(रूमी का मक़बरा,कोन्या, तुर्की)
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शायर-सूफी मौलाना मुहम्मद जलालुद्दीन रूमी (१२०७) की रूबाईयां और ग़ज़लें विश्व की सभी भाषाओँ में अनूदित
हुईं हैं, एक ही भाषा में कई-कई बार हुईं हैं. पर इन कविताओं का नशा कहीं से भी कम
होता नज़र नहीं आता. हर पीढ़ी अपने लिए रूमी को खोज़ती है और मायने तलाश करती है.
प्रेम, वियोग, अध्यात्म और काव्य-सौन्दर्य के इस सागर में अब भी ताज़गी है.
संस्कृत के कवि और फ़ारसी के विद्वान बलराम
शुक्ल ने रूमी की ग़ज़लों का हिंदी में अनुवाद किया है. तीन गज़लें मूल (देवनागरी
लिपि) और अनुवाद के साथ आपके लिए.
रूमी की ग़ज़लें
(फ़ारसी से हिंदी अनुवाद
बलराम शुक्ल)
दीदे ए दिल दीदे
१.
आशिक़ शुदे ई ऐ दिल, सौदा-त मुबारक
बाद
अज़ जानो मकान रस्ती, आन्जा-त मुबारक
बाद
इश्क़ हो गया है
तुम्हें ऐ दिल! तुम्हारा यह जुनून तुम्हारे लिए मुबारक हो.
जहाँ (प्रेम के राज्य
में) जाकर तुम जानो जहान से छूट गये, वह जगह तुम्हारे लिए मुबारक हो.
२.
अज़ हर दो जहान बुग्ज़र, तन्हा ज़नो तनहा ख़्वर
ता मुल्को मलक गूयन्द “तन्हा-त मुबारक बाद”
अब तो तुम दोनों
जहान से किनारा कर लो. अकेले ही ढालो–अकेले ही पिओ
ताकि इस संसार के
आदमी और उस संसार के फ़रिश्ते, दोनों कह उठें- तुम्हारी तनहाई तुम्हारे लिए
मुबारक हो.
३.
कुफ़्र-त हमगी दीन शुद तल्ख़-त हमे शीरीन् शुद
हल्वा शुदे ई कुल्ली हल्वा-त मुबारक बाद
तुम्हारा सारा
अधर्म धर्म में बदल गया, तुम्हारी सारी कटुता मधुरता में बदल गयी.
तुम नख से सिख तक
हल्वा बन गये हो. यह हल्वा तुम्हें मुबारक हो.
४.
दर ख़ानक़हे सीने ग़ौग़ा-स्त फ़क़ीरान् रा
ऐ सीने ए बी कीने ग़ौग़ा-त मुबारक बाद
दिल के ख़ानक़ाह
में फ़क़ीरों का शोरो गुल मचा हुआ है.
ऐ मेरे निर्बैर
दिल! ये शोरो गुल तुम्हें मुबारक हो.
५.
ईन् दीदे ए दिल–दीदे अश्की बुदो
दर्या शुद
दर्या-श हमी गूयद दर्या-त मुबारक बाद
आँखों ने मेरे
दिल को देख लिया है. पहले ये आँखें आँसू थीं अब समन्दर हो गयी हैं.
इन आँखों का
दरिया तुमसे कहता है कि ये दरिया तुम्हें मुबारक हो.
६.
ऐ आशिक़े पिन्हानी आन् यार क़रीन-त बाद
ऐ तालिबे बालाई, बाला-त मुबारक
बाद
ऐ छिपे हुए
आशिक़! तुम्हारा यार तुम्हारे नज़दीक हो जाये.
ऐ ऊँचाई की
ख़ाहिश रखने वाले! तुम्हारा क़द तुम्हें मुबारक हो.
७.
ऐ जाने पसन्दीदे, जूयीदे व कूशीदे
परहा-त बेरूयीदे परहा-त मुबारक बाद
ऐ मेरे
प्रेमास्पद प्राण! तुमने बहुत खोज की, बहुत मेहनत की.
अब तुम्हारे पंख
उग आये हैं. ये पंख तुम्हें मुबारक हों.
८.
ख़ामुश कुनो पिन्हान् कुन बाज़ार निकू कर्दी
काला–ए–अजब बुर्दी
काला-त मुबारक बाद
चुप भी हो जाओ, अब बन्द भी करो.
प्रेम के बाज़ार में तुमने नफ़े ही नफ़े कमाये.
