कवियों पर
कविताएँ कवि लिखते रहें हैं. ‘पुरस्कारों की घोषणा’ में रंजना मिश्रा ने कवियों पर
जो मीठी चुटकी ली वह कमाल की ही. एक कविता अभिनेता संजीव कुमार पर है तो कुछ
कविताएँ अपने शोहदे प्रेमी अंजुम के लिए. लगभग सभी कविताएँ किसी ने किसी तरह प्रेम
से जुड़ती हैं. प्रेम जहाँ करुणा भी है और एक छल भी. एक कविता वृक्षों पर है जो प्रेम
का आश्रयस्थल है पर तेज़ी से प्रेम की तरह ही विलुप्त हो रहा है. शिल्प में सुगढ़ कविताएँ.
रंजना मिश्रा
की कुछ कविताएँ आपके लिए.
रंजना मिश्रा की कविताएँ
हरिहर जेठालाल जरीवाला (संजीव कुमार)
(1)
दुख का रंग पर्दे पर
उन दिनों गुलाबी था
नायिकाएँ दुख में भी
गुलाबी नज़र आतीं
नायक मरून सिल्क के
लूँगी कुर्ते में
उसी रंग की शराब के
सहारे
प्रेम में हार का गम
ग़लत किया करते
प्रेम अतिरंजना, दुख नाटकीयता और खुशी
मिलावट के रंगों से
चिपचिपाती थी
तुम वहीं थे न उन
दिनों हरि भाई?
(2)
पहले पहल देखा था मैने
तुम्हें इन्हीं दिनों
अपनी मोटी कमर पर उतनी
ही चौड़ी बेल्ट कसे
छींट दार शर्ट के
चौड़े कॉलर के ऊपर नज़र आती
छोटी सी गर्दन वाले
चेहरे पर जड़ी उन आँखों के साथ
जो अक्सर चेहरे से
निकलकर पूरी पृथ्वी को अपनी छांह में ले लेतीं
वह हँसी जो मुस्कुराते
हुए भी न मुस्कुराने का ढब जानती थीं
खिलखिलाती आवाज़ कई
बार दरअसल आँसुओं से भीगी नज़र आती
लौटा लाते थे तुम दुख
को दुख के, हँसी को हँसी
के
और इंसान को उसी इंसान
के घर
पूरी टूट फूट और
मरम्मत के साथ
धूरी पर घूमती हुई
पृथ्वी
लौटा लाती है जैसे
दिन को दिन के और रात
को रात के ही घर
(3)
उन दिनों भूल गई मैं
पंजाब के उस कसरती नौजवान को भी
जिसकी हँसी पर कुर्बान
हम कॉलेज कैंटीन की दीवारें उसके नाम से रंग दिया करते
पर सपनों में उसकी बगल
खुद को पाने में हिचकिचाते
(हर उम्र के अपने संशय होते हैं)
पर तुम्हारी कहन में
बस इंसान का होना ही पूरा था
अपनी पूरी विडंबना और
मधुरता के साथ
तुम कहते थे दरअसल हर
इंसान की कथा
जो नायक नहीं था
और बसते थे उस चमकती
दुनिया में रूह की तरह
या रेशम के कीड़े की
तरह
जो अपने ही धागे से
कसता जाता है लगातार
तुम अपने ही प्यार में
थे हरिभाई
या किसी स्वप्न से दंशित
(4)
शतरंज की मोहरें तुमसे
बेहतर कौन जान पाया होगा
तुमने ही तो दी थी खुद
को शह और मात
उम्र के ठीक
सैंतालीसवें साल मे
इतने किरदारों की इतनी
उमरें जीकर तुम थक चले थे शायद
सो गए कोई अधूरी कहानी
बीच में ही छोड़कर
तुम्हीं ने हमें बताया
था
नायकों के नायक होने
से पहले की सीढ़ी
उनका इंसान हो जाना है
और प्रेम, दुख,
हास्य और सहजता में रंगकर
चाँदनी रातों में उन
नक्काशीदार बेल बूटो की कथा कहनी है
जो दिन में ही नज़र आते
हैं
तुम ही तो जानते थे
बचे हुए को बचाए ले जाने का हुनर
औसत को बेहतर और बेहतर
को असाधारण बनाने का हुनर
अपने जोड़ी भर पैरों
पर पूरी ऊँचाई से खड़े तुम
जानते थे दुख को उसकी
पूरी उज्ज्वलता में बरतने का हुनर
उन दिनों भी
जब दुख का रंग गुलाबी
था !
पेड़ और कविता
पेड़ों पर लिखी
जानेवाली सारी कविताएँ
इंसानों ने लिखी
जानवर कविता कहाँ करते
हैं!
