योगफल
अरुण
कमल
वाणी
प्रकाशन, नयी दिल्ली
प्रथम
संस्करण -2019
मूल्य-
रू. 295
|
प्रसिद्ध हिंदी कवि अरुण कमल की २०११ से २०१८ के बीच लिखी गयी कविताओं
का संग्रह ‘योगफल’ इस वर्ष वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. मीना बुद्धिराजा इस
संग्रह के बहाने अरुण कमल की कविता-यात्रा को देख-परख रहीं हैं.
अरुण कमल : योगफल
सृष्टि
को बचाने का स्वप्न
मीना बुद्धिराजा
जैसे ही कौर उठाता हूँ
“कविता जीवन का, उसकी विडंबनाओं और अंतर्विरोधों का, संशयों का, उसमें गुंथे अच्छे बुरे अनुभवों का का समावेश है. दरअसल यह जटिल ज़िंदगी ही सारी कविता का उर्वर प्रदेश है और इसी से उर्जस्वित स्पंदित है. कविता जीवन और अनुभवों का, भाषा और भावों का उत्सव होती है लेकिन वह उन सब पर प्रश्नचिन्ह भी लगाती रहती है. उसकी मध्यभूमि स्वीकार और अस्वीकर के बीच कहीं होती है और उसकी अदम्य मानवीयता इसी मध्यभूमि से उपजती है. हमारे समय में कविता हमारे मनुष्य होने का मार्मिक सत्यापन है और इससे अधिक वह क्या कर सकती है.”
इन कविताओं में सिर्फ शब्द संचय नहीं, एक कवि के वैचारिक सांस्कृतिक अवबोध की सूचनाएँ भी हैं जिनसे पाठक गुजरते हुए अपने होने का अनुभव कर सकता है. ये कविताएँ चेतना को छूती हैं और कहीं तल में जाकर एक उलझन पैदा करती हैं, सोचने के लिए विवश करतीं. ये असमाप्त रह्कर भी पाठक को उसके अंतिम अर्थ तक पहुंचने के लिए जागृत करती हैं जिसमें कोई बाहरी दबाव नहीं, आंतरिक सहजीवन का उत्कट आग्रह है-
श्रेष्ठ कविता इतिहास और समय की तमाम संकीर्णताओं का अतिक्रमण करती है.
आधुनिक हिंदी कविता के सुपरिचित प्रतिष्ठित कवि ‘अरुण
कमल’ के पहले कविता संग्रह की आखिरी कविता ‘अपनी केवल धार’
आधुनिक हिंदी कविता की सर्वाधिक लोकप्रिय और अनिवार्य कविता के रूप में दर्ज़ की
जाती है. यह समकालीन हिंदी कविता की उस कथ्य, वस्तु, संवेदना और शिल्पगत संरचना का ठोस उदाहरण है जिसमें हमारे समय की अटूट
सच्चाई और ज्वलंत यथार्थ ही नहीं बल्कि उसके पीछे मानवीय शोषण के प्रतिरोध और
संघर्ष की, जन-सरोकारों की जो ताकत है वह अन्यत्र दुर्लभ है.
वंचित, उपेक्षित और शोषित
मनुष्य के लिए दायित्व और अंतिम प्रतिबद्धता उनकी कविता की अनिवार्य शर्त है. इस
जनतांत्रिक स्वर के साथ हिंदी कविता के परिदृश्य में अस्सी-नब्बे के दशक से अपनी
कविता-यात्रा आरंभ करने वाले गंभीर पहचान के साथ अरुण कमल समकालीन हिंदी कविता के
सशक्त हस्ताक्षर हैं और हमारे समय के जरूरी और सार्थक कवि–रचनाकार
के रूप में शीर्षस्थ पंक्ति में उनका नाम सम्मान से लिया जाता है. उनकी कविताएँ
समकालीनता के मूल्यांकन का एक संवेदनशील निकष लंबे अरसे से बनी रहीं हैं और
नि:संदेह यह धार अब भी उनकी कविताओं में ईमानदारी, व्यापक जनपक्षधरता
और लोकतांत्रिक संवेदना के साथ मौजूद है जो आज भी उनकी काव्यात्मक भूमि का उर्वर
प्रदेश है.
अरुण कमल के प्रकाशित कविता संग्रहों में अपनी केवल धार, सबूत, नये इलाके में, पुतली में संसार, मैं वो शंख महाशंख जैसी महत्वपूर्ण कृतियाँ, आलोचना-विमर्श केंद्रित पुस्तकें- ‘कविता और समय, गोलमेज और कथोपकथन-(साक्षात्कार) और वायसेज़ जैसी
समकालीन भारतीय कविता की वियतनामी कवि ‘तो हू’ की कविताओं के अनुवाद की
पुस्तक के साथ ही अनेक कवियों-विचारकों के हिंदी अनुवाद और हिंदी के प्रमुख कवियों
के उनके अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित हैं.
