कृष्णा सोबती पर आशुतोष भारद्वाज का यह ‘स्मरण’ कृष्णा
जी के जीवन के ऐसे पहलू को सामने लाता है जिस पर वह खुद मौन रहना पसंद करती थीं, हालाँकि यहाँ भी वह बहुत मुखर नहीं हैं. किसी भी मेजर राइटर का जीवन जिन उदात्त और
सकर्मक तंतुओं से बुना रहता है, उसका कुछ एहसास इस ललित आलेख को पढ़ते हुए होता है.
आशुतोष भारद्वाज बहुत अच्छा लिख रहें हैं,
कृष्णा जी पर इसी तरह लिखा जाना चाहिए.
कृष्णा सोबती
कुछ खत,
एक पिक्चर पोस्टकार्ड
आशुतोष भारद्वाज
आशुतोष भारद्वाज
उनका मुझे पहला फ़ोन २०१० में आया था. मेरा तब तक उनसे कोई परिचय नहीं था, सिवाय इसके कि महीना भर पहले मैं उनसे ‘कथादेश’ के एक विशेषांक के लिए रचना लेने उनके घर गया था. इसलिए उनकी बात सुन मैं हतप्रभ रह गया था,लेकिन २०१७ की फ़रवरी में जो उन्होंने मुझसे कहा उसका मुझे क़तई यक़ीन नहीं हुआ.
उन्हें अंत नज़दीक दिख रहा था. उनकी स्टडी उनकी अप्रकाशित
पांडुलिपियों, प्रकाशित
उपन्यासों के पुराने मसौदों, ख़त,डायरी और तमाम क़िस्म के काग़ज़ व दस्तावेज़ों से अटी पड़ी थी.
मैं अब यह सब नहीं कर पाऊँगी. मेरे पास समय नहीं बचा है. आप
इन काग़ज़ों में से काम की चीज़ निकाल कर बाक़ी नष्ट कर सकते हैं?
पिछली बार उन्होंने मुझे अपनी लेखकीय दुनिया में बुलाया था,
लेकिन इस बार बुलावा निजी संसार का था. एक ऐसा
बुलावा जहाँ वह मुझे अपने कमरे के अंदर भेज ख़ुद बाहर जा बैठ गयीं थीं. मैं अकेला
उनके शब्दों, उनकी सृष्टि से
रूबरू था. एक विश्वविद्यालय उनकी पांडुलिपियाँ और अन्य दस्तावेज़ अपने अभिलेख़ागार
के लिए चाहता था लेकिन वे उन्हें देने से पहले संतुष्ट हो जाना चाहती थीं कि कहीं
कोई हल्की लिखत न चली जाए.
मैं आए दिन कई घंटे उनकी स्टडी में बिताने लगा. उनके ख़त,
नोट्स. हम हशमत, ज़िंदगीनामा के न जाने कितने मसौदे. सफ़ेद काग़ज़ पर उनके
बड़े और कंपकंपाते शब्द. हम दोनों साथ खाना खाते, विमलेश बड़े स्नेह से परोसती जातीं. उनके काग़ज़ों से शुरू
हुआ सिलसिला जल्द ही लम्बा होता गया, उनके अतीत के तमाम कोने-कोटरों तक पहुँचता गया. वह अपने जीवन में उतरती जातीं.
मैं किसी बायोग्राफ़र सा नोट्स लेता रहता.
ऐसी ही एक दोपहर वे बोलीं. “मुझे एक पिक्चर पोस्टकार्ड मिला. उन दोनों ने मुझे लिखा है-
“हम दोनों यहाँ शराब पी रहे हैं, तुम्हें याद कर रहे हैं.”
कौन दोनों?
वह हँसने लगीं. स्मृति में डूबी हंसी जिसके किनारों पर बीते
दिनों की चमक थी. हँसते वक़्त उनका चेहरा ऊपर उठ जाता था. शायद आकाश में उन्हें
पुराने दोस्त दिखलाई देते थे.
