एक था डॉक्टर एक था संत : विमर्शमूलक विखंडन और उकसावेबाजी के बीच : अरुण माहेश्वरी



















लेखिका और विचारक अरुंधति रॉय की किताब ‘The Doctor and the Saint’ का हिंदी अनुवाद अनिल यादव ‘जयहिंद’ और रतन लाल ने ‘एक था डॉक्टर एक था संत’ शीर्षक से किया है, जिसे राजकमल प्रकाशन ने  प्रकाशित किया है.

आलोचक अरुण माहेश्वरी ने इस पुस्तक को पढ़ते हुए रामविलास शर्मा के गाँधी, आम्बेडकर और लोहिया पर उनके चिंतन को भी ध्यान में रखा है. उनका मानना है है कि अरुंधति रॉय इस किताब में  विमर्श से कई बार उकसावेबाजी की ओर फिसल जाती हैं.


विमर्शमूलक विखंडन और उकसावेबाजी के बीच            
अरुण माहेश्वरी









रुंधति रॉय की किताब 'एक था डाक्टर और एक था संत' लगभग एक सांस में ही पढ़ गया. अरुंधति की गांधी को कठघरे में खड़ा कर उन पर बरसाई गई धाराप्रवाह, एक के बाद एक जोरदार दलीलों की विचारोत्तेजना अपने घेरे से बाहर निकलने ही नहीं दे रही थी. अरुंधति जितना गांधी को ध्वस्त कर रही थी, उतना ही अधिक जैसे हमारे सामने सोच की ज्यादा से ज्यादा बड़ी चुनौती पैदा हो रही थी कि कैसे चुटकी बजाते हुए एक विशाल और बेहद मजबूत समझे जाते रहे महल को कोई इस प्रकार धूलिसात कर रहा है! और, हम लगातार परस्पर-विरोधी बातों के समुच्चय के विभ्रम पर टिके उनकी दलीलों के जादू पर उतने ही अजीब ढंग से सवालों से भी घिरते चले जा रहे थे.

यह सच है कि कोई भी गंभीर विमर्श इसी प्रकार पैदा हुआ करता है, स्थापित प्रतिमा को ध्वस्त करके. यही ज्ञान की क्रियात्मकता है. तंत्र शास्त्र के अनुसार परमशिव का कल्पनातीत सत्य जिन 36 तत्वों के स्वरूप से जगतरूपता को प्राप्त करता है, शिव उन 36 में से एक है । परमशिव में सभी शक्तियों की समरसता है.
तंत्र के त्रिक दर्शन की प्रसिद्ध उक्ति है—

“इस प्रकाशात्मा परमेश्वर शिव की सत्ताशिव का अपना वजूद विमर्श है जो इच्छा ज्ञान क्रियात्मक है,अर्थात विमर्श प्रकाश से भिन्न नहीं और प्रकाश विमर्श से भिन्न नहीं, वही ज्ञान की श्रृंखला का कारक है.”

(आचार्य क्षेमराज रचित-पराप्रवेशिका, ईश्वर आश्रम ट्रस्ट, पृ:8)

विमर्श का वह स्वरूप जिसमें ज्ञान को निकाल कर अन्यों को सौंपा जाता है,  कोरी बकवास नहीं होता, लेकिन, वह भी कोई अंतिम सत्य नहीं होता. इस प्रकार का ज्ञान तभी उत्पन्न होता है जब विश्लेषक का ज्ञान विश्लेष्य के तर्क को बिखेर देता है, जिससे किसी विश्लेषण के प्रारंभिक चरणों में ही ज्ञान के इस प्रकार के हस्तांतरण का ढाँचा तैयार हो जाता है. अर्थात्, विमर्श के लिये ज़रूरी है विश्लेष्य के अपने तर्क को पहले बिखेर दिया जाए. विश्लेषण की भूमिका किसी स्थापित राय अथवा ज्ञान कोश से सत्य को अलग देखने की होती है. ज्ञान कोश जगत के सत्य का सीमित ज्ञान होता है, इसीलिये वह ज्ञान का गुटका आगे के विमर्श का दिशा-निर्देशक नहीं,  बल्कि भटकाने वाला ज़्यादा होता है.

कहना न होगा, ये बातें जितनी अरुंधति रॉय की किताब में किये गये विश्लेषणों पर लागू होती है, उतनी ही इन्हें उनकी किताब के विश्लेषण पर भी लागू किया जा सकता है. आलोचना हमेशा आलोच्य कृति में निहित ज्ञान को सामने लाती है और उस ज्ञान को बिखेर कर ही आगे हस्तांतरणीय भी बनाती है.

