किसी
विषय को केंद्र में रखकर कविताओं की श्रृंखला तैयार करने की प्रवृत्ति हिंदी में
है, नदी, पहाड़, प्रेम और प्रकृति पर केन्द्रित कविता- संग्रह इधर प्रकाशित हुए
हैं.
कवि-आलोचक शिरीष कुमार मौर्य ने आठवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच
बौद्ध मत के अनुयायी सिद्धों द्वारा आचरण को केंद्र में रखकर अपभ्रंश में लिखे
चर्यापद को अपनी कविताओं का केंद्र बनाया है.
ज़ाहिर है ये कविताएं समकालीन आचरण को प्रश्नबद्ध करती हैं और अपने
शिल्प में एक अनूठे अनुभव और नैतिकता का सृजन करती हैं.
ये सत्रह ख़ास कविताएँ समालोचन पर आपके लिए
चर्यापद
“गौतम बुद्ध के मित्र व शिष्य भद्रक किंवा भदिया द्वारा इक्कीसवीं सदी में विरचित ये नवीन चर्यापद इस विधा के प्रथम व मूल प्रस्तोता शबरपा और उनके गुरु सरहपा को सादर समर्पित हैं.”
शिरीष
कुमार मौर्य
चर्यापद भूमिका
*
(धम्मनिट्ठ वग्गो का यह पृष्ठ भद्रक को महापरिनिर्वाण के समय बुद्ध की शय्या के पैताने मिला, यह पिटक में सम्मिलित नहीं है. भद्रक अपने चर्यापदों के संग्रह में भूमिका के रूप में इसे प्रस्तुत कर रहा है.)
भिक्षु
!
हिरण्यवती
के प्रवाह को देखो
वर्षा
में
वह
संसार के प्रपंचों की भाँति
वेगवान
है
मुझे
इस काल
विगत
कई
वर्षों से
यशोधरा
के अश्रुओं का
स्मरण
हो
आता है
जिनके
विषय में कभी कभी
बताती
रहीं मौसी
महागौतमी
तब
मैं कहता हूँ
धर्म
वह नाव नहीं है जिस पर चढ़
तुम
प्रवाह को पार करते हो
प्रवाह
में उतर कर
तैरना
धर्म है
दो
वर्ष* हुए
इसी
धर्ममार्ग पर हूँ भिक्षु
सभी
को
इस
पर बुलाता हूँ
माथे
पर अदृश्य सजा हुआ
मुकुट
नहीं है धर्म
बहुत
ढूँढ़ोगे
तो
वह प्रविविक्ति में नहीं
ग्रामों-नगरों
के
कोलाहल
में
भटकते
किसी
पथभ्रष्ट स्थविर के
तलुवों
में मिलेगा
गड़ा
हुआ
*
*
महापरिनिर्वाण से दो वर्ष पूर्व
यशोधरा की मृत्यु हो गई थी.
_____________________________
अन्न
माँगो उस घर से
जो
विपन्न हो
उजड़ा
हो दुर्भिक्ष में उस गाँव जाओ
उस
व्यक्ति से मिलो
जिससे
मिलना सबसे सरल हो
और
जिसकी तरह जीना
सबसे
कठिन
भिक्षु
अभी तो
दीक्षा का आरम्भ है
करुणा
पर चर्चा
फिर
कभी
जल
नहीं था
किसी
भी ऋतु में
गए
बरस
नदियों
के तल छिछले से
छूँछे
होते गए
नागफनी
के सिवा
किसी
और
वनस्पति
के तने पर विश्वास
नहीं
कर पा रही थी
दुःख
की चिरैया
भरी
दुपहरी
माथे
से
बहती
स्वेद बूँदों पर
बार
बार
बैठ
रही थी
छोटी
सफेद तितली
भन्ते!
मेरी
देह का नमक चाट रही
वह
तुम्हारी
जगप्रसिद्ध
करुणा तो
नहीं
थी?
मैं
अब भी उतना ही अबोध हूँ
मैं
अब भी उतना ही भ्रमित हूँ
मुझे
पथ नहीं मिलता था
और
मुझे
पथ नहीं मिला है अब तक
हालाँकि
आप
वही नहीं रह गए
भन्ते
लेकिन
मैं वही भद्रक हूँ
मुझे
ध्यान से देखिए
प्रतिदिन
एक
नई क्रूरता से जूझता हुआ
इस
संसार में
अब
मैं
अमर हो गया हूँ.
