डायरी : साहस और
डर के बीच
लेखक: नरेन्द्र मोहन
प्रथम संस्करण :
2018
प्रकाशक :
संभावना प्रकाशन, हापुड़-245101
मूल्य : रू 450
|
डायरी में अगर सच्चाई है तो उसका साहित्य से इतर भी महत्व है. एक तरह से अपने समय को देखती परखती एक अंतर्यात्रा.नरेंद्र मोहन की डायरी को परख रहीं मीना बुद्धिराजा.
साहस और डर के बीच
समय और समाज की अंतर्यात्रा
मीना बुद्धिराजा
आज के साहित्यिक परिदृश्य को अगर कथेतर गद्य का समय कहा जाए तो अनुचित नहीं होगा क्योंकि इस दौर में पारंपरिक कथ्य की विधायें पूरी तरह बदल रही हैं, टूट रही हैं और एक-दूसरे मे समाहित भी हो रही हैं. यथार्थ आज बहुत जटिल, अप्रत्याशित है और उसका गहरा दबाव है. साथ ही दूसरे तकनीकी माध्यमों की बहुतायत ने भी इस विधागत बदलाव को संभव किया है. आज बहुत से गद्य लेखक नये प्रयोगों के लिये भी तैयार हुए है और अपनी रचनाओं में इसे अपना भी रहे हैं जो पाठकों में भी लोकप्रिय है. यह कहना बहुत कठिन है कि अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम किस विधा में मिलेगा. रचनाकार की अपनी रुचि, अनुभूति और विषय की व्यापकता-गहराई के अनुसार भी लेखक किसी विधा को चुनता है और यह भी कह सकते हैं कि विषयवस्तु अपनी विधा स्वंय चुनती है. अलग-अलग समय पर यात्रा, आत्मकथा, संस्मरण और डायरी जैसी नयी गद्य-विधाएं भी विशिष्ट संदर्भों में रचना-प्रक्रिया का समर्थ व उत्कृष्ट माध्यम बन सकती हैं. यह किसी भी लेखक के लिएसर्वोत्तम विकल्प और कलाकृति की स्वायत्तता है.
पुस्तक के अलग- अलग अध्यायों में विभाजित शीर्षक समय और वर्ष के क्रमानुसार लेखक के रचनात्मक कर्म, साहित्य,सिनेमा, रंगमंच, कविता , कला, संस्कृति और राजनीति के सभी माध्यमों की हलचल, सामयिक गतिविधियाँ, सभा-संगोष्ठियाँ यहाँ दर्ज़ हुई हैं जिनके साथ ही एक रचनाकार के रूप में लेखक की सृजन से जुड़ी वैचारिक-भावनात्मक बेचैनियाँ, ज्ञान और संवेदना के स्तर पर उनके अनुभव और साहित्यिक मित्रों से की गई बातें, चर्चाएँ और स्मृतियाँ डायरी को मौलिक और रोचक भी बना देते हैं. यहाँ काल के अंतरालों में सूत्र की तरह बंधे आत्म-कथन, संवाद और आत्म-स्वीकृतियों के दायरे इतने व्यापक और समसामयिक हैं कि पाठक भी आश्चर्यजनक तरीके से उनसे आत्मीय संबंध जोड़ लेता है.
आज के साहित्यिक परिदृश्य को अगर कथेतर गद्य का समय कहा जाए तो अनुचित नहीं होगा क्योंकि इस दौर में पारंपरिक कथ्य की विधायें पूरी तरह बदल रही हैं, टूट रही हैं और एक-दूसरे मे समाहित भी हो रही हैं. यथार्थ आज बहुत जटिल, अप्रत्याशित है और उसका गहरा दबाव है. साथ ही दूसरे तकनीकी माध्यमों की बहुतायत ने भी इस विधागत बदलाव को संभव किया है. आज बहुत से गद्य लेखक नये प्रयोगों के लिये भी तैयार हुए है और अपनी रचनाओं में इसे अपना भी रहे हैं जो पाठकों में भी लोकप्रिय है. यह कहना बहुत कठिन है कि अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम किस विधा में मिलेगा. रचनाकार की अपनी रुचि, अनुभूति और विषय की व्यापकता-गहराई के अनुसार भी लेखक किसी विधा को चुनता है और यह भी कह सकते हैं कि विषयवस्तु अपनी विधा स्वंय चुनती है. अलग-अलग समय पर यात्रा, आत्मकथा, संस्मरण और डायरी जैसी नयी गद्य-विधाएं भी विशिष्ट संदर्भों में रचना-प्रक्रिया का समर्थ व उत्कृष्ट माध्यम बन सकती हैं. यह किसी भी लेखक के लिएसर्वोत्तम विकल्प और कलाकृति की स्वायत्तता है.
