जिसे हम आज़ादी का संघर्ष कहते हैं और जो १९४७
में प्रतिफलित हुआ उसके पीछे लम्बा प्रेरणादायी नवजागरण काल है. हर बड़े राजनीतिक
संघर्ष से पहले ज्ञानात्मक उभार और प्रसार का काल होता है. भारत में हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत इसी प्रेरणा से हुई.
औपनिवेशिक काल में पटना राजनीतिक और बौद्धिक सक्रियता का महत्वपूर्ण केंद्र था.
वहां से तमाम पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होती थीं, वहां की कुछ प्रारंभिक हिंदी-पत्रकारिता की
चर्चा कर रहे हैं राजू रंजन प्रसाद. राजू रंजन प्रसाद के ऐतिहासिक स्रोतों पर
आधारित उनके लेखन ने पाठकों का ध्यान खींचा है.
पटना की हिंदी पत्रकारिता
राजू रंजन प्रसाद
II पाटलिपुत्र II
‘विश्व परिवेश में अंगरेजी सरकार युद्धों में फंस चुकी है और उसे अपनी कमजोर स्थिति का आभास होने लगा है. इसीलिए भारतवर्ष के स्वातंत्र्य आंदोलन को भी वह सख्ती से कुचल देना चाहती है ताकि यह उपनिवेश भी कहीं उसके हाथों से न निकल जाय. परंतु सरकार को यह सोच लेना चाहिए कि वह देशप्रेम की व्यापक उत्तेजना को रोक सकने में अंततोगत्वा असफल रहेगी.’
जनता को अंगरेजी सरकार के विरोध में भड़काने वाली ऐसी बातें पढ़कर बिहार के तत्कालीन छोटे लाट का असंतुष्ट हो जाना अस्वाभाविक नहीं था, अतः उन्होंने हथुआ महाराज से अपनी नाराजगी प्रकट की. फलस्वरूप डा. जायसवाल को पदमुक्त कर दिया गया.
एक विद्वान के साथ ऐसा दुर्व्यवहार ‘जनता’ की नजर में अपमानजनक था. अतः उसका आक्रोश में उबल पड़ना अस्वाभाविक नहीं था. इसलिए उसने हथकड़ियों और रस्से में जकड़े महापंडित राहुल का चित्र 11 मई, 1930 के मुखपृष्ठ पर छापा और लिखा, ‘राहुल जी चोर या कैदी? हाथ में हथकड़ी, कमर में रस्सा. जगतप्रसिद्ध विद्वान का यह श्रृंगार और किसके राज्य में?’ इसी अंक में उसने कुछ प्रबुद्ध नागरिकों की एतद्संबंधी सम्मतियां भी छापीं. जयप्रकाश नारायण ने लिखा था, ‘ऐसी कार्रवाइयों पर मिनिस्ट्री की चाहे जितनी आलोचना की जाय, थोड़ी है.’ पटवर्धन का विचार था- ‘इस बात से अच्छा है कि मिनिस्ट्री इस्तीफा दे दे.’ डा. काशीप्रसाद जायसवाल का क्षोभ इस रूप में प्रकट हुआ था, ‘वह इसा-गौतम कोटि के हैं जिन्हें साहित्य में लाकर मैंने देश को एक दूसरे गांधी और जवाहर से वंचित रखा.’ ऐसे प्रबल विरोधों को सरकार झेल न सकी और विवश होकर उन्हें जेल से छोड़ना पड़ा. मुक्त होकर उन्होंने दूने जोश से अपनी दृढ़ता प्रकट की....‘मैं फिर अमवारी गांव जाऊंगा और भूखों की लड़ाई को अपने हाथों में लूंगा क्योंकि साहित्य अगर दिमागी ऐय्याशी का ही नाम नहीं है तो साहित्यकारों को मानव जीवन और संघर्षों में दिलचस्पी लेना ही होगा.’
