दलित साहित्य - २०१८ : बजरंग बिहारी तिवारी
























हिंदी का दलित साहित्य अब कलमी पौधा न होकर एक भरा पूरा वृक्ष है. सिर्फ आत्मकथाएं नहीं, उपन्यास, कहानी, कविता, अनुवाद आलोचना सभी क्षेत्रों में आत्मविश्वास और परिपक्वता दिखती है.

आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने वर्षों से दलित साहित्य को अपने अध्ययन का केंद्र बना रखा है और  इस विषय पर उनका विस्तृत लेखन प्रकाशित है.

इस वर्ष के दलित साहित्य का लेखा–जोखा उन्होंने लिया है. हो सकता है कुछ पुस्तकें छूट भी गयीं हों. आप टिप्पणी में चाहें तो उनका संज्ञान ले सकते हैं.




हिंदी दलित साहित्य – २०१८
आक्रोश से विसंगतियों की ओर                                 
बजरंग बिहारी तिवारी








न्य भारतीय भाषाओँ की तुलना में हिंदी दलित साहित्य इस मायने में भिन्न है कि यहाँ रचनाकारों की नई पीढ़ी अपेक्षाकृत अधिक संख्या में पूरे दमखम के साथ लिख रही है. दिल्ली स्थित दलित लेखक संघ (दलेस) ने इस वर्ष अपनी पत्रिका ‘प्रतिबद्ध’ का प्रकाशन शुरू किया है. पत्रिका की नियमितता अगर बनी रही तो आने वाले दिनों में यह महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकेगी. दलेस अपनी पत्रिका के माध्यम से नए लेखकों की टीम उभार सकती है. बहुत पहले ऐसा ही काम ‘अपेक्षा’ पत्रिका ने किया था. यह पत्रिका भी दलेस की थी. इसे बाद में दलेस के पूर्व अध्यक्ष डॉ. तेजसिंह ने अपनी तरफ से निकालना जारी रखा था. पत्रिका का संगठनात्मक स्वरूप इस तरह वैयक्तिक हो गया था.

‘अपेक्षा’ पत्रिका से जुड़े सम्पादकीय टीम के सदस्य इसका पुनर्प्रकाशन शुरू करें तो रिक्त हुए स्थान को भरा जा सकता है. अपनी नियमितता बनाए रखने वाली पत्रिका है ‘दलित अस्मिता’. प्रो. विमल थोरात और दिलीप कठेरिया के कुशल नेतृत्व में निकलने वाली ‘दलित अस्मिता’ ने लगातार यादगार अंक निकाले हैं. पिछले वर्ष पत्रिका ने कई स्तंभ आरंभ किए थे. इनमें एक स्तंभ रजनी तिलक का था. यह स्तंभ कई कारणों से ऐतिहासिक बन रहा था लेकिन इस वर्ष 30 मार्च को रजनी तिलक के आकस्मिक निधन से यह स्तंभ बंद हो गया. दलित रचनात्मकता को सामने लाने वाली अन्य पत्रिकाओं में ‘अम्बेडकर इन इंडिया’ (दयानाथ निगम, लखनऊ) और ‘दलित दस्तक’ (अशोक कुमार, दिल्ली) उल्लेखनीय हैं.
      
इस वर्ष दूसरी विधाओं की तुलना में कविता संग्रहों का प्रकाशन ज्यादा रहा. प्रायः हर साल यही स्थिति देखने में आती है. गुण और परिमाण दोनों स्तरों पर कविता विधा आगे दिखती है. इस साल वरिष्ठ कवि असंगघोष का संग्रह ‘अब मैं साँस ले रहा हूँ’ वाणी प्रकाशन, दिल्ली से आया है. 111 पेजी संग्रह में कुल 66 कविताएँ हैं. संग्रह का फ्लैप जयप्रकाश कर्दम ने लिखा है. असंगघोष की कविता से पाठकों को रूबरू कराते हुए कर्दम जी लिखते हैं-

“कवि का हृदय वर्जनाओं से मुक्त हो बग़ावत करने के लिए व्याकुल है. इस व्याकुलता में उसके ‘अंतर्मन से निकलते हैं नफ़रतों भरे/ बग़ावत के गीत’ और इन गीतों को वह खुद पर आजमाता है. इन गीतों की अपनी भाषा है, अपनी लय, छंद, जिनमें समता और स्वातंत्र्य की चाह और मनुष्यता की राह है.”

