परख : मैं कहीं और भी होता हूँ (कुंवर नारायण ) : मीना बुद्धिराजा






कुँवर नारायण की कविताओं का एक चयन रेखा सेठी ने किया है और वह आधार  प्रकाशन से इसी  वर्ष प्रकाशित हुआ है.  परख रहीं हैं हैं मीना बुद्धिराजा







मैं
  कहीं
         और

भी होता हूँ                              
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मीना बुद्धिराजा



विता और हमारे समय का रिश्ता अटूट है क्योंकि स्मृतियों और स्वप्नों के बीच पूर्व विरासत और आने वाली पीढियों के जीवन के बीच सेतु के रूप में कविता सदा उपस्थित रहती है, वह कभी भी खत्म नहीं हो सकती. कविता में कवि के व्यैक्तिक और सार्वभौमिक, तात्कालिक और शाश्वत, भीतर और बाहर तथा यथार्थ और कल्पना के सुविधाजनक पैमाने खत्म हो जाते हैं. अपने समय के सच और जीवन के गहन अनुभवों से जुड़कर कविता एक वृहतर मानवीय अर्थ का विस्तार करते हुए जिन जीवन मूल्यों की खोज करती है वो प्रत्येक युग में प्रासंगिक होते हैं.

हिंदी के शीर्षस्थ कवि और विश्व कवियों मे प्रतिष्ठित असाधारण कवि कुँवर नारायणकी कविता में भी युगीन भौतिक और आत्मिक निर्मम त्रासदियों के बीच भी शब्द के रूप में कविता की सत्ता हमेशा जीवित रहती है और सभी संकटों की गवाही देते हुए भी उसमे मानवीयता और प्रेम की गरिमा पुनर्स्थापित होती है. अपने छह दशक की दीर्घ काव्य यात्रा में उन्होनें भारतीय इतिहास और सामाजिक-राजनीतिक पक्षों की सभी विडंबनाओं और अस्तित्व के प्रश्नों का गंभीरता से सामना किया. उनकी कविता के केंद्र में मानवता के प्रति अगाध आस्था, पारदर्शिता, सच्चाई और जीवन का स्पंदन है जो उनकी व्यापक संवेदनशील दृष्टि का प्रतिबिम्ब  है-

कुछ इस तरह भी पढी जा सकती है
एक जीवन दृष्टि
कि उसमें विनम्र अभिलाषाएं हो
बर्बर महत्वाकाक्षाएं नहीं.
   
आज तमाम निरर्थक शोर के बीच आत्मकेंद्रित और निर्मम होते समय में कुँवर नारायण की कविताएँ नैतिक और मानवीय-वैश्विक सरोकारों की प्रतिबद्धता के लिए उनके अटूट लगाव का प्रमाण हैं. जब वे कहते हैं कि कविता हमारे निजी और सामाजिक जीवन बोध का सबसे संवेदनशील हिस्सा है जिसे बौद्धिक और भावनात्मक स्तरों पर ही ग्रहण किया जा सकता है तो एक आंतरिक दीप्ति से उनकी कविताएँ आलोकित हो उठती हैं. उनकी काव्य चेतना में क्लासिक अनुशासन की गरिमा तो है,  साथ ही वह सृजनात्मक ऐतिहासिक नवीनता भी जिसमें सामूहिक मानवीय अवचेतन की सभी ध्वनियाँ मौजूद हैं. कुँवर नारायण जी मानते हैं कि सृजनात्मकता में मुक्ति और रचनाका दोहरा अहसास उनके लिए यथार्थ से पलायन नहीं बल्कि अदम्य जीवन शक्ति का प्रमाण है. यह कवि कविता और उसकी बड़ी दुनिया में कवि की निरंतर आवाजाही का प्रमाण है.

