परख : कुठाँव (अब्दुल बिस्मिल्लाह) : सत्य प्रकाश

उपन्यास  : कुठाँव 
अब्दुल बिस्मिल्लाह
संस्करण - २०१९ 
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. नई दिल्ली
मूल्य : ४९५ 















पत्रकार और एक्टिविस्ट अली अनवर की बिहार के पसमांदा मुसलमानों को केंद्र में रख कर लिखी हुए अपनी तरह की अलग किताब ‘मसावात की जंग’ २००१ में प्रकाशित हुई थी. इस किताब में मुस्लिम समाज में दलित जातियों (अरजाल) के अस्तित्व, दुर्दशा और उनके हक़ की बातें तथ्यों के आधार पर कही गयीं हैं. ‘प्यार निकाह पर जात की पहरेदारी’ शीर्षक से बाक़ायदा एक अध्याय है इसमें जो मुस्लिम समाज में जाति की जकड़बंदी को प्रत्यक्ष करने के लिए पर्याप्त है.

इस वर्ष राजकमल से प्रकाशित वरिष्ठ कथाकार ‘अब्दुल बिस्मिल्लाह’ का उपन्यास 'कुठाँव' इसी वैचारिक आधार पर लिखा गया है. मिर्जापुर के आस-पास के मुस्लिम समाज में ‘जात’ की दारुण उपस्थिति के बीच यह उपन्यास उस समाज की मिली-जुली स्थानीय संस्कृति, रीति-रिवाज और प्रवृत्तियों का भी आईना है. इसमें सरमदआदि के ऐतिहासिक आख्यान भी बीच-बीच में आ गए हैं. कुल मिलाकर उच्च वर्ग के पुरुषों द्वारा निम्न वर्ग की स्त्रियों के दैहिक शोषण को यह केंद्र में रखता है. 

शोधार्थी सत्य प्रकाश ने विस्तार से इस उपन्यास के अर्थात को परखा है.  





‘कुठाँव’ उपन्यास में मसावात की जंग             
सत्य प्रकाश



दुनिया एक दिन में नहीं बनी है वो रोज बनती है. रोज नये विधान, नियम और कानून गढ़े-बुने जाते हैं और रोज ऐसे ही अनगिनत विधान, नियम और कानून नेस्तनाबूत भी होते हैं. अंततः जो विधान, नियम और कानून बने रहने में समर्थ हो पाते हैं वह धर्म का रूप धारण कर लेते हैं. विश्व की बड़ी-बड़ी सभ्यताओं (मेसोपोटामिया, यूनान, मिस्र, हड़प्पाया सिन्धु घाटी सभ्यता) को इस सन्दर्भ में देखा जा सकता है. 

डॉ. राधाकृष्णन अपनी पुस्तक धर्म और समाज में लिखते हैं 


“प्रत्येक सभ्यता किसी न किसी धर्म की अभिव्यक्ति होती है”1

भारत में एक धर्म से कई धर्म विकसित हुए और कई विकसित धर्म और सभ्यताएँ आज ख़त्म हो गई या हाशिये पर हैं. इन सब में एक बात सत्य है कि खुदा के जितने भी पैगम्बर आये, बड़े नेक और पाक इरादे से आये और उन्होंने अलग-अलग धर्मों की न केवल स्थापना की बल्कि एक नई विचारधारा और संस्कृति को विकसित किया. हिन्दू, बौद्ध, जैन और सिख धर्म इस बात की गवाही देते हैं. साथ ही इस बात को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि मनुष्य अपनी सुविधानुसार धर्म का इस्तेमाल करता रहा है.


धर्मों के भीतर अनेक वर्ण, वर्णों के भीतर अनेक जातियाँ, जातियों के भीतर अनेक प्रथाएँ, अनेक प्रथाओं के भीतर अनगिनत कुप्रथाएँ कब उपजीं इसको समाज ने समझा ही नहीं. अब्दुल बिस्मिल्लाह का टटका उपन्यास ‘कुठाँव’ मुस्लिम धर्म में व्याप्त जातिप्रथा और कुप्रथा के आख्यान को उद्घाटित करता है.   

