मुर्दहिया और मणिकर्णिका के
लेखक, प्रसिद्ध बौद्ध–विचारक और अंतर-राष्ट्रीय सम्बन्धों के विशेषज्ञ तुलसीराम की
आज पुण्यतिथि है. आज ही के दिन लम्बी बीमारी से लड़ते हुए २०१५ में वे हमसे विदा हो
गए थे. अपने दोनों आत्मकथात्मक उपन्यास ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ उन्होंने अपनी बीमारी से जूझते
हुए लिखीं थीं.
कवयित्री मोनिका कुमार ने उनके मुर्दहिया को केंद्र
में रखते हुए उनके अवदान को यहाँ अचूक और मार्मिक ढंग रेखांकित किया है.
मुर्दहिया अमर है
मोनिका कुमार
‘मुर्दहिया’ पढ़ते हुए लगता है जब जीवन इतना अधिक हो तो उस पर जीवनी, उपन्यास या जीवनोप्न्यास लिखने के लिए जीवन से इतर कुछ और लेकर नहीं आना चाहिये बल्कि जीवन और जीवनी से बीच साहित्य लेखन के सभी आग्रहों को हटा देना चाहिए और जीवनी या जीवनोप्न्यास को होने देना चाहिये.ऐसे विकट और विराट जीवन को अभिव्यक्ति के लिए ऐसी भाषा चाहिए, जो अभी बस अभी जीवन से निकली हो. जिस अभिव्यक्ति में बस जीवन मुखर हो; भाषा, तकनीक और युक्तियाँ जीवन के काम आने के लिए नेपथ्य में प्रतीक्षा करती हुई व्याकुल खड़ी हों.
“कॉ. तुलसीराम ने और कुछ न किया होता, सिर्फ़ ‘मुर्दहिया’ ही लिखी होती, तो वह उन्हें भूमंडलीय स्तर पर अजर-अमर बनाने के लिए पर्याप्त थी.”
मोनिका कुमार
‘मुर्दहिया’ पढ़ते हुए लगता है जब जीवन इतना अधिक हो तो उस पर जीवनी, उपन्यास या जीवनोप्न्यास लिखने के लिए जीवन से इतर कुछ और लेकर नहीं आना चाहिये बल्कि जीवन और जीवनी से बीच साहित्य लेखन के सभी आग्रहों को हटा देना चाहिए और जीवनी या जीवनोप्न्यास को होने देना चाहिये.ऐसे विकट और विराट जीवन को अभिव्यक्ति के लिए ऐसी भाषा चाहिए, जो अभी बस अभी जीवन से निकली हो. जिस अभिव्यक्ति में बस जीवन मुखर हो; भाषा, तकनीक और युक्तियाँ जीवन के काम आने के लिए नेपथ्य में प्रतीक्षा करती हुई व्याकुल खड़ी हों.
मुर्दहिया
से भाग कर तुलसी राम विद्वान बने, विचारक बने, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के
सेंटर फॉर रशियन एंड सेंट्रल एशियन स्टडीज़ में प्रोफ़ेसर हुए, विभिन्न देशों जैसे
अंगोला, अमेरिका, ईरान, और रशिया पर साधिकार किताबें लिखीं . लेकिन ‘मुर्दहिया’
सबसे बाद में लिखी. ‘मुर्दहिया’ उनकी सोची हुई योजना नहीं थी. वे एक्सीडेंटल राईटर
बने. बावजूद इसके विष्णु खरे ने तुलसी राम की मृत्यु पर चार साल पहले (2015 में) अपने
लेख ‘जीवनी अमर, अमर जीवनी’ में लिखा:
“कॉ. तुलसीराम ने और कुछ न किया होता, सिर्फ़ ‘मुर्दहिया’ ही लिखी होती, तो वह उन्हें भूमंडलीय स्तर पर अजर-अमर बनाने के लिए पर्याप्त थी.”
किताब
की भूमिका में तुलसी राम आज़मगढ़ की मुर्दहिया को निकालने का श्रेय ‘तद्भव’ संपादक
अखिलेश को देते हैं. उसी लेख
में विष्णु खरे ने यह भी लिखा कि
“मुर्दहिया’ की पहली क़िस्त पढ़कर यकीन ही नहीं हुआ कि ऐसा
लिखा भी जा सकता है.”
