नामवर सिंह : हिन्दी के हित का अभिमान :पंकज चतुर्वेदी
















हिंदी के आलोचक नामवर सिंह अप्रतिम वक्ता थे, रुचिकर और बौद्धिक चुनौती से भरपूर. शायद पहली बार आलोचना को सुनना इतना प्रीतिकर बना.

कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी ने नामवर सिंह की इन्हीं विशेषताओं को आधार बनाकर यह सुंदर आलेख लिखा है. इसे ‘आलोचना’ पत्रिका ने प्रकाशित किया है. आभार के साथ यह लेख समालोचन के पाठकों के लिए यहाँ प्रस्तुत है. 




नामवर सिंह
हिन्दी के हित का अभिमान                  

पंकज चतुर्वेदी 






1992 में मैं लखनऊ विश्वविद्यालय में बी.ए. का विद्यार्थी था और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली में हिंदी से एम.ए. करने के लिए प्रवेश-परीक्षा मैंने उत्तीर्ण कर ली थी. यह समाचार जब समाजशास्त्र विभाग की अध्यक्ष डॉ. आभा अवस्थी से साझा किया, उन्होंने बेसाख़्ता ख़ुश होकर कहा: 'नामवर सिंह के पास जा रहे हो !' तब मुझे लगा कि जे. एन. यू. में हिंदी का मतलब नामवर सिंह हैं और यह बात अकादमिक दुनिया में राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी हल्क़े के बाहर भी मशहूर है. मगर जब मैं वहाँ पहुँचा, तो यह जानना तकलीफ़देह था कि वह सेवानिवृत्त हो चुके थे. एक दिन किसी कार्यक्रम में आये, तो हम लोगों ने उनसे अनुरोध किया कि कम और अनौपचारिक ही सही, पर हमें पढ़ाने का अनुग्रह करें ! वह तैयार नहीं हुए. विदा के बाद कैसी वापसी ? हमने कहा कि यह हमारा बड़ा नुक़सान है. बोले : "न इसमें आपका कोई दोष है, न मेरा."  सचाई का सहज स्वीकार, जिसमें एक निर्वेद की अनुगूँज थी और चेहरे पर शान्त मुसकराहट. निराला के शब्द याद आते थे:

"जानता हूँ, नदी-झरने
जो मुझे थे पार करने,
कर चुका हूँ,  हँस रहा यह देख,
कोई नहीं भेला."

अगरचे यह अन्त नहीं, एक नये जीवन का आरम्भ था. आगामी सत्ताईस वर्षों में डॉ. नामवर सिंह ने अनगिनत लेखों, व्याख्यानों, साक्षात्कारों एवं संवादों से साबित किया कि उन्होंने लोक-शिक्षक के रूप में अपनी नयी भूमिका का वरण किया और समूची दुनिया को ही अपना विश्वविद्यालय बना लिया था. गोया ग़ालिब के सपनों के क़रीब 'बे-दर-ओ-दीवार सा' एक विश्वविद्यालय ! वह 'सामान्य सहृदय पाठक' या 'भावक'  से बहुत लगाव रखते थे, जिससे संवाद की कामना वक्ता के तौर पर उन्हें देश के कोने-कोने में ले गयी. एक जगह वह अंग्रेज़ी साहित्य में जॉनसन से लेकर वर्जीनिया वुल्फ़ तक 'कॉमन रीडर' की अहमियत पर इसरार की परम्परा रेखांकित करते हैं. 'कॉमन रीडर' साहित्य के सच्चे आस्वादक हैं और ऐसा अदृश्य और व्यापक संस्थान, जिसके वृत्त में जाकर ही साहित्य-कर्म की वृहत्तर सार्थकता है. अन्यथा बस शोध-अध्येता, 'क्लोज़ रीडर' और 'स्कॉलर क्रिटिक' रह जायेंगे या उनसे भी बढ़कर 'लेमन स्क्वीज़र'.

सामान्य पाठक को ही फ़्रांस में आदर्श पाठक कहा गया, जो कवियों-लेखकों को जाँचने के मानक थे. संस्कृत परम्परा में इसके लिए मान्य शब्द हैं--सहृदय / भावक / रसिक / रसज्ञ / विदग्ध. यही विदग्धता नामवर जी में है. उनकी छवि एक सीधे-सादे प्रबंधनीय इंसान की नहीं, बल्कि राजनीतिक पक्षधरता के प्रति सचेत रणनीतिकार आलोचक की रही. उनके पास एक पैनी निगाह है, जिसके परिपार्श्व में है मर्म को पहचान सकने वाला हृदय. करुणा और आत्माभिमान, कोमलता और दृढ़ता की विशेषताओं के संश्लेषण से उनका व्यक्तित्व निर्मित था ; इसीलिए उसमें एक आकर्षक धार थी. विदग्धता को परिभाषित करते हुए अन्य बातों के अलावा मानो यही आत्म-छवि उनके ज़ेहन में है : 
"विदग्ध का गुण विरलों में पाया जाता है. सरलता और बाँकपन का साथ. वक्रता के साथ वंचकता आ जाती है और सरलता के साथ आदमी बैल हो जाता है. दोनों के मेल से विदग्ध बनता है."
इस संदर्भ में नामवर जी कहते हैं कि पाश्चात्य शास्त्र में शरीर और मन के द्वैध की परम्परा रही है, जबकि भारतीय परम्परा में समग्रता पर बल है. इसलिए वहाँ कवि और आलोचक एक-दूसरे से भिन्न, जबकि संस्कृत में कवि और सहृदय एक ही तत्त्व के अभिन्न अंग माने गये हैं. 'काव्य-मीमांसा' में राजशेखर इस प्रतिभा के दो भेद बताते हैं: कारयित्री, यानी सर्जनात्मक एवं भावयित्री, यानी अनुभूत्यात्मक या अनुभूतिपरक. एक पारस है, जिसे छूने से सोना पैदा होता है और दूसरा कसौटी, जो उस सोने की परख करता है. 'ये परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं एवं इसी पूरकता में इनकी परिभाषा निहित है.' कवि में कारयित्री और भावक में भावयित्री प्रतिभा की प्रधानता होती है. जैसे कि 'तंत्र' में प्रधानता के आधार पर स्त्री एवं पुरुष तत्त्व होते हैं और अर्धनारीश्वर की भी परिकल्पना है ; वैसे ही कवि और सहृदय / भावक / रसिक / रसज्ञ / विदग्ध, सभी एक ही तत्त्व के दो रूप माने गये हैं.

