अग्‍नि‍लीक : हृषीकेश सुलभ




हृषीकेश सुलभ की आवाजाही रंगमंच और कथा-लेखन के बीच रही है. नाट्य लेखन के साथ उन्होंने कुछ प्रसिद्ध कृतियों का नाट्य रूपांतरण भी रचा है. तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हैं. दीर्घ लेखकीय तैयारी और अपने विस्तृत अनुभव के साथ वह अब अपने पहले उपन्यास ‘अग्‍नि‍लीक’ के साथ समक्ष हैं. यह उपन्यास राजकमल ने प्रकाशित किया है और अब पाठकों के लिए उपलब्ध होने जा रहा है. उम्मीद है इसे चाव से पढ़ा जाएगा.


इस उपन्यास का एक अंश आपके लिए.  



उपन्‍यास अंश
अग्‍नि‍लीक
हृषीकेश सुलभ 
     




     

गुल बानो पैर झटकते हुए तेज़-तेज़ चल रही थी. इस बार उसने रास्ता बदल दिया था. छोटी राह पकड़ी थी. देवली का किनारा छोड़ कर बीच गाँव को पार करती हुई रौज़ा के किनारे वाली राह. जैसे ही वह उस भूतहे पाकड़ के पेड़ के नीचे पहुँची एकबारगी उसकी रूह काँप उठी. उससे सीधे तो किसी ने कुछ नहीं कहा था, पर कनफुसियाँ छिपती हैं भला! देर-सबेर बातें पसर ही जाती हैं चारों ओर. लोग कहते हैं कि इसी पेड़ पर उसका आदमी भूत बन कर रहता है. गुल बानो ने अपने मन को थिर किया. एक गहरी साँस लेकर कलेजे की चाल को सम्भालने की कोशिश की और आँखें ऊपर उठा कर पाकड़ पेड़ की ओर देखा. सोचा, भूत ही सही, पर काश दिख जाता उसका मरद. दिख जाता तो पूछती उससे कि कौन कसूरे इस तरह उसे छोड़ गया?

पाकड़ के बूढ़े-सयाने पेड़ की गझिन डालों-टहनियों पर उसकी आँखें शमशेर साँई की आत्मा को टेर रही थीं. पाकड़ की डालें और टहनियाँ धुनकी की ताँत बनी हवा को धुन रही थीं. रूई की तरह हल्की होकर हवा ऊपर उठ रही थी. पाकड़ पेड़ के पात झूल रहे थे. गुल बानो ने गुहार लगाई – ‘’या अल्ला......!’’
     
गुल बानो आगे बढ़ी. कुछ कदम चलने के बाद पीछे मुड़ कर दुआ माँगती नज़रों से फिर देखा बूढ़े पाकड़ को. मन ही मन अरज किया कि अगर सचमुच भूत बन कर ही रह रहा हो मेरा आदमी, तो उस पर रहम करना.

कातिक के चन्द्रमा की उजास बरस रही थी. चमक रहे थे पाकड़ के हौले-हौले झूमते चिकने पात. गुल बानो ने रौज़ा के किनारे हाल में बनी चहारदिवारी वाली राह पकड़ ली. यह राह आगे जाकर दायीं ओर मुड़ती और टोटहा टोला होते हुए दुधही पोखर के भीट से गुज़रती. गुल बानो ने टोटहा टोला पार किया. दुधही पोखर आया. दुधही पोखर के भीट के उस पार था था मनरौली. गुल बानो लम्बे-लम्बे डेग भर रही थी. उसे घर पहुँचने की जल्दी थी. उसके साथ-साथ चन्द्रमा माथ ऊपर चल रहा था. जैसे ही वह दुधही पोखर के भीट पर चढ़ी, उसके माथ से उतर कर चन्द्रमा पोखर के जल में तैरने लगा. वह भीट पर चलती रही और चन्द्रमा तैरते हुए साथ चलता रहा. मनरौली आया. फिर अंसारियों का टोला बीता. आम और कटहल के पेड़ों की घनी क़तारें पीछे छूटीं. साँई टोला आया. बूढ़े साहेब साँई कथरी ओढ़े उसकी बाट जोहते हुए दुआर पर खड़े मिले. नौशेर भी जगा था. पलानी से उसके खाँसने की आवाज़ आ रही थी. हाथ में लालटेन लिए मुन्नी बी पक्के दीवारों वाली कोठरी के दरवाज़े पर खड़ी थी. 
     
गुल बानो सबसे पहले पलानी में घुसी. गायों और बछियों को चारा-पानी देने के बाद मुन्नी बी ने उन्हें पलानी के भीतर खूँटे से बाँध दिया था. गुल बानो के आने की आहट पाकर पहिलकी रँभाने लगी और नयकी ने गरदन में बँघी घंटिया बजा कर उसका स्वागत किया. दोनों बछियाँ औचक उठ कर उछल-कूद करने लगीं. लगा, खूँटे में बँधा पगहा तोड़ देंगी. गुल बानो उनके पास गई. उनका माथा, थूथना सहलाती रही. .......उसी पलानी में एक ओर खाट डाल कर नौशेर सोया था. पलानी में गाँजे की गंध भरी थी. बाहर निकल कर उसने मुन्नी बी से पूछा – 

"दोनों को रोटी.....?"
हूँ, .......खिला दिया था.‘’ मुन्नी बी बोली.
और तुम?’’‘‘
“तुम्हरे बिना कइसे खा लेती?’’ 

