शर्मिष्ठा और उपन्यास : कौशल तिवारी












मिथकीय पात्रों पर आधारित उपन्यासों का हिंदी में पाठक वर्ग है. अंग्रेजी भाषी पाठकों में तो इसकी मांग रहती ही है, देवदत्त पटनायक, अमीश त्रिपाठी आदि इसके लोकप्रिय लेखक हैं. हिंदी प्रकाशकों ने भी इस दिशा में कदम बढ़ाएं हैं, मेरे देखे इस वर्ष वाणी से पहले से हे इस क्षेत्र में प्रसिद्ध नरेंद्र कोहली का ‘शिखण्डी’, आशुतोष नाड़कर का ‘शकुनि’, प्रेरणा के. लिमडी का ‘अश्वत्थामा’ (गुजराती से हिंदी अनुवाद) और अणु शक्ति सिंह का शर्मिष्ठा’ आदि उपन्यास प्रकाशित हुए हैं.  

अणुशक्ति सिंह हिंदी की बेहद संभावनाशील लेखिका हैं. उनकी कहानियों ने इधर सभी का ध्यान खींचा है. उन्हें २०१९ के ‘विद्यापति पुरस्कार’ से नवाज़ा जा चुका है. ‘कुरु वंश की आदि विद्रोहिणी शर्मिष्ठा’ उनका पहला उपन्यास है.

कौशल तिवारी संस्कृत में लिखते भी हैं. उन्होंने यह उपन्यास पढ़ा है. स्वत: स्फूर्त टिप्पणियाँ खरी तो होती ही हैं बड़ी अर्थगर्भित भी होती हैं. यह उपन्यास अच्छा है और अच्छा हो सकता था.



शर्मिष्ठा और उपन्यास                                    

कौशल तिवारी






हिन्दी में मिथकीय पात्रों को आधार बनाकर काव्य रचने की प्रवृत्ति रही है. ऐसी ही एक रचना है शर्मिष्ठा.यह अणुशक्ति सिंह का प्रथम  उपन्यास है, जिसका प्रकाशन विश्व पुस्तक मेले के अवसर पर वाणी प्रकाशन से हुआ है.

शर्मिष्ठा एक पौराणिक पात्र है जिसका उल्लेख ब्रह्मपुराण तथा महाभारत के आदिपर्व आदि में प्राप्त होता है. लेखिका ने सम्भवतः इसकी कथा का आधार ब्रह्मपुराण को बनाया है क्योंकि उपन्यास में इसका उल्लेख किया गया है. जैसा कि एक लेखक को इस बात की छूट होती है कि वह अपने काव्य में रसानुकूल आंशिक परिवर्तन कर सकता है, लेखिका ने भी इसका लाभ उठाया है. प्रस्तुत उपन्यास में ऐसे कई पात्र हैं जो मूल कथा में दृष्टिगोचर नहीं होते, साथ ही इसमें अपने उद्देश्य की पूर्ति करने के लिये कई घटनाओं की कल्पना भी की गई है.

शर्मिष्ठा असुरराज वृषपर्वा की पुत्री है तो उसकी सखी देवयानी असुरगुरु शुक्राचार्य की पुत्री है. दोनों में स्त्रीसुलभ ईर्ष्या है. एक घटना के कारण शर्मिष्ठा देवयानी की दासी बनना स्वीकार करती है. ययाति का विवाह देवयानी से होता है और शर्मिष्ठा दासी के रूप में देवयानी के साथ जाती है. वहां ययाति के सम्बन्ध चुपके से शर्मिष्ठा के साथ भी बनते हैं. कालान्तर में दोनों से सन्ताने होती हैं, जिनमें से शर्मिष्ठा का सबसे छोटा  पुत्र पुरु अपने पिता की बात मानने के कारण राजा बनता है.
   
यह तो रही मूल कथा संक्षिप्त में. लेखिका ने इसमें जो परिवर्तन किये हैं वे इस प्रकार हैं-

1.   उपन्यास में सन्तान संख्या और उनके नाम सही नहीं हैं. मूल कथा के  अनुसार देवयानी के दो पुत्र व शर्मिष्ठा के तीन पुत्र होते हैं लेकिन उपन्यास में शर्मिष्ठा का एक पुत्र ही बताया गया है. साथ ही उपन्यास में देवयानी के ज्येष्ठ पुत्र का नाम सुशीम है जबकि मूल कथा में उसका नाम यदु है, जिससे यादव वंश चला.