अब्दुल बिस्मिल्लाह ने भारत के मुस्लिम धर्म की वर्तमान सामाजिक पृष्ठभूमि के साथ, उनकी आन्तरिक कमजोरियों पर कुठाराघात किया है. उन्होंने भारतीय मुसलमानों की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक स्थिति के साथ साथ गरीबी, अशिक्षा, स्त्री शोषण, बलात्कार, छुआछूत, जातिगत ऊँच-नीच जैसे गैर मसावात को यथार्थ के धरातल पर चित्रित किया है. ‘कुठाँव’ का शाब्दिक अर्थ है ‘मर्मस्थल’. अब्दुल बिस्मिल्लाह ने जिस मर्मस्थल की बात की है, वह समाज है. सामाजिक कुरीतियाँ, विकृतियाँ और विडम्बनाएं इस मर्मस्थल को खोखला कर रही हैं.

‘कुठाँव’ उपन्यास की मूल समस्या मध्यकालीन इतिहास की ओर सोचने पर मजबूर करती है. भारत में जब इस्लाम अपने पूर्ण वर्चस्व रूप में था तब कुछ राजाओं द्वारा जोर-जबरदस्ती और कुछ लोग स्वेच्छा से इस धर्म को अपनाने लगे. यह धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया लगातार चलती रही, इसका उदाहरण अब्दुल बिस्मिल्लाह के ‘कुठाँव’ उपन्यास में देखने को मिलता है सलमान कहता है- 

“हिन्दुस्तानी समाज में जितनी जातियाँ हिन्दू समाज में हैं लगभग उतनी ही जातियाँ मुस्लिम समाज में भी हैं. क्या आपको पता है कि मैं नाई हूँ और रफ़ीक धोबी है. मुसलमानों में कुँजड़े हैं, जुलाहे हैं, धुनियाँ हैं, चुड़िहार हैं, मनिहार हैं ; कसाई हैं और तो और हेला भी हैं-यानी पाख़ाना साफ़ करने वाले, जिन्हें पहले मेहतर कहा जाता था और बाद में ‘हलालखोर’ कहा जाने लगा.हिन्दोस्तानमें जब मुसलमान आए तो यहाँ की हर उस जाति के लोगों ने इस्लाम धर्म अपनाया जो हिन्दू समाज में उपेक्षित थे. क्योंकि इस्लाम के हाथ में मसावात का झुनझुना जो था. मगर यह झुनझुना बजाने में सिर्फ अच्छा लगता था...”2

प्राचीन काल से अबतक भारत के विभिन्न धर्मों के भीतर ऊँच-नीच की खाई बनी हुई है. समाज में धार्मिक विखंडन का जो रूप सांप की भांति पैर पसार रहा है उसको देखते हुए यह कहने में अतिश्योक्ति नहीं होगी कि जातिगत विषमता से ही भारत विश्व में शोषण, गरीबी, भ्रष्टाचार के कारण पिछड़ा हुआ है.

उपन्यास में अब्बदुल बिस्मिल्लाह ने मुस्लिम सभ्यता, संस्कृति और तीज त्योहारों में जो परिवर्तन हुआ है, उसको भी रेखांकित किया है. वे लिखते हैं 


“बक़रीद तो बलिदान का दिन है. जिसके पास हैसियत है, वह कराए क़ुर्बानी. चाहे बकरे की कराए चाहे भैंसे की और चाहे ऊँट की. रही ईद बकरीद नमाज़, तो वह वाजिब है. अनिवार्य नहीं. मगर मुसलामानों ने उसे ही अनिवार्य बना दिया.”3

ठीक इसी प्रकार उन्होंने ‘बारावफ़ात’, ‘कुँडे ’का पर्व और ‘नाव-नावरिया’ इत्यादि त्योहारों को उनकी वास्तविकता को दर्शाते हुए, उसके बदलाव को भी अंकित किया है. इसी प्रकार कजरी और कव्वाली जैसे लोकगीत के बारे में भी उन्होंने लिखा है कि 


“सड़क के दोनों किनारों पर पर्दे लगे हुए थे. पर्दों के पीछे स्त्रियाँ कजरी गा रही थीं. मिर्ज़ापुर कीकजरी के कई रूप रहे हैं. दंगलों की कजरी, स्त्रियों की कजरी, कवियों की कजरी और...और मिर्ज़ापुर की अपनी विशेष कजरी. अनन्त चौदस की रात हमेशा स्त्रियों की कजरी का ही आयोजन होता था.”4

कजरी और कव्वाली औरउसके श्रोताओं के सन्दर्भ में लिखते हैं 


कव्वाली के श्रोता सिर्फ़ पुरुष ही होते थे. यानी एक ही सड़क पर पर्दे के अन्दर स्त्रियाँ कजरी का रस लेती थीं तो पुरुष खुल्लमखुल्ला क़व्वाली सुनते थे. स्त्रियाँपर्दे में और पुरुष सड़क पर. भारतीय संस्कृति का यह रूप मिर्ज़ापुर में हर साल दिखता था.”5 


अब्दुल बिस्मिल्लाह के लेखन में हिन्दू-मुस्लिम साझीसभ्यता, संस्कृति औरलोक गीतों की झलक देखने को मिलती है.

