(विष्णु खरे, चन्द्रकांत देवताले और प्रफुल्ल शिलेदार) |
प्रफुल्ल शिलेदार मराठी के कवि और
अनुवादक हैं. हिंदी से मराठी तथा मराठी से हिंदी में अनुवाद का उनका विस्तृत कार्य
है. चंद्रकांत देवताले पर उनका यह सुंदर आत्मीय संस्मरण सहेजने योग्य है. कवियों
से प्यार करना हिंदी को लोगों को मराठी से सीखना चाहिए.
चंद्रकांत देवताले : एक
सम्पूर्ण कवि
प्रफुल्ल
शिलेदार
१९९३ के आसपास की बात होगी. भोपाल में एक साहित्यिक गोष्ठी में शरीक
होने मैं नागपुर से गया था. चंद्रकांत
पाटील, चंद्रशेखर जहागीरदार, भास्कर भोले, निशिकांत ठकार, सतीश कालसेकर आदि मराठी
के जाने माने लेखक कवि जमा हुए थे. मैं और मेरा दोस्त भुजंग मेश्राम दोनों साथ-साथ
थे और इन सबकी बातें हम दोनों बड़े ध्यान से सुन रहे थे. कभी-कभार कुछ बोला भी किया करते थे; लेकिन
सुनना ज्यादा. यशपाल, राजवाड़े, आंबेडकर, महात्मा फुले, विट्ठल रामजी शिंदे से लेकर
आज के कई बड़े विदेशी विचारकों तक कोई भी विषय अछूता नहीं था वहां. जमकर वैचारिक बहस
हो रही थी. इस जमावड़े में हिन्दी से चंद्रकांत देवताले भी शामिल थे. बीच बीच में वे
हम दोनों की ओर देखते और मुस्कुराते रहते थे और फिर से चर्चा का आनंद लेने में जुट
जाते थे. थोड़ी देर बाद वे धीरे से उठ कर
हम दोनों के पास आये और दोनों के कंधो पर हाथ रख कर बड़े प्यार से सहेजते हुए कोई
गोपनीय बात बताने के ढंग में बोले ‘देखो प्रफुल्ल, हम कवि लोग है. ऐसी मगजमारी में
हमने नहीं पड़ना चाहिए. ये हमारा काम नहीं है, समझ गए ना ?’ और एक जोरदार ठहाका
लगाकर हम दोनों के साथ बैठक जमा दी. हम भी उनसे खुल कर बातें करने लगे.
चंद्रकांत पाटील जी के माध्यम से उनके साथ मेरी पहली मुलाकात हुई थी. पाटील
जी ने ही उनसे मेरा परिचय करवा दिया था. एक स्नेह का धागा कविता के कारण भी जुड़
गया था. वह आखिर तक दिन-ब-दिन और भी मजबूत होता गया.
मैं देखते आया हूँ की देवताले जी अपने कवि होने को हमेशा खुलकर बयाँ
करते रहे है. अपने कवि होने का अहसास दूसरों को देने में वे बिलकुल हिचकिचाते नही
थे. उनकी कविताओं में भी एक ऐसा ठेठपन था जो मराठी कविता में विरला ही दिखाई देता
था. निम्बू, रोटी, आग, चाकू, धूप, झाड़ू-पोछा, गोबर-कंडे, पत्थर, हवा जैसी उनकी
कविताओं मे आने वाली अपनी जिन्दगी की सीधी सादी चीजें और उन बिम्बों का अलग अंदाज
में कविता में आना, अलग अर्थ प्रेषित करना मोहित कर लेता था. उनसे और उनकी कविता
से भाषा को लांघ कर मेरा ही नहीं तो मेरे जैसे कई मराठी पाठकों का एक नाता जुड़ गया
था.
नागपुर बुक फेअर के एक आयोजन में उनके साथ कविता पाठ करने का प्रसंग
आया. मैं, कविता महाजन और देवताले जी. मैंने और कविता ने पहले अपनी कविताए पढ़ी.
