जिस नगर में कुछ
अच्छे कवि-शायर, थोड़े से कथाकार कुछ सुनने लायक बौद्धिक जनवादी विचारक, विवेकवान
पत्रकार तथा एकाध नाट्य समूह और थोड़े से कलावंत न हों वहाँ नहीं निवास करना चाहिए.
बिहार के बेगूसराय
जैसी जगह पर ‘फैक्ट’ नाम से एक नाट्य मंडली है जिसने अभी-अभी अपना पाँच दिवसीय
नाट्योत्सव संपन्न किया है. रंग-समीक्षक सत्यदेव त्रिपाठी वहां थे. किस तरह से दृष्टिसंपन्न व्यक्तिगत प्रयासों
से कितना कुछ सांस्कृतिक घटित हो रहा है ऐसी जगहों पर. यह इस आलेख को पढ़ कर ही आप
समझ सकते हैं.
बेगूसराय में रंगोत्सव : एक सांस्कृतिक आन्दोलन
सत्यदेव त्रिपाठी
जिन छोटे शहरों में आजकल बडा रंगकर्म हो रहा है, उनकी अगली पंक्ति में शुमार शहरे बेगूसराय में पहली बार आना हुआ.... यहाँ का हॉल ‘दिनकर कलाभवन’ देखकर जी जुडा गया – प्रताप दिनकरजी का भी !! ‘फैक्ट’ समूह का जोश-ख़रोश ज़ोरदार.... नेतृत्त्व प्रवीणकुमार गुंजन का, जो अपने यहाँ रंगकर्म का अलख ही नहीं जगा रहे, उसे एक आन्दोलन बना चुके हैं और इस मुहिम में प्रशासन व नगर के धनिकों से लेकर आम आदमी तक की सक्रिय भागीदारी से यहाँ की सांस्कृतिक धारा एक समाजसापेक्ष्य कलात्मक विकास की तरफ चल पडी है.. इस रूप में यह राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’- प्रशिक्षण के मूल उद्देश्यों में एक -‘अपने अंचल में आकर रंगकर्म करने’- की अतिरिक्त सार्थकता भी है.
पाँच दिवसीय नाट्योत्सव का उद्घाटन-सत्र
कुमार अभिजित के संचालन में मुख्य सभागार के दाहिने पार्श्व में सुसज्जित पाण्डाल
के भव्य मंच पर दर्जन भर महनीय आमंत्रितों की उपस्थिति में सम्पन्न हुआ, जिसमें
संस्था के नियमित सम्मान प्रदान किये गये - हबीब तनवीर सम्मान– श्री
देवेन्द्रराज अंकुर को, बादल सरकार सम्मान – श्री अभिलष पिल्लै को और प्रमोद कुमार
शर्मा स्मृति सम्मान – श्यामाचरण मिश्र को. इन्हें सम्मान प्रदान करने वाले
रानावि के कार्यकारी निदेशक सुरेश शर्मा, जिला पदाधिकारी राहुल कुमार व पुलिस
अधीक्षक आकाश कुमार ने कार्यक्रम के प्रति अपने मनोगत भी व्यक्त किये. इस क्रम
में नाट्य-निर्देशक परवेज़ अख़्तर वरिष्ठ रंग-समीक्षक सत्यदेव त्रिपाठी,
संगम पाण्डेय तथा रंगकर्मी-समीक्षक जीतेन्द्र सिंह के शुभेच्छा-वक्तव्यों एवं
पूर्व मेयर संजय कुमार के धन्यवाद-ज्ञापन के बाद उत्सव के पहले मंचन के लिए
पाण्डाल से सभागार की ओर प्रयाण.