लुहार
के घर से माँगा भोजन
खाने
के बाद
बुद्ध
शय्या से न उठ सके
महानिर्वाण
से पहले रोया
लुहार
स्वयं
को धिक्कारता
यह
एक कथा है
इसमें
कुंडा नामक उस व्यक्ति के
लुहार
होने का
विशेष
उल्लेख है
स्पष्ट
है
कि
कुंडा का पेशा भर बताना यहाँ
अभीष्ट
नहीं था
भन्ते!
वह
आज भी अभीष्ट नहीं है
चतुर
शिष्यों ने
आपके
जाने की कथा चलाते हुए
विवरण
बढ़ाते हुए
इसमें
लुहार रहने दिया
इस
परम्परा में
व्याकुल
भटकता है भद्रक
और
पाता है
कि
आपके सिवा कोई और
कभी
अपना
दीप आप बन नहीं पाया
धम्म
के शिखर सदा
मौन
ही रहे
देह
में कुलबुलाते रहे
अधर्म
के चूहे
करुणा
उनके
भी साथ रही?
मृत्यु
की
देह
के नष्ट हो जाने की
घटना
निर्वाण
कह देने से
गरिमापूर्ण
नहीं
हो जाती
भन्ते!
निर्बलों
की हत्या ही हुई है सदा
क्या
उन्हें
निर्वाण
प्राप्त हुआ?
अपने
दुःख में लिथड़े
वे
जीवित रहना चाहते थे
लड़ना
चाहते थे
संसार
के संघर्षों के बीच
अपने
जैसे अनगिन जनों के साथ
वे
संधान करना चाहते थे
उस
तथ्य का
जिसे
करुणा कहा गया
निर्वाण
मृत्युपूर्व
भी सम्भव है
इसी
समझ
और
इसी हठ में
आपके
निर्वाण पर
मैं
बिलख उठा था
मैं
आज भी बिलख ही रहा हूँ
भन्ते
सम्राटों
और राजकुँवरों
सम्राज्ञियों
और
राजकुँवारियों ने
धम्म
की ध्वजा उठायी
हिमालय
और
समुद्र
पार गए
मैं
प्रश्नाकुल ही रहा आया
शताब्दियों
तक
आज
भी बौखलाया सा घूमता हूँ
आनन्द
या रानी खेमा नहीं हूँ
वे
मृत्यु को प्राप्त हुए
या
निर्वाण को
कह
नहीं सकता
अपनी
कथा क्या कहूँ
अमरत्व
निर्वाण
की सबसे बड़ी
बाधा
है
कितनी
बार बताऊँ
किस
किसको बताऊँ
कि
मैं अमर हुआ जाता हूँ
भन्ते
मेरे
माथे पर गाड़
फहरायी
गई धर्मध्वजाओं के
विरुद्ध
मेरी
अमरता
अब
एक बड़ी चुनौती है
और
मेरे
इस दुःख पर
शताब्दियों
पहले
कहीं
किसी
वार्ता में बैठे हुए
आप
मुस्कुराए हैं
भन्ते
!
शिष्यों
ने प्रचार किया
करुणा
का
व्यंग्य
को समझना
और
कहना तो छूट ही गया
महिमामयी
इस
परम्परा में!
गंगा
में
कछुओं
की डुबकियाँ
किसी
तरह का
निर्वाण
नहीं हैं
एक
संसार से दूसरे संसार में
आते
जाते रहते हैं वे
कुतर
लेते हैं
अधजले
शवों का माँस
घाट
पर भद्रक का हृदय
करुणा
से नहीं
जुगुप्सा
से भर जाता है
वह
रात्रि
शयन के लिए काशी में नहीं टिकता
सारनाथ
चला आता है
और
निर्वाण
तो सारनाथ
चले
आना भी नहीं है
सुबह
भिक्षाटन के लिए
फिर
काशी ही जाना है
गंगा
में डुबकी लगाते कछुए
भिक्षा
को
कभी
मना नहीं करते
मुण्डित
स्त्रियों के स्वप्न
किसको
आ सकते हैं
भन्ते?