शायद ऐसे ही किन्हीं कारणों से किताब को एक साँस में पढ़ते हुए ही हमने अपनी कुछ पूर्व धारणाओं के आधार पर ही फेसबुक पर कुछ सामान्य प्रकार की प्रश्नमूलक टिप्पणियां लिखी. पहली टिप्पणी थी —'महज एक विमर्श के प्रस्ताव के लिये :'

“प्राचीन काल में वर्ण व्यवस्था और अस्पृश्यता के बीच उसी प्रकार फ़र्क़ करने की ज़रूरत है जैसे आज पूँजीवाद और फासीवाद में फ़र्क़ किया जाना चाहिए; जैसे समाजवाद में सर्वहारा के अघिनायकत्व और एक व्यक्ति की तानाशाही में फ़र्क़ किया जाना चाहिए.

“कोई भी दर्शनशास्त्रीय विमर्श अपनी अमूर्तता के चरम बिंदु की दीर्घकालीनता में मूल बिन्दुओं से बिल्कुल विपरीत अन्य कई विमर्शों को जन्म दिया करता है. यही बात समाज-व्यवस्थाओं की संरचनाओं पर भी लागू होती है.

“गांधी भारतीय वर्ण व्यवस्था के प्रशंसक और अस्पृश्यता के तीव्र विरोधी थे. क्या यह गांधी का कोरा मिथ्याचार था या इसका कोई संबंध सामाजिक संरचनाओं के विकास के इतिहास की एक समझ से हो सकता है ?” (25 जून 2019)

सामाजिक संरचना का चतुर्वर्णीय स्वरूप सिर्फ भारत में ही नहीं था. खुद आंबेडकर ने दुनिया के अन्य हिस्सों के इतिहास में समाज के जातिगत विभाजन की सच्चाई की बात कही है. रोमन साम्राज्य के शासन का मूल सिद्धांत ही इस पर टिका हुआ था. नागरिकों की आबादी का patricians (शासक कुल) census rank  (श्रेष्ठि समुदाय) noble (शिक्षित समुदाय) और citizenship (सैनिक और किसान आदि) में विभाजन रोमन साम्राज्य का एक मूलभूत प्रशासनिक सिद्धांत रहा है. इस विषय में, भारतीय इतिहास में ग्रीक संपर्कों के अध्याय को नज़रंदाज़ करके भारत के चतुर्वर्ण सिद्धांत की व्युत्पत्ति के इतिहास को और अंग्रेज़ों के काल में शासक कुलों के नस्ली सिद्धांत की भूमिका को बिना समझे इसके वर्तमान रूप को भी समझना मुश्किल है.



अरुंधति की किताब में ही कहा गया है कि “जनसांख्यिकी की चिन्ता ने (भारत की) राजनीति में उथल-पुथल मचा रखी थी.” (पृ : 53) किताब में कई जगहों पर इसके चित्र मिलते हैं. हर्बर्ट रिस्ले के नेतृत्व में 1901 की जनगणना को ब्रिटिश भारत की पूरी हिंदू आबादी पर जाति-व्यवस्था को बाक़ायदा लागू करने के एक उपक्रम के रूप में ऐसे ही याद नहीं किया जाता है. रिस्ले नस्लवादी था और आदमी के नाक-नक़्शे और चमड़ी के रंग से समाज में उसके स्थान के सिद्धांत पर विश्वास करता था.

यह एक वैसी ही प्रक्रिया है जैसे लोकतंत्र से जाति-प्रथा को बल मिलना. “लोकतंत्र ने जाति का उन्मूलन नहीं किया है. इसने जाति का आधुनिकीकरण करके इसकी जड़ों को और मजबूत किया है.” (पृ : 32) इसके साथ अंग्रेजों ने आधुनिक प्रशासन में प्रतिनिधित्व के अधिकार के प्रश्न को जोड़ जो दिया था.

बहरहाल, रोमन साम्राज्य में जैसे ग़ुलामों के लिये नागरिकता का कोई नियम नहीं था, उसी प्रकार भारत के ब्राह्मणवाद ने शूद्रों के मामले में अस्पृश्यता की शूचिता से इसे और भी जघन्य बना दिया था. नौ सौ साल के इस्लामी शासन और दो सौ साल के अंग्रेज़ी शासन के बावजूद वर्ण व्यवस्था का पूरी तरह से बने रहना इस कथित हिंदू सामाजिक संरचना के साथ भारत के सभी शासक वर्गों के स्वार्थों के संकेत भी देता है. ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के लिये सभी शासन तंत्रों में जगह थी. किसान सामान्य नागरिक रहे और शूद्रों को उत्पादन की पूरी प्रणाली में अस्पृश्य ग़ुलाम बना कर रख दिया गया. लेकिन अस्पृश्यता भारत की अपनी वह खास चीज है जिसने वर्णों के बीच अन्तरक्रियाओं की संभावनाओं को ही समाप्त कर दिया था. यही हमारे यहां का 'ब्राह्मणवाद' है.

