मंगलाचार : वसु गन्धर्व


























कविताएँ दरअसल अँधेरे में रौशन दीये हैं. अपनी मिट्टी से अंकुरित सौन्दर्य और विवेक की लौ. इसी संयमित प्रकाश में मनुष्यता लिखी गयी है.

यह आलोक जहाँ-तहां आज भी बिखरा है,  हाँ ‘लाईट’ की अश्लीलता और शोर में इधर अब ध्यान कम जाता है.

हिंदी में कविताएँ चराग और मशाल दोनों का काम करती हैं. कवियों की नई पौध आदम की बस्तियों में अंकुरित हो रही है, और यह एक उम्मीद है कि ये बस्तियां आबाद रहेंगी.

वसु गन्धर्व अठारह साल के हैं अभी और उनकी रूचि और गति शास्त्रीय संगीत में भी है. क्या कमाल की कविताएँ लिखते हैं.

दीप–पर्व पर इससे बेहतर अब और क्या हो सकता है. कविताएँ आपके लिए.







वसु  गन्धर्व  की   कविताएँ
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हम तलाशेंगे


हम तलाशेंगे मौसमों को
इस बियाबान में अपनी देह भर जगह के भीतर
खिलने देंगे एक फूल

हम तलाशेंगे सदियों की यंत्रणाओं के नीचे छिपा 
एक चुम्बन 
अनगिनत मृगतृष्णाओं के हुजूम के नीचे दबी
एक घूंट प्यास भर नदी

प्रेम का अस्पृश्य बोझ
वेदना का असंभव निदाघ
छंटाक भर पानी में डूबा चंद्रमा बहता हुआ दूर

हम तलाशेंगे
अंतिम पराजय के बाद
ह्रदय की अबोध सरलता भर एक गीत
कि उसमें डूब कर
अपनी उदास चुप में विन्यस्त हो सके मानव स्वर

हम तलाशेंगे.





निकलो रात

अंधकार के अपने झूठे आवरण से
किसी मूक यातना के पुराने दृश्य से
किसी दुख के बासी हो चुके
प्राचीन वृतांत से निकलो बाहर
उस पहले डरावने स्वप्न से निकलो

निकलो शहरज़ादी की उनींदी कहानियों से
और हर कहानी के खत्म होने पर सुनाई देने वाली
मृत्यु की ठंडी सरगोशियों से

अंधी स्मृतियों में बसे
उन पागल वसन्तों के
अनगढ़ व्याख्यान से निकलो

निकल आओ
आकाश से.





पुकार


रात के समंदर में
रात की मछलियां
रात के नमक के बीच तैरती हैं

ऐसी उत्तेजना से लिपटता है
अंधकार का यह पेड़ रात की देह से
कि इसकी उपमा
मां के वक्ष से लिपटते बच्चे
या प्रेमियों के उन्माद से भी नहीं दी जा सकती

दिन के पक्षी का अंतिम शोर समाप्त हो चुका है
अंतिम चिट्ठी को पढ़ कर
अंतिम बार उदास होकर मर चुकी है बुढ़िया
कभी ना लौट सकने वाला जहाज
ओझल हो चुका है बंदरगाह से

ऐसे में अतीत के किसी मरुथल से आती पुकार
आखिर कितना झकझोर सकती है हृदय को?






लौट कर

वसंत वापस लौट कर
इसी धूसर चौराहे पर खड़ा हो जाएगा
अपना म्लान मुख
और फटी कमीज लिए
वर्षा इसी शब्दहीन उदासी के साथ
गिरती रहेगी इस गंदगी नाली पर अनवरत
जाड़ा हर बार खोजता ही रह जाएगा
अपना टूटा चश्मा जमीन पर धूल में

उन संकीर्ण दरारों में
जहां भाषा का एक कतरा भी नहीं घुस पाता
वहीं से फूट पड़ेगा
कभी अधूरा छोड़ दिया गया वह गीत
जैसे धुंधलके में कौंध पड़ेगा
अपना खोया चेहरा
तब वापस आएगा चांद
तब वापस आएंगी रात की फुसफुसाहटें 
तब वापस आएंगे विस्मृत दृश्य
विस्मृत ध्वनियां

हटाकर पुरातत्व का जंजाल
तब वापस आएगी
पहली कविता.