उपन्यास में अश्लीलता के कई बिंब सामने आते हैं. गड़बड़ा के भव्य मेले का जिक्र करते हुए उत्तर भारत की ठण्डी रात को बताना नहीं भूलते. मेले में देर होने से ‘इद्दन’ रात में अपनी बेटी सितारा जो कि उम्र में 12-13 साल की है उसे ठण्ड से बचाने के लिए गाँव के नईम भाई की झोपडी में भेजती है. जिसका जिक्र लेखक करता है 


“कुर्ती के अन्दर चिकनी मिट्टी से बना हुआ एक गोला आकार और उस पर किसी का हाथ. सांसों की आवाज़ और फिर एक अजीब ख़ामोशी. स्त्री और पुरुष-पुरुष और स्त्री-दोनों के लिए मानों एक नया अनुभव. फिर, एक इन्द्रिय खिसकने लगी. नीचे. वह पुरुष की थी. स्त्री सावधान हो गई. सितारा ने करवट फिर बदल ली.”6

अगले दिन सितारा स्वयं मेले में देरी करती है 


“रातगहरी होती जा रही थी और साथ ही ठंड भी. सितारा की तरफ़ रजाई थोड़ी कम पड़ रही थी. अतः वह नईम की तरफ़ थोड़ा और खिसक गई. फिर वह उनसे लिपट सी गई. और...और फिर सितारा को उसी स्पर्श का अनुभव हुआ जो कि पिछली रात में हुआ था. कुछ देर बाद वह सिहर उठी.... ठंड की उस रात में रजाई के नीचे पसीना-साकुछ बहा...और सितारा ने एक रोमांचक-सा दर्द महसूस किया और बस.”7  

यह अनुभव पढ़ने में अश्लील लग सकता है किन्तु क्या यह सामाजिक वास्तविकता नहीं है? इस पर अभी भी विचार करने की जरूरत है. अश्लीलता के उपमेय, उपमान और उपादान कथा की गति में रोचकता पैदा करते हैं. लेखक इस अश्लीलता के संदर्भ में स्वयं उपन्यास के शुरुआत में ‘कहना जरुरी है’ में आत्मस्वीकृति करते हैं 


“पहली बात तो यह कि इस उपन्यास में पाठकों को दो आपत्तिजनक बातें दिखेंगी:  कुछ कुछ अश्लीलता और जातिसूचक शब्दों (जो कि आज के युग में असंसदीय या निषिद्ध हैं.) का प्रयोग. मगर यह मेरी मजबूरी थी. उपन्यास की कथावस्तु के हिसाब से इनसे बचपाना मेरे लिए लगभग असम्भव-सा था. फिर भी मैं इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ.”8 

लेखक की यहाँ उदारता ही कहना अधिक संगत होगा, नहीं तो वर्तमान समय में जो लेखक सत्ता की गुलामी करते हैं वह भी शोषितों के पक्ष की बात करने का दंभ भरने लगे हैं.
(अब्दुल बिस्मिल्लाह )

प्रस्तुत उपन्यास में लेखक ने मुस्लिम धर्म के भीतर समाहित जातिगत ताने बाने को प्रस्तुत किया है. वर्तमान भारत में मुसलमान 14.2 प्रतिशत की आबादी में हैं जो पहले से अल्पसंख्यक होने की समस्या से संघर्ष कर रहे हैं. आज समाज में हो रहे सांप्रदायिक दंगे, धार्मिक हत्याएं, हिंसा सामान्यतः हिन्दू मुस्लिम के नाम पर विभाजित हो गई हैं. मुस्लिम समुदाय में भी ‘अशरफ’ जिसे उच्च जाति का मुसलमान माना जाता है इसके भीतर सैयद, शेख, पठान, मुग़ल, मलिक और मिर्जा आते हैं, इनके भीतर जातिगत श्रेष्ठता का भाव होता है. दूसरे ‘अजलफ़’ मुसलमान है जिसके भीतर अधिकतर कामगार जातियाँ दर्जी, जुलाहा,फकीर, रंगरेज, बाढ़ी, भटियारा, चिक, चूड़ीहार, दाई, धोबी, धुनिया,गद्दीदार, कलाल, कसाई, कुला, कुंजरा, लहेरी, महीफरोश, मल्लाह, नालिया, निकारी, अब्दाल, बाको, भेडिया, भाट, चंबा, डफाली, धोबी, हज्जाम, मुचो, नगारची, नट, परवाडिया, मदारिया, तुन्तिया इत्यादि आते हैं. तीसरे दर्जे या कहें कि निम्न दर्जे के मुसलामानों में भानार, हलालखोर, हिजड़ा, कसबी, लालबेगी, मोगता और मेहतर आदि हैं जिनकी दशा शेष वर्गों से भी दयनीय है. धर्म की आड़ में जाति की परिकल्पना कैसे सामजिक शोषण का रूप धारण कर चुकी है उसे ‘कुठाँव’ उपन्यास में देखा जा सकता है. 