लेखक
अपनी कला की आज़ादी खुद रचता है और उसे सर्वश्रेष्ठ प्रेरणा जीवन से मिलनी चाहिए और
वही उसका आधार और जड़ें होनी चाहिये. इससे बाहर कितनी भी चमक-दमक हो वह विषय-वस्तु
के निर्वाह में बईमानी की क्षतिपूर्ति नहीं कर सकती. जीवन के यथार्थ की तरफ
रचनाकार को हमेशा मुड़ना पड़ता है. इस प्रक्रिया में उसे सामाजिक-सांस्कृतिक अभिरुचि
के उत्स को पकड़कर समकालीन विराट विमर्शों की निर्मिति तक पहुंच अपने निज़ी अनुभवों
से उसे अधिक प्रासंगिक और प्रामाणिक बनाना होता है. वर्तमान हिंदी गद्य के
परिदृश्य में अपनी सतत रचनात्मक यात्रा में कवि, नाटककार और आलोचक के रूप में विख्यात
डॉ नरेन्द्र मोहन एक ऐसे ही विशिष्ट और सशक्त हस्ताक्षर हैं जिन्होने प्रत्येक
विधा में नए प्रयोग करते हुए नए विमर्शों तथा सृजन-चिंतन के नवीन आधारों की खोज की
है. अपने प्रमुख कविता संग्रहों जैसे- इस
हादसे में, एक अग्निकांड जगहें बदलता, शर्मिला इरोम तथा अन्य कविताएँ रंग दे
शब्द
में वे नए अंदाज़ मे कविता की परिकल्पना करते हैं. प्रसिद्ध नाटकों- कहे कबीर
सुनो भाई साधो, सींगधारी, नो मैंस लैंड,
मि.
जिन्ना, मंच अंधेरे में हर बार नयी वस्तु और दृष्टि की तलाश
करते हैं. साथ ही नयी रंगत में ढली उनकी रचनाएँ ‘साये से अलग’-(डायरी) फ्रेम से बाहर आती तस्वीरें (संस्मरण)
मंटो ज़िंदा है (जीवनी) ‘कम्बख्त निंदर’( आत्मकथा 2013) और ‘क्या हाल सुनावाँ’( आत्मकथा 2015) ने इन सभी विधाओं को
बिल्कुल नए मायने दिए हैं. उनके नाटक, जीवनी और कविताएं विभिन्न भारतीय
भाषाओं और अंगेजीं में भी अनूदित हो चुकी हैं. वे कई प्रतिष्ठित राष्ट्रीय
पुरस्कारों से सम्मानित साहित्यकार हैं. विचार कविता और लम्बी कविता पर गहन विमर्श
के साथ ही अपने समय के सरोकारों पर चिंतन करते हुए बहसतलब मुद्दों को गद्य में प्रस्तुत करना उनकी संपूर्ण
रचनात्मकता का केंद्र बिंदु है.
इसी
अनवरत सृजनात्मक यात्रा में नरेन्द्र मोहन की नवीनतम ‘डायरी’- ‘साहस और डर के बीच’ शीर्षक पुस्तक के रूप में अभी हाल में
ही प्रतिष्ठित ‘संभावना प्रकाशन’ हापुड़से प्रकाशित हुई है. यह हमारे समय-समाज
का एक बेचैनी भरा और जरूरी दस्तावेज़ है और इस मायने में यह पाठकों के लिए समकालीन
वैचारिक मुद्दों और सरोकारों को नज़दीक से जानने के लिए अनिवार्य पुस्तक है. यह
डायरी लेखन के रूप में लेखक के आत्मसंघर्ष का एक सुदीर्घ महावृतांत है जिसे
उन्होने पूरी ईमानदारी और संयम से रचा है. इस महत्वपूर्ण पुस्तक में 2010 से 2017
तक के लेखक के अनुभव क्षणों की अभिव्यक्ति का कोलाज़ है. सच की राह पर बिना डरे
कला-संरचनाओं, साहित्य, समाज और राजनीति के बीहड़ में प्रवेश
करती घटनाओं और तथ्यों के साक्ष्य के साथ समाज और राज्य पर एक साफ,
निष्कपट-
निडर आवाज़ की प्रस्तुति के रूप में यह एक अनूठी और प्रामाणिक पुस्तक है. यह डायरी
आज के इस उथल-पुथल भरे समय में सभी दबावों, अंतर्बाह्य तक़लीफों की कठिन प्रक्रिया
से होते हुए मानो रचनाकार के भाव-जगत से पाठकों का अंतरंग साक्षात्कार कराती है.