II पाटलिपुत्र II
बांकीपुर में संपन्न भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 27 वें
अधिवेशन ने बिहार के राजनैतिक जीवन में उथल-पुथल मचा दी और बिहार का बंगाल से
पृथक्करण (1912 ई.) राष्ट्रीय आकांक्षाओं की पूर्ति में सहायक बना. इस समय तक
बिहार एक नया मोड़ ले चुका था और लोग निःस्वार्थ देश-प्रेम, निर्भीक विचार तथा अटल संकल्पों के दीवाने
बनकर जोशपरक पठनीय सामग्रियों की तलाश करने लगे थे. 'पाटलिपुत्र'
इन्हीं दीवानों की राष्ट्रीय आकांक्षाओं की चिर प्रतीक्षित उपलब्धि
बनकर आया जिसने अपने कर्तव्यों के पालन में अपना अस्तित्व तक मिटा दिया पर देशी और
अंगरेजी रियासत के सामने झुकना पसंद नहीं किया. इसलिए इसे बिहार का प्रथम
राष्ट्रवादी साप्ताहिक की संज्ञा दी गई है.
'पाटलिपुत्र' (साप्ताहिक) का प्रकाशन हथुआ
नरेश महाराज महादेवाश्रम शाही के ‘एक्सप्रेस
प्रेस’ से 1914 ई. में हुआ. आरंभ में इसके संपादक नामी
बैरिस्टर एवं ख्यात पुरातत्ववेत्ता काशी प्रसाद जायसवाल थे. वे अंगरेजी राज
की नजरों में ‘एक खतरनाक क्रांतिकारी’ थे. राष्ट्रवादी गतिविधियों में सम्मिलित होने एवं अंगरेजी सरकार के
विरुद्ध आंदोलनकारियों से मिलकर कुचक्र करने का आरोप लगाकर उन्हें कलकत्ता
हाईकोर्ट का जज बनने के अयोग्य घोषित कर दिया गया था. जब वे पटना आये तब भी
अंगरेजी सरकार का संदेह दूर नहीं हुआ. इसीलिए यहां के जिला मजिस्ट्रेट और आरक्षी
अधीक्षक को उनके क्रियाकलापों एवं संपर्कों की सूचना लेते रहने तथा उन पर नजर रखने
का आदेश दिया गया था. शायद इसी कारण वे 'पाटलिपुत्र' के आरंभिक अंकों में विद्वता एवं गंभीरता का पोषण करते रहे. किंतु स्थानीय
राष्ट्रवादी लोगों के आग्रह पर उन्होंने अपने ओजपूर्ण अग्रलेखों से पाठकों में
क्रांति की नई लहर पैदा करनी शुरू कर दी. 10 अगस्त 1914 के अंक में उन्होंने लिखा
-
‘विश्व परिवेश में अंगरेजी सरकार युद्धों में फंस चुकी है और उसे अपनी कमजोर स्थिति का आभास होने लगा है. इसीलिए भारतवर्ष के स्वातंत्र्य आंदोलन को भी वह सख्ती से कुचल देना चाहती है ताकि यह उपनिवेश भी कहीं उसके हाथों से न निकल जाय. परंतु सरकार को यह सोच लेना चाहिए कि वह देशप्रेम की व्यापक उत्तेजना को रोक सकने में अंततोगत्वा असफल रहेगी.’
जनता को अंगरेजी सरकार के विरोध में भड़काने वाली ऐसी बातें पढ़कर बिहार के तत्कालीन छोटे लाट का असंतुष्ट हो जाना अस्वाभाविक नहीं था, अतः उन्होंने हथुआ महाराज से अपनी नाराजगी प्रकट की. फलस्वरूप डा. जायसवाल को पदमुक्त कर दिया गया.
उसके बाद सोना सिंह चौधरी संपादक नियुक्त हुए. पारसनाथ
त्रिपाठी, रामानंद
द्विवेदी और ईश्वरी प्रसाद शर्मा उनके सुयोग्य सहकारी थे. उनके संपादन में पत्र बहुत सुंदर
निकलता था. एक विशेषांक तो ऐसा निकला कि आजतक वैसा सर्वांग सुंदर विशेषांक किसी
साप्ताहिक का न देखा गया. (जयन्ती स्मारक ग्रन्थ, पुस्तक भंडार, पृष्ठ 577) श्री चौधरी के
विषय में कहा जाता है कि अपने निर्भीक राष्ट्रवादी विचारों के प्रकाशन में किसी की
दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं करते थे और उसी के अनुरूप अपने सहकारियों का भरपूर सहयोग
भी उन्हें मिलता था.
जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद भारतीय मस्तिष्क को व्यापक
पैमाने पर झकझोरनेवाली सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना चंपारण के नीलहों पर अत्याचार और
उनकी बर्बरता थी. सीधे-सादे किसानों से जबर्दस्ती नील की खेती करवाना और उनके
हितों की कुछ भी परवाह न करना शोषणकारी अर्थव्यवस्था की भयंकरता थी जिसके प्रतिरोध
में असंतुष्ट प्रजा का विरोध अस्वाभाविक नहीं था. उस समय नील भारत से गैर सरकारी
व्यापार का एक फायदेमंद माल था जिससे अंगरेजों को अच्छी आमदनी होती थी. लेकिन उस
आय का लघुत्तम अंश भी वे अपने रैयतों पर खर्च करने के लिए तैयार नहीं थे. उन्हें
वास्तविक मजदूरी भी नहीं दी जाती थी. मैकाले ने लिखा है, ‘स्थानीय लोगों के द्वारा अक्सर घोर
अन्याय होता है और अनेक रैयतों को किन्हीं कानून के द्वारा अथवा किन्हीं कानून का
उल्लंघन करके ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया जाता है जो अर्धदासों की अवस्था से अधिक
भिन्न नहीं है.’
नील की खेती कराने के लिए नीलहों ने दो प्रकार की प्रथाएं
चलाई थीं-जिराती प्रथा तथा असामी प्रथा. जिराती प्रथा के अंतर्गत वे सामान्य
किसानों के हल-बैल निम्नतम मजदूरी पर गिरवी रख लेते थे और असामी प्रथा के अंतर्गत
प्रत्येक किसान प्रतिबीघा जोत के लिए तीन कट्ठा के हिसाब से नील पैदा करने के लिए
बाध्य होता था. यह ‘तिनकठिया’
प्रथा कहलाती थी. इससे नीलहों को ज्यादा लाभ होता था और किसान शोषित
हो रहे थे. यदि किसी किसान के द्वारा नील की खेती से इनकार किया जाता तो वे उसपर
तरह तरह के जुल्म करते थे. जब कोई रैयत अथवा किसान इसके विरोध में आवाज उठाता या
सुरक्षा की मांग करता था तो उसकी आवाज बड़ी कठोरतापूर्वक दबा दी जाती थी.
नीलहों के द्वारा प्रचलित एक अन्य प्रथा खुश्की या कुरतौली
भी थी. इसके अंतर्गत किसानों को मामूली रकम पर अपनी जायदाद बंधक रख देना पड़ता था.
बंधक छूटने की अवधि सारी जिंदगी या उससे भी अधिक होती थी. इससे मुक्ति तभी मिलती
थी जब किसान सूद समेत पूरी रकम अदा कर देता था. इस प्रकार वस्तुतः यह प्रथा
किसानों को गुलामी में जकड़ देनेवाली थी, जिससे
आजन्म मुक्ति नहीं मिल पाती थी. ‘सीधे-सादे किसानों पर गोरे
नीलहों का अत्याचार इतना ज्यादा था जिसकी कल्पना मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं.
वास्तव में इंगलैंड पहुंचनेवाला नील का हर बक्सा रैयतों के खून से सना होता था.
...नील उपजाने की ऐसी व्यवस्था खून बहाने की व्यवस्था से कतई कम नहीं थी.’ बकरी चरानेवाले बच्चे तक उनके अत्याचारों की दहशत से गाफिल नहीं थे. अपनी
बकरियों को संबोधित करते हुए वे कहते थे- ‘ई त अलई लिलहवा के
राज,/अब कहां चरबू बकरियो.’
इन कारणों से आम जनता में असंतोष व्याप्त हो जाना और आक्रोश
उबलना अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता. तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं ने नीलहों के
अत्याचार से त्रस्त प्रजावर्ग के असंतोष और आक्रोश को जन सामान्य तक पहुंचाने का
काम किया. ‘स्टेट्समैन’,
‘प्रताप’, ‘बिहारी’ और ‘पाटलिपुत्र’ ने अपने अग्रलेखों तथा निबंधों में
रैयतों की दिनानुदिन बिगड़ती दशा पर गहरी चिंता व्यक्त की, यद्यपि
इस जुर्म में कई पत्र बंद कर दिये गये और कई पर राजद्रोह का मुकदमा भी चलाया गया. ‘प्रताप’ (13 मार्च 1917 ई.) ने लिखा था,
‘किसानों से बेगार कराया जाता है और कई तरह
की नाजायज रकम वसूली जाती है. यथा आम और कटहल पर ‘अमही’
और ‘कट्ठी’, हाथी या घोड़ा
खरीदने पर ‘हथियाही’ या ‘घोड़ाही’ आदि.’