अरुण कमल की प्रमुख रचनाओं और कविताओं का अनेक देशी-विदेशी भाषाओं मे
अनुवाद एक बड़े कवि के रूप में उनकी रचना-दृष्टि और संवेदना का विस्तार और प्रभाव
है. ‘आलोचना’ पत्रिका
का संपादन नामवर सिंह जी के साथ दो दशकों तक उन्होनें किया. कविता के लिए अनेक
प्रतिष्ठित पुरस्कारों के साथ सम्मानित अरुण कमल को ‘नये
इलाके में’ पुस्तक कविता- संग्रह के लिए उन्हें 1998 का हिंदी का सर्वोच्च साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला और उनकी सृजनात्मक
यात्रा अनवरत जारी है.
इसी कविता यात्रा में अरुण कमल जी का नवीनतम कविता-संग्रह ‘योगफल’ इसी वर्ष ‘वाणी प्रकाशन’ दिल्ली से प्रकाशित होकर आना हिंदी
कविता के उन गंभीर पाठकों के लिए बड़ी उपलब्धि है जो कविता को जीवन जीने की तरह
अनिवार्य मानते हैं. यह पुस्तक उनकी कविताओं का नया संग्रह है जिसमें 2011 से 2018 के दौरान लिखी गईं. एक वरिष्ठ और मूल्यवान
कवि के रूप में यह विशिष्ट पड़ाव हिंदीं की समकालीन कविता में भी आलोचना की नई
संभावनाओं को प्रशस्त करता है.
पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर शीर्षक योगफल के साथ इन कविताओं का केंद्रीय
भाव- ‘नीचे धाह उपर शीत’- के उपशीर्षक के साथ प्रतीकात्मक संकेत देता है जिसमें सृष्टि और समाज में
मानवीय जीवन के सुख-दुख से आप्लावित तप्त-शीतल व्यापक विराट अनुभव हैं –
जैसे ही कौर उठाता हूँ
कोई आवाज़ देता है.
‘योगफल’
कविता संग्रह के रूप में कवि के जीवन के विविध अनुभवों, प्रसंगो और चरित्रों का अद्भुत योगफल है. इस पुस्तक की मूल स्थापना यही है
कि प्रत्येक जीवन न केवल मनुष्य जीव-जगत का बल्कि इस भुवन के प्रत्येक तृण-गुल्म,
प्राणि का समाहार है इसलिए कोई भी पहचान या अस्मिता शेष सबको अपने
में जोड़कर ही पूर्णता प्राप्त करती है. यहाँ अतिरंजना का जोखिम उठाकर भी नि:संदेह
कहा जा सकता है की एक श्रेष्ठ प्रतिबद्ध कवि संपूर्ण मनुष्यता का योगफल और समावेश
है. यहाँ उनकी कविता के प्राय: सभी पूर्वपरिचित अवयव और स्वर उपस्थित हैं लेकिन
इनमे जो भिन्न, नवीन और मौलिक चीज़ है वह है कविता का बहुमुखी
होना.
कविता एक साथ कई दिशाओं में खुलती है जैसे सूर्य की एक ही रश्मि अनेक रंगों और लहर अनेक कटावों से आती- जाती है. पहली कविता- योगफल- से लेकर आंतिम कविता ‘प्रलय ‘ तक इसे देखा जा सकता है जहाँ दोनो तरह के खदान हैं-धरती के उपर खुले में तथा भीतर गहरे पृथ्वी की नाभि तक. हर अनुभव को उसके उदगम से लेकर फुनगियों तक गहराई से देखने का उद्यम अप्रतिम है. इसलिए इन कविताओं में कुछ भी त्याज्य अपथ्य नहीं है- इसमें सभी शामिल हैं रोज-ब- रोज के राजनीतिक प्रकरण जो कई बार जीने और मरने की वज़ह तय करते हैं तो रात के तीसरे पहर का स्वायत्त एकांत भी. द्वंद्वों और विरुद्धों का सांमजस्य करती ये अनूठी कविताएँ हैं जिसमें नीचे धाह उपर शीत है. पहली कविता योगफल ही अपनी अन्विति में सम्पूर्ण जीवन की कविता है जो अनेक स्तरों पर घटित होती हुई एक साथ साधारण पाठक से लेकर चिरंतन पर्श्नों पर विचार करते हुए कवि की सूक्ष्म दृष्टि, प्रश्नाकुल और गंभीर आत्मिक रूझानों की और संकेत करती है-
