‘खड़ी बोली’ को राष्ट्र भाषा ‘हिंदी’ बनाने के लिए जहाँ लम्बा संघर्ष किया गया वहीं अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं के साथ उसके अंतर्विरोधों से भी भरसक लड़ा गया. उपनिवेश से मुक्ति और राष्ट्रभाषा की निर्मिति का समय एक है और एक दूसरे से गुंथा हुआ है. आज़ादी के बाद भाषायी आन्दोलन के अन्तर्विरोध खुल कर सामने आ गये.
राजीव रंजन गिरि ने इस तरह के तमाम
आयामों को अपनी पुस्तक ‘परस्पर’ में समेटा है जिसकी परख कर रहें हैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शोध छात्र धीरेन्द्र प्रताप सिंह.
भाषायी विमर्श का प्रामाणिक दस्तावेज़
(परस्पर:
भाषा-साहित्य-आंदोलन)
धीरेंद्र प्रताप सिंह
धीरेंद्र प्रताप सिंह
हिन्दी पट्टी की ‘भाषाएँ’ किस तरह से ‘बोली’ में और खड़ी ‘बोली’ कैसे ‘भाषा’ में व्यवहृत हो गयी, संविधान सभा में राजभाषा को लेकर हुए भाषायी बहस में कौन-कौन सी बातें किसके-किसके द्वारा उठाई गयी, संविधान निर्माताओं ने अपने-अपने भौगौलिक क्षेत्रों में प्रचलित बोलियों और भाषाओं को राष्ट्रीय स्वरूप देने के लिए कौन-कौन से तर्क प्रस्तुत किए, हिंदी साहित्य के विकास में लघु-पत्रिकाओं की क्या भूमिका थी, उसे किन-किन संकटों से गुजरना पड़ा? इन सभी प्रश्नों का जवाब तमाम प्रामाणिक संदर्भों के माध्यम से राजीव रंजन गिरी ने अपनी पुस्तक ‘परस्पर: भाषा - साहित्य – आंदोलन’ में दिया है.
यह पुस्तक तीन अध्यायों के अंतर्गत
विभाजित है. प्रथम अध्याय में ‘उन्नीसवीं सदी में ब्रजभाषा बनाम खड़ी बोली विवाद’, दूसरे अध्याय में राष्ट्र-निर्माण, संविधान-सभा और भाषा-विमर्श’ तथा तीसरे अध्याय में ‘बीच बहस में लघु पत्रिकाएँ: आंदोलन, संरचना और प्रासंगिकता’ है. यह पुस्तकीय अध्याय समय-समय पर
लिखे गए तीन बड़े आलेखों का प्रतिफल है. यह सभी आलेख इस पुस्तक में आने के पूर्व आज
की तीन ख्यातिलब्ध पत्रिकाओं (तद्भव, वाक् और प्रतिमान) में प्रकाशित हो चुके हैं. यह पुस्तक ‘रजा पुस्तक माला: सभ्यता-समीक्षा’ प्रकाशन योजना के अंतर्गत प्रकाशित हुई
है. इस पुस्तक की भूमिका हिन्दी के मूर्धन्य और ख्यातिलब्ध कवि अशोक वाजपेयी ने
लिखी है. वाजपेयी जी इस पुस्तक के संदर्भ में लिखते हैं कि हिन्दी भाषा का विमर्श
और संघर्ष लंबा है, लेकिन
अभाग्यवश हमारा निपट वर्तमान पर आग्रह इतना इकहरा हो गया है कि उसकी परंपरा को भूल
ही जाते हैं. एक युवा चिंतनशील आलोचक ने विस्तार से इस विमर्श और संघर्ष के कई
पहलू उजागर करने की कोशिश की है और कई विवादों का विवरण भी बहुत सटीक ढंग से दिया
है.
