परख : रिनाला खुर्द (ईश मधु तलवार) : मीना बुद्धिराजा

रिनाला खुर्द
ईशमधु तलवार
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली-110002
प्रथम संस्करण-2019
पृष्ठ सं-160
मूल्य- पेपरबैक्स-  रू. 150















“रिनाला खुर्द पढ़ने के बाद लगा, जैसे मैं नीम का कोई पेड़ हो गया हूँ और उस पेड़ से लिपटकर कोई चुपचाप रो रहा है, क्योंकि जिससे वह प्यार करता है, उसने कहा था कि कभी रोना हो तो पेड़ से लग कर रोना, इंसान अब इस काबिल नहीं रहे.”
उदय प्रकाश

इसी वर्ष ईशमधु तलवार का उपन्यास ‘रिनाला खुर्द’ राजकमल से प्रकाशित हुआ है. एक मासूम प्रेम भारत पाकिस्तान के बटवारे के बाद बट जाता है. पूरा उपन्यास इस प्रेम की तलाश का एक कारुणिक वृतांत है. इस उपन्यास को देख परख रहीं हैं मीना बुद्धिराजा


रिनाला खुर्द :  सरहद पर प्रेम                          
मीना बुद्धिराजा







भारतीय इतिहास के सबसे संवेदनशील कालखंड विभाजन की मार्मिक गत्यात्मकता में निहित मानवीय सच और इस सच को चुनौती देने वाले इंसानों की पीड़ा और त्रासदी को लेकर हिंदी कथा साहित्य में अनेक कालजयी कृतियां लिखी गईं हैं. इतिहास में समाया हुआ सच कलात्मक रूप में साहित्य में ढ‌ल जाता है. विभाजन के दर्दनाक इतिहास में आंकड़े, तथ्य और घटनाएं जरूर दर्ज़ होते हैं पर ज़िंदा किरदार तो साहित्य में ही संभव है जिसमें स्मृतियों की बड़ी भूमिका होती है.एक सुलगती खामोशी के बीच की पीड़ा जिसके बिना न जी पाते हैं न मर सकते हैं वो अंदरूनी रिक्तता जिसमें सर्जनात्मकता का स्पंदन औए एक साझे सपने को बचाने की कोशिश हो. विभाजन संबंधी साहित्य में मंटो, भीष्म साहनी,अमृता प्रीतम,मोहन राकेश, इस्मत चुगतई, कृश्नचंदर, स्वदेश दीपककृष्णा सोबती और नासिरा शर्मा तक जैसे रचनाकारों ने बेहद मार्मिक और प्रभावशाली रचनाएँ प्रस्तुत की है जिसमें विभाजन जैसे उनकी मानवीय संवेदना की चौखट पर दस्तक देता है.एक पूरी संस्कृति की तहज़ीब के बिखरने की व्यथा-कथा को इनकी रचनाएँ बड़े फलक पर दिखाती हैं और मानवता और उम्मीद के पक्ष में अंत तक खड़ी होती हैं.

इसी साहित्यिक यात्रा में समकालीन कथा-लेखन के परिदृश्य में प्रसिद्ध लेखक-पत्रकार और कथाकार ईशमधु तलवार का नवीनतम उपन्यास रिनाला खुर्द हाल ही में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होकर आना पाठकों के लिए एक नयी और सार्थक उपलब्धि है. नाटक और व्यंग्य लेखन के साथ फिल्म और गीत-संगीत भी उनके लेखन का विषय रहे हैं. राजस्थान साहित्य अकादमी की ओर से साहित्यिक एवं रचनात्मक पत्रकारिता के लिए पुरस्कृत हो चुके और जयपुर दूरदर्शन से संबद्ध रचनाकार ईशमधु तलवार सतत सक्रिय सृजनात्मक लेखक हैं. रिनाला खुर्द’ उपन्यास वर्तमान में पाकिस्तान में स्थित एक इलाके के नाम पर आधारित शीर्षक है जो पहले अविभाजित भारत का ही हिस्सा था. हकीकत और अफसाने के साथ यह विभाजन के दशकों बीत जाने के बाद की स्मृतियों का मार्मिक और संवेदनशील कथा- वृतांत है जो वर्तमान से अतीत में आवाजाही करती रोचक कथा और मुख्य पात्रों चाई जी, मधुकर और सलमा के माध्यम से विभाजन की त्रासदी को गहराई से अनुभव करता है.यह बहुत  पठनीय, दिलचस्प और मार्मिक लघु आकार का उपन्यास है लेकिन पाठकों के मन में गहरे धँस जाने की सामर्थ्य रखता है.