सहृदय कौन है ? अभिनवगुप्त के हवाले से नामवर जी बताते हैं : 'काव्य के अनुशीलन के अभ्यास से विशद हुए जिसके मनोमुकुर में वर्णनीय से तन्मय होने की योग्यता होती है ; वह अपने हृदय से संवाद, यानी वर्णनीय वस्तु से एकीकरण को प्राप्त होनेवाला सहृदय होता है.' काव्य पढ़ते समय मन का दर्पण विशद, यानी विमल हो, राजस-तामस विकारों से मुक्त, जिसमें 'त्रिगुण का संतुलन'  हो. साथ ही, दर्पण टूटा हुआ नहीं, अखंड हो. रचना के सतत अनुशीलन से आईना साफ़ हो, तभी उसमें उसका सही और गहरा अक्स उभर सकता है और वह नतीजतन आलोचना को रचनात्मक बनायेगा ही. ऐसे में राजशेखर की 'काव्य-मीमांसा' का यह कथन क्या नामवर सिंह सरीखी प्रतिभा की ओर संकेत नहीं करता: 
"कोई तो वाणी की रचना करने में निपुण है और कोई उसके सुनने में ही प्रवीण है. तुम्हारी दोनों प्रकार की बुद्धि आश्चर्यजनक है."

डॉ. नामवर सिंह को एज़रा पाउंड का यह बयान प्रिय था कि "कविता को गद्य की ही तरह सुलिखित होना चाहिए."  इसमें सुलिखित होने के लिए कविता के बरअक्स गद्य की सराहना का भाव ग़ौरतलब है. जो लोग इस तरह की बातें करते हैं, जैसी कि त्रिलोचन से कहते रहे होंगे : "गद्य-वद्य कुछ लिखा करो, कविता में क्या है", उन्हें कौन समझाये कि गद्य का भी एक शिल्प होता है. किसी भी लेख या निबन्ध की अपनी सौन्दर्यात्मक संरचना तो होती ही है, उसका प्रत्येक वाक्य अपने लिए स्वतन्त्र शिल्प की माँग करता है, जिसे मनोजगत् में हासिल किये बग़ैर लिखा जा नहीं सकता. इसलिए अच्छा गद्य लिख पाना सबके वश की बात नहीं.

कविता की ही मानिंद गद्य भी अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में भाषा का यादृच्छिक इस्तेमाल नहीं, बल्कि ख़ून की रौशनाई में लिखे हुए शब्द हैं. नामवर जी की आलोचना सबसे पहले इसलिए आकृष्ट करती है कि उसमें विचार की गरिमा और संवेदना की सजलता के साथ वह धीरज है, जिसकी बदौलत उसका प्रत्येक शब्द और विन्यास सुचिंतित है. प्रखर और पारदर्शी. उसके पीछे जिये गये जीवन का बल है. वह यांत्रिक नहीं, 'जैविक' गद्य है. रघुवीर सहाय की इन कविता-पंक्तियों की याद दिलाता हुआ :

"सुंदर सुगठित गद्य, सहृदय के हाथों लिखा
पढ़ते-पढ़ते चित्त, यात्राएँ करने लगा."

नामवर जी के आलोचनात्मक गद्य में जो सुथरापन, रवानी और कशिश है ; वह गंभीर और धैर्यपूर्ण साधना की फलश्रुति है. लेखन को जीवन के क़रीब ले जाने के लिए ओढ़े हुए 'क्राफ़्ट' या नक़्क़ाशी से दूर ले जाना पड़ता है, जैसा कि एल्मर लेनर्ड ने कहा है : "अगर वह मुझे 'लेखन' की तरह लगता है, मैं उसे दोबारा लिखता हूँ."  सिर्फ़ 'लिखने' की बात की जाये, तो उन्होंने अपने सुदीर्घ आलोचनात्मक सफ़र के मद्देनज़र ज़्यादा नहीं लिखा है. सबब यह कि चीज़ों को जानने, सोचने-समझने और महसूस करने पर इसरार ज़्यादा रहा ; उसके बनिस्बत लिखने पर कम. एक व्याख्यान में वह कहते हैं कि 'लिखो, पानी पर नहीं, पत्थर पर लकीर की तरह.' अचरज नहीं कि आलोचना के पुरातत्त्वविदों की बोझिल शैली और 'पत्रकारिता की भाषा', दोनों में ही लिखे जाने पर वह असहमति और अफ़सोस ज़ाहिर करते हैं. उनका गद्य पढ़कर यह नहीं लगेगा कि इसे जल्दबाज़ी में, एकाएक या यों ही लिखा गया है ; उलटे यह मालूम होगा कि इन शब्दों का मूल्य चुकाया गया है :
"....संघर्ष के बिना जब दो वक़्त की रोटी भी मयस्सर नहीं होती, तो कविता के मूल्य क्या मिलेंगे ? मूल्यों को इसीलिए 'कमाया हुआ सत्य' कहा जाता है कि हर एक को मूल्यों के लिए ख़ुद क़ीमत चुकानी पड़ती है."  

ज़ाहिर है कि साहित्य-रचना के क्षेत्र में 'समय-पालन' का अपना ख़ास अंदाज़ होता है और उस तरह नहीं, जैसे कि हृदयहीन राजनीतिक या कारोबारी उसे अमल में लाते हैं. बक़ौल रघुवीर सहाय :

"काम जो हम चाहते हैं करें पर स्थगित करते रहते हैं
बर्बर लोगों की तरह कर नहीं डालते."

मैंने पहली बार विधिवत् डॉ. नामवर सिंह का वक्तव्य 1994 में दिल्ली में श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार समारोह में सुना, जब यह सम्मान कवि वीरेन डंगवाल को दिया गया था. इस आयोजन के आरम्भिक वक्ताओं में शामिल एक कवि-आलोचक ने किसी विषय पर अपने आलेख का पाठ किया, जो सुविचारित तो था, मगर उसका पुरस्कृत कवि की रचनाशीलता से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध न था और शायद उसमें यह भी कहा गया था कि साहित्य हमेशा विपक्ष में रहता है. नामवर जी आये, तो संसद भवन की ओर इशारा करते हुए बोले कि-
'साहित्य को विपक्ष में बताना उसका कोई बहुत सम्मान नहीं है, क्योंकि आज विपक्ष में तो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भी है, बल्कि वही प्रमुख विपक्ष है! इसके बजाए मौजूदा व्यवस्था में साहित्य दरअसल हाशिए पर है.'

निर्दोष और ख़ूबसूरत दिखनेवाले किसी तर्क या स्थापना की बुनियादी विसंगति नामवर जी से छिप नहीं सकती थी और उसे उजागर कर वह उसके बरअक्स सही या बेहतर मंतव्य को प्रस्तावित कर देते थे. लोकतांत्रिक विमर्श की अधिकतम सार्थकता के लिए उसकी इसी संस्कृति में उनका यक़ीन था.

