क्वारनटीन : राजिंदर सिंह बेदी


उर्दू के प्रसिद्ध कथाकार राजिंदर सिंह बेदी (1915–1984) की एक कहानी का शीर्षक है ‘क्वारनटीन’ जो अंग्रेजी राज में फैली प्लेग महामारी को केंद्र में रखकर लिखी गयी है. इस कहानी को पढ़ते हुए आज भी डर लगता है. इसकी कोरोना खौफ़ से तुलना करते हुए जहाँ समानताएं दिखती हैं वहीं यह विश्वास भी पैदा होता है कि मनुष्य इस आपदा को भी पराजित कर देगा.

इस कहानी और वर्तमान महामारी पर सौरव कुमार राय की टिप्पणी दी जा रही है. इस कहानी का अनुवाद रज़ीउद्दीन अक़ील ने किया है जो आभार के साथ यहाँ प्रस्तुत है.


राजिंदर सिंह बेदी, महामारी तथा वर्तमान संदर्भ     
सौरव कुमार राय


साहित्य में राजिंदर सिंह बेदी की पहचान एक ऐसे लेखक के तौर पर है जिसने इस्मत चुगताई, सआदत हसन मंटो एवं कृष्ण चन्दर सरीखे लेखकों के साथ मिलकर भारत-पाक विभाजन जनित मानवीय त्रासदियों के सबसे विकृत स्वरूप को उधेड़ कर रख दिया. बेदी द्वारा लिखी गयी कहानी ‘लाजवंती‘ विभाजन आधारित साहित्य का एक अनमोल हीरा है. हालाँकि वर्तमान संदर्भ में बेदी द्वारा ही लिखी गयी एक अन्य कहानी ‘क्वारनटीन जिससे बहुत काम लोग परिचित हैं की चर्चा काफी मुनासिब जान पड़ती है.

क्वारनटीनउन्नीसवीं सदी के अंत एवं बीसवीं सदी के शुरुआत में भारत में फैले प्लेग महामारी की पृष्ठभूमि पर आधारित है. यह कहानी मूलतः उर्दू में है जिसका रजीउद्दीन अकील ने हाल ही में हिंदी में अनुवाद किया है. इस कहानी में वर्णित कई प्रसंग वर्तमान संदर्भ में भी काफी उपयुक्त प्रतीत होते हैं. यह गौरतलब है कि भारत में क्वारनटीन यानी महामारी के दौरान संदिग्ध रोगियों को अलग-थलग रखने की व्यवस्था सुनियोजित रूप से महामारी अधिनियम (एपिडेमिक. डिजिजेज एक्ट) 1897 के साथ शुरू हुई. उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशक में भारत में फैले ब्यूबोनिक प्लेग की महामारी ने इस अधिनियम की पृष्ठभूमि तैयार की थी. महारानी विक्टोरिया ने 19 जनवरी 1897 को ब्रिटिश संसद में दिए गए अपने अभिभाषण में भारत में ब्यूबोनिक प्लेग की रोकथाम हेतु सरकार को कठोर कदम उठाने का निर्देश दिया जिसकी परिणति महामारी अधिनियम (एपिडेमिक डिजिजेज एक्ट) 1897 के रूप में हुई.

मुख्य रूप से इस अधिनियम में महामारी की स्थिति में औपनिवेशिक अधिकारियों को इसके रोकथाम हेतु कोई भी कदम उठाने की खुली छूट प्रदान करने का प्रावधान किया गया था. इस अधिनियम के अंतर्गत औपनिवेशिक अधिकारियों को महामारी रोकने के लिए उठाये गए अपने किसी भी कार्यकारी कदम के लिए दंडित नहीं किया जा सकता था. एक प्रकार से महामारी के दौरान इस अधिनियम के तहत कार्यकारी ज्यादतियों को वैधानिक छूट मिल गयी. ऐसे में प्रशासनिक एवं स्वास्थ्य अधिकारी प्लेग का संदेह होने पर मनमाने तौर पर किसी भी व्यक्ति की जांच और घरों की तलाशी ले सकते थे तथा संक्रमण की स्थिति में वे उस व्यक्ति को नजरबंद एवं संपत्ति का विनाश कर सकते थे. साथ ही वे महामारी की रोकथाम हेतु किसी भी सामूहिक सभा या मेले को स्थगित कर सकते थे.

