ग़ालिब की दिल्ली : सच्चिदानंद सिंह



















मिर्ज़ा असदुल्लाह खां ग़ालिब (27 दिसम्बर 1797- 15 फरवरी 1869) पर अगर बातें हों तो वे भी उनकी शायरी की ही तरह दिलकश और दिलफरेब हो जाती हैं. असल चीज है विडम्बना जो उनकी शायरी के मूल में हैं. नासिर काज़मी ने कभी कहा था-
   
भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज़ की कमी है अभी.”
  
यही वह जगह है जहाँ से महानतम साहित्य फूटता है और पसरता है. दिल्ली में ग़ालिब
विडम्बनाओं के मीनार पर बैठे हैं. इस दर्द की कोई दवा नहीं है-

“दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है.”

मुगलिया तहज़ीब और शासन के ध्वंस पर बैठा शायर एक तरफ देशी अफरातफरी को देख रहा है वहीँ ब्रितानी प्रभाव और आधुनिक सभ्यता को भी परख रहा है. वर्षों से पनपी उदार विचारों के बीच कट्टर सोच के उदय को भी देख रहा है. गरज़ कि विरोधी युग्मों के संगम पर खड़ा है और अपने को सहेजने और बचाने में लगा हुआ है.

देहली के रहने वालो 'असद' को सताओ मत
बे-चारा चंद रोज़ का याँ मेहमान है.
                                                                            

सच्चिदानंद सिंह का ग़ालिब पर गहरा अध्ययन है और इस लेख में वह ग़ालिब की दिल्ली को बयाँ  कर रहें हैं.




ग़ालिब की दिल्ली
सच्चिदानंद सिंह









ठारहवीं सदी हिन्दुस्तान में मराठों की सदी कही जा सकती है. छत्रपति शिवाजी ने मराठों को संगठित कर दिया था और इस सदी में वे हिन्दुस्तान की सर्वोच्च शक्ति के रूप में उभरे. एक समय उनका प्रभाव दक्षिण में तंजवुर से उत्तर में पेशावर तक फैला हुआ था. वहीं मुग़लों का साम्राज्य अपनी अंतिम साँसें गिन रहा था और उनकी राजधानी दिल्ली शायद अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही थी. औरंगजेब की मौत (1707) के बस बारह साल बाद 1719 में मराठे सैनिक दिल्ली तक पहुँच चुके थे. शायद मराठों का यह पहला दिल्ली अभियान बहुत कीर्तिकर नहीं था. मुसलमान इतिहासकारों के अनुसार फार्रूखसियार की बादशाहत के आखिरी दिन हजारों मराठा सैनिक दिल्ली की गलियों में मारे गए थे. हजारों नहीं तो सैकड़ों शायद मारे गए हों पर जो बच गए वे कुछ महीनों के लिए बने नए बादशाह रफी उद्दर्जात से तीन फरमान ले गए-  दक्षिण के सभी सूबों से चौथ (कुल लगान का चौथा हिस्सा) वसूलने का अधिकार, सरदेशमुखी (बचे तीन चौथाई का दसवां हिस्सा) वसूलने का अधिकार और स्वराज्य यानी छत्रपति शिवाजी की जीती सम्पूर्ण भूमि पर उनके वंशजों का राज.

रोचक बात यह थी कि इस समय तक दक्षिणी सूबों पर मुग़ल साम्राज्य की कोई पकड़ नहीं रह गयी थी. जो संपत्ति अपनी नहीं हों उन्हें दूसरों को दान कर देने में किसी को कभी कोई आपत्ति नहीं हो सकती. बादशाह मराठों को, या किसी को भी, दक्षिण में कर वसूलने से नहीं रोक सकता था. फिर भी बादशाहत के साथ कुछ ऐसा ऐतिहासिक तिलस्म जुड़ा हुआ था कि मराठों ने अपने साम्राज्य की नींव में मुग़ल बादशाह के फरमान को रखना आवश्यक समझा. शाही फरमान ने युद्ध में जीते क्षेत्र पर उनके अधिकार को वैध करार दिया. इसके कोई बीस साल बाद 1739 में फ़ारस के नादिर शाह ने मुग़ल खजाने और दिल्ली शहर को बेरहमी से लूटा. जाते-जाते शाहजहाँ के बनवाए, रत्नों से मंडित तख़्त-ए-ताऊस (मयूर सिंहासन) को भी नादिर लेता गया. गौरतलब है कि नादिर का यह आक्रमण मुग़ल साम्राज्य के पतन का कारण नहीं था, वह साम्राज्य के खोखले हो चुकने का एक प्रभाव था- अकबर और शाहजहां के उत्तराधिकारी अब अपना सिंहासन भी सुरक्षित नहीं रख पा रहे थे, देश की रक्षा वे क्या कर सकते थे. औरंगज़ेब के बाद कोई शक्तिशाली वारिस मुग़ल तख़्त पर नहीं आया. बादशाह अपने वज़ीरों और सरदारों के हाथों के खिलौने बनते रहे. नादिर के बाद अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली ने अनेक बार हिन्दुस्तान पर आक्रमण किये.

1756/7 में, अपने चौथे आक्रमण में वह दिल्ली आया और नादिर की लूट के बाद दिल्ली में जो कुछ भी बच गया था वह सब समेट कर लेता गया. तब तक मराठे उत्तर भारत पर छा चुके थे. 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों को पराजित कर अब्दाली ने उन्हे पंजाब से निकाल दिया, लेकिन दिल्ली के इर्द-गिर्द वे जमे रहे.

