भारतेंदु हरिश्चन्द्र को हिंदी उसी तरह प्यार करती है जिस तरह बांग्ला रबीन्द्रनाथ टैगोर से. असहमतियां रबीन्द्र से भी हैं भारतेंदु से भी रहेंगी. भारतेंदु के प्रेम सम्बन्धों को पहले भी किसी क्षेपक की तरह देखा जाता था आज भी उनकी प्रणय कथा से असंतोष है. मैं समझता हूँ यह बेहतर स्थिति है, कि कथ्य पूरी तरह से हस्तगत नहीं किया जा सका है और किसी/अनेक पाठों के अंकुरण की अभी गुंजाईश है.
भारतेंदु और मल्लिका की प्रणय कथा पर आधारित मनीषा
कुलश्रेष्ठ का उपन्यास ‘मल्लिका’ अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है. आलोचक अरुण
माहेश्वरी ने इस पर एक टिप्पणी लिखी थी जो समालोचन के पिछले अंक में प्रकाशित हुई
है. इस उपन्यास को लेकर उनके अपने प्रश्न हैं. इस संवाद को आगे बढ़ा रहें हैं
मनोचिकित्सक और हिंदी के कवि-लेखक विनय कुमार.
(दो)
मल्लिका
शुद्ध प्रेमकथा भी कोरी
प्रेमकथा नहीं होती
विनय कुमार
कोई भी कथा, चाहे अतीत के बारे में ही क्यों न हो, अपने समय में ही कही जाती है और समकालीनता को ही सम्बोधित करती है. मल्लिका के रचनाकार को इस बात का पूरा ध्यान है. इसलिए उसने “महान भारतेंदु के पार्श्व में लता-सी लेटी एक स्त्री जो लिख भी लेती है” के बदले में स्वतंत्र चेतना वाली एक बनती हुई लेखिका को रचा है जो भारतेंदु से प्रेम करती है. वह एक बार भी उस युग-पुरुष को पटाती नहीं दिखती. बिलकुल स्वाभाविक तरीक़े से ख़याल रखती है और फ़िक्र करती है.
ग़ौर से देखें तो मल्लिका कल की नहीं आज की
स्त्री है- नियति के दंश से उबरती और अपने अस्तित्व को अर्थवान बनाती हुई. रचनाकार
ने मल्लिका को उल्का की तरह नहीं टपकाया है बनारस में, उसे एक भरे-पूरे परिवार में पाल-पोसकर बड़ा किया
है. बाग़-तड़ाग, खेत-खलिहान, फूल-फल और भरे-पूरे परिवार के बीच. इस प्रक्रिया
में इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि उसकी निर्मिति में उन्हीं तत्त्वों का
इस्तेमाल हो जो भारतेंदु की प्रेयसी रही मल्लिका को ही रचे और इस क़दर कि
इक्कीसवीं सदी में प्रासंगिक भी हो. सुखद आश्चर्य होता है कि मनीषा कुलश्रेष्ठ की
मल्लिका बिना किसी विरोधाभास के पुरानी भी है और नयी भी.
‘समालोचन ई पत्रिका’ पर अरुण महेश्वरी जी की
समीक्षा मल्लिका के साथ न्याय नहीं करती. उन्होंने उपन्यास को एक सामान्य प्रेमकथा
में reduce करने का प्रयास किया
है और उद्धरण भी वैसे ही चुने हैं. वे उद्धरण एक ख़ास संदर्भ बेहद ख़ूबसूरत अंश
हैं मगर वही सब कुछ नहीं. अपनी स्थापना देते हुए वे कहते हैं :
“इस ढांचे को देखने से ही साफ हो जाता है कि बांग्ला नवजागरण की पीठिका से आई मल्लिका का हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत भारतेन्दु से संपर्क के बावजूद इस प्रणय कथा में उनके स्वतंत्र चरित्र के विकास की कोई कहानी नहीं बनती दिखाई देती है. यह किसी खास परिपार्श्व के संसर्ग से बनने-बिगड़ने वाले चरित्र की कथा नहीं है जो अपने जीवन संघर्षों और अन्तरद्वंद्वों की दरारों से अपने समय और समाज को भी प्रकाशित करता है. यह शुद्ध रूप से एक विधवा की प्रेम कथा है, प्रणय-प्रेम गाथा है.”