इसी अधिनियम के तहत जगह-जगह क्वारनटीन की भी व्यवस्था की गयी थी जहाँ पर प्लेग से ग्रस्त व्यक्तियों को उनके घरों से हटाकर अलग-थलग रखा जाता था जिससे कि अन्य व्यक्तियों तक संक्रमण के प्रसार को रोका जा सके. बेदी अपनी कहानी में ये लिखते हैं कि लोगों के अंदर प्लेग से ज्यादा क्वारनटीन का खौफ था. बेदी के शब्दों में-
“प्लेग तो खतरनाक थी ही, मगर क्वारनटीन उससे भी ज्यादा खौफनाक थी. लोग प्लेग से उतने परेशान नहीं थे जितने क्वारनटीन से, और यही वजह थी कि स्वास्थ्य सुरक्षा विभाग ने नागरिकों को चूहों से बचने की हिदायत करने के लिए जो आदम-कद विज्ञापन छपवाकर दरवाजों, सड़कों और मार्गों पर लगाया था, उस पर ‘न चूहा न प्लेग’ के शीर्षक में इजाफा करते हुए ‘न प्लेग न चूहा, न क्वारनटीन’ लिखा था.
वर्तमान में कुछ ऐसा ही खौफ लोगों के अंदर कोरोना जनित वैश्विक महामारी के दौर में भी देखा जा सकता है. ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ संक्रमित व्यक्तियों तथा उनके परिवार ने क्वारनटीन होने के डर से बीमारी के लक्षणों को जान-बूझकर छिपाया हो. वैसे तो भारत में अभी हालात इस कदर नहीं बिगड़े हैं जिसे देश की माजूदा स्वास्थ्य संरचना संभाल न पाए. परंतु यदि ये महामारी अपने तीसरे दौर में पहुँच जाये तो शायद ही वर्तमान स्वास्थ्य तंत्र इसे संभाल पाए. जैसा कि संजय कुमार एवं जुगल किशोर अपनी हालिया प्रकाशित पुस्तक ‘पब्लिक हेल्थकेयर इन इंडिया’ (2020) में दर्शाते हैं तमाम रिपोर्टों तथा सुझावों के बावजूद भारत में स्वतंत्रता पश्चात भी प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों की स्थिति साधारणतया दयनीय ही बनी रही. कुछ राज्यों को अपवाद स्वरूप छोड़ दें तो अधिकांश जगहों पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में रोगों से निपटने हेतु मूलभूत सुविधाओं एवं जांच का अभाव है. ऐसे में यदि देश में कोरोना महामारी का प्रकोप बढ़ता है तो क्वारनटीन केंद्रों की स्थिति शायद वैसी ही हो जाये जिसका मार्मिक चित्रण राजिंदर सिंह बेदी अपनी कहानी में करते हैं. कहानी के मुख्य पात्र डॉक्टर बख्शी के माध्यम से बेदी उपनिवेशकालीन क्वारनटीन का वर्णन कुछ इस प्रकार से करते हैंः
एक डॉक्टर की हैसियत से मेरी राय निहायत मुसतनद है और मैं दावे से कहता हूं कि जितनी मौतें शहर में क्वारनटीन से हुईं, उतनी प्लेग से न हुईं. हालांकि क्वारनटीन कोई बीमारी नहीं, बल्कि वह उस बड़े क्षेत्र का नाम है जिसमें हवा में फैली हुई महामारी के दिनों में बीमार लोगों को तंदुरुस्त इंसानों से कानूनन अलहदा करके ला डालते हैं ताकि बीमारी बढ़ने न पाए. अगरचे क्वारनटीन में डॉक्टरों और नर्सों का काफी इंतजाम था, फिर भी मरीजों की बड़ी संख्या में वहां आ जाने से हर मरीज को अलग-अलग खास तवज्जो न दी जा सकती थी. उनके अपने संबंधियों के आसपास न होने से मैं ने बहुत से मरीजों को बे-हौसला होते देखा. कई तो अपने इर्द-गिर्द लोगों को पे दर पे मरते देखकर मरने से पहले ही मर गए. कई बार तो ऐसा हुआ कि कोई मामूली तौर पर बीमार आदमी वहां के वातावरण में ही फैले जरासीम से हलाक हो गया. और मृतकों की बड़ी तादाद की वजह से उनके आखिरी क्रिया-क्रम भी क्वारनटीन के खास तरीके पर अदा होतीं, यानी सैकड़ों लाशों को मुर्दा कुत्तों की लाशों की तरह घसीट कर एक बड़े ढेर की सूरत में जमा किया जाता और बगैर किसी के धार्मिक रस्मों का आदर किए, पेट्रोल डालकर जला दिया जाता. शाम के वक्त उससे धधकते हुए आग के शोलों को देखकर दूसरे मरीज यही समझते कि तमाम दुनिया जल रही है.

बेदी अपनी कहानी के माध्यम से महामारी के दौरान इसके रोकथाम में संलग्न व्यक्तियों के प्रति सरकारी  कृतज्ञता एवं प्रशंसा में विद्यमान पूर्वाग्रहों पर भी कुठाराघात करते हैं. प्लेग महामारी के रोकथाम हेतु जहाँ एक तरफ क्वारनटीन में सक्रिय डॉक्टर बख्शी को सरकार न सिर्फ प्रशस्ति पत्र प्रदान करती है वरन उसे पुरस्कृत भी करती है, वहीं दूसरी तरफ उसी क्वारनटीन में अपनी जान की परवाह किये बिना दिल से काम करने वाले भागव झाड़ू वाले के प्रति सरकार महामारी के रोकथाम के बाद उदासीनता का रवैया अपनाती है. कुछ ऐसा ही वर्तमान संदर्भ में भी देखा जा सकता है. समाज की सामूहिक कृतज्ञता मूलतः डॉक्टरों एवं नर्सों के प्रति दिख रही है. हालाँकि ये गौरतलब है कि किसी भी स्वास्थ्य केंद्र में बीमारियों से संक्रमण का अत्यधिक खतरा वहाँ काम करने वाले पारा मेडिक एवं सफाई कर्मचारियों को रहता है. हमारी सामाजिक चेतना इन सफाई कर्मियों एवं पारा मेडिक कर्मचारियों के प्रति साधारणतया उदासीन ही दिखाई पड़ती है.

अतः राजिंदर सिंह बेदी की उपरोक्त कालजयी रचना से वर्तमान संदर्भ में कुछ सबक फौरी तौर पर लिए जा सकते हैं. पहला ये कि क्वारनटीन की व्यवस्था को और अधिक मानवीय बनाने की जरूरत है जिससे कि आमजन के बीच इसका डर कम हो सके. साथ ही नागरिकों का भी ये कर्तव्य है कि महामारी की स्थिति में बीमारी के लक्षणों को न छिपाएं. 