इस बीच, 1783 में सिक्खों ने दिल्ली पर चढाई की, लाल किले को फतह किया और उनका एक सरदार, जस्सा सिंह अहलूवालिया, कहते हैं थोड़े समय के लिए, दीवान-ए-आम में बादशाह के तख़्त पर भी बैठा. पर सिक्खों को लाल किला या दिल्ली की सल्तनत नहीं चाहिए थी. वे नज़राना चाहते थे, और वे सिक्ख गुरुओं से जुड़ी दिल्ली की सभी जगहों पर गुरद्वारे बनाना चाहते थे. बादशाह से उन्होंने नज़राना वसूला और बादशाह के खर्चे से, जहाँ-जहाँ वे चाहते थे, गुरद्वारे बनवा कर वापस लौट गए.
                 
देश में वज़ीरों और सरदारों का राज था. अलग-अलग सूबों के सूबेदार अपने को स्वतंत्र घोषित रहे थे. कहने के लिए मुग़ल बादशाह अभी भी हिन्दुस्तान का शहंशाह था मगर मराठों को पराजित कर, सितम्बर 1803 में जब लॉर्ड लेक जमुना पार कर दिल्ली में प्रवेश कर पाया था उस समय तक बादशाह का दरबार और खज़ाना, दोनों लंबे अरसे से खाली पड़े थे. बादशाह शाहआलम दृष्टिहीन था, रुग्ण और असहाय भी. यह वही शाहआलम था जिसने कभी बक्सर के मैदान में कंपनी की फ़ौज से लोहा लेने की ठानी थी. उसे अरबी, फारसी, तुर्की और हिन्दुस्तानी भाषाओं पर अधिकार था.

आफ़ताबतखल्लुस से वह उर्दू में शायरी भी करता था. मगर उसके जीवन में एक के बाद दूसरी पराजय ही लिखी थी. अफ़गानों ने उसकी आँखों की ज्योति छीन ली थी. मराठों ने उसे उसी के किले में बंदी बना कर रखा था. लेकिन फिर भी था तो वह बादशाह! अंग्रेज जानते थे कि उनके राज को बस मुग़ल बादशाह ही वैध ठहरा सकता था और उन्होंने बादशाह के खर्चे बाँध कर उसे अपने कब्ज़े में ले लिया और सियासत की सभी जिम्मेदारी से उसे मुक्त कर दिया. शाह आलम अब बस क़िला-ए- मुआला में सर्वे-सर्वा था. किले के बाहर अंग्रेज हाकिम बहाल थे.

बादशाह को अंग्रेजों ने संभाल कर रखा था क्योंकि हिन्दुस्तान के सभी राजा और नवाब खास तौर पर सभी मुसलमान सरदार अभी भी लाल किले में बैठे मुग़ल को अपने दिल में हिन्दुस्तान का बादशाह समझते थे, चाहे उसे कर या नजराना कोई नहीं दे. अंग्रेजों के लिए बादशाह को पाले रखना एक फायदे का सौदा था.

अंग्रेजों ने न सिर्फ बादशाह को पेंशन और कुछ विशेषाधिकार देकर मुग़ल बादशाहत के स्वांग को ज़िंदा रखा था, बल्कि दिल्ली के निकट अनेक स्वतंत्ररियासतें भी खड़ी कर दीं थीं, मुख्यतः उन मुसलमान सरदारों की जिन्होंने मराठा और जाटों से लड़ने में उनकी सहायता की थी. अंग्रेज सेनापति लेक दिल्ली को कंपनी के प्रति वफादार रियासतों से घेरे रखना चाहता था. जो नयी रियासतें आयीं उनमे एक तो फिरोजपुर-झिरका की रियासत थी, जहाँ के नवाब अहमद बख्श खाँ की बहन की शादी ग़ालिब के चाचा नसरुल्लाह से हुई थी और भतीजी उमराव की शादी ग़ालिब से हुई. और भी ऐसी कई रियासतें आयीं-पटौदी, दोजाना, झज्जर, बल्लभ गढ़, फार्रूख नगर और बहादुर गढ़.

1754 में बहादुर खाँ ने शर्फाबाद की जागीर का नाम बदल कर बहादुर गढ़ रखा था; चालीस साल बाद सिंधिया ने उसके वंशजों को जागीरदार रहने दिया और 1803 में जब वे मराठों को छोड़ अंग्रेजों के साथ हो गए तब लेक ने भी उन्हें जागीरदार बने रहने दिया. ऐसे ही फर्रूखनगर की रियासत थी जहाँ का फौजदार दलेल खां नवाब बन बैठा था. 1757 में जाटों ने फर्रूखनगर को जीत लिया था पर सात साल बाद नवाब वापस आ गया और लेक ने उसकी रियासत बरकरार रखी. निकट में बल्लभगढ़ जाटों का गढ़ था. 1775 में बादशाह ने इसे अजित सिंह को दिया, जिसके बेटे बहादुर सिंह को लेक ने मान्यता दी. एक पठान सरदार को, जो मराठों के साथ था, हरियाणे में दो परगने मराठों से मिले थे, जिन्हें दोजाने से बदल कर उसने दोजाना रियासत की नीव रखी थी. लेक ने इसे भी रहने दिया.