कर्दम जी के फ्लैप से किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि इस काव्य-संग्रह में गीत हैं. संग्रह में एक भी गीत नहीं है. ‘फ्री वर्स’ में लिखी बग़ावती कविताएँ हैं. इस बग़ावत का अपना रंग-ढंग है. कुछ कविताओं के शीर्षक से इसका अंदाज़ लगाया जा सकता है- ‘फूँकूँगा तूझे मैं ही’, ‘भेड़िये का सामना करना होगा’, ‘लगाऊँगा डायनामाइट’, ‘थामनी है हत्यारी तलवार’, ‘ज्वालामुखी फटना ही है’. बानगी के तौर पर ‘उठाओ लट्ठ’ कविता का यह अंश देखा जा सकता है-

“तुम्हारे हाथों में
लट्ठ है ...
बस हमारे साथ चल सको
जातिवाद दूर करने
तो हाथों में लट्ठ ले चल पड़ो
ताकि इस मनुवादी का पिछवाडा
तबियत से कूट सकें,
बिना कूटे इसे समझ आयेगी नहीं.”   
   



सिर्फ दलित साहित्य में ही नहीं, इस समय समूचे हिंदी साहित्य में अगर कुछ बेहतर गीतकारों की सूची बनानी हो तो उसमें निश्चय ही जगदीश पंकज का नाम रहेगा. भाव, भाषा, अंतर्वस्तु, तेवर, वैचारिकी और शिल्प विधान सभी दृष्टियों से जगदीश पंकज श्रेष्ठ गीतकार ठहरते हैं. अपने स्तंभ में दलित कविता पर प्रकाशित अपेक्षाकृत विस्तृत निबंध में उनके गीतों पर कुछ लिख चुका हूँ. इस वर्ष उनका तीसरा संग्रह ‘समय है संभावना का’ (ए. आर. पब्लिशिंग कंपनी, नवीन शाहदरा, दिल्ली) आया है. आक्रोश जगदीश पंकज के गीतों का प्राण-तत्व है लेकिन वह गीत के विन्यास में इतना घुला-मिला होता है कि उसका अहसास ही किया जा सकता है. उनके एक गीत में विन्यस्त बिडंबना-बोध को देखिए-

मन प्रफुल्लित
तन प्रफुल्लित, और गद्गद्
आ रहे हैं, सुखद दिन अच्छे हमारे

हवा में बहने लगे सुविचार जिनसे
यह सदन फिर से
संवारा जायेगा
और पौराणिक कथाओं के मिथक को
झाड़ कर फिर से
निखारा जायेगा

पूर्व-विस्मृत हो गए पूजा घरों को
फिर मिलेंगे मौन सत्ता के सहारे

हर दिशा में पैर फैलाये गए हैं
हर दबा कूड़ा
कुरेदा जाएगा
उत्खनन की हर नई तकनीक लेकर
श्रेष्ठता का दंभ फिर गहराएगा

गंदगी अपनी बहाकर मुग्ध हैं हम
अब मिलेंगे स्वच्छ गंगा के किनारे



       
जिस संग्रह की बहुत दिनों से प्रतीक्षा थी वह दो कर्मठ कवियों-  मुसाफ़िर बैठा और कर्मानन्द आर्य के संपादन में छपकर इस साल प्रकाशित हो गया है. संग्रह का नाम है- ‘बिहार-झारखण्ड की चुनिन्दा दलित कविताएँ’ (बोधि प्रकाशन, जयपुर). इस संग्रह में कुल 56 कवियों की 333 कविताएँ हैं. संपादक-द्वय ने बड़े श्रम से कई आयु-वर्ग वाले कवियों की कविताओं को संजोया है. दोनों संपादकों ने अलग-अलग संपादकीय लिखकर इस परियोजना के उद्देश्य और अपनी चिंताओं को शब्द दिए हैं. ‘अज्ञात कुलशील कवियों के अनिवार पदचाप’ शीर्षक से लिखे अपने संपादकीय में डॉ. मुसाफ़िर बैठा ने दलित मुक्ति की शुरुआत का श्रेय अंगरेजी शासन को दिया है. अंगरेजों के शासनकाल में ही दलितों को