अंत में एक समाज के तौर पर हमें हर उस व्यक्ति का शुक्रगुजार होना चाहिए जो इस महामारी की स्थिति से निपटने हेतु लगातार काम किये जा रहे हैं. चाहे वो प्रशासनिक तंत्र में शामिल अधिकारी हो, या फिर आला दर्जे के डॉक्टर एवं वैज्ञानिक, या फिर समाज एवं तंत्र के सबसे निचले पायदान पर खड़ा सफाई कर्मी. इनमें से किसी एक की भी गैर-मौजूदगी की स्थिति में महामारी से निपटने की पूरी व्यवस्था चरमरा सकती है.
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वरिष्ठ शोध सहायक
नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय
नयी दिल्ली
skrai.india@gmail.com/






उर्दू अफसाना

क्वारनटीन                                   
राजिंदर सिंह बेदी

हिंदी अनुवाद: रज़ीउद्दीन अक़ील



प्लेग और क्वारनटीन!





हिमालय के पांव में लेटे हुए मैदानों पर फैल कर हर चीज को धुंधला बना देने वाले कोहरे की तरह प्लेग के खौफ ने चारों तरफ अपना तसल्लुत जमा लिया था. शहर का बच्चा-बच्चा उसका नाम सुनकर कांप जाता था.

प्लेग तो खतरनाक थी ही, मगर क्वारनटीन उससे भी ज्यादा खौफनाक थी. लोग प्लेग से उतने परेशान नहीं थे जितने क्वारनटीन से, और यही वजह थी कि स्वास्थ्य सुरक्षा विभाग ने नागरिकों को चूहों से बचने की हिदायत करने के लिए जो आदम-कद विज्ञापन छपवाकर दरवाजों, सड़कों और मार्गों पर लगाया था, उस पर "न चूहा न प्लेग" के शीर्षक में इजाफा करते हुए "न प्लेग न चूहा, न क्वारनटीन" लिखा था.

क्वारनटीन से संबंधित लोगों का खौफ बजा था. एक डॉक्टर की हैसियत से मेरी राय निहायत मुसतनद है और मैं दावे से कहता हूं कि जितनी मौतें शहर में क्वारनटीन से हुईं, उतनी प्लेग से न हुईं. हालांकि क्वारनटीन कोई बीमारी नहीं, बल्कि वह उस बड़े क्षेत्र का नाम है जिसमें हवा में फैली हुई महामारी के दिनों में बीमार लोगों को तंदुरुस्त इंसानों से कानूनन अलहदा करके ला डालते हैं ताकि बीमारी बढ़ने न पाए. अगरचे क्वारनटीन में डॉक्टरों और नर्सों का काफी इंतजाम था, फिर भी मरीजों की बड़ी संख्या में वहां आ जाने से हर मरीज को अलग-अलग खास तवज्जो न दी जा सकती थी. उनके अपने संबंधियों के आसपास न होने से मैं ने बहुत से मरीजों को बे-हौसला होते देखा. कई तो अपने इर्द-गिर्द लोगों को पे दर पे मरते देखकर मरने से पहले ही मर गए. कई बार तो ऐसा हुआ कि कोई मामूली तौर पर बीमार आदमी वहां के वातावरण में ही फैले जरासीम से हलाक हो गया. और मृतकों की बड़ी तादाद की वजह से उनके आखिरी क्रिया-क्रम भी क्वारनटीन के खास तरीके पर अदा होतीं, यानी सैकड़ों लाशों को मुर्दा कुत्तों की लाशों की तरह घसीट कर एक बड़े ढेर की सूरत में जमा किया जाता और बगैर किसी के धार्मिक रस्मों का आदर किए, पेट्रोल डालकर जला दिया जाता. शाम के वक्त उससे धधकते हुए आग के शोलों को देखकर दूसरे मरीज यही समझते कि तमाम दुनिया जल रही है.

क्वारनटीन इसलिए भी ज्यादा मौतों का कारण बनी कि बीमारी के आसार जाहिर होते ही बीमार के संबंधी उसे छुपाने लगते, ताकि कहीं मरीज को जबरदस्ती क्वारनटीन में न ले जाएं. चूंकि हर एक डॉक्टर को तंबीह की गई थी कि मरीज की खबर पाते ही फौरन सूचित करें, इसलिए लोग डॉक्टरों से इलाज भी न कराते और किसी घर के महामारी के चपेट में होने का सिर्फ उसी वक्त पता चलता, जब दिल को दहला देनी वाली आह और पुकार के बीच एक लाश उस घर से निकलती.

उन दिनों मैं क्वारनटीन में बतौर एक डॉक्टर के काम कर रहा था. प्लेग का खौफ मेरे दिल और दिमाग पर भी मुसल्लत था. शाम को घर आने पर मैं एक अरसा तक कारबोलिक साबुन से हाथ धोता रहता और जरासीम-नाशक घोल से गलाला करता, या पेट को जला देने वाली गर्म कॉफी या बरांडी पी लेता. अगरचे उससे मुझे नींद उड़ने और आंखों के चुंधियाने की शिकायत पैदा हो गई. कई बार बीमारी के खौफ से मैं ने मतली करवाने वाली दवाइयां खाकर अपनी तबियत को साफ किया. जब निहायत गर्म कॉफी या बरांडी पीने से पेट में उबाल पैदा होता और भाप के गोले उठ-उठकर दिमाग को जाते, तो मैं अक्सर किसी होश उड़े हुए शख्स के मानिंद तरह-तरह के वहम का शिकार हो जाता. गले में जरा भी खराश महसूस होती तो मैं समझता कि प्लेग के निशानात जाहिर होने वाले हैं....उफ! मैं भी इस जानलेवा बीमारी का शिकार हो जाऊंगा....प्लेग! और फिर....क्वारनटीन!