इसी तरह एक अफ़ग़ान सरदार फ़ैज़ खां को, जो मराठों का एक मनसबदार था और जो हवा का रुख देखकर लेक के साथ हो गया था, लेक ने बतौर ईनाम, 1803 में पटौदी का नवाब बना दिया. झज्जर भी एक ऐसी ही रियासत थी, जिसे लेक ने निजामत खां को दी थी. 1857 के बाद इन सात रियासतों में बस तीन बचीं थीं. ग़ालिब ने एक खत में इसका रोना रोया था,

नवाब गवर्नर जनरल बहादुर 15 दिसंबर को यहाँ दाखिल होंगे. देखिये कहाँ उतरते हैं और क्योंकर दरबार करते हैं? आगे के दरबारों में सात जागीरदार थे, उनका अलग अलग दरबार होता था- झज्जर, बहादुरगढ़, बल्लभगढ़, फ़र्रूख नगर, दोजाना, पटौदी, लोहारू. चार मादूमे महज़ (सर्वथा नष्ट) हैं, जो बाक़ी रहे- दोजाना, लोहारू और पटौदी ...” 1 .

मगर यह बात पचास साल आगे की है.

1803 में लेक ने दिल्ली में अमन और चैन के दिन वापस ला दिए थे. अंग्रेज चाहे जितने भी नागवार लगते हों दिल्ली वालों ने उन्हें मराठों के मुकाबिले अधिक पसंद किया. नयी व्यवस्था में दृष्टिहीन बादशाह को लोभी, चापलूस दरबारियों ने घेर लिया. शाह आलम ने, जिसे मानो नया जीवन मिला था, अपनी बची खुची संपत्ति को इन दरबारियों पर लुटाना शुरू कर दिया. उसका कहा एक शेर सुना गया है:

आक़िबत की खबर खुदा जाने
अब तो आराम से गुज़रती है
(आक़िबत: मृत्यु के आसन्न होने पर पश्चाताप की अवस्था)

बहुत दिनों तक वह इस नए जीवन को नहीं जी पाया. 1806 में उसकी मौत पर अंग्रेजों की देखरेख में बादशाहत उसके बड़े बेटे अकबर शाह को मिली. इस बीच किले के अंदर, तिमूरी खानदान फैलता जा रहा था. जबतक तिमूरियों के हाथों सत्ता रही थी उनका खानदान सिकुड़ा रहा- बादशाह अपनी सुरक्षा के लिए अपने भाइयों और भतीजों के काम तमाम करता रहता था. अब जब सत्ता की जगह अंग्रेजों से मिलती पेंशन रह गयी थी तब खानदान बेतरह बढ़ने लगा. अनेक बीवियाँ और उनसे बेशुमार बच्चे आम बात थी. शाह आलम के बेटों की संख्या निश्चित रूप से नहीं जानी गयी है पर यह लिखा मिलता है कि उसके सोलह से अधिक पुत्र और दो पुत्रियां थीं, अकबर शाह द्वितीय के चौदह पुत्र और आठ पुत्रियां, और अंतिम मुग़ल सम्राट ज़फर के बाईस पुत्रों के ज़िक्र हैं. औरंगज़ेब के
समय तक सम्राट के भतीजे बचते ही नहीं थे और उसके पुत्रों के रहने के लिए साम्राज्य में किले या महलों की कोई कमी नहीं थी. अब बस लाल किला रह गया था. किले के अंदर बेहिसाब फैला शाही परिवार किस तरह रह रहा था इस पर अंग्रेज लेखकों के विचार बहुत अच्छे नहीं हैं.

चार्ल्स मेटकाफ ने, जो 1811 से 1819 तक दिल्ली में रेजिडेंट रहा था, लिखा है 2 , किले में सैकड़ो थके हारे स्त्री-पुरुष रहते थे जिन्हें अपने भविष्य के लिए अब कब्र के सिवा कुछ और नहीं दीखता था. युवा भी थे, जिन्होंने यौवन की उन्मुक्त प्रवृत्तियों को पूरी छूट दे रखी थी. युवाओं की वासना और अधेड़ों के षड्यंत्र, यही दो शक्तियाँ किले के जीवन की मुख्य धारा बनी हुईं थी. जहाँ आत्म नियंत्रण नहीं हो वहाँ नैतिकता नहीं टिक सकती. कौटुम्बिक व्यभिचार, ह्त्या, विषप्रयोग, यंत्रणा आदि नित्य होने वाली बातें थीं. किले के समाज में सभी को जगह मिल जाती थी-  पहलवान, भांड़, चोर, शराब बनाने वाले, चोरी के माल खरीदने वाले, अफीम की मिठाइयां बनाने वाले, सभी. सियासी साजिशों की और गुप्त प्रेम संबंधों की योजनाएं बनती रहतीं थीं. भाई-भाई के विरुद्ध षड्यंत्र रचते थे, कोई पत्नी अपनी सौत के विरुद्ध रचती थी तो कोई गणिका किसी की पत्नी के विरुद्ध. यदि किसी की हत्या हुई तो शव को छिपा कर दूर कर देने के लिए यमुना सबों को सुलभ थी.

मगर इसी किताब में मेटकाफ ने यह भी लिखा है कि जगदीशपुर, बिहार का कुँअर सिंह बिठूर में बैठे नाना से नियमित पत्राचार कर रहा था और कि कुँअर ने बिहार के भूपतियों को 1857 में कंपनी के खिलाफ खड़े करने के प्रयास किये थे. इन दोनों बातों के कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं. इस लिए मेटकाफ के लिखे किले के जीवन के वर्णन में अतिशयोक्ति असम्भव नहीं है. किंतु यह ऐतिहासिक सत्य है कि शाही परिवार के जितने वयस्क पुरुष सदस्य उन्नीसवीं सदी में किले के अंदर रह रहे थे उतने पहले कभी नहीं रहे थे. तत्कालीन चित्रकार मज़हर की एक कलाकृति में किले के अन्दर मिटटी के बने घर देखे जा सकते हैं.