वहाँ ‘बन्द अकेली औरत’ के साथ
उत्सव अपनी शुरुआत की प्रतीक्षा में.... फ्रैंका रामे व दारियो फो लिखित नाटक
‘वूमन अलोन’ के पहले ‘बन्द’ (जोड) करके आधा खोल दिया है - अनुवादक रंग समूह ‘द
फैक्ट...’ ने. इस औरत की बावत फ्रैंका रामे का कथन ही इसकी सबसे अच्छी समीक्षा है–
‘नाटक की घटनायें (पीसेज़) हास्यास्पद (कॉमिक) हैं, विचित्र हैं...सबसे पहले इसलिए
कि हम औरतें दो हज़ार सालों से विलाप कर रही हैं...तो आओ अब हँसे... – अपने पर भी’!!
याने यह औरत-जाति की सनातन व्यथा-कथा है, जिसमें सुख नाम की कोई बात नहीं. युवा
औरत-बूढा पति, घर में घायल पडा भ्रष्ट देवर, अंग्रेजी ट्यूशन और ट्यूटर से प्रेम
के बाद ताले में बन्द. फिर भी गन्दे-गन्दे फोन...सब इतना कि दुख जुहाया हुआ भी हो
गया है.... सीसी कैमरे लगे फ्लैट में औरत के पास समय काटने नहीं, समय को काट खाने
के सारे साधन भी हैं – एफएम रेडियो, टेलीफोन, वाशिंग मशीन, वीडियो.. आदि. ऐसी औरत
ख़ुद के परिहास के मिस पति-पुरुषों की के किये की खिल्ली उडाती है. उसे बरगलाती है,
कटघरे में खडा करती है और अंत में हत्या कर देती है.... सो, विलापकथा है बदला-कथा
भी....
इन विचित्र व हास्य घटनाओं में जीवन व मंच
के काल व स्थल...आदि के काफी असंतुलन, अंतर्विरोध व बेतरतीबियां हैं. घटनाओं की
प्रस्तुति में व्यतिक्रम का सधा क्रम यूँ कि जब जिसे चाहे, बताने से नाटक बन जाता
है.... औरत सीमा घर में अकेली, तो मंच पर अकेली खुशबू कुमारी उक्त पूरे सम्भार को
‘नय करने’ वाली नायिका को अकुलाहट के साथ साकार करती हैं. जीवन की एकरसता की ऊब
उसे बेपरवाह बना चुकी है. इन सबके बीच आक्रोश, मज़बूरी, डर और अचानक आये फोनो पर गढे
जाते झूठ-फ़रेब और सुमिरनी की तरह ‘मेरे ‘पती’ ने सबकुछ दिया है’ जैसे व्यंग्य...और
फिर जायज़ हत्याओं का विस्फोट.... इन सबको व्यक्त करने की सही टाइमिंग व अवसरानुकूल
हाव-भाव-आवेग, मुद्रा-गति-संचालन, आवाज के उतार-चढाव-पॉज़, अन्दाज़-भंगिमा-चितवन....
इतनी घटनाओं-भावों के संकुल एवं चहुँ ओर गँजे सामानों के ढेर के बीच अभिनय को
सँभालने में आती ढेरों भाषिक फिसलनों के साथ खुशबू भी ऊर्जा की जनरेटर बन जाती
है.... और सब कुछ सिरजते-सधाते प्रवीण गुंजन के निर्देशकीय नियंत्रण की छूट तथा
छूट का संयोजन जितना ही मुफ़ीद, उतना ही परहेज़ का संकेतक भी...कि ‘लार्जर दैन लाइफ’
को ‘हेवियर दैन लाइफ’ बना देने के बिना इसे किया जाये, तो कैसा रहे...?
उत्सव का दूसरा नाटक - सर्वांग दुरुस्त ‘नेटुआ’.
‘सम्पूर्ण थियेटर-कर्म’ का विरल उदाहरण. मुख्य
पात्र पिछडी जाति के यतीम झमना में मिथिलांचल के लोक नाच ‘नेटुआ’ की नैसर्गिक कला है,
जिसे निर्देशन के साथ मुख्य भूमिका करते हुए नचनियां के नाट्योचित वस्त्राभूषण में
युवा दिलीप गुप्ता हू-ब-हू उतार देते हैं. नाच के साथ जीवंत गाने-बजाने में
जानकारों के लिए ‘नेटुआ’ की खाँटी कला का रसास्वाद इस नाटक का अग्रणी श्रेय है, जो
उससे बाद की अनजान पीढियों के लिए संस्कृति की विरासत से परिचित होने की उपादेयता
का प्रेय बन जाता है.