“अभिव्यक्ति के औजार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अवसर” मिले. अंगरेजी भाषा की शिक्षा ने इस मुक्ति अभियान में केन्द्रीय भूमिका अदा की- “अंग्रेजी शासकों ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा का जो दरवाजा खोला वह इन समुदायों के लिए अचरजकारी वरदान के समान था.” संपादक के अनुसार सर्वाधिक वंदनीय नाम लार्ड मैकाले का है- “अंग्रेजी नौकरशाह एवं भारत शिक्षा मंत्री लॉर्ड मैकाले द्वारा अंग्रेजी शिक्षा का द्वार दलित, शूद्र एवं आम स्त्री तबके के लिए खोला जाना वंदना पाने योग्य काम है.”

इस संपादकीय का दूसरा मुद्दा मध्यकाल है. इस काल में तुलसीदास अपनी “बेहूदी कल्पनाओं, कथाओं की जड़ धार्मिक चाल में रह व रम कर अंधविश्वासी विभ्रमों को अपनी रचनाओं के माध्यम से गति दे रहे थे वहीं उनके समकालीन कबीर और रैदास धार्मिक अंधविश्वासों एवं कुरीतियों पर प्रहार करने वाली लक्षणा और व्यंजना में लगभग वैज्ञानिक मिजाज की जनसमस्या-बिद्ध कविताई बाँच रहे थे.”

संपादक ने इस विरोधाभास के निराकरण की तरफ ध्यान नहीं दिया है कि जब दलित तबके को दो सौ साल पहले पहली बार अंग्रेजों ने अभिव्यक्ति के औजार और अवसर दिए तो छह सौ साल पूर्व दलित पृष्ठभूमि वाले संत कवि वैज्ञानिक मिजाज की जनसमस्याबिद्ध कविताई किस प्रकार रच रहे थे? अंगरेजों को प्रथम मुक्तिदाता मानने का परिणाम यह निकला कि सन् नब्बे के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जो मकड़जाल पसरा है, उसे विचार के दायरे से बाहर रखा गया है. एक-एक कर तमाम सार्वजनिक/सरकारी उपक्रमों को निजी हाथों में सौंप देने का जो सिलसिला चल निकला है उसका वंचित तबके पर क्या असर हो रहा है उसकी तरफ ध्यान देने की जरूरत संपादक को नहीं महसूस हुई है. लेकिन, इस बात के लिए संपादक की खुले मन से तारीफ करनी चाहिए कि अपनी ‘स्थापनाओं’ को उन्होंने निर्भ्रांत तरीके से रखा है. ऐसी दो स्थापनाएँ बानगी के लिए-


1) “मेरा तो यहाँ तक मानना है कि तुलसी के काव्य में अपनी भक्ति अर्पित करते हुए काव्य सौंदर्य की प्रशंसा में रत होना बलात्कार की घटना में सौंदर्यशास्त्र ढूँढने और उसकी वकालत करने के बराबर है.”
2) “विस्मय तो तब होता है जब कथित वामपंथी खेमे के लेखकों एवं आलोचकों द्वारा मार्क्सवादी माने जाने वाले कवि मुक्तिबोध को सर्वश्रेष्ठ कवि ठहरा दिया जाता है मगर इन मुक्तिबोध के यहाँ एक भी कविता ऐसी नहीं मिलती जो दलित हित को संबोधित हो अथवा ब्राह्मणवाद एवं सवर्णवाद की नब्ज पकड़ती हो.”
    
संग्रह के दूसरे संपादकीय ‘बिहार क्षेत्र में दलित रचनाशीलता की जमीन’ में डॉ. कर्मानन्द आर्य का ज़ोर स्थिति की विवेचना करने पर अधिक है, ‘स्थापना’ देने पर कम. बिहार के इतिहास का खाका पेश करते हुए कर्मानन्द ने उन पूर्वग्रहों का स्मरण कराया है जिनकी वजह से यह प्रदेश नाइंसाफी का शिकार रहा है. वे बताते हैं कि पिछली सदी के आठवें दशक तक बिहार में तीन बड़े आंदोलन देखने को मिले- वामपंथी, समाजवादी और नक्सल. “तीनों ही आंदोलनों में जो मुद्दा प्रमुखता से सामने आया वह है सामाजिक प्रतिष्ठा, जातीय अपमान और गैर बराबरी के खिलाफ़ लड़ाई. वामपंथी आंदोलन में सबसे अहम भूमिका जिन वर्गों की रही, उनमें सबसे ज्यादा दबे-कुचले वर्ग के लोग हैं.”

