परख : इन हाथों के बिना (नरेन्द्र पुण्डरीक) वाज़दा ख़ान











वरिष्ठ कवि नरेन्द्र पुण्डरीक का यह पाचवां संग्रह है जिसे बोधि प्रकाशन ने सुरुचि से छापा है. इसकी समीक्षा कवयित्री  और चित्रकार वाज़दा ख़ान की कलम से .







इन हाथों के बिना                         
वाज़दा ख़ान






यूं तो किसी भी सृजनशील मन की दुनिया वही होती है जो बाकी सभी लोगों की होती है. परन्तु जो बात सृजनशील व्यक्तित्व या शख्सियत को बाकी लोगों से अलग करती है, खास बनाती है वह है उसका देश, काल, समाज, आसपास की उपेक्षा, दबाव, मजबूरियां व तमाम समस्याओं को देखने समझने और उन्हें महीन ढंग से पकड़ने का नजरिया और शिल्प कौशल. किसी भी सृजनात्मक विधा के लिये चाहे कविता हो, कहानी हो, चित्र हो, के लिये अन्त:करण की सृजनात्मक बुनावट, गहरी सूक्ष्म दृष्टि और उतनी ही गहराई में जाकर महसूस कर पाने की क्षमता अपने में बेहद महत्वपूर्ण कारक है.

दुनिया में जहां व्याप्त क्रूरतायें, कुरीतियां, विषमतायें, भेदभाव, अमानवीय व्यथा से उपजी छटपटाहट , पीड़ा और सब कुछ अच्छे रूप में बदल देने की चाहत रचनाकार को सृजन के कटघरे में खड़ा करती है जहां वह अपने आप को, अपनी आत्मा को पीड़ा से, छटपटाहट से मुक्त करता है. एक तरह से कवितायें कभी कभी मुझे कन्फेशन लगती हैं. कई बार इन्सान कितना विवश होता है कुछ न कर पाने के लिये सिवाय महसूस करने के. तब जैसे ये विधायें एक तरह से कन्फेशन का जरिया बन जाती हैं. ऐसे में नरेन्द्र पुण्डरीक का नया कविता संग्रह "इन हाथों के बिना" निश्चित रूप से पाठकों की चेतना को आन्दोलित करता है. संग्रहीत कवितायें दुनिया, समाज, व्यक्ति और खुद कवि के संघर्ष की आवाज है, आईना हैं, जरूरत हैं. इनमें हर अभिव्यक्ति का रंग बहुत गहरा व असरदार है.

कवि की संवेदनशीलता, छटपटाहट और जिजीविषा के रंगों के विविध शेड्स और टोन कविताओं में पूरे अहसास के साथ उभर कर आते हैं. कवितायें कल्पना की उड़ान भर नहीं बल्कि राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक समस्याओं व यथार्थवादी जटिलताओं से बराबर रूबरू होती हैं. जिनसे व्यक्ति की चेतना लगातार उलझती, दरकती और टूटती रहती है. सृजनशील मन का संघर्ष वैसे बहुत मारक व प्रभावपूर्ण होता है क्योंकि वह अपने भीतर के संसार और बाह्य संसार दोनों स्तर पर तमाम सकारात्मक, नकारात्मक अन्तर्द्वन्दों से जूझता चलता है. कोई भी रचना मानवीय सरोकारों, मूल स्रोतों व प्रश्नों से बावस्ता हुये बगैर अपने वजूद को व अपनी सार्थकता तो रेखांकित नहीं कर पाती. कविताओं में व्यंजित पीड़ा, दुख इत्यादि अनुभूति का पाठक की पीड़ा से तादात्म्य स्थापित हो जाये और पाठक रचनाओं को पढ़कर बेचैन हो जाये तो कविता अपनी सार्थकता पा लेती है. हर रचनाकार बनी बनायी लीक व परिपाटी को तोड़कर उन्हें नया अर्थ देने की कोशिश करता है. कुछ नया मौलिक रचना चाहता है. रचनाकार हमेशा परिवर्तनकामी भूमिका में होता है. सच्चे रचनाकार के भीतर की दुनिया, उसकी अपनी छटपटाहट, संवेदनायें वाह्य जगत की संवेदना और छटपटाहट बन जाती है. निश्चित रूप से व्यष्टि से समष्टि तक पहुंचने तक की यात्रा होती है यह.

"इन हाथों के बिना" कविता संग्रह की कवितायें जमीन की कठोर सच्चाइयों, फलसफों व संघर्षों से उपजी कवितायें हैं. इन कविताओं में मानवीय अनुभवों, जन सरोकारों का जो वितान है वह उनमें निहित सूक्ष्मतम अर्थों को गहनता से रेखांकित करता है जो नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताओं की खास विशिष्टता बन जाती है. कवितायें ठहरकर सोचने के लिये विवश करती हैं कि क्या हम वास्तव में इतना संवेदनाशून्य होते जा रहे हैं कि सम्बन्धों के अर्थ हमारे लिये तभी तक हैं कि जब तक वो हमारे लिये फायदेमन्द हैं. 'मां' पर लिखी कविताओं में दुख, आक्रोश, कटाक्ष और करुण अभिव्यक्ति की रेखायें ऐसे रूप या शबीह का खाका खींचती हैं जो इस लोक समाज की क्रूरतम सच्चाइयों में से एक जान पड़ती है. ये कवितायें जैसे पाठक के मन की अतल गहराइयों में जाकर बस जाती हैं. मां लफ़्ज जिससे सारी कायनात जुड़ी है, जिसके मातृत्व के बगैर ये दुनिया अपूर्ण है. मां का निश्छल स्नेह जो सदैव अपनी सन्तानों के साथ बना रहता है सुरक्षा का कवच सा. हर मां चाहती है कि उसकी सन्तान सर्वश्रेष्ठ हो, उसे कभी कोई कष्ट न हो. मां ही एक ऐसा शाश्वत सम्बन्ध है जिसमें किसी भी प्रकार का प्रतिफल पाने की चाह अपने बच्चे से नहीं होती. संसार का ऋण तो चुकाया जा सकता है परन्तु मां के ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता. मां के बिना हमारा कोई अस्तित्व ही न होता इस दुनिया में. कितनी गम्भीर व गहरी संवेदनशील पंक्तियों से कवि मां के वजूद को बयान करता है-

"हम भाइयों के बीच पुल बनी थी मां
जिसमें आये दिन दौड़ती रहती थी बेधड़क बिना किसी हरी लाल बत्ती के
हम लोगों को छुक छुक पिता के बाद हम भाइयों के बीच पुल बनी मां
अचानक नहीं टूटी धीरे धीरे टूटती रही
हम देखते रहे और मानते रहे कि बुढ़ा रही है मां"

मां का अकेलापन पुत्रों द्वारा किंचित महसूस न कर पाना केवल यह मानना कि आयु बढ़ने के साथ धीरे धीरे बढ़ती उसकी असहायता शारीरिक क्षरण है और मानसिक क्षरण जो उसके अकेलेपन से बढ़ रहा है पर ध्यान न देना. जैसे वृद्ध होना कोई गुनाह की श्रेणी में आता है. यह बताता है कि आज के दौर में सन्तानें किस कदर अपनी अपनी दुनिया में मसरूफ होती जा रही हैं कि मां की भी अपनी कुछ पसन्द या नापसन्द हो सकती है या अपने अकेलेपन को उनके साथ बांटना चाहती है. उनके साथ मिल बैठकर थोड़ी देर बतियाना चाहती है जैसे वे इसे समझना ही नहीं चाहते.

"मुझे ऑफिस से आया देख
बदल जाती थी मां के चेहरे की रंगत."