मैं उपन्यास और कथा का आलोचक तो नहीं मगर पाठक
के रूप में एक उम्र गुज़ारी है. डॉक्टर हूँ. शरीर की चीड़-फाड़ भी की है और २७
सालों से बहैसियत मनोचिकित्सक काम करते हुए हज़ारों लोगों के मन में भी झाँका है.
जैविक स्तर पर सारे मनुष्य एक हैं. भोजन हो या सम्भोग- सारी जैविक क्रियाएँ एक तरह
से सम्पन्न होती हैं. हमारा मानस भी मूलत: एक है. जो अंतर दिखता है सिर्फ़ सीखे गए
व्यवहार की वजह से. कोई डाइनिंग टेबल पर चम्मच से खाता है तो कोई हाथ चाट-चाटकर.
शयन कक्ष के भीतर की मूल क्रिया भी समान होती है. अंतर बस अंतरंग संवाद और एक
दूसरे के पास पहुँचने के अन्दाज़ में. .. तो जो अंतर है वह cultural
construct का है और साहित्य imagined
reality के इसी पल-पल बदलते स्पेस
में अपना संसार रचता है. एक पाठक के रूप में मुझे यही संसार लुभाता और समृद्ध भी
करता रहा है. यह अलग बात है कि विद्वान समीक्षक उपन्यास में रचे गए cultural
construct को ख़ारिज करते हुए चंद
पृष्ठों पर आए अंतरंग संवादों और दृश्यों को ही उपन्यास का अभिप्राय और उद्देश्य
बता बैठे हैं.
इस सिद्धांत पर अमल करें तो बड़े से बड़े
उपन्यास को यह कहकर reduce किया जा सकता है कि यह ग़रीबी या भूख या मृत्यु के बारे में है. स्त्री और
पुरूष के प्रेम की कथा तो चंद पंक्तियों या एक छोटी-सी कहानी में भी निपटायी जा
सकती है. मगर जब कोई रचनाकार औपन्यासिक यात्रा पर निकलता है तो उसकी दृष्टि में वे
सारे भौगोलिक-सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ होते हैं जिनसे पात्रों के मानस को रचा जाना
है. शुद्ध प्रेमकथा भी कोरी प्रेमकथा नहीं होती. बाहर तो बाहर, कई कारक प्रेमियों के जीव- और मनो- विज्ञान के
भीतर भी होते हैं जो प्रेम की गति-नियति तय करते हैं.
मल्लिका एक ऐसा उपन्यास है जिसके दोनों पात्र वास्तविक
हैं. भारतेंदु के बारे में काफ़ी कुछ पता है मगर मल्लिका के बारे में बहुत कम. तीन
उपन्यास, प्राथमिकस्रोतों से
प्राप्त कुछ सूचनाएँ और एक तस्वीर- यही तो! तस्वीर भारतेंदु के साथ उसकी अंतरंगता
और उसके व्यक्तित्व की कुछ बातों की सूचना देती है. तस्वीर में उन दोनों की मुद्रा, अंग-भाषा और चेहरे पर बिम्बित मनोभाव अपने आप
में प्रेमकथा का सारांश रचते हैं. मगर क्या इतने भर से सम्भव था यह उपन्यास? क्या उपन्यास का अभिप्राय वही चंद दृश्य और
संवाद है जो उद्धृत किए गए हैं? भारतेंदु के मानस और परिवेश की पड़ताल अनावश्यक थी ?
क्या इनका महत्त्व सिर्फ़ उनके लिए है जो इन
घटनाओं को जानते हैं? भारतेंदु की सामाजिक
प्रतिष्ठा, उनकी पारिवारिक-आर्थिक
स्थिति, उनकी उदारता, उनकी रचनाशीलता, उनका जागता-जगाता मानस और अन्य प्रेमसम्बंध
अनावश्यक फ़ुटेज खाते हैं ?
बंगाली नवजागरण की पीठिका
से आयी मल्लिका हिंदी नवजागरण के दूत से प्रेमकरती है और वे भी उससे. सच तो यही कि
उपन्यास में वर्णित प्रेम पर दोनों के अतीत और वर्तमान के पार्श्व परिवेश बख़ूबी
असर डालते हैं. इस प्रेम पर भारतेंदु के क्षरित होते दैहिक और आर्थिक स्वास्थ्य का
ही नहीं उनके सामाजिक और लेखकीय जीवन का भी प्रभाव है. और फिर बनारस तो है ही.
