'ढोज्या में ढोज्या ते दीधेला घूँट, हवे माँझी झाँझरीने बोलवानी छूट.'
गुजराती भाषा की फिल्म ‘हेल्लारो’ को 66वें भारतीय फिल्म पुरस्कार समारोह में देश की सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के सम्मान से नवाजा गया है. स्त्री-मुक्ति का यह आख्यान उनकी नृत्य करने की आज़ादी से शुरू होता है. अंतत: वे गरबा करती हैं, वर्जनाओं की कड़ियाँ तोड़ती हुईं.
गुजराती भाषा की फिल्म ‘हेल्लारो’ को 66वें भारतीय फिल्म पुरस्कार समारोह में देश की सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के सम्मान से नवाजा गया है. स्त्री-मुक्ति का यह आख्यान उनकी नृत्य करने की आज़ादी से शुरू होता है. अंतत: वे गरबा करती हैं, वर्जनाओं की कड़ियाँ तोड़ती हुईं.
सत्यदेव त्रिपाठी रंगमंच और फिल्मों के
सिद्धहस्त आलोचक हैं. ‘हेल्लारो’
के कथ्य और शिल्प पर इतने सुंदर ढंग से और विस्तार से उन्होंने लिखा है कि न केवल फ़िल्म देखने की
तीव्र इच्छा होती है, एक समझ भी बनती चलती है.
क्या यह मराठी फ़िल्म ‘सैराट’ की तरह व्यावसायिक अर्थों मे भी सफल होगी.
क्या यह मराठी फ़िल्म ‘सैराट’ की तरह व्यावसायिक अर्थों मे भी सफल होगी.
हेल्लारो (Hellaro) : वर्जनाओं से मुक्ति की कला
सत्यदेव त्रिपाठी
गुजराती का यह शब्द ‘हेल्लारो’ हिन्दी के हिलोरें का लगभग समानार्थी है. इनके ध्वनि-विपर्यय कर दिये जायें, तो लहरें भी बन जाता है. फिल्म ‘हेल्लारो’ में ये हिलोरें या लहरें उठती हैं उन्माद की तरह– सबकुछ को तोडकर बह जाने के लिए और अपने बहाव में जीवन के सारे कटु अवरोधों को बहा ले जाने के लिए.... इसी उन्माद को महसूसना ही फिल्म देखने की और उसे समझना ही इस लिखने-पढने की सार्थकता होगी....
लेकिन पहले यह कि 66वें भारतीय फिल्म
पुरस्कार समारोह में ‘हेल्लारो’ को देश की सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के
सम्मान से नवाजा गया. अब 8 नवम्बर को सिनेमाघरों में लगी, तो
देखना वैसे भी बनता है, फिर गुजराती तो अपनी पत्नी-भाषा
ठहरी.... सो, कल्पनाजी को भी ले जाने की कोशिश करने लगा,
जो फिल्म देखने की मेरी अतिशयता की गोया क्षतिपूर्त्ति स्वरूप आजकल
थियेटर जाके फिल्म देखना लगभग बन्द-सा कर चुकी हैं. अपनी कोशिश को सफल करने की रौ
में मैंने वो कर दिया, जो कभी नहीं करता- उन्हें कुछ
समीक्षाएं सुनाने चला कि पहली ही समीक्षा प्रतीक बोर्डे की खुली...और इसने चलने के
लिए खडा हो रहा हमारा बेडा ही गर्क़ कर दिया....
फिल्म में स्त्रियों पर पुरुषों के दमन व अत्याचारों की रोंगटे खडी कर देने वाली ऐसी भयानक दास्तानें बयान कीं– जैसे वही एकमात्र मक़सद हो ‘हेल्लारो’ का. परिणाम हुआ कि नारी-विद्रोह का अहर्निश परचम लहराने वाली कल्पनाजी ने ‘हेल्लारो’ का बहिष्कार ही कर दिया.... लिहाजा अकेले फिल्म देखता रहा और ज्यों-ज्यों फिल्म आगे बढती रही, बोर्डे जैसे समीक्षकों पर कोफ़्त होती रही और अंत तक आते-आते तो आग ऐसी भडकी कि वे मिल जाते, तो उस वक़्त इस शाकाहारी ब्राह्मण के हाथों एक अदद ख़ून ही हो जाता.... फिल्म इतनी अच्छी बनी है और इतनी अच्छी लगी कि दो दिन बाद आनन्द (गुजरात) में प्रिय मित्र और देश के जाने-माने चित्रकार कनु पटेल के साथ हम दोनो ने दुबारा देखी. 16 घण्टे के प्रवास में काफी चर्चायें भी हुईं. कुछ और मर्म खुले– ख़ासकर फिल्म की भाषिकता के और परिवेश के....
फिल्म में स्त्रियों पर पुरुषों के दमन व अत्याचारों की रोंगटे खडी कर देने वाली ऐसी भयानक दास्तानें बयान कीं– जैसे वही एकमात्र मक़सद हो ‘हेल्लारो’ का. परिणाम हुआ कि नारी-विद्रोह का अहर्निश परचम लहराने वाली कल्पनाजी ने ‘हेल्लारो’ का बहिष्कार ही कर दिया.... लिहाजा अकेले फिल्म देखता रहा और ज्यों-ज्यों फिल्म आगे बढती रही, बोर्डे जैसे समीक्षकों पर कोफ़्त होती रही और अंत तक आते-आते तो आग ऐसी भडकी कि वे मिल जाते, तो उस वक़्त इस शाकाहारी ब्राह्मण के हाथों एक अदद ख़ून ही हो जाता.... फिल्म इतनी अच्छी बनी है और इतनी अच्छी लगी कि दो दिन बाद आनन्द (गुजरात) में प्रिय मित्र और देश के जाने-माने चित्रकार कनु पटेल के साथ हम दोनो ने दुबारा देखी. 16 घण्टे के प्रवास में काफी चर्चायें भी हुईं. कुछ और मर्म खुले– ख़ासकर फिल्म की भाषिकता के और परिवेश के....
असल में उत्पीडन तो फिल्म में है, पर नज़रों के सामने नहीं है- याने दृश्यों में नहीं (के बराबर) दिखाया गया है. हाँ, संकेतों में उजागर बख़ूबी किया गया है. लिहाजा दिखता नहीं, पर छाप गहरी छोडता है. और यही ‘हेल्लारो’ की फिल्मांकन-कला का सबसे सशक्त पक्ष है– फिल्म का जान-परान. विधा दृश्य है, पर बिना दिखाये क्या और और कैसे कह देना है, की वाजिब समझ व कौशल इसकी बडी ख़ासियत है. कुछ उदाहरण देखें …
एक छोटी बच्ची सीता (पाप्ती मेहता) अपने पिता के साथ गरबा खेलने चलने को कहती है, तो पिता घूरते हुए जाते-जाते पत्नी से उसे समझा देने के लिए कहता है– याने स्त्रियों के गरबा करने के प्रतिबन्ध की क्रूरता दिखायी नहीं गयी, पर बेटी से कहने के लिए पत्नी से कहके पीढी-दर-पीढी असर का किस्सा बयान कर दिया गया.
इसी तरह हंसा (एकता बछवानी) के गर्भ पर पति के लातों की ठोकरें दिखायी नहीं गयीं, पर हंसा की ज़ुबानी गाँव की स्त्रियों को बतवाया गया कि बच्ची गर्भ में लातों की चोटों से मरी है. संवाद में ही सर्वाधिक व्यंजक विधान वहाँ द्रष्टव्य है, जब फिल्म की थोडी पढी-लिखी भावी नायिका मंजरी (श्रद्धा डाँगरे) व्याह के घर आती है और उसका फौजी पति अर्जन (अर्जव त्रिवेदी) पहली देखा-देखी में ही बडे रोब से पढाई के बारे में पूछता है और सातवें दर्ज़े तक की पढाई को ‘बहु केहवाय’ (बहुत (ज्यादा) है) बताते हुए धमकी देता है– ‘पढने-लिखने से जो पंख व सींगें निकल आती हैं, उन्हें ख़ुद ही काट लेना, वरना हम काटेंगे, तो बडी पीडा होगी’.
