अंकिता आनंद की कविताएँ


































अंकिता आनंद आतिश नाट्य समिति और "पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स की सदस्य हैं. इससे पहले उनका जुड़ाव सूचना के अधिकार के राष्ट्रीय अभियान, पेंगुइन बुक्स और समन्वय: भारतीय भाषा महोत्सवसे था. समालोचन में आपने पहले भी अंकिता को पढ़ा है.

ज़माने को बदलने की जदोजहद में जो लोग मुब्तिला हैं उन्हें इधर यह एहसास बराबर होता रहा है कि चीजें बदली हुई दिखती हैं पर असल बदलाव अभी हुआ नहीं है. अंकिता की कुछ नई कविताएँ आपके लिए.  





अंकिता आनंद की कविताएँ                   






ईश्वर 

हमें कई ग़लत आदतें सिखाता है,
जैसे 
किसी से बातें करना 
बिना ये जाने कि वो सुन भी रहा है या नहीं. 







दु:ख की जगह 

दुख कहीं भी आपको दबोच सकता है 
एक से एक असुविधाजनक मौकों पर 

मीटिंग के बीच 
ठीक आपके बोलने की बारी से पहले 

निवाले में लिपट 
अटक सकता है गले में 

हँसी की पीठ से निकल 
धप्पा कर सकता है 

उसे सोचना, सीखना चाहिए 
संवेदनशील, शांत होना
दबे कदमों से आना 
बस तभी जब सही वक्त हो 

पर कब?
कौन सा समय हमने सुनिश्चित किया है?
कौन सी जगह
जहाँ उसे मान से बिठा पूछा जाए 
कैसा है वह?






ज़माना बदल गया 

ज़माना बदल गया है 
बचपन में जान गई थी 
पहनने-ओढ़ने की आज़ादी थी 
जब तक मैं सलीके से बैठूँ 

अब पहले वाली बात नहीं रही 
जितना जी चाहा पढ़ पाई 
जब तक उम्र
"शादी के लायक" नहीं हो गई 

जब प्रेम विवाह कर पाई 
अपनी जाति में 
तो चकित रह गई देखकर 
ज़माना कितना बदल चुका था 

और इसलिए
क्योंकि ज़माना बदल चुका था,
अपने साथ लाया दहेज रख पाई 
हमारे संयुक्त खाते में 

नया ज़माना आ चुका है
दोस्तों के साथ मिलकर हँसने की छूट थी 
जब मंडप में पंडित का बताया हुआ वचन दुहरा रही थी:
"मैं पराए मर्दों के सामने नहीं हँसूंगी"

जो ये ज़माना बदला न होता 
तो पहले थप्पड़ के बाद 
कैसे चिल्ला कर 
अपना गुस्सा दिखा पाती 

न ही परिवार को बता पाती 
जिन्होंने याद दिलाया कि मेरा फ़ैसला मुझे ही निभाना है,
कि अब बहुत देर हो चुकी,
पर साथ ही मेरे पति को भी समझाया, क्योंकि ज़माना बदल चुका है 

ताली दो हाथ से बजती है 
जब वो आग-बबूला हो, दूसरे को पानी होना चाहिए, घी नहीं,
ख़ासकर जब वो आपके बर्थडे केक पर मोमबत्ती भी जलाता हो
(जी हाँ, ज़माना जो बदल चुका है)

दुबारा दफ़्तर जाने का मन तो करता है 
लेकिन हर शाम घंटे भर के लिए मैं जो चाहे कर सकती हूँ 
जब बच्चे अपने प्यारे पापा को खेल का मैदान बनाते हैं 
इसलिए क्योंकि ज़माना बदल गया है; फिर वक्त हो जाता है पापा के फेवरेट टीवी शो का 

जब मम्मी जी-पापा जी आएँ, कुछ भी पहन सकती हूँ 
जैसे अपने मम्मी-पापा के सामने 
बस सब ढ़का रहे, और ये तो कोई भी देख सकता है कि 
ज़माना अब बदल गया है 

जायदाद में अब मेरा भी हिस्सा है 
वाकई, ज़माना कितना बदल गया 
हाँ, कोई शरीफ़ बहन इतनी छोटी बात पर 
क्यों ही अपने भाई से लड़ना चाहेगी

ज़रूरी है जो मिला हो उसकी कदर कर पाना 
हर फिक्र को (चूल्हे के) धुएँ में उड़ाते चले जाना 
तब जाकर सराहा  जा सकता है 
ज़माना किस हद तक बदल चुका है.






खाई 

तुम्हारी आँखों में तैरते दर्द के रेशे 
दग़ा देते हैं तुम्हारी हँसी के रेशम को,
और प्रश्नचिन्ह लगाते हैं 
हमारे प्यार पर. 





खोज 

ख़ुद को ढूंढ़ने की व्यस्तता में 
शामिल एक इंतज़ार है 
किसी का 
जो हमें ढूँढ़ निकाले.


_________________
अंकिता आनंद पत्रकारिता, लेखन व रंगकर्म के क्षेत्रों से जुड़ी हैं, हिंदी और अंग्रेज़ी में लिखती हैं और दिल्ली में रहती हैं. anandankita2@gmail.com

7 Comments

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  1. अंकिता आनंद की कविताएँ कुछ सोंचने को मज़बूर करती हैं।बार बार पढ़ने से अलग अलग अनुभूति होती है।

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  2. सुन्दर और सहज कविताएं ,स्त्री विमर्श का बिल्ला लगाए बगैर महीन व्यंग्यात्मकता इन कविताओं की खूबी है।अंकिता जी को बधाई।

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  3. क्षणिकाएँ ज्यादा असरदार हैं

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (09-07-2019) को "जुमले और जमात" (चर्चा अंक- 3391) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  5. दिल को छूने वाली कविताएँ

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