जवाब दे कर मुन्नी बी रोटी परोसने के उपक्रम में लगी.
रोटी खाते हुए मुन्नी बी ने कहा, ‘’तुम्हरा देवर तो बड़ा रसिया है.‘’
चौंक उठी गुल बानो. "का हुआ? ......कुछ कह रहा था का?’’
हूँ, .......रोटी लेकर गई तो हाथ पकड़ कर खाट पर बैठाना चाह रहा था. बोला, ......."अगर इस घर में रहना है तो निकाह कर लो हमसे."
      
"गँजहे हरामी को जवानी का जोम चढ़ा हुआ है. ......सूअर का पिल्ला. ......थरिया काहे नहीं पटक दिया लँगड़े के कपार पर? .......सारी गरमी झड़ जाती." 
गुल बानो आग उगल रही थी. उसकी रोटी का स्वाद बिगड़ गया था. मुन्नी बी सिर झुकाए, .....बिना कुछ बोले रोटी चबाने में लगी थी. 
     
सामने की पक्की कोठरी में साहेब साँई सोए थे. रोटी खाकर दोनों पीछे फूस की छाजन वाली कोठरी में सोने चली गईं. नौशेर को गालियाँ देती, .......बड़बड़ करती दिन भर की थकी-माँदी गुल बानो बिस्तर पर गिरी, तो गिरते ही नींद ने उसे दबोच लिया. ........पर मुन्नी बी की आँखों की नींद नौशेर ने उड़ा दी थी. वह करवटें बदल रही थी. .......कहँवा जाए? .......का करे? छोटी उम्र से ही उसकी यह देह उसके लिए विपत का पहाड़ बनी रही. अब जब उसकी यह ज़िन्दगी उसके किसी काम की न रही, तब भी यह देह मुसीबत बनी साथ लगी है. दस दिन होने को आए उसे अकरम अंसारी के घर से निकले हुए. इन दस दिनों में क्या अकरम को इस बारे में ख़बर न हुई होगी! दो-चार दिन आँतर देकर कोई न कोई उससे मिलने जेल जाता ही है. 

सारे जवार को ख़बर है कि नाज़ बेगम ने उसे घर से बेआबरू करके निकाल बाहर किया है और अकरम को यह बात पता नहीं! .......कैसे मान ले वह कि अकरम को कुछ नहीं मालूम! वह चाहता तो जेल से ही सारा कुछ पलक झपकते बदल देता. नाज़ बेगम को अपना ही थूका हुआ चाटना पड़ता. नाज़ बेगम की ऐसी औक़ात नहीं कि अकरम के हुकुम की अनदेखी कर सकें. अकरम अंसारी की चुप्पी में बहुत कुछ ऐसा शामिल था, जिसे पिछले कुछ दिनों से मुन्नी बी महसूस कर रही थी.

मुन्नी बी तड़प रही थी. जिसने उसका सब कुछ लूट लिया या जिस पर उसने अपना सब कुछ लुटा दिया, जब उसने ही आँखें फेर ली तो वह इस देह का क्या करे! .......अब इसे नौशेर साँई नोचे या कुकुर-सियार, मुन्नी बी को कोई फ़िकर नहीं. अगर वह लँगड़ू नौशेर साँई से निकाह कर इस घर में बैठ जाए तो कैसा लगेगा अकरम को? .......जिस शमशेर साँई की हत्या के चलते वह आज जेल में बन्द है, उसी शमशेर के छोटे भाई की ब्याहता बन इस घर में उसके बैठ जाने से सारे गाँव-जवार में अकरम की थू-थू हो जाएगी. .......मुन्नी बी की साँस उखड़ रही थी. हाँफ रही थी वह. मुन्नी बी उठी. सामने रखे काँसे के बड़े लोटे में पानी भरा था. उसने लोटा उठा कर मुँह से लगा लिया और गटगट करती हुई सारा पानी पी गई. पानी की एक पतली धार चू कर उसके गरदन से होती हुई उसकी छातियों के बीच से नीचे उतरी और उसे सिहरा गई. उसकी आँखों के सामने नाज़ बेगम की सूरत नाच रही थी. बुदबुदायी वह – 
"रख तू अपने ख़सम को अपने आँचर के खूँट में बाँध कर. पागल न बना दिया अकरमवा को तो असल की औलाद नहीं. किसी काम का न रह जाएगा वो. कचहरी में जाकर गवाही दूँगी कि तेरे मरद ने ही साँई का कतल किया."   

मुन्नी बी बाहर निकली. गुल बानो गहरी नींद में थी. आँगन में आकर आसमान की ओर देखा. चन्द्रमा जा चुका था और उसके उजियारे की चमक मिट चुकी थी. अँधियारा पसर चुका था. मुन्नी बी ने आँगन पार किया. पक्की कोठरी में घुसी. बूढ़े साहेब साँई की नाक बज रही थी. वे गहरी नींद में थे. वह कोठरी से बाहर निकली और एक झटके से सहन पार कर पलानी में घुस गई.