किंतु
थेरी
शुभा ने समाज में
पाप
की उन जड़ों को भी देखा था
जो
घुस आयी थीं
भिक्षुणीसंघ
के
निरापद
विहारों तक
निर्वाण
से ठीक पूर्व
आयीं
थी मौसी महागौतमी
आपके
पास
कुछ
कह नहीं पायीं
आप
जैसे पुत्र के लिए
अपनी
बहन को सराह
वापस
चली गईं
मुझे
कह लेने दें
कि
मुण्डित हो जाने से
समाज
के भीतर
स्त्रियों
के प्रति उपस्थित प्रेम तो कुछ नष्ट हुआ
किंतु
पाप थोड़ा भी नहीं मरा
मैं
भद्रक
निर्लज्ज
हो कहूँ
तो
मेरे भीतर भी
कुछ
पाप बचा रहा
पर
बचा रहा
प्रेम
भी
भन्ते
!
मुझे
बताइए
कि
क्यों मेरी मनुष्यता
इसके
लिए
मुझे
धिक्कारती नहीं
ढाढ़स
ही बँधाती है
मुझे
आज
हत्यारों
की रसोई का अन्न मिला
भन्ते!
अनुभव
किया
कि
शरीर में जीवन कितना और
किस
तरह निवास करता है
पता
नहीं
पर
मृत्यु निवास करती है
हर
तरह
हर
जगह
मैं
बँधा हूँ बँधे वधिक भी है
लेकिन
भद्रक
के अनुभव में
वधिकों
के नाम नहीं हैं
भन्ते
!
अवश्य
ही वे आपके अनुभव में हैं
थेरगाथा
में वधितों के
जो
नाम हैं
चकित
है यह भद्रक
कि
थेरीगाथा में ठीक वही नाम
वधिकों
के भी हो सकते हैं
पता
नहीं
यह
दुःख का विषय है
या
करुणा का
कि
सदा कुछ उदान ही रहे
हमारे
साथ
निदान
कोई
भी नहीं.
चर्यापद 10
शारिपुत्र
थे धर्मसेनापति
नालन्दा
में
मैं
भद्रक
सारनाथ
में सेवक भर था
मैं
भद्रक
सारनाथ
में सेवक भर हूँ
कभी
शारिपुत्र
नाम नहीं उचारा मैंने
सारिपुत्त
कहने से ही
उस
धम्म का पता चलता था
जो
राजाओं से नहीं
प्रजा
से
सम्बोधित
था
स्वप्न
में भी
किसी
को दुःख पहुँचाने की बात
मन
में नहीं लाते थे
शारिपुत्र
वे
संतुष्ट, वीतरागी, जितेंद्रिय
स्थविर
थे
पापनिंदक, असंतुष्ट, प्रविविक्त
और
उद्योगी था
सारिपुत्त
भन्ते!
शारिपुत्र
ने धर्म की महिमा बचाई
आत्मा
बचाई सारिपुत्त ने
आज
रंग
एकादशी है
भन्ते
होरी
का चीर बाँधा है
मैंने
भद्रक
इसी
चीर के साथ
भिक्षाटन
को
जाएगा
भिक्षा
लेगा तो अबीर का
टीका
लगाएगा
दाता
को
अवश्य
सुननी चाहिए
पर
संघ सुनना पसन्द नहीं करेगा
जो
होरियाँ
भद्रक
अब होरी तक
काशी
के मुहल्लों में
गाएगा
लो
वह
धर्म की शरण में आता है
वह
संघ की शरण में आता है
फागुन
में उसे सम्भालो
भन्ते!
वह
आपकी शरण में आता है
हम
क्यों
स्थविर कहलाए गए
भन्ते
?
जबकि
हमारे
हृदय भी काँपते हैं
उस
वृक्ष के
सूखते
पत्तों की तरह
जो
कथानक में
बोधि
है
प्रकृति
में पीपल
कथानक
में
कल्पना
बहुत होती है
भद्रक!
प्रकृति
में यथार्थ
तो
क्या काशी कथानक है भन्ते
और
सारनाथ प्रकृति?
