लेखिका अर्चना वर्मा लम्बे अरसे तक हिंदी की दो महत्वपूर्ण पत्रिकाओं–
‘हंस’ और ‘कथादेश’ से जुड़ी रहीं, न जाने कितने नवोदित लेखकों को उन्होंने पहचाना, संवारा और उन्हें ससम्मान प्रकाशित किया.
वह एक कवयित्री भी थीं. दुर्भाग्य से आग की चपेट में आने के बाद उनकी कुछ इसी विषय पर लिखी कविताएँ हंस में प्रकाशित हुईं थीं. आलोचक कर्ण सिंह चौहान ने अर्चना वर्मा को स्मरण करते हुए उन कविताओं को भी याद किया है. यह समीक्षा पर एक उधेड़बुन भी है.
अर्चना वर्मा की स्मृति को नमन करते हुए यह आलेख आपके लिए.
स्मृति
अर्चना वर्मा को जिन लोगों ने नजदीक से देखा और जाना है वे
जानते हैं कि उनमें अपने कार्य के प्रति अद्भुत निष्ठा रही- चाहे यह विश्वविद्यालय
में अध्यापन हो, ‘हंस’ में संपादन-सहयोगी का कार्य या ‘कथादेश’ का काम. हालाँकि वे किसी विचार से बँधी नहीं थीं लेकिन अपने
मानवीय विवेक से जिस चीज को एक बार सही मान लिया तो उसमें फिर संशोधन या समझौता
संभव नहीं. ‘हंस’ का कार्यभार सँभालने के बाद कैसे उन्होंने
पत्रिका के संपादक और सर्वेसर्वा राजेंद्र यादव के लेख को अस्वीकृत किया, यह इसी का एक उदाहरण था. अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता, किसी भी प्रकार
के दमन और शोषण के विरुद्ध उनकी ऊँची आवाज ने उन्हें हमारे समय की तमाम अस्मिताओं
के पक्ष में खड़ा कर दिया. बाद के दिनों में सामाजिक माध्यमों पर प्रभुत्व जमाए
वर्तमान सत्ता-विरोधी स्वरों की एकछत्रता के बावजूद उन्होंने अपनी अंतिम पोस्टों
में उसका समर्थन करने का साहस दिखाया और उसके लिए तमाम लोगों से संवाद ही नहीं
विवाद में भी बिना उत्तेजना के तर्कों का इस्तेमाल किया. लेकिन इसे एक जनतांत्रिक
असहमति का अधिकार ही कहा जाना चाहिए क्योंकि काफी तीखे मतभेदों के बावजूद उन्होंने
किसी के प्रति व्यक्तिगत शत्रुता का भाव नहीं दिखाया.
अर्चना वर्मा की
दुर्घटना कविताएं
शरीर, अनुभव, विचार के सीमांत
कर्ण सिंह चौहान
जिसे हम समीक्षा के रूप में जानते हैं और मानते हैं, वह आह-वाह से आगे एक गहन सांस्कृतिक दायित्व है. हिंदी में समीक्षा के नाम पर अक्सर जो होता है उसे समीक्षा का दर्ज़ा देना अर्थ को अनर्थ की हद तक खींचना होगा.
"मर गयी होती तो
(कविता के इर्द-गिर्द तमाम
सवाल उठाती यह समीक्षानुमा टिप्पणी अर्चना वर्मा द्वारा आग की चपेट में आने की
दुर्घटना के बाद लिखी और ‘हंस’ में प्रकाशित कविताओं को पढ़कर लिखी गई थी. कुछ
लोगों को व्यक्तिगत रूप में दी भी गई थी. हालांकि यह कविताओं की समीक्षा कम और
समीक्षा के परिप्रेक्ष्य के बारे में अधिक है, फिर भी उनकी कविताएँ इसे लिखने का कारणभूत रहीं तो अवश्य
कोई बात रही होगी. मेरा अर्चना जी से व्यक्तिगत परिचय नहीं रहा, जो था वह पहले मित्र लेखक कृष्ण गोपाल वर्मा की
पत्नी, वि.वि. में जुझारू
प्राध्यापिका, एक लेखिका,
संपादक के रूप में ही था. लेकिन हिंदी में
आलोचना और समीक्षा के नाम पर अधिकांश में जो तमाशा चलता है, उसे देखते हुए इसे छपवाने के प्रति लेखक बहुत उत्साहित नहीं
रहा. अर्चना जी इसके बारे में जानती थीं. कल उनका यों अचानक चले जाना बहुत ही दुखद
था. इसे उनकी स्मृति-स्वरूप ही माना जाना चाहिए.)
जिसे हम समीक्षा के रूप में जानते हैं और मानते हैं, वह आह-वाह से आगे एक गहन सांस्कृतिक दायित्व है. हिंदी में समीक्षा के नाम पर अक्सर जो होता है उसे समीक्षा का दर्ज़ा देना अर्थ को अनर्थ की हद तक खींचना होगा.
समीक्षा करने वाले और उसे पढ़ने वाले समीक्षा-पद्धति में
रुचिशील होते हैं. इससे करने वाले को और पूरी जानकारी ले पढ़ने या न पढ़ने वाले को
काफी सुभीता हो जाता है. दिमाग पर बहुत बोझ नहीं डालना पड़ता, बस उतना भर जितना पाँचवी क्लास में रिक्त स्थान
पूर्ति के सवालों में पड़ता है. पद्धति मर्क्सवादी है, जनवादी है, संरचनावादी है,
विखंडनावादी है या क्या-क्या और वादी है,
इससे सब तय हो जाता है. यह ‘अहोरूपम अहोध्वनि’ वालों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का संसार है. यहाँ यह लेखक
किसी भी एक पद्धति को आदर्श मानकर चलने के लिए तैयार नहीं है, न पद्धतियों के जाल को. जब जहाँ जिसने जितनी
सहायता की, उतनी सहायता ली गई. इस
रूप में देखें तो उसके लिए तमाम सिद्धांत और पद्धतियाँ उपयोगी हैं और दूसरी तरह से
कहें तो बेमतलब.
समीक्षा न तो लेखक को सुखी-दुखी करने के लिए होती है,
न पाठकों के बीच किसी तरह के
सकारात्मक-नकारात्मक विज्ञापन का जरिया. वह रचना की तरह अपने आप में होती है.
हिंदी में उंगलियों पर गिनी जा सकने वाली समीक्षाएं हैं. समीक्षा से पहले क्या
तैयारी करनी होती है, यह यहां है.
प्रचलित रवायतों से एक तरह का विच्छेद है इसलिए आम रिवाजों में रचे-पचे लोगों को
कष्ट भी हो सकता है, नाराजगी भी.
अपनी भाषा में राजनेताओं या धर्मोपदेशकों की तरह साहित्य
में भी लोकप्रियता का रोग कुछ ज्यादा ही है, इसलिए वर्तमान हालात में साहित्येतर दबावों को छोड़ कुछ
कहना अजीब लग सकता है. प्रस्तुत लेखक राजनेताओं की तरह कोई वोट बैंक की राजनीति
नहीं करता कि उसे जनमत जुटाने की चिंता सताए.
शुरू में ही यह कह देना जरूरी है कि यह जो लिखा जा रहा है
वह किसी कविता की व्याख्या-विश्लेषण का प्रयास नहीं है, न ली गई कविताएं किसी गुणवत्ता के आधार पर चुनी गई हैं.