नौशेर साँई भी गहरी नींद में था. पशुओं में हल्की हरकत हुई, पर चारों अपने-अपने खूँटों में बँधी रहीं. मुन्नी बी हौले पाँव नौशेर साँई की खाट के पास पहुँची. पलानी में भी अँधियारा भरा था. नौशेर साँई का मुँह कथरी से ढँका हुआ था. मुन्नी बी ने उसके चेहरे से कथरी हटा दी. नौशेर साँई की आँख खुली. मारे डर के वह चीख़ने ही वाला था कि मुन्नी बी ने उसका मुँह बन्द कर दिया. पहले तो कुछ देर नौशेर की घिघ्घी बँधी रही. वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे! जब मुन्नी बी खाट की पाटी पर बैठ गई, तब उसकी उखड़ी हुई साँस थमी. टूटती हुई आवाज़ में नौशेर साँई बोला – ‘’मुन्नी बी.....’’   


“उठ कर बैठ और मेरी बात सुन"  मुन्नी बी की फुसफुसाहट भरी आवाज़ में घन की चोट जैसी धमक थी. "कल हमारे सामने अपनी भौजी से बोल कि तू निकाह करना चाहता है. हामी भर दूँगी. पर एक बात सोच ले कि अगर गुल बानो ने ना की तो भी तुझे निकाह के लिए राज़ी होना पड़ेगा. हमारे हामी भरने के बाद हर हाल में निकाह के लिए तैयार हो तबहीं आगे बढ़ियो."
     

नौशेर साँई को जवाब देने की मोहलत दिए बिना पलानी से बाहर निकल गई मुन्नी बी. वह भौंचक बैठा था. उसकी पतली, .......सूखी हुई छोटी वाली टाँग बिस्तर पर थी और दूसरी खाट से नीचे लटकी थी. खाट के सिरहाने वाले पावे से टिकी बैसाखी नीचे गिरी हुई थी. हथिया नक्षत्र की बारिश की तरह मुन्नी बी आँधी-पानी-बिजली सब एक साथ लिये आयी और नौशेर साँई को झकझोर कर चली गई. उसे काठ मार गया था. वह उलझा हुआ था कि यह सब सपना था या हक़ीक़त! मुन्नी बी उससे निकाह को राज़ी हो जाएगी, यह तो उसके लिए कभी न पूरा होने वाला सपना ही था, पर..... 
     
नौशेर साँई ने झुक कर टटोलते हुए अपनी बैसाखी उठा ली और खाट से नीचे उतरा. पलानी से बाहर निकल कर सहन में आया. आसमान की ओर मुँह उठा कर देखा. भोर का तारा शुकवा उग आया था. अब भोर होने ही वाली थी. पहली बार, ........हाँ पहली बार नौशेर साँई की ज़िन्दगी में भोर हो रही थी. पूरे ज़िला-जवार में जिसका रुतबा था, ऐसे आदमी का भाई होते हुए भी वह बाँड़े की तरह जी रहा था अब तक. भाई चला गया, पर उसके लिए कुछ न कर सका. बाप की कोई औक़ात ही नहीं कि वह कुछ कर सके. नौशेर ने दोनों हाथ ऊपर उठा कर अल्ला मियाँ का शुक्रिया अदा किया. अपनी ज़िन्दगी में पहली बार उसका अल्ला मियाँ से सम्वाद हुआ और इसके साक्षी बने आसमान के तारे.
     
दिन चढ़े तक सोने वाला नौशेर साँई पौ फटने से पहले सँपही किनारे पहुँचा. सँपही की ओर जाते हुए उसका जी कर रहा था अपनी बैसाखी फेंक कर नीचे तक दौड़ लगाए, पर यह बैसाखी तो मउअत के दिन ही छूटने वाली थी. मन मसोस कर रह गया वह. ......फिर उसका जी किया कि नाच-नाच कर कोई गीत गाए. नाच पाना तो मुश्किल था, पर गा तो सकता ही था वह. अभी भोर होने वाली थी. सारी धरती को अँजोर से भर देने वाले सूरज के उगने से पहले स्वागत में नौशेर साँई ने गाना शुरु किया "मिस कौल मारत बाड़ू किस देबू का हो....‘’ 
     
नौशेर साँई की उल्लसित भोंडी आवाज़ दसों दिशाओं की ओर प्रक्षेपास्त्रों की तरह छूट रही थी. सुबह से पहले की नीरवता को अपनी उत्फुल्लता से हिंड़ोर रहा था नौशेर साँई. उसकी आवाज़ जाकर टकराई साँई टोला के पेड़ों से और पेड़ों पर बैठे पंछी उड़े, .......जाकर छपाक-छपाक गिरती रही उसकी आवाज़ सँपही के पेट में और लहरें उठने लगीं. अद्भुत दृश्य था. .......बहुत दिनों से नौशेर मोबाइल ख़रीदना चाह रहा था, पर ख़रीद नहीं पा रहा था. सोचा उसने कि अब हर हाल में ख़रीद लेगा. देवली के फत्ते मियाँ की दुकान पर कई बार जाकर वह देख आया है. चायनीज मोबाइल. कम पैसे में बड़ा मोबाइल और आवाज़ भी टनटन. वह किश्तें जमा कर रहा है. बस निकाह हो जाए. बाक़ी पैसे मिला कर ले लेगा. फिर तो मुन्नी बी को पास बैठा कर उसे मोबाइल में फिलिम दिखाएगा.   
     