फिर धीरे-धीरे जुडता है लोक कलाकारों की
गम्भीर त्रासदी का सामाजिक सरोकार - ज़मींदारों द्वारा उनका यौन-शोषण. इसके दो
प्रतिनिधि हैं, जिनके हथकण्डों से बचने की कोई
गुंजाइश नहीं. अँधेड नरायन मिसिर ऐशो-आराम के प्रलोभन से करते हैं और अपनी
निराबानी धज-अदा में क्या फ़बते हैं युवा नरेन्द्र कुमार!! तो विद्या बाबू ज़ोर
जबर्दस्ती के साथ अपने यहाँ नाचने से ही चलती उनकी रोज़ी-रोटी को बन्द करने की धमकी
से मज़बूर कर देते हैं. उजली धोती-कुर्ता की दिखावटी शराफ़त में छिपी सर्द (कूल)
क्रूरता को सही अंजाम देते हैं राजेश बख़्शी. लेकिन फिर यह सिलसिला झमना तक ही नहीं
रुकता, शातिर नज़र उसकी नयी-नयी व्याहता और घर की ज़मीन पर भी, जिसे हडपकर वह उद्योग
खोलना चाहते हैं. और होली के दिन उसके दरवाज़े पर नाच (जो रवाज़ भी था) के षडयंत्री
आयोजन में रंग मलते हुए बलात्कार की बेशर्म कोशिश नाटक का उरोज़ (क्लाइमेक्स) है.
तब झमना अपनी पर उतरता है और ताजिन्दगी दबे-तुपे उद्गार लाठी लेकर फूट पडते हैं. भाग
खडे होते हैं बलात्कारी सहित सब लोग. बचती है अस्मत – भले नाटक में ही, पर बख़ूबी
नाटक की तरह होकर सार्थक बनती है नाट्यकला....
लेकिन टूट जाता है झमना और पेशा छोडकर
सारी आस शहर में पढते बेटे पर लगाना चाहता है कि उसे सदमा देता नाटक नया मक़सद व
प्रदेय लेकर सामने आता है. बेटा भी वहाँ इसी नाच के शहरी आधुनिक रूप से जुड गया है
- आगे निकल रहा है.... ‘इन्हीं लोगों ने ले लीना डुपट्टा मेरा’ के झमकते नाच से ही
नाटक शुरू होता है, जिसमें बेटा बने राजतँवर ने बल खाती जवानी व नाच को ख़ूब लहकाया
है. फिर पूरा उक्त नाट्यसम्भार बेटे को अपनी त्रासदी से बरजते बाप द्वारा
पूर्वदीप्ति (फ्लैशबैक) में चला है.... और यह विधान शैली भर नहीं है, वरन
परम्पराशील नाट्य को आधुनिक जीवंतता के साथ आगे बढाने का सन्देश बन जाता है. सब
सुनकर भी बेटा इसी कला को साधने की जूझ के लिए तैयार होता है.... पहले तो झमना
विरोध में खडा होता है, फिर बेटे के पीछे की छाया बनते दृश्य में पुराने लोक रूप
का नये में संतरण के संकेत उभरते हैं, पर तब तक दोनो नाचने लगते हैं दो छोरों
से...और दोनो पीढियों व युगों के संयुक्त प्रयत्न में नये सिरे से जी उठती है
नेटुआ-कला. इस तरह ऐसी विरासतों से महरूम होने की बडी सांस्कृतिक क्षति से उबरने
के सक्रिय स्ंकेत भी साकार होते हैं.