एक बार 'जैनेन्द्र के स्त्री-पात्रों की स्वाधीनता' विषय पर किसी समालोचक को वक्तव्य देना था और वह 'मुक्ति' पर विचार व्यक्त करते रहे. नामवर जी ने कहा कि स्वाधीनता और मुक्ति में बहुत फ़र्क़ है. मुक्ति वाह्य बंधनों से होती है, जबकि स्वाधीन आत्मा के स्तर पर ही हुआ जा सकता है. इस दृष्टि से जैनेन्द्र की स्त्रियाँ स्वाधीन हैं, भले वे मुक्त न हों. नामवर जी किसी भी विचारक के केन्द्रीय तर्क से मुख़ातब होते थे और अक्सर व्यक्ति के बजाए प्रवृत्ति पर चोट करते थे. विचारों के क्षेत्र में प्रतिपक्षी के कमज़ोर मोर्चे पर वार करना या उस पर निजी क़िस्म का हमला करना रण-कौशल नहीं; कमज़ोरी और अवसरवाद है. इसका मतलब है कि आप अपने आक्रमण के नैतिक औचित्य को लेकर आश्वस्त नहीं हैं. आलोचना का अंतिम मक़सद किसी का उपहास करना नहीं, बल्कि एक नैतिक औदात्य के साथ अपनी बात कहना है. इस अर्थ में रचना ही संवेदना पर आश्रित नहीं है ; आलोचना भी संवेदना से शून्य होगी, तो रचनात्मक नहीं हो सकती. 'कहना न होगा' में एक जगह नामवर सिंह कहते हैं:
'विचार का जवाब है उससे श्रेष्ठ विचार.'
दूसरे, उपर्युक्त कार्यक्रम में उन्होंने कहा : "बोलने को तो किसी भी विषय पर बोला जा सकता है, मगर आज के समारोह के दूल्हा हैं वीरेन डंगवाल." इस तरह वह एहसास करा देते थे कि सुंदरता औचित्य का ही दूसरा नाम है और अपने समय से न्याय किये बग़ैर, यानी प्रासंगिकता के अभाव में अनिवार्यता का दावा बेमानी है. इसलिए अनावश्यक विस्तार में न जाकर वह किसी कवि के रचनात्मक अवदान के केन्द्रीय सत्य या नाभिक को अनावृत करते हुए उसका सारभूत सौन्दर्य बयान करते थे.

उन्होंने वीरेन डंगवाल की कविता की प्रमुख तौर पर तीन विशेषताओं को मुख़्तलिफ़ कविताओं की नज़ीर देकर उजागर किया.

एक, उनकी कविता पदार्थमयता की कविता है.
दो, उन्होंने मिथकों पर भी लिखा है और ऐसे कवि हिंदी में विरले ही हैं.
तीसरे, पूर्वज कवियों के रचनात्मक अवदान से आत्मीयता, उसके प्रति कृतज्ञ होने और उसके दाय को अपनी सृजनात्मकता से विकसित करने की तमीज़ कोई वीरेन डंगवाल से सीखे !

यों कविता को लेकर नामवर जी का मूल्य-बोध और सौन्दर्य-चेतना सामने आती है. कविता वस्तु-संसार से अंतरंग होती है और उसकी अभिव्यक्ति के ज़रिए ज़िंदगी से हमारी संसक्ति को हर बार नये ढंग से प्रकाशित और प्रगाढ़ करती है. मिथकों के पुनःपाठ के नतीजे में हमारी सांस्कृतिक विरासत की अभिनव मानवीय सार्थकता की खोज उसका एक ज़रूरी कार्यभार है. अंततः सर्जनात्मक परम्परा की अन्तर्ध्वनियाँ उसके महत्त्व एवं आकर्षण को और बढ़ा देती हैं, क्योंकि इससे वह अपने समय के अभिज्ञान के साथ-साथ इतिहास की शक्ति से भी संवलित होती है. यहाँ वस्तुनिष्ठता के अलावा कविता की जिन दो विशेषताओं का ज़िक्र है, उन पर अक्सर कलावादी ख़ेमा इसरार करता है, गोया वे अभिजन समाज का ही विशेषाधिकार हों और अपनी 'समुन्नत' बौद्धिकता और साधनों से वही उनके सूक्ष्म और विशिष्ट इज़हार में सक्षम हो. लेकिन मुक्तिकामी रचनाधर्मिता के सन्दर्भ में नामवर सिंह के द्वारा कविता की इन विशेषताओं का आग्रह सहसा मुक्तिबोध के काव्यांश की याद दिला देता है:

"हम हैं समाज की तलछट
केवल इसीलिए
हमको सर्वोज्ज्वल परम्परा चाहिए."

'दूसरी परम्परा की खोज' की भूमिका में नामवर सिंह ने वाल्टर बेन्यामिन की हसरत को रश्क के साथ याद किया है: 'मेरा वश चलता, तो एक किताब उद्धरणों की ही लिखता.' स्वयं नामवर जी की आलोचना का एक बड़ा भाग उद्धरण घेरते हैं. 'कविता के नये प्रतिमान' के पहले ही निबन्ध 'कविता क्या है?' को ध्यान से पढ़ें, तो ग्यारह पृष्ठों के इस लेख में उनके अपने मंतव्य प्रमुख रूप से  महज़ तीन हैं :

1—“क्या स्वरूप-वर्णन के बिना मूल्य-निर्णय की कोई सार्थकता रह जाती है ? वर्णन के बिना निर्णय या तो इलहाम है या फिर कोरा फ़तवा.”,
2—“महाभारत के बाद अर्जुन का गांडीव जिस तरह दस्युओं के सम्मुख व्यर्थ हो गया था, उसी प्रकार नयी कविता के समक्ष पुरानी अनुभूतियों से निर्मित सहृदयता की विफलता निश्चित है.” और
3—“.....नयी कविता छायावाद के समान ही ‘अनुभूति’ पर बल देते हुए भी भावों की शाश्वतता के प्रति उतनी आश्वस्त नहीं है. इसलिए नये कवि अनुभूति से अधिक अनुभूतियों के परिवर्तित संदर्भ पर विशेष बल देते हैं. स्पष्टतः उनका बल रागात्मकता से अधिक रागात्मक सम्बन्धों पर है......नये कवि की समस्या इस रूप को ही भाव में रूपांतरित करने की है, प्राप्त भाव को रूप देने की नहीं.”

इस आधार पर कोई पूछ सकता है कि आलोचक इस प्रस्तुति में कहाँ और कितना है ? उद्धरण जहाँ उद्धरणों के लिए आते हैं, बोझ बन जाते हैं ; मगर जब वे किसी अभिप्राय की खोज और स्थापना के प्रयोजन से प्रकट होते हैं, तो उनमें नदी का-सा नैसर्गिक प्रवाह होता है. सबब यह कि वे लेखक की विचारशील अंतरात्मा से छनकर व्यक्त होते हैं. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का एक कथन यहाँ प्रासंगिक है :
"पंडिताई भी एक बोझ है--जितनी ही भारी होती है, उतनी ही तेज़ी से डुबाती है. जब वह जीवन का अंग बन जाती है, तो सहज हो जाती है."

नामवर जी प्रायः टकसाली वाक्य बोलते थे. इसके पीछे उनका बेहद अनुशासित दिमाग़ सक्रिय था. इसीलिए उनके तमाम व्याख्यानों को हूबहू लिखा और निबन्धों के मानिंद छापा जा सका. त्रिलोचन के शब्दों में कहें, तो "भाषाओं के अगम समुद्रों के अवगाहन" के अनन्तर ही ऐसे मक़ाम पर पहुँचा जा सकता है. नामवर जी के एक सूत्र में इस कामयाबी का रहस्य मिलता है कि
'आलोचक को ख़ूब पढ़ना चाहिए, जितना मुमकिन हो उतना, मगर इसलिए नहीं कि उसे आलोचना लिखनी है.'  