2.   उपन्यास के अनुसार शर्मिष्ठा राज्य से निकलने के बाद बृहस्पति के पुत्र कच के आश्रम में जाकर रहने लगती है, जबकि मूलकथा में ऐसा नहीं है.

3उपन्यास में पुरु की प्रमिका के रूप में चित्रलेखा नामक नया पात्र गढ़ा गया है.

(अणुशक्ति सिंह)

लेखिका एक पौराणिक मिथकीय स्त्री पात्र को आधार बनाकर इस उपन्यास की रचना करती हैं. उनका पूरा ध्यान इसे स्त्रीविमर्श  का रूप देना है और वह इस दृष्टि से सफल भी होती दिखलाई देती हैं. देवयानी के मुख से शर्मिष्ठा पर उसकी सन्तान को लेकर लगाया गया काल्पनिक मिथ्या आरोप कि वह सम्भवतः कच और शर्मिष्ठा की अवैध सन्तान है तथा चित्रलेखा का काल्पनिक पात्र भी इसमें लेखिका की बहुत सहायता करता है. किन्तु उपन्यास की रचना में लेखिका कई त्रुटियां कर जाती हैं जो उपन्यास पढते समय खीज उत्पन्न करने लगती हैं. भाषागत अशुद्धताएं रसास्वादन में बाधक बन जाती हैं. यथा-


1.   उपन्यास में कब कौनसा पात्र अपनी कथा सुनाने लग जायेगा, यह कठिन प्रश्न है, जिसका कोई समाधान नहीं है. कहानी पढ़ते समय पाठक को ही इसका ध्यान रखना पड़ता है.

2. जब पात्र अपनी कहानी सुना रहे होते हैं तो उनकी भाषा पात्रानुकूल होनी चाहिए, किन्तु ऐसा होता दिखलाई नहीं देता. देवयानी जो कि महारानी है, वह अपने पति महाराजा ययाति के लिये अपनी दासी से कहती है- ‘‘यह ययाति भी न..........’’ क्या एक महारानी उस समय अपने पति जो कि एक महाराजा है उसका नाम दासियों के समक्ष ले सकती थी?

3.   उपन्यास जब हिन्दी भाषा में रचा गया है तो पात्रों की भाषा में उर्दू आदि के शब्द कैसे आ सकते हैं, यथा- तमाम, मौका, नजर, नाजुक, दर्द, याद, मदद, जिम्मा, जवाब. इन शब्दों के प्रयोग से बचा जा सकता था. कुछ स्थानों पर तो ऐसे शब्दों के साथ कोष्ठक में हिन्दी शब्द भी लिख दिया गया है जो अटपटा लगता है, जैसे- चीज (वस्तु), हासिल (प्राप्त).

4.    ‘‘माता देवयानी को जन्म देकर प्रसवकाल में ही इहलोक को सिधार गयी थी’’. अब तक तो देहान्त के बाद परलोक जाते थे, लेखिका ने उन्हें इहलोक यानी इसी लोक में भेज दिया. इसी प्रकार पृष्ठ 98 पर देवयानी अपने पतिगृह को जाती हुई कहती है-

‘‘मायके से पीहर तक की प्रथम यात्रा.’’

पाठक यहां सोच में पड जाता है कि क्या मायके और पीहर में कोई अन्तर होता भी है या कि सुसराल को ही कहीं पीहर भी कहा जाता है?

5.   उपन्यास में कुछ घटनाएं असंगत हैं. जैसे एक स्थान पर शर्मिष्ठा कहती है कि-– ‘‘वर्षा ऋतु के बीतने के बाद धूप देह को भाने लगती है.’’ कुछ देर बाद वर्णन आता है कि -‘‘आज बहुत दिनों पश्चात् उसे इस तरह माघ की धूप का संयोग बना था.’’ इन दोनों ही कथनों की संगति नहीं बैठती है. वर्षा ऋतु श्रावण से भाद्रपद में होती है (जुलाई से सितम्बर) जबकि माघ माह के समय शिशिर ऋतु (जनवरी से फरवरी) होती है. इस तरह तो वर्षा के पश्चात माघ माह आते-आते लगभग 4 मास का समय व्यतीत हो जाता है.