यूँ तो सच्चाई क्या है यह आँकना आसान नहीं है किंतु जब वली अहद (युवराज) फखरू की मौत हुई थी, जो ग़ालिब का एक शागिर्द था और हर महीने ग़ालिब के दत्तक पुत्रों के मेवे खाने के लिए अलग से दस रूपये देता था, तब शक की सूई बहुत समय तक बहादुर शाह की चहेती, आखिरी बीबी बेग़म ज़ीनत महल के इर्द-गिर्द घूमती रही जो अपने बेटे जवाँ बख़्श को वली अहद बनाना चाहती थी. उसी तरह जब 1853 में कंपनी के दिल्ली स्थित एजेंट थॉमस मेटकाफ की संदेहात्मक स्थिति में मृत्यु हुई तब फिर शहर ने बेग़म ज़ीनत महल द्वारा विषप्रयोग करवाने का संदेह किया था.

मगर यह बात भी ग़ालिब के दिल्ली आने के कोई चालीस वर्षों के बाद की है. जब ग़ालिब दिल्ली आए थे उस समय मुग़ल तख़्त पर मोइनुद्दीन मुहम्मद अकबर शाह सानी (द्वितीय) था. कहने को तो वह मुग़ल बादशाह था पर अब अंग्रेज उसे बस दिल्ली का शाह कहते थे. अकबर शाह वाकई इससे अधिक कुछ नहीं था, शायद इतना भी नहीं. वह अभी भी 1631-32 में शाहजहां के बनवाए लाल किले में रहता था, जिसका घेरा एक मील से कम नहीं है. उसके दरबार अभी भी उसी खूबसूरत दीवान-ए-आम और सफेद संगमरमर से बने उसी दीवान-ए-ख़ास में लगते थे, मगर उन दरबारों में सियासी बातें नहीं होतीं थीं क्योंकि सियासत बादशाह के हाथ से दूर जा चुकी थी. फिर भी, धीरे-धीरे दिल्ली में पुरानी चमक वापस आ रही थी.

करीब सौ साल तक उथल पुथल झेलने के बाद दिल्ली के इर्द-गिर्द का इलाका अमन चैन से जी रहा था और आस पास के राजा-नवाब दिल्ली की शान-शौकत बढ़ा रहे थे. बादशाह पुराने मुग़ल वैभव से बहुत दूर था; उसके महल में हाथी दाँत और चांदी की कुर्सियों पर गंदे, फटे, पुराने गद्दे रहते थे;फर्श पर बेहतरीन गलीचे और सस्ती दरियाँ साथ-साथ बिछीं रहतीं थीं, किले के अंदर पत्थर के मकानात के साथ साथ मिटटी से बने घर भी दीखते थे 3 लेकिन शहर रौनक हो चला था. बादशाह की सम्पत्ति सिकुड़ गयी थी; उसकी मुख्य आय थी अंग्रेजों से मिलती पेंशन, बारह लाख सालाना से कुछ कम. लाल किले को उस छोटी आमदनी पर वैभव में नहीं रखा जा सकता था. लेकिन बादशाह के प्रमुख दरबारी बस दरबार पर आश्रित नहीं थे. उनकी अपनी संपत्ति थी और शान्ति स्थापित हो जाने के बाद एक हद तक वे खुशहाल हो रहे थे. ग़ालिब के जीवन की पृष्ठभूमि से मुग़ल साम्राज्य के अवसान और छोटी रियासतों के उदय को अलग नहीं किया जा सकता.

रईसों की आमदनी गाँवों से आती थी जहाँ उनकी जायदाद हुआ करती थी मगर अपना समय वे मुख्यतः शहरों में बिताते थे, जहाँ की संस्कृति मिली जुली थी. आगरे में हम ग़ालिब को हिंदुओं के साथ पतंग लड़ाते या आधी-आधी रात तक शतरंज खेलते देखते हैं और दिल्ली में हिंदू महाजनों से क़र्ज़ लेते, अपनी हुंडी भुनाते, या फारसी लिख रहे हिंदू शायरों के कलाम सुधारते. ग़ालिब की पृष्ठभूमि में यही मिली-जुली शहरी संस्कृति थी. मुहम्मद मुजीब ने लिखा4 है, मुश्तरिक (मिली-जुली) शहरी तहज़ीब के नज़दीक शहर की वही हैसियत थी जो सहरा (मरुभूमि) में नख़लिस्तान (मरुद्वीप) की, शहर की फ़सील (परकोटे) गोया तहज़ीब को उस बरबरियत (पशुता) से बचाती थी जो उसे चारों तरफ से घेरे हुई थी.

शाहजहानाबाद के परकोटों के अंदर चौड़े चौड़े रास्ते थे, नहरें थीं और विस्तृत हरियाली भी. इसका बहुत खूबसूरत चित्रण दरबार के चित्रकार मज़हर अली खाँ ने 1844 में शायद कंपनी के एजेंट थॉमस मेटकाफ के लिए किया है. जो चीजें सबसे अधिक विस्मित करती हैं वे हैं शाहजहानाबाद की प्लानिंग, हरियाली और उसके चौड़े मुख्य मार्ग. यह चित्र ज़फर के काल का है किंतु अकबर शाह की दिल्ली इससे अलग नहीं थी. इसी दिल्ली में आगरे को छोड़ कर ग़ालिब आया था. इस दिल्ली में वह सब कुछ था जो दुनिया की किसी राजधानी में हो सकता था, सिवाय एक वैभवशाली, प्रभुत्व-संपन्न बादशाह के. इस दिल्ली के बारे में कहा गया है,  शहर आबाद, रिआया दिलशाद, अमीर अपने माल में मस्त, फ़क़ीर अपनी ख़ाल में मस्त. हर दिन जैसे ईद का दिन हो और हर रात शब-ए बारात 5.