इसमें दृश्य-हिंसा से बचने के अलावा पंख
के प्रतीक के जरिए कलात्मकता का दोहरा रचाव हुआ है. और तेहरा रचाव यूँ कि यह संवाद
फिल्म की काफी शुरुआत में आता है और इसमें बडी ख़ूबसूरती से फिल्म के आगे की कथा के
संकेत पिरो उठे हैं, जो साहित्य व सिनेमा-कला का ख़ूबसूरत व सनातन आयाम माना जाता है. यूँ सौम्य
जोशी के संवाद इतने सटीक, मारक और संवादमयता से लबरेज़ हैं कि
उनके साथ न्याय करने के लिए एक अदद आलेख की दरकार है. आगे चलकर पति की चेतावनी को
नज़रअन्दाज़ करती हुई उस गाँव में स्त्रियों के गरबा-नृत्य पर लगे प्रतिबन्ध को
तोडने की पहल मंजरी ही करती है– याने उसके सींग तो नहीं,
पर पंख निकले, जो भर गाँव की स्त्रियों में उग
आये.... सब की सब आकुल उडानें भरने लगीं– गरबा करने
लगीं....आकुल औरतें या ऐंग्री वीमेन!! इनकी आकुलता जब खुलती है, तो फिर प्रताडना होती है – सबकी एक साथ अपने-अपने
घरों में.... लेकिन दिखता नहीं वह भी. बन्द घरों से आवाजें भर आती हैं – दृश्य का श्रव्य कौशल.
इस तरह औरतों के साथ होते पुरुष-अत्याचार
का कुछ दिखता नहीं और इसे हिंसा नहीं कहा जा सकता- जैसा बखाना है मिस्टर बोर्डे
ने. और इस पिटाई-दृश्य की प्रयुक्ति में तो हिंसा दिखाने से बचने के अलावा इस
भितरघाव का बेहद सृजनात्मक उपयोग भी है, जिसका खुलासा यथास्थान होगा....
फ़िलहाल तो बोर्डे सदृश लोगों से यह
अर्थाना है कि मर्दों का स्त्रियों पर जो अत्याचार दिखाया भले न गया हो, पर बताया-सुनाया गया है,
वह फिल्म का वास्तविक कथ्य नहीं है. यह तो कथ्य का गौण उत्पादन (बाइ
प्रोडक्ट) है. असल में फिल्म पुरुषों के अत्याचार के विरुद्ध नहीं है, समाज में पैठी रूढियों के खिलाफ है. लेकिन रूढियां अक्सर बावस्ता होती हैं
स्त्रियों से, जिसका उद्भव और विकास अपनी प्रकृति
प्रदत्त्तता में ऐतिहासिक है. लिहाजा उनके पालन में पिसती स्त्रियां ही हैं. भोग
वही बनती हैं.
मंजरी कहती भी है एक जगह (संवाद पर मुलाहिज़ा फरमायें) -
मंजरी कहती भी है एक जगह (संवाद पर मुलाहिज़ा फरमायें) -
‘भोग भले बन गयीं, भाग नहीं बनेंगे’.भाग का अर्थ यहाँ कर्त्ता है– करने वाले, जो पुरुष हैं, किंतु वस्तुत: रूढियों के निर्माता वे भी नहीं हैं, बल्कि कहीं न कहीं वे भी अज्ञान के चलते रूढियों के पालन में प्रकारांतर से रूढियों के शिकार बनते हैं. इसीलिए फिल्म के अंत में पुरुष पराजित या लज्जित नहीं होते– टूटती हैं रूढियां. किंतु तोडने की चर्चा के पहले यह भी कह दूँ कि इन रूढियों के बनने की प्रक्रिया भी पिरोयी गयी है फिल्म में, जिसे देखने की नज़र पैदा करनी होगी – ‘शौक़-ए-दीदार अगर है, तो नज़र पैदा कर’. उदाहरण लें इसका भी...गरबा की ही तरह औरतों के बुनाई करने पर भी बन्दिश है. यह वर्जना इस तरह बनी कि कभी इस गाँव की एक औरत अपनी बुनी वस्तुओं को चोरी-छिपे बेचने लगी, जबकि तब कला का व्यापार नहीं होता था.
स्ंवाद है – ‘आपणे अइयां पैसा ना कमवाय. कमाइये तो बायडी बज़ार मां आवी गई केहवाय’ – (अपने यहाँ औरत से पैसा नहीं कमवाते. औरत ने कमाना शुरू किया, मतलब बाज़ार घर में आया). फिर सामान बाज़ार ले जाने वाले के साथ एक दिन वह औरत भाग गयी. तब से गाँव में औरतों की बुनाई बन्द – न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी!!
यही तरीका रहा लोक का. इसी तरह हर काम
बन्द कर दिया जाता रहा और रूढियां बनती-बढती रहीं.... मेरे अपने गाँव में
कार्त्तिक अमावश्या को नहीं, दीपावली मनायी जाती थी कार्त्तिक शुक्ल एकादशी को –
दिठवन (गन्ना चूसने की शुरुआत) व देव-दीवाली के दिन, क्योंकि अमावश्या को गाँव का कोई अनिष्ट हो गया था. परिहार स्वरूप दीवाली
के लिए उस तिथि का त्याग. ऐसे विधानों के चलते ही हमारी संस्कृति को शास्त्रीय
शब्दावली में ‘वर्जनामूलक’ कहा गया.
हिन्दू धर्म इसका बडा शिकार रहा– आज भी है. इसी का जो चरम
रूप फिल्म में ग्रहीत है, वह सोद्देश्य रूप से गरबा-नृत्य है,
जिसकी सोद्देश्यता गुजरात प्रदेश के चलते परिवेशपरक है. इसके लिए
गुजरात के परिवेश पर बनती फिल्म में गरबे से बडा कोई माध्यम हो नहीं सकता था. वहाँ
के जन-जन के मन-मन में, रोम-रोम में बसा है गरबा. फिर
रूढियों को तोडने के लिए फिल्म को जिस उन्माद की दरकार होती, उसके लिए गुजरात के अंचल में इससे बेहतर कुछ हो नहीं सकता था. सो, मेरे गाँव की दीपावली की तरह फिल्म के उस गाँव में यह मान्यता पैठ गयी कि
सूखा पडने का याने बारिश न होने का कारण है- औरतों का गरबा करना. इसलिए उस पर कठोर
बन्दिश लग गयी है. औरतों का गरबा करना वर्जित हो गया है.
सांस्कृतिक वर्जना का एक नृशंस स्वरूप खडा हो गया है. तात्पर्य यह कि रूढियों की ऐसी निर्मितियों में मूलत: जीवन-जगत की आपदाओं से बचने-बचाने के उद्यम निहित होते हैं. लेकिन कारण बनता है- शिक्षा व सोच का अभाव. यह एक ऐसा मनोविज्ञान है, जिसे उसकी तकनीकी शब्दावली में आद्य ग्रंथि (ऑर्केटाइप कॉम्प्लेक्स) कहा गया है– याने ऐसी कुधारणायें पूरे समाज की होती हैं. इसी सामूहिक मनोवृत्ति के शिकार हैं फिल्म के गाँव के पुरुष भी. वस्तुत: कर्त्ता वे भी नहीं हैं. स्त्रियों पर बन्दिश लगाने की उनकी नीयत दर-असल उनकी नियति से परिचालित है.