पिछली किसी दोपहर जब मैं आ नहीं सका था अपने पुराने कागजों
को टटोलते में उन्हें किसी फ़ाइल में दबा एक पीला पड़ चुका पिक्चर पोस्टकार्ड मिला
था. वक्त पर किसी ने ताला-सा मार दिया. मेज पर बिखरे तमाम काग़ज़ों के बीच पचास
बरस पुराना वह पोस्टकार्ड. उस पर दो इंसानों के हस्ताक्षर होंगे. यूरोप के किसी
शहर की तस्वीर, जहाँ से इसे भेजा
गया होगा.
उनमें से एक को वह बचपन से जानतीं होंगी,
जब वह और कृष्णा शिमले में पढ़ते होंगे. दूसरे
से वह कुछ साल बाद लाहौर में मिलेंगी, जब वह गवरमैंट कॉलेज में शिवनाथ के साथ पढ़ते थे, और कृष्णा फतेह चंद कॉलेज में. बीस से कम की
कृष्णा तब तलक शिवनाथ से एकदम अपरिचित थीं, जिनसे वह पहली मर्तबा अपने पांचवें दशक में मिलीं थीं और
फिर अंत तक उनके साथ रहीं थीं. वह विभाजन के पहले का लाहौर था जिसके सामने दिल्ली
एक सूखा हुआ गाँव नजर आता था. किसी को नहीं मालूम था कि कृष्णा की ही तरह वे दोनों
भारतीय कथा साहित्य को अनूठे मोड़ देने वाले थे, जिन्होंने कई दशक बाद वह पोस्टकार्ड प्राग से भेजा था,
जिस पर प्राग के ओल्ड टाउन हॉल की तस्वीर थी,
और दूसरी तरफ़ काली स्याही में यह पंक्तियाँ:
“प्रिय कृष्णा जी,
जब कभी दिल्ली में मिलते
थे. संग ‘पीने’ का अभाव खलता था, अब पीने का अभाव नहीं, लेकिन आपकी कमी
बहुत अखरती है.
निर्मल”
और इसके ठीक नीचे-
“इत्तफ़ाक़ से मैं
भी निर्मल के साथ बैठा हूँ, और मैं उससे सहमत
हूँ.
कृष्ण बलदेव वैद”
(दो)
निर्मल और वैद के अलावा एक अन्य लेखक का ज़िक्र वह अक्सर
करती थीं, स्वदेश दीपक. निर्मल २००५ में चले गए, कई मर्तबा आत्महत्या के असफल प्रयासों के बाद
दीपक क़रीब एक दशक पहले “ग़ायब” हो गए. उनकी मृत्यु की आधिकारिक पुष्टि अभी तक
नहीं हुई है. कृष्णा ने कभी नहीं कहा कि स्वदेश दीपक की मृत्यु हो गयी. “वे अब इस ग्रह पर
नहीं हैं,”
वह कहती थीं, यह याद करते हुए कि “वह हमेशा अपने
साथ शराब की बोतल लेकर चलते थे.”
निर्मल और सोबती की अपने काम पर बहस कभी तल्ख़ भी हो जाया
करती थी. एक बार निर्मल ने उनके लेखन को “मिथ” कह दिया. “कृष्णा, योर राइटिंग इज़ अ मिथ.”
सोबती ने तुरंत आक्रोश में उन्हें याद दिलाया कि वे एक झटके
से “वे बीस वाक्य” बतला सकती हैं “जो उन्होंने चेकोस्लोवाकिया के उपन्यासों से उठाए हैं”.
लेकिन उस शाम निर्मल को याद करते हुए उन्होंने तुरंत जोड़ा:
“निर्मल की उपस्थिति के कुछ और ही मायने थे…वह अत्यंत रचनात्मक उपस्थिति थी.”
“जल्दी चला गया…ही वॉज अ गुड चैप,” वह बोलीं,
एक विरल क्षण जब उनकी आँख नम हो गयी थी. “मैं उनके बारे
में कल ही सोच रही थी.”
उनकी फ़ाइलों में निर्मल का तो शायद एक पिक्चर पोस्टकार्ड
ही था जो उन्होंने वैद के साथ भेजा था, ‘केबी’ के कई ख़त थे. कुछ ख़त अमरीका से भेजे गए थे,
जब वह वहाँ पढ़ाते थे. वैद उन दिनों अमरीका में
थे. अभी भी वहीं हैं. उनके भारत आने की सम्भावना बहुत कम थी, लेकिन कृष्णा आश्वस्त थीं कि वैद ज़रूर लौटेंगे.