पुल बनी मां हर भाई के हिस्से में थोड़ा थोड़ा है, जैसे पुल दो हिस्सों को जोड़ता है. इसी तरह जैसे उसका (मां) अपना सम्पूर्ण वजूद ही अब स्वयं अपने लिये नहीं है. वैसे भी मां का वजूद कभी अपने लिये होता ही नहीं है. वह परिवार के सदस्यों के बीच खण्ड खण्ड में बंटी रहती है. उसके संसार के केन्द्र में केवल पति व सन्तानें होती हैं. उनसे इतर और कुछ भी नहीं. मगर जब वही सन्तानें अपने पैरों पर खड़ी हो जाती हैं. जीविकोपार्जन हेतु बाहर की ओर रूख करती हैं. उनकी अपनी दुनिया बनती जाती है, जिसमें मां नामक प्राणी अमा नहीं पाती, वही मां जो कल तक उनका जीवन थी. उनके पंख निकले, फड़फड़ाये, उड़ चले और दुनिया बदल गयी उनकी. मगर मां का संसार नहीं बदलता. बदस्तूर मन, प्राण से अपनी संतानों से जुड़ी रहती है. मां के प्रति कवि ये संवेदनशीलता पाठकों को कितना भावुक बनाती है कि उसके बार बार टूटने पर भी, किसी को कोई एहसास नहीं होता-

"मां टूटती रही
मां का टूटना कभी नहीं देखा हमने
पहली बार मां तब टूटी थी जब
हम प्रवासी पक्षी की तरह आते और लौटते रहे
चौथी बार वह तब टूटी थी
जब रहती हुयी हमारे घरों में
उसने महसूस किया था बेघर होना."

वृद्धावस्था में अकेलेपन का सन्त्रास झेलती मां की पीड़ा, सन्तानों के भरे पूरे परिवार में उसकी स्थिति को, दर्द को बयान करती कवितायें न केवल गम्भीरता से सोचने को विवश करती हैं वरन् सन्तानों द्वारा अपने वृद्ध माता पिता के प्रति उत्तरदायित्व पर सवाल उठाती है. बानगी देखें-
शीर्षक- "अब रह गयी है मां"

"मां के जेवर इस तरह बिना बांटे बंट गये
अब रह गयी मां जो बांटे नहीं बंटती है
छुटही गाय सी कहीं नहीं अटती है."

जैसे मां मां नहीं घर का कोई फालतू सामान हो गयी हो

"मां चुपचाप धीरे धीरे नि:शब्द जल रही थी
जैसे मां ने कभी अपने दु:खों की भनक
किसी को नहीं लगने दी."

वास्तव में मांयें ऐसी ही होती हैं जो अपनी दुख, तकलीफों, इच्छाओं, ख्वाहिशों की भनक किसी को नहीं लगने देतीं. परन्तु परिवार के हर सदस्य की इच्छाओं, आकांक्षाओं का बखूबी से ख्याल रखती हैं अपने पूरे समर्पण व मनोयोग से. मां पर लिखी कवितायें अपनी सम्पूर्ण अभिव्यक्ति में भावों की तीव्रता का प्राचुर्य रखती हैं, जो बिना किसी लाग लपेट के कवि की सच्ची व सहज संवेदनशीलता है. मां के अपने दुख को, मां के प्रति दुख को, उसके सम्पूर्ण जीवन में बिंधे दुख को कवि ने जैसे अणु अणु महसूस किया हो जिसमें सम्पूर्ण समाज की एक बदसूरत सच्चाई ध्वनित होती है. निश्चित रूप से मां का हमेशा के लिये जाना एक युग का चला जाना होता है जिसकी ममत्व भरी छांव में हम पले बढ़े, सुरक्षित महसूस करते रहे.

"पहले पिता गये फिर गयी मां
जब गयी मां तो लगा आंगन से उखड़ गयी गुलमेंहदी
मां गयी तो लगा बोली चली गयी
शब्द चले गये
जिनसे रोज बनती थी भाषा
मां गयी तो आंगन में आने वाली चिड़िया चली गयीं."

यह कैसी विडम्बना है मानव मन की, जब इन्सान करीब होता है तो उसका उतना महत्व समझ में नहीं आता जितना कि उनके हमेशा के लिये जीवन से चले जाने के बाद आता है. फिर भी मां तो मां होती है किसी के भी जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और निश्छल सम्बन्ध. मां का न होना जीवन को कहीं बहुत गहरे से उदास करता है. एक खालीपन सा आ जाता है जिसकी कोई भरपाई नहीं. स्मृति बनती यादों में समाती मां बराबर तमाम बातों के लिये याद आती है-

"पत्नी ने बताया कि पिछले साल होली में मां घर में थी
घर है मां नहीं है घर में
मां बिना घर
घर नहीं लगता."

अपने जीवन में व्यस्त बच्चों से मां को कोई शिकवा शिकायत नहीं होती. चाहे वे उसकी खोज खबर लेते हों या न लेते हों. लेकिन कभी कभार जब वे मिलने आ जाते हैं तो जैसे मुरझाई हुई मां प्राण शक्ति पा जाती हो-

"भूले भटके अक्सर राह पाये सा एक छोटा ही आता मिलने
बहुत खुश हो उठती मां
चूजों के सामने चिड़िया सी चहकती मां
मां का चहकना देख लगता अभी बहुत दिन चलेगी मां."

अपनी वृद्ध अवस्था की अशक्तता के बावजूद भी मां पुत्र को किसी भी विपत्ति में या कठिनाई में पड़ा देखकर ढांढस देती है-

"मां को जितनी मजबूती से मैं थामता
उससे कहीं अधिक मजबूती से मुझे थाम लेती मां
मां का थामना देखकर अक्सर मुझे लगता
अन्त अन्त तक बची रहती है मां में
बेटे को थामने की ताकत."

इसके बावजूद भी माता पिता के वृद्धावस्था की असहाय स्थिति में पहुंचते ही घर के सभी बेटे एकत्र होकर हिस्सा बांट लेने की सुगबुगाहट करने लगते हैं. मानवीय सुभाव का कितना क्रूर पक्ष है ये. जिसकी प्रवृत्ति समाज में निरन्तर बढ़ती जा रही है. यदि इस तरह की बातें कहीं से सुनायी नहीं पड़ती तो कवि को लगता है जैसे दुनिया में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. जैसे ये कोई परिपाटी या परम्परा हो यानी अब समय कितना बदलता जा रहा है कि यदि घर के सभी सदस्यों में एका, सौहार्द्र, भाईचारा, शान्ति बनी रहती है. और सम्पत्ति, जायदाद के बंटवारे को लेकर कोई विवाद या लोभ-लालच नहीं दिखायी पड़ता तो कवि को ऐसा प्रतीत होने लगता है जैसे कहीं कुछ ठीक नहीं चल रहा है-

"दुनिया भी ऐसी है कि यदि भाई का भाई से बंटवारा न होता
लगता है दुनिया में कहीं कुछ जरूर गड़बड़ सड़बड़ चल रहा है."

आज के युग में जहां अपने अपने स्वार्थ, अपने अपने हित चिन्तन में मनुष्यता इतनी रम चुकी है. किसी घर के भीतर सम्पत्ति को लेकर विवाद न होना, सहिष्णुता बनी रहना सचमुच नयी सी बात लगती है, असहज सी लगती है. निश्चय ही समाज, परिवेश, परिवार के समूचे ढांचे में इस तरह के खुदगर्ज बदलाव ज्यादातर जगहों पर देखा जा सकता है. चाहे वह किसी भी वर्ग, जाति से सम्बन्ध रखता हो.