उनका किसी भी तरह के साहित्यिक संवाद या विवाद से बाहर होना ही इस चुनाव के मूल
में रहा. ये समीक्षा के एक अभ्यास का अवयव हैं.
वैसे अक्सर यह मानकर चला जाता है कि किसी भी रचना (अब जो भी
अर्थ इसका होता हो) की सार्थकता और महत्व इस बात से प्रमाणित और प्रतिपादित होता
है कि उसकी व्याख्या-विश्लेषण के कितने प्रयास किए गए हैं. लेकिन लगता है इस
व्याख्या-विश्लेषण का रचना के आंतरिक से उतना संबंध नहीं होता जितना रचनेतर से
होता है. मसलन यह किसी रचना के लिखने वाले को कुछ महत्व, यश, सम्मान वगैरह
दिलाने में शायद मददगार हो सकता हो. और जब रचनाकार औरों से इसकी अपेक्षा करते हैं
तो यह माना जा सकता है कि वे रचना से अधिक रचनेतर को रचना के लिए और अपने लिए
महत्व देते हैं.
अन्यथा तो किसी भी तरह के व्याख्या-विश्लेषण को या उसकी
ज़रूरत को रचना और रचनाकार की अवमानना ही माना जाना चाहिए. अगर कोई रचना अपने
पैरों पर खड़ी नहीं हो सकती और रास्ता नहीं बना सकती तो कोई बैसाखी उसे इस काबिल
नहीं बना सकती.
इसीलिए मैंने कहा कि यह कोई कविता या उसे रचने वाले की
व्याख्या-विश्लेषण की हिमाकत नहीं है.
असल में घटनाएं एक माध्यम का काम करती हैं जिनसे हम कुछ बातों
पर बात करने का आधार पा जाते हैं. यानी कि उसके संग-साथ या आसपास से उठी बातों को
खुले मन से अन्य से शेयर कर सकते हैं. शेयर करना संभव नहीं हो तो एकालाप ही कर
सकें. इन कविताओं पर लिखते समय बस यही है और कुछ नहीं.
आगे बढ़ने से पहले यह और कहना है कि हिंदी में खुले संवाद का
चलन कम है. या तो पुराने कुछ विश्वास-अंधविश्वास हैं या उनकी जगह पनपे नए
विश्वास-अंधविश्वास हैं. और विश्वासी-अंधविश्वासी की आस्था व्यक्ति को संवादी नहीं,
असहिष्णु, हिंसक या हत्यारा बना सकती है. उनमें अधिकांश बातों को
मानकर चला जाता है जैसे वे कोई आत्यंतिक सत्य हों जिनपर कोई बहस नहीं हो सकती.
कहीं से कोई दस वाक्य उठाकर पढ़ना शुरू कीजिए तो लगेगा कि उसमें दस ऐसे अंधविश्वास
हैं जिन्हें लिखने वाला ऐसे सार्वभौम सत्य मानकर चल रहा है जिनपर अब किसी तरह के
संदेह की गुंजाइश नहीं है. यह हो सकता है (सकता क्या, है भी) कि वे बहुसंख्य द्वारा मान्य अकाट्य सत्य बन गए हों.
अगर ऐसा है तो हर नया लिखा हुआ मात्र पिष्टपेषण है जिसे फिर से लिखने की जरूरत
नहीं होनी चाहिए.
इसलिए पाठकों से क्षमा याचना सहित यहां किसी भी ऐसे मान्य
सत्य या विश्वास या मूल्य या आस्था वगैरह को मानकर नहीं चला गया है. और भले ही
कुतूहल लगे लेकिन छोटी से छोटी बात को भी खोलना जरूरी लगा तो खोला गया है.
और जिस तरह इन्हें लिखने वाला किसी भी पूर्व निर्धारित
मान्यता, विश्वास, आस्था, मूल्य वगैरह को मानने के लिए बाध्य नहीं है उसी तरह वह कहना चाहता है कि यहां
कही बातों को स्वीकार कराना, मनवाना इसका
उद्देश्य नहीं है. कोई चाहे तो इन्हें अपनी आस्थाओं पर कुठाराघात मानकर बिना तर्क
के सिरे से अस्वीकार कर सकता है. ये बातें किसी तरह के प्रमाण पर भी टिकाई नहीं गई
हैं जो उन्हें टेक या ठोस आधार दे सकें, गिरने से बचा सकें. मतलब परंपरा का उल्लेख, किसी ज्ञान-विज्ञान की स्थापनाओं का बल या किन्हीं
महानुभावों के उद्धरण वगैरह. इसलिए वे या तो अपने बल पर खड़ी होंगी या गिर पड़ेंगी.
कई बार लग सकता है कि इसमें कुछ मान्यताओं के बरक्स कुछ अन्य को रखा गया है. दरअसल
वे कुछ सवाल ही हैं कोई अंतिम सत्य नहीं.
अर्चना वर्मा की ये कविताएं कुछ समय पहले `हंस' में छपी थीं और जलने की एक दुर्घटना पर आधारित हैं.
किसके साथ हुई यह दुर्घटना !
क्योंकि ये हिंदी में लिखी गईं एक हिंदी की लेखिका की हैं
और हिंदी का लेखन संसार एक बहुत सीमित सी परिधि में होने के कारण सबका जाना हुआ है,
इसलिए कोई भी कह देगा कि यह दुर्घटना लेखिका के
अपने साथ घटित हुई है.
लेकिन मान लो आम पाठक हिंदी के लेखक संसार के ब्यौरों से
परिचित न हो या ये कविताएं अन्य किसी भाषा में अनुवाद होकर वहां पढ़ी जाएं तो उसका
वह माना हुआ संदर्भ बेमतलब हो जाएगा. फिर भी, कविता या कोई भी रचना सशक्त होने के लिए अनुभव की
प्रामाणिकता पर जोर देने के कारण यह बिना संदर्भ के भी माना ही जा सकता है कि यह
प्रामाणिकता व्यक्तिगत होने से आती है.
इधर नारीवादी और दलित विमर्श में इसे और अधिक रेखांकित किया
गया है. इससे लिखे हुए की शक्ति कितनी बढ़ती होगी यह तो बहसतलब है लेकिन लेखन की
स्वतंत्रता की सीमाएं जरूर तय हो जाती हैं.
तो हम यह मान लें कि यह दुर्घटना लेखिका के साथ ही घटी है.
लेखिका यानी अर्चना वर्मा नामधारी. इसमें फिर एक मान्यता है जिसको परखने की जरूरत
है. नाम के साथ ही उसका एक बना-बनाया स्वरूप है, छवि है, संदर्भ-अनुसंग
हैं, इतिहास-भूगोल है, उसकी मान्यताएं, विचार सब हैं. उस नाम के साथ अपने-पराए के संबंध हैं. यानी
कि यह नाम मात्र कोई यूं ही मान या टाल देने वाली चीज नहीं है, उसने सब कुछ को अपने घेरे में ले लिया है. उस
नाम के साथ जो भी कुछ होगा उसपर प्रतिक्रिया उससे जुड़े इस संपूर्ण संसार से होगी.