उपन्यास में बनारस एक शहर-भर नहीं है. वह अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक परम्परा, जीवन शैली अपने उत्सव और अपने अच्छे-बुरे
बाशिंदों के साथ मल्लिका के बंगालोत्तर चरित्र के रचाव की प्रक्रिया में बड़ी सहजता
से दाख़िल होता चलता है. और भारतेंदु तो बनारसी बाबू ही ठहरे. फ़र्ज़ कीजिए वे
कलकत्ता या दिल्ली या पटना के वासी होते और तब सोचिए कि उनका व्यक्तित्व कैसा होता.
और यह मल्लिका कैसे सम्भव हो पाती? कैसे रचा जाता उसका मानस? इतना तो तय है कि मल्लिका बंगाल की थी, और बाल विधवा थी. तो फिर बनारस? मिथक और इतिहास के इस मंच ने क्यों खींचा उसे ? “जस्ट फ़ॉर फ़न” और “अड्वेंचर” के लिए बनारस तो
नहीं ही आयी होगी. परम्परा ही निभाना होता तो सीधे वृंदावन चली जाती. कुछ तो होगा
उसके मन में! अगर चुपचाप वैधव्य ही काटना होता तो बंगाल ही क्या बुरा था! रही
स्त्री और युवावस्था के कारण आनेवाले संकटों की बात. तो जानी-पहचानी जगह छोड़कर
कोई अनजान इलाक़े में क्यों जाए? और फिर इसके अलावा उसका लेखक और अनुवादक होना. इसे कैसे देखा जाना चाहिए? क्या उसके जीवन का “पार्श्व परिदृश्य” एक सामान्य प्रेमकथा के साथ अनुस्यूत अतिरिक्त
भार की तरह है? उसके कथा-चरित्र के
विकास में कोई भूमिका नहीं निभाता? न्यूनतम सूचनाओं के आधार पर भी कहा जाए तो कहना पड़ेगा कि एक बाल विधवा का
अभिशप्त जीवन जीने से इंकार, अपने प्रांत और परिजनों से दूर जाकर लेखक का जीवन जीने का साहसिक निर्णय और एक
प्रसिद्ध व्यक्ति के साथ विधवा के लिए वर्जित फल का सेवन जैसे तत्त्व उसे सामान्य
नारी रहने ही नहीं देते.
ये सत्यापित सूचनाएँ इतना तो अवश्य बताती हैं कि
उसके व्यक्तिव में नवजागरण के तत्त्व थे. और अगर ये तत्त्व थे तो कथा का विकास उस
सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि को छोड़कर कैसे किया जा सकता था? उपन्यास के विषय के रूप में अलपज्ञात मल्लिका के
जीवन का चयन सिर्फ़ भावनात्मक होता तो क़िस्सागोई का अन्दाज़ कुछ और ही होता. इसे
तो सामान्य लेखक भी समझता है. ज़ाहिर है, उपलब्ध स्रोतों और तत्कालीन ऐतिहासिक संदर्भों के अध्ययन के बाद ही मल्लिका के
व्यक्तिव को रचने लायक कच्चा माल मिला होगा. शेष तो कृती के अचेतन का सम्बद्ध
अयस्क और चेतन की क्षमता !
इस उपन्यास में मल्लिका और भारतेंदु के सम्बंध
इतने सरलीकृत नहीं कि उन्हें “एक और प्रेमकथा” की चिप्पी सटी को
पोटली में बंदकर ताक़ पर रख दिया जाए. सच तो यह है कि इन दोनों के सम्बन्धों के
बहाने “परिवर्तन को
प्रस्तुत पुरुष” और “अपने समय से आगे बढ़कर सोचनेवाली आत्मसजग स्त्री” के कई आयामों की पड़ताल की गयी है. वे गुरु और
शिष्या भी हैं, रचनाकार मित्र भी, बिज़नेस पार्ट्नर भी और दो स्वतंत्र मनुष्य भी.
भारतेंदु की तरफ़ खड़े होकर देखें तो कई
स्त्रियों के बीच मल्लिका भले एक पार्श्व चरित्र नज़र आए मगर इस उपन्यास से बाहर.