बिहार के दलित रचनाकारों का परिचय कराते हुए संपादक ने इन्हें तीन पीढ़ियों में रखा है. नवीनतम पीढ़ी भाव-भाषा और सौंदर्यबोधीय आयामों को लेकर खासा सजग है, यह बात आश्वस्तिकारी है. अपने संपादकीय के समापन अंश में डॉ. कर्मानन्द ने लिखा है- 

“अमूमन यह माना जाता है कि दलित रचनाकारों की रचनाओं में आक्रोश का स्वर अधिक है और यहाँ पर प्रेम, साहचर्य और सहअस्तित्व की रचनाएँ बहुत कम हैं पर इस कविता संग्रह को पढ़ते हुए आपकी यह अवधारणा विखंडित हो सकती है. जहाँ दमन होता है, मुक्ति की शुरुआत वहीं से होती है.” 



किसी संग्रह की भूमिका लिखने का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि नए पाठक बनाए जाएँ और पुराने पाठक समुदाय को सफलतापूर्वक संग्रह की तरफ आकृष्ट किया जाए. कर्मानन्द की ‘भूमिका’ इस चुनौती या दायित्व को बखूबी समझती है.

    

'द मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन, इग्नू रोड, दिल्ली से इस वर्ष दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं- ‘विभीषण का दुःख’ (मुसाफ़िर बैठा) और ‘डरी हुई चिड़िया का मुकदमा’ (कर्मानन्द आर्य). मुसाफ़िर बैठा के एक सौ बीस पेजी संग्रह में चौहत्तर कविताएँ हैं. मुख्यतः विचारप्रधान कविताएँ लिखने वाले मुसाफ़िर आक्रोश से आपूरित हैं. उनका आक्रोश उचित ही ब्राह्मणी व्यवस्था के प्रति है. वे अपनी कविताओं में व्यवस्था के छल-छद्मों को शीघ्रता से बेनकाब करते हैं. उनका रोष वामपंथ के प्रति भी है क्योंकि यह ‘आयातित’ है. वामपंथ को स्वीकारने वाले भी उनकी नज़र में खटक रहे हैं क्योंकि वे अपनी असलियत छुपाने के लिए इसकी ओर आए हैं-

“प्रगतिशीलता या कि वाम उनके फैशन में जो है
दूर देश के मार्क्स का नाम बेच
पता नहीं
यह होशियार जीवन जीना
उनने कैसे सीखा?” 

इस सचाई से वाकिफ़ कवि ने रोहित वेमुला पर लिखी अपनी हायकु-माला का उपसंहार इस हायकु से किया है- 

“बहा शोणित
तेरा, कन्हैया हुआ
मालामाल क्यों?” संग्रह के (पिछले) कवर पृष्ठ पर

विष्णु खरे का एक वक्तव्य दिया गया है. इस वक्तव्य के अनुसार 


मुसाफिर बैठा “उत्तर भारत के सर्वश्रेष्ठ दलित कवि हैं और अब से उन्हें उसी तरह लिया-जाना जाए.” 
    
कर्मानन्द आर्य का संग्रह 116 पृष्ठों का है. इसमें कुल 83 कविताएँ हैं. इस संग्रह के बैक कवर पर दो वरिष्ठ लेखकों के वक्तव्य हैं. अरुण कमल के इस कथन की ताईद संग्रह की कविताएँ करती हैं कि “यहाँ प्रायः हर कविता अपने समय का बिम्ब है.   

”बिम्ब रचने की क्षमता कवि की संभावनाओं की साक्षी होती है. कर्मानन्द की बिम्बधर्मिता के तमाम साक्ष्य इस संग्रह में देखे जा सकते हैं- “सूरज रोज सुबह भैंसे की तरह गुर्राता है/ चिड़िया की आत्मा भैंसे की आँख में झाँक लेती है.” 

कई कविताओं का तेवर क्रांतिकारी कवि जय प्रकाश लीलवान का स्मरण कराता है. एक ऐसी ही बिम्ब-समृद्ध कविता देखें

“मक्खियों की तरह सत्ता का शहद बनाने वाले
कूकुरों की तरह एक टुकड़े पर लोट जाने वाले
सरकार की भाषा में मुस्कुराने वाले
हमारे आदर्श नहीं हो सकते.”
    

