(पेंटिग : Zoe Frank) |
‘फूल खिलते रहेंगे दुनिया में
रोज़ निकलेगी बात फूलों की’
प्रेम की बातें प्रेम जितनी ही सघन
होती हैं. प्रेम कविता में पुकारता है और देह उसे कविता की तरह सुनती है. अधिकतर कविताएँ/
कलाएं प्रेम की पुकार के सिवा और क्या हैं?
उज्ज्वल तिवारी पेशे से वकील हैं और
कविताएँ लिखती हैं. उनका संग्रह ‘सब दृश्य’ इसी वर्ष प्रकाशित होकर आया है. इस
संग्रह से कुछ कविताएँ समालोचन पर.
उज्ज्वल तिवारी की कविताएं
कभी-कभी वो
कभी-कभी वो
तोहफे में मुझे
उदास शामें दिया करता है
सलेटी आसमान पर
बैंगनी बादलों से भरी पनीली शामें
उन शामों में केवल मौसम ही सीला नहीं होता
मन भी गीला होता है
वो शामें
नितांत अकेली होती है
किसी कुंवारी लड़की की देह सी
बेहद खूबसूरत
पर अनछुई, अधूरी
ककून के तितली
बनने के इंतजार सी
अव्यवस्थित बेनाम शामें
जिन्हें किसी मनचाहे के
नाम किया जा सकता था
पर वह वहां नहीं होता
मुझे अक्सर वो ऐसे
तोहफे दिया करता है
मैं चाह कर भी उसे मना नहीं कर पाती
मेरे मन के किसी कोने में
ऐसी उदास शामों का
अंबार लगा है
जी करता है सब बुहार दूं
उठाकर फेंक दूं सारी स्मृतियां
पर पुरानी चीजें
जमा करने का शौक भी तो पुराना है
कभी-कभी सोचती हूं
लौटा दो उसे उन शामों को
रात की आंखों के कागज में बांधकर
और जब वह खोले हर कागज
उसकी आंखों से टपकता चांद
समेट लूं अंजुरी भर
मैं सोचती हूं
उसकी आंखों के मरुस्थल में बो दूं
अपने होठों के गुलाब का बीज कोई
या फिर
उसके सीने में कैद परिंदे को
अपनी धड़कनों का संगीत दे दूँ
मैं लौटाना नहीं चाहती
उसके दिल का मर्तबान खाली
उन उदास शामों के बदले
क्यों ना मैं उसे
अपनी प्रेम की पसीजी सब राते दे दूं.
अनकहा प्रेम
मैं अक्सर उसकी कमीज़ें मांग लिया करती हूं
वो कमीज़ें जिनमें वो कभी नहीं हो सकता
वो कमीज़ें जिनमें उसकी देह की गंध भरी है
उन कमीज़ों पर फूल खिला करते हैंकुछ लाल कुछ गुलाबी सब खुदरंग है उसके रंग सरीखे
सब महकते हैं मेरी नज़र पड़ते ही
शायद मैं न देखूं तो मुरझाने लगे
शायद वो भी महकता हो उन फूलों सा मेरे देखने भर से
क्या मेरी नजर गुनगुनी धूप सी है
उन फूलों के खिलने के लिए बेहद ज़रूरी
या कि मेरी आंखों में सूरज उगा करता है
जिसकी उजास से वो चमकते हैं
उसकी कमीज़ के फूल कभी झरते नहीं
जो झरते तो मैं सारे बटोर लाती
और उन्हें अपनी किताबों के बीच रख लेती
पर कुछ है जो झरता है उसकी आंखों से
अनकहा प्रेम हां शायद वही
और एक अनछुई गंध हवा में तैरती है
मुझे ढूँढती हुई हां ,यकीनन मुझे ही.
इंतज़ार
देह से उगती मछलियों की गंध
जीने नहीं देती
सांस तरसती सांस को
उसकी आंख में रुकी एक काली बदली
जो बरसती नहीं बस बारिश समेटे इंतज़ार करती है
उस कठोर के लौट आने का
जिस से टकराकर वो बरसने लगे
पूरा सावन
और देह पर फिर से हरी पत्तियां लगने लगे
सावन ,सावन सा हो
मछलियां देह को छोड़ कर दरिया में लौट जाएं
और उसकी मुस्कान फिर लौट आए.