उच्च जाति के मुसलमान निम्न जाति के मुसलमानों के साथ रोटी-बेटी का रिश्ता नहीं करते. इस उपन्यास में उच्च जातियों द्वारा, जाति के आधार पर हो रहे शोषण को समाज में छुपाने का प्रयास किया जाता है. उपन्यास की पात्रा हुमा के शब्दों में देखा जा सकता है- 


“फिर हिन्दुस्तान के मुसलमान इतने दिनों तक अपनी-अपनी जाति छिपाने के लिए अरबी समाज के सरनेम क्यों लगाते रहे ? हमारे यहाँ सारे जुलाहे खुद को अंसारी कहते हैं, धुनिया-चुड़िहार अपने नाम के आगे सिद्दीक़ी लगाते हैं, कसाई सब कुरैशी कैसे हो गए, नाई लोग सलमानी क्यों हो गए, फिर हाशिमी काज़मी...वगैरह कहाँ से आ गए? यहाँ तक कि भिखमंगे अपने आगे शाह लगाने लगे और ख़ाँ साहबों की तो भरमार हो गई.”9

मुस्लिम समाज में जातिगत भेदभाव को लेकर अनवर सुहैल लिखते हैं- 


“भारतीय मुसलमानों में वर्ग और जाति भेद पाया जाता है. शेख सैय्यद मुग़ल पठान जैसे चार समाज अपने आप को श्रेष्ठ मुसलमान मानते हैं और रक्त शुद्धता बचाए रखने के लिए सतत प्रयत्नशील रहते हैं. ये खान-पान, रोटी-बेटी मामले में अपने ही समाज के लोगों के साथ सम्बन्ध बनाते हैं. बाकी जो मुसलमान हैं वे कर्म और हुनर के अनुसार खेमों में बंटे हैं. जुलाहा, कसाई, कुंजड धोबी, साईं, नाई आदि समूह पसमांदा मुसलमानोंमें आते हैं और इसके बाद जो दलित श्रेणी के मुसलमान होते हैं उन्हें हिकारत से देखा जाता है.”10

यह विडम्बना सामाजिक रूप से हिन्दू समाज के जातिगत जकड़न के अनुरूप ही है. जाति की बेड़ियों में जकड़ी स्त्री की दशा और भी दयनीय है. इसउपन्यास में जब सवर्ण असलम मियाँ को इद्दन के साथ बलात्कार करना होता है तो उसकी जाति बाधा नहीं बनती-


“असलम मियाँ लगातार इद्दन से बलात्कार करते रहे और इद्दन बेचारी बगैर कोई आवाज़ उठाए उनके हवस का शिकार बनती रही.”11

किन्तु जब इद्दन को समाज में बराबरी देने की बात आती है तो वही असलम खां उर्फ़ फुन्नन मियाँ बोलते हैं 


“जिस गंदी औरत के हाथों से आपने मुझे पान खिलाना चाहा वह हेलिन है और जो शरबत लेकर आई वह हेलिन की बेटी है. आप खाइए-पीजिए इन भंगिनों-हेलिनों का छुआ हुआ. मुझे बख्स दीजिये.”12

सामाजिक यथार्थ की दृष्टि से अब्दुल बिस्मिल्लाह ने जो दिखाने का प्रयास किया है वह बहुत हद तक ठीक और उम्दा भी है.