उपभोक्तावादी वातावरण के इस दौर में भौतिक वस्तुओं का आकर्षण इस कदर हावी हो चुका है कि इनके बिना इन्सान अब बिल्कुल नहीं रहना चाहता. और इन्हें प्राप्त करने के लिये चाहे उन्हें कोई भी रास्ता अपनाना पड़े. अमूमन सभी परिवारों में इस तरह का दृश्य देखने को मिलता है-

"जेवर के मामले में जो बहू होती है जितनी तेज नज़र की
उसी अनुपात में उसी के हाथ लग जाते हैं
सो एक ने झटक ली थी पहले ही मां के गले की जंजीर
दूसरी ने धीरे धीरे सरका ली मां की अंगूठियां
तीसरी ने अच्छी लगने के बहाने से एक दिन ले लिया मां के टप्स."

भारतीय समाज में अपने ही बच्चों के द्वारा माता पिता के वृद्धावस्था की दशा-दुर्दशा का बड़ा ही कटु और यथार्थ चित्रण इन कविताओं में बड़े महीन ढंग से अभिव्यक्त हुआ है. कविताओं के माध्यम से कवि जो ये तमाम आहट सुन रहा है या महसूस कर रहा है, क्या यही है कलियुग? कि न केवल घर परिवारों में वरन् हर स्थान पर द्वेष, स्वार्थ, हिंसा, अशान्ति का दौर दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है. लोगों के बीच असहिष्णुता, हिंसा, मारपीट, मॉब लिन्चिंग आने वाले समय में समाज किस तरह अपनी नींव रखेगा आखिर?

कविता संग्रह में कवितायें शीर्षक अनुक्रम में अलग अलग खण्डों में विभाजित हैं. पहला खण्ड जहां मां पर लिखी कविताओं को समर्पित है वहीं दूसरे खण्ड में कवि अपने बचपन के दिनों को याद करता है. बाल्यावस्था की स्मृतियां समय बीतने के साथ साथ मन के कोष में और मजबूती से दर्ज होती चलती हैं. बचपन जीवन की सबसे मासूम व निर्दोष अवस्था होती है जो किसी भी प्रकार की चालाकियों, भेद-विभेद से परे होता है. कवि अपने समय, परिवेश के ताने-बाने को गढ़ता हुआ कहता है कि उन दिनों गांव के सभी बच्चों की बात, व्यवहार, मेल-मिलाप सब कुछ एक जैसा हुआ करता है, यहां तक कि घर, मकान, खाना और रहन-सहन भी. बच्चों के साफ सुथरे कोमल मन पर किस तरह जातिगत भेदभाव असमानतायें धीरे धीरे घर करने लगती हैं. 'सब एक जैसे थे' शीर्षक कविता में द्रष्टव्य है कि बच्चा जब अपने घर से निकलकर पाठशाला में पहुंचता है तो उसे महसूस होता है कि सब कुछ समान नहीं है. कहीं भीतर असमानता भी बहुत ज्यादा छुपी बैठी है. भेद-विभेद की एक गहरी खाई है.

"स्कूल में आये तो आगे हमें नहीं
उन्हें बैठाया गया
तब हमें मालूम हुआ हम और वे अलग थे."

यदि देखा जाये तो ये कितना पीड़ादायक व चिन्तनीय पहलू है कि इतनी छोटी अवस्था से ही बच्चों के मन अलग-थलग होने की छाप बननी शुरू हो जाती है. समाज में विद्यमान गैर बराबरी का अदृश्य भूत जो मन की परतों में पूरी तरह से मूर्त रूप में छुपा होता है, गाहे-बगाहे या अक्सर महसूस कराया जाता रहता है किसी न किसी रूप में. एक ओर तो जहां गरीब, शोषित, वंचित जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये हाड़तोड़ संघर्ष में डूबा तबका है, तो वहीं दूसरी ओर घोर सामन्ती परिवेश व मानसिकता में पला-बढ़ा तबका. वर्ण व्यवस्था पर आधारित पहाड़ जैसी असमानतायें गांव समाज के भीतर कितनी गहरी जड़ें जमाये बैठी हैं. संग्रह की कई कविताओं में समाज के इस कुरूप चेहरे से हम रूबरू होते हैं-

"जैसे ही बढ़ते थे उनके नाखून
हमारे बाप-दादाओं को असुविधा होने लगती थी
इस पर वे उन्हें उनके हाथ पैर से नहीं
सीधे सीधे सिर काट लेते थे
यह देखकर हमें अजीब सा लगता था
क्योंकि वे हमें अपने जैसे ही दिखते थे."

सचमुच यह कितना अफसोसनाक पहलू है कि आज भी जाति-पांति, वर्ग भेद, अस्पृश्यता की जड़ें कितनी मजबूती से देश में, समाज में विद्यमान हैं. मानव समाज के इतना शिक्षित और तरक्की कर लेने के बाद भी. पर शायद शिक्षित हो जाना ही काफी नहीं होता, जहनियत में बदलाव आना सबसे अहम है. बगैर जहनियत हम कितनी भी तरक्की कर लें, कितना ही आधुनिक हो जायें, कोई मायने नहीं रखता. उपेक्षित, दमित, निर्धन वे शोषित तबके के दर्द को, भूख को कवि अपने अन्तर्मन में बड़ी संवेदनशीलता से महसूस करता है-

"यह वह दिन थे जब वे
स्कूल में भूखे रहने पर भी
पेट से हवा को फुलाये रखकर
हमारे साथ दिन भर पढ़ते थे
तब इन्हें अपनी भूख मारने की कई कलायें आती थी
अक्सर पानी से पेट फुलाकर पहुंचते थे घर."

भूखे गरीब लोगों की दशा पर भला इससे ज्यादा मार्मिक पंक्तियां और क्या हो सकती हैं.

अपने आसपास के वातावरण, समाज, इतिहास को देखने समझने की कवि की अपनी गहरी सूक्ष्म दृष्टि है. कविताओं के जरिये नरेन्द्र पुण्डरीक जीवन के तमाम मुद्दों पर बड़ी संजीदगी से अपनी बात रखते हैं. कहीं कहीं कटाक्ष शैली का प्रयोग करते हैं. वास्तव में संग्रह की लगभग सभी कवितायें लोक अनुभव से उपजी कवितायें हैं. सामाजिक विद्रूपताओं, विडम्बनाओं को सच्चाई के साथ पूर्णतया उजागर करती कवितायें सम्प्रेषणीय हैं. पाठक उन्हें पढ़ते-पढ़ते उनसे खास किस्म की आत्मीयता स्थापित कर लेता है. जो बराबर उन प्रश्नों को सोचने के लिये बाध्य करती हैं जिनसे कवि स्वयं रूबरू होता है.

"हिन्दू जब इतना हिन्दू नहीं बना था
न मुसलमान इतना मुसलमान बना था."

इन पंक्तियों के साथ कवि आजकल होने वाले राजनैतिक चुनाव के बहाने 60 के दशक में होने वाले चुनावों को याद करता है, तो जमीन आसमान का फर्क दिखायी पड़ता है. उस समय चुनावी समीकरण जातिगत वर्ग, धर्म और सम्प्रदाय में इस तरह नहीं उलझे हुये थे, जैसे कि आज सारे चुनावी मुद्दे धर्म, सम्प्रदाय, जाति, वर्ग के इर्दगिर्द ही घूमते हैं. जैसे इस देश में बेरोजगारी, शिक्षा और विकास कोई मुद्दा ही नहीं है. कविता इंगित करती है उस समय लोगों की मानसिकता को इस कदर संकीर्ण और दूषित नहीं किया जा रहा था, तब पूरी मानसिक आजादी थी अपनी बुद्धि, विवेक और तर्क से चीजों को चुनने, बोलने, बैठने और बतियाने की. कोई ऐसा विशेष दबाव या कोई ऐसा पूर्वग्रह भी नहीं था. और न ही राजनीति के चलते धर्मों के बीच आपसी वैमनस्य था. आम जनता अपनी जरूरतों के, रोजमर्रा के कामों में ही लगी रहती. एक दूसरे के सुख दुख में शरीक होती-

"जाति की गाड़ी ठांव ठक्क थी
उसके खींचने वाले कुत्ते कहीं नहीं थे
धर्म की हालत यह थी कि
उसे अपने को चिन्हित करने के लिये
कहीं अनुकृति ही नहीं मिल रही थी."