फिर देवताले जी ने करीब पौन घंटे तक काव्यपाठ
किया. पहले तो वे कह रहे थे कि तबियत कुछ ठीक नहीं है. लेकिन हम उनका पाठ देख कर चकित हो रहे थे. उनके
पाठ में इतनी एनर्जी और पकड़ थी के श्रोता भी दंग रह गए. एक एक शब्द मानो पूरी ताकत
के साथ और पूरे आग्रह के साथ वे कहते थे. उनके शब्द सिर्फ अर्थ ही नहीं पूरे भाव
को लेकर कानों तक पहुँच रहे थे. कहन का अंदाज कुछ और ही था. उनकी कविताओं में एक
तरह की सम्वादात्मकता है जो उनके पाठ से छलक रही थी. सर्दी के दिन थे तो लाल रंग
की उनी टोपी और स्वेटर पहनी उनकी छवि आज भी नज़र के सामने आती है. श्रोताओं में
हिन्दी से ज्यादा मराठी श्रोता थे और वे सब देवताले जी को हिंदी के एक बड़े कवि के
रूप में अच्छी तरह जानते थे. सभी को उनकी कई कविताएँ याद थी. हिन्दी की सीमायें लाँघ कर
जो हिन्दी कवि मराठी भाषा के कवियों तक ही नहीं बल्कि सामान्य पाठकों तक पहुंचे है
उन में चंद्रकांत देवताले जी का नाम सब से ऊपर आता है. इस का श्रेय अर्थात
हिंदी-मराठी इन दोनों भाषाओँ में सेतु का काम कई सालों से करते आ रहे निशिकांत
ठकार जी और चंद्रकांत पाटील जी का है. उस
वक्त वे करीब तीन दिन नागपुर में रहे. तो चंद्रकांत पाटील, विष्णु खरे के साथसाथ
मेरी भी उनसे अखंड बातचीत होती रही.
देवताले जी से कई बार मुलाकातें होती गयी. फोन पर बातों का सिलसिला भी
शुरू हुआ. वह अखिर तक चला. उनसे मिलने एक बार मैं उज्जैन गया था. वह २००३ साल चल
रहा था. १९५२ से देवताले जी कविता लिखते आ
रहे थे. यानि उनके कविता लेखन को उस वक्त पचास साल पूरे हो चुके थे. पहले से ही उनसे
बात कर के तय किया के इस बार आऊंगा तो अपनी बातचीत रेकोर्ड करूँगा. एक मराठी
दीवाली अंक के लिए आपका इंटरव्यू देना चाहता हूँ. हमारी दिनभर लम्बी बातचीत हुई. मैंने उनसे ऐसे कई सवाल पूछे जो एक कवि अपने से
करीब चालीस साल पहले से लिखते आये वरिष्ठ कवि से राहगीर की तरह पूछता हो. उन्होंने
बिना हिचकिचाए सभी के जवाब दिए. कविता में विचारधारा से लेकर नए बिम्ब विधानों तक
कई मुद्दों के बारे में बात हुई. हिंदी-मराठी कविता की परंपरा की बात हुई, नई
कविता के प्रतिमानों की बात हुई, कविता लिखने की प्रक्रिया के बारे में कुछ कहा
गया, कवि कर्म क्या होता है, कवि और समाज के संबंधों के बारे में भी उन्होंने दो
टूक राय दी. आज भी मैं उस इंटरव्यू को निकालकर पढने लगता हूँ तो अन्दर एक गर्माहट
सी छा जाती है. बाद में यह इंटरव्यू हिन्दी में वसुधा में छपा और अंग्रेजी में भी
आया.
मराठी कविता के परिदृश्य के बारे में वे बहुत सजग थे. उस वक्त की नामी
पत्रिका ‘सत्यकथा’ वे नियमित रूप से पढ़ते थे. मराठी कविता की परंपरा से वे अच्छी
तरह अवगत थे. मराठी में नया क्या लिखा जा रहा है इस के बारे में भी उन्हें अच्छी
जानकारी रहती थी और वे नए मराठी कविता में खूब रूचि रखते थे. चंद्रकांत पाटील,
निशिकांत ठकार, दिलीप चित्रे, नामदेव ढसाल, सतीश कालसेकर, श्याम मनोहर से लेकर भुजंग
मेश्राम, कविता महाजन, श्रीधर नांदेडकर तक को वे अच्छी तरह जानते थे. अपने आप को
उन्होंने मराठी भाषा के परिदृश्य से काफी नजदीकी तौर से जोड़ लिया था. मराठी को वे ‘मावस
बोली’ मानते थे. मराठी में कहीं उनके अनुवाद आते तो उसके बारे में क्या प्रतिक्रिया
है यह जरूर पूछते.