अद्भुत चीज़ें
ख़रीद लीं तुमने. तुम्हारी ख़रीद तुम्हें मुबारक हो.
आबे हयाते इश्क़
१.
आबे हयाते इश्क़ रा दर रगे मन रवाने कुन
आइने ए सबूह रा तर्जुमे ए शबाने कुन
प्रेम के अमृत को
हमारी नसों में प्रवाहित करो,
रात में जो बीती, सुबह के शराब के
आइने को उसका अनुवादक बनाओ.
२.
ऐ पिदरे निशाते नौ! दर रगे जाने मा बोरौ
जामे फ़लकनुमाय् शौ, व,ज़ दो जहान् कराने कुन
तुम हमारे इस नये
आनन्द के जनक हो, हमारी आत्मा की धमनियों में बहो.
तुम वह जाम बन जाओ
जिसमें सारे आसमान दिखायी पड़ने लगें और फिर दोनों जहान से किनारा कर लो.
३.
ऐ ख़िरदम शिकारे तू! तीर ज़दन शुआरे तू
शस्ते दिल-म बे दस्त कुन जाने मरा निशाने कुन
तुम्हारी तीर
चलाने की आदत ने मेरी बुद्धि को अपना शिकार बना लिया है.
मेरे दिल का कमान
अपने हाथों में लो और मेरी आत्मा को भी अपना निशाना बना डालो.
४.
गर अससे ख़िरद तो रा मन्अ कुनद अज़् ईन् रविश
हीले कुनो अज़ू बिजह दफ़्अ देह-श, बहाने कुन
अगर तुम्हारा
अक़्ल पहरेदार की तरह तुम्हें ऐसा करने से रोकता है
तो कोई भी बहाना
करके, किसी भी तरीक़े से, या तो उससे भाग जाओ या
उसे भगा दो.
५.
ऐ कि ज़े ला,बे अख़्तरान्
मात् ओ पयादे गश्ते ई
अस्ब गुज़ीन्, फ़ुरूज़ रुख़
जानिबे शह दवाने कुन
तुम सितारों के
उलझाऊ खेल में हार कर पैदल हो गये हो.
अब अपना घोड़ा ख़ुद
चुनो और चमकते हुए चेहरे के साथ शह (प्रिय) की ओर दौड़ पड़ो
६.
ख़ीज़, कुलाहे कज़ बिनेह, व,ज़ हमे दाअम-हा बिजेह
बर रुख़े रूह बूसे देह ज़ुल्फ़े निशात शाने कुन
उठ जाओ, अपनी तिरछी टोपी
पहन लो और सभी बन्धनों से छलांग लगा लो.
आत्मा के गालों पर चुम्बन जड़ दो और आनन्द के
बालों में कंघी करो.
७.
चून्कि ख़याले ख़ूबे ऊ ख़ाने गिरिफ़्त दर दिल-त
चून् तू ख़याल गश्ते ई दर दिलो अक़्ल ख़ाने कुन
उस प्रिय के हसीन
ख़यालों ने अगर तुम्हारे दिल में घर बना लिया है
तो तुम भी ख़याल
की तरह होकर (उसके) दिल और अक़्ल में घर बना लो.
८.
शश जिहत-स्त ईन् वतन क़िब्ले दर् ऊ यकी मजू
बी–वतनी,स्त क़िब्ला–गह, दर अदम् आशियाने कुन
तुम्हारा घर छहों
दिशाओं में है.
तुम किसी एक दिशा
में क़िब्ला (प्रार्थना की दिशा) मत खोजो. तुम्हारा क़िब्ला बे–वतनी है.
अपना घर
अनस्तित्व में बसाओ.
९.
कुहने गर,स्त ईन् ज़मान्
उम्रे–अबद म–जू दर् आन
मरत्ए उम्रे ख़ुल्द रा ख़ारिजे ई ज़माने कुन
काल का काम ही है बूढ़ा बनाना. इसलिए अनन्त जीवन की इच्छा मत रखो.
स्वर्ग के हरे
भरे निरन्तर जीवन को इसी क्षण पर न्यौछावर कर दो.
१०.
हस्त ज़बान् बिरूने दर, हल्क़ा–ए–दर चि मी शवी
दर् बिशिकन् बे जाने तू सू–ए–रवान् रवाने कुन
भाषा दरवाज़े से
बाहर की वस्तु है. तुम दरवाज़े की कुंडी क्यों बन रहे हो?