रतन वर्मा की 1991 में लिखी तीन पन्नों की कहानी ‘नेटुआ’ से शुरू होकर इसी नाम से उपन्यास बन गयी कृति पर आधारित इस नाटक की प्राणवायु है नाच-गान. सो, एक किनारे वादक मण्डली और पृष्ठ भाग में घर, नाच-स्थल व बैठक...आदि के सांकेतिक वितान के बाद मंच का बडा भाग खाली है नेटुआ नाच के लिए..., जिसमें मुख्य नटुआ के समानांतर समाजी नाम से छह लोग नाचते-फेरे लेते प्रस्तुति के शृंगार बन जाते हैं. इनमे कई तो नौसिखिये हैं, पर उसी में अच्छा नर्तक है अविनाश तिवारी, जो मास्साहब बनकर दो मिनट में भी असर छोड जाता है. यौन-सम्बन्ध बनाने जैसे जटिल व संवेदनशील दृश्यों को जिस तरह के संकेतों से साधा गया है, वह मंच की गहन कला व सरोकारों से संवलित है. नाच-गान में गीतों की निर्णायक भूमिका के मद्दे नज़र सटीक व व्यंजक गीत समाहित हैं. नेटुआ-जीवन के केन्द्रीय तत्त्व नाच के लिए ‘नाच करम बा, नाच धरम बा/ नाच ही जीवन, नाच मरन बा/ नचते ही छूटे रामा देह से परनवाँ...’. इस गीत सहित नाटक के कई बेहद सटीक व मौजूं गीत लिखे हैं युवा सुधांशु फिरदौस ने. लेकिन कुछ पारम्परिक के बिना शान कैसे चढती परवान – ‘लागल बा मनवाँ हमार हो बलम कलकत्ता घुमा दा..’ जैसे और भी हैं.... साथ ही भोजपुरी के पितामह गीतकार महेन्दर मिसिर के बिना भी बात कैसे बनती –
‘हमनी के रहब जानी दूनो हो परानी
अँगना में कीच-काँच दुअरा पे पानी
कहें महेन्दर मिसिर सुना दिलजानी
केकरा से आग माँगब केकरा से पानी...?
इस प्रकार यह ऐसा नाट्य बन पडा है, जो बार-बार देखने का आमंत्रण देता है और आश्वासन भी कि हर बार पुनर्पुर्नवा होने की उर्वरता से लबरेज़ होगा....
तीसरा नाटक ‘सीगल थियेटर’, गोहाटी का
‘आकाश’. अपने समूह संचालक व निर्देशक बहरुल इस्लाम के नाम से बेहद
नामचीन. लेकिन मुख्य भूमिका में उनके किरदार के वैविध्य व उसे निभाने की उनकी
विविधरंगी दर्शकता के अलावा इसमें कुछ भी उल्लेख्य नहीं. और अभिनय मे भी
किशोर-सुलभ मनोरंजन की इरादतन ठूँसठांस उसे स्तरीय तो नहीं बनाता, बल्कि इसी में
दबकर संवेदनशील पीडा वाले कथ्य और पितृत्त्व दोनो का मखौल बन जाता है, जो अंतत: नाटक
का ही मखौल सिद्ध होता है. नाटक तो होने वाले दामाद के इतर प्रेम-प्रसंग से अपनी
बेटी के जीवन के प्रति चिंता का है. उसका यह निदान कि जवानी में ऐसा हो ही जाता
है...फिर सब ठीक हो जाता है, को स्थापित करने के लिए पिता को अचानक अपनी जवानी के
प्रेम-प्रसंग याद आ जाते हैं और फिर डेढ घण्टे के नाटक में प्रेम के नाम पर वह
छेड-छाड, फुसलाने (सिडक्शन) की इश्क़बाजी (फ्लर्टिंग) करता रहता है. मूल नाटक मेरा पढा
हुआ नहीं है, इसलिए आधिकारिक रूप से इसके होने पर कुछ कहने की स्थिति नहीं, लेकिन
निर्देशकीय विधान ऐसा कि हम पहले इसके रुकने और बाद में तो नाटक खत्म होने का ऊब
भरा इंतज़ार करने लगते हैं. बेटी को तो भूल ही जाता है बाप, अपनी आधी दर्ज़न तथाकथित
प्रेमिकाओं मे किसी के साथ तो ईमानदार (सीन्सियर) होता, वरना अंत में प्राय: सबको
टरकाने लगता है – सस्ता बना देता है. और नाटक सतही रुचि वाले किशोरों लिए समय-बिताऊ
और हमारे लिए समयखाऊ बन जाता है.