कविता एक साथ कई दिशाओं में खुलती है जैसे सूर्य की एक ही रश्मि अनेक रंगों और लहर अनेक कटावों से आती- जाती है. पहली कविता- योगफल- से लेकर आंतिम कविता ‘प्रलय ‘ तक इसे देखा जा सकता है जहाँ दोनो तरह के खदान हैं-धरती के उपर खुले में तथा भीतर गहरे पृथ्वी की नाभि तक. हर अनुभव को उसके उदगम से लेकर फुनगियों तक गहराई से देखने का उद्यम अप्रतिम है. इसलिए इन कविताओं में कुछ भी त्याज्य अपथ्य नहीं है- इसमें सभी शामिल हैं रोज-ब- रोज के राजनीतिक प्रकरण जो कई बार जीने और मरने की वज़ह तय करते हैं तो रात के तीसरे पहर का स्वायत्त एकांत भी. द्वंद्वों और विरुद्धों का सांमजस्य करती ये अनूठी कविताएँ हैं जिसमें नीचे धाह उपर शीत है. पहली कविता योगफल ही अपनी अन्विति में सम्पूर्ण जीवन की कविता है जो अनेक स्तरों पर घटित होती हुई एक साथ साधारण पाठक से लेकर चिरंतन पर्श्नों पर विचार करते हुए कवि की सूक्ष्म दृष्टि, प्रश्नाकुल और गंभीर आत्मिक रूझानों की और संकेत करती है-
कभी कभी मैं उस वज्र की तरह लगना चाहता हूँ
जानना चाहता हूँ क्या कुछ चल रहा है उस मयूर
उस कुक्कुट की देह में इस ब्रह्म मुहूर्त में-
कभी कभी मैं ताड़ का वो पेड़ होना चाहता हूँ
कभी कभी यह भी इच्छा होती है कि
सारे पशु पक्षियों वनस्पति में भटकता फिरुँ
वन वन जल थल नभ
चौरासी लाख योनियों में
लेकिन इस सब के लिए कितना बदलना पड़ेगा मुझे
कितना अपनापा कितना दुलार इन क्षुद्र्तम जीवों
इस सृष्टि संपूर्ण ब्रह्मांड
से
और तब कितना होगा मेरा कुल योग बाबा गोरखनाथ
जब अन्न को भी लगेगी भूख पानी को प्यास
तब मेरा योगफल कितना होगा बाबा गोरखनाथ ?
भिक्षा दो माँ ! भिक्षा !
ऐसी भाव-अनुभुति-चिंतन की संश्लिष्टता, मार्मिकता और भाषा की अनेकानेक छवियों की लयात्मकता अन्यत्र दुर्लभ है.
अरुण कमल जी की प्रत्येक कविता जीवन का नया अविष्कार एवं भाषा का नया परिष्कार है.
ऐसा गहन इंन्द्रिय बोध और बौद्धिक सौष्ठव कविता मे दुर्लभ है. इन कविताओं की एक और
विशेषता अनेक अंत:ध्वनियों की उपस्थिति है अनेक पूर्व स्मृतियों की अनुगूंजे हैं
जहाँ कभी उनका वास था जो पाठक की संवेदना को आत्मीयता से झकझोरती हैं-
वो घर ढह गया
अब कोई जानता भी नहीं उसका नाम
फिर क्यों बेचैन हो तुम वहाँ जाने को?
जो उठ रहा है नया नगर वहाँ
वहाँ पहचानेगा कौन तुम्हें?
वे स्मृतियाँ
वे सब जिनका वास है तुम्हारी देह में
तभी तक हैं जब तक यह कच्ची देह है तुम्हारी
घुल जायेगी अगली बरसात में-
हर घर के नीचे कितने ही घरों की मिट्टियाँ हैं.
प्रसिद्ध-कवि आलोचक ‘अशोक
वाजपेयी’ का कहना है-
“कविता जीवन का, उसकी विडंबनाओं और अंतर्विरोधों का, संशयों का, उसमें गुंथे अच्छे बुरे अनुभवों का का समावेश है. दरअसल यह जटिल ज़िंदगी ही सारी कविता का उर्वर प्रदेश है और इसी से उर्जस्वित स्पंदित है. कविता जीवन और अनुभवों का, भाषा और भावों का उत्सव होती है लेकिन वह उन सब पर प्रश्नचिन्ह भी लगाती रहती है. उसकी मध्यभूमि स्वीकार और अस्वीकर के बीच कहीं होती है और उसकी अदम्य मानवीयता इसी मध्यभूमि से उपजती है. हमारे समय में कविता हमारे मनुष्य होने का मार्मिक सत्यापन है और इससे अधिक वह क्या कर सकती है.”