इस असंतोष एवं त्राषजनक स्थिति से बिहार उबल पड़ा. तत्कालीन
उदार एवं अनुभवी शासक सर एडवर्ड ने जनता की शिकायतों को दूर करने का आश्वासन दिया
पर वह पर्याप्त नहीं था.
1917 ई. में रैयतों की असह्य व्यथा तथा नीलहों के विरुद्ध
शिकायत सुनने के लिए महात्मा गांधी चंपारन प्रस्थान करने हेतु पटना आये. प्रो.
कृपलानी, ब्रजकिशोर
नारायण और राजकुमार शुक्ल आदि उनके साथ थे. जैसे ही वे चंपारण पहुंचे, उनके विरुद्ध वारंट जारी कर दिया गया और सीधी-सादी शांत जनता को आंदोलन के
लिए भड़काने के जुर्म में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. 5 मई 1917 को जब महात्मा
गांधी नीलहों के अत्याचार से ऊबे रैयतों का बयान ले रहे थे तो नील प्लांटरों ने
रैयतों के द्वारा किये गये उपद्रवों की झूठी अफवाहें प्रचारित कीं. विशेष-विशेष
अखबारों में उसे प्रचारित भी करवाया. यद्यपि गांधीजी ने उन सबों से विचार-विमर्श
करके अपने आगमन का उद्देश्य उन्हें बताया पर प्लांटरों ने उनके काम में बाधा डालने
तथा उन पर और उनके सहकर्मियों पर कीचड़ उछालने में कुछ भी उठा नहीं रखा. (डा.
राजेन्द्र प्रसाद, महात्मा गांधी एंड बिहार, पृष्ठ 12)
जेल से छूटने के बाद दूने उत्साह से गांधीजी ने चंपारन के
अलावा मोतिहारी और बेतिया के ग्रामीण इलाकों में घूम-घूम कर रैयतों के बयान लेने
शुरू कर दिये. राजेन्द्र बाबू ने लिखा, ‘शायद ही कोई प्लांटर बचा हो जिसके रैयत सैंकड़ों की संख्या में हमारे पास
नहीं आये हों तथा अपनी शिकायत पूरे विस्तार से नहीं लिखाये हों.’ (राजेन्द्र प्रसाद, आत्मकथा, पृष्ठ
498)
शीर्षस्थ नेता के नेतृत्व में जनमत संग्रह के इस अभियान से अंगरेज प्लांटर थर्रा उठे. अतः उन सबों ने संगठित होकर उच्चाधिकारियों से गांधीजी की शिकायत की, उनके विरुद्ध झूठी अफवाहें फैलाईं और उन्हें नीचा दिखाने के लिए अखबारों में मनगढ़ंत खबरें छपवाईं लेकिन पत्र-पत्रिकाओं ने उनके समस्त आरोपों को बेबुनियाद और मिथ्या बताकर निरस्त कर दिया. ‘पाटलिपु़त्र’ ने जांच-कार्य में अड़ंगा लगाने की आलोचना की. 12 मई 1917 के अंक में पाटलिपुत्र ने अपने संपादकीय में स्पष्ट लिखा-
‘गांधीजी की प्रवृत्ति, स्वभाव और काम करने के वैधानिक तरीकों से पूरा राष्ट्र अवगत है. जनता ऐसी अफवाहों में कभी भी विश्वास नहीं करेगी. ऐसा अवैधानिक काम एक वैसे व्यक्ति के द्वारा संभव हो ही नहीं सकता जो सविनय अवज्ञा का निष्ठावान प्रवर्तक है... उनके काम में जितना भी अड़ंगा लगाया जाय, जनता उतनी ही उत्तेजित और दृढ़संकल्प युक्त होती जाएगी. इसलिए इस अवसर पर एकमात्र बात जो कही जा सकती है वह यह कि उनके काम को शांतिपूर्ण ढंग से चलने दिया जाय.’