औपनिवेशिक
साहित्यिक विरासत से ख़ुद को आज़ाद
करनेके लिये लैटिन अमेरिका के लेखकों ने अपने ‘बूम’ के दिनों में जादुई यथार्थ की
शैली विकसित की; जो मिथक, स्वप्न, फैंटेसी
से मिश्रित उनके इतिहास और संस्कृति के यथार्थ को बेहतर परिपेक्ष्य में
अभिव्यक्त करती थी. लेकिन तुलसी राम ने जैसे ‘मुर्दहिया’ लिखी, तो ऐसे लगता
है कि धरमपुर के जीवन का यथार्थ जादुई यथार्थ की तकनीक में भी नहीं समा सकता,
क्योंकि मुर्दहिया के जीवन में सुपरनैचुरल नैचुरल में इस तरह अनुस्यूत है कि इसे
दो शब्दों में नहीं कहा जा सकता. ‘मुर्दहिया’ जीवनी और उपन्यास की प्रतिष्ठित
शैलियों को लांघ कर लिखी हुई किताब है. मुर्दहिया को केवल एक साफ़ नज़र चाहिए; जो
मुर्दहिया के गिद्धों, सियारों, भूतों, सूअरों, कुत्तों, चमरिया माई, डीह बाबा,और धरमपुर
की चमरौटी और बभनौटी के पात्रों को उनकी वास्तविकता के आलोक में समझ सके. एक
दृष्टि जो गिद्धों को प्रतीकात्मकता में नहीं, बल्कि मुर्दहिया के इकोसिस्टम में
एक ज़रूरी सदस्य की तरह और मुर्दहिया के जीवन संघर्ष में मनुष्यों और दूसरे जानवरों
के प्रतिद्वंदी की तरह देख सके.
“जिस समय कोई चमार पुरुष मरे हुए जानवर का चमड़ानिकालना
शुरू करता, अचानक सैंकड़ों की संख्या में गिद्ध मंडराने लगते तथा दर्जनों कुत्ते
आकर भौंकने लगते थे. कुछ सियार भी चक्कर मारते, किन्तु कुत्तों और महिलायों की
उपस्थिति को देखते हुए वे पास नहीं आ पाते. मरे पशु के मांस के बंदरबांट में
महिलायों के साथ कुत्तों की उग्र होड़ मच जाती थी”
‘मुर्दहिया’ की भूमिका में तुलसी राम लिखते हैं:
“...मरे हुए पशुओं के मांसपिंड पर जूझते सैंकड़ों गिद्धों
के साथ कुत्ते और सियार मुर्दहिया को एक कला-स्थली के रूप में बदल देते थे.”
इस किताब में ‘मुर्दहिया के गिद्ध तथा लोकजीवन’ पर पूरा
अध्याय समर्पित है.
“मुर्दहिया पर मुर्दा मांस खाने के बाद सैंकड़ों गिद्ध उस
पशु कंकाल से थोड़ी दूर हटकर अपनी टेढ़ी घेंटी लिये घंटों तक मौनव्रती के रूप में
किसी तपस्वी की तरह बैठे रहते थे. घंटों तक शांत बैठे ये गिद्ध ऐसा लगता था कि
मानो वे मुर्दहिया के भूतों को शोकांजलि देने के लिए विपस्सना कर रहे हों.”
मुर्दहिया के भूतों के बारे में भी तुलसी राम ने इसी
विलक्ष्ण अंदाज़ से लिखा है. यह उपन्यास भूतों द्वारा गाँव वालों की हत्या, साही का
भूत बन जाना, सूअरों की बलि देना, बरसात में पानी में तैरते चूहों (जिन्हें दलित
बच्चे पकड़कर घर ले जाते हैं, ताकि खाद्यान्न का टोटा होने पर उन्हें सुखा-पका कर
खाया जा सके ) आदि दृश्यों से भरा पड़ा है. लेकिन मुर्दहिया में कहीं भी कलात्मक अन्थ्रोपोमोर्फिज़म
का प्रयोग नहीं है. मुर्दहिया में प्रकृति और समाज के अंतर्संबंधों में हिंसा और सहजीवन दोनों के उद्धरण मिलते हैं,
लेकिन मुर्दहिया का जीवन फिर भी अति सक्रिय जीवन है. तुलसी राम ने ‘मुर्दहिया’ को
मुर्दहिया के अपने जीवनानुभव के पचास साठ साल बाद लिखा; जब वे मार्क्स, अंबेडकर और
बुद्ध के दर्शन में प्रबुद्ध हो चुके थे. निश्चित ही इस किताब में उनके
मुर्दहियोत्तर जीवन में संचित ज्ञान का गहरा प्रभाव है, लेकिन ‘मुर्दहिया’ केवल
लेखक की संपन्न पश्च-दृष्टि का प्रतिफलन नहीं है. तुलसी राम जब अपने बचपन का उल्लेख करते हैं;तो अपने
भूत-पूजक होने, चमरिया माई को ‘धार पुजौरा चढ़ाने’ की बात भी उसी तन्मयता से बताते
हैं जिस लगन से वे बौद्ध और समाजवाद के दर्शन की बातें करते हैं.