कुंवर नारायण जी की विराट काव्य-संवेदना के  इन विविध आयामों को एक बड़े कैनवास पर परस्पर एकसूत्रता के साथ संकलित-स‌ंपादित रूप में इसी वर्ष आधार प्रकाशन से प्रकाशित नयी पुस्तक  शीर्षक मैं कहीं  और भी होता हूँ’  के रूप में आना हिंदी साहित्य के पाठकों के लिए एक बड़ी उपलब्धि है. इस पुस्तक का  चयन एवं संपादन हिंदी की गम्भीर अध्येता-आलोचक डॉ. रेखा सेठी ने किया है. कुँवर नारायण का मह्त्व उनकी काव्य-रचनाओं की सँख्या या सृजन के लंबे काल से निर्धारित नहीं होता. उनका महत्व जीवन की संश्लिष्ट पहचान के कारण है जो आज वाद और विमर्शों से भरे साहित्य जगत में विरल और स्पृहणीय हैं. उनका विशद काव्य साहित्य जगत की बड़ी धरोहर है जिसे बार-बार पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि हर पाठ में वे हमारे समक्ष जीवन का एक नया पहलू उजागर करते हैं. इस पुस्तक में कुँवर नारायण की वे सभी कविताएँ संकलित हैं जो परिवेश और जीवन के स्याह-सफेद चौखटों को निरस्त करते हुए जीवन के वास्तविक रंगों की पहचान करके दोनों पक्षों की सच्चाई को पाठकों के सामने लाती हैं. इससे पहले कुँवर जी की कविताओं के अनेक संचयन आ चुके हैं जिन संकलनों में उनको रचनाओं के काल-क्रम के आधार पर उन्हें संकलित-संपादित किया गया है.


प्रस्तुत संकलन और पुस्तक इस दृष्टि से नवीन और मौलिक है कि यहाँ उनके आरम्भिक काव्य-संग्रह चक्रव्यूहसे लेकर अब तक के अन्तिम काव्य- कुमारजीवके अंश भी संकलित हैं और उनकी मृत्यु के बाद 2018 में प्रकाशित कविता-संग्रह- सब इतना असमाप्तसे भी कुछ कविताएँ संकलित की गई हैं.

इस पुस्तक में नये तरीके से कुँवर नारायण जी के बहुआयामी काव्य संसार को अनेक दृष्टि बिंदुओं के आधार पर रेखांकित करते हुए अलग-अलग आठ अध्यायों में संकलित किया और प्रस्तुत किया गया है जिसमें उनकी रचना-प्रक्रिया का संवेदनात्मक विकास भी मिलता है. एक कवि के रूप में उनके व्यक्तित्व की पारदर्शिता और  मानवीय- वैश्विक दृष्टि का प्रतिबिंब इन कविताओं में स्पष्ट दिखाई देता है. कविता के बारे में उनका वक्तव्य है- एक कवि की सबसे बड़ी चुनौती शायद यह है कि हर चुनौती केवल जीवन की ही नहीं कविता की भी एक जरूरी शर्त मालूम हो. जब भी हम सुंदर कुछ या बड़ाकुछ जीवन में जोड़ पाते हैं हम जीवन की एक बुनियादी चुनौती का सामना कर रहे होते हैं. असुंदरौर क्षुद्र के खिलाफ श्रेष्ठ कुछ को रच पाना जीवन की सर्जनात्मक सामर्थ्य में हमारे विश्वास को दृढ़ करता है.दु:ख हो या प्रेम उसका कविता या कलाकृति में प्रकट होना उसका एक नयी संभावना में जन्म है. पीड़ा भी जब एक अनुष्टुप में घनीभूत होती है; वह जीवन का छंद बन जाती है.‘’

नहीं किसी और ने नहीं
मैंने ही तोड़ दिया है कभी-कभी
अपने को झूठे वादे की तरह
यह जानते हुए कि बार-बार
लौटना है मुझे
प्रेम की तरफ
चाहे कविता बराबर ही
जुड़े रहना है किसी तरह
सबसे.