स्त्री की दशा समाज में क्यों दयनीय है? क्यों आज भी स्त्रियाँ अपनी अस्मिता को लेकर संघर्षरत हैं? स्त्री विमर्श किस हद तक स्त्रियों की समस्याओं को उठाने में कामयाब रहा है? इनसभीप्रश्नों के उत्तर अब्दुल बिस्मिल्लाह के ‘कुठाँव’ उपन्यास में देखने को मिलते हैं. स्त्री के साथ उसका वजूद जुड़ा होता है और यह वजूद इसी समाज में निर्मित हुआ है. समाज और परिवार की बागडोर पुरुषों के हाथों में है. 

पितृसत्तात्मक सोच रखने वाले स्त्री और पुरुषों को न यह समस्याएँ दिखाई देती हैं न ही वे स्त्री की समस्याओं के चित्रण में कोई विशेष दिलचस्पी ही रखते हैं. प्रस्तुत उपन्यास में स्त्री के दो रूप सामने आए हैं जिसमें एक उच्च वर्ग की स्त्री है तथा दूसरी निम्न वर्ग की. उच्च वर्ग की स्त्री के पास सभी सुख सुविधाएँ हैं घर है, शिक्षा है, धन है किन्तु निम्न वर्गकी स्त्री आर्थिक रूप से कमजोर है. उसके पास रहने के लिए मात्र एक झोपड़ी है. खाने के लिए सिर्फ उतना ही है जितना वह मजदूरी में कमाती है. उपन्यास में मैला उठाने गई इद्दन को जो खाना नसीब हुआ है वह कुछ इस प्रकार है 


“‘कमाई’ के एवज में उसे रोटियाँ मिलती थीं. चार ताज़ा रोटियाँ तो तय ही थीं- चाहे ज्वार की ही क्यों न हों कभी-कभी गेंहूँ की बासी रोटियाँ भी मिल जाती थीं. बासी रोटियां ही नहीं, बासी भात, दाल, तरकारी और कभी-कभी तो गोश्त का बासी सालन भी मिल जाता था.”13

उच्च वर्ग की स्त्री का यदि शोषण होता है तो केवल पितृसत्ता के द्वारा. इसकी अपेक्षा निम्न वर्ग की स्त्री आर्थिक शोषण का शिकार तो है ही साथ ही वह जातिगत छुआछुत की जकड़न में जकड़ी हुई है. निम्न वर्ग की स्त्रीकामकाजी है और उसको मजदूरी करके पेट पालना पड़ता है. निम्न वर्ग की स्त्री के ऊपर पितृसत्तात्मकता और पुरुषसत्तात्मकता की तलवार लगातार उसकी गर्दन पर लटकी रहती है. ‘कुठाँव’ उपन्यास में निम्न वर्ग की स्त्री को जो काम भी मिलता है वह खुड्डी साफ करने के अतिरिक्त झाड़ू, पोछा, बर्तन तक ही सीमित रहता है.इद्दन जब मैला ढ़ोने को मना करती है तो उसका पति बोलता है:-“ऐसा ही था तो हेला के घर पैदा क्यों हुई ?”14

इद्दन इस प्रथा, नियम और कानून का खंडन और प्रतिरोध करती है:- 
“पैदा तो हमारे बच्चे भी होंगे, मगर क्या हमारे बच्चे भी लोगों के गू-मूत साफ़ करेंगे ? मैं तो अपने बच्चों को यह सब नहीं करने दूँगी.”15 

यह ‘इद्दन’ जैसी आधुनिक स्त्री के आदर्शवादी विचार हैं, किन्तु इस विचार के कारण वहअपने पति द्वारा शारीरिक प्रताड़ना भी झेलती है. राम पुनियानी की पुस्तक ‘धर्मसत्ता और हिंसा’ में विभूति पटेल स्त्री की इन समस्याओं से मुक्ति के सन्दर्भ में लिखते हैं 


“शिक्षा, क्षमता-निर्माण कार्यक्रम, रोजगार और आर्थिक आत्मनिर्भरता, महिलाओं की राजनीति और कानूनी अधिकारों को बढ़ावा देकर महिला सशक्तिकरण के लिए उत्प्रेरक की भूमिका महत्वपूर्ण ढंग से निभा सकते हैं. बिना महिला अधिकारों को सुनिश्चित किए किसी भी सभ्यता का चेहरा मानवीय नहीं हो सकता.”16

अब्दुल बिस्मिल्लाह ने भी अपने इस उपन्यास के माध्यम से वर्तमान मुस्लिम स्त्री की स्थिति को अभिव्यक्त कियाहै.