6.  उपन्यास में औपन्यासिक पात्र शकुन्तला का उदाहरण देते हैं जबकि शकुन्तला शर्मिष्ठा के पुत्र पुरु के वंश में ही बहुत बाद में जन्म लेने वाले दुष्यन्त की पत्नी बनती है तभी तो दुष्यन्त पौरव कहलाता है. यह कैसे सम्भव है कि जिसका विवाह उसी वंश की होने वाली सन्तान से होने वाला हो उसी का उल्लेख इतने समय पूर्व कर दिया जाये? कम से कम उदाहरण देते समय कालक्रम का भी ध्यान रखा जाना चाहिए.


7.   उपन्यास में कुछ शब्द भी अनेक स्थानों पर सही नहीं है, यथा-स्वान (श्वान), अनाधिकृत (अनधिकृत). कुछ स्थानों पर शब्द प्रयोग अटपटा लगता है, यथा-भल्लकछालधारी, हवन कुण्ड में आहूत हुए अविधा की गन्ध में, न तो मैं अग्रजानी हूं.

8.  उपन्यास का अन्त भी सही नहीं किया गया है. जो भोगलोलुप महाराजा ययाति अपने पुत्र की युवावस्था ले लेता है वह केवल शर्मिष्ठा के एक कथन मात्र से वानप्रस्थ में चला जायेगा?
   
   ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि लेखिका को उपन्यास समाप्त करने की त्वरा थी. कुल मिलाकर यह उपन्यास पौराणिक पृष्ठभूमि पर लिखे जाने के कारण तथा स्त्री पात्रों के मनेावैज्ञानिक पक्ष को उकेरने के कारण पठनीय तो प्रतीत होता है किन्तु भाषागत तथा शैलीगत त्रुटियां उस आनन्द में बाधक बन जाती हैं.
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कौशल तिवारी
संस्कृत में तीन काव्यसंग्रह के साथ छह पुस्तकें प्रकाशित,
हिंदी, राजस्थानी से संस्कृत में अनुवाद भी.
kaushal.tiwari199@gmail.com

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  1. बहुत अच्छा सर .. एक एक बिंदु पर अच्छे से ध्यान दिया है आपने .. शब्द अर्थ भाव सभी के अनुसार समालोचना की है।

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  2. समीक्षा लेखन परिष्करण में मील का पत्थर साबित होती हैं।
    वर्तमान में की जा रही महिमामंडन युक्त तथाकथित समीक्षाओं से भिन्न,गहन अध्ययन उपरांत की गई उक्त समीक्षा वास्तव में सराहनीय है।
    समीक्षा में निष्पक्षता व साहस के पतन के दौर में उक्त समीक्षा का स्वागत किया जाना चाहिए।
    उम्मीद है इसे सहज व धनात्मक लिया जाएगा।

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  3. विमल कुमार24 मार्च 2020, 10:19:00 am

    किसी रचना में केवल तकनीकी कमियों को नही रेखांकित किया जाना चाहिए बल्कि कथ्य पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।समीक्षक यह मानकर बैठा है कि उसका काम केवल खामियां निकलना है।वैसे समीक्षक ने जो कमियां बताईं है वे कितनी सही है इसका जवाब रचनाकार ही दे सकती हैं।

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  4. कौशल तिवारी24 मार्च 2020, 10:20:00 am

    Vimal Kumar जी कथ्य के लिये तो मैंने कहा ही है कि यह पठनीय उपन्यास है अब जो खामियां एक पाठक को लगती है वह बताना भी तो आवश्यक है हाँ रचनाकार अपना पक्ष रखेंगी तो मुझे प्रसन्नता होगी अगर इस प्रतिक्रिया को सकारात्मक लिया जाए तो अच्छा लगेगा

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  5. अणुशक्ति सिंह24 मार्च 2020, 11:19:00 am