जीने नहीं देती
सांस तरसती सांस को
उसकी आंख में रुकी एक काली बदली
जो बरसती नहीं बस बारिश समेटे इंतज़ार करती है
उस कठोर के लौट आने का
जिस से टकराकर वो बरसने लगे
पूरा सावन
और देह पर फिर से हरी पत्तियां लगने लगे
सावन ,सावन सा हो
मछलियां देह को छोड़ कर दरिया में लौट जाएं
और उसकी मुस्कान फिर लौट आए.
तुम्हारा दिल
एक रोज़ बैठकर बंटवारा करना है तुमसे
वो जो मेरी गर्दन के थोड़ा नीचे
एक भूराऔर एक काला तिल है
उसके बदले मुझे तुम्हारे सीने पे
जो काला तिल है वह चाहिए
मेरी ठंडी हथेलियों के बदले में
तुम्हारे हाथों की गर्मी चाहिए
ऐसा करो मेरी मुस्कान तुम ले लेना
मुझे ,तुम्हारी आंखों की सुनहरी चमक दे देना
तुम्हारी बदमाशियों के बदले
मेरी मासूमियत तुम रख लेना
तुम्हारी खामोशियों के बदले
मेरी अनगिनत बातें तुम रख लेना
आखिर में बस एक चीज
ज़िंदा
हर पल सीने में धड़कती
मुझे मेरे दिल के बदले तुम्हारा दिल चाहिए
बस वही चाहिए और हमेशा के लिए.
मुझे मेरे दिल के बदले तुम्हारा दिल चाहिए
बस वही चाहिए और हमेशा के लिए.
औरत : भीतर से एक चिड़िया
उड़ना बगैर पंखों के
सुंदर कल्पना है ना
एक सच सौ फ़ीसदी ख़ूबसूरत सच
हर औरत भीतर से एक चिड़िया होती है
क्या लोग जानते हैं..
शायद जानते हैं पर मानते नहीं
वो एक लंबी उड़ान भरती है
ख्वाहिशों के पंखों से
वह उड़ती है उम्मीदों से.. हौसलों से
ख्वाबों के हसीन पंख लगा
करोड़ों प्रकाश वर्ष की दूरियों को पल में नाप
दूधिया आकाशगंगा में विचरती
तारों और उल्का पिंडों को छूती
चांद को गैंद सा हवा में उछाल
फिर लौट आती है धरती पर
सुबह होने के ठीक आधे पर पहले
और उठकर चाय के पतीले में पानी उबालने लगती है
पत्ती के धूसर
उज्ज्वल तिवारी
(४ अगस्त १९७५)
जोधपुर
uzzwaltiwari75@gmail.com
समझ में नहीं आ रहा कि पेंटिग की प्रशंसा करूं कि कविताओं की. बहरहाल दोनों की जुगलबंदी जादुई है. यह पोस्ट खुद किसी प्रेम जैसा है. कवि, पेंटर और संपादक को बधाई.
जवाब देंहटाएंउज़्ज़वल को मैं पढ़ चुकी हूं। मेरी प्रिय है वो। बहुत अच्छा लिखती हैं आगे भी लिखती रहेंगी। बहुत सारी शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (१९ -११ -२०१९ ) को "फूटनीति का रंग" (चर्चा अंक-३५२४) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
बहुत बढ़िया कविताएँ हैं। प्रेम पर बहुत कम पुरूष कवि लिख रहे हैं, उज्ज्वल उन कम में से एक हैं। प्रेम इनके यहाँ अमूर्त नही होता, मूर्त होता है, कल्पना भी आसपास की ही होती है।
जवाब देंहटाएंराज बोहरे
अद्भुत कविताएँ - पढ़ते समय मानों साँसें रुकने लगीं, क्या खूब कविताएँ हैं
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविताएं हैं।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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