रुस्तम : तब भी, इस बाहुल्य में


(Virginie Demont Breton - FISHERMAN'S WIFE AFTER BATHING CHILDREN , 1881)




रुस्तम जीवन में भी मितभाषी हैं और यह समझते हैं कि जीवन आराम से जीने वाली चीज है जिससे कि आप दीगर आवाज़ों को भी सुन सकें जो शोर और भागमभाग में अनसुनी रह जाती हैं. बहुत तेज़, भव्य और आक्रामक जीवन शैली दरअसल बाज़ार और पूंजी का खेल है जिसमें आप भी एक वस्तु बन जाते हैं.
इधर उनके मनन और लेखन के केंद्र में पृथ्वी  बनी हुई है. पशु-पक्षी-नदी-पहाड़-हवा-पानी और मनुष्यता के सवाल इस ग्रह के अस्तित्व से ही जुड़े हैं.
आज उनका जन्म दिन है. ६३ साल के हो गए हैं. उनके सृजनात्मक जीवन के लिए शुभकामनाएं.

लम्बी कविता
तब भी, इस बाहुल्य में                                 
रुस्तम 





तब भी
इस बाहुल्य में
कहीं कोई कमी है ---
जहाँ ‘प्रेम’ ने अपनी परिभाषा बदल ली है,
जहाँ ‘नहीं’ में भी ‘हाँ’ ही आकर बैठ गया है, और
‘नहीं छुअन’ भी अब केवल छुअन, छुअन है,
‘नहीं’ शब्द
टूटता है.
फूल के
(अ)हृदय में
राख उड़ रही है.



* * *
जो कमी है (इस भयंकर प्रेम में भी) उस प्रकाश में है जो अपने भीतर ही एक बिन्दु पर आहत है, अक्षम है.
इसी एक बिन्दु से (वह जो अन्धेरा है) एक बिलख की आवाज़ फूटती है और मेरे कानोँ में सुनायी पड़ती है.
कौन है यह आवाज़ ? क्यों चहुँ ओर भटकती फिरती है ? अपने केंद्र से छिटक गयी (?) हिरणी जो अब केवल कहानियों में मिलती है.
इस आवाज़ की देह छोटी, मुँह विकराल है. इस आवाज़ ही से मुझे जूझना है यह मुझे पता है. अब यही मेरे (कवि) कर्म की स्थली होने जा रही है.
निश्चित ही इस आवाज़ का सम्बन्ध मेरी देह से है. देह वो आँगन नहीं है जहाँ देवगण उतरते हैं और एक झुण्ड में इकट्ठे होकर शून्य का मनन करते हैं.
स्वयं शून्य ही नहीं हैं क्या ये देवगण ? फिर भी वे उतरते हैं यदि उन्हें निश्चय कर बुलाया जाये.
यह निश्चय
देह को रौंदता है.
रौंद दी जाकर भी देह वापिस उठ खड़ी होती है. वह कड़ी है.
कड़ी, यानि बिलख. अश्रु.
ये अश्रु विरह के भी हैं जब देह स्वयं से अलग होती है, और एक अन्य देह से भी.
तब भी, क्या यह न्यायपूर्ण नहीं है ?
उस आवाज़ से जूझना इस प्रश्न से भी जूझना है.
कौन पूछता है यह प्रश्न ? केवल ‘मैं’ नहीं या ‘तुम’ (यह जो ‘मस्तिष्क’ है या ‘दम्भ’, यह जो ‘मानस’ है).
स्वयं देह भी यह प्रश्न पूछती है जब वह हट रही होती है. यह भी न्याय ही है.
तब भी कैसा है यह न्याय ! अश्रुओं से भरा हुआ ! या अश्रुओं से खाली. यह प्रश्न मुझे ही क्यों पूछना था.
मेरे ही हिस्से में आना था यह मनन, देह-विहीन यह तपस्या देह की. क्या मैं भाग्यशाली हूँ कि इस दुःख के लिए केवल मुझे ही चुना गया ?
देवगण मुझ पर प्रसन्न हैं, मैं उनका प्रिय हूँ. वे रातों के मौन में उतरते हैं, मेरे यहाँ आते हैं, अब मेरे दिनों को भी रातों में बदलने के लिए, मुझे इस तीखी रोशनी से बचाने के लिए, मुझे संसार से मुक्त कराने.
देह यह संसार है. प्रेम उसका उद्दात्त रूप है, पर रूप इसी का है, रूप ही बस, इसका प्रत्यक्ष, इसका प्रकटन भर.
मुझे प्रेम से मुक्त होना है, यह तय है.
प्रेम से मुक्ति काव्य से मेरी मुक्ति होगी. यह दुःख है.
काव्य प्रेम ही है. काव्य मोह है, आसक्ति. काव्य आसंग है, यानि यह संसार.