नहीं
काशी
पीपल है भद्रक
और
सारनाथ बोधि
मैं
वही कह रहा हूँ
जो
तुम कह रहे हो
भद्रक!
पर
ठीक वही नहीं कह रहा हूँ
फिर
ऐसे में
धर्म
क्या है भन्ते हमारा?
कल्पना
और यथार्थ
कथानक
और प्रकृति
बोधि
और पीपल
के
बीच
जो
संसार है अछोर
अपार
भद्रक
!
वही
धम्म है हमारा
मैंने
प्रथम
उपदेश सुना है
भन्ते!
महाकश्यप
नहीं हूँ
कि
कुछ जानूँ
कुछ
न जानूँ
जानने
के बाद जानूँ
कि जानने
से पूर्व कुछ भी नहीं जानता था
मेरी
जिज्ञासाएँ
अपूर्ण
ज्ञान से नहीं
सम्पूर्ण
अज्ञान से जन्मी हैं
महाकश्यप
आप
तक पहुँचने से पूर्व भी
बड़े
ज्ञानी
प्रकाण्ड
पण्डित थे
भन्ते
आपसे
मिल कर जाना
कि
कुछ भी नहीं जानते थे
मैं
भद्रक
कुछ
भी न जानता था
मैं
भद्रक
अब
भी कुछ नहीं जानता हूँ
यह
मेरा
नहीं
जानना ही है
भन्ते
कि
अतीत
प्रत्युत्पन्न
और
अनागत
सभी
कालों में व्याप्त है
मेरा
अस्तित्व
मैत्रैय
बुद्ध होंगे
तो
मैत्रैय भद्रक न होगा
क्या?
आपके
भी
वंश
का नाम लिया गया
भन्ते
आपको
क्षत्रियकुल गौरव
कहा
गया
आप
भी
गोत्र
से पहचाने गए
शाक्यमुनि
कोई
दूसरे नहीं थे भन्ते
राजकुल
बहुविधि
साथ और पास
बना
रहा
आपकी
शिक्षा अनुसार
एक
मैं भद्रक ही
भूला
आपका राजकुल जाति गोत्र गौरव
हुआ
सहजिया
चौदस
सौ वर्ष पहले
निर्वाण
तो नहीं मिला
पर
मिली
उससे
भी शानदार
एक
व्याकुलता
आपकी
ही देन वह
मेरा
धम्म है
भन्ते
उसी
का प्रचार करता हूँ मैं
इन
दिनों
चर्यापद 15
मुझ
में ही महायान के बीज थे
भन्ते
मेरे
थेर होने में हरसम्भव कमी
रह
गयी थी
मैं
अकेला होने से डरता था
भीतर
के प्रकाश भर से
मेरा
काम नहीं चलता था
आपसे
अधिक कोई नहीं जानता
कि
मुझ जैसों की
परस्परता
भी धम्म ही थी
आपके
अनुयायी बने
राजकुलीन
स्थविरों को मालूम ही न हो शायद
कि
प्रजा के घरों में
दीवट
पर धरे
अनगिनत
दीप धुआँ हो चुके
भन्ते
पिछले सैकड़ों वर्षों में
परस्पर प्रकाश के लिए
मैं
हमेशा से हताश नहीं था
भन्ते
मुझ
में से आशा गई
पर
जीवन बना रहा
मैं
महीनों
बस्ती
के सबसे वंचित व्यक्ति के द्वारे खड़ा रहा
भिक्षा
के लिए
इतने
महीने
मैंने
क्या खाया
मत
पूछिए
भन्ते
मैं
उस द्वार से रिक्त-पात्र भले
लौटा
हूँ
रिक्त-हृदय
रिक्त-मन
नहीं
लौटा
मैंने
हताशा
में जिस नदी का
जल
पिया
उसी
का क्षीण प्रवाह
मेरी
धमनियों में है
यह
भी
बहुत
बाद में जाना
कि
उसी नदी को
आपने
करुणा
कहा है.
उरुवेला
अब
भी वहीं है
आपको
स्मरण
होगा
कौण्डना
स्मृति में है भन्ते?
असाजी
?
वापा?
महामना?
और
मैं?