सांस्कृतिक वर्जना का एक नृशंस स्वरूप खडा हो गया है. तात्पर्य यह कि रूढियों की ऐसी निर्मितियों में मूलत: जीवन-जगत की आपदाओं से बचने-बचाने के उद्यम निहित होते हैं. लेकिन कारण बनता है- शिक्षा व सोच का अभाव. यह एक ऐसा मनोविज्ञान है, जिसे उसकी तकनीकी शब्दावली में आद्य ग्रंथि (ऑर्केटाइप कॉम्प्लेक्स) कहा गया है– याने ऐसी कुधारणायें पूरे समाज की होती हैं. इसी सामूहिक मनोवृत्ति के शिकार हैं फिल्म के गाँव के पुरुष भी. वस्तुत: कर्त्ता वे भी नहीं हैं. स्त्रियों पर बन्दिश लगाने की उनकी नीयत दर-असल उनकी नियति से परिचालित है.
लेकिन अब वैसी अशिक्षा व अन्धविश्वास न
रहे. शिक्षा व सोच के अभाव में ये रूढियां पैदा हुईं, तो उनके भाव में आज ये
टूट रही हैं. हमारे गाँव की भी टूटी– अब अमावश्या को ही
मनायी जाती है दीपावली. उस पर भी फिल्म बन सकती थी...लेकिन नहीं बनी, क्योंकि वहाँ फिल्म लिखने-बनाने वाला कोई अभिषेक शाह पैदा नहीं हुआ. उस
अवसर पर वहाँ गीत-नृत्य जैसा कोई कलारूप नहीं नहीं रहा, जिसमें
गरबा जैसी दीवानगी हो. गुजरात में गरबा-नृत्य का कलारूप होता तो क्या है, उसके बिना जीवन नहीं होता, रहना नहीं होता. सो,
सौम्य जोशी ने वैसे गीत लिखे – दमित को खोलते
हुए, कथ्य को कडी-कडी में जोडते-पिरोते हुए. लडकियां नाचीं,
तो उसमें जान उँडेल दिया. गज़ब की नृत्य-संरचना (कोरियोग्राफी) बनी.
दिलक़श गायकी ने उसे लहका-लहरा दिया. कुल मिलाकर एक युति बनी. सबकी ख़ूबसूरत संगति
बनी. ‘संगति ही सौन्दर्य है’ की
मान्यता को सार्थक करती हुई.... और इस सारी बन्दिशों को तोडने की एक पुरजोर
कलात्मक कडी बन गयी फिल्म ‘हेल्लारो’, जो
सिद्ध कर रही है कि जितने अच्छे से यह काम कला–फिल्म कर सकती है, कोई और नहीं.
इसने देश-काल के बन्धनों को भी तोड दिया
है. पूरी फिल्म ही ‘हर इक बेज़ा तक़ल्लुफ से बगावत का इरादा है’ का प्रतीक
बन गयी है. अब इस सोपान पर यह प्रश्न भी बेमानी है कि ‘हेल्लारो’
को ब्रजवाणी नामक ढोल बजने की ख्याति वाले जिस कच्छ के इलाके पर
आधारित किया-कहा गया है और 1975 के जिस कालखण्ड को सन्दर्भित किया गया है, उसमें कहीं कभी गरबा जैसी प्रथा पर रोक लगी थी या नहीं, सूखा पडा था या नहीं.... याने इसकी सचाई प्रवृत्तियों की है, इतिहास के आँकडों की नहीं. लेकिन उस समय को साक्षी बनाने का तरीका भी बेहद
सहज ढंग से आता है, जिसमें राजनीतिक तथ्यों का व्यंग्यात्मक
व सिनेमाई आयामों की कलात्मक प्रयुक्तियां देखते ही बनती हैं.... उस वर्ष लगी ‘कटाकटी’ (इमर्जेंसी) को लेकर पंचायत में यूँ जिक्र
होता है -
‘जब सरकार ही नहीं पहुँची इस गाँव तक, तो कटाकटी क्या पहुँचेगी’!! और उस वर्ष बनी फिल्मों का प्रतिनिधित्त्व करने वाली ‘शोले’ और ‘बॉबी’ के साक्ष्य बडे ही खिलन्दडे अन्दाज़ में आते हैं. गाँव की नवचा (किशोर) टोली अपने एकांत में ‘कमरे में बन्द, और चाबी खो जाये’ और ‘छमिया के नाच’ का लार टपकाती हसरत भरा जिक्र करती है. पंचायत में सरकारी-तंत्र का नग्न यथार्थ है, तो नवचों की टोली में लोकजीवन का खाँटी और निछद्दम विनोदी रूप आया है. इसी तरह गवँईं परिवेश में पुरुष-स्त्री सम्बन्धों की गोपनीयता और उसकी चर्चा पर सख़्त मनाही के चलते ऐसी बातें आड में बडे दिलचस्प ढंग से होती हैं.... इसे साकार करते हुए फिल्म में नयी शादी की रातों के बाद हम-उम्र जवानों और जनानाओं के बीच गाढे प्रतीक-संकेतों में बडी बेबाक चर्चा नियोजित है. मंजरी से तो पानी भरने के समय ‘रतिया की कथा’ सुनने की बेकली के संकेत भर आते हैं, पर उसका फौजी पति अर्जन अपने दोस्तों में बडी शान से कहता है – ‘मैं तो बन्दूक की छह की छह गोलियां एक ही बार में दाग देना चाहता था, पर दुश्मन दो में ही ढेर हो गया’. आज के तथाकथित आधुनिक (मॉडेर्न) लोगों को ऐसे ख़ाँटी लोकजीवन का पता ही नहीं. सो, अपने अनाडीपने में वे इसका लुत्फ़ नहीं ले पाकर इसमें भद्दई और मर्दवाद देख रहे हैं, जो नितांत दयनीय लगता है.
‘जब सरकार ही नहीं पहुँची इस गाँव तक, तो कटाकटी क्या पहुँचेगी’!! और उस वर्ष बनी फिल्मों का प्रतिनिधित्त्व करने वाली ‘शोले’ और ‘बॉबी’ के साक्ष्य बडे ही खिलन्दडे अन्दाज़ में आते हैं. गाँव की नवचा (किशोर) टोली अपने एकांत में ‘कमरे में बन्द, और चाबी खो जाये’ और ‘छमिया के नाच’ का लार टपकाती हसरत भरा जिक्र करती है. पंचायत में सरकारी-तंत्र का नग्न यथार्थ है, तो नवचों की टोली में लोकजीवन का खाँटी और निछद्दम विनोदी रूप आया है. इसी तरह गवँईं परिवेश में पुरुष-स्त्री सम्बन्धों की गोपनीयता और उसकी चर्चा पर सख़्त मनाही के चलते ऐसी बातें आड में बडे दिलचस्प ढंग से होती हैं.... इसे साकार करते हुए फिल्म में नयी शादी की रातों के बाद हम-उम्र जवानों और जनानाओं के बीच गाढे प्रतीक-संकेतों में बडी बेबाक चर्चा नियोजित है. मंजरी से तो पानी भरने के समय ‘रतिया की कथा’ सुनने की बेकली के संकेत भर आते हैं, पर उसका फौजी पति अर्जन अपने दोस्तों में बडी शान से कहता है – ‘मैं तो बन्दूक की छह की छह गोलियां एक ही बार में दाग देना चाहता था, पर दुश्मन दो में ही ढेर हो गया’. आज के तथाकथित आधुनिक (मॉडेर्न) लोगों को ऐसे ख़ाँटी लोकजीवन का पता ही नहीं. सो, अपने अनाडीपने में वे इसका लुत्फ़ नहीं ले पाकर इसमें भद्दई और मर्दवाद देख रहे हैं, जो नितांत दयनीय लगता है.