शीर्षस्थ नेता के नेतृत्व में जनमत संग्रह के इस अभियान से अंगरेज प्लांटर थर्रा उठे. अतः उन सबों ने संगठित होकर उच्चाधिकारियों से गांधीजी की शिकायत की, उनके विरुद्ध झूठी अफवाहें फैलाईं और उन्हें नीचा दिखाने के लिए अखबारों में मनगढ़ंत खबरें छपवाईं लेकिन पत्र-पत्रिकाओं ने उनके समस्त आरोपों को बेबुनियाद और मिथ्या बताकर निरस्त कर दिया. ‘पाटलिपु़त्र’ ने जांच-कार्य में अड़ंगा लगाने की आलोचना की. 12 मई 1917 के अंक में पाटलिपुत्र ने अपने संपादकीय में स्पष्ट लिखा-
‘गांधीजी की प्रवृत्ति, स्वभाव और काम करने के वैधानिक तरीकों से पूरा राष्ट्र अवगत है. जनता ऐसी अफवाहों में कभी भी विश्वास नहीं करेगी. ऐसा अवैधानिक काम एक वैसे व्यक्ति के द्वारा संभव हो ही नहीं सकता जो सविनय अवज्ञा का निष्ठावान प्रवर्तक है... उनके काम में जितना भी अड़ंगा लगाया जाय, जनता उतनी ही उत्तेजित और दृढ़संकल्प युक्त होती जाएगी. इसलिए इस अवसर पर एकमात्र बात जो कही जा सकती है वह यह कि उनके काम को शांतिपूर्ण ढंग से चलने दिया जाय.’
इसी अंक में बलदेव अग्रहरी की एक भावपूर्ण कविता भी छपी थी
जिसमें नीलहों के जुर्म से त्राण के लिए चंपारण के रैयतों की गांधीजी से प्रार्थना
की गई थी. (डा. कृष्णानंद द्विवेदी, बिहार
की हिंदी पत्रकारिता, प्रवाल प्रकाशन, पटना,
प्रथम संस्करण : 1996, पृष्ठ 69.) ‘बिहारी’ ने इस झूठी अफवाह पर रोष व्यक्त किया और ‘मिथिला मिहिर’ ने मानवता के निष्ठावान सेवक पर झूठे
आरोप लगाने की निंदा की. सारांश यह कि महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय जागरण की जिस
चेतना को किसानों के मन में भरने का संकल्प चंपारन यात्रा में लिया था, पत्रों ने उसे जनता तक पहुंचाने की जवाबदेही बखूबी पूरा की. असंतुष्ट जनता
में राष्ट्रीय जागरण का उत्साह भरने हेतु उन सबों ने अप्रतिम कुशलता का परिचय दिया.
जब 'पाटलिपुत्र'
पूरे जोश और राष्ट्रवादी आवेश में सरकार की जड़ें खोदने के लिए कलम
चला रहा था, उसके साथ एक दुर्घटना हो गई. छपरा की एक आमसभा
का प्रतिनिधित्व इसके संचालक हथुआ महाराज ने किया था. उसी सभा में सर्वसम्मति से
यह प्रस्ताव पारित हुआ कि वर्तमान घोर विपत्ति में अंगरेजी सरकार की मदद की जाय.
वहां से लौटने के बाद उन्होंने उक्त पारित प्रस्ताव की सूचना 'एक्सप्रेस' एवं 'पाटलिपुत्र'
को प्रकाशनार्थ भेजी और यह खबर भी भिजवायी कि यह संवाद छापना बेहद
जरूरी है. (राजेन्द्र प्रसाद, आत्मकथा, पृष्ठ 136) 'पाटलिपुत्र' क्रांतिकारी
विचारों का पोषक था अतः उक्त समाचार को नहीं छापना उसकी बाध्यता थी क्योंकि वह
उसके सिद्धांतों के प्रतिकूल था. लेकिन प्रेस संचालक के आदेश को नहीं मानना भी
व्यावहारिक दृष्टि से उचित नहीं था. अतः ‘सिर्फ बारह
प्रतियों में, जो नरेश और लार्ड के यहां भेजे जानवाले थे,
में उक्त संवाद छपा और शेष में नहीं. बाद में जब भेद खुला और संचालक
ने संपादक-पत्रकारों के विचारों में परिवर्तन के कोई आसार नहीं देखे तो 3 मई 1921
को अंगरेजी सरकार के निर्देश पर तार भेजकर प्रकाशन रोकने का आदेश दे दिया था.’