मैं
तो निर्वाण समय भी
उपस्थित
था
इसी
कारण
कुछ
अधिक बच गया हूँ
जो
स्वयं न बचे
जिनकी
कीर्ति बची बहुत सारी
वे
शिष्य
सम्राट
क्षत्रिय, ब्राह्मण, श्रेष्ठि ही
क्यों
हैं
वे
तपस्सू और काल्लिक
क्यों
नहीं हैं भन्ते
मैं
स्वयं ब्राह्मण
उन
दोनों के वर्ण का नाम भी लूँ
तो
जिह्वा कट जाए मेरी
चलूँ
सदा धम्म की ही राह
और
अगर
धम्म
की राह चलूँ
तो
फिर
उस
राह का क्या करूँ
जिस
पर
अब
आपके कुलीन शिष्यों की
कीर्ति
की
राख
भर बची है ?
_________________________________
ये कविताएँ इस कदर अच्छी हैं कि आंतरिक संताप, जीवन की व्याकुलता, महत्वाकांक्षी धार्मिकता की निस्सारता और साधारणता की महत्ता को नयी तरह से और कई कोणों से पुनर्परिभाषित करते हुए एक अलग काव्यात्मक ऊँचाई पर नजर आती हैं। परंपरा का यह एक नया और विकल कर देनेवाला पुनर्पाठ है।
जवाब देंहटाएंबात बधाई वगैरह की नहीं है, उस गहरे संतोष और प्रसन्नता की है जो इनसे गुजरकर मिल रही है और इधर बहुत दुर्लभ हो चुकी है।
कुमार अंबुज जी सर से शब्दशः सहमत
हटाएंमेरा दिन अच्छा गया जो आज इन कविताओं को पढ पाई।
एक गहरा सुकून कि हाँ अभी भी बहुत कुछ शेष है इस कविता लोकप्रिय में।
सलामत रहें कविवर
इस महत्वपूर्ण योगदान के लिए हिंदी जगत आपका आभारी है। हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविताएँ। एक बार पढ़कर पढ़ी नहीं जा सकतीं। इन्हें कई बार एकाग्रचित्त होकर पढ़ते रहना होगा।
जवाब देंहटाएंबहुत सधी हुईं और उच्च कोटि की कविताएँ हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक और मर्मस्पर्शी..
जवाब देंहटाएंकुछ कविताएँ बेहद मार्मिक, कुछ में काव्यरव पैदा करने की कोशिश लगी.
जवाब देंहटाएंहर चीज़ को करुणा पर ले आना अखरा. दुर्बुद्धि से कहूँ तो जितनी अच्छी 3,9,13,16 हैं, वे ही पर्याप्त होतीं. बाकी कविताएँ (हिस्से?) जोड़ते हैं बहुत कुछ;; पर सांद्रता शायद छूट जाती है. मज़ेदार है ये कविताएँ.
क्या लेखक महोदय इस कविता को लिखने के पहले जो जो पढ़ना रहा, उस पर कुछ बताएँगे?
- अनिष्टबुद्धि, बेसब्र, युवा पाठक
बधाई और अद्भुत कहने से बात नहीं बनेगी। शिरीष की ये कविताएं सत्रह घंटे की धारासार वर्षा की तरह हैं। कथा, परम्परा और शास्त्र में जो ‘मुख्यधारा’ हो गया है, उस सब कुछ को डुबोती और डिगाती हुई।
जवाब देंहटाएंइतिहास और दर्शन की दुनिया से आज तक चले आये दुख की ये कविताये ऐसी कतई नहीं हैं कि कुछ शब्दों में इसकी व्याख्या की जा सके. इनमें ऐतिहासिक और वैचारिक भूमि दीखती है सारिपुत्र, स्थविर, महाकश्यप, मैत्रय आदि हैं ही और बुद्ध दर्शन की एक स्पष्ट गत्यातमकता भी. एक अलहदा बात यह है कि जो भाव है वह दर्शन तक सीमित नहीं है बल्कि उसके पाठ की तरह है जैसे जो दुख है तो वह बौद्ध दर्शन की चेतना से वर्तमान तक विस्तार पा जाता है. किसी ने ठीक कहा कि उत्कृष्ट या बहुत सुन्दर जैसी बात करके इतिश्री नहीं की जा सकती है, इनकी बनक और दुनिया अलहदा है.