मगर धीरे धीरे बढ़ते जातिगत वैमनस्य फिर उसमें प्रदूषित होते धर्म की छौंक, सोने पे सुहागा-

"जाति जाति के हल्ले से सोये धर्म की नींद खुली थी
सो जाति तो पहले से ही उठी हुयी थी
अब धर्म भी उठकर खड़ा हो गया
कोढ़ पहले से था अब खाज भी हो गयी."

आज के माहौल में जहां हवा पानी तक को बदलने की कवायद हो रही हो, को रेखांकित करती ये पंक्तियां बिल्कुल सटीक हैं-

"अब सबसे पहले बदलेगा इतिहास
हास-परिहास करते
देशभक्तों के चेहरे में लग जायेंगे गद्दारों के मुखौटे
रातों रात किताबें जीवनियां बदल जायेंगी
वस्तुनिष्ठ में जुड़ जायेंगे कुछ नये प्रश्न
जिनके सही उत्तर किसी के पास नहीं होंगे?"

नरेन्द्र पुण्डरीक न केवल जन सरोकार के कवि हैं, वे चिड़िया, नदी, पेड़-पौधों, नदियों, ऋतुओं, पर्यावरण के लिये भी उतनी ही शिद्दत से संवेदनाओं को महसूस करते हैं. उनके विनष्ट होने की उतनी ही चिन्ता करते हैं. सच है मनुष्य कितना स्वार्थी और आत्म केन्द्रित होता जा रहा है कि वह सिर्फ अपने बारे में ही सोचना चाहता है. अपने आसपास दूषित होते पर्यावरण, पशु, पृथ्वी, पेड़ों की कतई फिक्र नहीं. अपने धर्म, कर्म, सुख-साधन और भौतिक विलास का ही ध्यान करते हुये, उसे बचाये रखने के जतन में सारी उम्र लगा रहता है. धरती का हरापन बरकरार रहे, पर्यावरण स्वच्छ बना रहे. मानव समाज इसकी कोई कोशिश नहीं करना चाहता, न ही ध्यान देना चाहता है. फलत: इसी का नतीजा है कि तेजी से बढ़ता हुआ ग्लोबल वॉर्मिंग. अपनी तमाम तथाकथित दुश्चिन्ताओं के बोझ तले इतना दबा हुआ है मानव कि दुनिया के बारे में, उसकी कोमलता, उसका हरापन बनाये रखने के बारे में सोचने की भी फुर्सत ही नहीं है. उसे अपना दुख, अपना विलाप ही सबसे बड़ा लगता है-

"हमने प्रार्थना की हम निरोग रहें
हमने प्रार्थना की कि हमारा वंश गोत्र बढ़ता रहे धरती में
और हम सुखी रहें."

हम इतने मगन हैं जीवन की भौतिकता व सांसारिकता को लेकर कि हमारे भीतर जो सर्वोत्तम मौलिक प्रतिभा है, प्रखरता है, चिन्तन है. इस सांसारिक आपाधापी में बाहर ही नहीं आ पाता-

"इस तरह हमने अपनी जिन्दगी संवारने की चिन्ता में
हमने कभी सोचा नहीं कि हमारे विचार कितने मर चुके हैं."

हम बिल्कुल नहीं सोचना चाहते, इस देश-दुनिया, जहान, प्रकृति के प्रति हमारी कितनी जिम्मेदारियां हैं. हम कितने ऋणी हैं इनके. धरती ने, प्रकृति ने हमें इतना कुछ दिया है कि हम जी पा रहे हैं, सांस ले पा रहे हैं इस कायनात में. अत: हमारा भी (मनुष्य) दायित्व बनता है कि आने वाली नस्लों को कुछ सकारात्मक, रचनात्मक वातावरण दे पायें. यदि हमारी पुरानी पीढ़ी की पीढ़ी या पीढ़ियों ने ऐसा सोचा होता तो हम सभी शायद मानव गुफाओं में ही होते. यह हर व्यक्ति का कर्तव्य बनता है कि धरती की संवेदनशीलता को बचाकर रखें. उसे हरा-भरा बनाये रखने में सहयोग दें-

"हमने कभी धरती के लिये प्रार्थना नहीं की
कि धरती बनी रहे हरी भरी
न प्रार्थना की कि नदियों में जल बना रहे
पक्षियों के लिये भी हमने प्रार्थना नहीं की कि
वे बने रहें हमेशा धरती में
गुंजाते रहें अपनी बोली बानी का गीत संगीत."

आखिर हर व्यक्ति किसी न किसी लक्ष्य के लिये पृथ्वी पर जन्मा है. यदि मनुष्य प्रजाति इतना समझ ले तो दुनिया में रामराज्य न आ जाये?

"समय से अपने लिये लेते समय
हमने पीछे मुड़कर नहीं देखा कि
दूसरे भी खड़े हैं हमारे पीछे."

"अच्छे होते जा रहे दागों को धन्यवाद" कविता जिसका शीर्षक सर्फ एक्सेल के विज्ञापन से प्रेरित प्रतीत होता है, जिसमें कम्पनी बताती है कि सर्फ एक्सेल ऐसा जादू है कि दाग कितने ही कड़े या जिद्दी हों. सारी की सारी गन्दगी सारे दागों को सिरे से मिटा देती है. कविता की पंक्तियां लगातार दागदार होती जा रही राजनीति पर कटाक्ष है. अपने भ्रमण के दौरान जहां एक ओर कवि अनेक शहरों व स्थानों की चकाचौंध और भव्यता से विस्मित होता है, वहीं दूसरी ओर ऊबड़ खाबड़ रास्तों, कूड़ों के ढेर, नलों से बहता लगातार पानी, प्रदूषित होती नदियों को देखकर कवि बड़े ही व्यंगात्मक लहजे में अपनी बात रखता है-

"धन्यवाद यहां की ऊबड़ खाबड़ सड़कों को
लगातार सूखकर जहरबाद होती जा रही नालियों को धन्यवाद
जगह जगह बहती खून की पनालियों को धन्यवाद."

जनता द्वारा जनता के लिये चुने गये प्रतिनिधि (सत्ता) द्वारा आम आदमी की सुविधाओं का कितना ख्याल रखा जाता है. कवि लगातार अपनी तंज भरी शैली में शुक्रिया अदा करता चलता है-

"जनता से चुने गये पक्ष और विपक्ष को धन्यवाद
लगातार उनके अच्छे होते जा रहे दागों को धन्यवाद."

इंटरनेट, मोबाइल के साथ भागदौड़ से भरे जीवन से भी कवि इत्तेफाक रखता है. वह जिस भी नगर में या जिस किसी भी स्थान पर गया. हर जगह का सारा वातावरण जैसे किसी अजनबियत के एहसास से घिरा हो-

"पूरे देश में इलेक्ट्रॉनिक कीटाणुओं की एक जैसी हवा बह रही थी
धूप का ताप जरूर हर कहीं का कुछ कुछ अलग था.."