उन्हीं दिनों में नव-ईसाई विलियम भागव झाड़ू वाला, जो मेरी गली में सफाई किया करता था, मेरे पास आया और बोला: "बाबू जी, गजब हो गया, आज एम्बू इसी मोहल्ले के करीब से बीस और एक बीमार ले गई है."

"इक्कीस? एम्बुलेंस में....?" मैं ने ताज्जुब के साथ पूछा.

"जी, हां...पूरे बीस और एक...कोनटीन (क्वारनटीन) ले जाएंगे...आह! वह बेचारे कभी वापस न आएंगे?"

पूछने पर मुझे पता चला कि भागव रात के तीन बजे उठता है. आध पाव शराब चढ़ा लेता है. और हिदायत के मुताबिक कमेटी की गलियों में और नालियों में चूना बिखेरना शुरु कर देता है, ताकि जरासीम फैलने न पाएं. भागव ने मुझे बताया कि उसके तीन बजे उठने का यह भी मतलब है कि बाजार में पड़ी हुई लाशों को इकठ्ठा करे और उस मोहल्ले में जहां वह काम करता है, उन लोगों के छोटे-मोटे काम-काज करे जो बीमारी के खौफ से  बाहर नहीं निकलते. भागव तो बीमारी से जरा भी नहीं डरता था. उसका ख्याल था अगर मौत आई हो तो चाहे वह कहीं भी चला जाए बच नहीं सकता.

उन दिनों जब कोई किसी के पास नहीं फटकता था, भागव सिर और मुंह पर मुंडासा बांधे बड़ी लगन से लोगों की खिदमत में जुटा हुआ था. हालांकि उस का ज्ञान अत्यंत सीमित था, अपने तजुरबे की बिना पर वह एक मंझे हुए वक्ता की तरह लोगों को बीमारी से बचने की तरकीबें बताता. आम सफाई, चूना बिखेरने और घर से बाहर न निकलने की सलाह देता. एक दिन मैं ने उसे लोगों को जमकर शराब पीने का सुझाव देते हुए भी देखा. उस दिन जब वह मेरे पास आया तो मैं ने पूछा: "भागव तुम्हें प्लेग से डर भी नहीं लगता?"

"नहीं बाबू जी...बिन आई, बाल भी बीका नहीं होगा. आप इत्ते बड़े हकीम ठहरे, हजारों आपके हाथ से ठीक हुए हैं. मगर जब मेरी आई होगी तो आपकी दवा-दारु भी कुछ असर न करेगी....हां बाबू जी....आप बुरा न मानें. मैं ठीक और साफ-साफ कह रहा हूं." और बात का रुख बदलते हुए बोला: "कुछ कोनटीन की कहिए बाबू जी....कोनटीन की."

"वहां क्वारनटीन में हजारों मरीज आ गए हैं. हम जहां तक हो सके उनका इलाज करते हैं. मगर कहां तक, और मेरे साथ काम करने वाले खुद भी ज्यादा देर उनके बीच रहने से घबराते हैं. खौफ से उनके गले और लब सूखे रहते हैं. फिर तुम्हारी तरह कोई मरीज के मुंह के साथ मुंह नहीं जा लगाता. न कोई तुम्हारी तरह इतनी जान मारता है....भागव! भगवान तुम्हारा भला करे, जो तुम मानवजाति की इस कदर खिदमत करते हो."

भागव ने गर्दन झुका दी और मुंडासे के एक पल्लू को मुंह पर से हटाकर शराब के असर से लाल चेहरे को दिखाते हुए बोला: "बाबू जी, मैं किस लायक हूं. मुझसे किसी का भला हो जाए, मेरा यह निकम्मा तन किसी के काम आ जाए, इससे ज्यादा खुश किस्मती और क्या हो सकती है. बाबू जी, बड़े पादरी लाबे (रेवरेंड मोंत ल, आबे) जो हमारे मोहल्लों में अक्सर प्रचार के लिए आया करते हैं, कहते हैं, ईश्वर येसु-मसीह यही सिखाता है कि बीमार की मदद में अपनी जान तक लड़ा दो....मैं समझता हूं...."

मैं ने भागव की हिम्मत को सराहना चाहा, मगर भावनाओं से बोझिल होकर रुक गया. उसकी नेक आस्था और सार्थक जीवन को देखकर मेरे दिल में एक तरह की ईर्ष्या पैदा हुई. मैं ने फैसला किया कि आज क्वारनटीन में पूरी जतन से काम करके बहुत से मरीजों को जिन्दा रखने की कोशिश करुंगा. उनको आराम पहुंचाने में अपनी जान तक लड़ा दूंगा. मगर कहने और करने में बहुत फर्क होता है. क्वारनटीन में पहुंचकर जब मैं ने मरीजों की खौफनाक हालत देखी और उनके मुंह से निकलने वाली सड़ी हुई गंध मेरी नाक में पहुंची, तो मेरी रुह लरज गई और भागव की तरह काम करने की हिम्मत न कर सका.

फिर भी उस दिन भागव को साथ लेकर मैं ने क्वारनटीन में बहुत काम किया. जो काम मरीज के ज्यादा करीब रह कर हो सकता था, वह मैं ने भागव से कराया और उसने बिना झिझक किया....खुद मैं मरीजों से दूर-दूर ही रहता, इसलिए कि मैं मौत से बहुत डरता था और उससे भी ज्यादा क्वारनटीन से.

मगर क्या भागव मौत और क्वारनटीन, दोनों से ऊपर था?

उस दिन क्वारनटीन में चार सौ के करीब मरीज दाखिल हुए और ढाई सौ के लगभग मौत के शिकार हो गए.