यहाँ तो बहुगामी भारतेंदु ही पार्श्व चरित्र लगते हैं- अपनी विशाल उपलब्धियों के
बावजूद थके-हारे. और मुश्किल जीवन जीती दृढ़मना नायिका अक्षय अमृतधारा सी. माना कि
भारतेंदु कई स्त्रियों से प्रेम-सम्बंध बनाने वाले स्वतंत्र पुरुष के रूप में जाने
जाते हैं तो इस उपन्यास की मल्लिका भी आश्रिता नहीं. वह तो भारतेंदु द्वारा “धर्म-रक्षिता” कहे जाने का भी प्रतिवाद करती है. वह अपना
मूल्यांकन करते हुए कहती है :
“तुम्हारा और मेरा नाता इस संसार की व्याख्या का विषय नहीं है. लोग प्रेम को व्याभिचार समझते हैं. जबकि प्रेम की परिभाषा तक में अपना व्यापक संबंध समेटे नहीं सिमटता. हम धँसते हैं एक दूसरे की कला में अभिव्यक्ति में! मुझे किसी के आगे अपना और तुम्हारा चरित्र सत्यापित नहीं करना.”
वह मातृभाषा में कवितायें लिखती है और हिंदी में
गद्य. यानी कोरी संवेदना पर नहीं ठहरी है वह, बल्कि विचार और समय की माँग को पहचानने के लिए सक्रिय है. वह सयत्न हिंदी
सीखती है और उपन्यास भी लिखती है. बंकिम बाबू से मल्लिका के बौद्धिक जुड़ाव और
संवाद के प्रसंग सरसरी तौर पर भले दूर की कौड़ी लगें मगर नवजागरण-नारी के मानस की
काव्यात्मक रचना के दृष्टिकोण से सोचें तो अर्थवान मेटाफ़र. ईश्वर चंद्र
विद्यासागर की कोई सभा-गोष्ठी बनारस में हुई थी या नहीं, मुझे नहीं पता मगर इस गोष्ठी में
विद्यासागर-भारतेंदु संवाद को सुनती मल्लिका मायके से आए नए विचारों के ध्वजधारी
के प्रति गर्व और अपने प्रेमी के उदार आग्रहों के प्रति हौले-हौले आश्वस्त होती
वधू-सी दिखती है. यह तथ्य भले न हो, उपन्यास के इस चरित्र की निर्मिति के लिए अनिवार्य काव्य-सत्य तो यक़ीनन है.
रोचक क़िस्सागोई न हो तो उपन्यास अपने को पढ़वा
नहीं पाता और कथा के अनुरूप भाषा न हो तो लगता है किसी अनाड़ी का किया अनुवाद पढ़
रहे. यह उपन्यास इन दोनों दोषों से रहित है. कथा बाँधती है, जिज्ञासा को जगाए रखती है और पाठक को साथ लिए
चलती है. उपन्यास उठाओ तो एक सिटिंग में ख़त्म. भाषा की प्रांजलता मन को मोहती है, ख़ासकर तब जब चर्चा प्रकृति या अंतर्मन की हो
रही हो. प्रकृति का वर्णन तो कमाल का. पढ़ते हुए लगता है कि पुराने बंगाल के किसी
गाँव पर बनी डॉक्युमेंटरी देख रहे हों.
सारांशत:, यह उपन्यास भारतेंदु और मल्लिका की प्रेमकथा तो है ही मगर उससे कहीं अधिक
रूपसी बांग्ला की एक सुसंस्कृत मगर अभिशप्त कन्या के स्वप्नों और संघर्षों की कथा
है. नियति के निर्णय की छाया से बाहर निकलने के साहस का काव्य है. यह अकारण नहीं
कि कथा प्रतीक्षा की गर्म रेत पर फैले विहवल एकांत से शुरू होती है और समाप्त एक
निर्गुण प्रशांति में.
(अरुण माहेश्वरी की टिप्पणी - भारतेन्दु बाबू की प्रणय कथा
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(अरुण माहेश्वरी की टिप्पणी - भारतेन्दु बाबू की प्रणय कथा
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कवि विनय कुमार की 'यक्षिणी' अभी हाल ही में प्रकाशित हुई है.