प्रस्तुत संग्रह की कविताएँ अपने आप में उनकी इस वृहद चिंता को मूर्त करती हैं और इस तरह अंत और आरंभ की एक व्यापक और परस्पर अभिन्न परिकल्पना पाठकों के सामने रखती हैं. इस पुस्तक की कविताएँ जहां एक ओर बहुत अनोखे ढ़ंग से बेचैन करती हैं तो वहीं आश्वस्त भी. इनमें एक बडे कवि के समस्त अनुभवों की काव्यात्मक फलश्रुति है और अक्सर एक भव्य विराट उदासी का गूँजता हुआ स्वर. कहीं भूली बिसरी यादों का कोलाज़ है तो कहीं अप्रत्याशित विडम्बनाओं की और गिरते समाज और समय की चिंता भी इन कविताओं में अभिव्यक्त है. पूरे संकलन में सागर के दो तटों की तरह जीवन और मृत्यु के बीच विविध अनुभवों-आहटों की प्रतिध्वनि इनमें अंतर्निहित है-

इन गलियों से
बेदाग़ गुजर जाता तो अच्छा था
और अगर
दाग़ ही लगना था तो फिर     
(डॉ. रेखा सेठी)
कपडों पर मासूम रक्त के छींटे नहीं
आत्मा पर किसी बहुत बड़े प्यार का ज़ख्म होता        
जो कभी न भरता.

पुस्तक की भूमिका संपादक डॉ. रेखा सेठीने लिखी है जिसमें विस्तार से कुँवर नारायण की रचना-प्रक्रिया और उनकी काव्य यात्रा के अनेक पड़ावों से, विविध रचनात्मक बिंदुओं से एवं आधारभूत प्रेरणाओं से गहन, गंभीर और संवेदनशील शैली में पाठकों को परिचित करवाया है. समकालीन कविता के परिदृश्य में उनकी कविताओं की प्रासंगिक दृष्टि और युगीन भाव-बोध को भी उन्होनें सूक्ष्मता से परखा है. 

कुँवर नारायण की कविता जिस व्यापक धरातल पर अमानवीय सत्ता के प्रतिपक्ष और मानवीय मूल्यों के पक्ष में अपना आकार और स्वरूप प्राप्त करती है उसमें इतिहास, स्मृति और समकालीनता मिलकर एक कालजयी अनुभूति का रूप ले लेती हैं. एक वैश्विक कवि के रूप में उनकी कविता विरोधों के सामजंस्य में, परंपरा और आधुनिकता के बीच समन्वय में अपनी काव्य दृष्टि ग्रहण करती है , वह अनुपम है, कालजयी है-

मैं कहीं और भी होता हूँ
जब कविता लिखता
ज़िंदगी बेहद जगह माँगती है    
फैलने के लिए
इस फैलने को जरूरी समझता हूँ    
और अपनी मजबूरी भी
पहुंचना चाहता हूँ अंतरिक्ष तक
फिर लौटना चाहता हूँ  सब तक     
जैसे लौटती हैं
किसी उपग्रह को छूकर
जीवन की असंख्य तरंगें...

मानवीय जीवनानुभवों, प्रकृति, प्रेम के साथ ही जीवन के चिरंतन प्रश्नों से टकराती हुई कबीर, अमीर खुसरो, काफ्का के प्राहा में, अयोध्या 1992आनात्मा देह-फतेह्पुर सीकरी, भृतहरि की विरक्ति , वाजश्रवा का क्रोध, कहता है कुमारजीव, गुएर्निका जैसी कविताएँ हमारे समय और समाज का जो समानांतर पुनर्पाठ प्रस्तुत करती है वह हमारी चेतना को प्रभावित करता है. मनुष्य की आत्मिक संरचनाओं को संबोधित करती ये कविताएँ आज के नैतिक रूप से कमजोर समय का संबल बनती हैं. पुस्तक के  प्रत्येक अध्याय के आरंम्भ में कुँवर नारायण जी की हस्तलिखित मूल कविता की प्रतिलिपि और दुर्लभ चित्रों के साथ पाठक के लिए आत्मीयता और उनकी उपस्थिति को प्रतिकात्मक रूप देती है. पुस्तक के अंतिम भाग मेंअपने-अपने कुँवर नारायणशीर्षक के अंतर्गत समकालीन प्रख्यात कवियों- आलोचकों की दृष्टि में उनकी काव्य-संवेदना का मूल्यांकन  करते हुए जिन नए आयामों की खोज की गई है वह बहुत महत्वपूर्ण है. 