यह भागव की जांबाजी का ही नतीजा था कि मैं ने बहुत से मरीजों को सेहतमंद किया. वह ग्राफ जो मरीजों की सेहत में सुधार की ताजा जानकारी के लिए चीफ मेडिकल ऑफिसर के कमरे में टंगा हुआ था, उस में मेरी निगरानी में रखे मरीजों की औसत सेहत की लकीर सबसे ऊंची चढ़ी हुई दिखाई देती थी. मैं हर दिन किसी न किसी बहाने से उस कमरे में चला जाता और उस लकीर को सौ फीसदी की तरफ ऊपर ही ऊपर बढ़ते देखकर दिल में बहुत खुश होता.


एक दिन मैं ने बरांडी जरुरत से ज्यादा पी ली थी. मेरा दिल धक-धक करने लगा. नब्ज़ घोड़े की तरह दौड़ने लगी और मैं एक जुनूनी की माफिक इधर-उधर भागने लगा. मुझे खुद शक होने लगा कि प्लेग के जरासीम ने मुझ पर आखिर अपना असर कर ही दिया है और जल्द ही गिल्टियां मेरे गले या रानों में निकल आएंगी. मैं एक दम हैरान और परेशान हो गया. उस दिन मैं ने क्वारनटीन से भाग जाना चाहा. जितनी देर भी मैं वहां ठहरा, खौफ से कांपता रहा. उस दिन मुझे भागव से मिलने का सिर्फ दो बार इत्तेफाक हुआ.

दोपहर के करीब मैं ने उसे एक मरीज से लिपटे हुए देखा. वह बड़े प्यार से उसके हाथों को थपक रहा था. मरीज में जितनी भी सकत थी उसे जमा करते हुए उसने कहा: "भाई, अल्लाह ही मालिक है. इस जगह तो खुदा दुश्मन को भी न लाए. मेरी दो लड़कियां...."

भागव ने उसकी बात को काटते हुए कहा: "ईश्वर येसु-मसीह का शुक्र करो भाई....तुम तो अच्छे दिखाई देते हो."

"हां, भाई, करम है ऊपर वाले का...पहले से कुछ अच्छा ही हूं. अगर मैं क्वारनटीन...."

अभी यह शब्द उसके मुंह में ही थे कि उसकी नस खिच गईं. उसके मुंह से कफ जारी हुआ. आंखें पथरा गईं. कई झटके आए और वह मरीज, जो एक लम्हा पहले सबको और खासकर अपने आपको अच्छा दिखाई दे रहा था, हमेशा के लिए खामोश हो गया. भागव उसकी मौत पर दिखाई न देने वाले खून के आंसू बहाने लगा और कौन उसकी मौत पर आंसू बहाता. कोई उसका वहां होता तो अपने मार्मिक विलाप की दहाड़ से जमीन और आसमान को फाड़कर रख देता. एक भागव ही था जो सबका रिश्तेदार था. सबके लिए उसके दिल में दर्द था. वह सबकी खातिर रोता और कुढ़ता था....एक दिन उसने अपने प्रभु येसु-मसीह के समक्ष बड़ी विनम्रता से अपने आपको समस्त मानवजाति के गुनाह की भरपाई के तौर पर भी पेश किया.

उसी दिन शाम के करीब भागव मेरे पास दौड़ा-दौड़ा आया. सांस फूली हुई थी और वह एक दर्दनाक आवाज से कराह रहा था. बोला: "बाबू जी....यह कोनटीन तो नरक है. नरक. पादरी लाबे इसी तरह के नरक का नक्शा खींचा करता था...."

मैं ने कहा: "हां भाई, यह नर्क से भी बढ़कर है....मैं तो यहां से भाग निकलने की तरकीब सोच रहा हूं....मेरी तबियत आज बहुत खराब है."

"बाबू जी इससे ज्यादा और क्या बात हो सकती है...आज एक मरीज जो बीमारी के डर से बेहोश हो गया था, उसे मुर्दा समझकर किसी ने लाशों के ढेर में जा डाला. जब पेट्रोल छिड़का गया और आग ने सबको अपनी लपेट में ले लिया, तो मैं ने उसे शोलों में हाथ पांव मरते देखा. मैं ने कूद कर उसे उठा लिया. बाबू जी! वह बहुत बुरी तरह झुलसा गया था....उसे बचाते हुए मेरा दायां बाजू बिलकुल जल गया है."

मैं ने भागव का बाजू देखा. उस पर पीली-पीली चर्बी नजर आ रही थी. मैं उसे देखते हुए लरज उठा. मैं ने पूछा: "क्या वह आदमी बच गया है. फिर....?"

"बाबू जी...वह कोई बहुत शरीफ आदमी था. जिसकी नेकी और शरीफी (शराफत) से दुनिया कोई फायदा न उठा सकी, इतने दर्द और तकलीफ की हालत में उसने अपना झुलसा हुआ चेहरा ऊपर उठाया और अपनी मरियल सी निगाह मेरी निगाह में डालते हुए उसने मेरा शुक्रिया अदा किया."

"और बाबू जी", भागव ने अपनी बात को जारी रखते हुए कहा, "इसके कुछ देर बाद वह इतना तड़पा, इतना तड़पा कि आज तक मैं ने किसी मरीज को इस तरह जान तोड़ते नहीं देखा होगा...इसके बाद वह मर गया. उसे बचा कर मैं ने उसे और भी दुख सहने के लिए जिंदा रखा और फिर वह बचा भी नहीं. अब इन ही जले हुए बाजुओं से मैं फिर उसे उसी ढेर में फेंक आया हूं...."

उसके बाद भागव कुछ बोल न सका. दर्द की टीसों के दरमियान उसने रुकते-रुकते कहा: "आप जानते हैं....वह किस बीमारी से मारा? प्लेग से नहीं....कोनटीन से....कोनटीन से!"