उर्दू में इतने वर्षों बाद भी दलित साहित्य की कोई धारा विकसित नहीं हुई है. कभी-कभार असम्बद्ध प्रयास जरूर दिखाई देते हैं. यह भाषा उसी इलाके की है जहाँ जाति व्यवस्था की क्रूरताएँ आए दिन दिखाई देती हैं. ऐसे में यह देखना सुखद है कि इस वर्ष  उर्दू के कवि हनीफ तरीन ने नागरी लिपि में अपनी दलित संवेदना की कविताओं का संग्रह ‘दलित आक्रोश’ (सम्यक प्रकाशन, पश्चिमपुरी, नई दिल्ली) शीर्षक से छपवाया है. संग्रह की प्रस्तावना तीन लोगों- मूलचंद गौतम, छाया कोरेगांवकर तथा वरिष्ठ दलित लेखक कर्मशील भारती ने लिखी है. करीब 100 पन्नों वाले इस संग्रह की समस्त कविताएँ कुल पाँच अध्यायों में रखी गई हैं. कविताएँ उद्बोधनपरक हैं. ये दलित-मुस्लिम एकता की जरूरत का अहसास कराती हैं-

“जो दलितों का अज्म बढ़ाएं
अपने ऐसे प्यारे कवि की
आओ मिलकर नज्में गाएँ
दलित मुसलमानों से मिलकर
कट्टरवाद से भारत माँ को
पूरी तरह छुटकारा दिलाएँ
नस्लवाद से देश बचाएँ.”

हनीफ तरीन पेशे से चिकित्सक हैं. उनमें उत्साह भरपूर है और कुछ करने का जज्बा भी कम नहीं. दलित समुदाय को लेकर उनकी चिंताएँ भी वाजिब हैं. अगर वे अपनी शायरी को लेकर भी थोड़े संजीदा हो सकें तो अच्छा. इस संग्रह की कविताएँ बहुत सपाट हैं.
    
गुजराती दलित साहित्य अकादमी, अहमदाबाद दलित साहित्य के प्रकाशन में सर्वाधिक सक्रिय संस्थाओं में शुमार किए जाने योग्य है. यह संस्था गुजराती भाषा के साथ-साथ हिंदी और अंगरेजी में भी दलित साहित्य के ग्रंथ छापती है. अकादमी से अब तक शताधिक ग्रंथ छपे होंगे. इस वर्ष अकादमी ने नई पहल करते हुए भारतीय दलित कविता का प्रतिनिधि संचयन संस्कृत अनुवाद में ‘सूर्यगेहे तमिस्रा’ शीर्षक से प्रकाशित किया है. इस संग्रह के अनुवादक-संपादक डॉ. ऋषिराज जानी हैं. 140 पृष्ठ के इस संग्रह में कुल 36 कवियों की कविताएँ हैं. 

इनमें गुजराती के 14, हिंदी के 15, मराठी के 1, असमिया के 2, पंजाबी के 1, बांग्ला के 1 और संस्कृत के 2 कवियों को सम्मिलित किया गया है. अपने वक्तव्य में अकादमी के महामंत्री हरीश मंगलम ने दलित साहित्य के अनुवाद का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए जन-जन तक उसकी पहुँच पर ज़ोर दिया है. किताब के अंत में गुजराती दलित कविता के विकास-क्रम पर एक मुकम्मल निबंध दिया गया है. इससे प्रस्तुत किताब की उपादेयता बढ़ गई है. ऐसा ही अगर संस्कृत कविता में जाति-विरोधी लेखन पर एक निबंध दिया जाता तो संग्रह की मूल्यवत्ता और बढ़ जाती. अनुवाद के ऐसे और संग्रह आने चाहिए. इस संग्रह में मराठी दलित कविता का प्रतिनिधित्व बहुत कम हुआ है, न के बराबर. अन्य कई भाषाओँ मसलन उड़िया, मलयालम, कन्नड़ आदि की दलित कविता का प्रतिनिधित्व नहीं है.