फिर भी, कुल मिला कर सच यही है कि भारत की आज़ादी की लड़ाई के बीच से वर्ण व्यवस्था के खिलाफ पहली बार आवाज़ उठी और स्वतंत्र भारत के संविधान में जातिगत भेदभाव को ख़त्म करने की प्रतिज्ञा ली गई. इसीलिये भारत के अछूत प्रश्न को आज आजादी की लड़ाई की समग्रता से काट कर नहीं देखा जा सकता है. आज भी फासीवादी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रतिकार न किसी प्रकार के 'साफ्ट हिंदुत्व' में हैं और न किसी अन्य जातिवाद में. इसका उत्तर है भारतीय संविधान की मूलभूत जनतांत्रिक और समानता की मानवतावादी और समाजवादी भावना में, जो आजादी की लड़ाई की ही फलश्रुति है.


ऐलेन बाद्यू को मनोविश्लेषक जॉक लकान विश्लेषण संबंधी कथन से दर्शनशास्त्र को परिभाषित करने वाला जो सूत्र मिला है, वह है - “Raise impotence to impossibility (नपुंसकता को असंभवता तक ले जाना).” (Alain Badiou, Lacan, Columbia University Press, page – xli) कहना न होगा, असंभवता को नपुंसकता बताना इसीका विलोम है, जो दर्शन को दैनंदिन के सच के रूप में रखता है.


बाद्यू का यह कथन दर्शनशास्त्र में सत्य के सर्वकालिक परिप्रेक्ष्य और दैनंदिन घटनाक्रमों के बीच से सामने आने वाले सत्य के नित नये रूप के बीच के द्वंद्व को समझने की एक कुंजी प्रदान करता है. विषय के सत्य को उसके व्यापक परिप्रेक्ष्य में लगातार खुलते हुए समग्रत: देखना और उसके हर दिन के नये रूप को ही अंतिम सत्य मान कर उस पर निर्णायक राय सुना देने के बीच जमीन आसमान का फर्क होता है.

भारतीय राजनीति में गांधी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के सत्य की समग्रता से जुड़ा हुआ विषय है. न वह सिर्फ दक्षिण अफ्रीका का सत्याग्रही है और न भारत में सविनय अवज्ञा, अछूतोद्धार, सांप्रदायिक सौहार्द्र, समाजसुधार, ग्राम स्वराज तथा ट्रस्टीशिप के सिद्धांत वाले राष्ट्रपिता कहलाने वाले व्यक्ति हैं।


इस संदर्भ में हम यहां गांधी और आंबेडकर पर डा. रामविलास शर्मा की किताब का उल्लेख करना चाहेंगे. लगभग आठ सौ पन्नों की अपनी किताब 'गांधी, अंबेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ' में उन्होंने इन तीनों पर अलग-अलग काफी बातों को अपने नजरिये से समेट कर रखने की कोशिश की है. इस किताब की भूमिका में किताब के प्रमेय के रूप में उन्होंने तीनों के बारे में संक्षिप्त सूत्रों में जो बातें लिखी है, उनमें से गांधी और अंबेडकर के बारे में उनकी बातों को इस लेख की सीमा के बावजूद रखना जरूरी समझता हूं.

गांधी के बारे में समग्र रूप से विचार करने वाले लगभग सभी लोग दक्षिण अफ्रीका में उनके जीवन के प्रसंगों को जरूर उठाते हैं, तत्व रूप में, जिन्हें आगे भारत के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन में गांधी की भूमिका में विकसित होते हुए दिखाया जाता है. अरुंधति राय ने भी यह किया है और डा. शर्मा भी यहीं से अपनी बात का प्रारंभ करते हैं.

डा. शर्मा लिखते हैं-


“गांधीजी मजदूरों के जीवन से अच्छी तरह परिचित थे. दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने मजदूरों की एक लंबी लड़ाई चलाई थी....गांधीजी बहुत अच्छे इतिहास लेखक थे. दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास उनकी श्रेष्ठ कृति है....दासों के व्यापार में अंग्रेज पहले पीछे थे फिर इस कौशल में यूरोप के सभी देशों से आगे बढ़ गये....भारत से गरीब किसानों को फुसला कर उपनिवेशों में ले जाते थे, वहां उनसे गुलामों की तरह काम कराते थे. इसी गुलामी से मुक्ति पाने के लिए दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी ने 'गिरमिटिया' मजदूरों को संगठित किया था....गिरमिट प्रथा पुरानी दास प्रथा का नया संस्करण थी. उपनिवेशों में भारतीय व्यापारियों को अधिकारहीन रखने और मजदूरों से अपने दुर्व्यवहारों को उचित ठहराने के लिए अंग्रेज रंगभेद का सहारा लेते थे. काले आदमी शासित होने के लिए बने हैं और गोरे उन पर शासन करने के अधिकारी हैं.