हालांकि हम सब इस बात को जानते हैं कि यह नाम शरीर के लिए
वैसे ही एक 'कोड' है जैसे भाषा के शब्द वस्तुओं के 'कोड' होते हैं. उस 'कोड' को वे ही लोग समझ सकते हैं जो उसी भाषा में
व्यवहार करते हैं अन्यथा उन कोडों का किसी अन्य के लिए कोई अर्थ नहीं है. शरीर को
यह कोड पैदा होने के बाद ही दे दिया जाता है और बार-बार के दुहराव से वह शरीर इसे
अपनी पहचान मान लेता है, शायद जन्म के बाद
चेतना आने के समय से. यह कोड समाज में व्यवहार करने के लिए होता है. अपने आप में
शरीर के समस्त क्रिया-व्यापार में इसका कोई अर्थ नहीं है. यह स्मृति या विचार
द्वारा आरोपित एक व्यवस्था है जिसका उपयोग समाज और संस्कॄति करती है. गहरी निद्रा
में या किसी अन्य कारण से स्मृति या विचार के बंद होने पर मालूम होगा कि इस शरीर
को अपनी किसी परिचिति के बारे में नहीं मालुम.
कोई भी कहेगा कि यहां एक बेमतलब की चीज को इतना तूल देकर
बात का बतंगड़ बनाया जा रहा है. बतंगड़ बनाना शायद जरूरी न होता अगर हम लगातार चीजों
के प्रति सजगता बरतते होते. लेकिन हमने क्योंकि सब कुछ को अंधविश्वास में बदलकर सब
पर जबरदस्ती लाद दिया है इसलिए उसे अंधविश्वास से मुक्त करने के लिए बतंगड़ बनाना
होता है.
तो तय करना होगा कि यह दुर्घटना किसके साथ घटी है ! विशेष
नामधारी व्यक्ति के साथ या अनाम इस शरीर के साथ. और क्योंकि कविताएं इस बुनियादी
बात पर ही टिकी हैं इसलिए इस पर कहे बिना आगे बढ़ना संभव नहीं है. क्योंकि दोनों न
तो एक हैं, न दोनों के अर्थ एक हैं,
न उनके प्रभाव एक हैं. एक हद तक कहें कि दोनों
एक-दूसरे के विरोधी हैं.
इस विरोध को थोड़ा स्पष्ट करने की जरूरत है. जब हम यह मान
लेते हैं कि यह घटना अर्चना वर्मा नाम की एक हिंदी लेखिका के साथ घटी है जिसे
हिंदी के लेखकों और पाठकों का एक हिस्सा जानता है और फिर कविताओं पर कुछ कह दूसरों
को भी जना सकता है. यानी लोग उनकी जिंदगी के, पेशे के, व्यक्तिगत
संबंधों के, साहित्यिक
संसर्गों के, मान्यताओं-मूल्यों-विचारों
के, उनके लेखन के, गुट के कितने ही अनगिनत संदर्भों को जानेंगे.
जाने या अनजाने.
यह नाम दरअसल इन अनगिनत चीजों का एक कोडीकृत रूप बन चुका है.
इसलिए इन कविताओं के मूल में रही घटना या दुर्घटना को सीधे देखना संभव हो ही नहीं
सकता. दृष्टि इन अनगिनत पर्दों से छनती हुई वहां तक पहुंचेगी, अगर पहुंचेगी तो. अक्सर तो इसी में उलझकर रह
जायगी. और हम सब घटना-दुर्घटना पर नहीं इन सब इतर चीजों पर बात कर रहे होंगे,
इनके संदर्भ में बात कर रहे होंगे.
मसलन जिन्होंने उन्हें इस घटना से पहले देखा है वे उनके पहले
के सौंदर्य के संदर्भ में इसे देखेंगे. नारीवाद के कायल इसे नारी के साथ चली आती
दुखांत नियति के रूप में परिभाषित करना चाहेंगे. दृष्टिकोण ग्लोबल हुआ तो ऐसी
घटनाओं को एक पिछड़े देश में मानव जीवन की असुरक्षा के रूप में कहेंगे. फिर कुछ
अनेक रूपों में उनके अपने होंगे और कुछ पराये होंगे जो उसी अनुपात में संवेदना से
देखेंगे.
यह तो बस यूं ही कहा, यह दिखाने के लिए कि इस नाम के कोड से जितने अनंत अर्थ जुड़
गए हैं, इसपर चर्चा के भी उतने ही
अनंत तरीके होंगे. इतना सब होते हुए भी मजे की बात यह है कि हम निर्द्वंन्द्व इन
चीजों को मानकर चलते हैं कि यही तो तरीका है.
इस नामधारी कोड में यह बात एकदम भुला दी जाती है कि यह
घटना-दुर्घटना मूलत: और अंतत: जिसके साथ घटी है वह यह जीवित शरीर है. शरीर न किसी
नाम को जानता है, न नाम के साथ
जुड़े अनुसंगों से ही उसका कोई वास्ता है. उसे तो अपने लिंग का भी बोध नहीं है. वह एक ऐसी अद्भुत, जीवंत, सतत क्रियाशील
मशीन है जिसकी अंतर्निहित बुद्धिमत्ता का कोई जवाब नहीं. वह जीवंत क्रियाशीलता के
बीच दो ही चीजों को जानता है -- आत्मरक्षा और पुनरुत्पादन.
लेखिका ने जिस 'निशाना' कविता से इस
कविता-क्रम की शुरूआत की है वह देह की दृष्टि से ही है जिसे लेखिका
"मैं" और "मेरी" से एकाकार देखती है. यह पूरी कविता देह की ओर
से ही कही गई है और इसीलिए इसमें उन मूलभूत भौतिक तत्वों के क्रम में शरीर की
संरचना में इन तत्वों की संघटना, शरीर के अंदर और
बाहर उनके अस्तित्व, उनकी समरसता और
विरसता को दिखाया है. यह प्रकृति है और इसके बीच चलता जीवन-व्यापार है. इसी में
निर्माण और विनाश है. यह एक ऐसा बयान है जो व्यक्तिवाचक संज्ञा के बावजूद एक
निस्संग और निधड़क बयान है. इसमें देह की ओर से कहा गया है :
'शरीरविज्ञान का बड़ा जानकार होना जरूरी नहीं
यह जानने के लिए कि देह एक समुद्र है,
छियासठ प्रतिशत पानी और उसमें फासफोरस...'
और क्योंकि वह देह की ओर से बात कर रही है इसलिए कहते हुए
उसे यह लगता है कि शायद इसे कह पाना और समझा पाना मुश्किल होगा. हम इस रूप में
कहने और समझने के आदी नहीं हैं :
'मैं जानती हूं प्रिय पाठक कि
गोलमोल और अबूझ है
किसी कदर मेरी बात'
लेकिन जैसे लेखिका आगे बढ़ती है वह संवाद के प्रचलित और
मान्य संप्रेषण में अपनी बात ढालने लगती है और इसे देह के जीवन की हकीकत से हटा
अपनी "मैं" की परिधि में ले आती
है. बाकी कविताएं इस परिचित मुहावरे में हैं. उसके बारे में क्या कहना.
सवाल यह भी है कि लेखिका इस भयंकर दुर्घटना से गुज़रकर भी
उसे हूबहू क्यों नहीं कह पा रही है ! यानी उस कहे से पाठक को उस भीषण विभीषिका का
आभास क्यों नहीं हो पा रहा है! जो कहा जा रहा है स्वयं लेखिका को भी यह क्यों लग
रहा है कि वह स्पष्ट नहीं गोलमोल है, सहज संप्रेष्य नहीं अबूझ है! उसमें इस कोण से, उस कोण से, पश्चात से,
सबक से, इसकी नजर से, उसकी नजर से, अपनी नजर से जो
कहा गया है सो कहा गया है. लेकिन सीधे उस घटना से उन क्षणों का साक्षात्कार बहुत
मामूली है.