इस्तेमाल के मक़सद से नहीं, बल्कि प्यार के कारण पढ़ना चाहिए. इससे बड़ी बात क्या कही जा सकती है ? दूसरे शब्दों में यही कहा गया है कि साध्य के लिए साधन की पवित्रता और परमार्थ के लिए निःस्वार्थ यात्रा दरकार है.

जिसे हम प्रगति समझते हैं, वह परम्परा के सही और सम्यक् अभिज्ञान के बिना संभव नहीं की जा सकती. नामवर सिंह कहते थे कि परम्परा और रूढ़ि में फ़र्क़ है. मनुष्यता की जय-यात्रा के लिए नुक़सानदेह और बाधक होने के कारण रूढ़ि त्याज्य होती है, जबकि परम्परा श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर की ओर निरन्तर एक प्रस्थान है. इस मानी में प्रत्येक परिवर्तन पर परम्परा का ऋण रहता है. जो लोग नव्यता या मौलिकता को अतीत से सर्वथा विच्छिन्न कोई अनोखी शै मानते हैं, हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उनके लिए ही कहा होगा कि 'महाअज्ञानी ही महामौलिक हो सकता है.'

नयी उद्भावनाओं के लिए भी ज्ञान-क्षेत्र का प्रसार अनिवार्य है. ऐसा नहीं होता, तो बक़ौल कवि विनोद कुमार शुक्ल, मुक्तिबोध उनसे यह नहीं कहते कि 'पढ़ना, लिखने की ख़ुराक है.' नये की नींव में अक्सर पुराने का बीज पड़ा रहता है, मगर बदले हुए समय-संदर्भ की प्रेरणा से घटित रूपांतरण के चलते हम उसकी मौजूदगी को पहचान नहीं पाते. नामवर सिंह ने अपनी आलोचना में प्रायः उत्तरपक्ष का जो सौन्दर्य सृजित किया है, उससे पूर्वपक्ष की सार्थकता नये ढंग से आलोकित होती है. मसलन उनकी यही बढ़त :
"जयशंकर प्रसाद ने एक जगह कहा है कि समझदारी आने पर यौवन चला जाता है. क्या यौवन चले जाने पर समझदारी आ जाती है ?"

रचनात्मक और बौद्धिक विरासत के विकास के ऐसे असंख्य उदाहरण उनके यहाँ बिखरे पड़े हैं, जो साबित करते हैं कि परम्परा से प्रश्न पूछना उस पर मुहर लगाने से बेहतर है. शायद 'दूसरी परम्परा की खोज' का रास्ता इसी प्रश्नाकुलता और बहसधर्मिता से जनमा हो ! आकस्मिक नहीं कि यशस्वी कवि शमशेर बहादुर सिंह से जब पूछा गया कि नामवर सिंह के 'कविता के नये प्रतिमानों'  के बारे में उनके विचार क्या हैं, तो उन्होंने 'नामवर'  शीर्षक अपने विस्तृत निबन्ध में लिखा कि किसी नये मार्क्सवादी आलोचक से मुक्तिबोध ने जो-जो अपेक्षाएँ की हैं, नामवर जी ने उन पर बहुत संजीदगी से चिंतन किया है. नतीजतन वह एक गूढ़ संकेत करते हैं, जिसके आशय को समझ पाना मुश्किल नहीं :
"कोई अजब नहीं, जो मैं वही बातें दुहराने लगूँ, जो मुक्तिबोध बहुत युक्तियुक्त ढंग से कह गये हैं और जिन्हें डॉ. नामवर सिंह ने अनेक स्थलों पर अपना आधार बनाया है."  

इस तरह नामवर जी के महत्त्वपूर्ण आलोचनात्मक उद्यम के स्वभाव के मद्देनज़र सुधीर कक्कड़ के उपन्यास 'कामयोगी'  में वात्स्यायन का कथन याद आता है :

"उद्धरणों के माध्यम से हम अपने पूर्वजों से वैसे ही जुड़ते हैं, जैसे प्रति माह प्रथमा को उनके लिए किये जानेवाले अनुष्ठानों के माध्यम से हम केवल वही सोच सकते हैं, जो पहले सोचा जा चुका है. अगर तुम्हें कभी यह लगने लगे कि तुम्हारे पास कोई नया विचार है, तो याद रखना कि तुम केवल इसके स्रोत को भूल गये हो !"

उद्धरण देना लेखक की ग़ैर-मौलिकता का नहीं, बल्कि एक दृश्य में मौजूद अन्यान्य बौद्धिक एवं संवेदनात्मक अभिव्यक्तियों का सम्मान और उनसे आत्मीय संवाद कर सकने की उसकी विशेषता का सबूत है. यह अपने समय के समूचे वैचारिक पर्यावरण के प्रति सजग संवेदनशीलता या कहें कि मस्तिष्क और हृदय की विशालता के बग़ैर संभव नहीं. जब आत्मीयता नहीं होगी, तो किसी की याद क्यों आयेगी और उससे बहस करने की ज़रूरत भी क्यों महसूस होगी ? इस तरह देखें, तो प्यार और विचार में अन्योन्याश्रित रिश्ता है, जो नामवर सिंह की आलोचना की आंतरिक आभा बन जाता है और उसके कैनवस का विस्तार करता है. वह कहते थे कि बड़ी रचना सिर्फ़ श्रेष्ठ विचारों पर निर्भर नहीं होती, बल्कि उनसे आगे बढ़कर एक पूरे वातावरण का निर्माण करती है ; जिसमें हम इतिहास के किसी दौर की समग्र सचाई से रूबरू होते हैं और उसके जीवित परिवेश में साँस ले सकते हैं. रचना के इसी वैशिष्ट्य को आत्मसात् करने की बदौलत नामवर जी की आलोचना किसी एकपक्षी सिद्धान्तकार की विवेचना के बजाए एक काल-खंड के अहम विचारकों के दरमियान 'वाद-विवाद-संवाद' के दिलचस्प और जीवंत थिएटर में बदल जाती है ; जहाँ आलोचक का अपनी ओर से दिया गया कोई स्वतन्त्र फ़ैसला या अलहदा वक्तव्य नहीं, बल्कि विभिन्न विचारों का 'जक्स्टापोज़ीशन', यानी समक्षीकरण या मुक़ाबला ख़ुद कहने लगता है कि सही और श्रेष्ठ विचार क्या है. सच पूछिये, तो उपलब्ध दृश्य के महत्त्वपूर्ण आयामों की समृद्धि के बरअक्स वरेण्य का इंगित ही नामवर जी की आलोचना की उपलब्धि है और अवदान भी. उसकी सार्थकता यही है और सौन्दर्य भी.