हालांकि मरे तो मरे का ख्याल इस बे-इंतहा कहर व गजब के कुचक्र में लोगों को किसी हद तक तसल्ली का सामान पहुंचाता था, प्रकोप-ग्रस्त लोगों की आसमानों को फाड़ देनी वाली चीख तमाम रात कानों में आती रहतीं.

मांओं की आह और विलाप, बहनों का कोहराम, बीवियों के मातम और बच्चों की चीख-पुकार से शहर के उस माहौल में, जिसमें आधी रात के करीब उल्लू भी बोलने से हिचकिचाते थे, एक भयंकर दृश्य पैदा हो जाता था. जब सही व सलामत लोगों के सीनों पर मनों बोझ रहता था, तो उन लोगों की हालत क्या होगी जो घरों पर बीमार पड़े थे और जिन्हें किसी पीलिया-ग्रस्त की तरह दरवाजों और दीवारों से मायूसी की पीली झलक सताती थी और फिर क्वारनटीन के मरीज, जिन्हें मायूसी की हद से गुजर कर यमराज साक्षात् दिखाई दे रहा था, वह जिंदगी से यूं चिमटे हुए थे, जैसे किसी तूफान में कोई किसी दरख्त की चोटी से चिमटा हुआ हो, और पानी की तेज लहरें ऊपर चढ़ती हुईं उस चोटी को भी डुबो देना चाहती हैं.


मैं उस रोज बीमारी के वहम की वजह से क्वारनटीन भी न गया. किसी जरुरी काम का बहाना कर दिया. अगरचे मुझे सख्त दिमागी व्यथा होती रही....क्यूंकि यह बहुत मुमकिन था कि मेरी मदद से किसी मरीज को फायदा पहुंच जाता. मगर उस खौफ ने जो मेरे दिल और दिमाग पर हावी था, मेरे पैर को अपनी जंजीर से जकड़ रखा. शाम को सोते वक्त मुझे खबर मिली कि आज शाम क्वारनटीन में पांच सौ के करीब और नए मरीज पहुंचे हैं.

मैं अभी-अभी पेट को जला देने वाली गर्म कॉफी पीकर सोने ही वाला था कि दरवाजे पर भागव की आवाज आई. नौकर ने दरवाजा खोला तो भागव हांपता हुआ अंदर आया. बोला: "बाबू जी....मेरी पत्नी बीमार हो गई....उसके गले में गिल्टियां निकल आई हैं....भगवान के लिए उसे बचाओ....उसकी छाती पर डेढ़ साल का बच्चा दूध पीता है, वह भी हलाक हो जाएगा."

बजाय गहरी हमदर्दी जताने के, मैं ने गुस्से के लहजे में कहा: "इससे पहले क्यों न आ सके....क्या बीमारी अभी-अभी शुरु हुई है?"

"सुबह मामूली बुखार था...जब मैं कोनटीन गया...."

"अच्छा...वह घर में बीमार थी. और फिर भी तुम क्वारनटीन गए?"

"जी बाबू जी...." भागव ने कांपते हुए कहा. वह बिलकुल मामूली तौर पर बीमार थी. मैं ने समझा कि शायद दूध चढ़ गया है....इसके सिवा और कोई तकलीफ नहीं....और फिर मेरे दोनों भाई घर पर ही थे....और सैकड़ों मरीज कोनटीन में बेबस...."

"तुम तो अपनी हद से ज्यादा मेहरबानी और कुर्बानी से जरासीम को घर ले ही आए न. मैं न तुमसे कहता था कि मरीजों के इतना करीब मत रहा करो...देखो मैं आज इसी वजह से वहां नहीं गया. इसमें सब तुम्हारा कसूर है. अब मैं क्या कर सकता हूं. तुम जैसे साहसी आदमी को अपने साहस का मजा चखना ही चाहिए. जहां शहर में सैकड़ों मरीज पड़े हैं...."

भागव ने प्रार्थना के अंदाज में निवेदन करते हुए कहा, "मगर ईश्वर येसु-मसीह...."

"चलो हटो...बड़े आए कहीं के....तुमने जान बूझकर आग में हाथ डाला. अब इसकी सजा मैं भुगतूं? कुर्बानी ऐसे थोड़े ही होती है? मैं इतनी रात गए तुम्हारी कुछ मदद नहीं कर सकता...."

"मगर पादरी लाबे...."

"चलो...जाओ...पादरी ल, आबे के कुछ होते...."


भागव सिर झुकाए वहां से चला गया. उसके आधे घंटे के बाद जब मेरा गुस्सा रफू हुआ तो मैं अपनी हरकत पर शर्मसार हुआ. मैं इतना समझदार कहां का था जो बाद में खेद महसूस कर रहा था. निसंदेह, मेरे लिए यही सबसे बड़ी सजा थी कि अपने स्वाभिमान को कुचलकर भागव से अपने रवैये के लिए माफी मांगते हुए उसकी बीवी का इलाज पूरी लगन से करूं. मैं ने जल्दी-जल्दी कपड़े पहने और दौड़ा-दौड़ा भागव के घर पहुंचा....वहां पहुंचने पर मैं ने देखा कि भागव के दोनों छोटे भाई अपनी भावज को चारपाई पर लिटाए हुए बाहर निकाल रहे थे....

मैं ने भागव को मुखातिब करते हुए पूछा, "इसे कहां ले जा रहे हो?"

भागव ने धीरे से जवाब दिया, "कोनटीन में...."

"तो क्या अब तुम्हारी समझ में क्वारनटीन दोजख नहीं...भागव...?"