यह दिल्ली सही मानों में एक भरा पूरा शहर था. ग़ालिब के समय तक शहर जहानाबाद कहलाने लगा था- शाहजहानाबाद का लघुरूप. शाहजहाँ का बसाया शहर सत्ताईस फीट ऊंची दीवार से घिरा था. बारह फीट मोटी इस दीवार का घेरा लगभग चार मील था. इसमें सात बड़े बड़े दरवाजे थे- कश्मीरी, मोरी, काबुली, लाहौरी, अजमेरी, तुर्कमानी और अकबराबादी दरवाजे. किले के सामने जहाँनुमा मस्जिद थी. वहाँ से एक चौडी सड़क, जिसके बीच में एक पतली नहर थी, शहर के बाज़ार तक जाती थी. वहाँ शाहजहाँ की सबसे बड़ी बेटी जहाँआरा बेगम ने अपने पैसों से एक प्रमुख चौराहे को खुले अष्टभुजाकार क्षेत्र में विकसित किया था, चौराहे के केन्द्र में एक बड़े गोल हौज के बीच फव्वारा के साथ. चांद की रोशनी में उस फव्वारे और गोल हौज में चांद के झिलमिलाते बिम्ब की शोभा देखते बनती थी. बनने के तुरंत बाद से वह चौराहा चांदनी चौक कहा जाने लगा.

बाज़ारों की गहमा गहमी का बहुत सजीव चित्रण नवाब दरगाह क़ुली खाँ ने मुरक्का-ए दिल्ली में दिया है. दरगाह क़ुली हैदराबाद के निज़ाम का एक प्रमुख दरबारी था और वृत्तांत लेखक भी. जून 1738 से जुलाई 1741 तक वह निज़ाम आसफ जाह (प्रथम) के साथ दिल्ली में रहा था और उसने दिल्ली के उमरा, अवाम, गाने वाले, कोठे वालियां, सूफी, शायर, चित्रकार, और सामाजिक गतिविधियों के जीवंत विवरण लिख छोड़े हैं. चौक साद अल्लाह खाँ का वर्णन करते हुए उसने लिखा है, सुबह से शाम तक खरीददारों और तमाशबीनों की भीड़ के चलते बाज़ार में कहीं बित्ता भर भी जगह खाली नहीं दिखती थी. खास जगहों पर खास किस्म के व्यापार होते थे. किसी कूचे में हथियार सजे मिलते थे तो कहीं मेवे. किसी गली में अलग-अलग किस्म के चिड़ियों के बाज़ार लगते थे तो कहीं खूबसूरत कमसिन लडको के नाच होते रहते थे. कहीं भांड, विदूषक, स्वांगी, मसखरे ठिठोली करते थे तो कहीं धर्मविद विभिन्न महीनों में मुसलमानों के धार्मिक कर्तव्यों को बताते सुने जाते थे- रमज़ान में रोज़े के पुण्य, धुलहिज्जा में जियारत करने के नियम, मुहर्रम में इमाम हुसैन की शहादत आदि. किसी और कोने में ज्योतिषी भविष्य बताते थे. कमसिन लड़कों के गलों में बाहें डाले लोग निर्भीक घूमते मिलते थे. किसी कोने में लड़कियाँ भी मिलतीं थीं. और सूजाक, गर्मी की दवाएं भी, पता नहीं कितनी असरदार थीं वे दवाएं पर बेचने वाले उन्हें बेचना जानते थे 6. 1857 में चौक साद अल्लाह खाँ नेस्तनाबूद हो गया; मगर चांदनी चौक बच गया था.

अठारहवी सदी में धार्मिक विवाद भी कम नहीं हुए थे. अगली सदी भी उन विवादों से अछूती नहीं रही थी. सतरहवीं सदी से हिन्दुस्तान के इस्लामी विचारक मुग़लों के पतन के मूल में धर्म का क्षय देख रहे थे. उसे दूर करने के लिए नयी सहस्त्राब्दि (हि.) में इस्लाम के पुनर्जागरण का जो झंडा सिरहिंदीने लहराया था उसे अठारहवीं सदी में शाह वलीअल्लाह ने आगे बढाया. शाह वलीअल्लाह के समकालीन, अरब में एक धर्मविद मुहम्मद इब्न अब्द अल-वह्हाब हुआ था. अल-वह्हाब ने बसरा और बगदाद में इस्लामी फ़िक़ (धर्म-विधि) की कट्टरपंथी विचारधारा हन्बली में उच्च शिक्षा प्राप्त की थी और वह चौदहवीं सदी के विख्यात अनुदारवादी धर्मविद इब्न तैमिय्या के विचारों से बहुत प्रभावित था. इब्न तैमिय्या की तरह अल वह्हाब भी इस्लाम को उसके मौलिक रूप में देखना चाहता था, जिसे पैगम्बर मुहम्मद और उनके पहले चार खलीफ़ाओं ने जिया और दिखाया था.

भारत में भी शाह वलीअल्लाह ने इस्लाम के प्रचलित रूप को दोषपूर्ण पाया था और वह भी, अल वह्हाब की तरह, भारत में इस्लाम को उसके मौलिक रूप की ओर ले जाना चाहता था. शाह वलीअल्लाह और अल वह्हाब के विचारों की समानता को देखते हुए वलीअल्लाह को वह्हाबी कहा गया है. शायद यह गलत हो क्योंकि शाह स्वतंत्र रूप से उसी निष्कर्ष पर पंहुचा था, अल वह्हाब से प्रभावित होकर कतई नहीं.