    कौशल जी को बेहद शुक्रिया कि उन्होंने शर्मिष्ठा पर ध्यान दिया, उसे पढ़ा और उस पर एक सारगर्भित टिप्पणी भी की।
    मैं आपकी कई बातों से सहमत हूँ। कुछ प्रूफ़ सम्बंधी त्रुटियां रह गयी हैं, कुछ उर्दू के शब्द रह गये हैं, उन सब को लेखिका की नज़रों का दोष मान लीजिये। अपनी किताब का प्रूफ़ देख पाना मुश्किल होता है, कोशिश है कि वे तमाम चीज़ें अगले संस्करण में दूर कर दी जाएँगी।
    अब देवयानी के संवाद पर, आपने एकदम उचित कहा कि महारानी दासी के समक्ष यों नहीं बोलेगी, अगर आप ध्यानापात करें तो देखेंगे कि वह देवयानी स्वयं से कह रही है, अति खीझ और झल्लाहट में। यह मानवीय स्वभाव है कि खीझ में वह अपना मूल देता है, मैंने उक्त कथन के ज़रिए देवयानी के उसी मूल स्वभाव को रेखांकित करने की कोशिश की है जो यह दर्शाता है कि महाराज कहना उसकी विवशता थी ययाति के प्रति, प्रेम अथवा सम्मान नहीं।
    मैंने इस कथा में बहुत सारे बदलाव किए हैं, छूट लिए हैं, जिसका ज़िक्र मैं बार-बार करती रही हूँ कि मिथक कल्पना आधारित कथ्य होता है, और हर लेखक अपने अनुसार छूट ले सकता है।
    मैंने शर्मिष्ठा का एक ही पुत्र रखा है क्योंकि मेरे कथ्य का मंतव्य तीन पुत्र से नहीं सधता। देवयानी शर्मिष्ठा पर क्रोध दर्ज करने के लिए उसके तीन बच्चों का इंतज़ार नहीं करती।
    वैसे चित्रलेखा का वर्णन है प्राचीन कथ्यों में किन्तु उत्तानपाद और दिशा नये चरित्र हैं।
    कच का शुक्राचार्य के आश्रम में गमन हो अथवा यति का आत्मालाप, वे तमाम चीज़ें मैंने अपने अनुसार गढ़ी हैं ताकि मैं जो कथा कहना चाह रही हूँ, वे अपने रौ में रहे।
    कुछ काल ऋतुओं से जुड़े हुए संदर्भ का ज़िक्र आपने किया है, उसके बारे में केवल इतना कहना है कि 'वर्षा ऋतु' के बाद धूप देह को भाने लगती है, मतलब यह कि धूप से प्रेम एक पूरी अवधि के लिए होने लगता है। यहाँ किसी काल खंड को दर्शित नहीं किया जा रहा, एक सम्प्रेषण है भाव का और शर्मिष्ठा माघ के महीने में ही चित्र बना रही थीं।
    सुशीम नाम मुझे यदु से बेहतर लगा और मैं अपनी कल्पना में जो चरित्र बुन रही थी वह सुशीम पर अधिक उपयुक्त था। शर्मिष्ठा मिथक पर आधारित काल्पनिक उपन्यास है, और मैं इसे मिथक के तौर पर स्थापित करने की चेष्टा में नहीं हूँ।
    'पीहर' और 'इहलोक' को ब्लंडर मानिए, शुक्रिया कि आप इसे मेरी नज़र के सामने ले आये, दोनों ही ग़लतियाँ लिखते वक़्त होने वाले 'स्लिप ऑफ माइंड' के मज़ामीन हैं। मैं सुनिश्चित करूँगी कि दूसरे संस्करण में दोनों ही शब्द उचित शब्दों से बदल दिए जाएँ।
    अंत के विषय में यह कहूँगी कि सम्भवतः इसका विस्तार हो सकता था किंतु मेरे अनुसार शर्मिष्ठा की कथा वहीं ख़त्म होती है जहाँ उसकी बात पूरी होती है।
    अंत के विषय में एक अन्य बात यह कि आपने इस बात पर गौर नहीं किया कि ययाति पूरी किताब में (अपनी तमाम वासनाओं में भी) शर्मिष्ठा के विषय में ही सोचता रहा है। मैंने यहाँ उस पुरुष का प्रेमी पक्ष दिखलाने की चेष्टा की है, जिसने अपने स्वार्थ में अपनी प्रेमिका का साथ नहीं दिया था किंतु हमेशा आत्मग्लानि में पीड़ित रहा था। वह पुरुष शर्मिष्ठा के एक कथन पर वानप्रस्थ नहीं जा रहा, अपनी आदिम प्रेयसी के साथ रहने का एक अदद मौके की ओर झपटता है। पुरूष भी प्रेम कर सकते हैं।