इन पात्रों की दशा ऐसी है, तो इन्हें जीते
कलाकारों का हाल क्या होगा...? पहली वाली प्रेमिका की थोडी अनट के अलावा सभी सिर्फ
उपादान (इंस्ट्रूमेण्ट) हैं. इस ‘आकाश’ में न किसी अन्य को कोई आकाश (स्पैस) मिला
है, न ही एकरस इस्तेमाल होने के सिवा कोई काम. पत्नी तक को सिर्फ़ सोने का ही काम मिला
है. दो शय्या के बिस्तर से लेकर मंच के दाहिने पार्श्व में प्रेमिका-मिलन उर्फ़ छेडछाड
के लिए बनायी जगह और उसी के लिए खाली छूटा बाकी मंच भी कामचलाऊ सज्जा के साथ
निर्देशकीय इरादे का पता देता है. और जब पत्नी जागती है, तो ‘ऐसा सबके साथ होता है’
वाली वही बात कहती है’. लेकिन पति महोदय को अपने जिस अनुभव से बेटी के प्रति
आश्वस्त होना है, उसी को पत्नी से सुनकर अपने आईने में उसे देखते हुए घोर
सामंतवादी पुरुष की तरह शंका में मुब्तिला हो जाते हैं. बेटी की चिता से पत्नी के
प्रति शंका के नोट पर नाटक का समाप्त होना भी क्या फ़न नहीं है? सो ‘मेकिंग फन’ ही
नाटक का सरोकार बनकर रह गया है. कुछ और मिला हो इसके सिवा, तो बताये कोई...!!
बहरुलजी का पहला काम देखते हुए उनके
रानावि वाला (एनएसडियन) होने के साथ कई ख़िताबों व पर्दे पर और विदेश में किये काम के
ग्लैमर का दबदबा तारी था.... शायद इसीलिए कुछ बहुत अच्छा या अद्भुत की आस हो गयी
थी, जिसका दस-पन्द्रह मिनट बाद से परत-दर-परत ढहते जाना गहरे क्षोभ का ऐसा सबब बना
कि इस्तक़बाल भी न कर सका.... अब जल्दी ही उनके किसी मानक काम को देखके गलबहियां की
तडप तारी है!!
चौथा नाटक ‘द जग्मिता क्रियेटिव आर्ट’ का पुन: एकल था ‘स्त्रीपत्र’. इस बार टैगोरजी जैसे महान का आलेख और थियेटर पर व्हाया बडा पर्दा (बैण्डिट क्वीन) वाली प्रस्तोता का जलवा भी. तो हॉल खचाखच. काम भी पलक-नोंक दुरुस्त जैसा सौ प्रतिशत सधा-फ़बा.... काटने-बराने की कोई बात ही नहीं. समर्पण व ज़हनियत भरपूर. मृणाल बनी सीमा विश्वास का अभिनय व समूचा सरंजाम खाँटी मंचीयता (थियेट्रिकल) का मानक.
लेकिन नाटक तो स्त्री के घरेलू शोषण का है – स्त्री-पुरुष भेद का. समृद्ध घर की पढी-लिखी व सुन्दर होने के नाते मृणाल के साथ ससुराल में जो कुछ नहीं हो सका, वह सब कुछ पति की बहन की ससुराल से आयी अनाथ, अनपढ, असुन्दर लडकी बिन्दु के साथ इतना हुआ कि कूएं में फेंकने जैसी शादी के बदले उसने अपने को जला लेना बेहतर समझा. और इसी सब को न सह पाकर आत्महत्या के बदले ससुराल के ऐसे घर को हमेशा के लिए छोड देना ही मृणाल व उसके रचयिता कवीन्द्र को सही व अच्छा लगा. इसके बाद का उसका लिखा पत्र ही है – स्त्रीपत्र.