जवाब देंहटाएंयह बुद्ध को आधुनिक विचार-मन से देखने-समझने-पड़तालने की कविताएं भी हैं। अपने पुरखे से कैसे बोला-बतियाया जाय और उससे कैसे टकराया जाय इसकी तमीज़ भी सिखाती हुईं।
जवाब देंहटाएंकितनी ही कविताओं में कितनी क्रूरता है. थोड़े कटाक्ष, थोड़े सत्य वाली क्रूरता. दुःख की तरह ही मांजने वाली क्रूरता.
जवाब देंहटाएंशिरीष के ‘चर्यापद’ सुबह फिर पढ़े। फिर मुग्ध हुआ। भद्रक के लिए बुद्ध के आख्यान में करुणा के अलावा कुछ भी वरेण्य नहीं है। उसका यह शिष्ट प्रतिवाद अलक्षित नहीं जाना चाहिए। वह जान चुका है कि बुद्ध के जिस धर्म को निर्दोष और सर्वोत्तम कह कर महिमा-मंडित किया गया है, वह कुलीनों और वर्चस्ववादी शक्तियों का एक पैंतरा भर है वर्ना थेरगाथा के वधित थेरीगाथा के वधिक नहीं हो सकते।
जवाब देंहटाएंयह भी अलग से चिह्नित किया जाना चाहिए कि भद्रक बुद्ध के नाम से विज्ञापित युटोपिया का प्रतिवाद उसके ऐतिहासिक-सामाजिक फलितार्थों के आधार पर कर रहा है। भद्रक उन लोगों और स्थितियों के नाम-पते दर्ज करता है जिन्हें सत्ता ने कभी दरवाज़े से अंदर नहीं आने दिया।
आज हम इतिहास के जिस छोर पर खड़े हैं वहां से साफ़ दिखता है कि मैत्रेय बुद्ध अभी तक महज़ एक संभावना ही बने हुए हैं, लेकिन मैत्रेय भद्रक पिछले चौदह सो बरसों से उस आदमी के लिए चिंतित है जिसके लिए धर्म का हर युटोपिया अंतत: डिस्टोपिया साबित हुआ है।
शिरीष की इन कविताओं को इसलिए याद रखा जाएगा कि उनमें संवेदना को प्रलाप और वैचारिकता को नारा नहीं बनने दिया गया।
चर्यापद शीर्षक से कुल 66 कविताएं हैं। इन चर्यापदों में बुद्ध के समय से समकाल तक की यात्रा का पर्सपेक्टिव 'कबीर' वाला है। 'न ये न वो।' मतलब ये मिलिंदपन्हों के संवाद की तरह नहीं है जो मात्र धर्म क्या है, क्यों है जैसे सार्वकालिक प्रश्नों की आड़ में जीवन के तात्कालिक प्रश्नों से बचने का जरिया बन जाता है। ये उससे आगे की चीज़ है क्योंकि इसमें लगभग दो से ढाई हज़ार सालों के इतिहास का व्यावहारिक प्रमाण है। कवि की सुविधा भी यही है, क्योंकि वो विकट वर्तमान में इतिहास को देख सकता है, सामर्थ्य भी यही कि इस दिखलाई में जीवन में गहरे उतरने के बाद भी तटस्थ रह सका है।
जवाब देंहटाएंचर्यापद चालीस इस पूरे 'जनबौद्धिक' पिटारे की चाबी है। उसे पढ़कर पूरी किताब खुल जाती है। हालांकि शुरुआत के पदों में भी वो बातें अलग-अलग आती हैं।
ऐसा ही कुछ अंदर झांकने का सूराख बासठवाँ पद भी देता है। यहां धर्म से ज़्यादा व्यवस्था-समाज-राजनीति खुलती है।
लेकिन कई जगह ऐसा लगा कि लेखक 'आमजन के बहाने' से एक तने का सहारा चाह रहा है। खैर! ये मेरी समझ की सीमा भी हो सकती है।
किताब कुछ नई बहस की शुरुआत करेगी। ज़ाहिरा तौर पर तो ये धर्म की मीमांसा दिख रही है पर अंदरखाने बहुत सी सम्भावनाएं छिपी हुई हैं।