क्या इसे लेखिका की अक्षमता माना जाय कि वह स्वयं इस अनुभव
से गुज़रने के बाद भी उसे इस रूप में नहीं रख पा रही है कि दूसरे उस आग की भीषणता
को कुछ हद तक महसूस कर सकें !
यह बात नहीं है. कोई समर्थ से समर्थ रचनाकार भी इस तरह की
आपबीती पर लिखता तो ऐसा ही होता. होता क्यों, हम जानते हैं ऐसा ही होता है. बड़ी से बड़ी दुर्घटना में बचे
मनुष्य को जब हम कैमरों के सामने बात करता पाते हैं तो कोई कुछ भी उस वास्तविकता
के आसपास तक का आभास नहीं करा पाता. जीवन भर समाज के दमन और उपेक्षा को झेलता एक
दलित जब अपनी आपबीती का बयान करता है तो लगता है कि वह उसे ठीक से पकड़ ही नहीं पा
रहा. यही अपमान झेलती किसी नारी के अनुभव के बयानों के बारे में भी सच है. इसके
कुछेक जो अपवाद दिखाई पड़ते हैं वे इन अनुभवों के गहरे या उथले होने के कारण नहीं,
भाव और भाषा संप्रेषण में महारत के कारण ऐसा कर
पाते हैं. वे निज अनुभव की जगह यदि परानुभव पर भी लिखेंगे तो वैसा प्रभाव पैदा
करने में कामयाब हो सकते हैं.
इसीलिए घटना और अनुभव के अंतर्संबंधों का सवाल उठाना चाहिए.
घटना में शरीर का संघर्ष है, शुद्ध सुरक्षा का
संघर्ष. उस समय वहां कोई नहीं होता - न बुद्धि, न तर्क, न सोच, न विवेक. शरीर होता है और उसमें ही अंतर्निहित
सुरक्षा के फौरी बचाव होते हैं.
"दुर्घटना का सबक" कविता में वह आने वाली
सलाहों पर जो कह रही है उससे साफ है कि वह इससे परिचित है कि उस समय कुछ काम नहीं
आने वाला. शरीर अपनी ही आंतरिक ऊर्जा और सुरक्षा कवच से लड़ता है अकेला और जब उसके
ये उपकरण काम नहीं आते तो वह नष्ट हो जाता है. पहले से सुझाई या सोची कोई तरतीब
वहां नहीं हो सकती, किसी तर्क,
युक्ति को काम में लाने का वक्त वहां नहीं होता.
क्योंकि दुर्घटनाएं शरीर को अपने में समो लेती हैं जैसे दो हिंस्र पशु प्राण छोड़
गुंथे होते हैं एक दूसरे को समाप्त कर देने के लिए. या तो यह शरीर दुर्घटना को
परास्त कर देगा या स्वयं परास्त होकर समाप्त हो जायगा. हां दूसरे कोई हों तो शायद
वे अन्य उपकरणों का प्रयोग करने की स्थिति में हों. हालांकि उनके लिए ऐसा करने के
लिए पूरे परिदृश्य से निस्संगता जरूरी होगी, जो संभव नहीं.
और उस बीच कोई अनुभव जैसी चीज भी नहीं हो सकती. दुर्घटना तो
अचानक बिजली के कड़कने की तरह गिरती है तेज अंधा कर देने वाली चौंध के साथ. उसका
वार खाली जा सकता है या शिकार को लील चुका होता है. सब कुछ जब समाप्त हो चुका होता
है तब जाकर सुनाई पड़ती है कड़कड़ाहट की ध्वनि जिससे हम कांप जाते हैं. दरअसल यह
कड़कड़ाहट तो खाली है, सब कुछ तो उससे
कितनी देर पहले ही घट चुका है.
ठीक यही रिश्ता दुर्घटना और अनुभव के बीच है. अनुभव या अन्य
जो भी प्रक्रियाएं हैं वे घटना के साथ होना असंभव हैं. वे दुर्घटना होने के बाद
होती हैं. बुद्धि या विचार स्मृति से घटना को " कंस्ट्रक्ट " करते हैं.
वे घटना में नहीं होते. और जो वहां होता है -- शरीर-- उसे जीवन चलाने का अपना काम
करते रहना है. उसके पास अनुभव या विचार की ऐय्याशी का वक्त नहीं होता, न इससे उसका कोई वास्ता है. वह अनुभव जैसी किसी
चीज को न तो जानता है, न उसके लिए बना
है.
घटना में अनुपस्थित के इस "कंस्ट्रक्शन" को हम
"साक्षात अनुभव"' समझते हैं. यह
कंस्ट्रक्शन अनुभव नहीं है, बुद्धि या विचार
द्वारा स्मृति के आधार पर रचा गया एक अनुभवाभास है. यह कंस्ट्रक्शन केवल उस एक
घटना के आधार पर नहीं, मानव इतिहास में
घटी ऐसी अनंत घटनाओं के हमारे ज्ञान से बहुत सारी चीजें लेकर बनाया गया है.
क्योंकि स्मृति कोई जीवित चीज नहीं हो सकती, बीती हुई चीज है, मृत है. यह घटना भी होने के बाद मर चुकी है और उसी तरह एक और सार्वजनिक स्मृति
बन गई है जैसी पहले से वहां अनंत हैं.
मृत चीज से एक जीवंत अनुभव की सृष्टि कर पाना कैसे संभव है
! इस रूप में कोई भी अनुभव जीवंत नहीं हो सकता. वह अधिक से अधिक उसकी पैरोडी हो
सकता है या आभास. क्योंकि अंतत: उसे कंस्ट्रक्ट करना होता है. अब यह कंस्ट्रक्शन
आपके अपने साथ घटी घटना का हो या अन्य किसी के साथ घटी घटना का, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता. इसलिए यह कहा जा
सकता है कि हर अनुभव स्मृति, बुद्धि, विचार, परंपरा, संस्कार वगैरह से
कंस्ट्रक्ट किया गया होता है. क्योंकि जो शरीर या उसकी इंद्रियां घटना के बीच होते
हैं उनका कंस्ट्रक्शन करने वाले अवयवों से बहुत सीधा संबंध नहीं होता.
मैं जानता हूं कि अनुभव के बारे में इस तरह की बात कहना
खतरे से खाली नहीं है. क्योंकि साहित्य और कलाओं का पूरा तंत्र ही अनुभव के आधार
पर खड़ा है. सच्चे अनुभव, जीवंत अनुभव,
उत्कट अनुभव, प्रामाणिक अनुभव और न जाने और भी कैसे कैसे अनुभव. इसलिए
कोई यह कैसे स्वीकार कर सकता है कि रचना और कला का पूरा प्रासाद जिस अनुभव पर खड़ा
होता है, वह अनुभव न तो मौलिक हो
सकता है, न जीवंत, न प्रामाणिक. वह घटनाओं की जीवंतता के बाद
यहां-वहां पड़े खंडहरों के कंकड़-पत्थर को जोड़ कर कृत्रिम रूप से खड़ी गई एक तरतीब है.