दस बारह साल पुरानी बात होगी. किसी काम से वे वे वर्धा आये थे. नागपुर
से वर्धा तो बहुत करीब है. आठ दस दिनों के लिए आये थे. फोन पर बात तो होती ही थी.
मैं एक दिन उनसे मिलने वर्धा चला गया. उस दिन उनके साथ वहीं रुक गया. शाम को हम सेवाग्राम के गाँधी आश्रम गए. साँझ
का वक्त था. आश्रम में प्रार्थना की तैयारी हो रही थी. पूरा वातावरण गंभीर था. हम
दोनों एक पेड़ के नीचे बैठ गए. काफी देर दोनों अपने आप में खो गए से थे. कुछ बात नहीं की एक दूसरे से. बस, प्रार्थना के
नेपथ्य में हम दोनों के बीच मौन छाया था. फिर देवताले जी अचानक बोलने लगे. ‘मैं
यहाँ पर क्यों आया. वहां कमा की तबियत ठीक
नहीं है. मेरा वहां रहना जरूरी है. बस इनको हां कह दिया. जुबान दे बैठा तो के लिए यहाँ
आना पड़ा. फंस गया मैं तो यहाँ आ कर.’ बहुत बेचैन हो उठे. मानों उन्हें किसी ने वहां जंजीरों से जकड़कर
रखा हो और वे छूटने की कोशिश कर रहे हो. यह प्रसंग बाद में मेरे मन में कई दिनों
तक कांटे की तरह चुभता रहा. इस प्रसंग के कई दिनों (सालों) बाद मैंने एक कविता
लिखी जिमसे यह प्रसंग आ गया. हालाँकि उस कविता में नामोल्लेख अर्थात किसी का नहीं
था. कई दिन कविता पड़ी रही. फिर मेरे कविता संग्रह में आयी. मेरी हर किताब मैं
चंद्रकांत जी को भेजता था. यह संग्रह भी भेज दिया.
अचानक एक दिन उनका फोन आया. बेचैन से थे. ‘प्रफुल्ल, यह कविता तूने
किस पर लिखी जरा बता.’ मैं हक्का बक्का रह गया.
कुछ सूझ नहीं रहा था की क्या जवाब दूँ. समझ में नहीं आ रहा था कि उन्होंने
इस कविता में रखी बात को, प्रसंग को पहचान कर वैयक्तिक तौर पर तो नहीं लिया और वे
दुखी तो नहीं हुए. ‘हाँ, मेरे एक कवि मित्र है. जिनका जिक्र है यहाँ.’ ऐसा कह कर
मैं टालते गया तो वे बात को पकड़ कर बैठे. मुझे लगा की उन्हें वह प्रसंग पूरा याद
आया हो. गाँधी आश्रम की वह शाम, प्रार्थना, कमाभाभी की याद... लेकिन उनके सवाल से मैं
बहुत अचंभित सा हो गया. उनके सवाल से मन आशंकित हुआ के यह प्रसंग- अलग तरह से
क्यों न हो- कविता में आने के कारण मेरे हाथ से कोई गलत बात तो नहीं हुई. कुछ जवाब नहीं दे पाया. क्यों की ऐसी
बातों के कोई जबाब होते ही नहीं. कोई चीज कविता में क्यों आती है, किस तरह आती है,
कोई बात अचानक कविता के केंद्र में क्यों आ जाती है, कोई बात चाहते हुए भी हाशिये
पर ही क्यों रह जाती है इस के क्या जवाब हो सकते है. इतने साल के बाद, सारे सन्दर्भ
बदल जाने के बावजूद कोई अकेला व्यक्ती इस तरह कविता के भीतर तक पहुँच कर, सारे
शब्दों के पसारे को हटाकर, उस कविता के केंद्र में जो घटित था उस तक कैसे पहुँच
सकता. मैं हैरान था. मेरी दिक्कत उन्हें फौरन समझ में आ गयी होगी. उन्होंने ही फिर
मुझे थोडा सा आश्वस्त किया. कविता के बारे में और भी बाकी बहुत सारी बातें की. एक हैरानी
को मन से निकाल दिया. आज भी जब मैं उस कविता की तरफ देखता हूँ तो चंद्रकांत जी ने
पूछा हुआ वह सवाल याद आ जाता है.