“भारतवासियों को असभ्य बता कर वे उनके इतिहास और संस्कृति पर आक्षेप करते थे. परंतु अनेक अंग्रेज विद्वानों ने भारत के ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल का उचित मूल्यांकन किया था. गांधीजी ने उनका हवाला देकर उपनिवेशवादियों के दृष्टिकोण का खंडन किया. इस तरह उन्होंने भारत के सांस्कृतिक इतिहास के दमन को राजनीतिक संघर्ष का अस्त्र बना दिया....दक्षिण अफ्रीका से गांधीजी ने बहुत कुछ सीखा. ...इनमें सबसे महत्वपूर्ण है जातीय अस्मिता और राष्ट्रीय आत्म-सम्मान का मेल. दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी ने मिल मजदूरों के जातीय गर्व को उभार कर उन्हें उत्साहित किया. भारत में उन्होंने अनेक जातियों के प्रति यह नीति अपनाई.” (पृष्ठ – v-viii)

डा. शर्मा का गांधीजी की वैचारिक संरचना के तत्वों के बारे में यह विचार था कि 

“निष्क्रिय प्रतिरोध का सिद्धांत उन्होंने तोलस्तोय से ग्रहण किया था. उसे सत्याग्रह का नाम बाद में दिया गया. सर्वोदय का सिद्धांत उन्होंने रस्किन से प्राप्त किया था. भारत ग्राम सभाओं का देश है. यह इतिहास विरोधी कल्पना उन्हें हेनरी मेन से मिली. जिसे गांधीवाद कहा जाता है, उसके मुख्य स्रोत विदेशी हैं, पर गांधीजी तोलस्तोय की तरह सक्रिय प्रतिरोध की प्रशंसा भी करते थे और रस्किन की तरह पूंजीवाद की आलोचना भी करते थे.” 

अर्थात्, यह सिर्फ किसी भारतीय प्राचीनता की उपज नहीं थी.

डा. शर्मा ने भी यह नोट किया कि गांधीजी के सामने अन्य दो प्रमुख राजनीतिक समस्याएँ थी- सांप्रदायिकता और अछूत समस्या. डा. शर्मा लिखते हैं कि 


“गांधीजी ने कहा था, अछूतों की मूल समस्या जमीन की है. उन्हें जमीन मिलनी चाहिए....गांधीजी ने कहा था, पूंजीवादी व्यवस्था में बेरोजगारी खत्म नहीं हो सकती.... गांधीजी ने कहा था, मजदूर संगठित नहीं है, वे अपनी ताकत नहीं पहचानते, उनमें शासन करने की क्षमता है....गांधीजी ने कहा था, यह विज्ञान का युग है, विज्ञान अंधविश्वासों को मिटा सकता है....गांधीजी ने कहा था, विदेशी पूंजी के प्रभुत्व से हर तरह की बरबादी होती है.” (पृष्ठ – viii-x)

गांधीजी जो चाहते थे और जिसमें वे विफल रहे, इसे गिनाते हुए डा. शर्मा लिखते हैं — 


“गांधीजी देश का विभाजन नहीं चाहते थे. वह उसे रोक नहीं पाये. वह कांग्रेस और सरकारी कामकाज से अंग्रेजी को निकाल देना चाहते थे, नहीं निकाल पाये. वह अछूतों को ऊंची जातियों के बराबर दर्जा देना चाहते थे, नहीं दे पाये. वह विदेशी पूंजी के दबाव से देश को मुक्त करना चाहते थे, नहीं कर पाये. वह चाहते थे, गांधी और सारी दुनिया के लोग खादी पहनें, उनकी इच्छा पूरी नहीं हुई. वह चाहते थे, पूंजीपति, जमींदार, और धनी लोग अपनी संपत्ति का उपयोग गरीबों के हित में करें, उनकी यह इच्छा भी पूरी नहीं हुई. वह चाहते थे, हिन्दू मुसलमान का भेदभाव खत्म हो, वैसा नहीं हुआ. ऐसी उनकी और असफलताएँ भी गिनायी जा सकती हैं.”

इसके बाद की ही डा. शर्मा की पंक्ति है —

“पर उनका प्रभाव करोड़ों पर था. भारतीय इतिहास में कोई भी एक व्यक्ति, किसी भी युग में, इतने विशाल जन समुदायों को प्रभावित नहीं कर सका और विश्व इतिहास में भी किसी व्यक्ति का ऐसा व्यापक प्रभाव नहीं देखा गया.” (पृष्ठ – viii-ix)

कहना न होगा, डा. शर्मा की किताब में गांधीजी के बारे में लगभग 460 पृष्ठों के हिस्से में भूमिका की इन्हीं उपरोक्त बातों के प्रमाण और विश्लेषण दिये गये हैं.