समकालीन उपन्यासों से कुछ अलग कथानक और संरचना-शिल्प के स्तर पर भी यह प्रेम के छोटे-छोटे प्रंसंगों के माध्यम से सरहदों पर खींची गई नफरत की दीवार की भयावहता को भी समझने की कोशिश करता है जिसमें मानवता और प्रेम के सूखते हुए स्त्रोत को बचाने का भरसक प्रयास है. इस राग और विराग से भरे बेहद पठनीय उपन्यास में एक साथ कई कहानियाँ एक दूसरे के समानांतर साथ-साथ चलती हैं.

हिंदुस्तान में मेवात के किसी छोटे से गाँवबगड़ की रहने वाली मासूम खूबसूरत लेकिन निडर लड़की जंगल में भेड़-बकरियाँ चराने वाली नरगिस बंटवारे के बाद सरहद के उस पार पाकिस्तान में लाहौर के पास किसी इलाके में रहने उस मुल्क की मशहूर लोक-गायिका बन चुकी है. इधर बचपन में नरगिस के साथ स्कूल जाने वाला, खेलने वाला, राबड़ी खाने वाला और दिन-रात उसके साथ रहने वाला, उससे शादी करने के सपने देखने देखने वाला नायक मधु सरहद के इस पार भारत में भूगोल की उच्च शिक्षा के बाद पुरातत्व-आर्कियोलोजी का विशेषज्ञ बन चुका है.

नायक मधु की माँ जिसे वह चाई जी कह कर पुकारता है, वह सरहद के उस पार पाकिस्तान में विभाजन के समय रिनाला खुर्द में अपना घर, खेत, असबाब- सामान ही नही, अपना एक ऐसा जरूरी संदूक भी छोड़ आई हैं जिसमें उनकी कई रचनाएं कविता- कहानी,पत्र जो रिसालों में छपी और जीवन भर की पूरी-अधूरी जीवन भर की यादें  भी हैं. इस पूरे उपन्यास में चाई जी उन दर्द भरी स्मृतियों और साझे अनुभवों के बक्से से कुछ न कुछ  निकाल कर याद करके रो देती और भावुक हो जाती हैं जिसमें उनकी तड़प को महसूस किया जा सकता है और खो चुके रिनाला खुर्द की गलियों के लिए उनके असीम लगाव को पाठक भी संवेदना के स्तर पर अनुभव करता है.

तुम्हारी याद के परचम खुले हैं राहों में
तुम्हारा जिक्र है पेडों में, खानकाहों में

उपन्यास में सभी समानांतर चलती कथाएँ एक नहीं, कई छूट गयीं, बिछड़ गयी चीज़ों को खोजने, पाने और पाकर फिर खो देने का मार्मिक कौतुक रचती हैं. एक विलुप्त होती नदी सरस्वती जो दोनो देशों की सरहद के रेगिस्तानी इलाके के नीचे  से बह रही हैउसकी खोज के लिये मधु को भारतीय पुरातत्व विभाग के विशेष मिशन पर पाकिस्तान जाने का दुर्लभ अवसर मिलता है जिसके सपने और स्मृतियाँ चाई जी और मधु के जीवन से कभी अलग नहीं हुए. वहाँ जाकर उसकी उसकी मुलाकात अपने बचपन के खोये हुए प्यार के रूप में नर्गिस उर्फ सलमा से होती है जो शादी के बाद बहुत पहले पाकिस्तान आ गई थी.