* * *
तो मैं कवि नहीं रहूँगा ! यह सुख भी मुझे लौटा देना होगा ? मेरा हृदय फट रहा है. चिन्तित हैं देवगण. उनके चेहरों पर मेरे लिए करुणा है. यह करुणा अब मेरा भी लक्ष्ण होने जा रही है. मेरा मन दौड़ रहा है दो उल्टी दिशाओं में. मैं बंट गया हूँ. मुझे चीरा जा रहा है स्वचिन्तन की धार से. देखो मैं लथपथ हूँ. यह मेरा ही रक्त है जो बह रहा है. चिन्तित हैं देवगण. चिन्तित हैं और प्रसन्न हैं. मैं भी प्रसन्न हूँ. मैं तपस्या में हूँ. काव्य-चिन्तन कर रहा हूँ. काव्य नहीं, काव्य-चिन्तन ही मुझे मिला है. यही मेरे कर्मों का प्रतिफल है. देह को त्यागने की यही मेरी सज़ा है.
आगे
फिर वही आवाज़ है.



* * *
बार-बार आती है यह आवाज़ – यह बिलख – इस पाठ में, अपनी जगह बनाने या अपनी जगह बताने, इस तरह कि जैसे यह पहले ही से उसकी जगह है, उसका न्यायसंगत स्थान. वैध, जो उसका हक है.
यह आवाज़ काव्य की आवाज़ है चिन्तन के भीतर में, उसे काव्य-चिन्तन बनाते हुए.
काव्य-चिन्तन,
यानि लयपूर्ण सोच,
लयपूर्ण मनन,
या मननपूर्ण लय.
मननपूर्ण सामंजस्य, या आवर्तन क्योंकि वह आखण्ड है, निरन्तर है और इसलिए अभग्न भी है,
अभंग है.
इस तरह यह मात्र ‘होने’ से, ससीम से परे चला जाता है.
‘होने’ से परे जाना उसका देह से परे जाना है. और यही मुझे मिला है.
पर यह दुःख ही है.



* * *
यह दुःख मेरी देह का दुःख है. इन शब्दों में देह मेरी बोल रही है.

यह बोलना (या लिखना) देह का अपने ‘भीतर’ से संवाद है, अपनी ‘हस्ती’ से, अपने ‘मूल’ से जहाँ वह ‘आदि’ है, ‘आद्य’ है और इसलिए ‘अनादि’ भी है.

इस तरह देह भी चिरन्तन है, अध्वन्स्य है. पर यह संसार का चिरन्तन है.

देह मुक्त नहीं है. वह अपनी अमुक्ति में चिरन्तन है. इसीलिए वह दुखी भी है.

इस पाठ में (और अब यही मेरा पाठ रहे होने जा रहा है) मुझे इस अमुक्ति में से निकलना है, वह आँगन बनाना है जिसमें स्वप्न नहीं है. मौन का आँगन, रोशनी और वाचालता से बचा हुआ.

इस पाठ में मुझे उस अन्धेरे बिन्दु को फैलाना है जहाँ से बिलख फूटती है और रोशनी से टकराती है.




* * *

यह पाठ तपस्वी है, संन्यासी है. यह प्रेम से विमुख है, पर विरह से च्युत नहीं है. न ही यह विरह दुःख है. वह दुःख से परे, उससे बड़ी है. उसकी संगिनी भी नहीं है. इस विरह का रूप विराट है, फिर भी वह मनुष्यी है, मनुष्य ही की जनी हुई है.

उसे नाम नहीं दूँगा.

उसे नाम नहीं दूँगा.

मुझे देवगणों का प्रिय बने रहना है.




* * *

आते हैं देवगण. उन्हें देख मैं फफक पड़ा हूँ.

मेरा हृदय फट चुका है, मृत्यु को पा चुका है. तब भी बिलख का अन्धेरा वहाँ बना हुआ है.

नाम नहीं दूँगा.

मैं किस विरह से ग्रसित हूँ ?

नाम नहीं दूँगा. मत कहो कि इसे नाम दूँ, उस विरह को जो अपना नाम छोड़ चुकी है.