विभूति पटेल जिस शिक्षा के माध्यम से भारतीय मुसलमानों कोबेहतर बनाने की बात कर रहे हैं उसकी सामाजिक स्थिति का जिक्र उपन्यासकार ने किया है. ‘इद्दन’ अपनी बेटी ‘सितारा’ को पढ़ाना चाहती है, उसे मजबूर नहीं, मजबूत बनाना चाहती है. जिसके लिए वह कोई भी कदम उठाने को तैयार है. ठाकुर गजेन्द्र सिंह बड़े ओहदे वाले व्यक्ति हैं. उनकी राजनीतिक पहचान है.जब सितारा की माँ इद्दन उनके संपर्क में आती है, तो अपनी बेटी सितारा की शिक्षा के लिए, उसके परीक्षा में पास होने को लेकर चिंतित होती है.जिस पर ठाकुर गजेन्द्र सिंह सितारा को पास कराने के लिए बोलते हैं 


“बताया न कि रेट फिक्स है. कोई अगर खुद से नकल करके लिख ले तो अलग रेट, पूरे कमरे को बोर्ड पर लिख-लिखकर नकल कराने का अलग रेट और किसी की जगह कोई और बैठकर लिख दे तो उसका अलग रेट. वह बहुत हाई होता है. मगर चिन्ता मत कीजिये. मैं वही फिक्स करूँगा. सितारा की जगह कोई और लड़की बैठ जाएगी.”17

राजनीतिक सम्बन्ध रखने वाले व्यक्ति के लिए कैसे वही सुविधाएँ बिना किसी रूकावट के उपलब्ध होती हैं किन्तु आम नागरिक को उसके लिए कीमत चुकानी पड़ती है. ठाकुर गजेन्द्र सिंह सितारा को शिक्षा तो दिलवाने का कार्य करते हैं इन सब के बदले वह सितारा का शारीरिक शोषण भी करते हैं.

स्त्री विमर्शकारों ने स्त्री की विभिन्न समस्याओं को परखने के जोऔजार तैयार किये हैं उनमें से एक‘स्त्री और यौनिकता' का प्रश्न भी है. समाज में ‘स्त्री यौनिकता’ शोषण और पक्षपात का औजार है.‘स्त्री और यौनिकता’ के आधार पर पुरुषसत्तात्मक सोच रखने वालों के लिए स्त्री केवल बच्चे पैदा करने व उन्हें पालने, कपड़े धोने और चूल्हा-चौके के लिए ही बनी है.यह सोच स्त्री के लिए सबसे बड़ी चुनौती है. कुछ इसी प्रकार की चुनौतियाँ अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास ‘कुठाँव’ में भी देखने को मिलतीहै. उपन्यास की नायिका ‘इद्दन’ जाति से दलित मुस्लिम है.‘इद्दन’ जातिगत शोषण से छुटकारा पाने के लिए यौनिकता का सहारा लेती है. 

इद्दन जानती हैं कि उसकी बेटी सितारा का संबंध खां साहब के बेटे नईम से है. इसके बाद भी वह प्रतिकार करने की अपेक्षा समर्थन करती दिखाई देती है-


“वह मुसलमान थी. नईम भी मुसलमान था. मगर नईम खां साहब का बेटा था. और वह ? वह भी खां साहबों में शामिल हो सकती है. माध्यम है सितारा. काश! सितारा के भीतर एक दूसरा नईम जड़ जमा लेता.”18 

इद्दन जिस समस्या से मुक्ति पाना चाहती है वह उसी दलदल में फंसती दिखाई देती है.इस उपन्यास में इद्दन जातिगत मुक्ति के लिए यौनिकता का इस्तेमाल करती है किन्तु उसे अंततः मुक्ति नहीं मिलती.स्त्रीकीशोषण से मुक्ति शिक्षाके माध्यम से ही हो सकती है.

आजादी के बाद संविधान ने अपनी अस्मिता को लेकर संघर्ष करती स्त्री को शिक्षा का अधिकार प्रदान किया. आज जो स्त्री शिक्षित हो रही है वह अपनी अस्मिता को लेकर न केवल चिंतित है बल्कि सजग और सचेत होकर प्रतिरोध भी कर रही है.‘कुठाँव’ में हुमा शिक्षित लड़की है. जब उसे सितारा के साथ हुई जोर जबरदस्ती का पता चलता है तो वह कहती है-
“हरामज़ादे, कमजात, सूअर के बच्चे... नईम मियाँ और ठाकुर...मुसलमान हो या हिन्दू, सब साले एक जैसे हैं. लड़की, और वो भी नीची जात की उनकी नज़र में तो वह गोश्त का एक टुकड़ा-भर है.बस.”19'