‘हेल्लारो’ अभिषेक शाह की पहली
फिल्म है– पहला प्यार. उसी तरह आयी भी है– ‘लेके पहला-पहला प्यार, भरके आँखों में ख़ुमार...’.
यह ख़ुमार जिस शख़्स में आ गया, उसके जीवन को
बदल देता है. यहाँ आँखों में ख़ुमार याने उन्माद पैदा करती अभिषेक की नज़र– दृष्टि कह लें, जिसकी ताज़गी का कमाल ये कि वह पूरे
समाज को बदलने का बायस बन सकती है. ‘हेल्लारो’ पूरे सिने-जगत में भी बदलाव की एक अनोखी बयार लेकर आयी है. विशेषज्ञों ने
उसे सराहा है, मान दिया है. अब रूढि बनने की शब्दावली में
कहें, तो फिल्म में आपदा है तीन सालों से पडा सूखा और समाज
के अज्ञान से बनी रूढियों का प्रतिनिधित्त्व हुआ है- स्त्रियों के गरबा खेलना
बन्द कर देंने में, क्योंकि ग्रामीण-जनसमाज का विश्वास है कि
इसी से शायद नाराज़ है मावडी- गाँव की कुलदेवी, जिसे गरबा
कर-करके मनाते, खुश करना चाहते हैं पुरुष. मुखी (शैलेश
प्रजापति) के शब्दों में हाथ जोडकर, माथा नवाकर पूरा गाँव
उससे बारिश लाने की गुहार करता है – ‘आ वरशे पाउस लावजे
म्हारी मावडी’...(इस साल बारिश लाना देवि माँ...). ये
मावणियां ही देश के समूचे जीवन की संचालिका रही हैं. यहाँ तो फिल्म की नियंता
पात्र है– रूढिग्रस्त और रूढिमुक्त दोनो की कर्त्ता. बेजान,
पर सबसे जानदार. बे-वजूद, पर सबसे प्रबल
बा-वजूद.
इस रूढि और प्रतिबन्ध को तोडने की कडी में
अग्रदूत बनकर फिल्म में पहले व्याह के आती है मंजरी, जो कुछ पढी-लिखी है. फिर अन्य गाँव ‘बळेलिया’ से आता है– मुणजीभाई
(जयेश मोरे), जो गरबा-नृत्य का कुशल ढोलकिया है– ख़ाँटी कलाकार और साथ ही इसी कला के चलते गरबा-प्रतिबन्ध की रूढि की चरम
त्रासदी का भुक्तभोगी.... अति संक्षेप में फिल्मायी उसकी कथा ही ‘वेल्लारो’ की मूल कथा की प्राणवायु की संचारिका
है...भाव में आकर बजती उसकी ढोलक और उसकी थाप पर निबिड आधी रात के आलोक में अनायास
नाच पडी उसकी पत्नी मंगला व नन्हीं-मुन्नी बेटी रेवा.... परिवार के मिले-जुले
वाद्य-संगीत-धुन-नृत्य मे साकार हुआ था ‘बाढ बनकर फट पडते
भावों’ (स्पॉण्टेनियस ओवरफ्लो) वाला कला-स्वभाव.... कला को
परिभाषित करते विलियम वर्ड्सवर्थ के इस कथन की प्रक्रिया को अभिषेक ने गोया
व्यावहारिक परिणति में उतार दिया है और रूढियों को तोडने की अपनी मुख्य बात को
कहने का तोड बना दिया है. इसका भी जैसा ख़ूबसूरत उपयोग इस फिल्म में बिना कहे,
करके दिखाने में हुआ है, अन्यत्र दुर्लभ है.
लेकिन मुणजी-परिवार के इस देवोपम भाव व उच्छल कला-स्वभाव की त्रासदी का मंजर दरपेश होता है, जब अन्धविश्वास भरे अज्ञान के आवेश में स्त्री के न नाचने की प्रथा को तोडने के प्रतिकार व दण्डस्वरूप गाँव वाले जला देते हैं मुणजी भाई का घर– भस्म हो जाती हैं पत्नी-बेटी. और यह सब दृश्यों में दिखाके होता है, क्योंकि यहाँ मुक़ाबला सीधे-सीधे रूढि से है– पुरुष-स्त्री वाले गौण उत्पादन से नहीं.
मुणजी बच जाता है और घायल-लथपथ हुआ नीमबेहोशी की अवस्था में उसी रास्ते में पडा पाया जाता है, जिस रास्ते से होकर मंजरी व उसके गाँव ‘बाँढ’ की औरतें पानी लेने रोज़ आती-जाती हैं. रह-रह कर मुणजी की कराह सुनायी पड रही होती है- ‘पानी-पानी’, लेकिन ‘पर-पुरुष से बात तक न करने’ के जड नियम में बँधी स्त्रियां उस करुण पुकार को अनसुनी करते हुए चली जा रही होती हैं...कि अचानक मुडकर मंजरी अपने घडे का पानी पिला देती है. फिर उसकी ढोलक के बारे में पूछती है और ‘वगाडसो?’ (बजाओगे?) के रूप में पूछते हुए बजाने का इसरार भी कर देती है. पानी पिलाके जीवन देने की कृतज्ञता के संक्षिप्त उल्लेख के साथ ढोल पर टंकार गूँजती है....
लेकिन मुणजी-परिवार के इस देवोपम भाव व उच्छल कला-स्वभाव की त्रासदी का मंजर दरपेश होता है, जब अन्धविश्वास भरे अज्ञान के आवेश में स्त्री के न नाचने की प्रथा को तोडने के प्रतिकार व दण्डस्वरूप गाँव वाले जला देते हैं मुणजी भाई का घर– भस्म हो जाती हैं पत्नी-बेटी. और यह सब दृश्यों में दिखाके होता है, क्योंकि यहाँ मुक़ाबला सीधे-सीधे रूढि से है– पुरुष-स्त्री वाले गौण उत्पादन से नहीं.
मुणजी बच जाता है और घायल-लथपथ हुआ नीमबेहोशी की अवस्था में उसी रास्ते में पडा पाया जाता है, जिस रास्ते से होकर मंजरी व उसके गाँव ‘बाँढ’ की औरतें पानी लेने रोज़ आती-जाती हैं. रह-रह कर मुणजी की कराह सुनायी पड रही होती है- ‘पानी-पानी’, लेकिन ‘पर-पुरुष से बात तक न करने’ के जड नियम में बँधी स्त्रियां उस करुण पुकार को अनसुनी करते हुए चली जा रही होती हैं...कि अचानक मुडकर मंजरी अपने घडे का पानी पिला देती है. फिर उसकी ढोलक के बारे में पूछती है और ‘वगाडसो?’ (बजाओगे?) के रूप में पूछते हुए बजाने का इसरार भी कर देती है. पानी पिलाके जीवन देने की कृतज्ञता के संक्षिप्त उल्लेख के साथ ढोल पर टंकार गूँजती है....
बस, शुरू हो जाता है ‘स्त्रियों के
गरबा पर बन्दिश’ की रूढि को तोडने का वह सिलसिला, जिसके लिए शुरू हुई थी बननी फिल्म.... फिल्म में काव्य-कलामयता ऐसी कि सिर्फ़
चारो गीतों से भी मुख्य विषय की पूरी बात संकेतों में स्पष्टता से कही जा सकी है.