पुस्तक के अलग- अलग अध्यायों में विभाजित शीर्षक समय और वर्ष के क्रमानुसार लेखक के रचनात्मक कर्म, साहित्य,सिनेमा, रंगमंच, कविता , कला, संस्कृति और राजनीति के सभी माध्यमों की हलचल, सामयिक गतिविधियाँ, सभा-संगोष्ठियाँ यहाँ दर्ज़ हुई हैं जिनके साथ ही एक रचनाकार के रूप में लेखक की सृजन से जुड़ी वैचारिक-भावनात्मक बेचैनियाँ, ज्ञान और संवेदना के स्तर पर उनके अनुभव और साहित्यिक मित्रों से की गई बातें, चर्चाएँ और स्मृतियाँ डायरी को मौलिक और रोचक भी बना देते हैं. यहाँ काल के अंतरालों में सूत्र की तरह बंधे आत्म-कथन, संवाद और आत्म-स्वीकृतियों के दायरे इतने व्यापक और समसामयिक हैं कि पाठक भी आश्चर्यजनक तरीके से उनसे आत्मीय संबंध जोड़ लेता है.
यह
पुस्तक डायरी के बहाने हमारे समकालीन समय के सरोकारों को वृहद और आंतरिक रूप से
जानने की कोशिश है. एक रचनाकार के जीवन के आत्मसंघर्ष और बहुआयामी दृष्टि का जहाँ
तक प्रश्न है वह इस डायरी का अनिवार्य हिस्सा है जिसका आधार है- सृजन का नेपथ्य और
रचना प्रक्रिया का विमर्श. इसे वृहत मानवीय प्रश्नों से जोड़ते हुए जिस संशय, संदेह, बेचैनी और तनाव से उनका बार- बार सामना होता है
उसमें कहीं भी कोई विभाजक रेखा उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में नहीं दिखाई देती जो
इस डायरी की विशेष उपलब्धि है.
पुस्तक
में विभिन्न शीर्षकों के अंतर्गत जिनमें सात वर्षों के कालखंड की गतिविधियों का
लेखा-जोखा ही नहीं है. वह लेखक की संवेदना
और वैचारिकता के यथार्थ में स्पंदित होकर पाठकों की चेतना का हिस्सा भी बन जाता है.
प्रतीकात्मक अर्थों में ये सभी भाग अपने साथ विस्मृति के विरुद्ध स्मृतियों का हाथ
थामकर इतिहास से वर्तमान में आवाजाही करते रहते हैं और अंदर से बाहर जुड़ने की यह
प्रक्रिया निरतंर चलती रहती है. लेखक को बार- बार अपूर्णता की तरफ लौटना पड़ता है
टुकड़ों- टुकड़ों में जीवन की समग्रता को समझने के लिए.
मेरे
घर अंधकार जड़ा ताला, फ्रेम से बाहर जाती ध्वनियाँ, ज़िंदगी और नाटक के बीच,
किरदार
निभाते हुए, आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं अगर...,
साहस
और डर के बीच, बात करनी हमें मुश्किल..,
खुद
को खाली होते देखना, हरदम तलाश हमें नए आसमाँ की है, बेचैन रूह का तनहाँ सफर,
कोहराम:
भीतरी-बाहरी, जितना बचा है मेरा होना,
एक
सी बेचैनियाँ यहाँ भी वहाँ भी, कल और आज…,
कभी
खुद पे कभी हालात पे... कितने ही गहन अर्थ संकेतों से जुड़े इन अध्यायों में बहुत से समकालीन
प्रश्नों और सुलगती खामोशी- सन्नाटे के पीछे भौतिक और मानसिक संघर्षों के अनेक
स्तर हैं. इनमें उनके जीवन के अनेक रोमांचित कर देने वाले अनुभव,
रचनात्मक
स्वतंत्रता और आत्म सम्मान के लिए आखिरी हद तक दृढ़ता तथा चुनौतियों से अविराम
मुठभेड़ की भी ईमानदार अभिव्यक्ति है. लेखक के विचारों, भावों और आकाक्षांओं के सूत्रों व
उतार- चढ़ाव के बीच अभिव्यक्ति का जोखिम और रचनात्मक विवेक के अनेक प्रसंग बहुत
जीवंत बनकर पाठकों के रूबरू आते हैं. यहाँ रचनाकार का विविध और बहुस्तरीय संवेदना
जगत है जिसमें से उभरता हुआ उनका अपना एक वजूद उपस्थित होता है.