आजकल जो साहित्य रचा जा रहा है जिसमें ऐसा मान लिया गया कि कुछ मुद्दे या विषय ऐसे हैं जिनपर कुछ भी लिखा जाये तो भी वह छप ही जाता है, जैसे ये विषय ब्राण्ड हो गये हों. कविता की पंक्तियां हैं-

"मैं लिखता हूं कविता तो अक्सर वह कहानी बन जाती है
हैरान होकर मैं दलित विमर्श और स्त्री विमर्श पर लेख लिखता हूं
जो अगले अंक में छपकर आ जाते हैं."

लोगों की अक्सर शिकायत होती है कि उनकी रचनायें लोग प्रकाशित नहीं करते हैं. जो उन्हें एक विपत्ति की तरह प्रतीत होता है. परन्तु कवि अपने नजरिये से पाता है कि अच्छी व सार्थक रचनायें अब कम लिखी जा रही हैं और यह बात उसे किसी संकट के समान लगती है. कवि का मानना है कि यदि रचना मौलिक, सारगर्भित, अर्थपूर्ण है तो निश्चय ही छपेगी-

"लोग अक्सर कहते हैं कि छपने का संकट है
लेकिन मुझे छपने का संकट कम
रचना का संकट ज्यादा नजर आता है."

वहीं थोक के भाव में, बिना सोचे समझे रचनायें अर्थहीन ढंग से लिखी जा रही हैं-

"रचनायें मुझे प्राय: कबाड़ी बाजार की उन आवाजों की तरह लगती हैं
जिसका मतलब हमपेशा निकाल लेते हैं
बाकी मेरी ही तरह
बीच से गुजर कर खुश हो लेते हैं."

मगर अपने विषय में गहरायी से डूबने वाले और अथक परिश्रम करने वाले को ही अपने जीवन में सफलता प्राप्त होती है. निश्चय ही सफलता सिद्धि की तरह है जिसके लिये बहुत जप, तप और साधना की जरूरत होती है. हर किसी को अपना उद्देश्य स्पष्ट होना चाहिये-

"चलने वाले पांवों में फटती हैं बिवाइयां
तो चलने वाले पांवों में ही
लिपटती है चन्दनवर्णी धूल
चलने वाले पांवों में ही
लदकर आते हैं शब्द."

किसी भी विषय में निष्णात होने के लिये हमें लगातार यात्रा करनी होती है यानी भीतर तक डूबे रहने पड़ता है जो एक तरह से साधना है. तब जाकर कहीं हमें ज्ञान हासिल हो पाता है और जीवन दृष्टि भी. तब कहीं कालजयी रचनायें उद्भूत हो पाती हैं. मगर वहीं कुछ ऐसे असामाजिक तत्व भी होते हैं कूढ़मगज, आसुरी प्रवृत्ति के लोग. यह प्रवत्ति आज से नहीं हमेशा से विद्यमान रही है. इतिहास गवाह है कभी कम तो कभी ज्यादा. क्योंकि कुछ लोगों का अधिक शिक्षित होना, बुद्धिमान होना उन्हें अपने अस्तित्व के लिए खतरे जैसा महसूस होता है-

"मुझे बामियान में खड़े बुद्ध के उन पांवों की याद आ रही है
जिनमें अभी कुछ दिन पहले ही
तालिबानियों ने लगायी थी आग क्योंकि
उन्हें निश्चित हो गया था कि
इन्हीं पांवों में चलकर आये थे वे शब्द
जो हजारों साल भी उनकी नींद को हलकान करते हैं."

अज्ञानी, क्रूर, धर्मान्ध लोगों का तालीम संस्कृति से क्या वास्ता, उन्हें तो अपनी तथाकथित धर्मान्धता, क्रूरता से सब कुछ मिटा देना है. एक ओर तो जहां कुछ लोग पृथ्वी पर उजाला फैलाने के प्रयत्न में लगे हैं कि धरती पर सकारात्मकता बनी रहे. उम्मीद बची रहे तो वहीं बहुत सी विनाशकारी शक्तियां विध्वंस करने, तोड़ने फोड़ने में लगी हैं. विचारों से लेकर सारी कलाओं तक को, मगर कवि की उम्मीद कायम है-

"चलते हुये पांव
हर घेरे को तोड़ते और रचते हुये
चलते हैं अपनी इबारत
जिस पर सृष्टि अपना पहिया रखती है."

लगातार अशान्ति व संक्रमण के इस दौर में खुशियां कम होती जा रही हैं-

"खुशी इतनी कम बची हैं और दुख इतने ज्यादा हैं कि
जब देखो तब टप्प से आकर
पूरे घर में फैल जाते हैं."

सुख-दुख दोनों ही जीवन का हिस्सा है. मगर दुख वाले हिस्से की जिन्दगी जैसे समय बीतने के साथ भी नहीं बीतती. जबकि खुशियों के पल न चाहते हुये भी कपूर की भांति जल्दी ही काफूर हो जाते हैं. परन्तु जब खुशियों पर भी दुख हावी होने लगे तो सम्पूर्ण जीवन दुखमय हो जाता है-

"दुख की स्थिति तो यह है कि
बांटे नहीं बंटता
अपनी ही उंगलियों के पोरों में फंसा रह जाता है."

कवि चाहता है कि जीवन में दुख है तो रहे, लेकिन कम से कम लोगों के सामने तो उसका प्रदर्शन न हो. कम से कम कोई इसका फायदा तो न उठा सके. इसका वैसे भी यह जग की जैसे रीति है, दूसरे के दुख हमेशा लोगों को सुखी करते हैं-

"अपनी ही उंगलियों में फंसे दुख से
कम से कम इतना तो चाहता हूं कि वह नहीं जाना चाहता है तो बना रहे
लेकिन इतना तो करे कि
कोई घर में आये तो
उसे कम से कम दिखे."

कवि बराबर जमाने की फिक्र और बेचैनियां अपने भीतर लिये चलता है. बाजारीकरण के इस दौर में पहले जैसा जमाना अब नहीं दिखायी पड़ता, जब लोगों में अपने अपने काम के प्रति दीवानगी, सब्र, जुनून हुआ करता था. और मेहनत के ईमानदार जज्बे से खुद को बेहतर और बेहतर बनाने की कवायद हुआ करती थी. समय बदलने के साथ साथ अब इतना कुछ बदल चुका है कि अब यही कोशिश (मूल भाव से) इतर चीजों के लिये होती है कि कैसे अपनी छवि गढ़नी है, कैसे प्रचार करना है अपनी विधा का, अपनी प्रतिभा का. अब अपनी प्रतिभा को निखारने संवारने से ज्यादा उसके बाहरी प्रभाव को चमकदार बनाने का युग चल रहा है यानी (प्रचार) पैकिंग को आकर्षक होना चाहिये, भले ही भीतर की सामग्री कैसी भी हो. ग्लोबलाइजेशन के इस युग में जो जबरदस्त बदलाव है वह कवि की इन पंक्तियों में स्पष्ट होता है-

"अब बात यहां तक पहुंच गयी है कि अच्छा होने के नहीं
अच्छा दिखने के दाम हैं
सो अब हर कहीं
आत्मा की घिसाई खत्म हो रही है."

कविता संग्रह के अगले खण्ड में बसन्त ऋतु को लेकर कुछ सुन्दर कवितायें रची गयी हैं जो इस अशान्ति से भरे वातारण में खुशबू और ताजगी लेकर आती हैं. कुछ समय के लिए ही सही-

"बसन्त इस धरती का सबसे बावला फूलों का सौदागर है
जो अपना सब कुछ देकर जीवन के लिये प्रेम खरीदता है."