“एक बार केबी से
भेंट ज़रूर होगी.”
वैद लौटे नहीं, उससे पहले ही वह चली गईं.
जब वह अपने दोस्तों के बारे में बतातीं थीं, मुझे लगता था कोई किताब लिखी जानी चाहिए इन
लेखकों की यारी पर. इनके राग-द्वेष, प्रेम और हिंसा. किस तरह ये एकदूसरे के काम को बरतते थे. एक किताब जो इनकी
दोस्ती के आईने से स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य की भी कथा सुनाती चलती हो. वैद
की डायरी में भी निर्मल का जिक्र बार-बार आता है. उनकी हालिया किताब ‘अब्र क्या चीज़ है? हवा क्या है?’ में निर्मल की मृत्यु के बाद कई पन्ने निर्मल पर हैं.
पच्चीस अक्तूबर दो हजार पाँच, मृत्यु से कुछ ही
घंटे पहले की वैद की यह डायरी: “आज कृष्णा के फोन के दौरान जब निर्मल का ज़िक्र आया और मैंने
उसे निर्मल की बुरी हालत के बारे में बताया तो वह बुझ गयी और हम दोनों उदास हो गए.”
और अगले दिन चिता के सामने यह डायरी: “निर्मल की मौत
में मुझे अपनी मौत दिखाई देती रही.”
(तीन)
इन्हीं लम्हों में हमने तय किया था कि इस संवाद को एक रूप
दिया जाए.
“मेरा आखिरी साक्षात्कार”.
वे कई बार दोहराती थीं, उस वक्त भी जब उनकी बांयी कलाई सुईयों से बिंध चुकी थी.
एक सुई से निकलती ट्यूब उनके बिस्तर के ऊपर टंगी बोतल तक जा
रही है. चार महीने पहले वे बानवे की हो गयीं. भारत की सबसे उम्रदराज और सयानी
रचनाकार. कई दिनों से अस्पताल में हैं, लेकिन सुबह का अख़बार अभी भी उनके सिरहाने रखा है.
यह २०१७ की जून का पहला हफ़्ता है. अपनी हस्तलिखित
पांडुलिपियों के कई बक्से वे एक विश्वविद्यालय को हाल ही दे चुकी हैं. हम पिछले
तीन-चार महीनों से लगातार मिल रहे हैं- उनका मयूर विहार का घर, और अब दक्षिण दिल्ली का यह अस्पताल. उनका यहाँ पांचवा दिन
है, कल उन्होंने फ़ोन कर मुझे
अस्पताल आने को कहा था. वे इस ‘साक्षात्कार’ को जल्द पूरा कर लेना चाहती हैं. लेकिन अब यह
साक्षात्कार नहीं रहा है. हम उन तमाम जगहों पर पहुँच रहे हैं जिन्हें यात्रा शुरू
करने से पहले ध्येय नहीं किया था, जो इस पाठ में
दर्ज नहीं हुआ है, शायद ज़रूरत भी नहीं है.
कई बार मिलते ही उनका पहला वाक्य होता है — आपके सवाल मुझे सोने नहीं देते. मैं सुबह से ही
आपके आने की तैयारी शुरू कर देती हूँ.
वे हँसती हैं.
उनके बोलने की गति बहुत तेज़ है. शब्द न मालूम कहाँ से
बिखरे आते हैं. अनेक दशकों तक फैली स्मृतियाँ वाक्यों में घुमड़ती आती हैं. उनका
बचपन, तमाम शहर, लेखकीय जीवन, दोस्त- समूचा जीवन एक ही वाक्य में उतर आता है.
उनका आग्रह है मैं उनकी आवाज़ रिकॉर्ड न करूँ, उनके कहे को काग़ज़ पर लिखता चलूँ. मैं कहता
हूँ- आप तो व्यास हैं, लेकिन मैं गणेश
नहीं हूँ.