इस बहुमूल्य
डायरी में अनेक भावुक स्मृतियाँ भी हैं और हताशा तथा विचलित करने वाले यथार्थ के
बावज़ूद सही और सच को लिखने की प्रतिबद्धता भी जो स्पष्टरूप से सामने आती है. सन 47
के विभाजन का दर्द, लाहौर से जुड़ी यादें और इस दर्द के दंश
के बीच ‘मंटो’का होना और भी मानीखेज़ है. विश्व-सिनेमा
पर सार्थक चर्चा से लेकर भारतीय रंगमंच की गहरी पकड़, नासिरा शर्मा,
इरोम
शर्मिला से होते हुए तेलगु कवयित्री वोल्गा की कविता में स्त्री-विमर्श और अस्तित्व
के संघर्ष, अस्मिता थियेटर और चित्रकला से लेकर नृत्य-
नाटक की गंभीर प्रस्तुतियों, दलित और आदिवासी साहित्य तथा समकालीन
युवा-पीढ़ी की कविता, साहित्य के नये प्रयोगों पर सार्थक संवाद-विमर्श
सभी विषय अंतर्वस्तु के रूप में सजीव होकर पाठकों तक आते हैं. पंजाब,जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, मुम्बई की साहित्यिक यात्राएँ-चर्चाएं, रवींद्र कालिया, सुमन राजे, सुनीता जैन,
विष्णु
प्रभाकर, अमृता प्रीतम, महीप सिहं,
रोहित
वेमुलाको याद करते हुए तथा अग्निशेख्रर की कविताएं, गोविंद निहलानी,
सईद
मिर्ज़ा से कश्मीर में सिनेमाके वर्तमान
स्वरूपपर चर्चा, समकालीन रचनाकारों-मित्रों पर भी बेबाक बातचीत
इस डायरी को विशिष्ट बनाते है. लेखक द्वारा अपने प्रिय मित्र हिंदी और डोगरी के
प्रसिद्ध लेखक-फिल्मकार वेद राही को समर्पित यह पुस्तक सभी कला-माध्यमों की गहरी
परखकरती है.
अपनी
रचना-प्रक्रिया और मानसिकता के विषय में नरेन्द्र मोहन जी का मानना है कि सृजन में
उनका अपना स्वतंत्र स्वर, अपना मुहावरा और नज़रिया बहुत महत्व
रखता है. जीवन में आत्मस्वीकृतियों और आत्मालोचन करते हुए सीमित पूर्वाग्रहों और
भय-आशंकाओं को नकारते, प्रतिकूल समय और परिस्थितियों को,
साहित्यिक
शत्रुता, इर्ष्या-प्रतिशोध को भी उन्होनें सहा है. इसमें
उनका और निंदंर (आत्म) का भीषण द्वंद्व भी बड़ा दिलचस्प है. अपना होते हुए भी ‘दूसरा’ वह बीच-बीच में मुँह उठाए चला आता है-
कई स्वरों-सरोकारों से भरपूर यह द्वंद्व ही डायरी का केंद्रीय मेटॉफर है! साहित्यिक
सत्ता- संस्थानों, गुटबाजियों,
दलबंदियों
और गिरोहों के प्रति उन्हे हमेशा विरक्ति रही लेकिन साहित्यिक आंदोलनों में सक्रिय
भागीदारी किसी विचारधारा से बंध कर नहीं बल्कि जनप्रतिबद्धता,
सच की
निर्भीक अभिव्यक्ति से रही. सभी अवरोधों और मुश्किलों से जूझते हुए उन्होनें अपनी
दृष्टि को एक नई धार दी है. इस जीवन दर्शन की बानगी पुस्तक के इस उल्लेखनीय अंश
में देखी जा सकती है-
"लाहौर की नदी रावी को अपने भीतर महसूस करता रहा हूँ मगर यह क्या उस नदी को सूखते हुए देखता हूँ निचाट सूनेपन में अपने भीतर....