भारत बहुभाषा-भाषी देश रहा है. आज भी
है. लेकिन हिन्दी के मुक़ाबले अङ्ग्रेज़ी भाषा के बढ़ते प्रभाव के कारण भारत की
क्षेत्रीय भाषाएँ कमजोर हुई हैं. इंटरनेट की दुनिया के बढ़ते प्रभावों से
लघु-पत्रिकाएँ बंद हो रही हैं. यह सब भाषायी अस्मिता की दृष्टि से खतरे का सूचक
है. यही कारण है कि भाषायी विमर्श पर ज़ोर दिया जा रहा है. राजीव जी अपनी पुस्तक की
भूमिका मे लिखते हैं- बहुभाषी समाज में भाषायी समस्या अपनी अस्मिता के रेखांकन का
परिणाम भी होती है. अपनी भाषायी अस्मिता के बल लोकतान्त्रिक आकांक्षा से भी पनपती
है. आधुनिकता, शहरीकरण, बढ़ते मध्यवर्ग और मीडिया के प्रसार इसके लिए ज़मीन तैयार करते हैं.
सभी भारतीय भाषाओं में उत्कृष्ट
साहित्यिक रचनाएँ हुई हैं. सभी भाषाओं को अपनी साहित्यिक रचनाओं और आपसी संवाद को
लेकर एक गर्व की अनुभूति है. इन भाषायी क्षेत्रों के लोग अपनी भाषायी अस्मिता को
लेकर काफ़ी सजग रहते हैं. सभी भाषाओं को देश की राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित होने
की आकांक्षा भी रही है. यह भय भी बना रहता है कि हमारी भाषा पर कोई अन्य भाषा
आरोपित न कर दी जाय. यही आकांक्षा और भय भाषाओं के आत्मसंघर्ष का कारण बनी. हिन्दी
को जब राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का प्रयास जब देश में शुरू हुआ तो
अहिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी को लेकर बगावती स्वर सुनाई देने लगे. भाषायी
वाद-विवाद कोई नई बात नहीं है. लेकिन इस वाद-विवाद के पीछे की भूमिका क्या रही है? इसकी पड़ताल जरूरी हो जाती है. यह पड़ताल विविध
आयामों से राजीव रंजन गिरि अपनी इस पुस्तक में करते हैं. पुस्तकीय भूमिका में ही
राजीव रंजन ठीक ही लिखते हैं कि जो बहुभाषिकता एक दौर में समृद्धि का सूचक थी, उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक आते-आते, धीरे-धीरे समस्या के तौर पर दिखने लगी.
राष्ट्रीय आंदोलन ने इसे भरसक सुलझाने की कोशिश की थी. पर तनाव की आंच मद्धिम हो
गयी, पूर्णत: बुझ नहीं पायी. यही कारण है कि
जैसे-जैसे आज़ादी निकट आयी, तनाव सामने आने लगे.
जब हम हिंदी को भाषा में सुन, देख और पढ़ रहे हैं तो यह भी जानना
चाहिए कि हिंदी भाषा पूर्व में ‘बोली’ (खड़ी
बोली) के रूप में थी और ब्रज ‘भाषा’ के
रूप में था; फिर ऐसा कैसे हो गया कि हिंदी भाषा के
रूप में प्रतिष्ठित हो गयी और ब्रज बोली के रूप में. हिंदी और जनपदीय भाषाओं और
बोलियों का आत्मसंघर्ष कब और क्यों शुरू हो गया इसकी व्यापक पड़ताल इस पुस्तक में
मिलती है. इस पुस्तक के लेखक आरंभिक बात नामक शीर्षक लेख में कहते हैं कि
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भाषाओं के बीच तनाव भरा रिश्ता हिंदी-उर्दू; और ब्रजभाषा- हिंदी (खड़ी बोली) के बीच
बना था. एक दिलचस्प बात यह भी है कि ‘भाषा’ शब्द
ब्रज के साथ जुड़ा हुआ था (है भी), जबकि ‘बोली’ शब्द इस हिंदी(खड़ी बोली) के साथ. इन
दोनों के बीच के बहस-मुबाहिसे और बदलती परिस्थितियों का नतीजा यह हुआ कि खड़ी बोली
हिन्दी साहित्य की भाषा बन गयी और ब्रजभाषा को बोली का खिताब मिला....हिन्दी नयी
परिस्थिति का सामना करने के साथ-साथ खुद को उस बदले माहौल के मुताबिक अनुकूलित कर
रही थी, इसलिए उसकी सामर्थ्य में इजाफ़ा हो रहा
था. धीरे-धीरे जहां हिन्दी की व्याप्ति बढ़ कर राष्ट्रीय फ़लक तक पहुँच गयी, वहीं ब्रजभाषा जनपद तक सिमट रह गयी.