यहाँ की धरती यहाँ के लोग भी बिल्कुल एक जैसे हैं और दोनों मुल्कों में मोह्ब्बत का पुल बनाना चाहते हैं. सलमा यहाँ आकार एक विख्यात गायिका बन गई लेकिन न वह बचपन के गाँव की मधुर यादों और न अपने प्रेमी मधु को कभी भूल पाई थी. सलमा और मधु जब दोबारा मिलते हैं तो जैसे उनके अनकहे प्यार की, दर्द की एक नदी फिर से प्रवाहित होने लगती है. पति के द्वारा आरम्भ से ही शारिरिक-मानसिक प्रताड़ना सहने वाली सलमा के कड‌वे, उदास और निरर्थक जीवन में मधु जैसे पुन: एक उम्मीद और प्रेम का स्त्रोत बनकर दाखिल होता है. स्त्री के शोषण और नियति, उसके स्वतंत्र अस्तित्व से जुड़े त्रासद सवाल दोनों मुल्कों में एक जैसे ही हैं. अपने अतीत और खोये हुए सच्चे प्यार को याद करके मधु और सलमा अपने सुख-दुख बांटते हुए भविष्य में फिर एक साथ रहने के सपने देखते हैं लेकिन बीच में सरहद की कँटीली दीवारें और फासले आ जाते हैं जिसकी वज़ह से अपने-अपने दुखों के साथ उन्हें जुदा होना पड़ता है.

वापसी के आखिरी दिन रिनाला खुर्द पहुंच कर मधु किसी तरह चाई जी के उस बक्से को तलाश कर लेता है जो उनके जीवन का एकमात्र सपना था. लेकिन वहाँ की पुलिस उसे उसे संदेहास्पद गतिविधि समझकर बंदी बनाकर रख लेती है.  जेल में अनेक यातनाएं सहने के बाद मधु को अपने मित्र इरशाद अमीन की मदद और  भारत सरकार के पुख्ता सबूतों की वज़ह से उसे रिहा किया जाता है. हिन्दुस्तान वापस आने तक चाई जी इस गम से बेहद बीमार हो चुकी हैं और उनकी भी मृत्यु हो जाती है. पैतृक गाँव बगड़ में चाई जी का अंतिम संस्कार करने के बाद मधु को खबर मिलती है कि सलमा ने भी पाकिस्तान में मधु से बिछड़ने के गम और नाउम्मीदी में आत्महत्या कर ली. इस दोहरे दुख और त्रासद अंत के साथ मधु ज़िन्दगी में जैसे अपना सब कुछ खो देता है. सरहदो के फासलों ने उस प्रेम की नदी को फिर से विलुप्त कर दिया था जो दोनों देशों के दिलों को जोड़ने का कारण बन सकती थी –


सामने ही नीम का पेड़ था. मैंने नीम का पेड़ बाहों में भरा और मेरी आंखों से आंसू बह निकले. सलमा के शब्द मेरे कानों मे गूंज रहे थे- “पेड़ से चिपक कर ही रोना. इंसानों के सामने रोने से कोई फायदा नहीं.” आँसुओं के बीच एक ऐसी नदी थी जो बाहर से भीतर आ रही थी और एक नदी जो भीतर से बाहर निकल कर उफन रही थी. ..सरहदों के नीचे आज एक और नदी दफन हो गई थी. पुल भी टूट गया था. अब पता नहीं सरहद से कब किस नदी के सोते फूटेंगे?... मुझे सपने से जगाने वाली चाई जी नहीं थी. मेरी नींद टूटी. अब सलमा कभी नहीं मिलेगी.

यह उपन्यास विभाजन की निर्मम त्रासदी में धकेल दिये गए मनुष्यों की पीड़ा  और दुखों को, स्मृतियों को घटनाओं में शिद्दत से दर्ज़ करने वाला मानवीय दस्तावेज़ भी है. उपन्यास की भूमिका में प्रख्यात हिंदी कथाकार उदय प्रकाश ने बहुत गंभीरता से अपना यह वक्तव्य  लिखा है-


इस उपन्यास में मधु अपनी नरगिस को नहीं, या चाईजी अपनी संदूक को ही नहीं खोजते, इसमें सियासत की शतरंज पर बिसात बनाकर दो टुकड़ों में बाँट दिये गए दो शरीर, अपने अलग कर दिए गए रिश्तों, खेतों-खलिहानों, घर- बगीचों और जैसे अपने ही जिस्म से अलग काट दिए अंगों की खोज में विकल भटकते हैं. 1947 में देश विभाजन पर बहुत सी कहानियाँ-उपन्यास लिखे गए हैं, फिल्में बनी हैं. लेकिन यह उपंयास अपने लघु आकार में बड़ी कथा इसलिए भी कहता है कि यह विभाजन के बाद की स्मृतियों का विचलन कारी वृतांत है. महत्वपूर्ण यह है कि ये स्मृतियाँ सिर्फ कुछ पात्रों की निजी स्मृतियां नहीं रह जातीं, वे दो देशों, दो समुदायों, दो इतिहासों और मिथकों के अटूटअविभाज्य, निरंतर अंतर्संबंधों की कहानी भी बन जाती हैं.