और क्योंकि कोई भी अनुभव वास्तव नहीं उसका आभास है इसीलिए
मनुष्य जाति लाखों बरस से बार-बार उन अनुभवों को दुहराकर भी फिर दुहराती जाती है,
क्योंकि अंदर से यह आभास है कि कोई भी अनुभव
वास्तव को "री-कंस्ट्रक्ट" नहीं कर सकता. अगर कोई अनुभव वास्तव को एक
बार प्रामाणिक रूप में कह देता तो वहीं उस अनुभव का अंत हो जाता. उसके बाद उस
वास्तव का कोई अनुभव हो ही नहीं सकता था. क्योंकि एक बार उस अनुभव को लिखा जाकर फिर
उसे लिखना संभव नहीं होता. अनुभवों का होना और होते रहना, उनपर आधारित एक रचना का लिखना और अनंत लिखे जाना इसका स्वयं
प्रमाण हैं कि वास्तविक अनुभव नहीं हुआ या हो नहीं सकता. घटना के बीच होने वाला और
अनुभव को बनाने वाला दो भिन्न अवयव हैं और दोनों के बीच कोई सार्थक संवाद संभव
नहीं है.
और एक तरह से यह अच्छा ही है क्योंकि इससे साहित्य और कलाओं
का कारोबार सतत चलता रह सकता है. इस कारोबार से किसी को क्या ऐतराज हो सकता है. बस
यही कि इसे ठीक से समझ लें और इसको लेकर बहुत आंय-बांय-सांय न करें.
खतरनाक बिंदुओं को छूने का यह सिलसिला जब शुरू हो ही गया है
तो इससे जुड़ी कुछ और चीजों को भी देख लिया जाय. मसलन कोई भी निश्चित तौर पर यह
कैसे कह सकता है कि घटना के होने और उसके बीच अपनी इंद्रियों और निजी बुद्धिमत्ता
के साथ उपस्थित हमारे शरीर के होने तथा अनुभव के होने में यह फासला क्यों है !
क्या यह समस्त प्रकृति या प्राणिजगत का नियम है !
नहीं, न तो यह प्रकृति
का नियम है, न प्राणिजगत का
नियम है. अधिकांश अन्य प्राणियों मंह जीवन, घटना, अनुभव सब कुछ एक
ही क्रिया के अंदर हैं. मनुष्य क्योंकि चेतन और विचारवान प्राणी बन गया है इसलिए
उसमें ये सब द्विधाविभक्त हैं. वह न तो इस प्रकृति का हिस्सा रह गया है, न प्राणि और वनस्पति जगत का. वह इनसे अलग है,
कटा हुआ है. इसीलिए वह समस्त प्रकृति को,
प्राणि और वनस्पति जगत को केवल अपने लिए मानता
है. वे न तो उसके समान हैं, न उसकी उपयोगिता
के अलावा उनकी कोई उपयोगिता है.
प्रकृति का, प्रणिजगत का,
वनस्पतियों का जो अंधाधुंध विनाश हुआ है वह इसी
का परिणाम है. अंतत: यह स्वयं अपने और सृष्टि के विनाश की राह है जिसे तमाम
सदिच्छाओं के रोकना संभव नहीं रह गया है.
इसीलिए मनुष्य वास्तविक अनुभव की क्षमता खो बैठा है और
अनुभव के नाम पर जो होता है वह मृत स्मृति से कंस्ट्रक्ट चीज है.
लेखिका ने बताया कि इस घटना में यह जीवन किसी तरह बच गया
"मर गयी होती तो
जीवन से बची होती "
यह बहुत संवेदनशील विषय है और लेखिका की समझ का भरोसा ही
हमें नॄशंसता के आरोप से बचा सकता है. इस दुर्घटना में क्या मर जाता और क्या बच
गया !
आम तौर पर सभी धर्मों, आध्यात्मिक चिंतन और जन-विश्वास में यही माना जाता है कि जो
मरता है वह शरीर है और जो अमर है वह आत्मा है. यानी कि जब यह शरीर आत्मा के निवास
के लायक नहीं रहता तो वह दूसरा शरीर धारण कर लेती है. आस्तिक चिंतन की ही यह खूबी
नहीं है नास्तिक चिंतन भी इससे अलग नहीं है. यानी कि जब यह शरीर समाप्त हो जायगा
तब भी मैं, मेरा नाम, मेरा काम, मेरा चिंतन, मेरे विचार,
मेरा परिवार बचेगा और चलेगा. शरीर नहीं रहेगा
तो भी रचना और रचनाकार रहेगा. यह घुमा-फिराकर आत्म की अमरता का ही राग या तरतीब है.
सबमें शरीर एक दोयम दर्जे का माध्यम भर है.
इससे बड़ा दोगलापन और भ्रांति कोई नहीं हो सकती. अगर यह सच
होता तो मरना हंसी खेल होता और वरेण्य. लेकिन बड़े से बड़े महात्मा को भी इस काया के
मोह से ही चिपके देखा है. जब यह शरीर मिटता है तो जिन्हें आत्मा की पहचान के रूप
में देखा जा सकता है , वे सब मिट जाते
हैं. यह स्मृति, यह भावबोध और
विचारबोध, यह गति, सब कुछ का अंत हो जाता है. जो बचता है वह मौलिकता से शून्य हो गए
लोगों की जुगाली या प्रेरणा या और आलतू-फालतू के लिए बचता है.
और मजेदार बात यही है कि हममें जो हमेशा जीवन की जीवंतता है,
वह शरीर की ही है. मन, बुद्धि, विचार, चिंतन के जिस संपूर्ण तंत्र की मानव चेतना ने
ईजाद की है वह सब इस शरीर के गुणधर्म नहीं हैं. वे ऐसे पैरासाइट हैं जो इस शरीर की
प्राकृतिक ऊर्जा को बेकार के कामों में नष्ट करते हैं. उससे शरीर को थकान होती है
जिसे मिटाने के लिए रात की विश्रांति में यह शरीर सबको सुलाकर क्षतिपूर्ति करता है.
शरीर गहरी से गहरी निद्रा में भी निरंतर अपना काम करता रहता
है जैसे सूर्य करता है और संपूर्ण प्रकृति करती है. वह एक क्षण के लिए भी विश्राम
ले ले तो सब खत्म हो जाय. दिल की एक धड़कन रुक जाय, कोई ग्लैंड अपना काम बंद कर दे तो क्या हो. इसलिए जिसे हम
थकान कहते हैं वह शरीर के कर्म के कारण नहीं है. यह मन, बुद्धि, विचार नाम के उन
पैरासाइटों का पर्याय है जिनके बंद हो जाने से थकान अपने आप ही समाप्त हो जाती है.
मद्यपान या अन्य नशीले पदार्थों का सेवन इन्हीं पैरासाइटों से छुटकारा पाने के लिए
होता है. हालांकि अधिकांश में अनजाने ही.
इसलिए यह शरीर और उसका जीवन प्रकृति की सतत क्रियाशीलता और
परिक्रमा से जुड़ा होने के कारण उसी का हिस्सा है. उसके अपने काम हैं और अपनी
बुद्धिमत्ता है जिसका प्रयोग वह किसी भी संकट में करता है. न बच पाने की स्थिति
में नष्ट हो जाता है.
और शरीर ही एकमात्र है जो अमर है. मैं जानता हूं कि यह कहने
से मौत से जूझकर निकल आए को या उसके परिजनों को कष्ट ही होगा, लेकिन ऐसा ही है. शरीर क्योंकि एक ऊर्जा है जो
प्रकृति के तत्वों के संघटन से पैदा हुई है. शरीर के नष्ट होने पर यह ऊर्जा अपने
मूल तत्वों में जा मिलती है, ऊर्जा को किसी नए
रूप में प्रकट करने के लिए.
सृष्टि में ऊर्जा का यह संतुलन नहीं बिगड़ सकता. उसे न तो एक
अंश आप घटा सकते हैं, न बढ़ा सकते हैं.