पेड़ों पर लिखी
जानेवाली अधिकतर कविताएँ
काग़ज़ों पर लिखी गईं
उसे सुंदर बनाने की
कोशिश में
खूब सारे अक्षर लिखे, काटे और मिटाए गए
शब्दों से भरे वे
काग़ज़ कवि के कमरे की शोभा बने
अक्सर वे कविताएँ मेज़
और कुर्सी पर बैठकर लिखी गईं
कई कविताओं में अलग
अलग तरीके से पेड़ों के प्रति प्रेम का वर्णन था
प्रेम कविताओं की
नायिकाएँ
अक्सर पेड़ की छाँव
में अपने प्रेमियों का इंतज़ार करतीं
पेड़ों को इसका पता था
वे नायिकाओं की
प्रतीक्षा के साक्षी बनते रहे
सदियों तक
इस बीच उन्होने कोई
कविता नही रची
बस साथ दिया
प्रेमिकाओं और कवियों का
तब तक
जबतक उन्हें काटकर
काग़ज़ या मेज़ में
तब्दील न कर दिया गया.
पुरस्कारों की घोषणा
वे अचानक नहीं आए
वे धीरे धीरे
अलग अलग गली, मोहल्लों, टोलों, कस्बों, शहरों, महानगरों से आए
कुछ - देर तक चलते रहे
कइयों ने कोई तेज़
चलती गाड़ी पकड़ी
वे अपनी दाढ़ी टोपी
झोले किताबें बन्डी और
शब्दों की पोटली लिए
आए
कुछ के पास तो वाद और
माइक्रोस्कोप भी थे
भूख और दंभ तो खैर सबके
पास था
कुछ स को श लिखते
कुछ श को स
त को द और द को त भी
अपनी जगह दुरुस्त था
कुछ सिर्फ़ अनुवादों
पर यकीन रखते
कुछ की यू एस पी प्रेम
पर लिखना था
इसलिए वे बार बार
प्रेम करते
कुछ हाशिए के कवि थे
वे अपनी कविता हाशिए
पर ही लिखते
कुछ कवयित्रियाँ भी
थीं
वे अपने अपने पतियों
को खाने का डब्बा देकर आईं थीं
वे दुख प्रेम और
संस्कार भरी कविताएँ लिखतीं
कुछ अफ़सर कवि थे कुछ
चपरासी कवि
अफ़सर कवि चपरासी कवि
को डाँटे रहता
और चपरासी कवि, कविता में क्रांति की संभावनाएँ तलाशता
कुछ एक किताब वाले कवि
थे
वे महानुभाओं की
पंक्ति में बैठना चाहते
दूसरी किताब का यकीन
उन्हें वहीं से मिलने की उम्मीद थी
सूक्ष्म कवियों के
बिंब अक्सर लड़खड़ाकर गिर पड़ते
घुटने छिली कविता ऐसे
में दर्दनाक दिखाई देती
सबके अपने अपने गढ़ थे
अपनी अपनी सेनाएँ
वे अपनी अपनी सेनाओं
का नेतृत्व बड़ी शान से करते
वे विशेष थे
विशेष दुखी, विशेष ज्ञानी और अधिक ऊँचे थे
इतने ऊँचे
कि अक्सर वास्तविकता
से काफ़ी ऊँचाई पर चले जाते
हँसी उनके लिए वर्ज्य
थी
उनका विश्वास था हंसते
हुए तस्वीरें अच्छी नहीं आतीं
वे थोड़ी थोड़ी देर
में मोटी सी किताब की ओर देखते
और बड़े बड़े शब्द
फेंक मारते
कुछ कमज़ोर कवि तो सहम
जाते
पर थोड़ी ही देर में
ठहाका लगाकर हंस पड़ते
ऐसे में दाढ़ी वाले
कवि टोपी वाले कवि को देखते
और मुँह फेर लेते
वाद वाला कवि जल्दी
जल्दी अपनी किताबें पलटने लगता
माइक्रोस्कोप वाला
बड़ी सूक्ष्मता से इसे समझने की कोशिश करता
और कुर्ते वाला झोले
वाले को कुहनी मारता
बड़ा गड़बड़झाला था
थोड़ी ही देर में
चाय समोसे का स्टाल
लगा.
और समानता के दर्शन
हुए
पुरस्कारों की घोषणा
अभी बाकी थी.
दुनिया में औरतें
उनमें से कुछ मौन हैं
कुछ अंजान
उनका मौन और अज्ञान
उन्हें देवी बनाता है
कुछ और भी हैं
पर वे चरित्र हीन हैं
हम यहाँ उनकी बात नहीं
करेंगे!
दुनिया में बस
इतनी ही औरतें हैं!