अरुण कमल की कविता में यह सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि, संयत कला अनुशासन और आत्मीयता अपने उत्कृष्ट रूप में
मिलती है.
इन कविताओं में सिर्फ शब्द संचय नहीं, एक कवि के वैचारिक सांस्कृतिक अवबोध की सूचनाएँ भी हैं जिनसे पाठक गुजरते हुए अपने होने का अनुभव कर सकता है. ये कविताएँ चेतना को छूती हैं और कहीं तल में जाकर एक उलझन पैदा करती हैं, सोचने के लिए विवश करतीं. ये असमाप्त रह्कर भी पाठक को उसके अंतिम अर्थ तक पहुंचने के लिए जागृत करती हैं जिसमें कोई बाहरी दबाव नहीं, आंतरिक सहजीवन का उत्कट आग्रह है-
मेरा शहर मेरा इंतजार कर रहा है
खुल रहा है हर दरवाजा किसी को पुकारता
हर दरवाजा एक इंतजार-
नदी भरी हो या सूखी जानती है मैं आउँगा
उसके पास हर शाम थक-हार
मेरा शहर.
सत्ता और व्यव्स्था में जंमीदारों के गठजोड़ के शोषण-उत्पीड़न के चरम पर
कवि की आवाज़ ही विकल्प के रूप में विपक्ष और अंतिम मोर्चे की भूमिका निभाती है.
अरुण कमल भारतीय समाज के अभावग्रस्त क्षेत्र के प्रतिनिधित्व के साथ जिन राजनितिक
आर्थिक जटिलताओं और प्राकृतिक आपदाओं और दैन्य से जूझते गाँवों और किसान के खेतों-खलिहानों को अपनी कविता में जीवंत करते हैं वह वर्चस्व के विरोध में प्रतिरोध का
सशक्त स्वर है जो इस मेहनतकश वर्ग की विडंबनाओं और दुश्चिंताओं को पहचानकर पीड़ितों
का पक्ष लेती है यही अरुण कमल की कविता की वास्तविक जमीन है जिसमें एक शोषण मुक्त
समाज की परिकल्पना उनकी काव्य चेतना में अंकुर की तरह विद्यमान है-
अभी ठीक से खेत कोड़ा भी नहीं
अभी ठीक से मिट्टी बराबर भी नहीं की
अभी ठीक से रोपनी भी नहीं हुई
अभी ठीक से पौधा उठा भी नहीं
अभी ठीक से बालियाँ भी नहीं फ़ूटी
अभी ठीक से दाने पके भी नहीं
अभी थीक से कटनी भी नहीं हुई
अभी ठीक से औसाई भी नहीं
अभी तो दाने बटोरे भी नहीं कि
द्वार पर आकर खड़े हैं
वसूली वाले
नहीं महाराज नहीं अभी तैयार नहीं.
अरुण कमल की कविता का मूल स्वर एकाकी नहीं बल्कि वह सबकी ओर से बोलती
है जिनके बिना हिंदी कविता की बात हमेशा अधूरी है. उनकी कविता साधारण जीवन के
त्रासद यथार्थ को जिस ईमानदार संवेदना और तरल करुणा के साथ प्रस्तुत करती आई है वह
दुर्लभ है. शोषित, पीड़ित, असहाय, निर्बल, उपेक्षित
मानवता के उत्पीड़न को जितने मार्मिक किंतु जीवंत रूप से अनुभव के शिल्प में वे
अभिव्यक्त करते हैं वह पाठक के अंतस को हमेशा स्पर्श करता है. इन कविताओं में मानव
जीवन के सबसे भास्वर क्षण और स्मृतियाँ कौंधती हैं. उनकी कविताएँ लोकतंत्र के
विकास और गणना से छूटे गरीब, बाहर कर दिये गए हाशिए के
निर्बल, अंतिम गिनती के किन्तु स्वाभिमानी, संघर्षशील मनुष्यों की करुण कथाएँ हैं– ‘यह दुनिया
माँ का गर्भ नहीं, जो एक बार घर से निकला, उसका फिर कोई घर नहीं’.