भारतीय समाज में धर्म के आधार पर मुस्लिम पहले सेही अल्पसंख्यक हैं किन्तु जातिगत भिन्नता ने उनके आपसी रिश्तों के भीतर भीखटास उत्पन्न कर दीहै. हुमा यहीं चुप नहीं होती, वह आगे कहती है 


“जहाँ तक मेरी परेशानी का सवाल है तो साफ़ बता दूँ कि जातिवाद की असल सज़ा औरत को ही भुगतनी पड़ती है. हिन्दुओं में जैसे कोई भी ब्राह्मण या ठाकुर यह कहता हुआ मिल जाएगा कि मैंने गाँव की किसी चमारिन, पासिनया खटकिन को नहीं छोड़ा है उसी तरह कोई खां साहब या सैयद साहब के साहबज़ादे यहकहते हुए आपको आसानी से मिल जाएँगे कि मैंने अपने इलाके की किसी जुलाहिन,चुड़िहाइन या धोबिन को नहीं छोड़ा है. सब मेरी जाँघों के नीचे से निकलकर अपनी सुहागरात मनाने गई हैं.”20

हिन्दी कथा साहित्य में साम्प्रदायिकता को लेकर लिखी जाने वाली अनगिनत कहानियाँ और उन कहानियों को लिखने वाले कहानीकार मिल जाते हैं किन्तु मुस्लिम धर्म की गैरमसावात (बराबरी) और कठमुल्लापन को अभी भी उजागर करने में संकोच का अनुभव करते हैं. अब्दुल बिस्मिल्लाह मुस्लिम समुदाय के भीतर जड़ जमा चुकी कुप्रथाओं और समस्याओं को सामने रखते हैं तथा मुस्लिम समुदाय की आंतरिक समस्याओं को वर्तमान सन्दर्भ में रखते हुए वे तार्किक विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं. अब्दुल बिस्मिल्लाह हिन्दी कथा जगत के सजग सृजनकार हैं. उनके लेखन में कबीर की भांति धार्मिक रूढ़ियों का प्रतिरोध और जातिगत कुप्रथाओं के खण्डन को साफ और स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. कुठाँव में अब्दुल बिस्मिल्लाह लिखते हैं:- 


“हमारे समाज का सबसे बड़ा छेद है जातिवाद, जिसे हिन्दुओं ने तो समय रहते समझ लिया है मगर हम मुसलमान हैं कि अभी तक न जाने किस छेद में दुबके बैठे हैं.”21

हिन्दू और मुसलमान धर्मकी वास्तविक सामाजिक स्थिति को अब्दुल बिस्मिल्लाह ने समय-समय परप्रश्नचिह्नित करने का कार्य किया है. उनके साहित्य में धार्मिक मान्यताओं में पैठ बना चुकी विकृतियों, कुरीतियों और विडंबनाओ के खण्डन को देखा जा सकता है. उनकी दृष्टि ने सामाजिक उन्माद फ़ैलाने वाली हिन्दुत्ववादी ताकतों और कठमुल्लावादी विचारधारा को सिरे से ख़ारिज कर मानवतावादी विचारों को समाज में पूरी सिद्दत से रखने का प्रयत्न किया है. आतंकवाद, साम्प्रदायिकता जैसे संगीन मामलों पर गहरा कटाक्ष इनकी रचनाओं में देखने को मिलता है. इसके साथ ही अब्दुल बिस्मिल्लाह के लेखन ने धर्मों के भीतर बढ़ती वैमनष्यता को ताक पर रख,समाज में भाई-चारा स्थापित करने का कार्य भी किया है. 

कथा को गढ़ने और रोचकता पैदा करने में भाषा की अहम् भूमिका होती है. अब्दुल बिस्मिल्लाह की भाषा मेंसामाजिक यथार्थ की सच्चाई के साथ तत्कालीन समय और पाठक की मर्यादा का पुट दिखाई पड़ता है. शब्दों को व्यंगात्मक और कहावत की कसौटी पर कसना अब्दुल बिस्मिल्लाह की खूबी रही है. उनके लेखन में जगह-जगह शेर-ओ-शायरी भी देखने को मिलती है. यह शायरी सामाजिक लोकोक्तियों को समाहित कर गढ़ी गई हैं जो उपन्यास के कलेवर और कथा को ओर भी अधिक दिलचस्प बनाती है उदाहरणार्थ:-

“दुख़तारे-दर्ज़ी का सीना देखकर,
जी में आता है कि इसको मल मल दूँ.”