प्रेम कहानियाँ
प्रेम कहानियाँ पसंद
हैं मुझे
इनके पात्र कई दिनों, हफ्तों और महीनो मेरे साथ बने रहते हैं
फिल्मों की तो पूछिए
मत
प्रेम पर बनी फिल्में
मुझे हँसाती हैं रूलाती हैं
और स्तब्ध कर जाती हैं
मैं अपनी पसंदीदा
फिल्में
कई बार देख सकती हूँ
और
हर बार उनमें नया अर्थ
ढूँढ लाती हूँ.
ये भी एक वजह है क़ि
मेरे दोस्त मुझे ताने देते हैं
और मेरे घर के बच्चे
कनखियों से मुझे देख मुस्कुराते हैं
मुझे लगता है
यह दुनिया अनंत तक जी
सकती है
सिर्फ़ प्रेम की उंगली
थामकर
पर इन दिनों मेरा यकीन
अपने काँपते घुटनों की
ओर देखता है बार बार
हम एक दूसरे की आँखों
से आँखें नहीं मिला पाते
सचमुच
अपनी उम्र और सदी के
इस छोर पर खड़े होकर
प्रेम कहानियों पर
यकीन करना वाकई संगीन है,
ख़ासकर तब
जब आप पढ़ते हों रोज़
का अख़बार भी !
बंजारेपन का मारा
प्रेम
तरह तरह के फूल पत्तों
पेड़ गाछ चिरई चुनमुन ताप पाला बारिश
और लोगों से भरी इस
दुनिया में
कौन कब कहाँ टकरा जाए
कहाँ एक क्षण को हम
ठहर जाएं
दुलार दें किसी को मन
ही मन
ध्वस्त हो जाएं
दीवारें
सबसे कोमल क्षणों में
प्रेम कब हमें निहत्था
निःशंक ढूंढ निकाले
और हमारी मिटटी नम कर
दे
खुद को थोड़ा सा छोड़
जाए हमारे भीतर
सींच जाए हमें
कब हम अनजाने ही हो
जाएँ तैयार
उन उबड़ खाबड़ रास्तों
पर चल निकलने को
अदृश्य ठंडी आग में
जलने को
उस मीठी उदासी के लिए
जो इसका हासिल है
किसे मालूम
और किसी एक दिन हमें
चमत्कृत कर
अपने ही बंजारेपन का
मारा प्रेम
हमें स्तब्ध अकेला और
उदास छोड़
गुम हो जाए
ताकि हम सुनते रहें
उसकी प्रतिध्वनियां
और करते रहें इंतज़ार
किसी और समय
और कारणों से
और तरीके से
उसके लौट आने का
और इस इंतज़ार में करें
प्यार
तरह तरह के फूल पत्तों
पेड़ गाछ चिरई चुनमुन ताप पाला बारिश
और लोगों से भरी इस
दुनिया को.
बुधवार पेठ की
वेश्याएं
उखड़ी पलास्टरों वाली
दीवार बोसीदा पर्दों के पीछे बजती पेटी
और पुराने तबले की
धमधमाती आवाज़ के बीच वे गाती हैं
वे गाती है सुन कर
सीखी कोई ठुमरी
कोई दादरा कोई फ़िल्मी
गीत
विलम्बित सुरों की
पेचीदगी में नहीं उलझती वे
उन्हें पालने वाले
राजा नहीं दूर के मोहल्ले से आया
कोई मजदूर कोई पियक्कड़
आवारा है
जिसकी देह उसके बस में
नहीं
वे कहानियां सुनती
सुनाती हैं एक दूसरे को प्राचीन दादियों की
जिन्हें घर बेदखल किया
गया था गाने के लिए और झूम जाती हैं
हर घाटी अपना आकाश
ढूंढ़ती भटकती है
फुसफुसाती हैं
खिलखिलाती हैं
शाम होते ही अपने
ग्राहकों से कहतीं
'बाबू ये हम ही थीं जो बचा कर रख पाईं
संगीत को सबसे मुश्किल समय
हमारे ही आँगन से जाती
है देवी की मिटटी पूजा के दिनों में '
कहते हुए अपने खुरदरे
पैर समेट लेती हैं
बुधवार पेठ की रंडियां
क्या पता धृणा से या
हिकारत से
बाबू मुंह बाएँ ताकता
है और
उनके सुर में सुर
मिलाता है.
(नोट : किताब
की दुकानों, पुणे के
प्रसिद्द दगडू शेठ गणपति मंदिर और इलेक्ट्रॉनिक सामान की दुकानों से भरी इस
जगह को औरंगजेब ने सन १६६० में किसी और
नाम से बसाया और पेशवाओं ने इसका नाम बुधवार पेठ कर दिया. शहर के मध्य स्थित यह
जगह यौन कर्मियों के लिए भी जानी जाती है.)