वलीअल्लाह का पुत्र, ग़ालिब का समकालीन, शाह अब्दुल अज़ीज़ उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में दिल्ली के सबसे नामी मुस्लिम धर्मविदों में गिना गया. हिन्दुस्तान में वह्हाबी आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार करने में शाह अब्दुल का शायद सबसे अधिक योगदान रहा. मशहूर शायर मोमिन खाँ मोमिनअब्दुल  अज़ीज़ का विद्यार्थी रहा था, उसकी विचारधारा से प्रभावित और वह्हाबी आन्दोलन का समर्थक. मोमिन न सिर्फ ग़ालिब का समकालीन था, वह दिल्ली में ग़ालिब का एक अच्छा मित्र भी हुआ और मुशायरों में उसका प्रतिदंद्वी भी.

ग़ालिब तीस वर्षों के रहे होंगे जब रायबरेली के सईद अहमद ने अपनी नयी खिलाफ़त शुरू करने के लिए खैबर पख्तून्वा के इलाके को चुना था. दिल्ली और उसके पास के रईस मुसलमानों ने सईद अहमद के इस प्रयास को आर्थिक मदद दी थी. अफ़गान कबीलों ने भी शुरू में खुला सहयोग दिया, पर खैबर पख्तून्वा सिख साम्राज्य का भाग था और महाराजा रणजीत सिंह के सैनिकों के साथ लड़तेहुए 1832 में सईद अहमद मारा गया और उसकी मौत के साथ शरिया पर, मौलिक शुद्ध इस्लाम पर आधारित राज्य बनाने का यह प्रयास बिखर गया.

सईद अहमद वह्हाबी था और सच्चा इस्लामी राज्य स्थापित करना चाहता था. उसके अनुसार हिन्दुस्तान में इस्लाम दूषित हो गया था और इसके कारण थे यहाँ की पुरानी ग़ैर-इस्लामी संकृति,जिसके चलते, उसकी नज़र में, मुसलमान समाज अपने धार्मिक कर्म काण्ड से फिसल कर बहुत दूर चला आया था. अहमद और उसके अनुयायी विवाह के समय फूलों की मालाओं के उपयोग, दूल्हे की आँखों तक गिरते सेहरे, दाढ़ी नहीं रखने का प्रचलन, ईद के मौके पर गले मिलने, मुहर्रम में ताज़िया निकालने ... यहाँ तक कि किसी से मिलने पर अरबी सलामकी जगह फारसी आदाबसे अभिवादन करने का सख्त विरोध करते थे.

पिछली सदी में शाह वली-अल्लाह ने बादशाह अहमद शाह को लिखा था कि मुसलमानों के शहरों में काफिरों की परम्पराओं के लिए (जैसे होली या गंगा-स्नान) कोई जगह नहीं होनी चाहिए7. मुहर्रम की दसवीं तारीख पर शिया बाज़ारों में मूर्खतापूर्ण बातें न कहते चलें और उनके व्यवहार असंयमित नहीं हों. अहमद शाह ऐसा कुछ कर सकने में नितांत असमर्थ था किंतु उसके वारिस आलमगीर द्वितीय (1754-1759) ने शिया सम्प्रदाय पर रोक लगाने की असफल कोशिश की थी. मराठों के हाथों वास्तविक शक्ति रहने के चलते हिंदुओं के ऊपर किसी प्रकार के प्रतिबन्ध लगाए जाने के सवाल ही नहीं उठते थे. लेकिन शाह के विचार थे कि काफिरों के जनसंहार से मुसलमानों में विपदा, अमंगल घटता है 8. वलीअल्लाह ने संतों के मजारों पर जाने का भी सख्त विरोध किया था. उसके अनुसार मृत संतों की पूजा बुतपरस्ती से किसी तरह अलग नहीं हो सकती.

लेकिन शाह के लाख चाहने पर भी हिंदू और मुसलमान एक दूसरे के त्योहारों में दिलो जाँ से शरीक होते रहे. ऐसा सबसे बड़ा त्यौहार बसंतथा, जिसमे सात दिनों तक दिल्ली के आसपास के नामी संतों के दरगाहों पर मेले लगते थे जिनमे क्या हिंदू और क्या मुसलमान, सभी पूरे जोशो खरोश से भाग लेते थे. दरगाहों पर लगने वाले मेलों में किसी प्रकार का आध्यात्मिक या धार्मिक बंधन नहीं रहता था- आनंदोत्सव था, पुराने भारतवर्ष के मदनोत्सव के मानिंद.

जैसा कहा जा चुका है अठारहवीं सदी से ही पूरी दिल्ली शेरो-शायरी में रंग गयी थी. फारसी शायरी तो मुग़ल दिल्ली में सदियों से पनपती रही थी. अकबर के दरबार में फ़ारस से शायर अपने भाग्य अजमाने आते थे. शाहजहाँ के समय तक स्थानीय शायर भी चमकने लगे थे. मिर्ज़ा अब्दुल क़ादिर बेदिलऔर सिराज अल-दीन अली खाँ आरज़ूदो नामी शायर हुए. आरज़ू शायद सबसे पहले व्यक्ति थे जिन्हें संस्कृत और फ़ारसी के बीच सम्बन्ध दिख पाया था. बेदिल एक विख्यात सूफी, रहस्यवादी शायर के रूप में पनपे. ग़ालिब की शुरुआती शायरी पर बेदिल की गहरी छाप दिखती है. दिल्ली के ये फ़ारसी शायर सादी शिराज़ी (जिसने हिन्दुस्तान में भी अनेक वर्ष बिताए थे), हाफेज़, जामी आदि से प्रभावित रहे थे, पर इनकी शैली ईरान की शैली भिन्न थी; इतनी कि वह सब्के हिंदयानी हिंद की शैली कहलाई.