"आपने जो आने से इंकार कर दिया, बाबू जी...और चारा ही क्या था. मेरा ख्याल था, वहां हकीम की मदद मिल जाएगी और दूसरे मरीजों के साथ इसका भी ख्याल रखूंगा."

"यहां रख दो चारपाई...अभी तक तुम्हारे दिमाग से दूसरे मरीजों का ख्याल नहीं गया...? अहमक...."

चारपाई अंदर रख दी गई और मेरे पास जो अचूक दवा थी, मैं ने भागव की बीवी को पिलाई और फिर अपने अदृश्य प्रतिद्वंदी से मुकाबला करने लगा. भागव की बीवी ने आंखें खोल दीं.

भागव ने एक लरजती हुई आवाज में कहा, "आपका एहसान सारी उमर न भूलूंगा, बाबू जी."

मैं ने कहा, "मुझे अपने पिछले रवैये पर सख्त अफसोस है भागव....ईश्वर तुम्हें तुम्हारी सेवा का बदला तुम्हारी बीवी के ठीक हो जाने के रुप में दे."

उसी वक्त मैं ने अपने छुपे हुए प्रतिद्वंदी को अपना आखिरी हथियार इस्तेमाल करते देखा. भागव की बीवी के होंठ फड़कने लगे. नाड़ी जो कि मेरे हाथ में थी मद्धिम होकर कंधे की तरफ सरकने लगी. मेरे छुपे प्रतिद्वंदी ने जिसकी आम तौर पर जीत होती थी, एक बार फिर मुझे चारों खाने चित कर दिया. मैं ने शर्मिंदगी से सिर झुकाते हुए कहा, "भागव! बदनसीब भागव! तुम्हें अपनी कुर्बानी का यह अजीब सिला मिला है....आह!"

भागव फूट-फूटकर रोने लगा.

वह दृश्य कितना मर्मभेदी था, जबकि भागव ने अपने बिलबिलाते हुए बच्चे को उसकी मां से अलग कर दिया और मुझे अत्यंत विनम्रता के साथ लौटा दिया.

मेरा ख्याल था कि अब भागव अपनी दुनिया को अंधकारमय जानकार किसी का ख्याल न करेगा....मगर उससे अगले रोज मैं ने उसे पहले से ज्यादा मरीजों की मदद करते देखा. उसने सैकड़ों घरों के चिराग बूझने से बचा लिया....और अपनी जिंदगी की जरा भी परवाह न की. मैं भी भागव की पैरवी करते हुए बड़ी मुस्तैदी से काम में जुट गया. क्वारनटीन और अस्पतालों के काम से फ्री होकर अपने फालतू वक्त में शहर के गरीब तबकों के लोगों के घर, जो कि नालों के किनारे स्थित होने की वजह से, या गंदगी के कारण बीमारी के पैदा होने की जगह थे, की ओर ध्यान दिया.

अब वातावरण बीमारी के जरासीम से बिलकुल पाक हो चुका था. शहर को पूरी तरह धो डाला गया था. चूहों का कहीं नाम व निशान दिखाई न देता था. सारे शहर में सिर्फ एक-आध केस होता जिसकी तरफ तुरंत ध्यान दिए जाने पर बीमारी के बढ़ने का खतरा बाकी न रहा.

शहर में कारोबार ने अपना सामान्य रुप अख्तियार कर लिया, स्कूल, कॉलिज और दफ्तर खुलने लगे.

एक बात जो मैं ने शिद्दत से महसूस की, वह यह थी कि बाजार में गुजरते वक्त चारों तरफ से उंगलियां मुझी पर उठतीं. लोग एहसानमंद निगाहों से मेरी तरफ देखते. अखबारों में तारीफी वक्तव्यों के साथ मेरी तस्वीरें छपीं. इस चारों तरफ से प्रशंसा और वाहवाही की बौछार ने मेरे दिल में कुछ गुरुर सा पैदा किया.

आखिर एक विशाल जलसा हुआ जिसमें शहर के बड़े-बड़े रईस और डॉक्टर निमंत्रित किए गए. नगरपालिका से संबंधित मामलों के मंत्री ने इसकी अध्यक्षता की. मैं अध्यक्ष महोदय के बगल में बिठाया गया, क्योंकि वह कार्यक्रम असल में मेरे ही सम्मान में आयोजित किया गया था. हारों के बोझ से मेरी गर्दन झुकी जाती थी और मेरी शख्सियत बहुत प्रतिष्ठित मालूम पड़ती थी. गौरवान्वित नजरों से मैं कभी इधर देखता कभी उधर...."मानवजाति की पूरी निष्ठा के साथ सेवा-धर्म निभाने के सिले में कमेटी, कृतज्ञता की भावना से ओतप्रोत एक हजार रूपए की थैली बतौर एक छोटी सी रकम मुझे भेंट कर रही थी."

जितने भी लोग मौजूद थे, सब ने आम तौर पर मेरे सहयोगियों और खासकर मेरी तारीफ की और कहा कि पिछले प्रकोप में जितनी जानें मेरे कठिन परिश्रम से बची हैं, उनकी गिनती संभव नहीं. मैं ने न दिन को दिन देखा, न रात को रात, अपनी जान को देश का प्राण और अपने धन को समाज की दौलत समझा और बीमारी के गढ़ में पहुंच कर मरते हुए मरीजों को स्वास्थ्य का जाम पिलाया!