आलोचना को भी रचना की ही तरह दिलचस्प, संवेदनशील, अंतर्दृष्टि-सम्पन्न, सुंदर और मूल्यवान् होना चाहिए, यह विवेक हमें नामवर सिंह ने दिया. इसी समझ की बदौलत वह कई बार अपनी आलोचना को अपने समय की रचना से अधिक प्रासंगिक, सार्थक और स्पृहणीय बना सके. वह हिंदी के सर्वश्रेष्ठ वक्ताओं में अग्रगण्य थे, इसलिए कि उन्हें सुनना विचारोत्तेजक ही नहीं, सौंदर्यात्मक अनुभव भी होता था. प्रमुख तौर पर जिन तीन विशेषताओं के संश्लेषण से उनके जैसा व्यक्तित्व निर्मित हुआ था, वे हैं--व्यापक अध्यवसाय, विलक्षण स्मृति और वाग्विदग्धता.

नामवर जी अपने समय के आलोचकों में इस मानी में भी विशिष्ट थे कि कवियों और कथाकारों का वह सम्मान करते थे, उन्हें उच्च-भ्रू बुद्धिजीवी की अहंकारी निगाह से नहीं, संघर्षशील जनसाधारण की आत्मीय और मर्मज्ञ नज़र से देखते थे. शायद उनका सबसे बड़ा अवदान यह है कि उन्होंने अपनी रचनात्मक प्रतिभा के संस्पर्श से आलोचना सरीखी गहन ज्ञान की विधा का लोकतंत्रीकरण किया और उसे हिंदी साहित्य के दायरे से आगे बढ़कर समाज विज्ञान के अनुशासनों, दूसरी भारतीय भाषाओं की साहित्यिक दुनियाओं और आम सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्रों के बीच विचार-विमर्श के लिए ज़रूरी और लोकप्रिय बनाया. व्यापकतर समाज में हमें यह गर्व सहज ही हासिल रहा कि हम उस हिंदी से आते हैं, जिसके पास नामवर सिंह सरीखा ज़हीन आलोचक है. उन्होंने एक सामान्य ग्रामीण निम्नमध्यवर्गीय पारिवारिक पृष्ठभूमि से निकलकर, अपने अनथक संघर्ष के सहारे यह शीर्षस्थानीयता अर्जित की थी. इसलिए शाद अज़ीमाबादी का यह शे'र उन्हें प्रिय था, जो प्रकारांतर से नयी पीढ़ी को अनूठे आत्मविश्वास से अनुप्राणित करता है :

"ये बज़्म-ए-मै है, याँ कोताह-दस्ती में है महरूमी 
जो बढ़कर ख़ुद उठा ले हाथ में, मीना उसी का है."

कई वर्ष पहले राष्ट्रीय पुस्तक मेले का उद्घाटन करने नामवर जी कानपुर आये थे. तब रेलवे स्टेशन पर उनकी अगवानी करने की ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी गयी थी. मैं कुछ दोस्तों के साथ उनका स्वागत करने पहुँचा. जैसे ही सुबह-सुबह वह श्रमशक्ति एक्सप्रेस से प्लेटफ़ॉर्म पर उतरे, हमने फूलमालाएँ पहनाकर उनका अभिनन्दन किया.

स्टेशन से बाहर निकलते ही मैंने एक अद्भुत दृश्य देखा. बीती रात कानपुर में किसी कवि-सम्मेलन में आये हुए एक जाने-माने, लहीम-शहीम हास्य-कवि नामवर जी को देखते ही, उनके समक्ष ज़मीन पर घुटनों के बल बैठ गये और दोनों हाथ जोड़कर बोले : "नामवर जी, मैं हिंदी का एक छोटा-सा कवि......" ऐसा उनका सम्मान था ! मैं ग़ौर से देख रहा था. नामवर जी ने उनकी अभ्यर्थना के जवाब में एक शब्द नहीं कहा, सिर्फ़ हँसते हुए आगे बढ़ गये. हिंदी के दूसरे बड़े पूर्ववर्ती आलोचकों की तरह यह संस्कार हमें उनसे ही मिला है कि जो योग्य नहीं है ; उसकी सराहना करना, आलोचना का अपने धर्म से अपसरण है. ग़ौरतलब है ‘कविता के नये प्रतिमान’ की भूमिका में उनका यह कथन :

“मूल्यवान् है एक भी ऐसे आलोचक का होना, जो किसी भी चीज़ को तब तक ‘अच्छा’ न कहे, जब तक उस निर्णय के लिए वह अपना सब-कुछ दाँव पर लगाने को तैयार न हो.”

बाद में अख़बार में कार्यरत एक स्थानीय कवि अथवा गीतकार का उनसे परिचय कराते हुए मैंने कहा : "ये अमुक अख़बार में पत्रकार और कवि हैं." उन्होंने नामवर जी को नमस्कार करते और कुछ शरमाते हुए तुरंत प्रतिक्रिया दी : "नहीं, नहीं, मैं कवि नहीं हूँ."  यह उनके आलोचक का औदात्य था कि कवि-सम्मेलन जैसी प्रायः विकृत और निरर्थक हो चुकी संस्थाओं या गतिविधियों के स्तर पर सक्रिय और कविता के नाम पर विपुल धन और यश कमा रहे लोगों को भी उनके सामने जाकर आत्महीनता का एहसास होता था और वे अपने को कवि मानने में संकोच करते थे.

दोपहर के भोजन के बाद, जबकि कार्यक्रम, यानी नामवर जी का उद्घाटन व्याख्यान शुरू होने में कुछ समय था, मैंने उनसे निवेदन किया कि 'अब आप अपने कमरे में आराम कर लीजिए' और उनकी सेवा के लिए नियुक्त एक परिचारक से उन्हें परिचित कराते हुए कहा: 'इस बीच ये यहाँ रहेंगे और आपकी आवश्यकताओं का ध्यान रखेंगे.'  कई बार किसी एक शब्द के इस्तेमाल से ही उसे बरत रहे व्यक्तित्व की श्रेष्ठता का पता चल जाता है. नामवर जी बोले कि उन्हें किसी ख़िदमतगार की ज़रूरत नहीं है और इस काम के लिए नियुक्त उस नवयुवक से उन्होंने जो वाक्य कहा, वह अपनी मार्मिकता की बदौलत मेरी चेतना में अमिट हो गया है :
"तुम कहाँ मेरे लिए तपस्या करोगे !"