जान भर जोर लगा
कर दरवाज़ा तोड़ डालो और आत्मा की ओर दौड़ पड़ो.
तू मरौ
१.
गर रवद दीदे ओ अक़्लो ख़िरद् ओ जान, तू मरौ
कि म-रा दीदने तू बेहतर अज़् ईशान, तू मरौ
अगर मेरी आँखें, अक़्ल, दानिश और जान, ये सारी चीज़ें
चली जाती हैं तो चली जायें.
बस तुम न जाना.
क्योंकि तुम्हें देखते रहना, मेरे लिए इन सबके होने से बेहतर है.
बस तुम न जाना!
२.
आफ़ताब् ओ फ़लक् अन्दर कनफ़े साये ए तू-स्त
गर रवद ईन फ़लक् ओ अख़्तरे ताबान, तू मरौ
यह सूरज और यह
आसमान सब तुम्हारी छाया में है.
अगर यह आसमान या
यह चमकदार सितारा गुम हो जाता है, तो हो
जाये.
बस तुम न जाना!
३.
ऐ कि दुर्दे सुख़न-त साफ़तर् अज़ तब्ए लतीफ़
गर रवद सफ़्वते ईन तब्ए सुख़नदान, तू मरौ
तुम्हारी बातों
की तलछट भी मेरे लिए प्रभावपूर्ण वक्तृत्वों की अपेक्षा प्रियतर है.
अगर सुख़नशनासों
की सुन्दर बातें गुम भी हो जाए तो भी तुम मत जाना!
४.
अह्ले ईमान् हमे दर ख़ौफ़े दमे ख़ातिमत–न्द
ख़ौफ़-म् अज़ रफ़्तने तू-स्त्, ऐ शहे ईमान, तू मरौ
सारे ईमान वाले
मौत के डर से डरे हुए होते हैं.
लेकिन मुझे तो
सिर्फ़ तुम्हारे जाने से डर लगता है.
ऐ मेरे शाहे ईमान, तुम कहीं न जाना!
५.
तू मरौ, गर बेरवी, जाने मरा बा खुद
बर
व,र मरा मी न बरी बा ख़ुद अज़् ईन् ख़ान तू मरौ
तुम न जाओ, और अगर जाना ही
है, तो मेरी जान भी साथ लेते जाओ.
और अगर मेरी जान
नहीं ले जा सकते तो तुम भी इस जगह से मत हिलो!
६.
बा तो हर जुज़्वे जहान् बाग़चे ओ बुस्तान-स्त
दर ख़ज़ान् गर बेरवद रौनक़े बुस्तान, तू मरौ
तुम्हारे
साथ संसार का कण कण बग़ीचा और
गुलिस्तान की तरह है.
गुलिस्तान की तरह है.
अगर तुम्हारे
बिना गुलिस्तान की रौनक़ पतझड़ बन जाती है
तो तुम जा ही क्यों रहे हो?
तो तुम जा ही क्यों रहे हो?
७.
हिज्रे ख़ीश-म मनुमा, हिज्रे तू बस
संगदिल-स्त
ऐ शुदे ला,ल ज़ तू संगे
बदख़्शान तू मरौ
अपना विरह मुझे न
दिखाना, तुम्हारा विरह बड़ा ही पत्थर दिल है.
तुम्हारे सम्पर्क
में आने से तो बदख़्शाँ प्रान्त के पत्थर
भी माणिक हो जाते हैं,
तुम न जाना!
तुम न जाना!
८.
के बुवद ज़र्रे कि गूयद– तू मरौ ऐ ख़ुर्शीद
कि बुवद बन्दे कि गूयद बे तू सुल्तान– तू मरौ
एक ज़र्रे की
क्या बिसात कि वह सूरज से कहे कि तू न जा!
किसी ग़ुलाम की क्या हिम्मत कि वह सुल्तान से
कहे कि तू न जा!
९.
लीक तू आबे हयाती हमे ख़िल्क़ान् माही
अज़ कमाले करम् ओ रह्मत् ओ एहसान तू मरौ
लेकिन, तुम तो अमृत के
स्रोत हो और बाक़ी सारे प्राणी मछलियों की तरह है.
अपनी कृपा, रह्मत और उपकार भाव से विवश
होकर तुम न जाओ!
१०.
हस्त तूमारे दिले मन बे दराज़ी ए अबद
बर नविश्ते ज़े सरश ता सू ए पायान तू मरौ
मेरे दिल की बही
अनन्त काल की तरह लम्बी है.