(राजेन्द्र अभिनंदन ग्रंथ, पृष्ठ 361-62)
II सर्चलाइट/ देश II
1918 में पटने के सभी नेताओं ने, विशेष करके श्री सच्चिदानन्द सिंह और श्री
हसन इमाम ने, एक अखबार की बहुत जरूरत महसूस करके निश्चय किया
कि एक पत्र निकाला जाय. (डा. राजेन्द्र प्रसाद, आत्मकथा,
सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, पांचवा संस्करण : 2002, पृष्ठ 201) उसका नाम श्री
सिंह के कहने के अनुसार ‘सर्चलाइट’ रख दिया गया. वह सप्ताह में दो बार निकला करता था. उसके डाइरेक्टरों में श्री
सिंह, श्री हसन इमाम
प्रभृति थे. लोगों में श्री ब्रजकिशोरप्रसाद एवं डा. राजेन्द्र प्रसाद थे.
आंदोलन आरंभ होने पर ‘सर्चलाइट’ के सामने
यह प्रश्न आया कि वह असहयोग का समर्थन करे या नहीं. पैसा खर्च करनेवालों में मुख्य
श्री हसन इमाम और श्री सिंह थे. वे असहयोग के पक्षपाती नहीं थे. इधर सारे सूबे में
असहयोग की लहर इस तरह उमड़ रही थी कि उसके खिलाफ जाने का अर्थ था ‘सर्चलाइट’ का हमेशा के लिए लोकप्रियता खो देना. इसके
अलावा डाइरेक्टरों में भी वे लोग थे जो आंदोलन में शरीक थे. उसके संपादक श्री
मुरलीमनोहर प्रसाद भी असहयोग के पूरे पक्षपाती थे. ऐसी अवस्था में, आपस के इस मतभेद के कारण, नीति निर्धारित कर देना
आवश्यक हो गया.
1920 से, सर्चलाइट
प्रेस से ही, हिंदी साप्ताहिक ‘देश’
भी निकला करता था, जिसके नाम-निहादी संपादक डा.
राजेन्द्र प्रसाद समझे जाते थे. असहयोग ने राजनीति को, अंगरेजी
पढ़े कुछ वकील-बैरिस्टरों और बड़े-बड़े व्यापारियों के अंगरेजी तरीके से सजे कमरों से
बाहर निकालकर, गांवों के बरगदों के साये के नीचे और गांवों
के खेत-खलिहानों तक पहुंचा दिया था. वहां अंगरेजी का गुजर नहीं था. जो जनता तक
पहुंचना चाहता था, उसे देशी भाषा की शरण लेनी पड़ती थी. इसलिए
डा. राजेन्द्र प्रसाद आदि ने तय किया कि ‘सर्चलाइट’ से ज्यादा उपयोगी ‘देश’ होगा.
डा. राजेन्द्र प्रसाद ने श्री हसन इमाम और श्री सिंह से ‘सर्चलाइट’
और ‘देश’ के संबंध में
यह समझौता कर लिया कि ‘सर्चलाइट’ अपने
संपादकीय लेखों में असहयोग का न तो विरोध करेगा और न समर्थन. पर दूसरों के लेख,
लेखक के नाम के साथ, चाहे वे पक्ष में हों या
विपक्ष में, छाप सकेगा. ‘देश’ असहयोग समर्थकों का पत्र हो जायगा. अब से उसका घाटा और नफा इन्हीं का होगा.
उसकी नीति भी समर्थक जैसी चाहेंगे वैसी ही होगी; पर वह
सर्चलाइट प्रेस में छपाई देकर छपा करेगा.
इस तरह एक हिन्दी साप्ताहिक आंदोलनकारियों के हाथ में आ गया.