हिंसा, रेगिस्तान, उजाड़, फौज, सियासत, संदेह और युद्ध के साये तले दहशत से साँस लेती धरती के गर्भ में, चुपचाप बहती हुई विलुप्त नदी सरस्वती की तलाश सिर्फ सप्तसिंधुया हड़प्पा सभ्यता की खोज भर नहीं रह जाती, वह बुल्ले शाह, वारिस शाह, परवीन शाकिर,मेहदी हसन, नूरजहाँ, मंटो, नुसरत फतेह अली खाँ के करीब जाने और भीष्म साहनी-बलराज साहनी के पिता के पेशावर से जुड़े जीवन के संघर्ष को देखने के हासिल में भी बदल जाती है.”
 
एक साझी विरासत और संस्कृति के बीच सियासत द्वारा खींची गई हदें और दीवारें क्यों आज भी मजबूत और गहरी होती जा रही हैं यह अनुत्तरित सवाल इस उपन्यास को पढ़ने के बाद फिर से उठ खड़ा होता है. इस उपन्यास में जीवन का सफर कई रंगों से होकर गुजरता है, जिसमें अंधेरे-उजाले, खुशियों से छलकती नदियाँ हैं तो दुखों के पहाड़ भी. लेकिन किसी इनसान को यदि उसकी सरज़मीन से उसकी जडों से उखाड़ दिया जाए तो उसका दर्द ज़िंदगी के पूरे सफर में साये की तरह पीछा करता है.

मधु ने जीवन भर चाई जी को दर्द के इस दरिया से गुज़रते हुए बचपन से अब तक देखा था. रिनाला खुर्द की नहरें, बाग-बगीचेचाई जी की यादों में बसे थे जो उम्र भर उन्हें बेचैन करते रहे. पाकिस्तान में भी ऐसे बहुत से लोग हैं जो अपनी ज़मीन छोड़ने की टीस को आज तक जख्म की तरह सीने में लिए बैठे हैं. भौगोलिक हलचलों से दोनों मुल्कों को जोड़ने वाली नदियाँ दफन होती रहीं, वक्त के साथ रास्ता बदलती रहीं, सरहद के कंटीले तारों में इन्सानी रिश्ते भी दम तोड़ने को मजबूर हुए लेकिन अवाम के दिलों में बहने वाली मोहब्बत की नदी अभी पूरी तरह सूखी नहीं. मानवीय संवेदनाओं से जुड़े रोचक और भावुक किस्सों के अनेक स्त्रोत भी इस उपन्यास में पाठक का ध्यान अंत तक नहीं हटने देते.

उपन्यास की कथा की धुरी तो वर्तमान है जहाँ से अतीत में दाखिल होते हुए भविष्य के स्वप्न भी मधु और सलमा संजोते हैं. संबंधों के टूटते-बिखरते लम्हे और कथासूत्रों को इतिहास की एक वृहद रेंज तक फैलाना- निर्वाह करना एक दुष्कर काम है जिसे ईशमधु तलवार जी ने बतौर कथाकार बहुत खूबी से संयोजित किया है. स्मृतियों के सहारे घटनाओं और प्रसंगों को सजीव करनाऔर कथा को खूबसूरत बनाने के लिये प्रत्येक अध्याय के उपशीर्षक के बाद उर्दू शायरी और अशआरों से कथा को फिर से सूत्रबद्ध करनासलमा के गाये मेवाती मारवाड़ी लोक-गीतों और पाकिस्तान के पंजाबी संगीत की विरासत से जुड़े जीवन के विभिन्न पक्षों को सघन बुनावट के साथबहुत संवेदनशील और कलात्मक रूप से कथा में गूँथा गया है जो पाठकों को एक प्रभावपूर्ण तरीके से आकर्षित कर लेते हैं और कथा जैसे भावनाओं की एक स्वच्छंद नदी की तरह कल-कल करती प्रवाहित होती रहती है – 

मोहे पिया मिलन की आस वा
लगी अखियाँ तो तेरी प्यास वा
हाय रुकने लगी साँस वा
कहे लगा अधूरी ही ये लगन
हाय जिंदड़ी लुट्टी तें यार सजन
कदी मोड़ मुहारा ते आ वतन.