उनकी रचनात्मक ऊर्जा और लेखकीय प्रतिबद्धता पर उम्र का कोई
असर दिखाई नहीं देता. वह रोज़ तीन अख़बार पढ़ती हैं,लेखकों-बुद्धिजीवियों के प्रतिरोध सम्मेलनों और सेमिनारों
में जाती हैं और लगभग रोज किसी को अपने आतिथ्य से नवाजती हैं. वह आज भी पूरी तरह
सजग और सतर्क हैं. उन्हें अपने बचपन का गाँव, दोस्त और किताबें याद हैं, वे घोड़े भी जिनकी सवारी उन्होंने बचपन में की.
इस पड़ाव पर भी वह अपने हरेक शब्द को लेकर अत्यंत सजग हैं.
जो भी मैं लिख रहा हूँ उसे मुझे बोल कर सुनाने को कहती हैं. अगर कुछ दिन मैं आ
नहीं पाता, तो मुझसे फोन पर पिछली
बार का लिखा सुनती हैं. हाल ही उनकी मुक्तिबोध पर किताब आयी है. विश्व साहित्य में
शायद ऐसे अवसर कम ही होंगे जब अपने तिरानवे वर्ष में किसी सर्जक ने एक समकालीन
रचनाकार पर किताब लिखी हो. उम्र का वह क्षण जब हम अपनी बची चीजें समेटने में
व्यस्त होते हैं, वे किसी दूसरे
लेखक पर किताब को आकार दे रही थीं. लेकिन वह उसकी छपाई को लेकर प्रकाशक से बहुत
नाराज़ हैं. सारी प्रतियाँ उठवा लेना चाहती हैं. उन्होंने साठ साल पहले अपने पहले
उपन्यास चन्ना की पांडुलिपि
प्रकाशक से वापस ले नष्ट कर दीं थीं. अपने शब्द-कर्म पर उन्हें अखंड अभिमान है.
एक घटना का वे अक्सर जिक्र करती थीं. नब्बे के दशक में जब
वे भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में राष्ट्रीय फैलो थीं, संस्थान के नए अध्यक्ष गोविंद चंद्र
पांडे आए हुए थे. एक औपचारिक
सत्र में उन्हें सभी फैलो से मिलना था. पांडे ने सभी से अपना परिचय देने को कहा.
कृष्णा को यह बात बहुत अखरी कि जो व्यक्ति उन्हें जानता है, वह उनका परिचय मांग रहा है. “हम पिछले कुछ दिनों से मिल रहे हैं. फिर भी आप
मेरा नाम जानना चाहते हैं. I have an ordinary name, but sir, my
signature is very expensive (मामूली सा मेरा नाम है, पर श्रीमान मेरे हस्ताक्षर का बड़ा मूल्य है)” , वे सबके सामने
बोलीं थीं.
जून की इस दोपहर वह अस्पताल में अपने कमरे के पलंग पर लेटी
हैं, आसमानी नीला गाउन पहने.
विमलेश उनके बिस्तर को पैंतालिस डिग्री के कोण पर उठाती हैं. उनके चेहरे पर ताज़ी
बर्फ़ सी झुर्रियाँ हैं, आँखों में पहली
बरसात की चमक.
“कहाँ थे हम पिछली बार?”
(चार)
यह ‘आखिरी
साक्षात्कार’ अधूरा रह गया. दो
महीने बाद, सितंबर २०१७, मैं शिमला की उसी पहाड़ी पर रहने चला गया, उसी संस्थान में
फैलो बन जहाँ कभी नब्बे के दशक में कृष्णा रहा करती थीं. वैद भी उन्हीं दिनों
हफ़्ते भर के लिए यहाँ आए थे, सोबती-वैद संवाद
यहीं दर्ज़ हुआ था, संयोग से उसी
काँच-घर में जो आज मेरी स्टडी है, जहाँ मैं ये शब्द
लिख रहा हूँ. संस्थान के कर्मचारी विजय को
अभी भी याद है कि उन्होंने सोबती-वैद संवाद के लिए टेप रिकॉर्डर इसी काँच-घर की
मेज पर रखा था.
निर्मल भी यहीं रहे थे, सत्तर के दशक की शुरुआत में.