अंगरेजी ‘सर्चलाइट’
भी अगर सहायक नहीं तो विरोधी भी न रहा. (डा. राजेन्द्र प्रसाद,
आत्मकथा, पृष्ठ 202) ‘देश’
ने प्रचार कार्य में बड़ी सहायता पहुंचाई. ग्राहकों की संख्या भी
बहुत बढ़ गई. विज्ञापन भी बहुत मिलने लगे. जैसे-जैसे ग्राहकों की संख्या बढ़ती गई,
प्रबंधक की गलती से घाटे की मात्रा भी वैसे ही बढ़ती गई. कुछ दिनों
के बाद जब हिसाब हुआ तो पता चला कि विज्ञापन की दर इतनी कम कर दी गई थी कि उसमें
जितना खर्च पड़ता था उतना भी विज्ञापनों से नहीं मिलता था. इसलिए जैसे-जैसे
बिकनेवाली प्रतियों की संख्या बढ़ी, घाटा भी बढ़ता गया. पाया
गया कि बहुतेरों के माल का प्रचार अखबार अपने खर्च से सारे प्रांत में जोरों से कर
रहे थे; पर यह ज्ञान नुकसान उठा लेने के बाद हुआ. इस प्रकार
उस समय ‘देश’ पर जो बोझ पड़ा, वह उसके गले में हमेशा के लिए एक भारी पत्थर सा बंध गया.
जन आंदोलन कुछ ही दिनों बाद ढीला पड़ा. ‘देश’ की बिक्री भी कुछ
कम हो गई. अंत में आर्थिक कठिनाइयों के कारण उसे बंद करना पड़ा. जितने दिनों तक
आंदोलन का जोर रहा, वह खूब काम करता रहा और बहुत लोकप्रिय भी
हो गया था. कहना न होगा कि बिहार के स्वतंत्रता संग्राम और हिंदी पत्रकारिता के
विकास में ‘देश’ का महत्वपूर्ण योगदान
था. ‘वह पूरे एक युग तक बिहार के सर्वश्रेष्ठ पत्र के रूप
में निकलता रहा और उसने ‘‘पाटलिपुत्र’’ के अभाव की अच्छी तरह पूर्ति भी कर दी थी.’ (नई धारा,
अगस्त, 1956, पृष्ठ 83)
इसी परिप्रेक्ष्य में ‘देश’ पर चलाया
गया मुकदमा भी उल्लेखनीय है जिसने पूरे प्रदेश के जनमानस को झकझोर दिया. सर्चलाइट
प्रेस से प्रकाशित होनेवाले साप्ताहिक ‘देश’ पर यह आरोप लगाया गया कि उसने ‘माता की पुकार’
और ‘विजय का साधन’ नामक
लेख प्रकाशित कर जनता को अंगरेजी सरकार का विरोध करने के लिए उकसाया है. तत्कालीन
सरकार की नजर में उक्त दोनों लेख उत्तेजित करनेवाले थे जिससे जन असंतोष को बढ़ावा
मिलता अथवा सामूहिक क्रांति का विस्फोट हो सकता था. अतः उन पर राजद्रोह का अभियोग
लगाकर मुकदमा चलाया गया. मुकदमे की सुनवाई में प्रेस के संचालक श्री महावीर राम ने
प्रकाशन के मामले में अपने को निरपेक्ष बतलाते हुए निर्दोष साबित कर दिया. लेकिन
पारसनाथ त्रिपाठी ने भरी अदालत में कहा-
‘मैं देश का संपादक हूं और उसमें जो कुछ भी प्रकाशित हुआ है, उसके लिए मैं जिम्मेवार हूं. विजय की साधना और माता की पुकार शीर्षक लेख मेरे द्वारा लिखे गये हैं. मैं अपने को देश का विनम्र सेवक तथा असहयोग के मार्ग का अनुसरण करनेवाला मानता हूं. उसके सिद्धांतों के अनुसार मैं किसी भी जाति या संप्रदाय के लोगों के प्रति किसी घृणा या दुर्भावना को फैलाना पाप समझता हूं. इन निबंधों में ऐसा कुछ नहीं है जो उन सिद्धांतों के प्रतिकूल हो. अतः मुझ पर यह आरोप लगाया गया कि मैंने देश के पाठकों के मन में दुर्भावना पैदा की है तो मैं अपने को उससे मुक्त समझता हूं. लेकिन यदि अभियोग यह है कि मैंने इस देश की वर्तमान सरकार की व्यवस्था के विरुद्ध घृणा की भावना पैदा की है तो मुझे यह कहना है कि स्वराज्य में विश्वास करनेवाला प्रत्येक भारतवासी यथाशीघ्र वर्तमान शासन व्यवस्था को समाप्त करना अपना परम कर्तव्य मानता है और प्रत्येक असहयोगी का यह कर्तव्य है कि उस भावना का प्रचार करने, उसका समर्थन करने एवं सुदृढ़ करने हेतु क्रियाशील हो. मैं यह जानता हूं कि वर्तमान सरकार एक ऐसे देश, जो स्वराज्य के लिए बेचैन है, तथा उसके लोगों में ऐसी भावनाएं फैलाने के मार्ग में बाधा डालेगी. अतः उसके लिए मुझे कोई शिकायत नहीं. जो कुछ मैंने लिखा है वह जान-बूझकर और पूरे विश्वास के साथ लिखा है. मुझे आश्चर्य है तो इसपर कि सरकार को देश की तरह असहयोगी पत्र का पता मिलने में इतनी देर हुई. अदालत जो भी उचित समझे, मुझे सजा दे सकती है. मैं उसे सहर्ष स्वीकार करता हूं.’