गुल बानो जागी. देखा, मुन्नी बी पहले से जागी हुई है. घुटनों में मुँह गोते बैठी है. पूछा – "बहुत सवेरे जाग गई? रात भर सोयी नहीं क्या?"
     
मुन्नी बी ने कोई जवाब नहीं दिया. रात भर की जागी अपनी थकी, कातर और लाल हुई आँखों से गुल बानो की ओर देखा. 
     
"नींद नहीं आती होगी तुमको. गुदड़ी-कथरी ओढ़-बिछा कर, .......फूस के घर में सोने की आदत नहीं होगी. पर का करोगी, सब नसीब का खेल है. अब तो. " गुल बानो ने समझाने की कोशिश की. 
     
मुन्नी बी मौन रही. बस निहारती रही गुल बानो को. गुल बानो ने उठते हुए कहा – ‘’चलो! .....निकलो जल्दी. मरदों की आवाजाही से पहले निबटना भी तो है.‘’‘‘
     
दोनों शौच के लिए साथ निकलीं. जबसे मुन्नी बी आयी है, दोनों साथ ही जातीं और साथ लौटतीं. गुल बानो अगर साथ न रहे तो टोला की औरतें अपनी बोली-ठोली से मुन्नी बी का कलेजा ही छेद दें. मुन्नी बी को सरपंच अकरम अंसारी के विशाल मकान की तीसरी मंज़िल पर बने गुस्लख़ाने की आदत थी, पर अब कोई दूसरा उपाय भी तो नहीं था. बिना नाक-भौं सिकोड़े वह अपनी आदतें बदल रही थी. ज़िन्दगी के इस रंग से वह अपरिचित नहीं थी, पर फिर से इस रंग में अपने को रँगना आसान भी नहीं था.
     
गुल बानो और मुन्नी बी जैसे ही ढलान से नीचे उतरीं, ज़मीन पर बैठे नौशेर साँई की पीठ दिखी. दूरी थोड़ी कम हुई तो साफ़-साफ़ पता चला कि नौशेर बैठा है. बगल में बैसाखी पड़ी थी. गवनई के बाद अपने सपनों में विभोर बैठ कर आसमान निहारते नौशेर साँई की छटा से सँपही के तट का वातावरण कुछ बदला-बदला सा था. ......गुल बानो को अचम्भा हुआ. भोरे-भिनसारे नौशेर सँपही के किनारे! ऐसा आलसी कि इतनी सुबह जन्नत जाना हो, तो न उठे. इस समय तो वह खाट पर चित पड़े-पड़े अपनी नाक बजाया करता है. आज यह अनहोनी कैसे हो गई?
     
नौशेर साँई को आभास हुआ कि कोई उसकी ओर आ रहा है. उसे मालूम था कि यह औरतों के निकलने का समय है. उसने बैसाखी उठा कर टेक लगाई और उठ खड़ा हुआ. देखा, सामने से उसकी भौजाई और मुन्नी बी चली आ रही हैं. दोनों थोड़ी दूरी बनाती हुई ढलान से नीचे उतर कर आगे निकल गईं. अब उन दोनों की पीठ दिख रही थी. नौशेर साँई उनके ओझल होने तक मुन्नी बी की पीठ निहारता रहा. फिर वह पीछे मुड़ा. ढलान के ऊपर चढ़ने लगा. आज उसकी पतली-सूखी बेजान टाँग भी ज़मीन पर टिकना चाह रही थी. वह तेज़ -तेज़ चलना चाहता था. 
     
नौशेर साँई अपने घर की ओर बढ़ रहा था कि राह में साहेब साँई मिले. वह दोनों गायों और बछियों को नाँद पर बाँध कर, ........चारा-पानी देकर आ रहे थे. जब वह पलानी में घुसे तो नौशेर अपनी खाट पर नहीं था. उन्होंने सोचा, ठंड लग रही होगी, तो भीतर जाकर सो गया होगा. .......पर उसे आते हुए देख कर वह भी अचम्भित हुए, पर न कुछ कहा, न कुछ पूछा. आगे निकल गए साहेब साँई और नौशेर घर लौटा. गाँजा की पुड़िया निकाल कर रगड़ा. साफ़ी को पानी में भींगो कर गीला किया. कउड़ा की आग में रस्सी की गाँठ बना कर आग तैयार किया और बैठ गया दम मारने. चिलम की आग में लौ फूट पड़ी. इस लौ के प्रकाश में दिप-दिप दमक उठा नौशेर का चेहरा.
     