बसन्त तो प्रेम का ही मौसम है जब चारों ओर खूबसूरत रंग बिरंगे फूलों व सुगन्ध की बहार होती है. पृथ्वी का प्रेम व सौन्दर्य बसन्त ऋतु के मेल से अपने चरम पर होता है तो सारा वातावरण खुशगवार और भीना भीना लगता है. बसन्त ऋतु पर लिखी कवितायें जीवन के राग-विराग के विभिन्न पक्षों व विसंगतियों की ओर इंगित करती हैं. एक ओर तो कविता में बसन्त ऋतु प्रेम का सन्देश देती है-

"प्रेम को थोड़ा बहुत सब जानते हैं
बसन्त तो प्रेम का मौसम है
जो हर कहीं मिल जाता है
भूली बिसरी की याद दिलाता हुआ
बसन्त में उम्र कोई मायने नहीं रखती."

आज पूरे विश्व में जहां धर्म के नाम पर मारकाट मची है. पूरी धरती पर इसी बसन्त, इसी प्रेम की, शान्ति की, अहिंसा के रंगों की जरूरत है. हर व्यक्ति को अपने भीतर शान्ति व अहिंसा की सुगन्ध भरने की जरूरत है. कि प्रकृति में पेड़ पौधे, फूलों पत्तियों, शाखाओं टहनियों में जो सौन्दर्य है, जो संगीत है, वह लोगों को सुनाई और दिखायी दे सके. उनके भीतर जो कोमलता, जो रागात्मकता, जो स्पन्दन है, लोगों को उसकी अनुभूति हो. प्रकृति के प्रति प्रेम हो उनका, न कि उन्हें क्रूरतापूर्वक नष्ट कर देने की प्रवृत्ति.

"पतझड़ में बिल्कुल खंखाड़ हो चुकी नीम की फुनगी में
अभी अभी निकल आयीं
तीन चार पत्तियां
बसन्त के झण्डे सी लहरा रही हैं."

कवि की आशा को बयान करतीं ये फुनगियां कि धरती पर अभी प्रेम मरा नहीं, सकारात्मकता अभी बची हुयी है. एक नयी उम्मीद को धरती पर आने का सन्देश दे रही है. बसन्त ऋतु में पेड़-पौधों के अंगड़ाई भरने, करवटें बदलने से जो सौन्दर्य प्रस्फुटित होता है. कवि अपनी बारीक नजर से प्रकृति प्रेम को शब्दों में यूं पिरोता है-

"मैं पढ़े लिखे लोगों की
रहने के बीच से गुजर रहा था
बस्ती में नीम की ललछौही पत्तियां चुपचाप फूट रही थी
किसी ने न नीम की पत्तियों का पियराना देखा था
न उनके झरने की आवाज सुनी थी."

वास्तव में आज इस आपाधापी में, जीवन की प्रतिस्पर्धा में मनुष्य बहुत हद तक प्रकृति के सौन्दर्य को, उसके संगीत को देखना, सुनना और महसूस करना भूल चुका है. जैसे मनुष्य रोबोट बनता जा रहा है.

पृथ्वी पर खत्म होते बसन्त, खत्म होते प्रेम, खत्म होती सहजता के प्रति कवि की चिन्ता जायज है. जिस तरह मानव जीवन दिनोंदिन यान्त्रिकता में बदलता जा रहा है, हरे भरे जंगलों की जगह कंक्रीट के जंगल कुकुरमुत्तों की तरह उगते जा रहे हैं- जहां न गौरैया का मधुर कलरव सुनायी पड़ता है, न ही आंखों को हरापन शीतलता प्रदान करते नीम, पीपल, आम आदि के वृक्ष हैं.

'गौरैया का एक घोंसला' शीर्षक कविता हमारे जीवन में एक छोटी प्यारी सी चिड़िया गौरैया की महत्ता को रेखांकित करती है, जो अब कभी कभी ही दिखायी देती है. जो हमारे बचपन के दिनों की एक साथिन हुआ करती थी. उसकी मधुर ध्वनि से न केवल बाग-बगीचे बल्कि घर भी गुंजार होता था और हमारा बचपन भी-

"जीवन की शुरुआत हुयी तो
सबसे पहले गौरैया मिली थी
चीं चीं करती हुयी
हमारे चूं चूं के साथ."

मगर अब छोटे छोटे फ्लैटनुमा घरों में इतनी भी जगह नहीं बची कि पक्षी अपना घोसला बना सकें, न ही वृक्ष बचे हैं कि वे उन पर घोसला बना सकें, फुदक सकें. सुबह शाम एकत्रित होकर उन स्थानों, मोहल्लों को अपने मधुर कलरव से गुंजार कर सकें जो आज ईंट, सीमेन्ट की बहुतायत से बन्जर बन गये हैं.

सृजनशीलता से जुड़ा रचनाकार हमेशा अपने को परिमार्जित करता, समय को देखता, परखता और महसूस करता चलता है. तमाम संघर्ष व कठिनाइयों में भी अपने भीतर की कोमलता व नमी को सूखने से बचाये रखता है. अपने समय के प्रेम के बारे में कवि लिखता है- जब न मोबाइल का, न इंटरनेट का युग था और उस समय बहुत किताबों से भी बहुत साबका नहीं होता था-

"सन् साठ के आसपास किताबें नहीं थी इतनी
भावों के मुताबिक शब्दों से परिचय नहीं था
जितना ज्ञान और शब्द थे
उससे इतना ही कुछ हो सकता था जो हो रहा था."

निश्चित ही उस समय सारी फिजा में एक मासूमियत और भोलापन घुला था. तब किसी भी विषय की जानकारी के लिये साधन, ज्ञान और जुगाड़ इतने उपलब्ध नहीं थे जितने कि आज हैं, सो प्रेम अपने अमूर्त रूप में मन ही मन पलता रहता-

"डोलने और मना करने की वर्जनाओं के बीच फंसा हमारा प्रेम
कुछ न कुछ कर गुजरने की फिराक की बजाय
वहीं का वहीं ठांव ठक्क करता रहा."

प्रेम अपने अमूर्तन में एकतरफा हमेशा मन में ही जमा रहा. कभी साकार रूप नहीं ले पाया-

"वह अभी भी मेरे भीतर ठीक वैसी ही बैठी हुई है
जैसे बैठी थी कभी
मैं चाहता था कि कुछ देर और रुकूं
कुछ देर और बात करूं."

परन्तु आजकल तो प्रेम प्रचार का, विवाद का विषय बन गया है जो वैलेन्टाइन दिवस के रूप में भी मनाया जाने लगा है, तो गुलाब के फूल की शोभा और महत्ता दोनों बढ़ गयी और उसकी सुगन्ध भी-

"पहली बार मैंने फिल्म में धर्मेंद्र को
गुलाब का फूल हेमामालिनी को देते देखा था
यह 1973 के आसपास की बात थी
 क्लास से भागकर एक दोस्त के साथ देखी थी फिल्म
तब से यह गुलाब का फूल
मेरे साथ लगा हुआ था."

परन्तु आजकल तो बेचारा गुलाब का फूल भी तथाकथित राजनीति/रणनीति का शिकार हो गया-

"इधर काफी दिनों से गुलाब के फूल पर बजरंगियों का पहरा है
बजरंगियों के संज्ञान में है कि
कॉलेज के लॉन में लगे गुलाब के फूल
कॉलेज की सुन्दरता के लिये हैं
और प्रेम करने वाले फूल तो बाजार में बिकते हैं."

वास्तव में "गुलाब का फूल" कविता प्रेम को सूक्ष्म अर्थों में रुपायित करती है. प्रेम एक गहरा सूफी भाव है जो लोगों के हृदय में स्थित होता है, जो मैत्री का सन्देश देता है. यह हृदय में आत्मा में में ही पनपता है न कि कहीं बाजार में बिकता है कि जब चाहे तब असामाजिक तत्व इनके बहाने चहुं ओर उपद्रव फैला दें.