नामवर सिंह को मैंने कभी आक्रामक, असंयत या उत्तेजित शैली में भाषण करते नहीं देखा-सुना. निरी उत्तेजना के साथ बोलनेवाला अच्छा वक्ता नहीं हो सकता. वह भाषा को बरतते हुए लगातार हिंसा करता है और यह शैली किसी ख़ालीपन को छिपाने की कोशिश है या कहें कि आत्महीनता का सबूत. इसके विपरीत नामवर जी बहुत आत्मविश्वास, दृढ़ता एवं शान्ति के साथ, संजीदा और शालीन, मगर दो-टूक लहजे में अपनी बात कहते थे. निराला के शब्दों का सहारा लेकर कहें, तो उनके वक्तव्यों में एक ऐसे व्यक्तित्व के ज्ञान की गरिमा झलकती थी, जो 'समधीत शास्त्र-काव्यालोचन' और 'अपने प्रकाश में निःसंशय' था, निर्भीक, दृष्टि-सम्पन्न, तेजस्वी, विनोदप्रिय और संवेदना-सजल था. धमकी-भरे, आक्रांता अंदाज़ में जो लोग बोलते हैं, उनके शब्द बाद में कानों में बजते रहते हैं, मगर हृदय पर वे कोई मार्मिक प्रभाव नहीं छोड़ पाते, जिसके आलोक-वृत्त में काफ़ी समय तक रहा जा सके.

नामवर जी एक ही 'पिच' (स्वरमान) पर बोलते थे ; मगर शब्दों के अभिप्राय, मर्म और व्यंजना के मुताबिक़ उच्चारण का बलाघात बदल देते थे. उनको सुनने का सुख इस एहसास में निहित था कि कहनेवाले को ठीक-ठीक मालूम है कि वह क्या कह रहा है और उसे भाषा के अन्तःसलिल संगीत की समझ है. वह जानते थे कि इंसान की ज़िंदगी में शब्दों की भूमिका कितनी गहन और दूरगामी है. एक व्याख्यान में उन्होंने कहा था कि 'कविता सिर्फ़ दिलोदिमाग़ पर नहीं, बल्कि समूचे संवेदन-तंत्र पर, इन्द्रियों पर, त्वचा पर, चमड़ी पर असर करती है.' यहाँ त्वचा और चमड़ी, दोनों शब्दों का इस्तेमाल आशय के दोहराव नहीं, बल्कि संपूर्णता के लिए है और यह बात वही जान सकता है, जो एक कवि हो. भले ही वह कवि के रूप में मौन हो गये थे, किन्तु अभिव्यक्ति के एक दूसरे मोर्चे पर अपनी उस कलात्मक क्षमता को चरितार्थ करते रहे.

दरअसल नामवर सिंह आलोचना के ज़रिए वही काम करते थे, जो कविता के माध्यम से कवि करता है ; जैसा कि एक कवि की बाबत रघुवीर सहाय ने लिखा है :

"(उनकी) वस्तु-योजना अद्भुत धीरज और साहस के साथ, जो कि अपनी अनुभूति को सम्प्रेषित हो जाने तक बचाये रखने के लिए कवि को चाहिए, एक शान्त शक्ति वाली भाषा तैयार करती है. यह उपलब्धि आधुनिक कविता के प्रयत्न को संपूर्ण बनाती है......"

इस पर एक अहम और दिलचस्प अध्ययन हो सकता है कि नामवर जी का आलोचनात्मक गद्य किस हद तक कविता की प्रविधि का इस्तेमाल करता है और उसकी कितनी विशेषता उसमें समाहित है. अर्थ की सान्द्रता, मर्मस्पर्शिता, व्यंग्यात्मकता, कलात्मक अभिव्यक्ति की संरचना और भाषिक सौष्ठव सरीखे गुण उनके गद्य में सहज ही लक्ष्य किये जा सकते हैं. उन्होंने लिखा कम, मगर जो लिखा, उसके प्रभाव का दायरा व्यापक है ; ठीक इसी तरह आकार में छोटी होने के बावजूद कविता की व्यंजना बड़ी होती है. सवाल है कि उनकी आलोचना में कविता की सिफ़त का उत्स क्या है ?

सबको मालूम है कि नामवर सिंह अपने साहित्यिक सफ़र की शुरूआत में कविताएँ भी लिखते थे. बक़ौल शमशेर, उन कविताओं का 'पर्सनल टच'  उन्हें खींचता था, उनमें-से "थोड़ी-सी कविताएँ विशुद्ध इमेजिस्ट कविताएँ" लगती थीं और "सफल इमेजिस्ट कविताएँ." लेकिन वृहत्तर धरातल पर ज़िम्मेदारियों की पुकार ने उनके कवि और आलोचक के बीच कशमकश पैदा की, जिसके नतीजे में आलोचक विजयी हुआ: "धीरे-धीरे क्या, जल्द ही नामवर के युवा कवि को उसके वयस्कतर होते मार्क्सिस्ट आलोचक ने दबा दिया. निश्चय ही व्यक्तिगत भावनाओं से अधिक महत्त्वपूर्ण थीं व्यापक सांस्कृतिक समस्याएँ." एक घिसी-पिटी, संभवतः 'आउटडेटेड' मान्यता है कि असफल कवि सफल आलोचक होता है ; मगर नामवर सिंह आलोचक के रूप में इसलिए सफल हुए कि उन्होंने अपने कवि को बिसराया नहीं, भरसक उसे अपनी आलोचना में जीवित और सक्रिय बनाये रखा.

'छायावाद' (1954) और 'कविता के नये प्रतिमान' (1968) के रूप में नामवर सिंह ने दो बार कविता के एक पूरे दौर का विश्लेषण और मूल्यांकन प्रस्तुत किया. बीते छह-सात दशकों में कविता एवं विभिन्न कवियों पर स्वतन्त्र निबन्ध और किताबें लिखी गयी हैं और उनमें-से कई उत्कृष्ट भी हैं ; मगर एक समग्र कालखंड की काव्यात्मक विशेषताओं और उपलब्धियों की पारदर्शी मीमांसा करनेवाला काम किसी और ने कहाँ किया है ? शमशेर उन्हें 'सैयद' कहा करते थे. उनके ही शब्दों में, "अकबर इलाहाबादी का वो शे'र है न—

'हमारी बातें ही बातें हैं--सैयद काम करता था
न भूलो फ़र्क़ जो है, कहनेवाले करनेवाले में.'
मुझे ये (नामवर) सदा बड़े कर्मठ और व्यवस्थाप्रिय लगा किये हैं."

यह सही है कि कम-से-कम कविता की लिखित आलोचना के सन्दर्भ में नामवर सिंह की सक्रियता कविता के नये प्रतिमानों से आगे बढ़कर रघुवीर सहाय और धूमिल की कविता पर आकर ठहर गयी और उसके पार नहीं जा सकी. बाद में उनका बेशतर वक़्त हिंदी की अकादमिक और साहित्यिक दुनिया, प्रकाशन-तन्त्र और पुरस्कार-तन्त्र में उनके बहुआयामी उचित-अनुचित सत्तात्मक दख़ल में ज़ाया होता रहा और उससे बहुतेरे प्रबुद्ध, सच्चे एवं संवेदनशील लोग--जिन्हें उनसे और भी बड़ी उम्मीदें थीं--स्वभावतः क्षुब्ध एवं हताश होते रहे और एक क़िस्म की प्रगल्भ सामाजिकता से सुख अर्जित कर रहे उत्तर-नामवर तक उनकी कातर पुकारें बेशक पहुँचती रहीं, मगर आख़िरकार अनसुनी रह गयीं. लेकिन इससे उन्होंने जो अहम काम किये थे, अनकिये नहीं हो गये. उनकी अहमियत अक्षुण्ण है और इतनी तो है ही कि शमशेर के इन शब्दों से उसका स्तवन किया जा सकता है :

“फिर एक ही जन्म में और क्या-क्या
चाहिए !"