गुल बानो और मुन्नी बी घर लौटीं. सूरज चमक रहा था. कनक रंग के धूप के पाखी फुदक रहे थे. नौशेर साँई पलानी से अपनी खाट बाहर खींच लाया था और धूप में बिछा कर बैठा हुआ था. उसकी नज़रें मुन्नी बी का पीछा कर रही थीं और वह गुल बानो से नज़रें चुरा रहा था. मुन्नी बी आँगन में नाबदान के पास बरतन माँजने बैठी तो गुल बानो ने उसे रोक दिया. बोली – 
"देखो, तुम्हारी आदत नहीं है बरतन माँजने की, सो यह हमारे जिम्मे ही छोड़ दो. रोटी पका दिया करो. तुम्हारी पकायी रोटी के आगे अब मेरी पकायी रोटी बुढ़ऊ को अच्छी नहीं लगती. दाल-तरकारी का भी सुआद बदल गया है तुम्हारा हाथ लगने से. तुम खाना भले पका दिया करो, पर बरतन-बासन मेरे जिम्मे छोड़ दो."   

बोलती रही गुल बानो, पर मुन्नी बी ने बरतन माँजना नहीं छोड़ा. वह अपने को तैयार कर चुकी थी कि जब इसी घर में रहना है तो किस-किस काम से बचेगी वह! कुछ देर बिलम कर गुल बानो उसे एक टक निहारती रही और उसे वह सब करने दिया, जो वह कर रही थी. 
     
गायों के दूहे जाने का समय हो चुका था. गुल बानो ने नयकी गाय के पिछले पैरों में छान लगाया. पुरनकी को छान लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी. पहले बछिया को खोल कर थन चूसने दिया. फिर बाल्टी लेकर दूहने चली. पुरनकी गाय पिछले हफ़्ते गरम हुई और फिर गाभिन हो गई थी. उसका दूध अब सूखने लगा था. दोनो बखत मिला कर घर के लोगों के खाने भर जितना. बाक़ी दूध जवान हो रही उसकी बछिया के लिए थन में ही छोड़ देती. ठीक जून पर रेशमा ने मदद की थी गाय भिजवा कर. कल रात रेशमा के घर जाते हुए दूध ले जाना बिसर गई थी गुल बानो. सोचा था, पर जाने के समय बात बिसर गई. नयकी के पास भरपूर दूध था. दोनो बखत का मिला कर चार या साढ़े चार सौ रूपए की पर्ची रोज़ मिल जाती थी. इनके दाना-पानी में खर्च करके जो भी बचता, गुल बानो उसे सहेजने लगी थी.     
  
घर का सारा काम-काज मुन्नी बी के भरोसे छोड़ कर गुल बानो दूध लेकर सेन्टर भागी. कल साँझ का दूध भी पड़ा था. देर होने पर साँझ का दूध फटने का डर बना रहता था. गर्मियों में तो रात भर दूध का टिकना मुश्किल था. साँझ होते दूध दूह कर सेन्टर भागना पड़ता था. सेन्टर पास ही था. टोटहा टोला के इसी किनारे पर. पहले जब केवल देवली बाज़ार पर सेन्टर था, वह दूध देने कभी नहीं जा सकी. हरिजन टोला होने के कारण सरकारी डेयरी वालों को टोटहा में नया सेन्टर खोलना पड़ा. यह सेन्टर खुलने के बाद टोटहा और मनरौली के लोगों को बहुत सुभीता हो गया था.      

गुल बानो के लौटने तक मुन्नी बी ने बरतन-बासन साफ करने और झाड़ू-बुहारन का काम निबटा लिया था. वह चूल्हे की आँच पर दाल चढ़ा कर रोटियों के लिए आटा गूँधने-माँड़ने में लगी हुई थी. उसका गोरा चेहरा लाल भभूका हो रहा था. आटा गूँधती हुई कभी वह चेहरे पर गिरती लटों को सम्भालती, तो कभी चूल्हे की आँच में लकड़ी डालती. सामने खड़ी गुल बानो उसे निहार रही थी, ........एकटक. उसके मन में आँधी चल रही थी. ......अकरम अंसारी के घर राज-पाट भोगने के बाद ऐसे दिन काटना आसान नहीं था. मनरौली की हों या देवली की या फिर किसी गाँव की, जिन-जिन औरतों की बदचलनी के क़िस्से मशहूर थे, वे सब की सब क़िस्मत की मारी और नरम दिल ही मिलीं गुल बानो को. .....और वे जो चौबीसों घन्टे अपने आदमी के नाम की तस्बीह लिये फिरती थीं और नाक पर मक्खी तक न बैठने देती थीं, कठकरेज मिलीं. रेशमा के बारे में क़िस्से ही क़िस्से थे. 

जितनी ज़ुबानें, उतने क़िस्से, पर रेशमा थी रेशम-सी मुलायम. ....और अब इसे देखे कोई कि कैसे बिना अपना सिर धुने, .......बिना किसी लाज या ठस्से के कैसे घुल-मिल कर जी रही है! किसी पौधे की लतर माफ़िक़ पसरती जा रही है समूचे घर-आँगन में. ......और नाज़ बेगम को देखो भला कि अपने ख़सम को क़ाबू में न रख सकी तब तो मुन्नी बी जा बैठी. हरजाई ने जवान औरत को घर से बाहर निकाल कर दर-ब-दर भटकने के लिए छोड़ दिया. घर निकाला करना ज़रूरी था क्या? पड़ी रहने देती किसी कोने में. दो रोटी और उतरन कपड़े ही फेंक देती. गुल बानो का जी भारी हो आया. छाती में कुछ बहुत ज़ोर से उमड़ा-घुमड़ा. जैसे हूल उठ रही हो वैसे कलेजे में कोई गोला तेज़ी से घिरनी की तरह नाचते हुए ऊपर उठा और सारी देह में पसर गया. उसकी आँखें नम हो आयीं.
     