हिंदी में ये कहना भी अब पुराना हो चुका है कि इन कविताओं की आलोचना के लिए नए मानदंड विकसित करने होंगे, लेकिन इतना तो कहा जा सकता है, कि किसी विषय पर इतनी सुदीर्घ विवेचना कविता में अब कम ही पढ़ने को मिलती है। इसलिए समालोचना के प्रचलित प्रयोगों से इतर इन कविताओं को अलग-अलग और एक साथ देखना होगा, दोनों ही तरीकों से। मैं जब चालीसवें पद पर हूँ तो मुझे तीसरे की याद आती है, मैं जब उनतालीसवें चर्यापद को पढ़ता हूँ तो मुझे साथ ही साथ तीसरे या आठवें चर्यापद से भी गुजरना पड़ सकता है। ये कुछ इस तरह की बात है कि आप सारनाथ जाए बिना लुम्बिनी का सौंदर्य पूर्णतः महसूस नहीं कर सकते।
इस तरह की कीमियागिरी ज़रूर एक गम्भीर किस्म का धैर्य और आत्म-नियंत्रण की मांग करती होगी। कविता उपन्यास नहीं है। कविता सीरीज़ के माध्यम से महाकाव्यात्मक कथानक तक ले जाना आज के तात्कालिक होते जा रहे जीवन में ज़्यादा जटिल है।
विचार की काट विचार ही हो सकते हैं। कविता विचार नहीं है। लेकिन कविता जीवन की काट-कूट भी नहीं है। उनके लिए दुबारा सोचने का सामान उपलब्ध कराते हैं ये पद जो ये कहते हैं कि विषय-विचार को सोचकर कविता नहीं लिखी जाती। चर्यापदों में न विचार स्थगित होता है न भाव, न लय, न कविता का ढांचा और न ही जीवन!
मैंने पहले पाठ के बाद इन कविताओं को सधी हुई कविताएँ कहा था। शिल्प के आधार पर वो अब भी कहूँगा। लेकिन दुबारा पढ़ने पर इनकी समस्याएँ भी नज़र आती हैं। इनमें बुद्ध की कुछ केंद्रीय शिक्षाओं को ग़रीबी और निर्बलता की दृष्टि से देखा और आंका गया है, और कहा गया है कि गरीब व दुर्बल के लिए उनको आचरण में लाना शायद सम्भव नहीं है। तो क्या किसी गरीब व दुर्बल व्यक्ति से, उदहारण के लिए, करुणा की अपेक्षा न की जाय? इस धारणा पर प्रश्न उठाया जा सकता है, विशेषकर तब जब करुणा मनुष्यों के प्रति ही नहीं, अन्य जीवों के प्रति भी अपेक्षित है। मनुष्यों द्वारा प्रकृति व अन्य जीवों के भयानक शोषण व उन उन पर अत्याचार के इस ज़माने में करुणा जैसी अवधारणा को इस तरह नकार देना उचित नहीं लगता। मैं फिर कहूँगा कि यहाँ यह ध्यान में रहना चाहिए कि करुणा की अवधारणा मनुष्यों की दुनिया के भीतर तक सीमित नहीं है; वह उससे परे जाती है।
जवाब देंहटाएंइन कविताओं में यह भी मानकर चला गया है कि बुद्ध द्वारा शुरू की गयी प्रथा को ऊँची जातियों/वर्गों वालों ने हथिया लिया, और उसके लिए भी एक प्रकार से बुद्ध को ही जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। इस विषय में मैं यह कहना चाहूंगा कि ऐसा सभी धर्मों में हुआ है। परन्तु महत्वपूर्ण बात यह नहीं है कि ऐसा हुआ। महत्वपूर्ण यह है कि यहाँ कवि बुद्ध की शिक्षाओं को एक धर्म या धार्मिक प्रथा की तरह देख रहा है, इसी कारण उसका हथियाया जाना उसे हथियाया जाना लग रहा है। इसके विपरीत उन शिक्षाओं को, धर्म और धार्मिक प्रथा से अलग करके, यदि नैतिक शिक्षाओं की तरह देखा जाये तो हथियाये जाने वाली यह समस्या महत्वहीन हो जाती है। क्योंकि तब इन शिक्षाओं का अनुसरण करने की कोशिश कोई भी कर सकता है, चाहे वह किसी भी जाति या वर्ग से सम्बन्ध रखता हो।