मेरे यहाँ आने के बाद वे फोन पर संस्थान और उन जगहों के
बारे में उमंग से पूछती थीं जहाँ वह कभी रहीं थीं. उनकी आवाज़ में झुर्रियाँ और
सलवटें नहीं थीं. उनका स्वर ऊर्जा और उत्साह से सराबोर होता था. वह शिमले की बर्फ़
और बरसात को ले उत्सुक रहती थीं, और यह जानकर खिल
जाती थीं कि उनका पहाड़ बहुत अधिक नहीं बदला है. “बहुत सुंदर. मुझे अभी भी अपना अपार्टमेंट याद
आता है.”
सुंदर. प्यारा. उत्तेजना.
ये शब्द उनकी वर्णमाला में बार-बार आते थे. उन्हें शिमले के
संस्थान को छोड़े पच्चीस बरस हो गए थे लेकिन यहाँ के पुराने कर्मचारी अभी भी उन्हें
याद करते थे. करीब पैंतालीस वर्षों से शांतिनिकेतन में रह रहे जर्मनी के टैगोर
अध्येता मार्टिन कैंपचेन उन्हीं दिनों यहाँ तीन महीने के लिए एसोशिएट फैलो बन कर
आए थे. कृष्णा ने मार्टिन को एक गरम कमीज भेंट की थी. जिस पर उन्हें स्नेह उमड़ता
था, उसे वह अक्सर ऊनी कपड़े
दिया करतीं थीं. मार्टिन उन्हें याद कर कहते हैं. “वे मेरी स्मृति
में अभी भी दर्ज हैं. बहुत ही निर्भीक और स्वाभिमानी महिला थीं.”
(पांच)
मेरे पास उनका सबसे पहला फोन 2010 में आया था. वे अपनी एक
किताब की पाण्डुलिपि प्रकाशक को भेजने से पहले मुझे पढ़वाना चाहतीं थीं. मेरी तब
कुछ कहानियाँ ही प्रकाशित हुईं थीं. उनके भरोसे पर हतप्रभ मैं मेज पर रखी उनकी
पाण्डुलिपि के कागज समेट रहा था कि उन्होंने विमलेश को आवाज दी. विमलेश को जैसे
मालूम था, वे अंदर से एक लिफाफा ले
आयीं. मैं भौंचक. उसमें रखी राशि आज के स्तर पर भी अच्छी-ख़ासी थी. लेखक अक्सर
मित्रों की पांडुलिपियाँ पढ़ते हैं, अजनबियों की भी.
इसके एवज में पैसा देना एकदम अनसुना, अप्रत्याशित था. मैंने बहुत मना किया लेकिन वे नहीं मानीं – ‘जो लोग लिखते हैं,
मैं उनके समय की बहुत
कद्र करती हूँ.”
इसके बाद जब भी वह मुझसे अपने लिखे पर राय चाहती थीं,
हमेशा जिद कर एक लिफाफा थमा दिया करतीं थीं.
२०१७ की गरमियों में जब उनके घर काफ़ी समय बिताने के बाद भी उनके काग़ज़ ख़त्म
नहीं हो रहे थे, तो मैं उनकी
फ़ाइलें घर ले जाने लगा. हर चौथे-पाँचवें दिन तीन-चार फ़ाइल ले जाता, कुछ दिन बाद छँटनी कर उन्हें लौटा जाता,
दूसरी फ़ाइल ले जाता. ऐसी ही किन्हीं फ़ाइलों
में मुझे कुछ ख़त और काग़ज़ मिले, जो मुझे लगा
सार्वजनिक नहीं होने चाहिए. अभिलेख़ागार भी नहीं जाने चाहिए. उन्होंने बड़ी निष्ठा
से अपने एकांत को जिया था. पिछली पूरी सदी और इस सदी के दो दशकों पर उनका जीवन
फैला हुआ था. उनके दोस्त थे, प्रेम भी,
लेकिन उनके एकांत में कभी किसी का दख़ल नहीं था.
एक बार उनको आए किसी खत को पलटते हुए मैंने उनसे पूछा था.
“रोमांस? उससे?” वह हंसने लगी, जिसके मायने कुछ भी हो सकते थे.