उस नाम की जगह एक अन्धेरा बिन्दु है, एक विश्व खुला हुआ.

नाम नहीं दूँगा. मैं कैसे उसे नाम दूँ ? कहाँ से लाऊँ वो औज़ार जो उस सौन्दर्य को उतार लें, उसे खड़ा कर दें ?

यह अलंकर्ण असम्भव है.




* * *

फफक रहे हैं देवगण.

उनकी गालों पर अन्धेरा किर रहा है.

जो स्पर्श्य नहीं है, उसे क्या नाम दूँ ? मेरी उँगलियों के पोरों पर अन्धेरा है.

नाम नहीं दूँगा. मात्र इसमें रहूँगा. स्वयं देवगण मेरे लिए विह्व्ल हैं.

कहाँ से आते हैं ?

कहाँ लौट जाते हैं ?

कौन हैं वे, रोशनी में अन्धेरे के समुद्र ?

नाम नहीं दूँगा. मैं उन्हें नाम नहीं दूँगा. नाम देकर मैं उन्हें अपवित्र नहीं करूँगा, क्योंकि सर्वत्र नाम ही है. नाम जो कि ‘चिन्ह’ है, वह जो ‘पदार्थ’ है. पद जमा अर्थ, जिस तरह वह ‘प्रेम’ में है. ‘प्रेम’ जो कि नाम ही है, एक वाचाल शब्द,

मौन

का

भंजक. नाम नहीं दूँगा. नाम बहुत रोशन है. वह सूर्य है, दिन है. उसमें   

शोर है, खड़खड़ है. नाम नहीं दूँगा. नाम में दर्शन है. दर्शन, यानि ‘दम्भ’. नाम नहीं देने का यह श्रम प्रेम के श्रम से कहीं ज़्यादा मुश्किल है. मुझे इस पाठ को नाम से बचाना है. इसलिए मैं इसे उस शब्द की तरह पढूँगा जो कि अभी नहीं है.

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(
१९९७ में लिखी गयी यह कविता “रुस्तम की कविताएँ” नामक संग्रह में है जो २००३ में वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, से छपा था.)



कवि और दार्शनिक रुस्तम सिंह (जन्म : ३०  अक्तूबर 1955) "रुस्तम" नाम से कविताएँ लिखते हैं. अब तक उनके पांच कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं. सबसे बाद वाला संग्रह "मेरी आत्मा काँपती है" सूर्य प्रकाशन मन्दिरबीकानेरसे २०१५ में छपा था. एक अन्य संग्रह "रुस्तम की कविताएँ"वाणी प्रकाशननयी दिल्ली,से २००३ में छपा था. "तेजी और रुस्तम की कविताएँ"नामक एक ही पुस्तक में तेजी ग्रोवर और रुस्तम दोनों के अलग-अलग संग्रह थे. यह पुस्तक हार्पर कॉलिंस इंडिया से २००९ में प्रकाशित हुई थी. अंग्रेज़ी में भी रुस्तम की तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. उनकी कवितायेँ अंग्रेज़ीतेलुगुमराठीमलयालीस्वीडी,नॉर्वीजीएस्टोनि तथा फ्रांसीसी भाषाओँ में अनूदित हुई हैं. किशोरों के लिए ‘पेड़ नीला था और अन्य कविताएँ'  एकलव्य प्रकाशन से २०१६ में प्रकाशित हुई हैं.
उन्होंने नॉर्वे के विख्यात कवियों उलाव हाऊगे तथा लार्श आमुन्द वोगे की कविताओं का हिन्दी में अनुवाद किया है. ये पुस्तकें "सात हवाएँ" तथा "शब्द के पीछे छाया है" शीर्षकों से वाणी प्रकाशन,दिल्लीसे प्रकाशित हुईं.
वे भारतीय उच्च अध्ययन संस्थानशिमलातथा विकासशील समाज अध्ययन केंद्रदिल्लीमें फ़ेलो रहे हैं. वे "इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली", मुंबईके सह-संपादक तथा श्री अशोक वाजपेयी के साथ महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालयवर्धाकी अंग्रेजी पत्रिका "हिन्दी : लैंग्वेजडिस्कोर्स,राइटिंग" के संस्थापक संपादक रहे हैं. वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालयनयी दिल्लीमें विजिटिंग फ़ेलो भी रहे हैं.
ईमेल : rustamsingh1@gmail.com  
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  1. वाह... बहुत खूब....रुस्तम जी जन्म दिन और कविता के लिए बहुत मुबारक

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