इसके लिए सौम्य जोशी की रचनात्मकता की जितनी सराहना की जाये, कम है. रूढियों से आक्रांत जीवन को ‘सपना विना नी
आखी रात’ (बिना सपने पूरी रात) की व्यथा के बाद मुणजी के आने
पर पहली बार जीवन में खुशियों के आने को
फिर इस खुशी की निरंतरता मुणजी के आने से बनी है, की खुशी में
और अंतिम की बानगी लेख के अंत में...!! मेहुल सुरती के संगीत निर्देशन और आदित्य गढवी, ऐश्वर्या मजुमदार, मूरालाल मारवाडा भूमि त्रिवेदी के गायन में इतना आवेग व इतनी मधुरता-आह्लादकता है कि लोक की कठिन भाषिकता के बावजूद यह मुझ जैसे गुजराती-इतर प्राणी को भी इतना रमा लेती है कि बारम्बार सुनने पर भी मन भरता नहीं.... बहरहाल,
‘वाग्यो री ढोल बाई वाग्यो री ढोल, मारा मीठा नुं रण मां वाग्यो री ढोल’ (ढोल बज गया री सखि ढोल बज गया, हमारे नमक के रेगिस्तान में ढोल बज गया).
फिर इस खुशी की निरंतरता मुणजी के आने से बनी है, की खुशी में
‘आव्यो री आव्यो री असवार, हूँ एनी डबरी ना धूळ बनी जाऊँ’ (आया री आया असवार, मैं इसके गुबार की धूल बन जाऊँ)
और अंतिम की बानगी लेख के अंत में...!! मेहुल सुरती के संगीत निर्देशन और आदित्य गढवी, ऐश्वर्या मजुमदार, मूरालाल मारवाडा भूमि त्रिवेदी के गायन में इतना आवेग व इतनी मधुरता-आह्लादकता है कि लोक की कठिन भाषिकता के बावजूद यह मुझ जैसे गुजराती-इतर प्राणी को भी इतना रमा लेती है कि बारम्बार सुनने पर भी मन भरता नहीं.... बहरहाल,
इस तरह शिक्षा (मंजरी) और जीवनानुभव की
तपन (मुणजी) का मणि-कांचन संयोग होता है- रचते हैं अभिषेक. फिर इसके साथ
गुजरात-राजस्थान आदि के भौगोलिक परिवेश की, प्राकृतिक स्थिति-गति की होनी का अनूठा प्रयोग करके
अनहोनी सिने-रचना करते हैं. वरना उत्तर प्रदेश–बिहार...आदि
में न पानी का ऐसा संकट और न रोज़ घडे लेकर औरतों का पानी लाने पोखर व ताल-तलैया
जाने की प्रथा.... सो, कैसे मिलता फिल्म व इसकी स्त्रियों को
वह आकाश और अवकाश (स्कोप व स्पैस) कि वे अपनी दमित इच्छाओं की एकांत व
निर्द्वन्द्व पूर्त्ति अनायास कर पातीं...!! ‘हेल्लारो’
की सिने रचना में वैसे तो पूरी फिल्म में छायी है त्रिभुवन बाबो और
सादी नेने की अद्भुत चलचित्रिकी (सिनेमेटोग्रैफी), लेकिन
पानी के लिए जाने व लेके आने तथा वहाँ के गरबा नृत्य में पूरे खुले वातावरण को
मिलाकर जो कमाल रच उठा है, वह तो अवर्णनीय है. वैसे ये
नाचगान, गरबा...आदि भी रूढि-भंजन वाले मूल कथ्य के निमित्त
भर है, पर आये हैं फिल्म के लक्ष्य बनकर.... रोज़ पानी लाते
हुए गरबा का नाच-गान.... रोज़ पापबोध की आशंका भी कि नियम (रूढि) तोड रहे हैं,
तो अनिष्ट होगा. एक दिन-दो दिन...कोई अनिष्ट नहीं, तो ‘पग के अकथ अभ्यास पर, विश्वास
बढता ही गया’...!! सभी जानती हैं, पर
सभी छिपाती हैं सबसे. जो बच्ची पिता के साथ जाना चाहती थी, वह
भी पानी के बहाने आने और नाचना छिपाने लगी है.
नृत्य-गीतों की बहार ही नहीं, उसके साथ स्त्री की अपनी इयत्ता के स्थापन, अपनी इच्छाओं को जी पाने की ईहा-पूर्त्ति और ऐसे जड नियमों से मुक्ति का सिलसिला..., जो फिल्म में बनता तो है ही, ‘साक़ी शराब दे दे, कह दे शराब है’ की माफिक बार-बार उन स्त्रियों से कह-कहला के पुष्ट भी किया जाता है ––
विषय की जबर्दस्त संगति के साथ भाव-भाषिकता के लालित्य की मनोहर छटा से निखरे सौम्य जोशी के संवाद मारक भी हैं और मोहक भी. लेकिन स्त्रियों की आकुल वाचिकता के बरक्स कुछ कहता नहीं मुणजी भाई.... सो, यह मौन व मुखरता का भी संयोग है. मुणजी की मूकता ‘रोना तक भूल गया, मन इतना रोया है’, से समझी जा सकती है. सो, वह बिना कुछ कहे-पूछे सब कुछ सिर्फ़ करता जाता है – कभी न कभी राज़ खुल जाने के अंजाम को जानने के बावजूद....
नृत्य-गीतों की बहार ही नहीं, उसके साथ स्त्री की अपनी इयत्ता के स्थापन, अपनी इच्छाओं को जी पाने की ईहा-पूर्त्ति और ऐसे जड नियमों से मुक्ति का सिलसिला..., जो फिल्म में बनता तो है ही, ‘साक़ी शराब दे दे, कह दे शराब है’ की माफिक बार-बार उन स्त्रियों से कह-कहला के पुष्ट भी किया जाता है ––
‘तमारा ढोल ना ताल पर ताणी आपियेने एटलो वखत एम थाय जे जीवता छीए. अने अइयां होय छे शुं? खारा पवन ना सुसवाटा! अने मूँगा मूँगा ना सन्नाटा (आप के ढोलक की ताल पर ताली देती (ताली दे-दे के नाचती) हैं, उतने ही पल जीती हैं. बाकी यहाँ है क्या? – सूखी हवा की सनसनाहट और चुप-गुप का सन्नाटा) और ‘गरबा ना बदला मां तो आखुं राजपाट आपी दऊं, पण मारी पासे छे नहीं!’ (गरबा के बदले में तो सारा राजपाट दे दूँ, पर मेरे पास है ही नहीं’)...आदि.
विषय की जबर्दस्त संगति के साथ भाव-भाषिकता के लालित्य की मनोहर छटा से निखरे सौम्य जोशी के संवाद मारक भी हैं और मोहक भी. लेकिन स्त्रियों की आकुल वाचिकता के बरक्स कुछ कहता नहीं मुणजी भाई.... सो, यह मौन व मुखरता का भी संयोग है. मुणजी की मूकता ‘रोना तक भूल गया, मन इतना रोया है’, से समझी जा सकती है. सो, वह बिना कुछ कहे-पूछे सब कुछ सिर्फ़ करता जाता है – कभी न कभी राज़ खुल जाने के अंजाम को जानने के बावजूद....
और अंजाम का डर सबको है– दर्शक को सबसे ज्यादा,
क्योंकि अब तक मुणजी के साथ स्त्रियों का ही नहीं, इन सबके साथ दर्शकों का भी तादात्म्य हो चुका होता है. लेकिन अंजाम का आना
तो तय है, अटाल्य है. सबको इसका पता भी है कि ‘बिन आये न रहे’...!! फिल्म की सारी संरचना उसी के
लिए तो हुई है!! वह आये कैसे, इसी का इंतज़ार है. बेचैनी है.
कला का मर्म इसी में निहित है. यह फिल्मकार की परीक्षा है. तो वह भी
सोपान-दर-सोपान खेलता है- विषय के साथ, दर्शकता के साथ.
अंजाम के आने को खेल बना देता है. प्रयोग करता है. अहटियाता (अन्दाज़ा लगाता) है.