राजस्थान के संस्कृत कवि-आलोचक-अनुवादक कौशल तिवारी ने पिछले वर्ष साहित्य अकादमी की संस्कृत पत्रिका में ओमप्रकाश वाल्मीकि की कुछ कविताओं का अनुवाद प्रकाशित कराया था. वे भी अगर इस परियोजना पर काम कर सकें तो बड़ा अच्छा हो.  
    


आत्मकथा विधा में इस वर्ष दलित स्त्रीवादी लेखिका अनिता भारती का आत्मवृत्त ‘छूटे पन्नों की उड़ान’ (स्वराज प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली) छपा है. 19 शीर्षकों और लगभग 100 पन्नों का यह आत्मवृत्त एक महानगर में दलित परिवार की जद्दोजहद को सामने लाता है. एक दलित लड़की का सामाजिक और घरेलू परिवेश, शिक्षा, अपनी मर्जी से अंतरजातीय विवाह, नौकरी, एक्टिविज्म, लेखन और व्यवस्था में पिसती, जूझती अन्य स्त्रियों के जीवन का लेखा-जोखा इस आत्मवृत्त को आकार देते हैं. किताब के प्राक्कथन ‘कच्चे घड़े-सा जीवन’ में अनिता भारती ने लिखा है-

“मेरा अंतरजातीय विवाह भी मेरी जिंदगी की किताब का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पन्ना है. अंतरजातीय विवाह के अपने खूब फसाड़ होते हैं. दोनों परिवारों की इतनी पॉलिटिक्स होती है कि अपने विवाह को बचाने और अपने रिश्ते को बचाने में खूब समय चला जाता है. सबसे ज्यादा मुश्किल तो लड़की की होती है जिसकी इच्छाओं और जरूरतों को कोई समझना नहीं चाहता. ... पर मैं इसे अपनी उपलब्धि ही कहूँगी कि मुझे ऐसा जीवन-साथी मिला जो साहित्य बेशक न समझता हो, पर अपने अंदर सारी खूबियों को समेटे सही मायनों में एक सच्चा संवेदनशील दोस्त व फेमिनिस्ट पति साबित हुआ.”

‘छूटे पन्नों की उड़ान’ में कई बार अति संक्षिप्तता खटक जाती है. कुछ महत्त्वपूर्ण जीवन प्रसंगों को अपेक्षित विस्तार दिया जाना था. बतौर पाठक हम लेखिका से उनकी आत्मकथा के अगले खंड की आशा करते हैं. 
    
दलित नाटक अपेक्षाकृत उपेक्षित विधा है. दलित नाट्यांदोलन के क्षेत्र में पर्याप्त सक्रियता न होने से नाट्य लेखन में सुस्ती नज़र आती है. ऐसे में इस वर्ष वरिष्ठ कथाकार रत्न कुमार सांभरिया का नाटक ‘भभूल्या’ (स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली) का प्रकाशन स्वागत योग्य घटना है. लेखक ने दलित दायरे का विस्तार करते हुए घुमंतू कुचबंदा जाति को अपने नाटक का कथ्य बनाया है. नाटक का नायक धियानाराम पुलिसिया दुश्चक्र में इस तरह फाँस लिया जाता है कि समूचे तंत्र की क्रूरता का रेशा-रेशा सामने आ जाता है. रत्न कुमार ने इसी ‘भभूल्या’ शीर्षक से पहले एक कहानी लिखी थी जो ‘हंस’ पत्रिका का अक्टूबर 2016 अंक में छपी थी. 


मजबूत कथा-पात्रों के सृजन के लिए चर्चित रत्न कुमार सांभरिया के इस नाटक का नायक धियानाराम अपने जिगर के टुकड़े बकरे को बचाने का हर संभव जतन करता है. हेड कांस्टेबल प्रेमसुख से शुरू होकर एस.एच.ओ. और एस.पी. पर जाकर सिलसिला रुकता है. सबकी नज़र धियानाराम के बकरे पर है. दिन 15 अगस्त का और मीट का इंतज़ाम बाज़ार से नहीं हो सकता. ऐसे में स्वाधीनता दिवस का अर्थ दो फाड़ में बंट जाता है. इस दिन का जो अर्थ पुलिस तंत्र के लिए है उसका विलोम धियानाराम और अमरत जैसे पात्रों के लिए. भरपूर नाटकीयता लिए यह कृति मंचन के सर्वथा योग्य प्रतीत होती है. ‘मेरी बात’ में नाटककार ने लिखा है-

“दलित नाटक का रूपबंध भावबोध की तपोभूमि है. चेतना का ताप हर दलित के अंतस तक पहुँचाना उसका लक्ष्य. यहाँ गणना (क्वांटिटी) नहीं, गुणवत्ता (क्वालिटी) की महत्ता है. दलित नाटक की जमीन उसकी प्रामाणिकता है. शिक्षा, पद, विकास और पुनर्वास के साथ आज का सच उजागर होना चाहिए. उसे प्रयोगधर्मी होने के बजाए यथार्थवादी होना है.”
    