इसी प्रकार, डा. शर्मा आम्बेडकर के बारे में भूमिका में संक्षेप में लिखते हैं-

वे अपने समय के सबसे सुपठित व्यक्तियों में एक थे जिन्होंने संस्कृत का धार्मिक, पौराणिक और वेद संबंधी सारा वांगमय अनुवाद में पढ़ कर अनेक मौलिक स्थापनाएँ लोगों के सामने रखी थी. डा. शर्मा चूंकि खुद सीधे अथवा संकेतों में यह कहते रहे हैं कि आर्य भारत में बाहर से नहीं आए थे, इसीलिये इस बारे में आम्बेडकर के विचारों का उल्लेख उन्होंने भूमिका में भी किया है कि वे यह नहीं मानते थे कि आर्य बाहर से आए थे. (यद्यपि अब आनुवांशिक वैज्ञानिक अध्ययनों के बाद तो इस बात में कोई शक ही नहीं रह गया है कि मध्य एशिया के मैदानी इलाके से आर्य भारत में आए थे.) 

बहरहाल, आंबेडकर के वर्ण व्यवस्था के बारे में विचार पर डा. शर्मा कहते हैं कि “समाज की भौतिक परिस्थितियों को पहचानते हुए उन्होंने बताया कि यह प्रथा केवल भारत में नहीं, भारत के बाहर भी रही है. किंतु अधिकतर उनका झुकाव इस धारणा की ओर रहा है कि यह विशेषता केवल हिंदू धर्म की है.”

स्वतंत्रता आंदोलन के संदर्भ में डा. शर्मा लिखते हैं कि 


“उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन के विरोध में अछूतों का नया अलग संगठन खड़ा किया. इससे स्वाधीनता आंदोलन कमजोर हुआ, बिखराव की ताकतें आगे बढ़ीं. साइमन कमीशन के आने के बाद आम्बेडकर में परिवर्तन दिखाई देता है....एक समय उन्होंने पाकिस्तान का समर्थन भी किया. जाति की परिभाषा उद्धृत करते हुए उन्होंने मुसलमानों को एक जाति कल्पित किया. किंतु 1947 के बाद उनमें फिर परिवर्तन हुआ. ...जब तक आर्थिक समानता न होगी तब तक वास्तविक जनतंत्र स्थापित नहीं हो सकता. ...एक बड़े विचारक में जैसे अंतरविरोध हो सकते हैं, वैसे अंतरविरोध आम्बेडकर में भी थे. ...

आम्बेडकर यह भी जानते थे कि उद्योगीकरण से ऐसी परिस्थितियां पैदा हो सकती है जिनमें बाप का पेशा बेटे के लिए अनिवार्य न हो....जाति प्रथा के विचार से वे अछूत थे. समाज में उन्हें बहुत अपमान सहना पड़ा था. परंतु वह मजदूर वर्ग में पैदा हुए थे....गांधीजी की तुलना में जातीय सम्मान के बारे में उनके विचार उलझे हुए थे. ...

उन्होंने बौद्ध धर्म की जो व्याख्या की, वह बहुत कुछ भौतिकवाद के अनुसार की, और उनकी ग्रंथावली के संपादकों का कहना है कि उसे बौद्ध मतावलंबी स्वीकार नहीं करते थे. डॉ आम्बेडकर समाज के विवेकशील आलोचक थे. अंधविश्वासों के विरुद्ध संघर्ष करने में उनकी विवेकशीलता हमारा मार्गदर्शन कर सकती है.” (पृष्ठ – xi-xiii)

अब हम आते हैं अरुंधति रॉय की किताब में व्यक्त विचारों पर. डा. शर्मा के ठीक विपरीत अरुंधति रॉय आम्बेडकर को जाति व्यवस्था के मूल, हिंदू धर्म का कट्टर विरोधी बताते हुए गांधी को हर मायने में उनके धुर प्रतिपक्ष के रूप में पेश करती है. उनके शब्दों में 


“दुनिया के सर्वाधिक प्रसिद्ध भारतीय, मोहनदास करमचंद गांधी, आंबेडकर से असहमत थे. उनका विश्वास था कि जाति, भारतीय समाज की प्रतिभा का प्रतिनिधित्व करती है.” (पृ:21)

“वे यथास्थिति के संत है.” (पृ: 35)

“समस्या यह है कि गांधी ने 'सब कुछ' कहा और 'सब कुछ' का उलटा भी बोल दिया.” (पृ: 36)

“गांधी, जो वैश्य थे, और एक गुजराती बनिया परिवार में जन्मे, विशेषाधिकारप्राप्त जातियों के हिन्दू समाज सुधारकों और उनके संगठनों में नवीनतम सुधारक थे....