यह सही है कि भाषा के स्तर पर
राष्ट्रीय एकता में हिन्दी केन्द्रीय भूमिका में रही है. इस हिन्दी को स्थापित और
उसके विकास में जनपदीय बोलियों और भाषाओं ने अपनी महती भूमिका निभाई. ऐसे में यह
नहीं कह सकते कि बिहारी, मगही, मैथली, राजस्थानी, भोजपुरी, अवधी, बुंदेलखंडी, बघेली या अन्य क्षेत्रीय बोलियों का कोई वजूद नहीं. आज भी गाँवों का
जन, गण, मन इन्हीं बोलियों में रचता-बसता है. फिर भी हिन्दी भाषा को स्थापित
करने में बहुत सी बोलियों को अपनी कुर्बानी भी देनी पड़ी है. आज यह बोलियाँ वजूद
में ही नहीं हैं.
हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं का
अतर्द्वंध तो सर्वविदित है; लेकिन हैरानी की बात यह है कि हिन्दी पट्टी में ही उसकी अनेक जनपदीय
बोलियों और हिन्दी भाषा के बीच आत्मसंघर्ष बना रहा. साहित्य के बाहर तो इसका स्वर
सुनाई ही पड़ रहा था लेकिन हिन्दी साहित्य की दुनिया में इसकी पहली मुखर अभिव्यक्ति
भारतेन्दु जी के निधन(1885
ई॰) और महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादकत्व में निकलने वाली पत्रिका सरस्वती(1900 ई॰) के मध्य वाले समय में हुई. इस
पंद्रह वर्ष की अवधि को हिन्दी के आलोचकों द्वारा कम महत्त्व दिया गया गया. इन
पंद्रह वर्षों को क्यों याद किया जाना चाहिए, इसका महत्त्व इसी किताब से जुड़ता है. इसी दौर में हिन्दी साहित्य का
एक मुख्य सवाल कविता की भाषा क्या हो- ब्रजभाषा या खड़ी बोली- उभरा. मुजफ्फ़रपुर
(बिहार) के अयोध्या प्रसाद खत्री ने इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया एवं आंदोलन का
रूप दिया. इस आंदोलन की शुरुआत अयोध्या प्रसाद खत्री के संपादित पुस्तक खड़ी बोली
का पद्य के पहले भाग से होती है. इस पुस्तक की भूमिका में अयोध्या प्रसाद खत्री
लिखते हैं कि मैं भाषा छंद को हिन्दी छंद नहीं मानता हूँ. सच तो यह है कि इसी आन्दोलन
के फलस्वरूप स्थितियाँ ऐसी बदलीं कि साहित्यिक भाषा(ब्रजभाषा) बोली बन गयी और बोली
(खड़ी बोली) साहित्यिक भाषा.
यह अध्याय ‘ब्रजभाषा बनाम खड़ी बोली’ के बहसोमुबाहसे को तो विस्तारपूर्वक
उद्धृत करता ही है; साथ
ही हिंदी के विविध रूपों मसलन ‘ठेठ हिंदी’, ‘पंडित
जी की हिंदी’, ‘मुंशी जी की हिंदी’, ‘मौलवी साहब की हिंदी’ और ‘यूरेशियन हिंदी’ के आपसी टकराहट को भी बयां करता है. इन सबके बीच हिंदुस्तानी भाषा
क्या थी? कौन लोग किस तरह की हिंदी के पक्षधर थे? यह अध्याय उन पक्षों पर तमाम प्रामाणिक
संदर्भों के साथ गंभीरतापूर्वक विचार करता है. इस अध्याय में चार उप-शीर्षक भी
हैं. ‘राधाचरण गोस्वामी और खड़ी बोली पद्य का
आंदोलन’, ‘राजा शिवप्रसाद और खड़ी बोली का पद्य’, ‘बालकृष्ण भट्ट और खड़ी बोली का पद्य
आंदोलन’, और ‘प्रताप नारायण मिश्र और खड़ी बोली का पद्य आंदोलन’. इन आंदोलनों के जरिये हिंदी पट्टी के
साहित्यिक और साहित्येतर वृत्त में भाषाओं और बोलियों के आत्मसंघर्ष, उनकी स्थिति, उनके तर्क और विचार परंपरा को समझा जा
सकता है.
