बचपन का नाटक : व्योमेश शुक्ल














(photo credit Gaurav Girija Shukla)

कवि व्योमेश शुक्ल की रंगमंचीय सक्रियता ने ध्यान खींचा है. छोटे-बड़े शहरों में वह लगातार नाट्य-रूपकों का प्रदर्शन कर रहें हैं. उनके पास इस माध्यम और इससे जुड़े कलाकारों, बाल-कलाकारों का अनुभव है.
नाटक बच्चों में क्या घटित करता है ? वह उन्हें किस तरह से जीवन के रंगमंच के लिये तैयार करता है इस पर कम देखने पढ़ने को मिलता है.

व्योमेश का गद्य भी मोहक होता है. यह आलेख आपके लिये.  



बचपन का नाटक                               
व्योमेश शुक्ल





च्चों के बारे में सोचते हुए अपना बचपन याद आता है. बच्चों का नाटक देखकर बचपन में अपने खेले नाटक याद आते हैं. खेल के मैदान में बने रहने के लिए बच्चे का खिलाड़ी होना ज़रूरी है, कक्षा में प्रथम आने के लिए मेहनती और पढ़ाकू होना ज़रूरी है, लेकिन नाटक करने के लिए किसी भी ख़ास तरह का होना ज़रूरी नहीं है. आप जैसे भी हों- मोटे या पतले, सुस्त या चुस्त, गोरे या काले, प्रतिभाशाली या प्रतिभाशून्य- नाटक ख़ुद में आपको शामिल कर लेगा. अगर आपमें कोई ख़ास बात है तो नाटक में उसका स्वागत है, जैसे कोई गाता अच्छा हो, कोई नाचता अच्छा हो, कोई दूसरों की नक़ल बहुत बढ़िया उतार लेता हो तो नाटक में वह उसका इस्तेमाल बख़ूबी कर सकता है. लेकिन अगर किसी को यह सब करना न आता हो, तो भी नाटक में उसके लिए जगह है. वह अपने मामूलीपन के साथ नाटक में जगह बना सकता है.

नाटक साधारणता की कला है. आप जैसे हैं, नाटक के लिए वही काफी है. नाटक देखकर और नाटक खेलकर हम सीखते हैं कि हमारी और हमारे आसपास की ज़िंदगी भी कला है.

मैं बचपन में बड़ा भोंदू था. मुझे ख़ुद कुछ करना नहीं आता था. एक नाटक में मैं अकाल से त्रस्त ग्रामवासी बना और स्टेज पर मोज़े पहन कर चला गया. यह बहुत बड़ी ग़लती थी, लेकिन किसी ने इस पर ध्यान ही न दिया. मैं अपनी अध्यापिका की डांट खाने से बच गया. मैंने पाया कि ज़िंदगी और नाटक एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जिसमें कभी-कभी तो सबका ध्यान आपकी ओर होता है और कभी कोई भी आपको नहीं देख रहा होता.

नाटक हमें सचाई की विचित्र ताक़त को समझना सिखाता है. सचाई बहुत सादा और चुप रहने वाली चीज़ है. रोज़मर्रा का जीवन इतनी सारी बातों और चीजों से भरा हुआ होता है कि हमलोग उसमें अलग से सच को पहचान नहीं पाते. सच प्याज के छिलकों की तरह तहदार होता है. एक परत हटेगी तो दूसरी परत सामने आ जायेगी. फिर तीसरी, चौथी और यह सिलसिला आगे बढ़ता जायेगा. सच को महसूस करने के लिये हमें कलाओं की ओर जाना पड़ता है. नाटक हमें उंगली पकड़कर सच के क़रीब ले आता है. नाटक देखकर या नाटक खेलकर आप अपने शरीर, अपने दिल और दिमाग़ पर सच का अनुभव कर सकते हैं. वह आपके अभ्यास और आपकी आदत में शामिल हो जाता है. गांधीजी के साथ यही हुआ था. उन्होने सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की ज़िंदगी पर तैयार एक नाटक देखा और उससे इतने प्रभावित हुए कि कभी झूठ न बोलने की कसम खा ली. नाटक के ज़रिये जिस सचाई से उनका परिचय हुआ, उसने उनके जीवन में इतनी बड़ी भूमिका अदा की, जिसका बयान करना मुश्किल है. उनकी आत्मकथा का नाम ही है– सत्य के साथ मेरे प्रयोग. अगर गांधीजी ने वह नाटक न देखा होता तो शायद हमारा देश आज़ाद ही न हुआ होता.   