चूल्हा आँगन में था. आँगन की नरम धूप हवा के हल्के झोंकों से खेल रही थी. आँगन में ही पक्की कोठरी की दीवार के सहारे पीठ टिकाए नौशेर साँई खाट पर बैठा था. उसकी ओर गुल बानो की पीठ थी और सामने था चकले पर रोटी बेलती.... तवे पर सेंक कर चूल्हे की धधकती आँच पर रोटी फुलाती मुन्नी बी का चेहरा. गुल बानो पीछे मुड़ी. उससे नज़रे मिलते ही नौशेर साँई झिझका. गुल बानो ने एक नज़र मुन्नी बी की तरफ़ देखा. वह उलझन में थी. उसने नौशेर से पूछा – 
"तुम हिंया बैठ कर का कर रहे हो? नादान समझ रहे हो का हमको? तुम्हारा सब खेल बूझ रहे हैं छोटके साँई. ......जब से आयी है तुम इसके पीछे लसलसाए फिर रहे हो. सम्हारो अपने को."
     
ब्याह कर आने के समय से ही गुल बानो अपने आदमी शमशेर को बड़के साँई और नौशेर को
छोटके साँई पुकारती आ रही थी. नौशेर साँई पहले तो सकपकाया, ......फिर ढीठ की तरह गुल बानो की आँखों में आँखें डाल कर देखते हुए बोला – 
"हम इससे निकाह करेंगे. ......किस बूते रहेगी ये इस घर में? कौन लगती है तेरी? .....बोल? बहिन है तेरी कि फूफी है तेरी? .....बता?’’     
’’जबरन निकाह करेगा काइतना रुतबा था तेरे भाई का जिला-जवार मेंजबर आदमी था, पर उसने कभियो किसी औरत के साथ जियादती नहीं की. जबह भले किया होगा लोगों को? पर कौनो औरत की कानी अँगुरी तक नहीं छुआ होगा उसने. और तू मुसीबत की मारी अपने घर आयी बेवा के साथ निकाह के लिए जबरदस्ती करेगा?"     
"पहले पूछ उससे. वह राजी है या नहीं?  राजी न हुई तो कसम से उसकी ओर देखेंगे भी नहीं हम. आँख में अकवन का दूध डाल कर आन्हर हो जाएँगे. अल्ला मियाँ ने लाँगड़ बनाया और तेरे चलते आन्हर हो जाएँगे. करती रहना मेरा गू-मूत."


नौशेर साँई हाँफ रहा था. उसकी साँस धौंकनी की तरह चल रही थी. उत्तेजना में एक हाथ से वह अपनी बेजान टाँग को थपथपा रहा था और दीवार से टिकी अपनी पीठ रगड़ रहा था.
     
गुल बानो कभी नौशेर साँई को देख रही थी, तो कभी मुन्नी बी को. इस पूरे मुआमले से निस्पृह मुन्नी बी सिर झुकाए रोटियाँ बेलने, सेंकने और उन्हें फुला कर रखते जाने में तन्मयता से लगी हुई थी. चार लोगों के लिए पच्चीस से ज़्यादा रोटियाँ बनती थीं. गुल बानो ने आवाज़ दी – "मुन्नी बी!"
     
मुन्नी बी ने आँखें उठा कर देखा. चूल्हे की आग की ताप से गोरा चेहरा लाल भभूका हो रहा था. आँखें लाल. आँखों की इस लाली में गुस्सा था या दुःख था, गुल बानो की समझ से परे था यह सब. हया तो नहीं ही थी.   

’’बोलो मुन्नी बी. इस हरामी को जवाब दो." गुल बानो की ललकारती हुई आवाज़ के जवाब में मुन्नी बी की धीमी, पर ठोस आवाज़ उभरी – 
‘’कवनो ठौर तो चाहिए. जिनगी काटने के लिए कोई घर तो चाहिए. कहिया तक तुम्हारे भरोसे चलेगी जिनगीनिकाह किया होता अकरम ने तो आज बेसहारा तो न होती!"
     
’’तो?’’‘गुल बानो की आवाज़ थरथरा रही थी.  
"राजी हैं हम.‘’ एक-एक शब्द तौल कर बोली मुन्नी बी.     
’’या अल्ला!....’’ थसकिया मार कर धम्म से आँगन में बैठ गई गुल बानो. उसे लगा, भूडोल आ गया.
     
गुल बानो का सिर चकरा रहा था. फिर उसका कलेजा हौलने लगा. धरती पर पसरी उसकी दोनों टाँगें थरथरा रही थीं. आँखें अर्द्ध उन्मीलित थीं. बीच आँगन में माटी के ढेले की तरह लगभग संज्ञाशून्य पड़ी थी गुल बानो. 
     