मानवता के प्रति अगाध आस्था और प्रेम उनकी काव्य-संवेदना का मूल स्वर है जो कालातीत और सार्वभौमिक है. कुँवर नारायण के अध्येताओं, हिंदी कविता के पाठकों के लिए भी यह एक अनिवार्य पुस्तक है जसमें कविताओं का संयोजन मौलिक दृष्टि से और नये आधार और तरीके से इन्हें व्यवस्थित किया गया है और पाठकों के सामने  उनकी संवेदनशील कव्यात्मकता का बेहद सघन और अनुभव-समृद्ध बहुआयामी रचना संसार खुलता चला जाता है. एक अद्भुत कला के पारखी और भाषा की गरिमा का जो धैर्य और विवेक इन कविताओं में सम्भव हो पाया है उसमें अनुभूति की विरल गहराई है-

भाषा की ध्वस्त पारिस्थतिकी में
आग यदि लगी तो पहले वहाँ लगेगी
जहाँ ठूँठ हो चुकी होंगी
अपनी ज़मीन से रस खींच सकने वाली शक्तियाँ.

इस पुस्तक में कवि के जीवन और कविताओं में परस्पर साहचर्य के अंतर्निहित भाव को आरम्भ से अंत तक परिलक्षित किया जा सकता है जो आज भी उनकी उपस्थिति को संभव और मूर्त करता है. विस्मृति के विरुद्ध कविता कभी खत्म नहीं होती और यह पुस्तक भी उनकी कुछ  जरूरी कविताओं के माध्यम से कुँवर नारायण जी की अनुपस्थिति में उनसे पाठकों का एक निरंतर शाश्वत संवाद है और आज की कविता के परिद्रश्य में भी सृजनात्मक  दस्तक है क्योंकि उन्होनें तमाम हताशा और  पराजय के बीच अपनी कविताओं मे यही समझाया कि- एक बेहतर कल में वापस लौटना हमेशा संभव है.'
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मीना बुद्धिराजा
meenabudhiraja67@gmail.com

मैं कहीं और भी होता हूँ
(कुँवर नारायण की कविताएँ)
चयन एवं संपादन : रेखा सेठी
आधार प्रकाशन पंचकुला ( हरियाणा )
प्रथम संस्करण 2019
आवरण- अपूर्व नारायण
मूल्य-250 रूपये

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  1. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (23 -06-2019) को "आप अच्छे हो" (चर्चा अंक- 3375) पर भी होगी।

    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ....
    अनीता सैनी

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  2. बढ़िया आलेख। मीना जी के काम की गुणवत्ता और नियमितता दोनों प्रशंसनीय है।

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  3. शानदार आलेख लिखा है आपने

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  4. मीना जी का बहुत धन्यवाद कि उन्होंने इस पुस्तक में कुँवर जी के विराट कवि व्यक्तित्व के साथ साथ सम्पादकीय निष्ठा व लगन को रेखांकित किया | अरुण जी का भी हृदय से आभार ! समालोचन ने गंभीर साहित्यिक विनिमय में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज की है |

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  5. बहुत शानदार समालोचना जो रचनाकार को पढ़ने को प्रेरित कर रही है रचनाओं के बंध बहुत ही आकर्षक।

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  6. अच्छा और अध्ययन के साथ लिखा है मीना जी ने।

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