नाटक एक तरह का खेल है जो शरीर के साथ दिल-दिमाग़ और मन की ताक़त को मिलाकर खेला जाता है. इस खेल से हम बहुत कुछ सीखते हैं, जैसे अपनी बारी का इंतज़ार करना, कभी ख़ूब बोलना और कभी एकदम चुप हो जाना, कभी सबके साथ मिलकर काम करना, कभी बिलकुल अकेले. नाटक का खेल हमें बहुत सारी रौशनियों का आँख खोलकर सामना करना और अंधेरे से न डरना सिखाता है. नाटक हमें ख़ुद से अलग होना सिखाता है, क्योंकि ख़ुद से दूर हुए बिना हम किसी और का अभिनय कर ही नहीं कर सकते. ख़ुद से दूर हुए बग़ैर ख़ुद को भी ठीक से नहीं जाना जा सकता.

नाटक हमें बताता है कि दुनिया के हर आदमी के पास कुछ ऐसी चीज़ है जो उसे औरों से अलग बनाती है. हमारे भीतर भी कुछ न कुछ ख़ास होता है. कई लोग उस ख़ास बात को जान लेते हैं, कई नहीं जान पाते. नाटक में किसी और का अभिनय करते हुए हम पाते हैं कि चौराहे पर खड़े ट्रैफिक पुलिस के सिपाही के चेहरे-मोहरे से लेकर चाल-चलन तक में कोई तो ऐसी बात है कि उसकी हूबहू नक़ल नामुमकिन है. वही उसकी ख़ास बात है. तब मंच पर उस पुलिस वाले का अभिनय करते हुए हम अपने ख़ुद में से कुछ निकालकर उसकी नक़ल में मिला देते हैं. इसी  घालमेल से कला की शुरूआत होती है.

नाटक देखते हुए हमें पहले से पता होता है कि जो कुछ हम देख रहे हैं वह नाटक है. अगर मंच पर एक लड़की अचानक बुढ़िया हो गयी तो वह सच में बुढ़िया नहीं हो गयी है. बस उसके बालों पर सफ़ेद रंग लगा दिया गया है और वह झुक-झुककर चल रही है. तब क्या नाटक एक झूठ है और जो लोग नाटक कर रहे हैं वे झूठे हैं ? नहीं. दरअसल उस लड़की के बूढ़ी हो जाने में कोई सच छिपा हुआ है, जो हमें बाद में पता चलेगा. नाटक या कहानी या उपन्यास या सिनेमा– ये सभी इसी तरह झूठ बोलकर सच कहने की कलाएँ हैं.

देखा गया है कि जो बच्चे नाटक करते हैं उनका स्वास्थ्य दूसरे बच्चों के मुक़ाबले बेहतर होता है. वे खेलकूद और पढ़ाई-लिखाई में भी अच्छे हो जाते हैं, क्योंकि नाटक की तैयारी में शरीर और दिमाग़– दोनों का ख़ूब व्यायाम हो जाता है. नाटक खेलने वाले बच्चे हर पल बदलती हुई परिस्थिति का सामना करने में भी सक्षम होते हैं. एक लड़का नाटक में कल तक वकील बनता था, लेकिन आज उसे डॉक्टर का पार्ट अदा करना है- और कोई विकल्प नहीं है. जीवन ऐसी ही छोटी-छोटी परीक्षाओं में हमें डालता है. समूह में काम करते हुए तरह-तरह के लोगों से हमारा सामना होता है. कोई शांत स्वभाव का होता है तो कोई चंचल. हमें सभी लोगों से मिलजुल कर नाटक की तैयारी करनी पड़ती है. यों, हम एक दूसरे को बर्दाश्त करना भी सीखते हैं.

मंच पर ही नहीं, मंच के पीछे– नेपथ्य में काम करते हुए भी एक कलाकार बहुत सी ऐसी बातें सीख जाता है, जिन्हें अलग-अलग सीखने में बहुत-सा समय, पैसा और ऊर्जा ख़र्च हो जाय. आपने देखा होगा कि नाटक करने वाले ज़्यादातर बच्चे गाना भी बहुत बढ़िया गाने लगते हैं. उनकी ज़ुबान साफ़ होती है और उच्चारण प्रभावशाली. अगर नाटक का निर्देशक सावधान हुआ तो अभिनेताओं की रीढ़ की हड्डी भी बिलकुल सीधी और लचीली हो जाती है. कपड़ों की सिलाई, रखरखाव और मेकअप से जुड़ी बुनियादी बातें बच्चे खेल-खेल में सीख जाते हैं.