अपनी अगली कविता "ईश्वर कुछ करें न करें" में कवि ने कविता में स्त्रियों की दशा को रेखांकित किया है. समाज में अपनी दोयम दर्जे की स्थिति को स्त्री एक तरह से स्वयं स्वीकार कर लेती है. क्योंकि बचपन से ही उनका लालन-पालन इसी तरह से किया जाता है-

"स्त्रियां हमेशा यह मानकर चलती हैं कि
जो चीजें उनके बस में थी है
वह सब ईश्वर के पास होती है
सो पुरुष उनकी कल्पना में
ईश्वर होता है."

यह एक कड़वी सच्चाई है कि इस देश समाज में स्त्रियों को बचपन से बराबर अपनी इच्छाओं का ख्याल रखने के बजाय दूसरों की इच्छा का ख्याल करना सिखाया जाता है कि किसी भी परिवार में पति व बच्चे सर्वोच्च हैं पर वह खुद नहीं-

"ईश्वर से जब भी कुछ मांगने का मौका आता तो अक्सर
वह अपने लिये तो अक्सर कुछ नहीं मांगती
(नरेन्द्र पुण्डरीक)
वे सब उनके लिये मांगती हैं जो
जीवन भर उनसे छीनते रहते हैं."

आर्थिक, सामाजिक और मानसिक रूप से पराधीन स्त्रियां जिनकी आकांक्षाओं, इच्छाओं, सपनों तक पर दूसरों का अधिकार होता है. अपनी मर्जी से कुछ भी करने, जीने के लिये, यहां तक कि सांस लेने की स्वतंत्रता नहीं होती. इसीलिये संभवत: स्त्रियां अधिक धार्मिक और पूजा-पाठ में ज्यादा विश्वास व आस्था रखती हैं. क्योंकि शायद कोई और विकल्प उनके पास नहीं होता कि जिसके माध्यम से वे अपने भीतर की छटपटाहट, बेचैनी और अभाव को व्यक्त कर सकें-

"जीवन भर खुद अभाव में जीते रहने पर भी
उनके लिये मांगती है दुनिया की सकल सम्पदायें."

यह स्त्री के कोमल, करुण, अधिक मानवीय मातृत्व स्वभाव का सबूत है (और कोई विकल्प न होने की मजबूरी का भी) कि वे चाहे खुद कितने अभावों में रहे लेकिन अपने घर, गृहस्थी, पति परमेश्वर और बच्चों के प्रति उनके खाने पीने से लेकर, हारी बीमारी तक लेकर हमेशा चिन्तित रहती है, जबकि घर के अन्य सदस्यों पति व बच्चों को कभी स्त्रियों की संवेदनाओं, इच्छाओं का ध्यान नहीं होता. गाहे-बगाहे यह जरूर और एहसास कराते रहते हैं कि हम राजा तुम प्रजा (गुलाम). पितृसत्तात्मक समाज में आखिर ईश्वर भी पुरुष है-

"ईश्वर की आत्मा
पुरुष की आत्मा से मिलती जुलती है
दोनों ही स्त्रियों की आत्माओं का झुण्ड
अपने आसपास देखकर खुश होते हैं
दोनों को स्त्रियों की मीठी आवाज पसन्द है
दोनों को बहुत पसन्द है अपने लिये उनका पूर्ण समर्पण."

भारतीय समाज में स्त्री की दशा व दिशा दोनों की गहन पड़ताल करती हुई कविता कवि के संवेदनशील नजरिये को बहुत सूक्ष्मता से व्यक्त करती है. कवि लिखता है-

"चीजों से भरे संसार में
अक्सर मुझे स्त्रियां चीजों के बीच खड़ी हो
जीवन को बीनती दिखायी देती हैं."

वास्तव में यह आधी दुनिया की सच्चाई है कि सम्पूर्ण काय़नात स्त्रियों के होने से रंग और खुशबुओं से, ममत्व से भरी है. स्त्रियां भी पुरुषों के बराबर ही महत्व रखती हैं. ये बात दीगर है कि उन्हें दोयम दर्जे का एहसास दिलाया जाता है. फिर भी ये स्त्रियां ही हैं जो न केवल घर की वरन् बाहर की दुनिया की भी सार सम्भाल कर रखना चाहती हैं-                                                                                             

"स्त्रियों को चीजों के बीच जीवन को सजाकर रखना अच्छा लगता है शायद दुनिया में यह सबसे अच्छी चीज है जो स्त्रियों के पास होती है."

और यह भी दुनिया की सबसे अच्छी चीज या बात है कि स्त्रियां चीजों के बीच अपना मन बहला लेती हैं और मरने से बच जाती हैं.

कविता संग्रह की एक अन्य कविता "पढ़ाने वाले मास्टर जी गद्दार थे" एक बेहद दिलचस्प शीर्षक लगा मुझे. युवावस्था की तमाम संवेदनाओं, आवश्यकताओं को, बेरोजगार होने की पीड़ा को बहुत पारखी, अनुभवी व सूक्ष्म दृष्टि से सहज अन्दाज में कविता के रूप में बुना गया है. वास्तव मे एक पूरी की पूरी पीढ़ी समान माहौल, परिवेश से गुजरते हुए बड़ी होती है. संगीत, सिनेमा, साहित्य इत्यादि तमाम विधायें जो अपने समय को प्रतिबिम्बित करती हैं उनसे कोई भी अछूता नहीं रह पाता. कुछ चीजें, कुछ बातें सदैव कालजयी होती हैं जिससे हर पीढ़ी गुजरती है. कॉलेज में पढ़ते, सुनते, बात करते हुये जब युवा कॉलेज से निकलकर हकीकत की सख्त जमीन पर पांव टिकाते हैं तो निश्चय ही अनुभवहीनता पांवों में जख्म बना देती है-

"कॉलेज से निकलकर जब हम
बाहर आये तो देखा कि
बेरोजगारों की यह लाइन और लम्बी हो चुकी थी
जहां मैं अपने साथियों सहित निचाट लपलपाती धूप में खड़ा था."

रोजगार मिलने की नाउम्मीदी, बेरोजगारी जैसे कटु, यथार्थवादी शब्द से सामना, जैसे शाश्वत सत्य बन गया हो युवाओं में. जिसे समय के साथ कम होते जाना चाहिए, वह लगातार बढ़ता जा रहा है. युवाओं के सुन्दर सुकोमल सपने, कुछ कर गुजरने जज्बे व हिम्मत को गला देने के लिये बेरोजगारी का बढ़ता तापमान उन्हेें बेहद निराश कर देता है. तब उन्हें लगता है कि विद्यालय में जो कुछ उन्होंने लिखा पढ़ा था सब कुछ झूठ या फरेब था. इसके बरक्स न तो पुस्तकों में कुछ लिखा था और न ही पढ़ाने वाले अध्यापकों ने कुछ बतलाया-

"मुझे पहली बार लगा कि
जो किताबों में पढ़कर आये थे
वह एक धोखा था और
पढ़ाने वाले मास्टर गद्दार थे
जो लिखे को उल्था करते हुये
हमें कभी समय की इस धूप के बारे में नहीं बताया था
जो हमारे सपनों के रंगों को सुखाने के लिये
बाहर तैयार हो रही थी."

कविता की बेहद मर्मस्पर्शी पंक्तियां किसी भी बेरोजगार युवा के लिये आज भी उतनी ही सच हैं. फिर भीतर ही भीतर आक्रोश, गुस्सा और निराशा का दौर हावी होता है. उम्मीद भी अपना रूप खोने लगती है-

"हमारी आंखों में हमारे सपनों के रंग ही नहीं
हमारे पिता की आंखों के सपने के भी रंग थे
जो हमारी फजीहत को देखकर
उनकी अपनी आंखों में वापस लौट रहे थे."

