समूचा पेड़ ही
बिल्लियाँ
मेरा
रास्ता नहीं काटतीं
मैं
उनकी
राह
तकता हूँ
मेरे
सीने में
हर
वक़्त चिड़ियें उड़ती हैं
बहेलिये
मेरे
आस पास
मँडराते
हैं
मुझे
सिखाया गया है
कि
मुल्क में
इस
तरह रहो कि किसी को
पता
न चले
तुम्हारा
रहना
इस
जम्हूरियत
में
मैं
एक
निपट
गँवार भर हूँ
जो
ख़ुद को
ठगे
जाने से
बचा
नहीं पाता है
बस
इतनी
अक़ल और होश
मुझ
में हैं
कि
कभी कभी
लड़खड़ाता
हुआ सा
उठता
हूँ
और
मुल्क के
आईन
की कुछ धूल पोंछ
देता
हूँ
________________
सम्पर्क:
वसुंधरा III, भगोतपुर तडियाल, पीरूमदारा
रामनगर
जिला-नैनीताल (उत्तराखंड)244 715
वसुंधरा III, भगोतपुर तडियाल, पीरूमदारा
रामनगर
जिला-नैनीताल (उत्तराखंड)244 715
वाह शिरीष भाई,
जवाब देंहटाएंज़माने बाद हैरतअंगेज़ करने वाली कविताएं पढ़ी हैं।
आपको सलाम।
मृत्युंजय प्रभाकर
मन को मोह लेने वाली कविताएँ
जवाब देंहटाएंBahut sunder
जवाब देंहटाएंशिरीष मौर्य की ये कविताएँ दो संस्कृतियों की टकराहट से सृजित हुईं हैं । अल्लामा इक़बाल याद आते हैं । पयामे मशरिक़ । शायद यही नाम था उनकी किताब का । वहां भी इक़बाल अपने ढंग से पूरब और पश्चिम को दार्शनिक अंदाज़ से देखते है और काव्यात्मक निष्कर्षों तक पहुंचते हैं । हिन्दी में समकालीन कविता में श्रृंखलाबद्ध काम को हल्के में लिया जाता है जबकि यह चुनौतीपूर्ण है । हाँ मिथकों पर आधारित कविताओं में तनाव नज़र नहीं आता । श्रीकांत वर्मा की मगध भी एक श्रंखला ही थी जिसके लिए श्रीकांत वर्मा याद किये जायेंगे । शिरीष की इस किताब का इन्तिज़ार रहेगा । क्या भाषा है । आह । बुनियादी और मनुष्य की अस्मिता के प्रश्नों को बहुत जटिलता और सरलता से छुआ गया है । शिरीष मौर्य हमारा मूल्यवान कवि है । समालोचन और शिरीष मौर्य का शुक्रिया
जवाब देंहटाएंहम
जवाब देंहटाएंअदालतों से दया
और
हुक्मुरानों से इंसाफ़ माँगने वाले
लोग हैं
हमारा कुछ नहीं हो सकता
ये पंक्तियाँ महज इसलिए कि ऐसी कई मानीखेज पंक्तियाँ फिर कौंध जाएँ जो इन कविताओं में इस जीवन को देखने, समझने में हमारे हासिल की तरह हैं। और इस देखने में पलटकर देखना शामिल है कि याद रहे हम कई सभ्यताओं से मिलकर चलते हैं।
अभी चर्यापद और रितुरैण से गुजर ही रहा हूँ और यह एक नया काव्य-राग। खुशियाँ कई तरह से मिलती हैं। शाबास, शिरीष!
बहुत अर्से बाद ऐसी कविताएं या कहें एक कथ्य श्रृंखला में लिखी हुई कविताएं बिना ऊबे पढ़ी जिनमें मानवता का अतीत ही नहीं बल्कि वर्तमान और भविष्य तीनों की समन्वित और एकाग्र रचनात्मक उपस्थिति का गहरा अहसास पाठ्य प्रवाह में होता चलता है। इतिहास का वर्तमान से ,देश का काल से ,प्रकृति का अप्रकृति से ,लिंग की हिंसक प्रभुता से और इसके अलावा और भी बहुत कुछ यहां दिल और दिमाग दोनों को मथता है।इनका भाषिक प्रवाह शिरीष जी के पुराने कार्य स्वभाव से अलग है।यह कविता के विस्तृत फलक की जरूरत थी।इस भाषिक रचाव के बिना कविता इस ऊंचाई को नहीं पहुंच सकती थी।सच सच कविता ने भीतर तक सम्मोहित कर लिया।ब बहुत मुबारकबाद शिरीष जी को।
जवाब देंहटाएंकितने दिन बाद कविता की समकालीन जड़ता से बाहर निकल एक नई परिष्कृत विचाराकुल दुनिया में प्रवेश!
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.