पहले सोपान पर विधवा केसर (वृन्दा त्रिवेदी) को गाँव की मर्द बिरादरी ने मजबूरी
में पानी भरने जाने की इजाज़त तो दी, पर उससे बोलने की कठोर
बन्दिश के साथ. लेकिन मंजरी की पहल पर सभी बोलने लगती हैं और कोई अशुभ नहीं होता–
रूढियों की एक कली टूटती है.... फिर दूसरा प्रसंग और भी प्रखर...
गाँव में एक औरत चम्पा (कौशाम्बी भट्ट) को मरा हुआ बच्चा पैदा होता है...सबको
ठकमुर्री मार जाती है- हो गया अनिष्ट!!
लेकिन खेल यह कि फिल्मकार इसे नाचने के पाप की कुधारणा के सीधे खण्डन का जरिया बना देता है. चम्पा ने ही खाँटी बात बताके स्त्रियों को विश्रांति दी– ‘तुम लोगों के नाचने के पाप से बच्चा नहीं मरा है, नज़दीकी प्रसव के समय बार-बार मना करने के बावजूद मर्द ने लातों से मारा, उससे मरा है’. इस तरह यथार्थ के दर्शन-निदर्शन से धीरे-धीरे इन मिथ्या धारणाओं की एक-एक कडी तोडते-टूटते सही चेतनता की ओर कदम-दर-कदम बढती जाती है फिल्म....
लेकिन खेल यह कि फिल्मकार इसे नाचने के पाप की कुधारणा के सीधे खण्डन का जरिया बना देता है. चम्पा ने ही खाँटी बात बताके स्त्रियों को विश्रांति दी– ‘तुम लोगों के नाचने के पाप से बच्चा नहीं मरा है, नज़दीकी प्रसव के समय बार-बार मना करने के बावजूद मर्द ने लातों से मारा, उससे मरा है’. इस तरह यथार्थ के दर्शन-निदर्शन से धीरे-धीरे इन मिथ्या धारणाओं की एक-एक कडी तोडते-टूटते सही चेतनता की ओर कदम-दर-कदम बढती जाती है फिल्म....
फिर अगले सोपान पर भगलो (मौलिक नायक) नामक ग्रामीण, जो घोडे पर गाँव से बाहर-बाज़ार...आदि तक आता-जाता है, इन्हें नाचते हुए देख लेता है...अब तो सब थरथरा उठते हैं कि आ गयी शामत...!! लेकिन वह किसी से कुछ नहीं कहता.... यहाँ आकर भगलो के पहले के किये सारे कामों, उसकी कही सारी बातों के मर्म खुलते हैं. इस चरित्र में फिल्मकार ने गाँव की जड धारणाओं से कुछ अलग विचार रखने की छाप पहले से लगा रखी है. वह गाँव के बीच हर मुद्दे पर अपनी वाचालता से कदाचित् सूत्रधार जैसा काम भी करता रहा है. वस्तुत: यह चरित्र-निर्मिति की बारीक कला-प्रक्रिया का बेहतरीन उदाहरण है. इसमें मौलिक का अभिनय भी अपने वेगवान प्रवाह में हिलोरें लेता, लहरों जैसे लहराता-सा (हिलैरियस) है. ख़ैर, देखकर भी किसी को न बताने के उसके सलूक से स्त्रियों का विश्वास काफी बढता है. लगभग बीस औरते हैं. एक ही गाँव के प्रचलन के मुताबिक उनके लिबास व बनाव में एकरूपता के बावजूद जिस तरह सबकी अलग पहचान भी कायम है, उसी तरह सामूहिकता के बावजूद कोई भूलती नहीं, भुलायी जा सकती नहीं. सबकी पझचान के अपने काम व अन्दाज़ हैं.... अधिकांश को अपना व्यक्तित्त्व देने की फिल्म की कोशिश विरल रूप से कामयाब हुई है.
मंजरी के रूप में श्रद्धा डांगरे को तो कथा ने ही मुख्य भूमिका अता कर दी है, जिसमें हर बार हर काम की पहल करती मंजरी के रूप में श्रद्धा का अभिनय भी हलराती व डूबती-उतराती लहरों जैसा है. सब मिलाकर योजनाबद्ध रूप से शनै:-शनै: एक ज़मीन तैयार की गयी है... फिर उसी वक़्त गरबा का पखवाडा– नवरात्र लाकर कथा-सूत्र को उत्कर्ष (क्लाइमेक्स) की तरफ ले जाने का विधान बनाना भी मौजूँ रूप में सधा है. इस अवसर के जरिये सारी औरतें मिलकर योजना बनाती हैं कि ढोल बजाने की कला के बल ढोलकिया के रूप में मुणजी को हमेशा के लिए गाँव में रखा दिया जाये. मुणजी से प्रस्ताव रखाती हैं, जिस पर चलती जाँच-पडताल के बीच भगलो पुन: अपनी प्रतुत्पन्न मति को उसी बातूनीपने से पेश करके प्रस्ताव मंजूर करा देता है....
इस तरह हमेशा का बन्दोबस्त हो जाता है- रोज़ सुबह पानी भरने के समय ताल-किनारे मृदंग पर औरतों का गरबा और बाकी समय गाँव का ढोलकिया बनकर पूजा का गरबा.... अब सारी आकुलतायें सम पर और आखिरी थाप के लिए सारे सरंजाम तैयार...तो अब गरबा का राज़ खुलना ही था. कारण बनता है– नाच करके पाप करने का वही सनातन अन्धविश्वास, जो डर बनकर सदियों से व्याप्त है.
उस दिन पानी भरने जाने के ठीक पहले ही एक औरत के मायके से उसके भाई व पिता की अकस्मात मृत्यु की खबर आती है और वह सहसा टूट जाती है. सास को बता देती है कि यह उसी के गरबा नाच के पाप का फल है. फिर सास से पूरा गाँव सुनता है...उसी वक़्त पहुँचता है मंजरी-पति फौजी भी- तीन महीने की छुट्टी पर. और आनन-फानन में सब लोग धावा बोल देते हैं- नाचते हुए रँगे हाथों सब पकडी जाती हैं. तभी बनता है बन्द घरों में सबकी अलग-अलग पिटाई का वह दृश्य.... फौजी याद भी दिलाता है- सींग़-पंख काट लेने की अपनी चेतावनी..., जिस पर अब अमल शुरू कर देता है. इस तरह रुआत के अंत में तब्दील होने की संगति भी बनती है.... उधर मुणजी का सर काटने के लिए धार तेज हुई तलवार लिये तैयार मुखी...कि तब तक पुन: संकटमोचक बनकर भगलो ‘आइ गयउ हनुमान, जिमि करुणा मँह वीर रस’ – ‘अरे मरने वाले की अंतिम इच्छा तो पूछ लो’, की टेर लगाते हुए.... और यह पाँसा सारी बाज़ी पलट देता है....
सच्चा कलाकार और क्या माँगेगा– अपनी कला के साथ संगति के कुछ पल.... सो, भगलो माँग लेता है एक बार ढोलक बजा लेने की इच्छा.... और ढोलक की थाप पर एक तरफ तो घुमडते हैं बादल और दूसरी तरफ वो होता है, जो सिर्फ़ कला और कला की जिजीविषा ही कर सकती है, जिसके लिए गीत में पहले ही कहा जा चुका है–
‘जेना हाथमां रमे छे मारा मन नी घुँघरिओ, जेना ढोलथी बजूके मारा पगनी बिजडियो (जिसके हाथ में खेलते हैं मेरे मन के घुँघरू, जिसकी ढोल से चमकती है मेरे पैरों की बिजली).