शायद हिंदी आलोचना में अपने नायकत्व की यथास्थिति और अपने से की जाती अपेक्षाओं के दबाव से नामवर जी को कभी-कभी असुविधा होती थी. वह दूसरों से हमेशा कुछ जानने, सीख सकने और बहस करने लायक़ आलोचना-कर्म की उम्मीद करते थे. आख़िर अपनी आलोचना को वह 'सहयोगी प्रयास' का ही अंग मानते थे, जिसमें हर एक का अपना संघर्ष और आत्मसंघर्ष भी शामिल है. 'क्रिया केवलम् उत्तरम्' उनका आदर्श वाक्य था. इसलिए उनका महिमामंडन और निर्विकल्पता स्वयं हिंदी आलोचना की विडम्बना की ओर एक इशारा है.

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट के नाटक 'गैलीलियो' के एक दृश्यमें आंद्रिया अपने गुरु गैलीलियो से कहता है, ''अभागा है वह देश, जिसमें कोई नायक नहीं है." इसके जवाब में गैलीलियो का कथन नामवर जी को कहीं ज़्यादा मानीख़ेज़ लगता था, ''उससे अभागा देश वह है, जो नायक का इंतिज़ार करता है."

हिंदी संसार में नामवर सिंह से असहमतियाँ बहुत-सी हैं, पर उनमें-से दो का ज़िक्र शायद यहाँ मुनासिब हो. एक तो सामाजिक न्याय को लेकर उनके भीतर जो हिचक या असमंजस था, उसके चलते 'मंडल आयोग'  की सिफ़ारिशों के लागू होने के एकाधिक वर्षों बाद दिल्ली में एक संगोष्ठी में उन्होंने कहा था : "आरक्षण सामाजिक क्षेत्र में तो निर्विवाद नहीं ही है, साहित्य की दुनिया में सर्वथा अस्वीकार्य है. यहाँ सम्मान उसी को मिलेगा, जिसके पास वाणी का वैभव होगा--वह ब्राह्मण हो या अब्राह्मण."  

संभवतः डॉ. रामविलास शर्मा सरीखे मार्क्सवादियों के इस मंतव्य से वह सहमत थे कि आरक्षण का आधार जातिगत नहीं, आर्थिक होना चाहिए. लेकिन डॉ. शर्मा ने जो बात कही, उस पर प्रगति-विरोधी समझे जाने और अलोकप्रिय होने के ख़तरे के बावजूद वह क़ायम रहे; जबकि नामवर जी 'अवसर' के अनुकूल अपना 'स्टैंडबदलते रहे.

दूसरा मसला कुछ अलहदा होने के बावजूद इससे जुड़ जाता है. सोवियत संघ के विघटन के बाद के वर्षों के आयोजनों में--ख़ासकर सन् 2002 के आसपास, जब नामवर जी की  75वीं वर्षगाँठ विचार-गोष्ठियों के रूप में पूरे हिंदी जगत् में प्रभाष जोशी की पहल पर मनायी जा रही थी--उन्होंने एकाधिक बार कहा कि "वर्ग मार्क्स का अंधविंदु  था." इस सिलसिले में पटना में हुए आयोजन में स्वयं नामवर जी ने अपने वक्तव्य के बाद इच्छा ज़ाहिर की : 'मैं चाहता हूँ कि मुझसे पहला सवाल ('समकालीन जनमत' के प्रधान संपादक) रामजी राय पूछें, क्योंकि उठान अच्छी हो, तो अंत  अच्छा होता है.'  

लिहाज़ा उन्होंने प्रश्न किया: 'इन दिनों आप ऐसा क्यों कह रहे हैं कि वर्ग मार्क्स का अंधविन्दु था ?' 

नामवर जी ने जवाब दिया
'आजकल जो यह बात कही जा रही है कि मार्क्स के वर्ग की कोटि में स्त्री, दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़े या निम्न / सबआल्टर्न तबक़ों को समाहित नहीं किया जा सकता, वह सही है और मैं तो अंधविन्दु होने का मुद्दा अपनी किताब  'वाद-विवाद-संवाद' के समय से ही उठाता आ रहा हूँ. जो आपत्ति लोग अब कर रहे हैं कि मार्क्सवाद के अंतर्गत इन समुदायों की उपेक्षा या अनदेखी हुई है, वह आशंका मुझे पहले से थी.

सवाल है कि अगर ऐसा था, तो पिछड़े और वंचित तबक़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था किये जाने पर उनके एतराज़ का औचित्य क्या था ?

सामाजिक न्याय के प्रयोगों और  साम्यवाद की अवधारणा  से विचलित मनःस्थिति को दर्शाते ऐसे कई  विचित्रअन्तर्विरोधग्रस्त और निर्मम बयान समय-समय पर  उन्होंने दिये कि तअज्जुब होता था कि क्या 'उत्तर-नामवर'  को 'पूर्व-नामवर'  की याद नहीं आती ?  

उस नामवर की, जिसने 'कविता के नये प्रतिमानों'  के केन्द्र में मुक्तिबोध को स्थापित किया, लम्बे समय तक कलावादी शिविर के बरअक्स प्रगतिवादी एवं जनवादी मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए आलोचनात्मक संघर्ष का नेतृत्व किया और 'दूसरी परम्परा की खोज' की थी ? क्या उन्होंने 'वाद-विवाद-संवाद'  में एक आलोचक की स्थापना पर किया गया अपना ही यह व्यंग्य बिसरा दिया था और बाद के वर्षों में उसे वैध और स्वीकार्य बताने लगे थे :

"बड़े आलोचकों में कौन है, जिसका कोई 'अंधविंदु' न हो ! क्या वह  'अंधविंदु' ही उसकी 'अंतर्दृष्टि' का कारण नहीं ? पाल डि मान ने इसी को लेकर एक लम्बा-चौड़ा सिद्धान्त रच दिया है. प्रज्ञाचक्षु आलोचक सुख की नींद सो सकते हैं !"  

कैसी विडम्बना है कि 'साधनावस्था'  के नामवर जितने अविचलित और प्रखर थे, 'सिद्धावस्था'  के उतने ही डाँवाडोल और परश्रीकातर ! सुख, सुरक्षा और सत्ता की तृष्णा सत्य से कितना दूर ले जाती है ! प्रसंगवश, मुक्तिबोध  की कविता के ये शब्द  'उत्तर-नामवर'  को  समर्पित करने की इच्छा होती है :

"महत्ता के चरण में था
विषादाकुल मन !
मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदि
तो व्यथा उसकी स्वयं जीकर
बताता मैं उसे उसका स्वयं का मूल्य
उसकी महत्ता !
व उस महत्ता का
हम सरीखों के लिए उपयोग,
उस आंतरिकता का बताता मैं महत्त्व !!"