Hony General Secretary:Indian Psychiatric Society
Chairperson:
Publication Committee, Indian Psychiatric Society (2016-18)
Hony
Treasurer: Indian Association for Social Psychiatry
Imm.
Past Hony Treasurer: Indian Psychiatric Society (2012-16)
Consultant
Psychiatrist:Manoved Mind Hospital,
NC 116,
SBI Officers Colony, Kankarbagh, Patna India.
Oh:
+919431011775
विनय कुमार जी की टिप्पणी को सरसरी तौर पर देख गया । उन्हें हमारी टिप्पणी पर आपत्ति है कि इस उपन्यास को महज प्रेमकथाएँ कह के हमने विषय का सरलीकरण किया है ।
जवाब देंहटाएंइस मामले में हम उनसे सिर्फ इतना पूछना चाहेंगे कि किसी भी विश्लेषण में सूत्रीकरण का उनके लिये क्या अर्थ है ? वे खुद मनोविश्लेषक है । उनके पेशे की भाषा में ही पूछूँ कि उनके लिये किसी भी मनोरोगी को समझने में उसके अंदर की गाँठ को समझने का क्या महत्व है ? इन गाँठों से ही रोगी के बारे में बाक़ी सभी भ्रामक निर्मितियों का अंत होता है ।
जिसे विनय कुमार सरलीकरण कह रहे हैं, वही विश्लेषण में सूत्रीकरण और मनोरोगी की गाँठें हैं । आप अन्य कोरे आख्यानों से कई भ्रम पैदा कर सकते हैं । लेकिन घुमा-घुमा कर प्रणय प्रकरणों में रमना उपन्यास के सच को खोलता है ।
प्रेम में प्रणय के क्षणों का संसार कितना स्वायत्त और सर्वकालिक होता है, इस पर हमने अपनी टिप्पणी में यथेष्ट प्रकाश डाला है । इसके नाना रूपों पर दुनिया में लगातार लिखा और पढ़ा जा रहा है । ‘मल्लिका’ को उसकी श्रेणी में रख कर उसकी सीमा और संभावना दोनों को ही उजागर किया गया है ।
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (22 -06-2019) को "बिकती नहीं तमीज" (चर्चा अंक- 3374) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
"आज वैसे ही विरह प्रेम को मध्ययुगीन खोज बताने वाले कम नहीं है."......
जवाब देंहटाएं"इन प्रणय कथाओं में......मूल होता है प्रणय के अपने जगत के उद्वेलनों में पाठक-दर्शक को डुबाना-तिराना.".........अरुण माहेश्वरी
अक्सर लोगों से यह बात कहते हुए सुनते हैं की 'मैं फलाँ को वासनारहित प्रेम करता हूँ' बात हस्यास्पद लगती हैं लेकिन विरह प्रेम की बात करें तो वास्तविक जान पड़ती हैं और शायद इसलिए लेखकों या फिल्मों द्वारा जो प्रेम बोल कर प्रणय के उद्वेलन से दर्शक पाठक को तिराना डुबाना होता हैं वह वैसा ही है जैसा की मस्तराम की कहानियाँ।
दुःखद यही है की मस्तराम का लेखक जानता नहीं लेकिन प्रणय प्रेम कथा लिखने वाला साहित्यिक लेखक कालिदास बाण अद्दहमाण आदि को जानता हैं. इससे ऐसी उम्मीद नहीं है
अरूण माहेश्वरी जी की प्रतिक्रिया कल रात को पढ़ी। विनम्रतापूर्वक कहना चाहूँगा :
जवाब देंहटाएंमनोचिकित्सकीय कार्य का दायरा काफ़ी बड़ा है। यह व्यक्ति को देखने-परखने, उसके भीतर समानुभूति के साथ उतरने, उपचारात्मक औषधि व संवाद प्रदान करने तथा उसके मनोसामाजिक पुनर्वास के प्रयास का समुच्चय है। ... मैं यही करने के प्रयास में जुटा रहता हूँ।
साहित्य को देखने की दृष्टि भी मुझे अपने काम से ही मिली है। अकादमिक आलोचना और उसके सिद्धांतों से मुलाक़ात का अवसर आज तक मयस्सर नहीं हो सका। ....”मल्लिका” को भी मैंने उसी दृष्टि से पढ़ा। मेरे लिए उपन्यास में उपलब्ध उसका सारा जीवन चरित ही विषय है उसका प्रेम भर नहीं जिसे आपने “यह शुद्ध रूप से एक विधवा की प्रेम कथा है, प्रणय-प्रेम गाथा है।” कहकर “सूत्रीकृत” किया है। मेरी आपत्ति आपके यह ख़ारिज करने पर है कि “यह किसी खास परिपार्श्व के संसर्ग से बनने-बिगड़ने वाले चरित्र की कथा नहीं है जो अपने जीवन संघर्षों और अन्तरद्वंद्वों की दरारों से अपने समय और समाज को भी प्रकाशित करता है.”