चन्द्रकांत जी के स्वभाव में बच्चों जैसी मासूमियत थी. बहुत सीधे ढंग
से वे किसी से पेश आते थे. उस में न कोई पोज रहती थी न कोई आडम्बर रहता था. हाँ..
वे अपने मित्रों में हलकी सी बदमाशी भी कर लेते लेकिन वह सब उनकी मासूमियत का ही
एक अंदाज होता था. कभी वे कोई बात मुझे
बड़े गोपनीय ढंग में बताते और कहते के ये बात मैंने सिर्फ तुम्हे ही बतायी है. काका
(चंद्रकांत पाटील) से बिलकुल मत कहना. मैं भी हामी भर देता. लेकिन मुझे असलियत पता
रहती थी की वह बात वे मुझ से पहले ही ‘काका’ को बता चुके होते थे.
यह जो सरलता उनमे थी उस से कारण शायद उनकी कविता में एक तरह की
पारदर्शिता भी आती थी. उनकी कविता कभी भी शब्दों के जंजाल में फंसी नहीं, न कभी
अपने भीतर के तलघर में कोई गहन अर्थ छिपाती गयी. चंद्रकांत जी कभी किसी साहित्यिक
सत्ता केंद्र के नज़दीक नहीं रहे, न अपने आप को कभी एक सत्ता केंद्र बनने दिया.
मराठी हो या हिन्दी, सभी जगह आज सत्ता का घिनौना खेल दिख रहा है. पूरी कीमत अदा कर
के उन्होंने इसके खिलाफ़ भूमिका ली है और कविताएँ लिखी हैं. इसीलिए वे अपने कविता
संग्रह को ‘खुद पर निगरानी का वक्त’ जैसे शीर्षक दे पाये और इसीलिये वे ‘पत्थर
फ़ेंक रहा हूँ’ यह भी ऊँचे आवाज में कह पाए. बिना नैतिकता से ऐसा लिखना भी किसी
लेखक के लिए संभव नहीं है. मुक्तिबोध के प्रभाव के रूप में मार्क्सवाद तो उनके
रगों में था ही लेकिन साथ ही गाँधी विचार धारा भी उनके लिए उतना ही महत्त्व रखती
थी यह उनके लेखन से दिखाई देता है. उनकी कविता को आखरी सांस तक बचा कर रखने में
यही बातें काम आयी होगी शायद.
उनसे आखिरी मुलाकात उनके जाने से पहले उज्जैन में उन्ही के घर में ही
हुई. कुमार अम्बुज के घर की शादी के लिए मैं और विष्णु खरे भोपाल गए थे. पहले से
ही तय कर रखा था के भोपाल से हम उज्जैन में देवताले जी से मिलने जायेंगे. शादी के
दूसरे दिन सुबह सुबह उज्जैन पहुँच गए तो चंद्रकांत जी स्टेशन पर गाडी-ड्राइवर लेकर
हमारी राह देखते हाजिर थे. तबियत ठीक न होने के बावजूद काफ़ी उल्हासित थे. तीनों ने
पूरा दिन गपशप में गुजारा. देवताले जी ने उस दिन भोजन के बाद दोपहर का आराम भी
नहीं किया. विष्णुजी के आने से वे बहुत उत्तेजित थे. शाम को हमने उनसे विदा ली.
वही आखरी मुलाकात रही. फोन पर तो बातें आगे भी चलती ही रहती थी. एक दूसरे से
निरंतर संपर्क बना रहता था. मैं महीनाभर फोन न करूँ तो शिकायत करते थे. ताने मारने
लगते थे. मिलने के वादे भी होते थे. लेकिन फिर से मिलना संभव नहीं हुआ.