पिछले वर्षों में उन्होंने अपने कई करीबी मित्रों को जाते
हुए देखा था. एक बारीक अवसाद उनके ऊपर अक्सर बिछ जाता. “मैं अभी भी बची हूँ,” वे अक्सर कहतीं. क्या उन्हें यह ख्याल सताता था
कि उनके बाद उनकी चीजों का क्या होगा? ढेर सारी किताबें, खत, फ़ाइल. हमारा संवाद अक्सर उनकी बिखरी चीजों पर आ
अटक जाता. उनका स्वाभिमान उन्हें इस फिक्र को स्वीकारने नहीं देता था लेकिन उनकी
कसक कभी उनके बड़े फ्रेम वाले चश्मे के बाहर झलक जाती थी. वे लेखकों के लिए एक रेजीडेंसी स्थापित करना चाहतीं थीं.
मृत्यु भी कभी बर्फ के पाँव लिए आती है, गरिमा और मौन के साथ. वे जिस दिन गईं उनका
प्रिय शहर शिमला बर्फ से ढका हुआ था. ठीक जिस क्षण उन्होंने दिल्ली में आखिरी सांस
ली, छाता लिए एक स्त्री शिमले
में मेरे काँच-घर की खिड़की के नीचे से गुजर रही थी. बर्फ गिर रही थी. रात भर गिरती
रही थी.
_________________
शिमला के उच्च अध्ययन संस्थान के फ़ैलो, पत्रकार, आलोचक, कथाकार, आशुतोष
सम्प्रति दैनिक अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेस' में कार्यरत हैं.
ई पता : abharwdaj@gmail
अद्भुत है। इस कड़ी में और भी पढ़ने की इच्छा है। आशुतोष ने बहुत ज़िम्मेदारी और स्नेह से यह काम किया है। एक रचनाकार का जीवन अपने आप में एक अलौकिक रचना है। शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंबहुत भावपूर्ण उत्कृष्ट....नमन
जवाब देंहटाएंशालीन
सुन्दर।
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट भावपूर्ण संस्मरण।
जवाब देंहटाएंबहुत मन से लिखा गया है , मुझे अच्छा लगा शिमला को शिमले लिखा जाना . बधाई
जवाब देंहटाएंआशुतोष ने आत्मीयता से कृष्णाजी की याद सँजोई है।ऐसा जीवन भी किसी किसी को नसीब होता है।अन्यथा जीवन बीत गया जीने की तैयारी में।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (02-04-2019) को "चेहरे पर लिखा अप्रैल फूल होता है" (चर्चा अंक-3293) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
अन्तर्राष्ट्रीय मूख दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
भावपूर्ण संस्मरण
जवाब देंहटाएंबहुत ही अद्भुत ।आशुतोष जी आप ने उस समय को लिखा जिसे कृष्णा जी जी रहीं थीं ।
जवाब देंहटाएंसुंदर ✍️ आजकल ज़िंदगीनामा पढ़ रही हूं और ये लेख पढ़कर बहुत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंमन मोह लिया इस लेख ने। आशुतोष जी को और आपको बहुत बधाई अरूण जी।
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावपूर्ण व आत्मीय संस्मरण ��
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण अनोखा संस्मरण
जवाब देंहटाएंऐसा भीतर की ओस में चमकता गद्य कम पढ़ा।यह समय की दीवार पर उकेरा गया दस्तावेज है।
जवाब देंहटाएंबधाई शब्द छोटा है।
बहुत प्यारा और लेखकीय और इंसानी गरिमा से भरा स्मरण
जवाब देंहटाएंआशुतोष दिखने में ही नहीं भाषा में भी राजकुमार है
एक लेखक की गरिमा को उकेरता गरिमामय लेख। गद्य का उत्कृष्ट नमूना। आप, आपका ब्लॉग और आशुतोष तीनों बधाई के पात्र। बधाई स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंअत्यंत संवेदनापूर्ण संस्मरण .मेरी कृष्णा जी से अच्छी बातचीत थी ,जो समालोचन पर भी है और बहुवचन के 60 वें अंक में प्रकाशित है.सच है, वे अपनी सार्वजानिक छवि को लेकर बहुत चौकस रहा करती थीं .उन्हें श्रद्धांजलि
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