सवाल यह है कि जो मल्लिका उपन्यास में भारतेंदु के समक्ष प्रस्तुत होती है वह क्या किसी प्रयोगशाला में बनी है ? उसे उसके बंगाली परिवेश ने नहीं रचा ? वह मल्लिका जो बनारस में लेखिका के रूप में विकसित होती है, भारतेंदु के साथ प्रेम-संवाद ही नहीं चर्चा और बहस भी करती है और व्यवसाय में पार्ट्नर बनती है, क्या वैसी की वैसी ही थी शुरू से ? भारतेंदु के साथ और बनारस के वास ने कुछ नहीं किया उसके साथ ?
क्या एक और भाषा के ज्ञान ने उसे नहीं बदला ?
जानना चाहूँगा कि क्या उसके सामान्य/प्रेम व्यवहार में उसके पारिवारिक-सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश के प्रभाव नहीं दिखते? क्या वह अवसाद नहीं दिखता जो उसके life events ने उसे दिए ? और क्या वह जिजीविषा नहीं दिखती जो ग्राम्य जीवन में वनस्पतियों के देखते-सराहते सहज ही प्राप्त हो जाती है?
आप लिखते हैं :यह शुद्ध रूप से एक विधवा की प्रेम कथा है, प्रणय-प्रेम गाथा है.” ऐसे सरलीकरण को गाँठ खोलना कैसे मानें, जब मुझसे non-critic को यह साफ़ दिख रहा कि मल्लिका ने न सिर्फ़ वैधव्य की रंगहीनता को त्यागने का साहस दिखाया है बल्कि अपने भीतर की स्त्री को ढूँढ पाने का भरसक प्रयास भी किया है।यह किसी विधवा की नहीं, एक स्त्री की प्रेमकथा है सर! अगर विधवा की प्रेमकथा होती तो उससे ग्लानि की गंध आती, प्रेम की सुगंध नहीं। ‘विधवा की प्रेमकथा’ कहना उस स्त्री के मेटामोरफ़ोसिस का नगण्यीकरण है जिसने “स्वयं को “ और “स्वयं का” रचकर दिखाया है।
मनोवैज्ञानिक विश्लेषण तो तब होता, जब आप उपन्यास में वर्णित “विपरीत रति” को एक स्त्री के कमांडिंग रोल में आने की कामना का प्रकटीकरण कहते !