अंजुम के लिए
(१)
कितने दिनों से याद
नहीं आया गली के मोड़ पर खड़ा वह शोहदा
सायकिल पर टिककर जो
मुझे देख गाने गाया करता था
कुढ़ जाती थी मैं उसे
देखते ही
हालांकि आगे जाकर
मुस्कुरा दिया करती थी उस की नज़र से परे
सुना है रोमियो कहते
हैं वे उसे
मेरे लिए था जो मेरी
नई उम्र का पहला प्रेमी
(२)
तुम लौट जाओ अंजुम
मेरे युवा प्रेमी
अपनी सायकिल के साथ
तुम मुकाबला नहीं कर
पाओगे उन का जो बाइक पर आएँगे
और तुम्हें बताएँगे कि
अब अच्छे दिन हैं
तुम तो जानते हो प्रेम
बुरे दिनों का साथी होता है अक्सर
जब कोई प्रेम में होता
है बुरे दिन खुद ब खुद चले आते हैं
बुरे दिनों में ही लोग
करते है प्रेम भिगोते है तकिया खुलते हैं रेशा रेशा
और लिखते हैं कविताएँ
बुरे दिन उन्हें अच्छा
इंसान बनाते हैं
मेरी एक बहन बोलने लगी
थी धाराप्रवाह अंग्रेज़ी
प्रेमी उस का लॉयला
में पढता था
एक मित्र तो तिब्बती
लड़की के प्यार में पड़कर
बनाने लगा था तिब्बती
खाना
(३)
जानते हो
भीड़ प्रेम नहीं करती
समझती भी नहीं
प्रेम करता है अकेला
व्यक्ति जैसे बुद्ध ने किया था
वे मोबाइल लिए आयेंगे
और कर देंगे वाइरल
तुम्हारे एकांत
कोतुम्हारे सौम्य को
वे देखेंगे तुम्हें
तुम्हारा प्रेम उन की नज़रों से चूक जाएगा
(४)
जैसे ही उस पार्क के
एकांत में तुम थामोगे अपनी प्रिया का हाथ
सेंसेक्स धड़ से नीचे
आएगा मुद्रास्फीति की दर बढ़ जाएगी
किसान करने लगेंगे
आत्महत्या अपने परिवारों के साथ
और चीन डोकलम के
रास्ते घुस आएगा तुम्हारे देश में
देश को सबसे बड़ा खतरा
तुम्हारे प्रेम से है
तुम्हे देना ही चाहिए
राष्ट्रहित में, एक चुम्बन का
बलिदान
इसलिए ज़रूरी है
पार्क के एकांत से तुम
अपने अपने घरों में लौट जाओ
और संस्कृति की तो
पूछो ही मत
बिना प्रेम किये भी
तुम पैदा कर सकते हो दर्जनभर बच्चे
दिल्ली का हाश्मी
दवाखाना तुम्हारी मदद को रहेगा हमेशा तैयार
लाजवाब कविताएँ
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताएं। टिकाऊ और तेवर वाली।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (10-07-2019) को "नदी-गधेरे-गाड़" (चर्चा अंक- 3392) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सहज और बहती हुई कविताएं। सामान्य स्थितियों में असाधारण प्रेम की अनुभूतियों को बेबाकी से अभिव्यक्त करती हुई ये कविताएं ।।इनमें कशिश है।
जवाब देंहटाएंकविताएं लिखते समय इतनी भूमिकाओं का अनुभव.. एक कवयित्री में कथा, पटकथा, संवाद गीत संगीत इतना कुछ एक साथ.. आप को पहली बारपढकर ही कितना समृद्ध अनुभव कर रहा हूँ.. अंतिम कविता का व्यंग्य शायद मेरी अपनी निजी सीमाओं के चलते ज्यादा चुभा जहां राजनीति नैसर्गिक प्रेम पथपर अजीब स्पीड ब्रेकर खड़ा कर देती है... हार्दिक बधाई आप को!!!
जवाब देंहटाएंकैसी अलग साज, विषयवस्तु लिए हुई कविताएं हैं और उनका कहन ऐसा जैसे मैं बहुत गहराई से परिचित होते हुए भी पहली बार देख रही मिल रही हूं इन्हें. मुझे औरत कविता भी बहुत अच्छी लगी। संजीव कुमार, अंजुम भी। कवि वाली पढ़कर अकेले हस रही हूं। तुम ये पढ़कर हसोगी ये जानती हूं।
जवाब देंहटाएंकाव्य-कोलाहल के इस काल में रंजना Ranjana Mishra की कविताएँ भरोसे का स्वर हैं।
जवाब देंहटाएंबढ़िया।
जवाब देंहटाएंकितनी अलग तरह की कविताएं, अपनेपन में पगी होकर भी कुछ अलग....
जवाब देंहटाएंबढ़िया चयन।
जवाब देंहटाएं■ शहंशाह आलम
सहज प्रवाह लिये सार्थक कविताएँ।
जवाब देंहटाएंसुंदर सुघड़
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