रोटियाँ सिंक चुकी थीं. दाल पक कर तैयार थी. कलछुल में ठोप भर तेल गर्म करके हरी मिर्च के साथ जब छौंक लगायी मुन्नी बी ने तो मिर्च की तेज़ गंध से गुल बानो चैतन्य हुई. स्टील की बड़ी-सी कटोरी में दाल, हरी मिर्च, प्याज और रोटियों की एक थाक परोस कर मुन्नी बी उठी और खाट पर बैठे नौशेर साँई को दे आयी. दूसरी थाली परोस कर एक लोटा पानी के साथ आँगन से बाहर निकली और धूप सेंकते साहेब साँई के सामने रख आयी. वह वापस आकर चूल्हे के पास चुपचाप बैठ गई. चूल्हे की आँच सिरा रही थी. वह सिराती आँच पर हाथ सेंकने लगी.
     
खाना खाकर थाली खाट पर रख कर नौशेर उठा. हाथ धोने के लिए बधना में पानी लिये मुन्नी बी आयी और उसका हाथ धुलवा कर वापस चूल्हे के पास बैठ गई. गुल बानो देखती रही. जाते हुए नौशेर ने गुल बानो से कहा – 
"अब तो तुमको भरोसा हो गया. देर मत करना. इसके पहले कि सारे गाँव-जवार में सौ तरह की बतकही हो, निकाह करवा दो. कौनो जवाबदारी तो है नहीं. अकरम से इसका निकाह तो हुआ नहीं था कि कोई पेंच फँसेगा."  

बैसाखी के सहारे टाँग घसीटते बाहर निकल गया था नौशेर साँई. मुन्नी बी मौन दर्शक की तरह सब देख-सुन रही थी. गुल बानो असहाय-सी नौशेर को बाहर जाते देखती रह गई थी. 
     
कुछ देर तक दोनों के बीच अबोला पसरा रहा. दोनों समझ नहीं पा रही थीं कि बात कहाँ से शुरु हो! बाहर निकल कर नौशेर ने साहेब साँई को सूचना दी कि वह मुन्नी बी से निकाह करने जा रहा है और इस निकाह के लिए मुन्नी बी ने राज़ी-ख़ुशी हामी भर दी है. .....कि गुल बानो को वे समझा-बुझा दें कि वह बीच में अड़ंगा न डाले और उसकी जिन्दगी बसने दे. साहेब साँई रोटी का टुकड़ा दाल में नरम करके चुभलाते हुए नौशेर की बात सुनते रहे. अपनी बात पूरी करके नौशेर जब आगे बढ़ा बुढ़ऊ चिल्लाए
‘’हरामखोर ! सूअर की औलाद साले, खिलाओगे कहँवा सेलाँगड़ साले, अपना जाँगर तो हिलता नहीं और निकाह के लिए लार टपक रहा है! अपना पेट तो भर नहीं सकते, जनाना किसके भरोसे रखोगे?’’   

बधना में पानी लिये मुन्नी बी आयी. गुल बानो के सामने बधना रख कर बोली – ‘’उठो! चलो, हाथ-मुँह धो लो. रोटी ठंडी हो रही है.‘’
     
’’तुम खा लो मुन्नी बी. हमारी भूख-पियास में आग लग गई.‘’
गुल बानो की असहाय आवाज़ डूब रही थी. उसने ब-मुश्किल अपनी देह को सहेजा. घुटनों पर हाथ रखती हुई उठी.
     
’’तुम्हारे खाए बिना हमारे पेट में रोटी उतरेगी? ......चलो, जितना जी करे उतना ही खा लो.‘’ 
     
’’तुम खा लो मुन्नी बी. ........या अल्ला क्या-क्या देखना बदा है नसीब में?’ कहती हुई गुल बानो चल दी. 
     
मुन्नी बी आँगन में खड़ी रही और गुल बानो भीतर जाकर बिछावन पर लेट गई. .....वह बहुत देर तक कभी इस करवट तो कभी उस करवट होती रही. वह सब कुछ सिलसिलेवार ढंग से सोचना चाह रही थी, पर उसका मन इतना अस्थिर.... डाँवाडोल था कि बातें गडमगड हो जा रही थीं. वह शमशेर के बारे में सोचती, तो बूढ़े साहेब साँई की बातें याद आतीं. दो साल पहले गुज़री अपनी बीमार सास को याद करती तो अपना हमल याद आ जाता. नौशेर के बारे में सोचती तो.......... वह कभी नानी के घर पहुँच जाती तो कभी उस बूढ़े पाकड़ पेड़ के नीचे जा खड़ी होती, जिस पर भूत बन कर शमशेर के होने की बातें लोग किया करते थे. कभी उसे अपने ऊँचे मकान की छत पर खड़ी नाज़ बेगम दिखती तो कभी बोलेरो पर सवार सरपंच अकरम अंसारी के साथ उसके बड़के साँई दिखते. गुल बानो के होंठ हिले – ‘’बड़के, ......बड़के साँई! ......कहँवा चले गए मेरे बड़के साँई?’’‘‘
     