Vinay Kumar जी सही विश्लेषण किया है आपने।भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के जीवन व व्यक्तित्व का जितना असर मल्लिका पर पड़ा है उससे भी जादा असर मल्लिका के
जवाब देंहटाएंव्यक्तित्व व विचारों का भारतेंदु हरिश्चंद्र पर पड़ा है।मल्लिका के माध्यम से भारतेन्दु बंगला भाषा साहित्य संस्कृति व सौन्दर्य
से परिचित हुए हैं।उन्होंने बंगला नाटकों के साथ ही अन्य कई अनुवाद व भावा नुवाद किए हैं।
आपत्ति तो मुझे “विधवा की प्रेमकथा” कहने पर इस कारण भी है कि इससे फ़्यूडलिटी की बू आती है। हम मल्लिका पर संवाद आज कर रहे हैं ‘नवजागरण’ के उदय से पहले की सदी में नहीं।
जवाब देंहटाएंArun Maheshwari आप जैसे चाहे किसी उपन्यास को अपनी तरह से पढ़ सकते हैं । कोई भी समीक्षा अंतत: कृति और समीक्षक के बीच के संबंधों की जटिलता पर भी आधारित होती है ।
जवाब देंहटाएंइस विषय में समग्र रूप से आलोचना को मैं किसी आलोचक के निजी काम के रूप में देखने के पक्ष में नहीं हूँ । आलोचक अपने विश्लेषण से विषय की पूरी सामग्री को अपनी तरह से सज़ा कर एक जगह इकट्ठा करता है जिससे विषय का एक नया परिप्रेक्ष्य सामने आता है । लेकिन यह ज़रूरी नहीं होता कि वही आख़िरी विश्लेषण होता है । एक लंबी, रुक-रुक कर चलने वाली आलोचनात्मक प्रक्रिया को औपचारिक और सटीक रूप दिया जा सकता है, उसके अन्तर्निहित तर्क को रखा जा सकता है । इससे जाहिर है कि आलोचनात्मक विश्लेषण किसी के द्वारा निजी विश्लेषण की परिधि के बाहर संपन्न हो सकता है । यह आलोचना को उसकी परंपरागत सीमाओं से आगे ले जाने का उपाय है । एक विमर्शमूलक उपाय । इसमें कृति की भूमिका विश्लेषण के लिये ज़रूरी सामग्री देने की होती है । अन्यथा हवा में बात करने से विश्लेषण में दिखाई देने वाले फ़र्क़ को नहीं जाना जा सकता है । इसीलिये आलोचना विश्लेषण के एक स्कूल का अंग होकर भी सामने आती है ।
आलोचना उपन्यास लेखन नहीं है, आलोचना है । कृति के प्रकाश से उसके कृतिकार को भी प्रकाशित करने का उपक्रम । जैसे मनोविश्लेषण में आपकी किसी लक्षण की शानदार व्याख्या मात्र मनोरोग का निदान नहीं होता है । फ्रायड इसीलिये कहते थे कि उन्हें लगने लगा था कि जैसे हर प्राणी में एक ऐसी मौन शक्ति का अस्तित्व है जो आत्म-विनाश पर तुली होती है। हम सचेत रूप में जिस कष्ट को उठाते हैं, वह उसे रसद जुटाती है । यह एक ही चीज को दोहराने को आदमी की मजबूरी समझना था । आदमी का बार-बार एक ही पीड़ादायी भूल को दोहराते जाना, अतीत से कोई शिक्षा न लेना, वास्तव में पीड़ा को ही आनंददायी मानना होता है । इसीलिये मनोचिकित्सा में रोगी की यह आनंदानुभूति ही एक प्रतिपक्ष की भूमिका में भी होती है । अर्थात् विषय कोरा भाषाई नहीं रह जाता है, रोगी के चित्त का विषय हो जाता है ।
उसी प्रकार, लेखक के रुझानों को, कृति में दोहराव के ज़रिये जाना जाता है ।
मल्लिका के बारे में कुछ और कहने के पहले एक बात बता दूँ कि बंगाल की विधवाओं का बनारस में बसना उतना ही परंपरागत रहा है जितना वृंदावन में बसना । इसलिये मल्लिका के बनारस के चयन में कोई विशेष रूपांतरकारी अर्थ नहीं खोजना चाहिए । दूसरा, मल्लिका उपन्यास की केंद्रीय चरित्र बनी है क्योंकि वह बाबू हरिश्चंद्र के संपर्क में आती है । हरिश्चंद्र के न रहने पर मल्लिका भी नहीं रहती है ।
कोई यह कहे कि मल्लिका की वजह से हरिश्चंद्र बंगाल के नवजागरण के संपर्क में आए तो इसे उपन्यास में ही ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के बनारस में आगमन के प्रसंग में साफ़ कर दिया गया है । इसमें शक नहीं है कि मल्लिका के पास विरासत में उसकी बंगाल की पृष्ठभूमि और साहित्यानुराग भी है । लेकिन हरिश्चंद्र और मल्लिका का जो संबंध इस उपन्यास की धुरी है, वह सबसे अधिक मुखर रूप से बार-बार उनके प्रणय आख्यानों में ही सामने आता है । इन प्रसंगों का एक से अधिक बार दोहराया जाना, अलग-अलग रूप में इस उद्वेलन का सामने आना इस कृति के मूल चरित्र को परिभाषित करने के लिये काफ़ी है । बाक़ी दोनों के बीच संबंधों की अन्य बातें किसी भी जुनूनी व्यक्ति के स्वाभाविक जीवन के ब्यौरों की तरह है । हरिश्चंद्र के न रहने पर मल्लिका ख़त्म हो जाती है, क्योंकि उसके जीवन का लक्ष्य ख़त्म हो जाता है ।
Vinay Kumar इसको फ्युडलिटी मत समझिये । यह शुद्ध रूप से उस तथ्य का बयान है जिसकी वजह से मल्लिका काशीवासी बनती है । यह किसी प्रकार का मूल्य-निर्णय नहीं है ।
जवाब देंहटाएं१.सबके पर्सेप्शंस अपने। मल्लिका के बनने में जगा हुआ बंगाल और बहता हुआ बनारस! अब हम कुछ पास आ गए हैं। ��
जवाब देंहटाएं२.लेकिन पूर्ण सांस्कृतिक शहर बनारस ही क्यों, नितांत धार्मिक नगर वृंदावन क्यों नहीं ?