अन्त में, यह कहना चाहूँगा कि ग़रीबी व निर्बलता के नाम पर बुद्ध की कुछ उपयोगी, आज के समय में उपयोगी, शिक्षाओं को नकार देने या उन पर प्रश्न उठाने में मुझे कोई तुक नज़र नहीं आती।
कविताओं को समझने या उनकी इस ज़रा मोटे किस्म की व्याख्या में मुझसे कोई ग़लती हुई हो तो उसके लिए क्षमा चाहूंगा।
रुस्तम सिंह ने इन कविताओं के मर्म को ब्लैकहोल में खींच लिया है। मुझे लगता है कि इन कविताओं की व्याख्या इस तरह नहीं की जा सकती।
जवाब देंहटाएंपहले, रुस्तम ने स्पष्ट नहीं किया है कि कवि ने बुद्ध की करुणा का कहाँ-कहाँ अवमूल्यन किया है।
दूसरे, वे पता नहीं किस लॉजिक के तहत बुद्ध के समस्त अवदान को महज़ नैतिक शिक्षाओं में रिड्यूस कर देते हैं। जबकि सच ये है कि बुद्ध अपने समय के सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक यथार्थ को संबोधित करते हैं। बुद्ध पशु-बलि या तत्कालीन कर्मकाण्डों में पशुओं के भयंकर रक्तपात से आहत थे, लेकिन वही शासक से प्रजा का भरणपोषण और सुख सुनिश्चित करने की भी उम्मीद करते थे। उन्होंने जाति/वर्णव्यवस्था को स्वीकार नहीं किया। यह अस्वीकार उस समय के वंचित-बहिष्कृत लोगों के लिए मुक्ति का द्वार था।
कहने का मतलब ये है कि बुद्ध एक नयी और ज़्यादा समतापरक व्यवस्था के प्रतीक थे। अगर उनका अनुयायी भद्रक उस व्यवस्था की विफलता पर सवाल उठा रहा है तो यह एक जायज़ दख़ल है।
ज़्यादा गंभीर बात ये है कि रुस्तम की तर्क-योजना में इतिहास ख़ारिज हो गया है। वंचना, क्रूरता और अन्याय का बाक़ायदा इतिहास है। उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती/नहीं की जानी चाहिए. मुझे यह बात अजीब लगी कि बुद्ध की शिक्षाओं का कोई भी अनुसरण कर सकता है– वह चाहे जिस वर्ग या जाति से संबंध रखता हो!
क्या यह अलग और बार-बार रेखांकित करने की ज़रूरत है कि व्यक्ति अपनी जाति/वर्ग-चेतना से कितना भी मुक्त हो जाए, लेकिन वह उनके प्रभाव से असंपृक्त नहीं रह पाता।
सर,स्तरीय कविताएं।
जवाब देंहटाएंबुद्ध और उनकी समतापर्क सामजिक दृष्टि के बारे में मैं भी जानता हूँ। न ही मैं इतिहास की अनदेखी कर रहा हूँ। जहाँ तक वर्ग-चेतना इत्यादि का सम्बन्ध है मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, माओ इत्यादि के मूल ग्रन्थों का मेरा अध्ययन काफ़ी पुराना और लम्बा है। जाति से सम्बंधित विभिन्न विद्वानों और ग्रन्थों को भी कुछ सीमा तक मैंने पढ़ा है और रोज़मर्रा के जीवन में भी उसे देखा है। मैं एक marginal किसान का बेटा हूँ। मैं खुद भी एक मेकैनिक रहा हूँ। उसके बावजूद मुझे वही कहना था जो ऊपर कहा है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कविताएँ..हृदय को आंदोलित करने वाली और अंतर को कहीं गहरे तक स्पर्श करने वाली
जवाब देंहटाएंइस पाठ एवं प्रतिक्रिया के लिए सभी पाठकों का आभारी हूं।
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