और अब फिल्म के उपराम पर ऐसा हो जाता है. थाप सुन कर पिटी-कुटी-टूटी-फूटी औरतें अपने-अपने घरों से निकलना शुरू होती हैं और साथ ही पडनी शुरू होती हैं बूँदें– चिरप्रतीक्षित साध पूरे अंचल की.... धीरे-धीरे वर्षा-वाद्य-संगीत-नृत्य का उमड पडता है पारावार, जिसमें बह जाती हैं सारी रूढियां-वर्जनायें.... न किसी को कुछ कहने की ज़रूरत पडती है, न सुनने की किसी को फुर्सत रहती है....
अंतिम गीत आता है–
‘ठेक्या माँ थोरियो ठेकी में वाड’...(नागफनी को लाँघ गयी, नागफनी की बाड को लाँघ गयी).
इसमें गज़ब की संकल्पना-उद्भावना है कि पुरुष-स्त्री समूहों के नृत्य-दृश्य बारी-बारी से आते रहते हैं. और मुक्ति की प्रतीक पंक्तियां गीत-संगीतमय टेर लगाती हैं-
‘ढोज्या में ढोज्या ते दीधेला घूँट, हवे माँझी झाँझरीने बोलवानी छूट...’(छलका दिये मैंने तुम्हारे दिये (ज़हर के) घूँट, अब है मेरे नूपुरों को बोलने की छूट)
के प्रतीक में मुक्त होती हैं स्त्रियां- रूढियों को मानने से...और पुरुष - इन्हें लगाने से. याने पूरा समाज मुक्त होता है..., जो वस्तुत: कला का अंतरिम अभिप्रेत होता है.
इस तरह ये हिलोरे (हेल्लारो) मुक्ति की हैं- रूढियों-वर्जनाओं से मुक्ति की, पर ख़ास यह कि कला की जानिब से, कला के द्वारा और अफाट कलामयता के साथ.... लेकिन यह संतुलन भी कि प्रयोजन पर कला न हावी हो, न प्रयोजन तले दबे...याने अभिषेक के पहले-पहले प्यार का वादा फिफ्टी-फिफ्टी...!!
________________
सम्पर्क
‘मातरम्’, 26 – गोकुल नगर, कंचनपुर, डी.एल.डब्ल्यू.
वाराणसी -221004
‘मातरम्’, 26 – गोकुल नगर, कंचनपुर, डी.एल.डब्ल्यू.
वाराणसी -221004
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (25-11-2019) को "गठबंधन की राजनीति" (चर्चा अंक 3537) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं….
*****
रवीन्द्र सिंह यादव
ठीक कहा आपने. संवाद और नृत्य पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है. और बारीक नुक़्ता पकड़ा है आपने लोक-विनोद का. अर्थाना, दिठवन भले लगे.
जवाब देंहटाएंबहरहाल, आपने कहानी बतायी है, समझ पर ज़ियादः माल दिया नहीं. हेल्लारो का दृश्य विधान, उसके धूसर चमचमाते रंग, ज़ाहिरा तौर पर आये आग पानी और तलवार के प्रतीक..
और, थोड़ी ही सही पर वर्तनी की अशुद्धियों, अनुस्वार और बिन्दियों की ग़लतियों ने मज़ा किरकिरा किया. .... का प्रयोग भी बेदिली से किया गया है. सुलिखित गद्य ही अंतरालाभास दे देता है, बिना बैसाखियों के. संवाद पर मुलाहिज़ा अशुद्ध है ― या तो संवाद पर लिहाज़ फरमाइये या फिर संवाद मुलाहिज़ा करिये. पूर्त्ति नहीं शायद, पूर्ति. इत्यादि.
नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल की तर्ज़ पर, एक बेहतरीन ब्लॉग पर ऐसी भूलें देख कर विष्णु खरे का भाषाई सलीक़ा और सुथरापन याद आ जाता है. मुलाहिज़ा हो : 'भाषा की कुछ भूलें करने का मर्ज़ इधर के हुड़ुकलुल्लू-मार्का युवा लेखन में वबा का दर्जा हासिल कर चुका है. आप किसी भी प्रदेश, क्षेत्र या बोली से आते हों, यदि हिंदी में लिखने की महत्वाकांक्षा है तो पहले सही ज़ुबान आनी चाहिए.'
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंनुक़्ताचीं है तहेदिल, उसको सुनाये ही बने...
जवाब देंहटाएंश्रीमान/श्रीमती (जो भी हों) अज्ञानी-बेईमानी जी,
नमस्कार
आपकी टिप्पणी पढ तो ली थी एक-दो दिन के अन्दर ही, लेकिन गाँव में हूँ और जिस ‘गृह- कारज नाना जंजाला’ के लिए यहाँ आया हूँ, उसमें इतनी फुर्सत नहीं मिल पा रही थी, जितनी दरकार थी...। बहरहाल,
पहले तो अनेकश: धन्यवाद कि आपने खुलकर टिप्पणी की, वरना आज गुडी-गुडी का जमाना है।
लेकिन गिला है कि कोताही बरती आपने!! अनुस्वार-अनुनासिक की ग़लतियों के एक-एक ही उदाहरण दे देते, तो ‘भाषा के इस हुडुकलुल्लू-मार्का युवा’ में ‘भाषा की भूलें करने का मर्ज़’ कुछ तो कम हो पाता... और थोडी तो ‘सही ज़ुबान’ आ पाती...तथा विष्णु खरे की आत्मा को भी थोडी शांति मिलती...। ख़ैर,
इस बावत एक ख़ास वजह बताना चाहूँगा। मेरे लैपटॉप में ड-ढ के नीचे की बिन्दी नहीं आ पाती, जिससे पढा-पडा जैसा लिखाता है। फिर भी यह ग़लत तो है ही...।
लेकिन 9 साल से इसी लैपटॉप पर लिख-भेज कर किताबें छपीं, प्रकाशकों ने ठीक कर लिये। कई सौ आलेख छपे, सम्पादकों ने बिना शिक़ायत ठीक कर लिये...। तो मैंने मान लिया कि इसे मशीनी कमी समझकर लोग चला ले रहे हैं। लेकिन अब आप की बात सर माथे...।
किंतु उक्त ड-ढ के नीचे की बिन्दियां न अनुस्वार है, न अनुनासिक। अस्तु, मेरे आदरणीय अज्ञानीजी, इसमें ‘बेईमानी’ (आपका नाम न होता, तो मैं हिन्दी में ‘बेइमानी’ लिखता) तनिक भी न कीजिए। जैसे यह इंगित करने का कष्ट किया, उसी तरह इस आलेख से अनुस्वार-अनुनासिकों की अशुद्धियों के कुछेक उदाहरण देने की भी कृपा कर दें मान्यवर – नितांत निस्संकोच। समालोचन की इसी टिप्पणी वाले स्थल पर दें..., ताकि सब पढें। या फिर आपको मंजूर न हो, तो 9422077006 पर बता दें या लिख दें। satyadevtripathi@gmail.com पर भी दे सकते हैं। या अपना सम्पर्क नम्बर दें, तो मैं ही पूछ लूँ, क्योंकि मैं सचमुच जानना चाहता हूँ।
इसी से मिलती-जुलती बात है डॉट्स(....) वाली, जो मेरे लिए बेदिली से किया प्रयोग नहीं, बेहद दिली प्रयोग है। हर डॉट्स में कुछ ‘ग़मे दिल’ है, जिसे (इस पत्र में भी) समझने के लिए नुक़्ताचीनी करने वाले (नुक़्ताचीं) को थोडा तहेदिल में उतरना होगा...। कोशिश करें...। वरना उक्त फोन/मेल पर संवाद हुआ, तो सफियाया जा सकेगा...।