मुन्नी बी उसके पास, .....उसके पायताने आकर बैठ गई थी. वह गुल बानो को एक टक देख रही थी. उसकी बुदबुदाहट सुन कर मुन्नी बी खिसक कर सिरहाने आयी. उसने गुल बानो के माथे पर अपनी हथेली रखी. गुल बानो का माथा तप रहा था. उसे तेज़ बुख़ार चढ़ आया था. मुन्नी बी भाग कर गई और पानी लेकर आयी. अपनी साड़ी के आँचल का छोर भींगो कर उसके माथे पर पट्टी देने लगी. थोड़ी देर में बुख़ार जब कुछ कम हुआ, वह बाहर निकली. उसकी नज़रें नौशेर साँई को ढूँढ़ रही थीं. नौशेर साँई का कहीं कोई अता-पता नहीं था. मुन्नी बी साहेब साँई के पास गई. वह चारा काट रहे थे. उन्हें गुल बानो को चढ़े बुख़ार के बारे में बताया और देवली बाज़ार जाकर दवा लाने को कहा. उनकी ज़ेब में पैसे थे नहीं. बुढ़ऊ जाने के लिए उठे ज़रूर, पर ठिठक कर चुप खड़े रहे. मुन्नी बी बिना बताए साहेब साँई की हिचकिचाहट समझ गई. वह भीतर गई. सौ रुपए का एक नोट लिये बाहर निकली और साहेब साँई को पकड़ा दिया. साहेब साँई से उसका यह पहला सम्वाद था.   

दोपहर ढल रही थी तब साहेब साँई देवली बाज़ार से बुख़ार की टिकिया लिये लौटे. मुन्नी बी बिना एक कौर अनाज मुँह में डाले गुल बानो की देख-रेख में जुटी हुई थी. उसके पास बैठी कभी उसका सिर सहलाती, तो कभी पाँव के तलुवों पर अपनी हथेलियाँ रगड़ती.

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कथाकार-नाटककार- नाट्य समीक्षक हृषीकेश सुलभ का जन्‍म 15 फ़रवरी, 1955 को बि‍हार के छपरा जनपद (अब सीवान जनपद) के लहेजी नामक गाँव में हुआ. आरम्‍भि‍क शि‍क्षा गाँव में हुई. आपकी कहानि‍याँ अग्रेज़ी सहि‍त वि‍भि‍न्‍न भारतीय भाषाओं में  अनूदि‍त-प्रकाशि‍त हो चुकी हैं.

रंगमंच से गहरे जुड़ाव के कारण कथा-लेखन के साथ-साथ आप नाट्य-लेखन की ओर उन्‍मुख हुए. आपने भि‍खारी ठाकुर की प्रसि‍द्ध नाट्यशैली बि‍देसि‍या की नाट्य-युक्‍ति‍यों का आधुनि‍क हि‍न्‍दी रंगमंच के लि‍ए पहली बार अपने नाटकों में सृजनात्‍मक प्रयोग कि‍या. वि‍गत कई वर्षों से आप कथादेश मासि‍क में रंगमंच पर नि‍यमि‍त लेखन कर रहे हैं.
आपकी प्रकाशि‍त कृति‍याँ हैं : कथा-संकलन तूती की आवाज़, जि‍समें तीन आरम्‍भि‍क कथा-संकलन पथरकट, वधस्‍थल से छलाँग और बँधा है काल शामि‍ल हैं. इसके अलावा कथा-संकलन वसंत के हत्‍यारे, हलंत और प्रति‍नि‍धि‍ कहानि‍याँ प्रकाशि‍त हैं. 
अमली, बटोही और धरती आबा तीन मौलि‍क नाटकों के साथ-साथ शूद्रक के वि‍श्‍वप्रसि‍द्ध संस्‍कृत नाटक मृच्‍छकटि‍कम् की पुनर्रचना माटीगाड़ी, फणीश्‍वरनाथ रेणु के उपन्‍यास मैला आँचल का नाट्यरूपान्‍तरण तथा रवीन्‍द्रनाथ टैगोर की कहानी दालि‍या पर आधारि‍त नाटक प्रकाशि‍त हैं. रंगमंच का जनतंत्र और रंग अरंग शीर्षक से नाट्य-चि‍न्‍तन की दो पुस्‍तकें प्रकाशि‍त हैं.

अग्‍नि‍लीक अपका पहला और अभी-अभी प्रकाशि‍त उपन्‍यास है. 
hrishikesh.sulabh@gmail.com    

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  1. बदलते गाँव की तस्वीर , भाषा और कहन में गजब की ताजगी और कथ्य के अनुरूप तराशने की क्षमता , सुलभ जी बहुत बधाई । उपन्यास की प्रतीक्षा है ।

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  2. वाह! कहानी पढ़कर कविता के रसपान-सा सुख।

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  3. विनय कुमार12 नव॰ 2019, 10:43:00 am

    Sulabhजी को बधाई ! और प्रथम उपन्यास का स्वागत!

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  4. विश्वासी एक्का13 नव॰ 2019, 7:01:00 am

    बहुत अच्छा, भाषा की कसावट, कथ्य, भाव समग्र

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  5. पंकज चौधरी13 नव॰ 2019, 11:11:00 am

    सुलभ जी को जब भी पढ़ता हूं, समृद्ध होता हूं। कथ्‍य तो कथ्‍य, वे उसकी भाषा और बुनावट पर भी पर्याप्‍त श्रम करते हैं। उनकी कहानी 'वसंत के हत्‍यारे' को मैं हिंदी की 20 सर्वश्रेष्‍ठ कहानियों में रखता हूं। रंगमंच की दुनिया में उन्‍होंने जो काम किया है उसका तो कोई सानी ही नहीं है।

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