पिछले वर्ष के अंत में कैलाश चंद चौहान का उपन्यास ‘विद्रोह’ (कदम प्रकाशन, रोहिणी, दिल्ली) प्रकाशित हुआ था. विकट परिस्थितियों के समक्ष हार न मानने वाले विक्रम की संघर्ष गाथा के समानांतर पूजा की संकल्प यात्रा गतिमान होती है. विक्रम को अपने सहकर्मियों की जातिवादी घृणा का मुकाबला करना पड़ता है तो पूजा को अपने परिवार जनों से जूझना पड़ता है क्योंकि उसने करवाचौथ के व्रत से लेकर तमाम अंधविश्वासों को मानने से दृढ़तापूर्वक इनकार कर दिया है. विद्रोह की यह बहुपरतीय कथा उपन्यास को मूल्यवान बना देती है.

इस बरस जो उपन्यास छपा उसके लेखक हैं किशन लाल और उपन्यास है ‘किधर जाऊँ’ (लोकोदय प्रकाशन, छितवापुर रोड, लखनऊ) किशन लाल पेशे से पत्रकार हैं और उन्हें दलित जीवन की दुश्वारियों का निजी के साथ सार्वजनिक अनुभव भी है. उपन्यास के कवर पर छपी टिप्पणी के अनुसार, 

“किधर जाऊँ’ मोची जाति पर भी और किशन लाल का भी पहला उपन्यास है. उन्होंने छत्तीसगढ़ के मेहनती चर्मकारों का जितना विश्वसनीय और मर्मस्पर्शी चित्रण इसमें किया है वह इस समाज के मन-मस्तिष्क में मच रही उथल-पुथल को शिद्दत से बयाँ करती है. इस उपन्यास में मोची समाज की दिनचर्या, कामकाज, लोक परंपरा, रीति रिवाजों के साथ ही दलित समाज के सामजिक-राजनैतिक संघर्षों का एक अलग ही सच उजागर होता है.”


    

स्थापित कवि-कथाकार सुशीला टाकभौरे इधर अपने उपन्यासों के निरंतर प्रकाशन से चर्चा में हैं. इस साल वाणी प्रकाशन से उनका उपन्यास ‘वह लड़की’ छपा है. इसी वर्ष उन्होंने शिल्पायन प्रकाशन से अपने पत्रों का संग्रह ‘संवादों के सफ़र...’ प्रकाशित कराया है. दलित विमर्श पर शोध करने वाले अध्येताओं के लिए ये पत्र बड़े काम के साबित हो सकते हैं. लघुकथा के चर्चित हस्ताक्षर डॉ. पूरन सिंह का संग्रह ’64 दलित लघु कथाएँ’ (कदम प्रकाशन, रोहिणी, दिल्ली) से छपा है. 128 पृष्ठों की इस किताब में चुभती हुई लघु कथाएँ हैं. कहीं ये लघु कथाएँ जातिगत हिंसा को सामने लाती हैं तो कहीं दलितों के मुंहतोड़ जवाब को उभारती हैं. 


धार्मिक पाखंडों का पर्दाफाश, अवसरवादी दलित नेताओं की असलियत इन लघु कथाओं की कथावस्तु का मुख्य हिस्सा हैं. ये कथाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर छप चुकी हैं और कहा जाना चाहिए कि पाठकों के जेहन में अपनी जगह घेर चुकी हैं.    
______      
bajrangbihari@gmail.com 

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आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. हिंदी दलित साहित्य की वर्ष 2017-18 में विविध विधाओं की आई कुछ महत्वपूर्ण किताबों पर समीक्षा लिखते हुए आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने यहां मेरे काव्य संग्रह 'विभीषण का दुःख' एवं मेरे एवं डॉ कर्मानंद आर्य के संयुक्त संपादन में आए सामूहिक काव्य संकलन 'बिहार-झारखण्ड की चुनिन्दा कविताएँ'की आलोचनात्मक चर्चा रखी है उसके लिए मैं उनका आभारी हूँ। आलेख से अन्य कृतियों की भी महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

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    1. आपके टीप के प्रति आभार सर।
      महत्वपूर्ण कृतियों की सूचना आम पाठक-समुदाय तक पहुंंचाने के मकसद से यह लेख लिखा गया है।

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  2. जानकारी से भरपूर आलेख है.