उन्होंने खुद को एक दूरदर्शी, रहस्यवादी, नैतिकतावादी, और महान मानवीय व्यक्ति के रूप में पेश किया जिसने सच्चाई और पवित्रता के हथियारों से एक शक्तिशाली साम्राज्य को धराशायी कर दिया. हम कैसे सामंजस्य स्थापित करें अहिंसावादी गांधी के विचार का गांधी— जिसने शक्ति को सत्य से टक्कर दी, गांधी — अन्याय का प्रतिकार, विनम्र-गांधी, नर-मादा—गांधी, गांधी—एक माँ, गांधी—जिसके लिए कहा जाता है कि उन्होंने राजनीति का स्त्रीकरण किया, और स्त्रियों के लिये राजनीति में आने की जमीन तैयार की, पर्यावरणविद्—गांधी, वाक् पटु गांधी और महान वाक्य बोलने वाला गांधी—इन सबका हम गांधी के जाति के प्रति विचार (और कारनामों) से कैसे सामंजस्य स्थापित करें ? 

हम इस नैतिक धर्म की संरचना का क्या करें, जो अविचलित, पूरी तरह से क्रूर संस्थागत अन्याय पर टिकी हुई है ?” (पृ: 37-38)

“एक विशेषाधिकारप्राप्त सवर्ण बनिया यह कैसे दावा कर सकता था कि वह ही साढ़े चार करोड़ भारतीय अछूतों का असली प्रतिनिधि है, अगर उसे यह यकीन ह हो कि वह वास्तव में ही महात्मा है ? ..

इसी ने गांधी को अपनी स्वच्छता की स्थिति, अपने आहार, अपने मल-त्याग, अपने एनिमाओं और यौन जीवन के दैनिक प्रसारण की स्वीकृति दी. जनता को अपनी अंतरंगता के जाल में खींचने की, ताकि बाद में उसका उपयोग और जोड़-तोड़ का लाभ वे ले सकें, जब वे अपने उपवास और आत्म-दंड देने का काम करें. इसने उन्हें छूट दी, खुद का बार-बार खंडन करने की, और फिर कहा : 


“मेरा उद्देश्य यह नहीं है कि मेरा हर बयान, मेरे पिछले बयान की कसौटी पर खरा उतरे, लेकिन मेरा हर बयान सत्य की कसौटी पर खरा होना चाहिए, जिस भी रूप में सत्य उस पल मेरे सामने प्रस्तुत हो. इसका परिणाम यह हुआ है कि मैं एक सत्य से दूसरे सत्य तक पहुंचता रहा हूँ.”

“आम राजनीतिज्ञ एक राजनीतिक मुनाफे से दूसरे राजनीतिक मुनाफे के बीच झूलता रहता है. सिर्फ एक महात्मा है जो एक सत्य से दूसरे सत्य तक पहुंचता है....उस पीढ़ी का व्यक्ति जो गांधी की संत-जीवनी की खुराक पर पला-बढ़ा है (मेरे समेत), यह जानकर कि दक्षिण अफ्रीका में क्या हुआ, न सिर्फ परेशान होगा, बल्कि हक्का-बक्का रह जाएगा.” (पृ: 60-61)

“(दक्षिण अफ्रीका में) भारतीय समुदाय के प्रवक्ता के रूप में गांधी ने इस बात में हमेशा सावधानी बरती और खयाल रखा कि वे 'पैसेंजर इंडियंस' की भारतीय 'इडेंचर्ड' (जो भारतीय बँधुआ मजदूर के रूप में दक्षिणी अफ्रीका लाए गए थे) से दूरी बनाए रखें.”(पृ:62-63)

“गांधी का हमेशा कहना था कि वह गरीबों में भी सबसे गरीब की तरह जीना चाहते थे. सवाल यह है कि जो गरीब नहीं है क्या वह सचमुच गरीब का रूप ले सकता है ? ...दक्षिण अफ्रीका में गांधी की गरीबी कायम रखने के लिए हजारों एकड़ जमीन और फलों से लदे हजारों वृक्ष मौजूद थे."

“दरिद्र और निर्बल की जंग, उन चीजों को वापस पाने की जंग है जो उनसे छीन ली गई है. त्यागने की जंग नहीं है. लेकिन गांधी कामयाब धार्मिक बाबाओं की तरह एक चतुर राजनीतिज्ञ थे. ...अलबत्ता, वे भारतीय व्यापारियों के हक की लड़ाई जरूर लड़ रहे थे कि कैसे वे अपने कारोबार का विस्तार ट्रांसवाल में कर सकें और ब्रिटिश व्यापारियों का मुकाबला कर सकें.” (पृ : 74-75)