हिंदी को राजभाषा का दर्जा यूं ही नहीं
मिला; इसे पीछे एक लंबी लड़ाई और अन्य भारतीय
भाषाओं के मज़बूत तर्कों के बीच सामंजस्य बैठाने में था. संविधान सभा में राजभाषा
क्या हो, राष्ट्र निर्माण में किस भाषा का
योगदान अधिकाधिक हो सकता है और उसका स्वरूप कैसा हो, इसको लेकर एक लंबी बहस है. इन बहसों को जानने का एक मुक्कमल प्रयास
इस पुस्तक के दूसरे अध्याय ‘राष्ट्र निर्माण , संविधान-सभा और भाषा-विमर्श’ में मिलता है. संविधान-सभा में हिंदी के संबंध में महत्त्वपूर्ण
वाद-विवाद 4 नवंबर 1948 को शुरू हुआ था. भाषा का सवाल संकट कि तरह था.
उसके आयाम विविध थे. सभी क्षेत्रों के प्रतिनिधि अपने भाषा के पक्ष और उन पर हिंदी
थोपे जाने से आशंकित और भयभीत थे. यह तो सब जानते हैं कि भाषा के आधार पर कई
राज्यों का गठन हुआ. अपनी-अपनी भाषाओं और बोलियों को लेकर जो तर्क संविधान-सभा में
प्रस्तुत किए जा रहे थे कि वह बहुत मानीखेज़ है. जिसका वर्णन इसी पुस्तक में मिलता
है.
यह अध्याय पाँच उप-शीर्षकों में विभक्त
है. ‘राष्ट्रीय भाषा का सवाल’, ‘हिन्दी पर साम्राज्यवाद का आरोप’, ‘सरलता बने कसौटी’, ‘हिन्दी एक रूप अनेक’, ‘देशी भाषा में बने विधान’, ‘राजनीति से दूर: सत्ता के पास’, ‘राष्ट्र भाषा की अग्नि परीक्षा’, ‘आख़िरी दिन- अंतिम निर्णय’, ‘अधूरे मन से सुलह’.
इन उप-शीर्षकों के अंतर्गत हिंदी को
राजभाषा का दर्जा प्रदान करते वक्त उर्दू, हिंदुस्तानी, तमिल, संस्कृत, अङ्ग्रेज़ी और आदिवासी क्षेत्रों की
भाषाओं तथा उनकी स्थिति और स्थापनाओं को लेकर जो बहसें हुईं, वो बख़ूबी दर्ज़ है. इस अध्याय की अंतिम
बात उल्लेखनीय है कि ‘राष्ट्रभाषा’ से ‘राजभाषा’ की
यात्रा में न तो हिंदी समर्थकों की बात मानी गयी और न ही विरोधियों की. असफल ‘हिंदुस्तानी’ के पक्षधर भी हुए. सफ़ल हुआ, तत्कालीन अङ्ग्रेज़ीदाँ तबक़ा. इस वर्ग
की कामनाएँ, बड़े हद तक, पूरी हो गईं. दिलचस्प बात है कि फ़्रेंक
एंथनी को छोड़ दें तो इस तबक़े ने भाषाओं की सूची में ‘अंग्रेजी’ का नाम रखा जाय, इसकी कोशिश तक नहीं की. पर, वह सब हासिल करा लिया, जो चाहिए था. संविधान-सभा में सभी
भारतीय भाषाएँ हारीं, विजयश्री
तिलक अंग्रेजी के ललाट पर लगा.