मैं कवीन्द्र की स्मृति से क्षमा याचना के
साथ रंगकर्म की जानिब से कहना चाहूँगा कि इस तरह घर छोडकर जाना तब एक स्त्री के
लिए अजूबा था, अनहोनी था, विद्रोह था.... पर अब वह जमाना अस्त हो चुका है. मामूली
बातों पर भी स्त्री के लिए घर छोडना लगभग सामान्य हो चुका है. अस्तु, अब इसमें
इतिहास-स्मरण भर रह गया है. और कोई सिर्फ थियेटर वाला करे या फिल्मी नाम के बिना
कोई रानावि वाला ही करे, तो देखने वाले कितने आते और कितने शोज़ होते? इस बात का
पता यदि सीमाजी को भी है, तो भले यह प्रस्तुति उनकी अंतस् की माँग का प्रतिफल हो,
पर सिद्ध हो रहा है अपनी छबि का दोहन ही. फिर कोई टीम होती, तो भी कुछ के भले होते...और
‘एक ठो स्टार वाले नाटक’ से थियेटर का भी भला होना नहीं!!
प्लेटफार्म शो : शहर हमारा अपराध नगर हो गया है (प्रवीण गुँजन) |
पाँचवें दिन नियमित शो के पहले हॉल के बाहर वाले खुले मंच पर ‘हमारा शहर अपराध नगर हो गया है’ का मंचन हुआ - ‘प्लेटफॉर्म प्रस्तुति’ . प्रवीण गुंजन के निर्देशन में गीत-संगीत, कथा-रपट, संवाद-भाषण, नारे-घोषणायें, टकराव-ऐक्शन, अदा-अभिनय...आदि के वाजिब व संतुलित आयामों से भरपूर यह प्रयोग नाट्य की दृष्टि से तो ‘अच्छा बना’ है ही, अपराध जैसी आज की ज्वलंत समस्या को खुलकर उठाने के जीवंत सामाजिक सरोकार से भी भरपूर है, जि ऐसी जीवंत नाट्य विधा का श्रेय-प्रेय भी होता है. विधान ऐसा कि कहीं भी सहज में ही प्लेटफॉर्म बनाके तथा कलाकारों व कालावधि को भी अवसरानुकूल कम-ज्यादा करके इसे खेला जा सकता है. ‘पृथ्वी थियेटर’ मुम्बई में महीने-महीने के राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय उत्सवों में रोज़ ही ऐसी प्रस्तुतियों की सुदृढ परम्परा मैंने देखी है. उन्हें शो के लिए आये दर्शक तो देखते ही थे, आस-पास के छोटे तबके के इतने लोग आते कि तिल रखने की जगह न रहती, जिनका ऐसी तेज व तेवर वाली प्रस्तुतियों को नि:शुल्क देख पाना इसकी वृहत्तर सार्थकता होती. प्रवीण गुंजन की यह शुरुआत भी ऐसी परम्परा का रूप पा सके...की शुभेच्छाओं के साथ आइये हॉल में चलें...
हसिनाबाद (संजय उपाध्याय ) |
यहाँ पाँचवीं और समापन प्रस्तुति के लिए संजय उपाध्याय के निर्देशन में ‘निर्माण कला मंच’ के नाटक ‘हसीनाबाद’ का मंच तैयार है.... गीताश्री के इसी नाम के उपन्यास पर बना यह नाटक भी अंत में ‘नेटुआ’ की तरह अपने लोक कलारूप में लय होने का नाटक है. यह खोते नाट्य-कला रूपों का, हमारी सांस्कृतिक विरासत का ऐसा ज़रूरी आयाम है, जिसके विद्रूपों को ‘हसीनाबाद की ही तरह काट फेंकते हुए स्वस्थ रूप पर और काम होने चाहिए. इसमें भी शोषण का रूप वैसा ही है – लिग-भेद के साथ. हमारे यहाँ जमींदारों की रखैल बनकर उन्हीं के लिए नाचने-गाने वाली नर्तकी वेश्याओं की एक समानांतर परम्परा रही है, जिसका चश्मदीद रहा है मेरे ननिहाल का बचपन भी. इनकी संतानों में लडकियां इसी धन्धे के लिए बनीं और लडके मालिकों की गुलामी (नौकरी) में. गाँव की बगल में इनका अलग मुहल्ला हुआ करता था. वही यहाँ है ‘हसीनाबाद’. और हैं ठाकुर सजावल सिंह तथा उनकी सुन्दरी.