उनकी कविता में एक परिपक्व दार्शनिकता और जीवन के मूलभूत प्रश्नों के आलोक में जो अव्यक्त रहस्य रह रह कर चमकता है वह एक गंभीर रचनाकार के अस्तित्व का भी दृष्टि बोध है जो उन्हें अधिक दायित्व संपन्न और मानवता के पक्षधर जीवन से संबद्ध और सार्थक कवि का वह स्वरूप देता है जो अपनी साधारणता में भी असाधारण है. ये कविताएँ मानवीय अंत:करण का परिष्कार करते हुए बेहद पारदर्शी कविताएं हैं-
उनकी कविता में एक परिपक्व दार्शनिकता और जीवन के मूलभूत प्रश्नों के आलोक में जो अव्यक्त रहस्य रह रह कर चमकता है वह एक गंभीर रचनाकार के अस्तित्व का भी दृष्टि बोध है जो उन्हें अधिक दायित्व संपन्न और मानवता के पक्षधर जीवन से संबद्ध और सार्थक कवि का वह स्वरूप देता है जो अपनी साधारणता में भी असाधारण है. ये कविताएँ मानवीय अंत:करण का परिष्कार करते हुए बेहद पारदर्शी कविताएं हैं-
जब कभी देश के बारे में सोचता हूँ
अपने घर के बारे में सोचने लगता हूँ
जैसे मेरा घर है तो यहाँ जो भी है सबको
एक सा भोजन चाहिए और पानी और बिस्तर
चूहे को भी जो भीतर बिल में है कुछ चाहिए
बिल्ली का भी हक बनता है रसोई में
और कोऔं को भी हाथ की रोटी का आसरा है
गोरैयों को भी खुद्दी दाना
ऐन खाते वक्त कुत्ता आ जाता है
जिनको बेदखल करते करते थक गया हूँ
कोई भी जीवन अकेला इकहरा एकरंगा नहीं होता
एक पेड़ भी महानगर है
अगर सूर्य का मंडल है ब्रह्मांड में
तो मेरा भी छोटा बहुत छोटा
इसी तरह देश है एक घर
बहुत से आँगनों का एक घर, कुटुम्ब, एक लोक
किसने किया बाहर ? कहाँ मेरा भाई महाराज
संतोषी ?
कहाँ अग्निशेखर?
किसने मारा मेरे लाल जुनैद को ?
आज इस घर में चूल्हा नहीं जुड़ेगा !
धर्म, जाति और भाषा के नाम
पर बँटे लोगों राजनीतिक-सामाजिक कुटिलताओं के सत्तातंत्र में फंसे आम आदमी के जीवन
को खुली आँखों से देखने और मनुष्यता के हक में नैतिक कार्यवाही करने की आकांक्षा
और प्रतिरोध की ईमानदार उपस्थिति है. अरुण कमल अपनी कविता में प्रत्येक शोषण,
अन्याय, असमानता. विवशता, असहाय, उपेक्षित स्वरों और क्रूर-हिंसक नैतिक पतन के
दौर में बारीक से बारीक मानवीय चीख को भी तमाम विकास की चकाचौंध और निरर्थक शोर
में सुनने वाले कवि हैं और उस सामूहिक आवाज़ का, संघर्ष का
हिस्सा भी बनते हैं. दलित-उत्पीड़ित अस्मिताओं के लिए मुक्ति के स्वप्न की
मूल्यवत्ता को उनकी कविता बखूबी समझती है- ‘मुक्ति न भी मिले
तो बना रहे मुक्ति का स्वप्न.‘
योगफल कविता संग्रह में कवि की यह दुनिया और बहुआयामी और परिपक्व रूप
लेकर कविताओं में ढली है. क्योंकि अरुण कमल सिर्फ शब्दों से नहीं -रक्त संबंध की
तरह जीवन के एक एक कतरा अनुभव को महसूस करते हुए जनसाधारण और के दुखों, अभावों, निराशाओं , पीड़ा को जीते हैं वह उनके साथ पाठक के सहज जीवनानुभवों को परिष्कृत करते
हुए जिस तरह संवेदना का अभिन्न अंग़ बन जाते हैं, वही उनकी
कविता की वह उदात्त-उन्नत भावभूमि है जो उन्हें वैश्विक चेतना से जोड़ती है. कविता
में यह यथार्थ सतह पर नहीं बल्कि जिन अनुभवों की अंतर्ध्वनियों और स्मृतियों में
गहरे रूप से समाया होता है वह उनकी वस्तु-भाषागत विशिष्टता है –
सबसे जरुरी सवाल यही है मेरे लिए कि
क्या हमारे बच्चों को भरपेट दूध मिल रहा है
क्या हर बीमार को वही इलाज जो देश के प्रधान को
बसे जरूरी सवाल यही है मेरे लिए कि इतने लोग
भादो की रात में क्यों भीग रहे हैं
कहाँ गये वे लोग इन बस्तियों को छोड़कर
जिस देश में भूखे हों बच्चे, माँएं और गौवें
उस देश को धरती पर रहने का हक नहीं.