‘मूर्खता मेरी जन्मजात विरासत थी’ ‘मुर्दहिया’ का पहला
वाक्य है. तुलसी राम मूर्खता या मुर्दहिया में दलित बस्ती के लोगों के सर्वथा अशिक्षित
होने का महिमामंडन नहीं करते. लेकिन वे ख़ुद पर हँसने और आत्म दया के भाव से अलग
आश्चर्यचकित और द्रवित कर देने वाले वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मुर्दहिया के सामूहिक
और अपने निजी जीवन की व्याख्या करते हैं. तुलसी राम बताते हैं कि चेचक से पीड़ित हो
जाने के कारण मात्र तीन वर्ष की उम्र में ही उनका प्रवेश मुर्दहिया के ‘अशुभ’
व्यक्तियों की श्रेणी में हो गया था. जिस में उनके साथ गाँव का निरवंशी ब्राह्मण जंगू पाण्डेय
और एक निस्संतान विधवा औरत थी, इन लोगों के आम के पेड़ को छू भर देने से लोगों को
लगता था कि इस पर बौर नहीं आएँगे.
हवा को गाँठ लगा देने वाली बौद्धिक उठान की बातें
साहित्य में मिल जाती हैं, लेकिन मैनें कभी किसी को चेचक के दागों से भरे हुए अपने
ही चेहरे की ऐसी व्याख्या करते हुए नहीं देखा :
“चेचक
का प्रकोप हटते ही मेरी पूरी देह पर गहरे गहरे दाग पड़ गए. विशेष रूप से मेरा चेहरा
इन दागों का भंडारण क्षेत्र बन गया. गाँव में लोहार अनाज से मिट्टी या कंकड़
निकालने के लिए लोहे की पतली चद्दर काटकर उसे बड़ी चलनी का रूप देते थे और उसकी
पेंदी में सैंकड़ों छेद कर देते थे, जिसे ‘आखा’ कहते थे. आखा की पेंदी का बाहरी
हिस्सा छेनी के छेद से खुरदरा हो जाता था. मेरा चेहरा इसी आखा के बाहरी हिस्से
जैसा हो गया था.”
उपेक्षा,
वंचना और अकेलेपन के बेहद दर्दनाक क्षणों की व्याख्या तुलसी राम इसी सहजता से करते
हैं. उन्होंने बौद्ध दर्शन को आत्मसात करके अपने गुज़रे हुए जीवन को मुड़ कर देखा और
उसे सिर्फ़ याद नहीं किया,बल्कि उसे सुलझाया भी. पढ़ते-लिखते तो बहुत लोग हैं, लेकिन
पढ़ना लिखना जीवन सुलझाने के काम आ जाए-यह दुर्लभ होता है. अकाल की विभीषिका में जब
पानी का स्रोत कहीं नहीं था और और तुलसी
राम को किसी अन्य गाँव में पांचवीं की परीक्षा देने गये, तो किसी ने उनके दलित
होने के कारण उन्हें पोखरे में नहाने नहीं दिया. तुलसी राम ने लिखा है कि दो
दशक बाद जब महाकवि शूद्रक का सदाबहार नाटक ‘मृच्छकटिकम’ के आठवें अंक को पढ़ा, तो
मेरी दुर्भावना हमेशा के लिए मिट गयी. शकार को बौद्ध भिक्षु का कुत्तों और
सियारों के लिए खुदवाए तालाब में अपना चीवर धो लेना भी मंज़ूर नहीं था. इसलिए वह
बार बार भिक्षु को अपमानित करता है. तुलसी राम लिखते हैं कि ज़ाहिर है प्राचीनकाल
में वैदिक हिंसावादियों के चलाए बौद्धविरोधी अभियान के दौर में लिखे गए इस नाटक
में जाति व्यवस्था विरोधी बौद्धों को अपशकुन समझा जाता था.