इस रूप में शरीर ही एकमात्र है जो अमर है. उसके अलावा वह सब कुछ नष्ट होता है जिसे
हम "मैं" के रूप में, मेरे भाव,
मेरे विचार, मेरा मन वगैरह के रूप में जानते और प्रचारित-प्रसारित करते
हैं. वे रहते भी हैं तो एक मृत स्मृति के रूप में या अजीवित लोगों के
उद्धरणों-उद्देश्यों के रूप में.
कविता के बड़े हिस्सों में लेखिका इसके प्रति उतनी सावधान
नहीं दिखती और इस बचने को अपनी शरीरेतर चीजों की निरंतरता के रूप में देखने लगती
है.
अंत में आती है घटना, घटना के कंस्ट्रक्टिड अनुभव के विचार से नियंत्रित होने की
बात. इन कविताओं में यह साफ दिखाई पड़ने लगता है कि घटना के बारे में यह जो
कंस्ट्रक्टिड अनुभव है, वह मात्र अनुभव
के स्वरुप में ही संतुष्ट नहीं रहता, बल्कि विचार का वाहक बन जाता है. यानी कि लेखिका की सब कुछ के बारे में
मान्यताएं या विचार इस अनुभव का इस्तेमाल करने लगते हैं."बाहर" और
"बच निकलने के बाद" में यह खूब मुखर हैं. अब हम उस नियंता को देखते हैं
जो अनेक नामरूपों में इस सबका सृजन कर रहा था और अंतत: अपने लिए सबका इस्तेमाल ही
उसका मकसद है.
विचार के रहते हुए किसी अनुभव की कल्पना नहीं की जा सकती.
जिसे हम अनुभव समझते हैं असल में वह विचार द्वारा चुना गया, कंस्ट्रक्ट किया गया जाल है जिसे वह अनुभव की ओट में फैला
रहा है. वह कुछ खास चीजों को देखने देता है, खास तरह से देखने देता है, खास तरह से उसको कहलवाता है. यानी कुल मिलाकर विचार अपनी
सिद्धि के लिए यह जाल बिछाता है और बहुविध स्तरों और प्रक्रियाओं का भ्रम खड़ा करता
है. यदि आप प्रगतिशील सोच के हैं तो वह आपके अनुभवों को प्रगतिशील जमीन दे देगा.
यदि आप व्यक्ति की निजता के हिमायती हैं तो आपके अनुभवों को नितांत निजी रूप दे
देगा. इस तरह अनुभव की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं होती, केवल उसका आभास होता है. ये अनुभव नहीं, विचार का ही एक छद्म रूप हैं.
और क्योंकि विचार न तो कोई जीवित चीज हैं, न निजी, न मौलिक इसलिए उनसे पैदा होने वाली चीज भी जीवित कैसे हो
सकती है. ये विचार वहां बाहर सदियों से चली आ रही विचार परंपरा से पैदा एक
सार्वजनिक संपत्ति की तरह से हैं जिसमें से अपनी रुचि और प्रवृत्ति के अनुरूप हम
अपने अंदर "डाउनलोड" कर लेते हैं.
एक मार्क्सवादी अपनी तरह के विचारों को डाउनलोड कर अपने को
भर लेगा, एक पूंजीवादी अपनी तरह के
विचारों से अपने को भर लेगा और भी कोई वादी अपने वाद के विचारों से अपने को भर
लेगा. वे "डाउनलोडिड" हैं, इसलिए जाहिर है कि उनमें कोई मौलिकता नहीं हो सकती. वे केवल जगह घेरते हैं और
मौलिकता के लिए गुंजाइश को कम करते हैं. दिक्कत यह है कि हम इन्हें मौलिक मानने की
गलतफहमी पाले होते हैं.
अभी कुछ दिन पहले अपने एक वयोवृद्ध साहित्यिक दिग्गज से
उनकी लिखी किताबों पर उनके कापीराइट पर ऐसे ही चर्चा हो गई. मैंने कहा कि कापीराइट
तो आपकी अपनी मौलिक चीज पर ही हो सकता है.
' उस किताब में आपका मौलिक क्या है !'
पहले तो वो ऐसा बेहूदा सवाल सुन आवेश में आ गए. फिर संभल कर
बोले कि 'विचार मेरे हैं.'
'कौन से विचार !'
'मार्क्सवादी विचार.'
'मार्क्सवादी विचार आपके कैसे हो गए. वे तो मार्क्स के हैं.
मार्क्स भी अपने विचारों का श्रेय नहीं लेते क्योंकि वे अपने से पहले के सबसे लेकर
रिकंस्ट्रक्ट कर रहे हैं.'
अंत तक आते-आते नौबत यहां तक आ गई कि किसी भी मौलिक से
मौलिक रचना में लिखने वाले का एक प्रतिशत भी कुछ अपना हो तो बहुत बड़ी बात होगी.
भाषा में भी आपका क्या है! वह तो हजारों साल के क्रम में विकसित हुई है. हो सकता
है आपने उसमें एकाध नया शब्द कहीं से उठाकर चला दिया हो. इसलिए यह मौलिकता किसकी !
अब यह रायल्टी इतिहास में किसको कितनी देते फिरोगे !
यानी कि चीजें इस हद तक अंधविश्वास में बदल चुकी हैं कि
उनपर हरेक पर सवाल उठाने की जरूरत है. और क्योंकि हम जानते हैं कि उनके पीछे कोई
ठीक ठिकाने का आधार नहीं है इसलिए सवालों के उठते ही हमें अपना अस्तित्व खतरे में
नजर आने लगता है और हम विचारवान नागरिक के सब मुखौटे उतार अपनी प्रतिक्रियाओं में
हिंस्र हो उठते हैं.
तो सवाल था अनुभव और विचार का. एक जमाने में सब लोग
मुक्तिबोध की मौलिकता से प्रभावित थे. आज भी हैं. उन्होंने अनुभव और ज्ञान के
संबंध को स्पष्ट करते हुए दो पारिभाषिक शब्द दिए -- "ज्ञानात्मक संवेदन"
और "संवेदनात्मक ज्ञान". यानी कि ज्ञान भी संवेदना या अनुभव की प्रेरणा
हो सकता है और संवेदना या अनुभव भी ज्ञान का आधार बन सकते हैं. इससे पहले माओ जे
दोंग मार्क्सवाद के इस सिद्वांत को सहज बना कर कह चुके थे.
हमने समझा कि यह मुक्तिबोध की मौलिक देन है. लेकिन बाद में
स्पष्ट हुआ कि यह न केवल एक मतिभ्रम था बल्कि शब्दों का खिलवाड़ भी. एक ही चीज को
दो भिन्न प्रक्रियाओं के रूप में दर्शाया गया था. स्वयं मुक्तिबोध का काव्य इस चीज
का गवाह है कि वहां अनुभव के नाम पर जो कुछ है वह मस्तिष्क के अंदर ही घटित हुआ है
और वास्तविक जगत में नहीं, विचार जगत में ही
घटित हुआ है. हमें वह पसंद है क्योंकि स्वयं हम उसके अलावा कुछ हैं ही नहीं.
इसलिए लगता है कि कोई भी संवेदना और अनुभव ज्ञान या विचार
से ही निकलते हैं और उसी में समाप्त हो जाते हैं. यानी यह पूरी प्रक्रिया स्मृति
और विचार के इस अमूर्त, वायवी, कृत्रिम और सीमित दायरे में ही चलती रहती है
जबकि लगता यह है कि वह वास्तविक जीवन, यथार्थ, संवेदना, अनुभव, ज्ञान, चिंतन आदि न जाने कितने
स्तरों पर गतिशील है. ध्यान से देखने पर ही पता चलता है कि यह सब विचार के द्वारा
रचाया मायाजाल है.