स्मृतियों और वर्तमान से जुड़े चरित्र,घटनाओं और परिवेश का विस्तार दोनों देशों के भूक्षेत्र जयपुर, अलवर, मेवात, अमृतसर, वाघा बार्डर, लाहौर, पत्तन मुनारा, मुल्तान, बहावलपुर और रिनाला खुर्द तक फैला है जिनके सतलुज चिनाब  नदियाँ, जंगल, पुल, सड़कें, शहर इस उपन्यास में जीवंत और दृश्यमान हो उठे हैं और एक समन्वित संस्कृति के साथ लयबद्ध होकर सांगीतिक अभिव्यक्ति में इस तरह घुल जाते हैं कि कहीं भी कथा को बोझिल नहीं होने देते. फैज़ अहमद फैज़, कतील शिफाई,परवीन शाकिर, फरीदा खानम और तहमीना दुर्रानी की शायरी के और जीवन के प्रसंग भी उपन्यास को समासामयिक, दिलचस्प और रोचक बनाते हैं.

राजस्थानी- मेवाती लोक शब्दों के साथ पंजाबी-उर्दू का खूबसूरत समन्वय भाषा शैली को कलात्मक व आत्मीय स्तरपर स्थानीय संदर्भों और मिट्टी की खुशबू से कथा को जोड़े रखता है. लेखक की संवेदनशीलदृष्टिकथ्य और शिल्प के विलक्षण तालमेल में इतने कौशल से मधु और सलमा की जीवन कथा के माध्यम से अनेक प्रसंगों से जुड़ती-टकराती, दोनों मुल्कों के मार्मिक प्रसंगों को उघाड़ती इतिहास के हादसों और वर्तमान के रिश्तों को  इस बारीकी से खोलती जाती हैं कि संवेदना के स्तर पर पाठक भी अत्यंत गहराई से उनसे जुड़ जाता है. यहाँ विभाजन कोई  दहशतनाक घटना या दुर्घटना भर बन कर नहीं आता,बल्कि वह इतिहास का एक जलता हुआ टुकड़ा है जो इस उपन्यास के सभी किरदारों के रूप में मनुष्य की रूह में दाखिल हो गया है. इस जलते हुए नासूर ने इन्हें जीवन भर कभी धधकाया और कभी बुरी तरह झुलसाया.

आत्मा को ज़ख्मी करने वाली यह तकलीफ ताज़िंदगी इन का पीछा करती रही और चेतन-अवचेतन को बार-बार घेरती रचनाकार को मानवता के लिए बची हुई गुंजाईश को बचाए रखने के लिए प्रेरणा स्त्रोत देती रही.समकालीन परिस्थितियों और राजनीतिक-वैश्विक संदर्भों में सरहद की सीमाओं को लाघंकर अनेक मानवीय कोणों सेएक नयी और प्रासंगिक ईमानदार दृष्टि से लिखा गया यह उपन्यास हमारे समय से भी और उन प्रश्नों से भी जुड़ जाता है जिसमें तमाम भिन्नताओं और विरोधों के बावज़ूद हम मनुष्य है और मानवीय संवेदनाओं का विभाजन नामुमकिन है. यह उपन्यास इस सच की तसकीद भी करता है कि भारत-पाकिस्तान को युद्ध, डिफ़ेंस और रक्षा- बजट न बढ़ाकर आपसी मोहब्बतों का बजट बढ़ाना चाहिये.

अपने मुक्कमल रूप में यह उपन्यास पाठकों की चेतना में अपनी इसी अंतरंगता और गतिशीलता के साथ जीवंत रूप में घटित होता है जो रिनाला खुर्दके रूप में समकालीन उपन्यास की सफलता और उपलब्धि भी है.
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मीना बुद्धिराजा
meenabudhiraja67@gmail.com

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  1. बहुत शुक्रिया बुद्धिराजा जी और समालोचना। आपने उपन्यास का मर्म समझा। दिल से आभार।

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  2. रिनाला खुर्द की भीतरी तहों में
    प्रवेश कराती मार्मिक समीक्षा के
    लिए मीना बुद्धिराजा को हार्दिक बधाई लेखक को मुबारक
    अरूण देव को सलाम

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 23-05-19 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3344 में दिया जाएगा

    धन्यवाद

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