आवाज़


निःशब्दता के किसी कोने में
रात अपने पंख फड़फड़ाती है
इसी से टूटती है चुप्पी
सिहरने लगता है पुराने पोखर का पानी
जिसकी तहों में से
बूंद बूंद कर के बाहर आता है चंद्रमा

तख्त पर किसी ठोस चीज को रखते
एक समकालीन ठप
इतना ही काफी है
इतिहास के समवेत आर्तनाद को
एक निर्विवाद चुप में बदल देने के लिए

यह शाम किसी सार्वजनिक चुप से टूटा
एक आवारा पक्षी के पंख का टुकड़ा है
जिसके हवा में भटकने में दिशाहीन
गुजरी सभी शामों की चुप्पियां हैं

पास पड़े टूटी मूर्तियों के ढबरे में
जैसे अनुगूंज होता हो
प्रार्थनाओं का पुराना स्वर.






परंपरा

सांपों की इन्हीं पुरातन बांबियों में
अब रस्सियां भटकती हैं दिशाहीन
इतिहास के सबसे क्रूरतम कथन के नीचे सरसराता है एक कराहता प्रेम निवेदन का शब्द
जो अनसुना ही रह गया सदियों तक

झाड़ियों में अब तक ठिठका है
हरीतिमा का कोई स्वर
जिसकी लय में चहचहाती हैं
घास पर लिखी अनगिनत कविताएं

पिता की स्मृतियों के किसी कोने में बसे
उस पुरखे पूर्वजों के गांव के नाम का जिक्र आते ही पुरानी लोककथाओं की किताब के धूमिल पन्नों की ओर ताकने लगते हैं हम अचकचा कर

दूर किसी बंजारे का स्वर सुनाई देता रहता है
सिहरता हुआ.





लिखा-अनलिखा

लिखा हुआ है आकाश
जिसमें एक लिखे हुए पंछी की
लिखी हुई उड़ान प्रतिबिम्बित हो रही है

वह पेड़ जिसका चुप उकेरा हुआ है कलम से
उसका पुरातत्व बुन रहा है उसके चारों ओर
एक शाश्वत पतझड़ की पतली परत
जिसे नहीं उतार पाएगा अपने आयतन में
कोई शब्द या कोई चित्र कभी भी

कागजों पर उतरी
किसी रात की लिखित उदासी में
कोई पुरानी धुन
स्याही के दिशाहीन टपकने में
ढूंढ रही है
अपना भूला रस्ता

अंदर किसी अलिखित कविता भर ही
बचा है जीवन.






कहना

सब कुछ कह दिए जाने के बाद
एक छोटी स्वीकृति
या अस्वीकृति भर जगह में ही पनपता है आश्वासन
अंतिम गद्य के
अंतिम वाक्य के आगे स्थित है कविता
सिकुड़ी हुई
सीलन भरी दरार में
प्रेम की सभी संभावनाओं के आगे
लटकता है दुख का चमगादड़
सूखे हुए समुद्र भर खालीपन
और हजारों वर्षों के बंजर आयतन के पार
रेगिस्तान में उभरता है एक सुराब

भाषा से भी पहले की ध्वनि में बंद है
सभ्यता के आखिरी वाक्य के बाद का चुप.





अन्धेरा

कहे हुए का आयतन
जब हो चुका हो इतना बोझिल
तो दुहराओ उन्हीं वाक्यों की चुप्पियों को
उसी लय में उसी आश्वासन के साथ दुहराओ
छूटे अंतरालओं को बार-बार

प्रेम के बीच जो छूटा हुआ चुप है
उसी में बंद है पुतलियों में अस्त होती सुबह
किसी प्राचीन ऋषि के अदम्य तप से रूग्ण
शिलाखंडों के नीचे अभी बह रही है तपस्या की राख

जीवन की क्षणभंगुरता में
इसी अंतराल में कैद रहने की जिद के बीच
धीरे धीरे पैठता है अंधकार
बिखरती जाती है ध्वनि.