    वैसे कौशल जी, आपका बेहद शुक्रिया, ये कुछ बातें मैं हमेशा से लिखना चाह रही थी, संयोग नहीं बन रहा था। आज लिख दिया और दूसरे संस्करण में सुधार में भी उचित सहायता मिलेगी।

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  6. अणुशक्ति सिंह24 मार्च 2020, 12:10:00 pm

    बेहद शुक्रिया कौशल जी का और अरुणदेव सर आपका। शर्मिष्ठा पर बात हो, चर्चा हो, लेखिका और क्या चाहेगी।

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    1. आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद अणुशक्ति जी

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  7. लेखिका का यह उदार और स्वस्थ दृष्टिकोण आज के समय में दुलर्भ है. आपको समालोचन की तरफ से साधुवाद. आप निश्चित रूप से आने वाले समय में बड़ी लेखिका साबित होंगी. :-)

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  8. ओम निश्चल24 मार्च 2020, 12:12:00 pm

    A very insightful overview of kaushal ji . Bhasha vartani ling vachan me chyuti pathya vastu me kankad ke sadrish hote hain.

    All though the novel is worth reading but who have gone through 'uttar ramcharitam' they may wish to have more befitting usages of dialogues according to epical characteristics of Mahabharata.

    Anushakti has benevolentally taken it generously, it is really appreciable.

    Kaushal ji has done well. Regards to him.

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  9. एक बेहद संतुलित टिप्पणी.......कुछ त्रुटियों की तरफ मैंने भी ध्यान दिलाया था लेखिका का ......अच्छी बात है अलगे संस्करण में वो दूर कर ली जायेंगी.

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  10. अणुशक्ति जी!आपके द्वारा इस आलोचना को इतने सहज ढंग से स्वीकारना सराहनीय है। कौशल जी ने बहुत सी जरूरी बातों को लक्षित किया है जो ज्यादातर भाषा केन्द्रित है। लेकिन इसके इतर उन्हें अन्य पक्षों को भी तनिक विस्तार से लिखना चाहिए था जो शर्मिष्ठा के केंद्र में हैं। शर्मिष्ठा के माध्यम से लेखिका ने एक नई चेतना की स्त्री को स्थापित करने की कोशिश की है जो तमाम सामाजिक झंझावातों का उचित प्रतिकार करते हुए अपने पुत्र के साथ जीवन का निर्वाह करती है। शर्मिष्ठा में उन तमाम स्त्रियों का अनुताप भी है जो सिंगल पैरेंट्स हैं और सामाजिक जहर पी पीकर खुद को टूटने से बचाते हुए अपनी पहचान बनाती हैं। इस उपन्यास का सबसे मजबूत पक्ष यह है कि शर्मिष्ठा सीता की तरह, प्रदत्त नियति स्वीकार न करते हुए अपनी समस्त चेतना के साथ उठ खड़ी होती है और अपने एकाकी जीवन की स्वतंत्रता का वरण करती है।

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  11. मुँहदेखी समीक्षा के वर्तमान में खरी-खरी कह सकने वाले समीक्षक कौशल को साधुवाद।
    रचनाकार की उदारता भी श्लाघ्य है।
    -बजरंग बिहारी

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  12. उपन्यास हेतु मिथकीय कथावस्तु का चयन करते समय यह कथन याद रखना चाहिए-
    "सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिय।"

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  13. बहुत ही गहराई के साथ अध्ययन करके सटीक टिप्पणियों के साथ उचित समालोचन।