प्राय: छोटी कविताएँ लिखने वाले कवि का एक नया आयाम भी इस पुस्तक में
देखा जा सकता है. इस कविता संग्रह में अरुण कमल जी की अब तक की सबसे लम्बी दो
कविताओं के साथ-साथ कुछ कविता शृंखलाएं भी हैं जो इस पुस्तक की नवीनता है. शोकगीत, कविता-2013, प्रगतिशील लेखक संघ
के ऐलबम से, किस वतन के लोग ऐसी ही गंहन सामयिक कविताएँ हैं
जिनमें अपने समय के ज्वलंत प्रश्न और गतिशील वृतांत भी हैं तो यह भी लगता है कि
कवि के लिए अनुभव या भाव पहले से अधिक परतदार और संश्लिष्ट हुआ है और जो उनके लिए
कभी भी एक निर्मिति में पूर्ण नहीं होता –
वे मारे गये
कहीं कोई खून नहीं
वे मारे गये
कहीं कोई चिन्ह नहीं
वे मारे गये पर कोई हत्यारा नहीं
कौन कहता है गुलामी खत्म हो गयी
कौन कहता है यहाँ जनतंत्र है
नगर नगर महानगर
हर बार इस सभ्यता को चाहिये नये खून की खुराक
खाली हो रहे हैं जंगल जंगल
हर शहर हर बस्ती के पास एक शरणार्थी शिविर
इस गरीब के पक्ष में बोल कर तो देखो
हम हारने से नहीं डरते
डरते हैं चुप बैठने से
वे जो मारे गये तुम्हें पुकार रहे हैं
जो जीवित हैं वे वंशज हैं मृतकों के.
यहाँ उनकी कविता अधिक स्याह, उदास और अंतर्मुखी हुई है, ज्यादा वैचारिक लेकिन
जिसमे जीवन की अनेक नयी लयों का, प्रसंगों का समावेश हुआ है.
इस मामले में अरुण कमल जी मानते हैं की कविता कभी अनुकूल समय का इंतज़ार नहीं करती
सबसे विरोधी समय में ही हस्तक्षेप करती है. मनुष्य जीवन के सभी सुख-दुख और
त्रासदियों को दर्ज़ करने का काम कविता नहीं करेगी तो मानवता का दस्तावेज़ कौन तैयार
करेगा इसलिये यह कार्यभार भी कवि का है. इसलिए प्रतिरोध का स्वर इन कविताओं में भी
उतना ही तीव्र और संश्लिष्ट है. इसलिए कविता उनके जीवन के रेशे-रेशे में है और यह
जितनी बाहर दुनिया में है उससे कहीं ज्यादा उनके भीतर प्रतिबद्ध है. अन्तिम लंबी
कविता– ‘प्रलय’ इसी निराशामय यथार्थ
के समय में जटिल हिंसक व्यवस्था से संघर्ष करते हुए अपना मानवीय पक्ष चुनने की
अभिव्यक्ति है जिसमें सभी रास्ते बंद होने पर भी अपनी ताकत को पहचानकर उसे अपनी और
अपने लोगों की लड़ाई लड़नी है. यह संघर्ष स्वंय के साथ-साथ पूरी सृष्टि के प्रति
अनुराग से, उसकी जरूरतों से भी जुड़ा है इसलिए कविता भी सबके
बारे में सबके लिये होती है, यही उसकी पहचान है-
यह तुम क्या कर रही हो
मैं अभी से चावल दाल जमा कर रही हूँ
थोड़ा नमक
लगता है घनघोर बारिश होगी
लगता है लड़ाई होगी
उस रात लगातार चमकती रहीं बिजलियाँ
इतने सुखाड़ इतने रौद्र घाम के बाद
लगातार गिरता रहा पानी
पूरा देश वधस्थल की ओर जा रहा है
कहाँ जा रही है यह भीड़
किसके घर बधावा किसके दर मातम
कितनी लाशें आयीं शहर में इस बार
युद्ध सिर्फ वही मोर्चे पर नहीं होता
युद्ध लगातार चल रहा है हर घर हर जीवन में
जब पवित्रता के लिए स्थान न बचे
जब कठिन हो जाये ईमान से जीना
तब मुझे बचाना गंगा मेरी माँ
मैं बार-बार आउँगा धधकती चिता से उठकर
ऐसा अनिश्चय ऐसी बेचैनी
सब चले जा रहे एक एक कर
इस शहर को छोड़्कर
जिसे जहाँ ठौर मिला
जिसे जहाँ कौर मिला
पर जायेंगे कहाँ वे वृक्ष इतने नीड़ लिए
कुत्ते भी इन्हीं घरों पर देह मोड़ सोयेंगे
नीचे धाह उपर शीत
अभी तो कार्य नीति यही है
कि गणना ऐसी बिठानी है
कि किसमें किसको जोड़ दें
कि योगफल हर बार सत्ता हो.