इस व्यवस्था में गीताश्री एक छेद
करती हैं कि सुन्दरी से अपनी बेटी गुल्मी को इज्जत की जिन्दगी देने के लिए पिता का
नाम दिलाना चाहती हैं, जिसके लिए सजावल सिंह क़तई राज़ी नहीं. लेकिन सुन्दरी के इस जज़्बे
को लेखिका इतना पुरज़ोर बना देती है कि वह मण्डली में झाल बजाने वाले सगुन महतो के
साथ भाग कर उनकी दूसरी पत्नी ही सही, बेटी के लिए पिता का नाम पा जाती है. लेकिन
नेटुआ के बेटे की ही तरह सुन्दरी की बेटी भी पढ-लिख कर कुछ और न करके लोक नाच-गान
को ही अपना जीवन बनाना चाहती है और खोलती है ‘सोनचिरैया ऑर्केस्ट्रा’. सरकारी साक्षरता-अभियान
में मण्डली हाजीपुर जाती है कि बस, कहानी राजनीतिक गलियारे में जाकर तेज गति से
ढेरों नाटकीय मोड लेती हुई गोल्मी को चुनाव जिताकर, मंत्री बनाकर, भ्रष्टाचार के
झूठे आरोप में फँसाकर, उससे बरी कराकर, मंत्रित्त्व से इस्तीफा दिलवाकर...राजनीतिक
गलाज़त को उजागर कराकर, पुन: ऑर्केस्ट्रा और उसमें अपने भोले-भाले प्रेमी के साथ
लाकर लोक व लोक-कला की इन्सानी श्रेष्ठता को नवाज़ती है.
इतने सारे मोड लेती कथा, जो उपन्यास के लगभग
250 पृष्ठों में सधी है, को 2 घण्टे में मंच पर साधने की चुनौती को विकट
‘कादम्बरी’ के सफल अनुभव के बाद रूपांतरकार योगेश त्रिपाठी व संजय उपाध्याय की युति ही इस तरह साध सकती थी.
संजयजी जी के निर्देशन की बैठी हथौटी नाटक के हर दृश्य, हर गति, हर मोड में लक्ष्य
की सकती है. महेश सूफी की त्रि-आयामी मंच-संरचना स्थल के मुताबिक दीगर घटितों व
भिन्न पात्र-समूहों को सही स्थिति देकर उनकी गति की अपेक्षित दिशा का सन्धान करा
देती है. विजेन्द्रकुमार टांक की प्रकाश-योजना इस स्थिति-गति के साथ समय-स्थान व
पात्रत्त्व को भी अपेक्षित आलोक से चमका सकी है. अनिल व राजू मिश्र के संयोजन व
संजयजी के संगीत में पिरोये सन्ध्या पाठक के गीतों को सुमन-जानी-आसिफ की त्रिकुटी
के गायन ने ‘सोनचिरैया ऑर्केस्ट्रा’ के साथ पूरी प्रस्तुति को लहका दिया है और
मेघना पांचाल की नृत्य-संरचना ने उसे महका दिया है.