मृतकों के लिए

तस्वीर के उस पार
मृत्यु की बावड़ी के उधर
गेंदे के फूल और प्रार्थनाओं की राख के कोहरे से
वे झांकते हैं संशयित इस पार

कोई रुदन का विस्तार नहीं उनके लिए
कोई प्रतीक्षा का झूठ नहीं
कोई बारिश नहीं

यहां शाम में जो पीलापन बिखरा है
उन्हीं के लिए किए गए क्रंदन का अतिरेक है
कि देख ले मुरझाते हुए सूरज को
और उदास हो जाए मन.
















नीली धूप

किन्हीं दरख़्तों की सिहरन से
मेरे पास आए थे कुछ नीले ख़त
जिनके उधड़े जिस्म पर
मलहम लगा रही थी नीली हवा
कुछ थीं अनजान मृत्यु की खबरें
जैसे अचकचा कर बहुत गहरी खाई में
गिर गया था बहुत पुराना दोस्त
जिसका मर्सिया पढ़ रही थी नीली दोपहर की चुप्पी

जैसे अनुपस्थिति के किसी तालाब के ऊपर
छितराई हुई थी
नीली धूप.





कोई नहीं है

कोई नहीं आएगा इस बोझिल अरण्य में
वृक्ष नहीं खोजेगा तितली के पंख भर प्रेम
नींद नहीं खोजेगी रात की सिहरती देह

मौसमों के बंद दराज़ों में
एक पुरातन स्पर्श फड़फड़ाएगा अपने पंख

कातरता में बरसता रहेगा
वही बादल अनवरत

अंधकार पर बारिश
सुनाती रहेगी वही गीत.

 _______________


वसु गन्धर्व
(8 फरवरी, 2001)

बचपन अम्बिकापुर में बीता. अभी रायपुर में रिहाईश का ये दूसरा साल है.
दिल्ली पब्लिक स्कूल रायपुर में कक्षा बारह में पढ़ रहे हैं.


शास्त्रीय संगीत के गंभीर छात्र हैं. अभी बनारस घराने के पंडित दिवाकर कश्यप जी से गायन सीख रहे  हैं. रायपुर, भिलाई, चंडीगढ़, दिल्ली इत्यादि जगहों पर हुए संगीत आयोजनों में शिरकत की है. 
______
vasugandharv111@gmail.com 

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  1. कवि की वय और मुहावरे की प्रौढ़ता विस्मयजनक है. इस कवि पर नज़र रहेगी.

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  2. कवितायें भाषा की ग़ुलाम नहीं हो सकती उन्हें कल्पना की ताक़त से उजास मिलेगी।

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  3. इन कविताओं का अपना स॔गीत है, अपने सुगठित नाद और कथ्य के सौंदर्य से अभिभूत करता हुआ ।

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  4. तुषार धवल8 नव॰ 2018, 10:26:00 am

    सचमुच। बहुत ही परिपक्व, विचार और संवेदना में गहरे धँसी हुई कवितायें जिनमें संतुलित भाषा से एक आन्तरिक तनाव पैदा होता है।
    वसु गन्धर्व विलक्षण प्रतिभा से भरे हुए हैं। महज अठारह की उम्र में यह गहनता, कि जैसे नदी के तल में घुमड़-घुमड़ कर मिट्टी-कीचड़-कीट लिये एक और नदी मंथर-मंथर बह रही है !