विचार सार्वजनिक स्मृति का हिस्सा होने के अलावा कुछ नहीं
हैं. वह वहां बाहर अनंत में मौजूद हैं, जो चाहें, जितना चाहें
डाउनलोड कर लीजिए और कुछ फेरबदल कर मौलिक बना चला लीजिए. स्मृति मृत चीज है,
जीवित नहीं. उसे जिलाना शवसाधना जैसी चीज है.
उस पर आधारित ज्ञान या विचार मौलिक या जीवित नहीं हो सकते इसलिए उससे निर्मित चीज
भी मौलिक कैसे हो सकती है. इस रूप में जो घटित हुआ वह तो हो गया, अब यह जो है वह उसके रीकंस्ट्रक्शन की कोशिश है.
इन कुछेक बातों की चर्चा के बाद अब चाहें तो लिखी कविताओं
के बारे में बात की जा सकती है.
________
कर्ण सिंह चौहान
स्कूल की शिक्षा दिल्ली के स्कूलों में हुई तथा उच्च शिक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय में हुई. वहीं से एम.फिल. और पीएच. डी., दिल्ली विश्वविद्यालय में २०१२ तक अध्यापन किया. बीच के नौ-दस बरस सोफिया वि.वि., बल्गारिया और हांगुक वि.वि., सिओल, दक्षिण कोरिया में अतिथि प्रौफैसर के रूप में अध्यापन किया.
लगभग १५ पुस्तकें साहित्य की विधाओं में प्रकाशित हैं जिनमें आलोचना के नए मान, साहित्य के बुनियादी सरोकार, प्रगतिवादी आंदोलन का इतिहास, एक समीक्षक की डायरी, यूरोप में अंतर्यात्राएं (यात्रा), अमेरिका के आर पार (यात्रा), हिमालय नहीं है वितोशा (कविता), यमुना कछार का मन (कहानी) आदि प्रमुख हैं. विदेशी साहित्य से अनुवाद में जार्ज लूकाच की दो पुस्तकें, पाब्लो नेरुदा, लू शुन, कोरियाई कविता-संग्रह आदि प्रमुख हैं. देश-विदेश की पत्रिकाओं में लेख आदि प्रकाशित.
लगभग १५ पुस्तकें साहित्य की विधाओं में प्रकाशित हैं जिनमें आलोचना के नए मान, साहित्य के बुनियादी सरोकार, प्रगतिवादी आंदोलन का इतिहास, एक समीक्षक की डायरी, यूरोप में अंतर्यात्राएं (यात्रा), अमेरिका के आर पार (यात्रा), हिमालय नहीं है वितोशा (कविता), यमुना कछार का मन (कहानी) आदि प्रमुख हैं. विदेशी साहित्य से अनुवाद में जार्ज लूकाच की दो पुस्तकें, पाब्लो नेरुदा, लू शुन, कोरियाई कविता-संग्रह आदि प्रमुख हैं. देश-विदेश की पत्रिकाओं में लेख आदि प्रकाशित.
karansinghchauhan01 @gmail.com
मेरे ख़याल से लेखक के विचारों का क्रम उनके मन में ठीक से 'डाउनलोड' नहीं हो पाया है। भूमिका से लगता है कि अगली बात या पैरे में अर्चना जी की कविताओं का उल्लेख आएगा, लेकिन डाउनलोड की रफ़्तार-- एमबीपीएस (मेगाबिट्स पर सेकेंड) फिर गड़बड़ा जाती है और लेखक विचारों की आकाशगंगा के किसी दूसरे छोर चले जाते हैं।
जवाब देंहटाएंअपने मूल मंतव्य को लगातार स्थगित रखते हुए उसके समानांतर कोई अन्य (बेशक महत्वपूर्ण) बात करते जाना एक विरल प्रविधि हो सकती है, परंतु फिर इसके लिए मूल बिंदू का चुनाव ही क्यों किया गया?
मौलिकता और स्मृति के बारे में कर्ण सिंह ने ला-सानी बातें कहीं हैं, लेकिन सवाल फिर फिर वही उठ रहा है कि लेख इन्हीं प्रत्ययों पर एकाग्र न होकर अर्चना जी की सिरे से अनुल्लेखित कविताओं के पास क्या लेने जाता है?
ऊपर की कुछ टिप्पणियों के लेखकों को ऐसा लगा कि मेरी टिप्पणी केंद्रीय विषय पर नहीं थी । वैसे यह तो उसमें साफ ही था कि वह अर्चना जी की उन कविताओं को पढकर लिखी थी जो 10-15 साल पहले उन्होंने अपने साथ हुई दुर्घटना पर 'हंस' में छपवाई धीं । यह उन कविताओं की समीक्षा नहीं थी ।
जवाब देंहटाएंमैं समझता रहा कि लोगों ने अवश्य वे कविताएं पढ़ी होंगी या उनके पास रखे अर्चना जी के संग्रहों में होंगी ।
कविता सामने होतीं तो बहुत सी बातें समझ में आ जातीं । यह तो छापने के बाद अरुण ने बताया कि कविताएं उपलब्ध हो जायं तो बेहतर ।
इन इतने सालों में कंप्यूटर कई बार क्रैश हो जाने से वे कविताएं नहीं मिलीं । संग्रह भी मेरे पास नहीं था । 'हंस' का पुराना अंक ढूंढने का समय नहीं था ।
इससे पढ़ने वालों को दुविधा हुई उसके लिए तो खेद ही व्यक्त किया जा सकता है। लेखक के बारे में उनकी राय पर कुछ नहीं कहना ।
जैसा कि कहा यह कविताओं की समीक्षा नहीं थी, उनसे उठे सवालों पर थी । समीक्षा उसके बाद लिखी जा सकती थी । वह यदि लिखी गई तो तब तक कविता ढूंढकर साथ देंगे ।
तब तक ।
यह भी खयाल आया कि जो सवाल कुछ जटिल लगे वे दर असल दर्शन, नृशास्त्र, मनोविज्ञान और भाषाशास्त्र के दायरे में आते हैं और शायद अधिक व्याख्या मांगते हैं।
जवाब देंहटाएं‘उसके लिए तमाम सिद्धांत और पद्धतियाँ उपयोगी हैं और दूसरी तरह से कहें तो बेमतलब’.
जवाब देंहटाएंयह कर्ण सिंह चौहान के समीक्षा लेख की तैयारी का बुनियादी वाक्य है। मेरा प्रश्न है कि ऐसा कैसा हो सकता है कि कोई सिद्धांत या पद्धति एक ही समय में उपयोगी भी हो और बेमतलब भी? अगर कोई सिद्धांत उपयोगी है तो बेमतलब कैसे हुआ और बेमतलब है तो उसका उपयोगी होना किस तरह संभव है? क्या यह निष्पत्ति अंतर्विरोधी नहीं है? मेरा कहना है कि अगर कोई वाद, विचार, अवधारणा, प्रत्यय या परिकल्पना बहुत जटिल, अपूर्ण या अप्रासंगिक है और वह हमारे इच्छित लक्ष्य या अभिप्रेत को व्यक्त नहीं कर पाती तो उसे ‘बेमतलब’ कहने की जल्दबाजी क्यों? मतलब ये कि अगर कोई प्रक्रिया या परिघटना हमें किसी अंतिम विश्लेषण तक नहीं पहुंचने देती तो उसे ज्यों का त्यों स्वीकार करने, उसकी जटिलता को मान लेने में क्याें दिक़्क़त है? उसे ‘बेमतलब’ घोषित क्यों किया जाए? क्या इसका अभिप्राय यह नहीं है कि लेखक विचार को पहले ही व्यर्थ मान चुका है?