मेरी कविता के लिए वे एक जमीन से थे. मैं हमेशा उनसे प्रेरित होता
गया. बातें तो कई बार रोजमर्रा की होती थी, कविता की भी होती थी. उनके सहवास से,
उनसे हुई बातों से एक उर्जा मिलती थी. विचारों से वे परिपूर्ण थे लेकिन उनका
कवि-व्यक्तित्व भावनाशील था. उनका कुल व्यक्तित्व अपने आप एक कवि ने किस तरह होना
चाहिए यह बखान करता था. मैं ऐसे बहुत कम साहित्यकारों से मिला हूँ जो सम्पूर्ण
अंतर्बाह्य रूप से कवि होते है. उनके बातों में, व्यवहार में, कविता में, कभी अंतर
नहीं होता. कोई भी प्रलोभन उनके कवि होने को एक टुच्चे आदमी में बदल नहीं सकते थे.
हाँ... चंद्रकांत देवताले इस पृथ्वी के इन्ही विरला कवियों में से एक थे.
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प्रफुल्ल शिलेदार मराठी के बहुचर्चित-बहुप्रकाशित कवि-अनुवादक-आलोचक
है. हिंदी-मराठी की मिली-जुली संस्कृति के नगर नागपुर में ३० जून १९६२ को जन्म.
विज्ञान, मराठी साहित्य तथा
अंग्रेजी साहित्य में स्नातक. मराठी में तीन कविता संग्रह प्रकाशित. तीन किताबों
का संपादन. तीन अनुवादित किताबें प्रकाशित. उनकी चुनिन्दा कविताओं के हिंदी
अनुवादों का संकलन ‘पैदल चलूँगा’ प्रकाशित.
कविता के कई संकलनों में उनकी कविताओं का अंतर्भाव. कविता लेखन के अलावा उन्होंने
कहानियाँ, संस्मरण, आलोचना आदि गद्य
लेखन भी किया है. वह पिछले कई वर्षों से हिंदी से मराठी तथा मराठी से हिंदी में
अनुवाद कर रहे हैं. विनोद कुमार शुक्ल और ज्ञानेंद्र पति की कविताओं का पुस्तकाकार
अनुवाद प्रकाशित तथा चंद्रकांत देवताले का कविता संग्रह ‘पत्थर
फेंक रहा हूँ’ का अनुवाद प्रकाश्य. हिंदी के साथ अन्य भारतीय
भाषाएँ, लैटिन अमेरिकन तथा पूर्व यूरोपीय कवियों के मराठी
अनुवाद प्रकाशित. उनकी कविताओं के अनुवाद हिंदी सहित कई भारतीय तथा अंग्रेज़ी सहित
अन्य विदेशी भाषाओँ में हुए हैं. २०१८ के साहित्य अकादेमी अनुवाद पुरस्कार से
सम्मानित. ब्रातिस्लावा, स्लोवाकिया में आयोजित पूर्व यूरोप
के सुप्रतिष्ठित कविता-समारोह ’आर्स पोएतीका’ में २०१३ में आमन्त्रित वह पहले
भारतीय कवि थे. यूरोप, अमेरिका तथा मध्य पूर्व की यात्राएँ. देश विदेश के कई महत्वपूर्ण
साहित्यिक आयोजनों में काव्यपाठ.
संपर्क :
मोबाईल : ९९७०१८६७०२
इमेल : shiledarprafull@gmail.com
संपर्क पता : ६ अ, दामोदर कॉलोनी, सुरेंद्रनगर, नागपुर
४०००१५
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (23-08-2019) को "संवाद के बिना लघुकथा सम्भव है क्या" (चर्चा अंक- 3436) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत आत्मीय संस्मरण...हम भी नजदीक के शहर के होने से कई बार देवताले जी से मिलते रहे तो इसे पढ़ते हुए उनकी छवि और बात करने का अंदाज़ स्मृतियों में दस्तक देता रहा...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर। चंद्रकांत कभी कभी बड़े नाटकीय ढंग से अचानक गु़स्से में आजाते और जब सुनने वाला सहम जाता तो ठहाका मार कर हंसते। गंभीर थे लेकिन बेहद विनोदप्रिय।
जवाब देंहटाएंउनकी भाषा में एक ऐंठ थी कीचड़ मिट्टी और पसीने से सनी हुई। कड़ियल। हिंदी में अपने ढंग की अकेली। मुक्तिबोध की याद दिलाती हुई।
'कुछ बच्चे और बाकी बच्चे' उनकी कविता दिनमान ने मुखपृष्ठ पर छापी थी।
उनकी वह विनोदप्रियता और ठेठपन अब हिंदी में किसी के पास नहीं।
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