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  3. सारगर्भित समीक्षात्मक आलेख। मेरे नवगीत संग्रह 'समय है सम्भावना का' को स्थान देने के लिए धन्यवाद!- जगदीश पंकज

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    1. सम्मान्य जगदीश पंकज जी,
      आप हमारे साहित्य के गौरव हैं। आपके नवगीत पढ़ना हमेशा एक समृद्धि देता है।
      आपका स्नेह बना रहे, यही कामना है।

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  4. इस सर्वेक्षणात्मक आलेख में जो बात कहने से रह गई है वह यह कि यह वर्ष कई वजहों से गंभीर संकट का साक्षी बना है।
    संविधान पर हमले बढ़े हैं।
    सरकारी तंत्र पर हिंदुत्व का कब्जा गहराया है।
    लोक कल्याणकारी योजनाएं क्षतिग्रस्त हुई हैं।
    SC/ST act पर वर्चस्ववादियों की कुदृष्टि गई है।
    धर्मोंन्माद उफान पर है। साम्प्रदायिक विकृति के चलते कई हत्याएं हुई हैं।
    न्याय तंत्र क्षरण की ओर जाता दिख रहा है।

    ऐसे में समानधर्मा लोगों के साथ व्यापक एकता की तरफ बढ़ने की सख्त जरूरत है।

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  5. आदरणीय तिवारी जी ने मेरी लघुकथा की किताब पर लिखा। मैं उनका आभारी हुआ। किताब तो मैंने बहुत लेखकों को दी है। दलित साहित्य के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को मैं सादर जय भीम करता हूं।

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    1. सम्मान्य डॉ. पूरन सिंह जी,
      आपकी विचारनिष्ठ लेखनी निरंतर गतिमान है।
      आपने हिंदी दलित साहित्य को खूब समृद्ध किया है। आपकी लेखकीय प्रतिबद्धता को सादर जय भीम।

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  6. बहुत गंभीर और समसामयिक विश्लेषण ।आभार समालोचन।

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  7. नमस्कार आदरणीय व बहुत-बहुत बधाई आपको। समकालीन दलित कविता को समझने के लिए मददगार है आपका लिखा।

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  8. रामप्रसाद जी,
    आभार व्यक्त करता हूँ।
    इस सर्वेक्षणात्मक लेख में सिर्फ इस वर्ष प्रकाशित काव्यसंग्रहों को शामिल किया गया है।
    बहुत से ऐसे कवि हैं जो निरंतर लिख रहे हैं, उत्कृष्ट कविताएं रच रहे हैं लेकिन उनका कोई संग्रह नहीं छ्पा है। समकालीन दलित कविता का परिदृश्य इन्हें शामिल किए बगैर अपूर्ण है।

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  9. दलित साहित्य का व्यापक पाठक वर्ग है। दूर-दराज गाँव-गिराँव तक फैला। समालोचन पर इस सर्वेक्षण को पढ़कर sms, वाट्सएप तथा फोन पर आए दिन कोई न कोई टिप्पणी मिल जाती है। अधिकांश टिप्पणियाँ अनुमोदनरक होती हैं। इन प्रतिक्रियाओं से बल मिलता है और बेहतर करने की दिशा भी सूझती है। अच्छा होता कि सहृदय पाठक अपने मंतव्य समालोचन पर चस्पां करते।
    जो हो, मैं अपने सभी पाठकों तथा शुभचिंतकों के प्रति आभार ज्ञापित कर रहा हूँ।
    -बजरंग बिहारी।

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  10. ज्ञानवर्धक जानकारी के साथ-साथ सटीक समीक्षा का यह लेख पढ़कर मैं अति प्रसन्न हुआ । आदरणीय बजरंग बिहारी जी को हृदय से सधन्यवाद नमन ।

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