II जनता II
एक विद्वान के साथ ऐसा दुर्व्यवहार ‘जनता’ की नजर में अपमानजनक था. अतः उसका आक्रोश में उबल पड़ना अस्वाभाविक नहीं था. इसलिए उसने हथकड़ियों और रस्से में जकड़े महापंडित राहुल का चित्र 11 मई, 1930 के मुखपृष्ठ पर छापा और लिखा, ‘राहुल जी चोर या कैदी? हाथ में हथकड़ी, कमर में रस्सा. जगतप्रसिद्ध विद्वान का यह श्रृंगार और किसके राज्य में?’ इसी अंक में उसने कुछ प्रबुद्ध नागरिकों की एतद्संबंधी सम्मतियां भी छापीं. जयप्रकाश नारायण ने लिखा था, ‘ऐसी कार्रवाइयों पर मिनिस्ट्री की चाहे जितनी आलोचना की जाय, थोड़ी है.’ पटवर्धन का विचार था- ‘इस बात से अच्छा है कि मिनिस्ट्री इस्तीफा दे दे.’ डा. काशीप्रसाद जायसवाल का क्षोभ इस रूप में प्रकट हुआ था, ‘वह इसा-गौतम कोटि के हैं जिन्हें साहित्य में लाकर मैंने देश को एक दूसरे गांधी और जवाहर से वंचित रखा.’ ऐसे प्रबल विरोधों को सरकार झेल न सकी और विवश होकर उन्हें जेल से छोड़ना पड़ा. मुक्त होकर उन्होंने दूने जोश से अपनी दृढ़ता प्रकट की....‘मैं फिर अमवारी गांव जाऊंगा और भूखों की लड़ाई को अपने हाथों में लूंगा क्योंकि साहित्य अगर दिमागी ऐय्याशी का ही नाम नहीं है तो साहित्यकारों को मानव जीवन और संघर्षों में दिलचस्पी लेना ही होगा.’
________
राजू रंजन प्रसाद
पच्चीस जनवरी उन्नीस सौ अड़सठ को पटना जिले के तिनेरी गांव
में जन्म. उन्नीस सौ चौरासी में गांव ही के ‘श्री
जगमोहन उच्च विद्यालय, तिनेरी’ से
मैट्रिक की परीक्षा (बिहार विद्यालय परीक्षा समिति, पटना)
उत्तीर्ण. बी. ए. (इतिहास ऑनर्स) तक की शिक्षा बी. एन. कॉलेज, पटना (पटना विश्वविद्यालय, पटना) से. एम. ए. इतिहास
विभाग, पटना विश्वविद्यालय, पटना से
(सत्र 89-91) उन्नीस सौ तिरानबे में.
‘प्राचीन भारत में प्रभुत्त्व की खोज:
ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष के विशेष संदर्भ में’ (1000 ई. पू. से 200 ई. तक) विषय पर
शोधकार्य हेतु सन् 2002-04 के लिए आइ. सी. एच. आर का जूनियर रिसर्च फेलोशिप. मई,
2006 में शोधोपाधि. पांच अंकों तक ‘प्रति
औपनिवेशिक लेखन’ की अनियतकालीन पत्रिका ‘लोक दायरा’ का संपादन.
सोसायटी फॉर पीजेण्ट स्टडीज, पटना एवं सोसायटी फॉर रीजनल स्टडीज, पटना
का कार्यकारिणी सदस्य.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-12-2018) को "कल हो जाता आज पुराना" (चर्चा अंक-3180) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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