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  5. राहुल द्विवेदी8 नव॰ 2018, 10:39:00 am

    भाषा एक मंझे हुए रचनाकार की तरह है । परेवा के सुबह की इससे बेहतर शुरुआत और क्या हो सकती है । वसु को ढेरों शुभकामनाएं

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  6. समय को महीन छलनी से छाना है वसु ने। यह कौतुहल है कि ऐसी सांद्रता अनुभव देता है या कल्पना, दृष्य देते हैं या चिंतन, ध्वनियां कि सन्नाटा कि मौन? कवि को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई।

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  7. अत्यंत परिपक्व कविताएँ हैं। इतनी सी उम्र में इतने गहरे भाव। ये बच्चे अभिभूत कर जाते हैं। हिन्दी कविता इनके साथ नए आयामों को छुएगी।मेरी प्रिय कविता

    निकलो रात

    अंधकार के अपने झूठे आवरण से
    किसी मूक यातना के पुराने दृश्य से
    किसी दुख के बासी हो चुके
    प्राचीन वृतांत से निकलो बाहर
    उस पहले डरावने स्वप्न से निकलो

    निकलो शहरज़ादी की उनींदी कहानियों से
    और हर कहानी के खत्म होने पर सुनाई देने वाली
    मृत्यु की ठंडी सरगोशियों से

    अंधी स्मृतियों में बसे
    उन पागल वसन्तों के
    अनगढ़ व्याख्यान से निकलो

    निकल आओ
    आकाश से.

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  8. बहुत ही सुन्दर और परिपक्व कविताएँ। बिम्ब और मुहावरे नवीन और विस्मय से भर देने वाले हैं। बधाई कविवर।

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  9. वसु की कविता का अंदाज़ क्लासिक कविता का है। इतनी छोटी सी उम्र में उसने खोज लिया है कि दुख जीवन का स्थायी भाव है, और उसे अपनी कविता के केन्द्र में ले आया है। वर्डस्वर्थ की तरह hearing the still, sad music of humanity. उसकी कविता स्मृति में स्थाई रूप से बस जाने वाले मुहावरों और बिम्बों से भरी हुई है।

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  10. वसु की कविता का अपना अकॉस्टिक्स है। पढ़ते पढ़ते धुन आपके भीतर बजने लगती।

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  11. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (09-11-2018) को "भाई दूज का तिलक" (चर्चा अंक-3150) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    पञ्चपर्वों की श्रंखला में
    भइया दूज की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  12. प्राची कुमारी8 नव॰ 2018, 5:16:00 pm

    बहुत अच्छे वसू।बहुत अच्छी और प्रेरणा दायक कविताए है।

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  13. बहुत सुन्दर कविताएं

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  14. ब्लॉग बुलेटिन टीम की और मेरी ओर से आप सब को गोवर्धन पूजा और अन्नकूट की हार्दिक शुभकामनाएं|


    ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 08/11/2018 की बुलेटिन, " गोवर्धन पूजा और अन्नकूट की हार्दिक शुभकामनाएं “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  15. अद्भुत शैली के साथ अनुपम शब्द सामर्थ्य।
    सभी कविताएँ बहुत अच्छी आने वाले समय के एक अच्छे कवि का सुंदर प्रस्तुतिकरण।

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  16. शिव किशोर तिवारी9 नव॰ 2018, 1:58:00 pm

    लगभग सभी कविताओं का मूड अवसाद और निराशा का है। किशोर कवि के लिए यह मूड कुछ उम्र की ऐंक्ज़ाइटी की उपज, कुछ केवल ट्रेंडी हो सकता है। मैं इस बात से प्रभावित हुआ कि हिंदी के वामपंथी फ़ैशन के मुताबिक़ जो अवसाद चलन में है (याने हाय, बाज़ारवाद, हाय फासिज़्म, हाय मोदी) उससे यह कवि अप्रभावित है। भाषा और शिल्प की दृष्टि से कविताएं सुघड़ हैं। विश्वास उपजता है कि यह किशोर कवि अपनी काव्य- शैली आविष्कृत करने में सफल होगा।
    आपकी पत्रिका के 'मंगलाचार ' खंड में प्रकाशित सभी कवियों के बीच यह कवि अलग से लक्षणीय है।

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  17. पहली बार पढ़ रहा हूँ वसु की कविताएं। अनोखी हैं। बधाई बहुत बहुत।

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  18. गज़ब का लिखा है भाई , सच तेरी खूबियॉ अासमान छूती नज़र अाती है।

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