हिंदी साहित्य की दुनिया लघु-पत्रिकाओं
के मार्ग से ही होकर गुजरती रही है. लघु-पत्रिकाएँ ही साहित्यिक हलचलों और
गतिविधियों को दर्ज़ करती है. साठ और सत्तर के दशक में तो लघु-पत्रिकाओं के विविध
और विस्तृत रूप का परिचय मिलता है.नब्बे के दशक में उभरे सांस्कृतिक आंदोलनों को
गति और उसे एक संस्थानिक रूप देने में लघु-पत्रिकाओं ने अपनी महती भूमिका का
निर्वहन किया.
लघु पत्रिका किसे कहते हैं और इसका
स्वरूप कैसा होता है यह भी कम महत्वपूर्ण बात नहीं है. ‘परिभाषा के प्रश्न’ शीर्षक में बतौर लेखक हिंदी में
लघु-पत्रिका का मतलब लघु आकार, प्रसार का लघु दायरा और प्रकशन की लघु संरचना तो है ही, ख़ास तरह की चेतना से लैस प्रतिरोध की
ज़मीन तैयार करने का सांस्कृतिक-राजनीतिक मर्म भी, इन पत्रिकाओं को, व्यावसायिक पत्रिकाओं से अलग करता है. ख़ुद को लघु-पत्रिका या लिटिल
मैगज़ीन कहने वाले प्रकाशनों की शुरुआत द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान फ्रांस के
रजिस्टेंस समूह से मानी जाती है. ज्यां पॉल सार्त्र जैसी हस्तियाँ इसमें शामिल
थीं.
हिंदुस्तान में ख़ासकर हिंदी पट्टी में
लघु-पत्रिका में लघु नाम से आपत्ति थी. उन्नीसवीं सदी या उसके उपरांत जिन लेखकों
ने अपनी पत्रिका निकाली, उन्होने
उसे लघु नहीं कहा. हालांकि पत्रिकाओं का स्वरूप लघु-पत्रिका के परिभाषा से तय हो
जाता है. लघु-पत्रिकाओं का भारतीय परिप्रेक्ष्य कैसा और किस तरह का रहा? इस पर विस्तृत चर्चा इस पुस्तक में
मिलती है. इसी पुस्तक में उल्लिखित भारतीय परिप्रेक्ष्य में लघु-पत्रिकाओं को लेकर
अरुण कमल का यह कथन बहुत मायने रखता है- ‘लघु-पत्रिका आंदोलन एक बृहत्तर सांस्कृतिक आंदोलन का अंग है. यूरोप
में भी लिटिल मैगज़ीन मूवमेंट और अमेरिका में प्रोटेस्ट मूवमेंट है. जब तक प्रतिवाद
का आंदोलन रहेगा,
तब
तक लघु-पत्रिकाएँ रहेंगी. लघु-पत्रिकाओं का यह दायित्व है कि वह अपने आलोचनात्मक
विवेक की रक्षा करे. हिंदी लेखक अपने रक्त की एक बूंद तक लघु-पत्रिकाओं के साथ
रहेंगे. अरुण कमल का यह कथन महत्त्वपूर्ण तो है लेकिन जब लघु-पत्रिकाएँ संसाधनों
और सरकारी उपेक्षा का शिकार होकर प्रकाशित ही नहीं होंगी तो इन बातों का क्या अर्थ
रह जाएगा? यह अध्याय इन सभी पहलुओं पर ‘परिभाषा का प्रश्न’, ‘आंदोलन का निर्माण’, ‘संगठन और उसका दायित्व’, ‘आंदोलन का आधार’, ‘स्वायत्तता के साथ सहयात्रा में बिखराव’ उपशीर्षकों के अंतर्गत गहन
विचार-विमर्श करती है.