मंत्री महोदय ने मेज के बाईं तरफ खड़े हो कर एक पतली सी छड़ी हाथ में ली और उपस्थित लोगों का ध्यान उस काली लकीर की तरफ दिलाया जो दीवार पर टंगे नक्शे में बीमारी के दिनों में सेहत के दर्जे की तरफ हर लम्हें गिरते-पड़ते बढ़ी जा रही थी. आखिर में उन्होंने नक्शे में वह दिन भी दिखाया जब मेरी निगरानी में चव्वन (54) मरीज रखे गए और वह सब के सब स्वस्थ हो गए. यानी नतीजा सौ फीसदी कामयाबी रहा और वह काली लकीर अपने शीर्ष पर पहुंच गई.

इसके बाद मंत्री जी ने अपने भाषण में मेरी हिम्मत को बहुत कुछ सराहा और कहा कि लोग यह जानकर बहुत खुश होंगे कि बख्शी जी अपनी खिदमत के एवज में लेफ्टिनेंट कर्नल बनाए जा रहे हैं.

हॉल प्रशंसा और वाहवाह की आवाजों और भरपूर तालियों से गूंज उठा.

उन्हीं तालियों के शोर के दरमियान मैं ने गरूर से भरा अपना सिर उठाया और अध्यक्ष महोदय और दूसरे गणमान्य व्यक्तियों का शुक्रिया अदा करते हुए एक लंबा-चौड़ा भाषण दिया, जिसमें और बातों के अलावा मैं ने बताया कि हमारे ध्यान के केंद्र न केवल अस्पताल और क्वारनटीन थे, बल्कि गरीब तबके के लोगों के घर भी. वह लोग अपने बचाव की स्थिति में बिलकुल नहीं थे और वही ज्यादातर इस जानलेवा बीमारी के शिकार हुए. मैं और मेरे सहयोगियों ने बीमारी के उपज के सही स्थान को तलाश किया और अपना ध्यान बीमारी को जड़ से उखाड़ फेंकने में लगा दिया. क्वारनटीन और अस्पताल के काम से छुट्टी के बाद हम ने रातें उन्हीं खौफनाक गढ़ों में गुजारीं.

उसी दिन जलसे के बाद जब मैं बतौर एक लेफ्टिनेंट कर्नल के अपनी गौरवान्वित गर्दन को उठाए हुए, हारों से लदा-फंदा, लोगों का नाचीज उपहार, एक हजार एक रूपए की सूरत में जेब में डाले हुए घर पहुंचा, तो मुझे एक तरफ से आहिस्ता सी आवाज सुनाई दी.

"बाबू जी...बहुत-बहुत मुबारक हो."

और भागव ने मुबारकबाद देते वक्त वही पुराना झाड़ू करीब ही के गंदे हौज के एक ढकने पर रख दिया और दोनों हाथों से मुंडासा खोल दिया. मैं भौंचक्का सा खड़ा रह गया.

"तुम हो...? भागव भाई!" मैं ने बड़ी मुश्किल से कहा...."दुनिया तुम्हें नहीं जानती भागव, तो न जाने....मैं तो जानता हूं. तुम्हारा येसु तो जानता है....पादरी ल, आबे के बेमिसाल चेले....तुझ पर मालिक की कृपा हो!"

उस वक्त मेरा गला सूख गया. भागव की मरती हुई बीवी और बच्चे की तस्वीर मेरी आंखों में खिच गई. हारों के भार से मेरी गर्दन टूटती हुई मालूम हुई और बटुए के बोझ से मेरी जेब फटने लगी और....इतना सम्मान हासिल करने के बावजूद खुद को नाकारा समझता हुआ इस कदरदान दुनिया का मातम करने लगा!
(कहानी का यह अनुवाद इतिहासनामा से आभार के साथ)
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  1. संगरोध पर अच्छी जानकारी!

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  2. इतिहास के मायने केवल दोहराने में ही नहीं हैं, बल्कि उसके हर दोहराव में मानव संवेदना और सम्मान की कीमत पर ज़िन्दा लाशें तैयार करने की त्रासदी ही शायद एक समान सबक है। शुक्रिया लेखक और व्याख्याकारों को।

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  3. एक शिक्षाप्रद बेहतरीन कहानी

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  4. समालोचन का आभार इस ऐतिहासिक दस्तावेज से परिचय करवाने के लिए - वैसे मन गहरी उदासी से भर गया।
    - यादवेन्द्र

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  5. वर्तमान समय में बेहद प्रासंगिक

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  6. उर्दू कहानी यों का अनुवाद के बजाय लिपयान्तर ज़्यादा बेहतर होता है। अनुवाद से कहानी का असली मज़ा ख़त्म हो जाता है।

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  7. बेहतरीन और प्रासंगिक प्रस्तुति।

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  8. बहुत मार्मिक.. क़्वारण्टीन की कई परतों को उघार देने वाली..

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  9. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (13-04-2020) को 'नभ डेरा कोजागर का' (चर्चा अंक 3670) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    *****
    रवीन्द्र सिंह यादव



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  10. मार्मिक कहानी आज के हालातों में प्रासंगिक

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  11. Maujoodah surat e haalko bayan karti hui behtareen kahani,behtar intekhab

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  12. समालोचन का आभार। सौरभ राय जी का आभार। इस कालजयी रचना को पसधने के लिए।

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  13. बहुत बहुत आभार बहुत मर्मस्पर्शी कथा साथ ही शानदार तरीके से गहन समालोचना ।
    साधुवाद।

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  14. बेदी साहब का बेहतरीन चित्रांकन ।
    जाने क्यों इस कहानी के पढने के पहले से ही मुझे क्वारंटाइन की भयावह स्थिति की जानकारी का आभास था।

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  15. समालोचन ने इस कहानी को पब्लिश करके रूह को ताज़ा कर दिया। इसके लेखक के साथ ही अनुवाद करने वाले और प्रस्तुत करने वाले सब लोग बधाई के पात्र हैं।

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