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  14. कंचन सिंह चौहान24 मार्च 2020, 6:44:00 pm

    माईन्यूट ऑब्ज़र्वेशन हैं, कई बिंदुओं पर तो ध्यान तब गया जब इस आलोचना को पढा :)

    सुशीम, चित्रलेखा और शर्मिष्ठा ययाति के पुत्रों की संख्या पर तुमसे चर्चा कर ही चुकी हूँ :)

    स्वान पर भी ध्यान गया था मगर एक अन्य शब्द पर तुमसे चर्चा कर चुकी थी इसलिये दोबारा वह बात नहीं की। स्वान का अर्थ सूर्य होता है।

    लेकिन एक जगह आलोचक से मतैक्यता नहीं है ईर्ष्या या प्रतिद्वंद्विता स्त्री सुलभ गुण नहीं मानव सुलभ गुण है। :)

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  15. कौशल तिवारी24 मार्च 2020, 6:45:00 pm

    Kanchan Singh Chouhan जी शुक्रिया
    स्त्री सुलभ कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना सा है कि ईर्ष्या स्त्री में अधिक मात्रा में पाई जाती है यद्यपि वह रहती पुरूष में भी है पुरूष उससे अछूता नहीं है किंतु यह प्रकृति है कि स्त्री उसे उतना दबा नहीं पाती पुरुष दबा लेता है जो अधिक खतरनाक साबित हो जाता है कभी कभी
    जैसे कि वीरता पुरुष का आधिक्य लिए हुए गुण है यद्यपि वह रहता स्त्री में भी है

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  16. कंचन सिंह चौहान24 मार्च 2020, 6:46:00 pm

    Kaushal Tiwari जी आपने समालोचना इतनी अच्छी की है कि फ़िलहाल आप से इस मामले पर तर्क-वितर्क नहीं करूँगी। कभी किसी और मंच पर बात होगी इस विषय में।

    फ़िलहाल पुरुष अग़र अपनी ईर्ष्या को दबा ही ले जाता तो कर्ण को जगह-जगह अर्जुन द्वारा नीचा ना दिखाया जाता। द्रोपदी को पाँच जनों में बंटना ना पड़ता। अर्जुन को ज़रा-ज़रा सी भूलों के लिए युधिष्ठिर का दिया 12 वर्ष का वनवास ना झेलना पड़ता। ओथेलो द्वारा डेसडीमोना जैसी वफ़ादार पत्नी की हत्या ना कर दी गयी होती। मुझे तो कभी-कभी लगता है कि लक्ष्मण ही क्यों भेजे गए सीता को वन में छोड़ने को और बाद में उन्हें ही क्यों भूख-प्यास से शरीर छोड़ने को वन भेज दिया गया। राम के ख़िलाफ़ कौन बोले लेकिन कहीं वहाँ भी तो किसी शक और ईर्ष्या ने जन्म नहीं ले लिया था ? :)

    लेकिन फ़िलहाल अभी आप बधाई लें :)

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  17. अच्छा समालोचक वही है जो बिना लाग लपेट के कथ्य को पाठक के मनोविश्लेषणात्मक ढ़ंग से प्रस्तुत करे । और उससे भी अधिक वह लेखक जो आलोचना को पुष्पमाला समझकर विन्रम भाव से स्वीकार करे ।। सुलभा पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिन :. अप्रियस्य च पथयस्य वक्ता श्रोता सुदुर्लभा ।।

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  18. कौशल तिवारी जी ने उत्तम समीक्षा का निदर्शन प्रस्तुत किया है.अणुशक्ति जी भी वर्धापन की पात्रा हैं किन्तु उन्होंने एक ऐसे कथानक का चयन किया जिसे वर्तमान युगबोध के साथ अन्वित किया जाना अपेक्षित था. साहित्यिक भाषा के प्रति अत्यवधान की अपेक्षा होती है,जिसके प्रति उदासीनता से भाषिक स्तर अधम कोटि की ओर पलायन कर रहा है.

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  19. इतनी सटीक समालोचना और लेखिका का इसे बेहद सहजता और सकारात्मक ढंग से लेना दोनों ही सराहनीय है...

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