ग़ालिब के जन्म से कोई सौ साल पहले वली दक्कनी दिल्ली आये थे. दक्कनी एक मिली जुली भाषा में शायरी करते थे जो रेख़्ता कहलाती थी. जैसे प्राचीन भारत में बुद्ध और महावीर के पहले विद्वान नहीं मानते थे कि तत्वज्ञान की चर्चा देवभाषा संस्कृत छोड़ किसी और भाषा में हो सकती है वैसे ही सत्रहवीं सदी तक दिल्ली शहर भी नहीं मानता था कि फ़ारसी छोड़ रेख्ता में शायरी हो सकती थी. शायरी जैसी नफ़ीस चीज के लिए दिल्ली ने दक्कनी की भाषा को अनुपयुक्त समझा. मगर सबों ने उस मिली जुली भाषा को पूर्णतः अस्वीकार नहीं कर दिया.

औरंगज़ेब की मौत के करीब पचास साल पहले 1658 में मीर मुहम्मद जाफ़र एक शायर पैदा हुआ था जिसने ज़तल्ली तखल्लुस से अरबी, फारसी और रेख्ता- तीनो में लिखा. फ़ारसी शायरों के तर्ज पर ज़तल्ली ने अश्लील कविताएँ भी लिखीं और वह उर्दू का पहला व्यंग्यकार भी हुआ. बादशाह फ़र्रुखसियार के ऊपर लिखे एक व्यंग्य के चलते उस बादशाहत के पहले वर्ष, 1813, में ज़तल्ली को फांसी पर लटका दिया गया. ज़तल्ली ने पहली बार प्राकृत पर आधारित भाषाओं के शब्दों के रेख्ता शायरी में जम कर प्रयोग किये थे. उसकी अश्लीलता और फांसी की सज़ा से हुई उसकी मौत के चलते ज़तल्ली का नाम तो बहुत नहीं लिया गया किंतु भारतीय भाषाओं के शब्दों के प्रयोग अब रेख्ता में होने लगे और इस सदी के मध्य तक रेख्ता धीरे धीरे उर्दू में बदल गयी.

शाह आलम द्वितीय के दरबार की भाषा ही उर्दू कहलाई. उर्दू लघुरूप है, ज़बान-ए उर्दू ए मुअल्ला का और उर्दू-ए मुअल्ला यानी शाही शिविर दिल्ली (शाहजहानाबाद) को कहा जाता था 9.

1780 तक भाषा का नाम उर्दू हो चुका था. ज़तल्ली की मौत के सात साल पहले (अन्य मत से उसी साल) मिर्ज़ा मुहम्मद रफ़ी सौदाइस दुनिया में आ चुके थे. सौदा उर्दू के पहले क्लासिकी शायर माने जाते हैं. सौदा, दाग़ और मीर अठारहवीं सदी के तीन महान शायर हुए जो दिल्ली पर छाए रहे. लेकिन दिल्ली की लगातार तबाही होती देख सौदा और मीर, दोनों ने बाद में दिल्ली छोड़ लखनऊ दरबार की शरण ले ली थी. 

1738 की दिल्ली का वर्णन करते हुए नवाब दरगाह क़ुली खाँ ने मुरक्का-ए दिल्ली में लिखा है, चांदनी चौक की दुकानों में अतर, खंजर, चीनी मिटटी और कांच के मर्तबान, सोने-चांदी के गहने, बेशकीमती हथियार बहुत कुछ बिकते थे. लेकिन आकर्षण का सबसे बड़ा केन्द्र चौक का कहवाघर था. वहाँ कहवा तो मिलती ही थी, साथ साथ दिल्ली के शायरों को सुन पाने के मौके भी मिलते थे. शायर अपनी नयी रचनाएँ कहवाघर में पढ़ते थे और आम आदमी, जो न रईसों के मुशायरों में जा सकता था, न तवायफों की महफ़िलों में, कहवाघर में अपने प्रिय शायरों के कलाम के लुत्फ़ उठा सकता था 10.  

उन्नीसवीं सदी तक दिल्ली की तबाही, जैसा लिखा जा चुका है बीती बात हो चुकी थी. ग़ालिब की दिल्ली में शान्ति थी, समृद्धि भी थी. रईस और फ़कीर दोनों एक ज़ुबान बोलते थे और सुनते थे. उर्दू शेरो-सुखन उस दिल्ली के साहित्य का अंग नहीं होकर वहाँ के जीवन का अंग हो गया था11.
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1. मीर मेहदी हसन मजरूह के नाम 2 दिसंबर 1859; श्री राम शर्मा, ग़ालिब के पत्र, हिन्दुस्तानी अकेडमी प्रयागराज (1958); पृष्ठ: 364-365
  
2 सर चार्ल्स थिओफिलस मेटकाफ, टू नेटिव नैरेटिव्स ऑफ द म्यूटिनी, वेस्टमिन्स्टर, (1898), पृष्ठ 13-14

3 उपरोक्त, पृष्ठ 12

4 मुहम्मद मुजीब, ग़ालिब (भारतीय साहित्य के निर्माता), साहित्य अकादमी नयी दिल्ली, (2002), पृष्ठ 9

5 सईद वज़ीर हसन देहलवी, दिल्ली का आख़िरी दीदार, राना सफवी के अनुवाद सिटी ऑफ माई हार्ट से नई दिल्ली (2018), पृष्ठ 6

6 नवाब दरगाह क़ुली खाँ के मुरक्का-ए दिल्ली से; सईद अतर अब्बास रिज़वी, शाह वलीअल्लाह ऐंड हिज़ टाइम्स, कैनबरा (1980), पृष्ठ 175