इतनी रात ऐसा सन्नाटा दूर कहीं अजीब हूल चीत्कार
पक्षी पेड़ों से सटे
एक झड़्ता पत्ता भी भारी हवा को
एक अजीब भयानक सपना था वो
रात का या दिन का याद नहीं या कोई स्मृति
नीचे पानी केवल पानी पानी पानी
कहीं नहीं धरती न रेत न हिमालय
प्रलय प्रलय प्रलय.
समकालीन जनतंत्र में साधारण मनुष्य की अथाह त्रासदी और व्यवस्थागत
विसंगतियों, द्वंद्वों और
विरुद्धों का समावेश करती यह अनूठी कविता जो स्वचालित सी गतिमान होते हुए बिना
किसी कथानक के भी रोज के दैनंदिन प्रसगों, घटनाओं से आकार
ग्रहण करती हुई अनियोजित सी रहते भी जिस बसावट की ओर जाना चाहती है वहाँ भी चारों
ओर खाली जगहें रह जाती हैं, और हर योगफल जीवन की तरह कविता में भी अपूर्ण है.
कवि की रचना प्रक्रिया में भी ये तमाम संकट आते हैं जहाँ वह कोई
स्पष्ट निर्णय सुनाते हुए नहीं चल सकता लेकिन इन सबके बीच इन सबसे जूझते हुए वह आगे बढता है और यही जमीन की कविता है. एक मनुष्य की तरह उसमें आत्मसंशय, जिज्ञासा, विनम्रता और सीमाओं
का स्वीकार है लेकिन कमजोर, असहाय, बेसहारा
और पीड़ित के जीवन को बार बार देखने का प्रयास है. कविता-संग्रह के आंरभ में दी गई
तुलसीदास की ये पंक्तियाँ गौर करने योग्य हैं-
विनय पत्रिका दीन की बापु आप ही बांचो
हिय हेरी तुलसी लिखी सो सुभाय सही करि
बहुरि पूँछिये पाँचों.
अपनी कविता को वे ‘दीन
की विनयपत्रिका’ कहते हैं तो यह उनकी असाधारण विनम्रता के
साथ कविता के लिये पाडित्य के ज्ञान से अधिक संवेदना और सह्र्दयता की जरुरत का
संकेत है. इसलिये शिल्प के चमत्कार के लिये कोई सजगता यहाँ नहीं है पर सतह की
सरलता में ही संवेदनात्मक संष्लिष्टता है और तल में भावों में अथाह गहराई. विषय और
काव्य दृष्टि के साथ उनकी भाषा भी बहुस्वन और गहन हुई है और उसमें देशज शब्दों का
माधुर्य उनकी भाषा को अद्भुत लोकबद्धता प्रदान करता है.
उनकी कविता समसामयिक सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक वर्चस्व से आहत साधारण वर्ग का पक्ष लेती है इसलिये वे वैचारिक होने के लिए अनुभवों को गढते नहीं बल्कि उनके जीवन में तन्मयता से दायित्वबोध को, उनकी उपस्थिति का प्रतिनिधित्व कविता दर्ज़ करती है जो बहुत नि:स्वार्थ और ईमानदार दृष्टि है. भूमंडलीकरण और पूंजीवादी मुक्त बाजार की व्यवस्था के भयावह दौर में जो साधारण लोग मुख्यधारा से बाहर हाशिये पर किये जा रहे हैं, उनकी मूलभूत जरुरतें और अस्मिता और अधिकारों के साथ जंगल, पहाड़, नदियाँ भी उनसे छीने जा रहे हैं, जीवन के बाहर धकेले जाने के लिए जो विवश हैं, यह कविता उनके पक्ष में हमेशा अविचल उपस्थित है. इसलिये समकालीन कविता की पीढ़ी में वे सबसे अलग पहचाने जाते हैं और जरूरी हस्तक्षेप हैं, मानव-विरोधी प्रत्येक व्यवथा के प्रतिरोध में सबसे सशक्त स्वर हैं.
पुस्तक में हिंदी कविता के कुछ गंभीर कवियों जैसे दूधनाथ सिंह, चंद्र्कांत देवताले, लीलाधर जगूड़ी को याद करते हुए बहुत आत्मीय कविताएँ भी संकलित हैं. आवरण पृष्ठ के फ्लैप पर जो वक्तव्य है वह इन कविताओं पर जरुरी टिप्पणी है-
उनकी कविता समसामयिक सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक वर्चस्व से आहत साधारण वर्ग का पक्ष लेती है इसलिये वे वैचारिक होने के लिए अनुभवों को गढते नहीं बल्कि उनके जीवन में तन्मयता से दायित्वबोध को, उनकी उपस्थिति का प्रतिनिधित्व कविता दर्ज़ करती है जो बहुत नि:स्वार्थ और ईमानदार दृष्टि है. भूमंडलीकरण और पूंजीवादी मुक्त बाजार की व्यवस्था के भयावह दौर में जो साधारण लोग मुख्यधारा से बाहर हाशिये पर किये जा रहे हैं, उनकी मूलभूत जरुरतें और अस्मिता और अधिकारों के साथ जंगल, पहाड़, नदियाँ भी उनसे छीने जा रहे हैं, जीवन के बाहर धकेले जाने के लिए जो विवश हैं, यह कविता उनके पक्ष में हमेशा अविचल उपस्थित है. इसलिये समकालीन कविता की पीढ़ी में वे सबसे अलग पहचाने जाते हैं और जरूरी हस्तक्षेप हैं, मानव-विरोधी प्रत्येक व्यवथा के प्रतिरोध में सबसे सशक्त स्वर हैं.