३.विधवा की प्रेमकथा में एक deliberate अप्रिय सत्योचारण दिखता है जो खटकता है।
३. और हाँ, सृजन चाहे वह एकाधिक प्रेम-परक उपन्यास का ही क्यों न हो, फ़्रायड के Thanatos का आयोजन नहीं।
फ़्रायड भी सृजन की प्रक्रिया की लम्बी व्याख्या के बाद उसके जादू के बारे कुछ कहने से इंकार करते हैं।
४. सही है कि रचना में रचनाकार का मानस आता है मगर पूरी रचना में। पूरेपन में यह उपन्यास रचनाकार के मानस के कई पहलुओं को सामने लाता है।मसलन प्रकृति, परम्पर, इतिहास और एक स्त्री द्वारा अपनी अस्मिता की तलाश आदि।
प्रेम एक पक्ष है। वैसे भी इस उपन्यास की मल्लिका प्रेम की तलाश में नहीं आयी थी यहाँ। वह तलाश स्वयं की थी।
रचनाकार ने भी प्रणयिनी मल्लिका से अधिक महत्त्व उस कृती को दिया है जो आत्मान्वेषण करती है। अगर रचनाकार का ही मनो-विश्लेषण हो रहा तो इस बात को भी ध्यान में रखने की आवश्यकता पड़ेगी।
अरुण जी, मैं तो डॉक्टरी के धंधे का आदमी हूँ। मुझे सरकार ने मेडिकल कॉलेज में पढ़ने लायक भी नहीं समझा था। सो अपनी दुकान में बैठ नुस्ख़े और सेवाएँ बेचता हूँ।शास्त्रार्थ का मुझे अभ्यास नहीं।
आपकी टिप्पणी की कुछ बातें मुझसे इतना कुछ लिखवा गयीं। वरना .. मैं कहाँ और ये बवाल कहाँ ! मेरी किसी बात से बुरा लगा हो तो क्षमा चाहता हूँ।
हम एक ही वक़्त के मुसाफ़िर हैं .. मिलते हैं कभी। और जैसी कि अपनी आदत है, सीखते ज़रूर हैं कुछ न कुछ। �� सो आपसे भी सीखेंगे ! ������
Vinay Kumar और कुछ नहीं कहना है । बंगाल और बनारस के संबंध का लंबा इतिहास है । चैतन्यदेव के काल से भी पहले से । बांग्ला साहित्य में तो बनारस का ज़िक्र बंगाल के शहर की तरह आता है । और बंगाली मध्यवर्ग के परिवार की विधवा स्त्रियों को बंगाल मेंबसाने का सिलसिला भी इस संपर्क के इतिहास का अंग है । इसे जान लेंगे तो बनारस और वृंदावन को लेकर कोई गुत्थी नहीं रहेगी ।
जवाब देंहटाएंमुक्तिबोध ने इसे संवेदनात्मक उद्देश्य कहाँ है । मैंने फ्रायड की आदमी में बार-बार लौट कर आने वाली प्रवृत्ति, जिसका चरम रूप death drive है, उसका ज़िक्र आपकी रुचि के विषय के अनुसार किया था । विश्लेषण का यह एक प्रमुख औज़ार है ।
बाक़ी आप जो पढ़ना चाहे, पढ़िये । पाठ के अर्थ अनेक रूपों में, अनेक स्तरों पर खुला करते हैं ।
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