इसी तरह ‘कहानी बतायी, समझ पर ज़ियाद: माल दिया नहीं’, के सन्दर्भ में कहना चाहूँगा कि कथा के जरिये कथ्य को विस्तार से खोलने, विश्लेषित करने की कोशिश ही पूरी समीक्षा है। सिर्फ कथा तो अधिकतम दो पृष्ठ होती। बीच-बीच में यथास्थान चारित्रिकता, कलाकारों की अभिनेयता, निर्देशन-कौशल के काफी ‘माल’ हैं। लेकिन आप जैसे प्रबुद्ध-पारखी तक न पहुँच पाये, तो बेशक़ यह मेरी अक्षमता है। इसी प्रकार लोक तत्त्वों पर ख़ास ज़ोर देते हुए उसके बहुआयामी प्रयोगों को बताने की मेरी कोशिश भी आपको विनोद भर लगी और ‘दिठवन’ व ‘अर्थाने’ जैसे शब्दों तक सीमित होकर रह गयी, तो इसे मैं अपनी कोशिश का दुर्भाग्य ही कहूँगा – आगे से अपनी कोशिश में कुछ और ‘ज्यादा माल’ देने पर ध्यान दूँगा...।
रह गयी बात ‘पर मुलाहिज़ा फरमाइये अशुद्ध है’ की, तो भाई साहेब या बहनजी, हम तो किसी पर ‘लिहाज फ़रमाते नहीं’, किसी का ‘लिहाज करते’ हैं। जैसे आप ‘ज़ियाद:’ माल न देने की शिक़ायत कर रहे हैं, पर हम तो ‘ज्यादा’ माल ही देंगे। ग़ालिब साहेब ‘जी का ज़ियां हो जायेगा’ कहेंगे और हम वही पढेंगे, पर मेरी माँ-नानी का ‘नक्सान-जियान’ ही होता रहा...और हमारा भी वही होगा। यह बात लोक की ही नहीं, शास्त्र की भी है। पाणिनि जैसे दिग्गज ने कमल को पुल्लिंग कहा, पर संस्कृत ने कभी नहीं माना, उसे ‘कमल: कमलौ कमला:’ नहीं कहा। नपुंसक में ‘कमलम् कमले कमलानि’ ही कहता रहा..., तो हमारी क्या औक़ात...!! एक भाषा के शब्दों व प्रयोगों के दूसरी भाषा में संतरण की दशाओं व दिशाओं पर तमाम चर्चा हम कर सकते हैं – यदि आप ‘तवज्जो ज़ियादा’ रखते हों...और अज्ञानी की पोशीदग़ी से ज्ञानी को एवं बेईमानी की खोल से ईमानदारी को बाहर लाने के लिए तैयार हों...।
मैंने आज तक कोई गुजराती फिल्म नहीं देखी है। मगर इसे एक बार देखना चाहूंगा
जवाब देंहटाएंHindi Shayari
Nice Prerak Prasang
जवाब देंहटाएंहेल्लारो की समीक्षा दिसंबर में ही पढ़ ली थी मौका मिला तो आज दुबारा पढ़ी।
जवाब देंहटाएंउम्मीद करता हूँ कि सत्यदेव त्रिपाठी जी की बात सच निकली होगी और हेल्लारो व्यावसायिक रूप से भी सफल साबित हुई होगी।
मेरे तईं यह समीक्षा ही दर्शनीय-पठनीय-मननीय है।
रूढ़ियों के बनने, टिकने और टूटने का ऐसा शब्दांकन कमाल का है।
"भोग भले बन गयीं, भाग नहीं बनेंगे।"
मंजरी का यह कथन आहिस्ता घटित होते युगांतर की सूचना है।
ऐसी सुगठित समीक्षा के लिए समीक्षक तथा प्रकाशक दोनों के प्रति आभार।
गुजराती शब्दों की देवनागरी वर्तनी की त्रुटियों के कारण, इस शानदार समीक्षा को थोड़ी दिक्कत हुई है।
जवाब देंहटाएंगीत इस फिल्म के प्राण है।
सौम्य जोशी के लिखे गीत, लंबे समय तक याद किए जाते रहेंगे।
'ठेक्या में थोरिया ने, ठेकी में वाड़' गजब ही नहीं महागजब बन पड़ा है।
वाग्यो रे ढोल गीत में "सज्जड़ बम् पाँजरू पहोळु थयु" का रूपक बहुत शानदार है! तात्पर्य है - एक संकरा पिंजरा था जो चौड़ा हुआ है'
सुन्दर समीक्षा।
मारा हैया ना झाड़वा नी हेठ
जवाब देंहटाएंठेक्या(फेंक दिये) में थोरिया (थुअर नागफनी), ने ठेकी में वाड़
ठेक्या में दीधेला, ऊंचेरा पहाड़,
ठेकी में ठोकर ने ठेकी में ढींक (घुटना)
ठेकी में दीधेली ऊंडेरी (गहरी) बीक (डर)
ठेकी ठेकी ने हवें (अब) पहुंची छुं ठेठ।
मारा हैया ना झाड़वा नी हेठ.
छोड़्या में ऊंबरा (गूलर का पेड़), ने छोड़ी में पाळ (तालाब की पाल)
छोड़ी में पाथरेली (बिछाई हुई) आखी जंजाल,
छोड़्या में सरनामां, ने छोड़्यू में नाम
छोड़्यू सीमाड़ा नुं छेवट (आखरी) नुं गाम
छोड़ी छोड़ी ने हवें पहुंची छुं ठेठ
मारा हैया नां झाड़वा नी हेठ
ढोळ्या में ढोळ्या ते दीधेला घूँट,
हवें मारी झांझरी (पाजेब) ने बोलवा नी छूट
खीले (खूंटे) थी छूट्या छे ओरता ना घण
वीरड़ा ने भाळे हवें मीठा (नमक) ना रण (डेजर्ट)
रण (रेगिस्तान) ना रस्ते हुं तो पहुंची छुं ठेठ,
मारा हैया नां छाँयड़ा (छाया) नी हेठ।
मूल ગુજરાતી गुर्जरनागरी लिपि से लिप्यांतरण - गजेन्द्र पाटीदार!
एक महत्वपूर्ण बात और कि यह पटकथा पूरी तरह काल्पनिक नही है। (चाहे फिल्मी विवशता के चलते निर्देशक इसे काल्पनिक लिख कर छूट ले)
जवाब देंहटाएंकच्छ में है व्रजवाणी नामक गांव, यह धोलावीरा ऐतिहासिक जगह के रास्ते पर है और पास ही है। दूसरा निकट नगर रापर है। इस जगह पर चार सौ साल पहले यह घटना घट चुकी है। तब एक ढोल वादक के लिए एक सौ चालीस महिलाओं ने बलिदान किया था। कहा जाता है कि उन्हें मारा नहीं गया बल्कि उन्होंने ढोली के मारे जाते ही एकसाथ प्राण त्याग दिए।
उनकी स्मृति में वहाँ एकसौचालीस मोनोलिथ लगे हुए हैं। वहाँ मंदिर में उन एकसौचालीस युवतियों के नाम, पिता का नाम और कुल नाम लिख कर उनकी प्रतिमाएँ भी लगी है।
उस प्राचीन घटना को सन १९७५ पर प्रक्षेपित करने की कोशिश की गई है। जिसमें वह सफल है, सार्थक है।
व्रजवाणी गूगल मैप पर ढूंढा जा सकता है। धोलावीरा के निकट ही। यह दर्शनीय स्थल है गुजरात में।
पाटीदार जी का बहुत बहुत आभार। आपने उस घटना को बताकर और हिंदी शब्दों में आये गुजराती शब्दों की वर्ण संकरता को सोदाहरण सामने लाकर बड़ा उपकार किया है...आभार!!
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.