उर्दू के शब्दों की अधिकता हिन्दुस्तानी भाषा की ओर ले जाती है जिसमें गंगा-जमुनी तहजीब शामिल है. लोक-भाषा, लोक-मुहावरे और लोकोक्तियों का पुट उनके लेखन में बराबर मिलता है. किसी घटना या चरित्र की मानवीय प्रवृत्तियों को किस्सागोई के साथ प्रस्तुत करना उनकी खूबी रही है. अब्बदुल बिस्मिल्लाह ‘कुठाँव’ उपन्यास के माध्यम से सामाजिक विकृतियों और धार्मिक कुरीतियों और सांस्कृतिक विडम्बनाओं पर कुठाराघात करते हैं. जाति के आधार पर शोषण समाज की काली सच्चाई है जिसे लेखक ने इस उपन्यास में तोड़ने का प्रयास किया है.
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सन्दर्भ सूची
1.        डॉ. राधाकृष्णन, धर्म और समाज, सरस्वती विहार प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-1975, पृष्ठ संख्या-17
2.        बिस्मिल्लाह, अब्दुल, कुठाँव, राजकमल प्रकाशन दिल्ली, संस्करण-2019, पृष्ठ संख्या-23
3.        वही, पृष्ठ संख्या-36
4.        वही, पृष्ठ संख्या-103
5.        वही, पृष्ठ संख्या-103
6.        वही, पृष्ठ संख्या-16
7.        वही, पृष्ठ संख्या-16
8.        वही, पृष्ठ संख्या-9
9.        वही, पृष्ठ संख्या-29
10.      सं. डॉ, भदौरिया, शिवदान सिंह, परिंदे पत्रिका, संयुक्तांक जनवरी-2019, पृष्ठ संख्या-64
11.      वही, पृष्ठ संख्या-150
12.      वही, पृष्ठ संख्या-122
13.      वही, पृष्ठ संख्या-104
14.      वही, पृष्ठ संख्या-139
15.      वही, पृष्ठ संख्या-139
16.   सं.पुनियानी, राम, धर्म, सत्ता और समाज, राजकमलप्रकाशन, दिल्ली,संस्करण-2016, पृष्ठ संख्या-184
17.  बिस्मिल्लाह, अब्दुल, कुठाँव, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-2019, पृष्ठ संख्या-60
18.      वही, पृष्ठ संख्या-20
19.      वही, पृष्ठ संख्या-172
20.      वही, पृष्ठ संख्या-31
21.      वही, पृष्ठ संख्या-22
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सत्य प्रकाश
शोधार्थी-पीएच.डी. हिन्दी
गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय
satyaprakash@gmail.com
मो.- 8690048641

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  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (21-06-2019) को "योग-साधना का करो, दिन-प्रतिदिन अभ्यास" (चर्चा अंक- 3373) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. अच्छी समीक्षा है। किताब पढ़ने की ललक बढ़ाती है।
    प्रखर साहित्यकार जाबिर हुसेन की किताब 'बिहार की मुस्लिम पसमांदा बिरादरियाँ' का उल्लेख अली अनवर साहब की किताब से पहले की जानी चाहिए थी, बतौर संदर्भ।

    ■ शहंशाह आलम

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    1. जाबिर हुसैन की किताब " बिहार में पिछड़ी मुस्लिम आबादियां" कैसे उपलब्ध होगी? आपके पास हो तो कृपया उपलब्ध करवायें. मैंने ढूंढा पर मिल नहीं रही है.

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  3. पंकज चौधरी20 जून 2019, 2:05:00 pm

    राजनीति के जरिए जो काम अली अनवर साहेब कर रहे हैं, साहित्‍य के जरिए वही काम माननीय अब्‍दुल बिस्मिल्‍लाह कर रहे हैं। दोनों का समान महत्‍व है। मैंने दोनों को पढ़ा है और अली अनवर साहेब पर तो कुछ काम भी किया है। दोनों पसमांदा मुस्लिमों (दलित, पिछड़े) की समस्‍याओं को उठा रहे हैं। दलित-पिछड़े मुस्लिमों को समझने के लिए अब्‍दुल ‍बिस्मिल्‍लाह का 'झीनी-झीनी बीनी चदरिया' और अली अनवर की किताब 'मसावत की जंग' मील के पत्‍थर हैं।

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  4. समीक्षा पढ़ कर पूरा उपन्यास पढ़ने की इच्छा हुई अभी मँगवाती हूँ.

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