लेकिन गोल्मी की नाच-गान मण्डली शुरू होते
ही मंच-कथा के जिस तरह पर लग जाते हैं, उसमें प्रवेश-निर्गम की जैसी भागमभाग और मंच
पर रहने-न रहने की जैसी अफरा-तफरी मच जाती है, वह आगे के शोज़ में जब नाटक मँजेगा,
तो सम पर आ सकेगी और नाटक जो अभी खुला है, तब खिलेगा भी और नाटय-रस में पगेगा भी. लेकिन
ऐसा होना और भी सहज हो सकता है, यदि रूपांतर में निर्देशक के साथ परामर्श करके पात्रों
के हुजूम व घटना-संकुल को कुछ कम करते हुए उनसे सम्बन्धित बातों-क्रिया व्यापारों
को अभिनय की सम्भावनाओं के साथ संवादों में पिरोकर ऐसे बडे दृश्य बनाये जायें, जो
ठहरें (होल्ड हों), कर्त्ताओं-दर्शकों को रमने का अवकाश दें. और इसमें उस लोक
नाच-गान का मान रखती एक लहकती महफिल का भी आकाश (स्पैस) ज़रूर बनना चाहिए, जिस पर
नाटक की तान टिकी है. वरना संजयजी के मनोरम संगीत रसानुभूति के पहले ही दृश्य ‘कट
टु’ हो जाते हैं.
यही हाल अभिनय का भी है. जैसा कि कहा गया टिकने
का अवसर नहीं. सो, तमाम कलाकार बाइस्कोप के चित्रों की तरह गुज़र जाते हैं, पर
उनमें से (समीर कुमार व रूबी ख़ातून जैसे) कुछ तो गुज़र जाना चाहते भी लगते हैं.
किंतु उन्हीं में कुछ कलाकार सहयोगी भूमिका को भी सही अंजाम दे जाते हैं – जैसे
सगुन महतो बने पप्पू ठाकुर का अपनी छोटी मौजूदगी में भी क्षण मात्र में भूमिकावत हो
जाना. प्रमुख भूमिकाओं में विवेक कुमार काफी मँजे लगे, उनका ठकुरपन खूब जँचा.
सुन्दरी जैसी अपेक्षित परिपक्वता दिखी शारदा सिंह में – कुछ निख़ार की ज़रूरत के साथ.
मेघना पांचाल के नवचे कन्धों ने गोल्मी को बडी जिम्मेदारी से निभाते हुए
कला-सम्भावनाओं का पता दिया है, लेकिन उसे अपने भीतर रचना, उसमें लज़्ज़त पैदा करना शेष
है....
और अब ‘रंग-ए-माहौल’ का मतलब - ‘माहौल का
रंग’ ही कहना चाहते होंगे !! वरना ‘रंग का माहौल’ के लिए तो ‘माहौल-ए-रंग’ कहना
होगा, जो कैसा लगेगा...? उर्दू की इस भाषिक क़ुदरत के साथ हिन्दी रंगमण्डल का भारी
भरकम खाँटी अंग्रेजी नाम ‘द फैक्ट आर्ट ऐण्ड कल्चरल सोसाइटी’ व मुख्य सभागार से
उद्घाटन-मंच तक अंग्रेजी शब्दों एवं रोमन लिपि के बाहुल्य के साथ स्मारिका की
(शायद किसी अंग्रेजीदाँ से लिखवायी) समूची सामग्री (सिर्फ ‘हसीनाबाद’ को छोडकर) सिर्फ
अंग्रेजी में...!! क्यों और किसके लिए?? यह उल्लेख और सवाल बहुत-बहुत ज़रूरी हैं,
जिस पर हर संस्कृति-कर्मी को ख़ास ध्यान देना होगा, वरना अपनी भाषाओं के लुप्त होने
के ख़तरे के ‘भागी’ आप भी होंगे. दिनकर की धरती से उन्हीं के शब्दों में –
‘समर शेष है नहीं पाप का ‘भागी’ केवल
व्याध, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध’ ...और आप तो इस भाषिक गड्डलिका-प्रवाह
में अनुकर्त्ता भी हैं – तटस्थ नहीं...!!
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satyadevtripathi@gmail.com
satyadevtripathi@gmail.com
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (06-01-2019) को "कांग्रेस के इम्तिहान का साल" (चर्चा अंक-3208) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही अच्छा सजीव वर्णन, नाट्य समारोह का।
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