जिस पर शुरुआत से अन्त तक बस यही लिखा हुआ है– तू न जा! तू न
जा!
(‘नि: शब्द नूपुर’ पुस्तक ईरान सरकार, वर्धा
अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के सहयोग से राजकमल ने छापी है.)
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डा. बलराम शुक्ल : (19 जनवरी 1982, गोरखपुर)
संस्कृत और फारसी के अध्येता
बान विश्वविद्यालय जर्मनी द्वारा पोस्ट डाक्टोरल के लिये चयनित, राष्ट्रपति द्वारा युवा संस्कृतविद्वान् के रूप में “बादरायण व्यास पुरस्कार ” से सम्मानित, द्वितीय ईरान विश्वकवि सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व करने हेतु तेहरान तथा शीराज में आमन्त्रित.
संस्कृत कविता संकलन “परीवाहः” तथा “लघुसन्देशम्” का प्रकाशन.
मुहतशम काशानी के फ़ारसी मर्सिये का हिन्दी पद्यानुवाद– रामपुर रज़ा लाइब्रेरी, आदि आदि
सम्प्रति : सहायक प्रोफेसर
संस्कृत विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली ११०००७
ईमेल संकेत– shuklabalram82@gmail.com/
डाॅ बलराम आपने बहुत महत्वपूर्ण काम किया है। बधाई और शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
हटाएंबलराम शुक्ल की संस्कृत कविताओं का प्रशंसक हूँ, उन्हें यहीं पढा और जाना अब ये फारसी कविताओं का अनुवाद पढ़ रहा हूँ। हालांकि यह अनुवाद उर्दू दा नहीं है पर है स्टीक और प्रभावित करने वाला। प्रस्तुति बहुत अच्छी है किसी आर्ट वर्क की तरह । पता नहीं उसके पीछे कौन है। जो भी है है सुरुचिपूर्ण । बधाई ।
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद सर!
जवाब देंहटाएंअनेक मित्रों का यह प्रेक्षण हो सकता है कि अनुवादों में कवित्व नहीं है। पुस्तक की भूमिका में यह बात वाज़ेह की गई है कि प्रस्तुत कार्य अनुवाद या रूपान्तर मात्र न होकर रूमी के मूल तक पहुंचने का उपकरण है। ख़ुद कविता करने के लोभ में रूमी के भावों की बलि नहीं दी गयी है जैसा कि अनेक अंग्रेज़ी अनुवादों में दिखाई पड़ता है। प्रामाणिक अनुवाद बनाने के लिए ही इसमें देवनागरी लिपि में मूल एवं अन्यान्य सामग्री का समावेश किया गया है। यहाँ तक कि यथासंभव फ़ारसी की मूल वाक्यरचना (सिंटैक्स) से भी छेड़छाड़ नहीं की गयी है। संक्षेप में, इसे पॉपुलर संस्करण न बना कर अकादमिक संस्करण बनाया गया है।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत बेहतरीन प्रयास,शुक्रिया
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति। मज़ा आ गया। लेकिन अनुवाद में और तग़ज़्ज़ुल लाया जा सकता था।
जवाब देंहटाएंडॉ बलराम शुक्ल के अनुवाद में रूमी के मूल भाव की उपस्थिति का अहसास होता है,यही उनकी सफलता है,जो पाठक को मिलने वाले आनंद से प्रमाणित है
जवाब देंहटाएंअभय तिवारी जी की कलामे रूमी पढ़ी थी।
जवाब देंहटाएंअनुवाद बेहतरीन हुआ है।
समालोचन की गुणवत्तापूर्ण पोस्ट अलग ज़ायका देती है, पढ़ने वालों को।
सभी सामाजिकों को धन्यवाद!!
जवाब देंहटाएंश्रद्धेय मौलाना जलालुद्दीन रूमी को हार्दिक श्रद्धाञ्जलि । उनकी रचनाएं महान हैं ।-एडवोकेट अमित श्रीवास्तव सिविल कोर्ट सीतापुर
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंमेरा अस्तित्व हो न हो मेरे स्वर गूंजते होंगे । गीत मेरे अमित ब्रह्माण्ड में सब गूंजते होंगे।। तेरे अधरों ने मेरे गीत आलिंगन किये हों न। तुम्हारे मन में मेरे गीत क्षण क्षण गूंजते होंगे।।
-एडवोकेट अमित श्रीवास्तव सीतापुर उत्तर प्रदेश भारत
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