फिर भी, अरुंधति के शब्दों में —


“गांधी के महात्मापन की ओढ़नी राष्ट्रीय आंदोलन पर ऐसे छाई रही जैसे किसी कश्ती का बादबान. वे पूरी दुनिया के दिलो-दिमाग पर हावी थे. उन्होंने हजारों लोगों को जागृत करके सीधे राजनीतिक सक्रियता के मैदान में उतार दिया. वे सबकी आँखों का ध्रुवतारा थे, राष्ट्र की आवाज थे.” (पृ : 60)


“गांधी जाति-व्यवस्था के प्रशंसक थे, लेकिन वे यह भी मानते थे कि जातियों में ऊंच-नीच की श्रेणी नहीं होनी चाहिए. सभी जातियों को समान माना जाना चाहिए.” (पृ : 22)

“गांधी के राजनीतिक अन्तराभास, सियासी समझ, ने कांग्रेस की खूब बढ़िया सेवा की. उनके मन्दिर-प्रवेश कार्यक्रम ने अछूत आबादी की एक बड़ी संख्या को कांग्रेस से जोड़ने का काम किया.” (पृ : 133)

और आंबेडकर !

"वे एक अछूत परिवार में जन्मे, वर्ण व्यवस्था की तमाम जिल्लतों को खुद सहते हुए अपनी मेहनत और लगन के बल पर अपने समय की उच्चतम शिक्षा हासिल की. हिन्दू समाज को उन्होंने एक ऐसी डरावनी मीनार की संज्ञा दी जिसमें न सीढ़ी है और न कोई प्रवेश द्वार. इसमें जो जहां जन्मेगा वह वहीं पर मरने के लिये अभिशप्त होगा. “अछूतों के लिए हिन्दू धर्म सही मायने में एक नर्क है.”

“आंबेडकर गांधी के लिये सबसे खौफनाक विरोधी था. आंबेडकर ने गांधी को न केवल राजनीतिक या बौद्धिक चुनौती दी, बल्कि नैतिक चुनौती भी दी.”

“इस संभावना से कि भारत के अछूतों पर भारत के मुख्य रूप से हिन्दू लोगों के दयावान हृदयों का ही शासन होगा, आंबेडकर का माथा भन्ना गया. उनको आने वाला डरावना भविष्य साफ नजर आ रहा था. आंबेडकर भविष्य के प्रति चिन्तित हो उठे, बेकरार होकर वे किसी तरह से संविधान सभा का सदस्य बनने का जुगाड़ बिठाने लगे.”(पृ : 40)

“आंबेडकर का महान योगदान यह है कि एक ऐसे जटिल, बहुमुखी राजनीतिक संघर्ष में, जिसमें जरूरत से ज्यादा सम्प्रदायवाद था, अन्धकारवाद था, ठगी थी, वे प्रबुद्धता लेकर आए. (पृ : 42)

“आंबेडकर को अतीत के अन्याय का दर्द भरा अहसास था, लेकिन उससे दूर जाने की अपनी जल्दबाजी में, वे पश्चिमी आधुनिकता के विनाशकारी खतरों को पहचानने में नाकाम रहे.” (पृ : 46)

“दुर्भाग्य से आदिवासी समुदाय को उदारवादी चश्मे से देखने से, आंबेडकर का लेखन, जो अन्यथा आज के सन्दर्भ में बहुत प्रासंगिक है, अचानक पौराणिक हो जाता है. “आदिवासियों के बारे में आंबेडकर की राय जानकारी कऔर समझ की कमी दर्शाती है.” (पृ : 117)

जाति का विनाश में एक जगह आंबेडकर यूजनिक्स की भाषा का सहारा लेते हैं, वह विषय जो यूरोपियन फासिस्ट लोगों में अत्यधिक लोकप्रिय था : “शारीरिक रूप से बोला जाए तो हिन्दू C3 लोग हैं. वे एक बौनी और ठिगनी नस्ल है, कद-काठी के अवरुद्ध विकास वाले, और कमजोर लोग.” (पृ : 118)

“हांलाँकि आंबेडकर बेहद प्रज्ञावान और बुद्धिमन्त थे, लेकिन उनका पास समयबोध नहीं था, शातिरपना भी नहीं था, धूर्तता नहीं थी और अनैतिक रास्तों पर चलना तो उनकी फतरत में था ही नहीं— वे सभी गुण जो एक 'अच्छे राजनीतिज्ञ की परम आवश्यकता होते हैं.” (पृ : 133)

“दुर्भाग्य से उनकी दूसरी पार्टी शैड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन 1946 के प्रांतीय विधायिकाओं के चुनावों में पराजित हो गई. पराजय के नतीजे में आंबेडकर ने अन्तरिम मंत्रालय की कार्यकारी परिषद् में, जो अगस्त 1946 में गठित हुई थी, अपना स्थान खो दिया. यह एक गंभीर झटका था क्योंकि आंबेडकर पूरी शिद्दत से चाहते थे कि अपने उस पद का इस्तेमाल करके वे कार्यकारी परिषद की उस समिति का हिस्सा बन जाएँ, जो भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करेगी. ...कांग्रेस ने आंबेडकर को संविधान समिति में नियुक्त कर दिया.” (पृ : 136-137)