इस पुस्तक को भाषायी विमर्श का
प्रामाणिक दस्तावेज़ कहने के पीछे ठोस आधार है. मात्र 150 पृष्ठ के इस पुस्तक में 48 महत्त्वपूर्ण हिंदी-अंग्रेजी पुस्तकों, प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, प्रामाणिक बुलेटिन आदि से 341 संदर्भ-संकेत और टिप्पणियाँ हैं. जो
यह बताता है कि भाषायी ज़मीन के संकट और संघर्ष को वर्णित करने में लेखक ने खूब
संघर्ष और जद्दोजहद किया है. इस पुस्तक को प्रामाणिक बनाने में लेखक ने भरपूर
कोशिश की है. इस पुस्तक के गंभीर अध्ययन से भाषायी अंधकार की एक-एक परतें खुलती
चली जाती हैं.
____________________
धीरेंद्र प्रताप सिंह
शोध छात्र(हिंदी)
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज
dhirendrasingh250@gmail.com
धीरेंद्र प्रताप सिंह
शोध छात्र(हिंदी)
dhirendrasingh250@gmail.com
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (25-10-2019) को "धनतेरस का उपहार" (चर्चा अंक- 3499) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
दीपावली से जुड़े पंच पर्वों की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
राजीव गिरि जी की महत्वपूर्ण पुस्तक की सुचिंतित समीक्षा।
जवाब देंहटाएंसमीक्षक को धन्यवाद।
यह एक महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर लिखित पुस्तक की पठनीय समीक्षा है,पर राष्ट्रीय एकता में हिंदी की केंद्रीय भूमिका को लेकर अब उहापोह की स्थिति कुछ ज्यादा दिखाई दे रही है।
जवाब देंहटाएंहाल में सुप्रसिद्ध भाषाविद प्रोफेसर गणेश नारायण देवी और सामाजिक-राजनीतिक चिंतक एवं कार्यकर्ता प्रोफेसर योगेंद्र यादव का 'द हिन्दू' में प्रकाशित लंबा साक्षात्कार सिक्के के दूसरे पहलू की ओर इशारा करते हुए 'राष्ट्रीय एकता में हिंदी की केंद्रीय भूमिका' को समवेत स्वर में खारिज़ करता है।
जाहिर है कि इन महानुभावों की सारी बातों से सहमत होना असंभव है,पर कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण बिंदुओं की वहां चर्चा की गई है जिन्हें नकारना मुश्किल है।
लेख सारगर्भित और विमर्श परक हैं।कथ्य,तथ्य और तर्क में संतुलन है,जो लेखक के गम्भीर अध्ययन को दर्शाता है।पुस्तक की समीक्षा भी पठनीय है।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब लिखा गया है।
जवाब देंहटाएंराजीव रंजन गिरि की यह पुस्तक लंबे समय के प्रयास को पुस्तकार दिया गया कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं। इस पुस्तक की समीक्षा की और काफी काम अभी और रह गया है। असल में हमारा देश बहुरंगी संस्कृतियों वाला ही नहीं है बल्कि बहु भाषाभाषी भी है। अकेले हिंदी के विस्तार को देखा जाए तो उसमें कई बोलियां हैं। उन बोलियों का अपना इतिहास है और उसके एक दायरे तक सिमट कर रह जाने के अपने कारण भी हैं। एक समय ब्रज भाषा साहित्य की भाषा थी। आज ब्रज भाषा बोली की तरह एक अंचल विशेष में सिमटी हुई है लेकिन उसका प्रभाव आज भी है। हिंदी के विकास और विस्तार में ब्रज भाषा, अवधी, मैथिली, मगही, भोजपुरी आदि का योगदान है। इन बोलियों की शक्ति से हिंदी परिपूर्ण होती है। हिंदी के पूरे विस्तार को राजीवजी ने समझा और लिखा है। उनका यह प्रयास सार्थक है और आगे और बहुत कुछ कहने की संभावनाओं को बल देता है। धीरेंद्र जी आपने अपने लेख में सबकुछ समेटने का जो प्रयास किया है वह सराहनीय है। इसके लिए साधुवाद उम्मीद करता हूं आप अपना यह अभियान जारी रखेंगे।
जवाब देंहटाएंनरेंद्र अनिकेत
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