पुस्तक में हिंदी कविता के कुछ गंभीर कवियों जैसे दूधनाथ सिंह, चंद्र्कांत देवताले, लीलाधर जगूड़ी को याद करते हुए बहुत आत्मीय कविताएँ भी संकलित हैं. आवरण पृष्ठ के फ्लैप पर जो वक्तव्य है वह इन कविताओं पर जरुरी टिप्पणी है-
"इन कविताओं की एक और विशेषता अनेक अंत:ध्वनियों की उपस्थिति है. अनेक पूर्व स्मृतियाँ और अनुगूँजें हैं. अरुण कमल की कविताएँ अपनी गज्झिन बुनावट, प्रत्येक शब्द की अपरिहार्यता और शिल्प-प्रयोगों के लिए जानी जाती है. गहन ऐंद्रिकता, अनुभव-विस्तार और अविचल प्रतिरोधी स्वर के लिए ख्यात अरुण कमल का यह संग्रह हमारे समय के सभी बेघरों, अनाथों और सताये हुए लोगों का आवास है- एक मार्फत पता."
अरुण कमल की कविता में साधारण मनुष्य के लिये जो अथाह प्रेम और
करुणा है. अप्रतिम गाम्भीर्य के साथ जीवन को देखने
की गूढ दृष्टि और एक विनम्र औदात्य उनके सहज उदार व्यक्तित्व का अभिन्न अंग है जो
सबको प्रभावित करता है. सच कहने का साहस और जीवन से प्रेम उनकी रचनात्मकता का
केंद्रीय भाव है. पथरीली, सूखी,
जलहीन और अभावग्रस्त मानवता की जमीन पर खड़ी रहकर भी उनकी कविता सबसे
उर्वर है, हरी है, और उसकी जड़े सबसे
गहरी हैं सबके लिये प्रेम से परिपूर्ण, आगामी पीढ़ी के लिए पथ
प्रदर्शक यह ‘योगफल’ समकालीन हिंदी
कविता की विलक्षण उपलब्धि है –
जब तुम हार जाओ
जब वापिस लौटो
वापिस उन्हीं जर्जर पोथियों पत्रों के पास
सुसुम धूप में फिर से ढूंढो वही शब्द लुप्त
फिर से अपना ही वध करो
फिर से मस्तक को धड़ पर धरो
होने दो नष्ट यह बीज
फूटने दो नये दलपत्र.
सुन्दर कविता चयन, बेहतरीन समीक्षा, कविताएँ मस्तिष्क में सनसनाहट उत्पन्न करने वाली हैं, बधाई समीक्षक, समालोचन,व अरुण कमल जी को
जवाब देंहटाएंअद्वितीय प्रस्तुति, जबकि संश्लिष्ट भावों और इतिहास की कदमताल की उलझनों को ठीक ठीक समझने और सटीक आलोचना की चुनौती थी। साधुवाद।
जवाब देंहटाएंइस समीक्षा आलेख के माध्यम से मीना बुद्धिराजा ने अरुण कमल की कविताओं की अंतर्वस्तु और बयानगी की खूबियों को बहुत सटीक विवेचन से उभार दिया है। इस समीक्षा की खूबसूरती यही है कि वे अरुण कमल की कविता को उसकी समग्रता में विश्लेिषित करती हैं, जहां उनके पूर्व प्रकाशित संग्रहों की कविताएं भी हवाले में रही हैं। अरुण हमारे समय के निश्चय ही महत्वपूर्ण कवि हैं , मीना जी ने निश्चय ही उनकी कविताओं पर एक बेहतरीन विवेचन प्रस्तुत किया है। उन्हें बधाई।
जवाब देंहटाएंगहन,विस्तारित व यथार्थपरक कविताएँ!स्वयं से जूझती हुई कलम !
जवाब देंहटाएंरुचिपूर्ण समीक्षा!
Meena जी व समालोचन का इस विशेष कृति से परिचय करवाने को आभार।
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