“ बबुरा
धनहुवां के पोखर पर पहुँचने से पहले जो कुछ मेरे साथ हुआ उसमें रामचरण भैय्या मेरे
आधुनिक शकार थे.‘मृच्छकटिकम’ के बौद्ध भिक्षु के बारे में जानता होता तो शायद उतनी
पीड़ा की अनुभूति नहीं होती...इस घटना ने उस पुरानी पीड़ा से मुझे मुक्त कर दिया और
मुझे लगने लगा कि वैसी दुर्घटनाएं बदले की भावना से नहीं, बल्कि वैचारिक चेतना से
ही रोकी जा सकती हैं”.
तुलसी
राम जब मुड़ कर मुर्दहिया को देखते हैं, तो मुर्दहिया के जीवन को व्यापक संदर्भों
में स्थापित करते हैं.
“मेरे
जैसे तमाम दलित छात्र वही महुवे का ‘लाटा’ तथा ‘चोटे में सने सूखे सत्तू’ की गठरी
लिए चल पड़े. हैडमास्टर साहब के आदेश से हम लाईन बनाकर सैनिकों की तरह परेड करते
हुए सात मील का रास्ता तय करके इम्तिहान स्थल पर पहुंचे थे. हमारा यह अभियान
माओत्से तुंग के उस ऐतिहासिक ‘लांग मार्च’ से कम नहीं था, क्योंकि उसमें तो वही
‘लाटा सत्तू’ वाले ही लोग शामिल थे.”
ज्ञान
और संवेदना के इस स्वरुप से जाति व्यवस्था से ग्रस्त भारतीय समाज की हीलिंग होनी
चाहिये थी, लेकिन आज़ादी के बाद भारतीय समाज में दलित आन्दोलन अपनी निर्णायक लगने
वाली शुरुआत के बावजूद खंडित होता गया और अंततः वोट की राजनीति का ईंधन बन गया. तुलसी
राम निरंतर अपने भाषणों और लेखों में इस विघटन की आलोचना करते रहे और दलित विमर्श
को दिशा देने की कोशिश करते रहे. तुलसी राम की मृत्यु पर दिलीप मंडल ने बीबीसी के
लिए लिखे लेख में तुलसी राम को ‘भारत का ग्राम्शी’ कहा है.
"ग्राम्शी जिस तरह इटली के वंचितों की बात करते हुए ‘सदर्न क्वेश्चन’ में वर्गीय
प्रश्नों से परे जाते है, उसी तरह प्रोफ़ेसर तुलसीराम के वंचितों की परिभाषा में ग़रीब भी
हैं और दलित-बहुजन भी...वे अपने भाषणों में और लेखन के जरिए बताते हैं कि बहुजन
समाज भी ब्राह्णवादी मिथकों की चपेट में है और यह उनके विकास में अड़चन है.”
धरमपुर
के कनवा को केवल चिट्ठी पढ़ने योग्य बनाने के लिए स्कूल भेजा गया, लेकिन शिक्षा के
मिले हुए इस मद्धम से मौके को उस बालक ने अथक संघर्ष करके स्वर्णिम अवसर में बदल
लिया. मुर्दहिया के माहौल के योगदान की प्रशंसा नहीं की जा सकती (क्योंकि
मुर्दहिया अपनी मूल बसावट में ही दलितों की उपेक्षा करता हुआ उन्हें दक्षिण दिशा में
धकेल देता था,क्योंकि ब्राह्मणों की मान्यता के अनुसार सारी प्राकृतिक आपदाएँ दक्षिण
दिशा से आती हुई मानी जाती थीं ) लेकिन तुलसी राम को सलाम किया जा सकता है,
क्योंकि उन्होंने शिक्षा के मिले छोटे से अवसर को बहुत गंभीरता से ग्रहण करते हुए
सजग होकर उसे मुकाम तक पहुँचाया. हिंदी के अप्रितम गद्यकार अनिल यादव ने भी तुलसी
राम के देह्नात पर बीबीसी के लिए लेख में
लिखा :
“उन्हें देखकर हमेशा मुझे उस धातु
की महीन झंकार सुनाई देती थी जिसके कारण भुखमरी, जातीय प्रताड़ना का शिकार, सामंती पुरबिया समाज में दुर्भाग्य
का प्रतीक वह चेचकरू, डेढ़ आंख वाला दलित लड़का घर से भागकर न जाने कैसे
अकादमियों में तराश कर जड़ों से काट दिए गए प्रोफेसरों की दुनिया में चला आया था.–अपमान से कुंठित होने के बजाय पानी
की तरह चलते जाने का जज़्बा उन्हें बहुतों के दिलों में उतार गया था.”