इस लेख में कर्ण सिंह ने देह, अनुभव और स्मृति के बीच एक विचित्र विभाजन खड़ा कर दिया है। क्या इन तीनों को अलग करके देखना वाक़ई ज़रूरी है? देह को केवल पदार्थ और स्मृति को जड़ क्यों माना जाए? अगर चेतना इसी देह में अंतस्थ है और उसी का अंग है तो दोनों पर एक साथ बात करने में क्या हर्जा है? और क्या स्मृति भी चेतना के इसी कारोबार का हिस्सा नहीं है?
कर्ण सिंह इस लेख में अजब नकारवाद से ग्रस्त नज़र आते हैं। लेकिन जिसे वे नकारना चाहते हैं उसी का जमा-जोड़ तो जीवन है। अगर यह जीवन किसी दुर्घटना में ख़त्म हुआ तो हुआ, लेकिन अगर हम दुर्घटना से बच आए जीवन को स्मृति के ज़रिये दुबारा रचना चाहते हैं तो यह एक सहज क्रिया है। इसके अलावा मनुष्य के पास अपने को महसूस करने का और क्या साधन है!
मुझे लगता है कि कर्ण सिंह इस प्रदत्त को समस्या की तरह देखना चाहते हैं, जबकि अस्तित्व है ही इसी तरह— न एक इंच कम, न एक इंच ज़्यादा!
प्रियवर,
जवाब देंहटाएंशुरू में ही कहूँ कि इन सारी अवधारणाओं को स्पष्ट करने के लिए तो अलग-अलग पर लेख ही लिखने होंगे । पश्चिम में जब इन अवधारणाओं पर बात की जाती है तो बिना रैफरेंस के यह मान कर चला जाता है कि यह बौद्धिक विमर्श में पहले से ही हैं । हमारे यहाँ दिक्कत यह है कि तमाम विमर्श बने-बनाए सीमित साँचे में चलते हैं और उससे हटते ही हर चीज की अलग से व्याख्या की जरूरत पड़ती है, क्योंकि वे हमारे सुस्पष्ट और सुकर विमर्श परंपरा में अभी तक शरीक नहीं किए गए हैं ।
फिर भी, संक्षेप में कुछ चीजों पर अपना स्पष्टीकरण देना चाहूँगा, यह कहते हुए कि जरूरी नहीं है वह सारी आपत्तियों का निराकरण कर सके ।यह भी हो सकता है कि वह आपत्तियों की संख्या और बढ़ा दे । तो भी चिंता की कोई बात नहीं है, बहस तो हमेशा ही ‘ओपन एंडिड’ ही होती हैं ।
आपने मेरे समीक्षा-लेख (हालाँकि यह समीक्षा लेख नहीं है, वास्तविक समीक्षा से पहले कुछ चीजों का स्पष्टीकरण मात्र है) के बारे में कहा है कि उसका मूल वाक्य है सिद्धांतों और पद्धतियों का एक साथ उपयोगी और बेमतलब होना । आपकी मूल आपत्ति इसी पर टिकी है कि एक ही समय में कोई चीज उपयोगी और बेमतलब कैसे हो सकती है !
पहली बात तो यही कि यह प्रवाह का एक वाक्य मात्र है कोई बुनियादी सूत्र नहीं । सामान्य ज्ञान में यह सही है कि एक चीज एक साथ उपयोगी और बेमतलब कैसे हो सकती है । ध्यान दीजिएगा, यह वाक्य समीक्षा के नाम पर दुनिया भर में चले बहुत से सिद्धांतों और वादों को गिनाने के बाद लिखा गया है । इससे ठीक पहले लिखा है कि इन सिद्धांतों में से किसी एक को या अनेक को आदर्श मानकर व्याख्या करने की कोशिश नहीं की गई है, बल्कि आवश्यकतानुसार जरूरी होने पर उनसे सहायता ली गई है ।
एक सिद्धांत पर अड़ने से आप सिद्धांत के साथ न्याय भले ही कर लें, रचना के साथ न्याय नहीं कर सकते । एक रचना में न जाने क्या-क्या बाहरी-भीतरी लोक और मायालोक समाहित रहता है । उसे खोलने के लिए कहीं इतिहास की, कहीं मिथकशास्त्र की, कहीं मनोविज्ञान की, कहीं नृशास्त्र की, कहीं समाजशास्त्र की, कहीं स्थापत्य की, कहीं संगीत और चित्रकला की, कहीं भाषाशास्त्र की आदि आदि न जाने कितने ज्ञान-विज्ञानों की जरूरत पड़ सकती है । तो इस रूप में ये सभी उपयोगी हो सकते हैं । लेकिन एक समकालीन सचेत मनुष्य होने के नाते ये सब आपके डी.एन.ए. का हिस्सा बन चुके होते हैं और आपको उसके लिए वहाँ बाहर जाकर शास्त्र नहीं खँगालने पड़ते । वह पहले से ही आपमें हैं और उनके बाहरी रूप से अलग तरलता के रूप में हैं । इसी अर्थ में बाहर के वे सब सिद्धांत और वाद बेमतलब हो जाते हैं ।
दूसरा सवाल आपने देह, अनुभव और स्मृति के बीच विभाजन को लेकर उठाया है । असल में सवाल देह, अनुभव और स्मृति के बीच नहीं है, अनुभव और विचार के बीच किए कृत्रिम विभाजन का है । यानी जिसे हम अनुभव समझते हैं वह दरअसल विचार का ही एक छद्म रूप है, जिसे हम अनुभव का नाम देते हैं । जिसे हम अनुभव समझ रहे हैं वास्तव में वह स्मृति और ज्ञान से “कंस्ट्रक्ट” की गई तरतीब है । अगर ऐसा न होता तो एक चीज का अनुभव सबका लगभग एक ही होता । लेकिन व्यक्ति के विचार और ज्ञान उसे अपने अनुसार “कंस्ट्रक्ट” कर अनुभव के अनेक नामों से चलाते हैं । एक ही दृश्य को अलग व्यक्ति की आँख अलग-अलग रूप में देखती है, संगीत का अलग प्रभाव-ग्रहण होता है आदि । यह सवाल दर्शन का है और काफी व्याख्या माँगता है ।
जवाब देंहटाएंआपने मुझ पर ‘नकारवाद’ से ग्रस्त होने का आरोप न जाने किस बात के लिए लगा दिया । पूरा भारतीय दर्शन जरूर ‘नेति नेति’ के नकारवाद से भरा हुआ है जो सबसे सुंदर, बुद्धिमान, क्रियाशील और अमर इस शरीर रूपी कृति को नकार कर उन तत्वों को महत्व देता आया है, जो शरीर के ही या तो गौण अंग हैं या मनुष्य की मेधा ने जीवन-जगत का कृत्रिम भ्रमजाल खड़ा करने के लिए गढ़े हैं – आत्मा, परलोक, पारलौकिक वगैरह । मैंने तो इसके बरक्स शरीर की भौतिक और आत्मिक उपस्थिति का, इस अलौकिक क्रियाशील निर्मिति का सकारात्मक स्वीकार ही प्रस्तुत किया है ।
फिलहाल इतना ही ।
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