दिल्ली में रहना कोई दिल्लगी नहीं है यारों. आखिर देश की राजधानी है .. रही होगी कभी यह रेशमी नगरी, आज इसकी आन, बान और शान के क्या कहने ! बड़ी बड़ी संगोष्ठियाँ और लोकार्पण यहां होते रहते हैं.किताबों की सबसे बड़ी मंडी. जलते-जलते प्रशंसा करते, हँसते-हँसते छुरा घोंपते हुए लेखकों की यहाँ हज़ारों किस्में हैं और चुप्पी की साज़िश के कहने ही क्या ! उन अदाकारों की बात ही न उठाइए जो इस कला से काटते हैं कि खून का एक कतरा न गिरे और आप लुढ़कते नज़र आएं.
उँचाइयाँ नापी हैं कई बार. झटके से नीचे गिरा हूँ कई बार्. उड़ती-उड़ती पतंग को जैसे कोई खींच ले जाए या काट दे. मैं भी नई से नई पतंग को उड़ाने से बाज़ कहाँ आया हूँ? इस दौर में कौन बचेगा ? आसमान को भेदती चीख के साथ गिरेगा-नो मैंस लैंड पर मंटो की तरह या शर्मिला इरोम और विनायक सेन की तरह जेल में झेलेगा यातनाएँ."
इस
पुस्तक की सृजनात्मक बेचैनी लेखक के लिए एक तरह की सुलगती खामोशी की तरह है जिसमें खुद से कई सवाल हैं और जो किन्हीं खास
क्षणों में सिर चढ़कर बोलती है. जैसे एक पीड़ा, एक पैशन, एक थ्रिल-रोमांच,
तलाश
जिसे आप रोक नहीं पाते, जिसके बिना न जी पाते हैं न मर पाते हैं. यह
डायरी के रूप में एक अंदरूनी स्पेस है - एक भटकाव जहाँ आप एक साथ जीते-मरते हैं.
एक सपने को बचाए रखने की कोशिश जो यहाँ सभी कलाओं में साँझी है. साहित्य की किसी भी
विधा में लिखते हुए वे इस सपने का, स्पंदन का और अभिव्यक्ति की छटपटाहट का
सामना करते हैं. ऐसे कितने ही वाक्य और प्रसंग इस डायरी में बिखरे पड़े हैं जिनमें
एक रचनाकार सृजन के एकांत और अपने भीतरी संघर्ष को पाठकों के सामने उजागर कर रहा
है. कितनी वेदनाओं, अनुभवों और यात्राओं से गुजरना और उन्हें दर्ज़
करना पड़ता है तब जाकर एक साहित्यिक कृति का जन्म होता है. स्मृतियों के कई बिम्ब, टिप्पणियाँ, जीवन के बीहड़ रास्तों की तकलीफें और कभी-कभी
इंसान के तौर पर अपने आस-पास को समझने की दृष्टि भी इस डायरी को प्रभावशाली रूप
देती है. सशक्त, उत्कृष्ट गद्य-शैली और जीवंत मर्मस्पर्शी
अभिव्यक्ति इस डायरी को पाठकों के लिए नायाब बनाती है.
आवरण
पृष्ठ कलात्मक और प्रतीकार्थ में जीवन और मृत्यु के बीच के संघर्ष में उस आलोक की
स्थापना है जो अंधेरों के बावज़ूद क्षितिज़ पर उदित होता है. उपर से सरल दिखते हुए
भी इस डायरी के प्रत्येक पल में अतीत और वर्तमान के विस्तार की गहन सघन
अंतर्यात्रा है जिसमें गतिशीलता है, प्रवाह है,
दृश्य
और कलात्मक ध्वनियां हैं, रोचक घटनाओं का कोलाज़ है. एक जरूरी
पुस्तक के रूप में समकालीन गद्य में इसके महत्व को तय करती इसी डायरी में मौज़ूद
ब्राज़ीली कवयित्री मार्था मेदेरस की संवेदनशील कविता (you
start Dying slowly ) के माध्यम से भी इसे समझा जा सकता है-
आप धीरे धीरे मरने लगते हैं, अगर आप:
करते नहीं कोई यात्रा
पढ़ते नहीं कोई किताब
सुनते नहीं जीवन की ध्वनियाँ
करते नहीं किसी की तारीफ
अगर आप नहीं करते हो पीछा किसी स्वप्न
का
तब आप धीरे धीरे मरने लगते हैं !
_____
मीना बुद्धिराजा
meenabudhiraja67@gmail.com
बहुपयोगी लेख ।
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