कविता संग्रह के अन्तिम खण्ड में कवितायें आसपास बिखरे विषयों, कथानकों और बिम्बों को लेकर बहुत ही सहज व बेबाक ढंग से पाठक से बातचीत करती हुयी चलती हैं. कविता "शहर की चर्चा करते हुये" में कवि छोटे शहरों में धीमी गति से चलते हुये जीवन का रोजनामचा का खाका बड़े ही स्वाभाविक ढंग से खींचता है जैसे सचमुच शहर का होना कविता पढ़ने वाले की आंखों में घटित हो रहा है-

"यह शहर बहुत मरियल है
बहुत नजदीक से चेहरा भिड़ा देने के बाद
पता चलता है कि चल रही है कुछ सांस
बहुत जरा-जरा सा हिलता सा लगता है अपनी जगह से और
रुक-रुक कर घसीटता है अपने पांव."

छोटे शहर की तासीर को शब्दों में घोलते हुये कवि कहता है-

"यहां एक नदी है और कुछ मन्दिर और मस्जिद हैं
जो सुबह होते ही सबसे पहले मोक्ष बांटते हैं
ज्यादातर शहर नींद में रहता है
नींद टूटते ही मोक्ष खो जाता है."

पूरी कविता तमाम छोटे छोटे बिम्ब से भरी एक शहर का कोलाज बनाती है.

"ट्रेन मे औरतों के इतने शेड्स होते हैं कि यदि होतीं अमृता शेरगिल तो पूरी दुनिया में छा जातीं यह."

अत्यन्त खूबसूरत चित्रात्मक बिम्ब जो अपने आप में कवि की सौन्दर्यात्मक चेतना के साथ संवेदना, दृष्टि, कथ्य को एक साथ समेटे हुये हैं.

दूसरी ओर दिल्ली जैसे महानगर पर लिखी कविता एक बड़े शहर के मूड, मिजाज को बिल्कुल जीवन्त करती हुयी सी प्रतीत होती है. महानगर में रहने वाले सृजनशील लोगों की जीवन शैली, चिन्तन, आचार-विचार, स्वार्थ और चालाकियों का जिक्र कवि ऐसे करता है जैसे यह दिल्ली शहर का पोर्ट्रेट हो और जहां बेगानापन, स्वार्थ और चतुराई उसकी स्वभावगत विशेषता हों-

"अब से कुछ साल पहले गया था दिल्ली
अकुचकर अपना सा चेहरा लेकर लौट आया था
मैंने देखा दिल्ली में किसी का अपना चेहरा नहीं था
सब ठोके पड़े थे अपने चेहरे में न जाने कितने चेहरे."

"दिल्ली में मैं" कविता में कवि अपने तमाम अच्छे बुरे अनुभवों को सिलसिलेवार ढंग से पिरोता चलता है. निश्चित ही दिल्ली में रहने वाले लोगों को जो बाहर से आकर यहां बसे हैं, उन्हें यह कविता बहुत अपनी सी प्रतीत होगी. दिल्ली के अलावा बनारस, बांदा आदि शहरों की अनुभूतियां भी बहुत बारीक ढंग से कविता के रूप में साझा की गयी हैं. कविता की कुछ पंक्तियां-

"यह धुकधुकी भी अजीब है
जरा से झटके में इसकी ठेपी खुल जाती है."

"इस शहर में रहता था एक कवि
जिसने महादेव को कभी घास नहीं डाली
और पहाड़ पर लिख दी कविता."

"चेहरे लगाने और बदलने में इतने माहिर लोग."

"लक्ष्मण ने पहले से जानी पहचानी जगह पर सीता को छोड़ा होगा
ताकि बचा रहे सुकशल सीता का जीवन और बची रहे राम की संतति."

"मणिकर्णिका नाम इसलिये याद है
जहां एक पूरी तरह से जलकर राख नहीं हो पाती कि
दूसरी आकर उसी के ऊपर धर दी जाती थी."

"मैं इस शहर में नदी के रास्ते सपने की तलाश में आया था
बहुत सुर्ख और शोख थे, कभी इनके रंग
मुलायम इतने कि छूने में सिहरन होती थी
आज तो इन सपनों की सूरतें इतनी बदरंग हो चुकी हैं कि
किसी रंग का पता ही नहीं चलता." 

"मेरे शहर का यह मैदान
घुमन्तरु लोगों की धरती और यह आसमान मेरे शहर में हमेशा बना रहे."

"किले की जिन दीवारों का प्लास्टर
साबूत बचा होता है लड़के
उन लड़कियों का नाम लिख देते हैं
जिनकी आंखों में रंग भरने की गुंजाइश होती
दुनिया में प्यार को नाम देने के लिये
अब ऐसी ही जगह बची है
जहां उनके लिये अब भी कुछ हवा और धूप बची है."

"केन (नदी) इस शहर की नसों में
खून की तरह टहलती है
जिसकी रंगत कभी मिटती नहीं
कभी कभी कवियों के शब्दों में
बिम्ब बनकर इस तरह दौड़ती है कि
दुनिया की सारी छटायें पीछे छूट जाती हैं."

"लगभग 60 बरस पहले रिश्वत के खिलाफ
लड़ाई की शुरुआत रिश्वत अखबार निकाल कर की थी
यह वह समय था जब अखबार इबारत नहीं
इबारत न जानने वालों की आवाज होता था."

"सोचता हूं उस दिन कितनी दिव्य और सुन्दर हो जायेगी यह दुनिया
जिस दिन ईश्वर जग्गू पल्लेदार की तरह
साफी फटकारते हुये
मलाईदार कड़क चाय के लिए बोलेगा."

ये कवितायें तमाम अनुभवों से उपजी यथार्थपरक कवितायें हैं जो बताती हैं कि जीवन, समाज और हमारे आसपास क्या घट रहा है. इससे जाहिर होता है कवि देश, समाज में होने वाली घटनाओं, उथल-पुथल के प्रति गहरी दृष्टि और दिलचस्पी रखता है और अपनी अनुभूतियों के माध्यम से दूसरों की वेदना को अपना बनाने में सफल होता है. इस प्रकार उनके लोक समाज, जीवन के खट्टे, कड़वे, तीखे, मीठे अनुभव कविता के रूप में प्रकट हुये हैं. कवितायें केवल स्मृतियों की भागेदारी या उदास पलों के दुख को बयान नहीं करतीं. अगर इनमें बेचैनी है, गुस्सा है, कटाक्ष है तो उम्मीद भी है. 

ये कवितायें न तो बनावटी हैं, न ही अनावश्यक भारी भरकम शब्दों का प्रयोग है. कवितायें सीधे-सच्चे, सहज शब्दों में अपने मूल स्वर को रख देती हैं. अनुभवों व सच्चाई से भरी कवितायें तमाम जीवन के विविध पहलुओं को रेखांकित करती हैं. कविताओं में अन्तरध्वनित आश्चर्य, प्रेम, विस्मय, संवादधर्मिता, व्यंग्य की खूबियां बार-बार उन्हें पढ़ने और सोचने के लिये प्रेरित करती हैं.
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  1. कमाल की कविताएं और सुन्दर समीक्षा

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (18-03-2019) को "उभरे पूँजीदार" (चर्चा अंक-3278) (चर्चा अंक-3264) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. नरेंद्र जी मध्यवर्गीय जीवन और उसकी त्रासद विडम्बना के कवि है । उन्हें बधाई

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