बहरहाल. नामवर सिंह ऊँचे उठे और शब्द के सच्चे और पूर्णतम अर्थ में 'नामवर'  बन सके, क्योंकि उन्हें अपनी परम्परा की महनीयता का हमेशा एहसास रहा और हिंदी आलोचना के अग्रज आचार्यों के नक़्शेक़दम पर उन्होंने अपने व्यक्तित्व, प्रतिभा और अवदान को ढालने का अथक अध्यवसाय किया. विद्वत्ता, सहजता और धारा के विरुद्ध अपनी बात कह सकने के साहस ने मिलकर उन्हें गढ़ा था. इसीलिए लोगों के जितने अज़ीज़ वह थे, उतने ही विवादास्पद. अचरज नहीं कि कबीर की यह साखी उनकी ज़बान पर रहती थी :

"चढ़िए हाथी ज्ञान का, सहज दुलीचा डार.
श्वान रूप संसार है, भूँकन दे झखमार.."  

आलोचना के प्रतिमान कितने समुज्ज्वल और उदात्त रहने चाहिए, इसका अंदाज़ा इलाहाबाद विश्वविद्यालय की एक विद्वत्सभा में वर्षों पहले दिये गये उनके बयान से लगाया जा सकता है : "हिंदी में आचार्य दो ही हुए हैं : रामचन्द्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी. बाद के लोगों को आप और चाहे जो कह लें, पर वे आचार्य नहीं हैं."  चाहे इस पुनरुक्ति को दोष ही माना जाए, मगर मैं नामवर सिंह को जब भी स्मरण करता हूँ,  उनके प्रिय निराला  के ये शब्द बेसाख़्ता याद हो आते हैं :

"तुमने जो दिया दान, दान वह,
हिन्दी के हित का अभिमान वह,
जनता का जन-ताका ज्ञान वह,
सच्चा कल्याण वह अथच है--
यह सच है!"
_____________


pankajgauri2013@gmail.com         

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  1. सुशील सुमन2 मार्च 2020, 6:46:00 pm

    वाह!
    अनेक पाठकों को इस बेहद महत्त्वपूर्ण आलेख की ऑनलाइन उपलब्धता का इंतज़ार था।

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  2. सर! पढ़ने की उत्सुकता तो आपके द्वारा इस विषय में लिखे गए फेसबुक पोस्ट पढ़ने के तुरंत बाद ही बढ़ चुकी थी। इधर-उधर यात्रा के कारण पत्रिका नहीं खरीद सका लेकिन आनलाइन यह लेख दिखा तो अभी-अभी पूरा लेख पढ़ सका हूँ। यह लेख पढ़कर भरा हुआ महसूस कर रहा हूँ। ऐसा लग रहा है कुछ अर्जित किया आज।

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  3. पंकज जी ने बहुत सुंदर लिखा।रच बस कर।अपने तर्कों के साथ। वैसे नामवर जी के विरोध में भी तर्क दिए गए है।काश यह लेख नामवर जी पढ़ते तो उन्हें अच्छा लगता उन्हें खुशी होती। नामवर जी के समर्थन में लिखे गए कुछ श्रेष्ठ लेखों में यह लेख माना जायेगा। पंकज जी से आलोचना की उम्मीद बढ़ी हैं ।

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  4. इस बेहद मूल्यवान, सारगर्भित और अनिवार्य लेख को समालोचन ब्लाग पर उपलब्ध कराने के लिए अरुण देव जी बहुत शुक्रिया! यहां मैं अनिवार्य इसलिए कह रहा हूं कि ऐसे लेख कभी-कभार ही लिखे जाया करते हैं, वरना उथले ज्ञान से क़िताबें और ब्लाग पटे पड़े हैं।

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  5. अमरेंद्र कुमार शर्मा3 मार्च 2020, 8:02:00 am

    इस लेख के लिए पंकज चतुर्वेदी जी को अनेकशः बधाई , ख़ूब विचार कर लिखा है । उद्धरणों पर जो बात कही , उसके लिए वाह, वाह । समालोचन का आभार ज्ञानवर्द्धक लेख प्रस्तुत करने के लिए । सुबह कृष्णा सोबती पर लेख पढ़ गया और अब नामवर सिंह पर । अच्छा लगा । आज के दिन की यह उपलब्धि है ।

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  6. ज्ञानवर्धक उपयोगी लेख ।
    शोधकर्ताओं के लिए दिग्दर्शन बनता सार्थक लेख।

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  7. पंकज जी का यह स्‍वर्णिम काल है। वह कविता के साथ-साथ आलोचना भी धारदार लिख रहे हैं। नामवर जी के भक्‍त इस आलेख को पढ़कर पंकज चतुर्वेदी जी पर यह आरोप लगा सकते हैं कि उन्‍होंने नामवर को डिमालिश करने की कोशिश की है। लेकिन मेरा मानना है कि यह आलेख नामवर जी का सम्‍यक मूल्‍यांकन है। ‘’आरक्षण’’ विषयक उनका विचार निश्चित रूप से नामवर के अधिकांश किए-धरे पर पानी फेरने का काम करता है। राजेंद्र यादव ने नामवर के इसी विचार को लक्ष्‍य करते हुए कभी ‘’खंड-खंड पाखंड’’ नामक अपना संपादकीय लिखा था, जिससे बहुतेरे दलित-बहुजन लेखकों का नजरिया नामवर के प्रति बदल गया था और अभी भी बदला हुआ है। डा. नामवर सिंह का यह विरोधाभास ही था कि एक तरफ वह ‘’दूसरी परंपरा की खोज’’ करते हैं और दूसरी तरफ सामाजिक न्‍याय का सबसे कारगर हथियार ‘’प्रतिनिधित्‍व’’ (आरक्षण) को वह खैरात समझते हैं। खैर, पंकज चतुर्वेदी जी को बहुत-बहुत बधाई।

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  8. शिवेंद्र कुमार मौर्य3 मार्च 2020, 7:55:00 pm

    पंकज चतुर्वेदी जी ने अपने इस आलेख में नामवर जी की आलोचना दृष्टि के हर मुकाम की तलाश करने की कोशिश की है, जिसमें वे काफी सफल भी हुए हैं।लेख संस्मरणात्मक है किंतु इसी बहाने अन्य साहित्यकारों को याद करने का उनका तरीका अपने आप में निराला है।
    इतने सुंदर लेख के लिए पंकज सर को बधाई।

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  9. इस बेहद सुचिंतित आलेख के लिए पंकज जी को साधुवाद।
    नामवर सिंह के गद्य का सौंदर्य अपने आप में अनोखा है। उनके ही शब्दों में वह 'लिखा हुआ बोलता-सा गद्य' हैं,जिसका मूल बोलचाल के लहजे से जुड़ाव में निहित है।
    इस आलेख को सुलभ कराने के लिए अरुण जी को धन्यवाद।

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