गांधी इस बात को बखूबी समझते थे, आखिर वे एक राजनेता थे, जो आंबेडकर नहीं थे.” (पृ :128)

इस प्रकार गंभीरता से देखें, तो पायेंगे कि मामला वही, जैसा कि हमने शुरू में ही कहा, लेखन के परिप्रेक्ष्य की समस्या का है. डा. शर्मा के लेखन के सामने गांधी की तरह ही, परिप्रेक्ष्य था भारत का स्वतंत्रता आंदोलन. और अरुंधति राय के बेनकाब-लेखन के लिये है, बाकी हर चीज से अलग-थलग— दलित समस्या. अर्थात आंबेडकर का अपना खास विषय. एक ऐसा विषय जो नि:संदेह आजादी की तमाम अन्य प्रतिश्रुतियों की तरह ही पूरी न होने वाली एक प्रमुख प्रतिश्रुति है, आजादी के 72 साल बाद भी कुछ हद तक अनसुलझा विषय और आज की दलित राजनीति का सर्वप्रमुख जीवंत विषय. यह कुछ वैसे ही जैसे आज सांप्रदायिकता भी राजनीति का एक प्रमुख विषय है.


अरुंधति ने अपनी किताब में एक 'जर्मन यहूदी' की किताब से चिपके 'किताबी' कम्युनिस्टों के साथ आंबेडकर के रिश्तों के बारे में भी अपने क्रांतिकारी तेवर में कई बातें लिखी है. इसमें 'ब्राह्मण' ईएमएस नम्बूदरीपाद की किताब 'भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष का इतिहास' से आंबेडकर और वामपंथियों के बीच टकराव पर एक बहुत वेधक टिप्पणी को उन्होंने उद्धृत किया है


“वह स्वतंत्रता आंदोलन को एक बड़ा झटका था. इसने लोगों का ध्यान पूर्ण स्वतंत्रता के महत्वपूर्ण मकसद से भटकाकर हरिजन (अछूत) के उत्थान के महत्वहीन मुद्दे की ओर कर दिया.”(पृ : 114)

कुल मिला कर प्रश्न वही है — क्या महत्वपूर्ण था और क्या उतना महत्वपूर्ण नहीं, अर्थात अनुषंगी था !

अंत में हम यहां, इसी परिप्रेक्ष्य के सवाल पर हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के अनन्य इतिहासकार बिपन चंद्रा को उद्धृत करके अपनी बात को खत्म करेंगे. वे लिखते हैं —


“भारत का राष्ट्रीय आंदोलन नि:संदेह आधुनिक समाज के लिये सबसे बड़े जन-आंदोलन में से एक था. ... 

“वस्तुत: सिर्फ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से ही एक अर्द्ध-जनतांत्रिक अथवा जनतांत्रिक प्रकार की राजनीतिक संरचना को सफलता के साथ हटाने या बदलने का वास्तविक ऐतिहासिक उदाहरण मिलता है. सिर्फ यही वह आंदोलन है जिसमें मोटे तौर पर वार ऑफ पोजीशन के ग्राम्शी के सिद्धांत पर सफलता के साथ अमल किया गया था ; जहां क्रांति के एक ऐतिहासिक क्षण में राजसत्ता पर कब्जा नहीं किया गया था, बल्कि एक नैतिक, राजनीतिक और विचारधारात्मक स्तर पर दीर्घकालीन लोकप्रिय संघर्ष के जरिये किया गया था ; जिसमें प्रति-प्रभुत्व की एक-एक ईंट को एक के बाद एक चरण में रखा गया था ; जिसमें 'निष्क्रियता' के प्रत्येक चरण के बाद ही संघर्ष का चरण आता था.” (India’s Struggle for Independence, Introduction, page - 13)

सचमुच, जो भी किसी पूरी श्रृंखला की सिर्फ एक कड़ी को लेकर ही बाजार में उतर आने को आतुर रहते हैं, उनके लिये भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की समग्रता के प्रतीक पुरुष गांधी इसी प्रकार नफरत के पात्र, अबूझ ही रहेंगे. 


अरुंधति के इस लेखन के तेवर को देखते हुए अंत में हम यही कहेंगे कि विमर्शमूलक विखंडन और कोरी उकसावेबाजी में कभी-कभी विभाजन की रेखा बहुत महीन हुआ करती है.
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arunmaheshwari1951@gmail.com

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  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (05-07-2019) को ", काहे का अभिसार" (चर्चा अंक- 3387) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. इस प्रकार का लेख समालोचन पढ़ा बहुत कुछ सीखा सुक्रिया

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