पिछले
बीस पच्चीस बरसों में वैश्वीकरण के प्रभाव से भारतीय समाज की संरचना में इतने
परिवर्तन आए हैं कि पचास वर्ष पुराना भारतीय जीवन प्राचीन काल का लगने लगा है.
‘मुर्दहिया’ में लेखक की भरुक्की में अपने बेशकीमती सैंतीस ‘बिस्तौरिया’ संभालती
और सींग में नमक और हींग सहेजने वाली दादी, बंकिया डोम, पग्गल बाबा, हिंगुआरा और
तुलसी राम से अंग्रेज़ी का एक वाक्य ‘वल्चरज़ आर सिटिंग ऑन पीपल ट्री’ सीख कर अचंभित
और रोमांचक हो जाने वाली नटिनी जैसे पात्र बेहद रोचक होते हुए भी अविश्वसनीय लगते
हैं, क्योंकि समकालीन संस्कृति में आधार कार्ड से व्यक्त होती हुई अस्मिता
असंदिग्ध है. इसके अलावा हमारा विलक्षण सामर्थ्य और सनक अनुपयोगी है. ‘मुर्दहिया’
का वितान एक उत्कृष्ट फिल्म के वितान की तरह है जिस में अगर चरित्र स्क्रीन से एक
बार गुज़र भी जाए तो वह स्मृति में ठहर जाता है.
‘मुर्दहिया’
में मुर्दहिया गिद्धों, सियारों, भूतों और मनुष्यों की बहुद्देशीय कर्मस्थली तो
रहती है, लेकिन धीरे धीरे मुर्दहिया दर्शन पीठ बन जाती है. जीवन की विषमता को सम
कर देने वाली भूमि. ‘मुर्दहिया’ की यात्रा थका देने वाली और प्रेरित करने वाली
यात्रा है, इसे पढ़ते हुए पंजाबी कवि हरभजन सिंह की कविता ‘हे महान ज़िंदगी! नमस्कार
नमस्कार’ की याद आती है. जीवन के असंभव, सुन्दर, असुंदर स्वरुप को देखकर अंततः
रुदन में केवल जीवन का गुणगान किया जा सकता है. मुर्दहिया का बेहंगम संसार विचलित
कर देने वाला संसार है, लेकिन फिर भी मुर्दहिया का जीवन प्रामाणिक जीवन है. इस में
दुःख और वंचना बहुत है, लेकिन यह कृत्रिम हरगिज़ नहीं. तुलसी राम कहते हैं कि
‘मुर्दहिया’ लिखने तक मुर्दहिया भी वही नहीं रही, उजड़ गई है; लेकिन इस किताब की
वजह से मुर्दहिया अमर है. यह विशुद्ध भारतीय जगह है, हमारे कलुषित यथार्थ का स्मरण
कराती हुई हार्टलैंड है मुर्दहिया. तुलसी राम ख़ुद भी मुर्दहिया से एक बार जो बिछड़े
तो फिर नहीं लौटे लेकिन वे लिखते हैं :
“मुर्दहिया
न जाने कितने वर्षों से अनगिनत लोगों के दुःख-दर्द को जलाकर राख करती आ रही थी. और
न जाने कितने लोगों के दुःख को अपनी धरती
में दफना लिया था. और आगे भी इन दुखों को जलाती-दफनाती रहेगी. उस दिन मुझे
भी बड़ी गहराई से अनुभूति हुई थी कि मेरे अन्दर भी एक मुर्दहिया जन्म ले चुकी थी,
जिसमें भविष्य के न जाने कितने ही दुःख-दर्द जलने और दफ़न होने वाले थे. जब मैं
पन्द्रह वर्ष की अवस्था में हाई स्कूल पास करने के बाद पढ़ाई छूट जाने के कारण घर
से 1964 में
भागा, तो उसी मुर्दहिया से होकर अंतिम बार गुज़रा था, वैसे तो मैं अकेला ही था
किन्तु हकीकत तो यही थी कि चल पड़ी थी मेरे साथ मुर्दहिया भी.
जब मुझे मालूम हुआ कि दुनिया में दुःख है, दुःख का कारण है और उसका निवारण भी, तो ऐसा लगा कि इस सत्य को ढूँढने से पहले तथागत गौतम बुद्ध कभी न कभी मेरी मुर्दहिया से अवश्य गुज़रे होंगे.”
जब मुझे मालूम हुआ कि दुनिया में दुःख है, दुःख का कारण है और उसका निवारण भी, तो ऐसा लगा कि इस सत्य को ढूँढने से पहले तथागत गौतम बुद्ध कभी न कभी मेरी मुर्दहिया से अवश्य गुज़रे होंगे.”