नाटक के संस्कार कला के दूसरे रूपों को जानने-समझने की ओर हमें मोड़ देते हैं. महान सितारवादक पंडित रविशंकर सितार में महारत हासिल करने से पहले एक अभिनेता ही थे और दुनिया-भर में घूम-घूमकर नृत्यनाटिका करने वाली एक पेशेवर रंगमंडली के कलाकार थे. हिंदी भाषा के उन्नायक भारतेन्दु हरिश्चंद्र नाटक लिखने और नाटक खेलने में कोई फ़र्क़ नहीं मानते थे. उन्होने अभिनय से ही शुरूआत की और आगे चलकर अंधेर नगरी जैसा अमर नाटक लिखा. फ़िल्मों के न आने कितने बड़े कलाकार नाटक के रास्ते से ही वहाँ पहुँचे हैं.  

नाटक में काम करते हुए मैंने अपने नायकों की खोज की. बचपन में मुझे एक लंबी-चौड़ी संगीतबद्ध रामकथा में सीता के स्वयंवर में जाकर शिवजी का धनुष तोड़ने में असफल रह जाने वाले एक राजा की भूमिका मिली. फिर क्या था, छुट्टियाँ चल रही थीं, तो मैं पूरे-पूरे दिन रिहर्सल में रहने लगा. मैं नाटक के पार्श्वसंगीत और वानर सेना पर मुग्ध था. कुछ ही दिनों में मुझे दूसरे कलाकारों की पंक्तियाँ और मुद्राएं भी याद हो गयीं. अगर कोई कलाकार नहीं आया या देर से आया तो अभ्यास में मुझे उसकी जगह पर खड़े हो जाने का अवसर मिलने लगा. मैं मन ही मन मनाया करता कि हनुमानजी या सुग्रीव या जामवंत देर से आयें. मुझे गदाओं, तीर-धनुषों, मुखौटों, मुकुटों और तलवारों की दुनिया से प्यार हो गया. सपने में अकेला मैं ताड़का, खर-दूषण, सुरसा और मेघनाद का मुक़ाबला गा-बजाकर-नाचकर करने लगा. 


नाटक ने मुझे यही सिखाया था कि किसी भी तरह की हिंसा के सामने संगीत और कलाएँ ही मनुष्यता का पहला और आख़िरी औज़ार हैं.

आजकल मैं समय-समय पर ढेर सारे बच्चों को नाटक सिखाता हूँ. मुझे लगता है कि नाटक के ज़रिये उन्हें खेल-खेल में दूसरे विषय भी पढ़ाये जा सकते हैं. इस ओर काम होना बाक़ी है. नाटक का आकर्षण उन्हें मोबाइल गेमिंग की चमकीली और नुक़सानदेह दुनिया से दूर ले जाता है. उनका व्यक्तित्व साफ़ पानी की तरह पारदर्शी हो जाता है और हमलोग उसके आर-पार देख सकते हैं.

नाटक का अनुभव बहुत पक्के तौर पर हमारी याद में दर्ज हो जाता है. वह याद जीवन-भर हमारे साथ चलती है. ऐसी मजबूत यादें कम ही होती हैं जिनके दम से हम आने वाली चुनौतियों का सामना कर सकें. तो बच्चों; सपनों, किस्सों-कहानियों, रौशनियों बोलने-गाने-बजाने और नाचने की एक ठोस दुनिया आपका इंतज़ार कर रही है. उसके नायक आप हैं. आप उसे हाथों और पलकों से छू भी सकते हैं. बस शुरू करने की बात है.  
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vyomeshshukla@gmail.com 

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  1. राहुल राजेश4 दिस॰ 2019, 9:12:00 am

    Rahul Rajesh बहुत अच्छा लिखा है व्योमेश भाई ने। तमाम कला अनुशासनों की तरह नाट्य कला भी मन के रियाज के साथ साथ तन का रियाज भी है और इससे मन और तन दोनों स्वनुशासित होना सीखते हैं। बच्चों को इस कला से जोड़कर व्योमेश भाई बहुत उम्दा काम कर रहे हैं। उनका समर्पण अद्भुत है। उनको मेरा सलाम और शुभकामनाएं।

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  2. बहुत ही शानदार लिखा है व्योमेश जी ने। इस लेखन में नाटक सा ही जादू है। पाठक पर इसका प्रभाव नाटक की तरह ही पड़ता है।

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  3. बहुत अच्छी बातें कही है आपने। वाकई नाटक जिंदगी जीना सिखाता है। आपकी दृष्टि सराहनीय है।

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  4. जिसे एक साँस में पढ़ना कहते हैं, वही किया। अद्भुत, मजेदार और मार्मिक भी

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  5. बेहद खूबसूरत ... मार्मिक ..... और सार्थक ....... लेकिन कम लिखा बस ये टीस रह गई

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