7 सईद अतर अब्बास रिज़वी, शाह वली-अल्लाह ऐंड हिज़ टाइम्स, कैनबरा (1980); पृष्ठ 294

8 पूर्वोक्त; पृष्ठ 295

9 शम्शुर रह्मान फ़ारूक़ी, अनप्रिविलेज्ड पॉवर: स्ट्रेंज केस ऑफ पर्शियन (ऐंड उर्दू) इन नाइन्टींथ-सेंचुरी इन्डिया,ऐनुअल ऑफ उर्दू स्टडीज़, वॉल्यूम 13 (1998)

10 सईद अतर अब्बास रिज़वी, शाह वलीउल्लाह ऐंड हिज़ टाइम्स, कैनबरा (1980), पृष्ठ 176

11 शम्शुर रह्मान फ़ारूक़ी, अनप्रिविलेज्ड पॉवर: स्ट्रेंज केस ऑफ पर्शियन (ऐंड उर्दू) इन नाइन्टींथ-सेंचुरी इन्डिया,ऐनुअल ऑफ उर्दू स्टडीज़, वॉल्यूम 13 (1998
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  1. सत्यदेव त्रिपाठी6 अप्रैल 2019, 10:42:00 am

    सच्चिदानंदजी ने गालिब के समय की बड़ी अच्छी व्याख्या इतिहास सम्मत ढंग से की है। उन्हें हार्दिक साधुवाद...
    साहित्य और साहित्यकार को सामाजिक-ऐतिहासिक अनुशासनों के आलोक में समझना ही अध्ययन की सच्ची सार्थकता है, यह निर्विवाद है।
    लेकिन इन समस्त अनुशासनों की अर्थवत्ता तभी होती है, जब उस साहित्यकार में, बल्कि प्रमुख रूप से उसके साहित्य में उन संदर्भों के प्रतिफलनो का भी सायुज्य निदर्शन हो - याने गालिब के साहित्य (उनके अशआर) में इन आकलनों के साक्ष्य दिये जायें। अशआर में आये शब्द-प्रतीकों में निहित उन संदर्भो को खोला जाए...इस आलेख में ऐसा नहीं के बराबर हुआ है। फिर यह स्वतंत्र रूप से उस समय के ऐतिहासिक आकलन भर होके रह गये हैं। गालिब के पत्रों के कतिपय उल्लेख भी उस इतिहास की पुष्टि के साधन भर होकर आये हैं, जो अध्ययन की उस प्रक्रिया के कारक बन सके हैं, जिसे साहित्य में इतिहास/समय के साक्ष्य कहते हैं - याने इतिहास के लिए प्रमाण बन जाता है जब साहित्य। इसके उपयोग के लिए खूब विख्यात व बहव: उद्धृत हुए हैं - कल्हण (राज तरंगिणी) व विल्हण (विक्रमांक देव चरितं)।
    इसके बिना गालिब के अध्येता इस आलेख को पढ़ेंगे उस समय में गालिब को समझने के लिए और पाएंगे समय के लिए गालिब के प्रच्छन्न से जिक्र और निराश होंगे - मेरे साथ यही हुआ...
    उधर इतिहास के अध्येता, जो इस आलेख के सही उपभोक्ता हैं, इसे गालिब पर आलेख समझ के नहीं पढ़ेंगे।
    बहरहाल...

    जवाब देंहटाएं
  2. जी नमस्ते,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (7 -04-2019) को " माता के नवरात्र " (चर्चा अंक-3298) पर भी होगी।

    --

    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।

    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।

    आप भी सादर आमंत्रित है

    अनीता सैनी

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  3. why should the name of Ghalib have been mentioned in order to write about this period of history ?

    जवाब देंहटाएं
  4. सच्चिदानंद सिंह6 अप्रैल 2019, 8:35:00 pm

    इतिहास के विद्यार्थियों के लिए यह अपर्याप्त और अगठित है. मैंने ग़ालिब में रुचि रखने वालों के ही लिए इसे लिखा. अब लग रहा है उनके लिए भी यह अपर्याप्त है!
    जो हो; यह एक लंबी श्रृंखला का अंश है. इसके पहले के दो लेख हैं, इसके बाद के अनेक. इस लेख में मैंने ग़ालिब के अशआर डालने की आवश्यकता नहीं समझी, न ही उनकी जीवनी के अंश; आगे वे बहुत आयेंगे. इस लेख का उद्देश्य बस उस परिवेश को स्पष्ट करना है जिस ने ग़ालिब के व्यक्तित्व और साहित्य दोनों पर गहरी छाप छोड़ी. शायद यह स्पष्ट कर सके क्यों वे अकबर शाह सानी और दिल्ली में स्थित कंपनी बहादुर के रेज़िडेंट विलियम फ्रेज़र दोनों को ‘पीर-ओ-मुर्शिद’ कह कर संबोधित करते थे. या क्यों वे एक ही समय मुग़ल बादशाह और कंपनी के लेफ्टीनेंट गवर्नर की प्रशंसा में कसीदे लिख डालते थे. क्यों उनकी शुरुआती शायरी से फ़ारसी कवि-प्रसिद्धियाँ झाँकती रहतीं थीं और क्यों चौबीस की उम्र तक उनके अशआर में फ़ारसी लफ़्ज़ और इज़ाफत आदि का इतना बोझ रहता था कि बस एकाध शब्द बदल देने से शे’र उर्दू का नहीं होकर फ़ारसी का हो जाए.
    आपने पूरा पढ़ा और अपने विचार रखे; अहो भाग्य.
    सच्चिदानंद सिंह

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