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मोनिका कुमार
9417532822
turtle.walks@gmail.com
मुर्दहिया ऐसी रचनी है, जिसके नज़दीक भारतीय तो छोड़ दें, विश्व की भी कोई कृति नहीं रखी जा सकती। यह विकट भारतीय दलित जीवन का ऐसा आख्यान है, जो भारतीयता की सतही मान्यताओं की पुनर्व्याख्या की माँग करता है। दलित एस्थेटिक को समझने के लिए कोई पाश्चात्य अनुकरण काफ़ी नहीं है। जबकि डार्क एस्थेटिक को इसके बरक्स रख कर देखा जा चुका है और वह भी पूरा नहीं पड़ता। मोनिका कुमार जी का यह लेख मुर्दहिया के पाठ का विस्तार करता है, वैश्विक आख्यानों में उसकी अटेंडेंस देता है। इस रचना पर उनका दृष्टिकोण नया है।
जवाब देंहटाएंमुर्दहिया और तुलसीराम का मैं मुरीद रहा हूँ। मुर्दहिया पर यह समीक्षात्मक लेख बहुत बढ़िया बन पड़ा है। बहुत अच्छा।
जवाब देंहटाएंबहुत ही अद्भुत लिखा है इन्होंने। मैंने पढ़ी है किताब। अब लेख पढ़ती हूं। सादर नमन
जवाब देंहटाएंबढ़िया लेख। मैंने जब यह रचना पहली बार पढ़ी थी तो सन्न रह गया था। मुझे लगा था कि कोई लेखक समाज की उस अन्यायी व्यवस्था को इतने डिस्टैंस, इतनी निस्संगता से कैसे देख सकता है जिसने उसके निजी जीवन को इतने अभावों, अपूर्णताओं और विषाद से भर दिया है! फिर जब यह आक्रोश उतार पर आया तो धीरे-धीरे साफ़ हुआ कि अगर इस आत्मकथा को तुलसीराम निजी पीड़ा की डायरी बना देते तो यह रचना दलित-जीवन का समाजशास्त्रीय दस्तावेज़ न बन पाती।
जवाब देंहटाएंआज अगर साहित्यकार, समाजशास्त्री और राजनीति-विज्ञानी इस कृति का अपने-अपने ढ़ंग से पाठ करते हैं तो इसकी वजह शायद यह है कि वह व्यक्तिगत दुख को व्यापक संरचना में, उत्पीड़क के प्रति फूटने वाली घृणा को सामाजिक सत्ता में और निजी प्रतिशोध को मुक्ति के दर्शन में देखने का विवेक पैदा करती है।
मणीन्द्र नाथ ठाकुर ने अपने एक बहुत सुचिंतित लेख--- 'ज्ञान की सामाजिक उपयोगिता और मुर्दहिया' में इस रचना को भारतीय समाजशास्त्र की एक नयी परिकल्पना के प्रस्थान-बिंदू की तरह परखा है।
आभारी हूं लेखिका मोनिका जी का इस लेख के लिए। और आपके ब्लॉग का भी। अनुमति के बिना शेयर किया इसकी माफी दीजिएगा।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल गुरुवार (14-02-2019) को "प्रेमदिवस का खेल" (चर्चा अंक-3247) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
पाश्चात्य प्रणय दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Very nice sir thanku...
जवाब देंहटाएंCBSE Sample paper
विचलित करने वाले यथार्थ की अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंमोनिका कुमार का यह लेख मुर्दहिया उपन्यास पढ़ने की तीव्र उत्सुकता जगाता है.
जवाब देंहटाएंमुर्दहिया उपन्यास हमारे समाज के उस 'सहज सच' की अहम डाक्यूमेंट्री जिसे न जाने कितने तुलसीरामों ने भोगा है। वास्तविकता इससे भी कही अधिक वीभत्स रही है। धन्यवाद मोनिका जी एवं अरुण जी।
जवाब देंहटाएंएक अवाक कर देने वाली रचना मुर्दहिया!डा तुलसीराम सर से इसपर चर्चा हुयी थी जब उनके घर मिलने गयी थी ।मोनिकाजी का गहन विश्लेशण अच्छा लगा ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मित्रो
जवाब देंहटाएंमोनिका कुमार
सुचिंतित लेख। मोनिका हमारे समय की जेन्विन बुद्धिजीवी हैं।
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