हिंदी–दिवस की शुभकामनाएं.
हिंदी को जन की आकांक्षाओं, उम्मीदों और अनुभवों की संवाहिका बनने के साथ ही,
तकनीकी रूप सक्षम भी बनना है.
इस अवसर पर समालोचन विगत वर्षों से हिंदी-भाषा की व्यावहारिक समस्याओं पर आलेख
प्रकाशित करता रहा है.
कार्यालयों में राज-भाषा अधिकारी की चुनौतियों पर यह आलेख राहुल राजेश ने
तैयार किया है. कवि–लेखक के साथ वे राज-भाषा अधिकारी भी हैं.
भाषा और राजभाषा अधिकारी
राहुल राजेश
राहुल राजेश
राजभाषा अधिकारी
यदि हम अबतक यह नहीं जान पाए कि हम क्या हैं यानी हम
राजभाषा अधिकारी क्यों बने हैं तो हमारा राजभाषा अधिकारी बनना और राजभाषा अधिकारी
होना व्यर्थ है! मैं यहाँ राजभाषा अधिकारी ‘बनने’ से कहीं बहुत
अधिक जोर राजभाषा अधिकारी ‘होने’ पर दे रहा हूँ. कहने का
सीधा आशय यह है कि आप राजभाषा अधिकारी बन गए हैं, अब राजभाषा अधिकारी होइए!
यदि आपका ‘ट्रांसफॉर्मेशन’
या कहें कि ‘मेटामॉर्फोसिस’ यानी कायांतरण
राजभाषा अधिकारी बनने से राजभाषा अधिकारी होने में नहीं हो पाया, यानी ‘from seen as a Rajbhasha Officer’ से ‘Being
a Rajbhasha Officer’ में आप खुद को कायांतरित (ट्रांसफॉर्म) नहीं कर पाए तो जान लीजिए कि आप
इस काम के लिए नहीं बने हैं! बेहतर होता कि आप कहीं थानेदार या दरोगा बन जाते!
हम राजभाषा अधिकारी नहीं, दरअसल भाषा के सेवक हैं!
भाषा-सेवक हैं! जब तक हम खुद को राजभाषा अधिकारी कहते रहेंगे, हम इस पद के
अधिकारी नहीं होंगे! इस पद की गरिमा के अधिकारी नहीं हो पाएँगे! और जब हम खुद इस
पद की गरिमा के अधिकारी नहीं हो पाएँगे तो हम औरों को इस पद की गरिमा का एहसास
कैसे करा पाएँगे?
तो यह साफ-साफ समझ लीजिए कि आँकड़े तैयार करना, आँकड़े भरना और
आँकड़े भेजना हमारा असली काम नहीं है! आप आँकड़ों से खेल सकते हैं, लेकिन भाषा से
नहीं! आप भाषा से खेलेंगे तो भाषा आपको नंगा कर देगी! लेकिन सच्चाई यही है कि हम
अब तक भाषा से खेलते आए हैं और इसलिए हम हर बार नंगा होते आए हैं!
भाषा का सेवक
हमारा असली काम है - भाषा को संवारना. भाषा को संभालना.
भाषा को गिरने से बचाना. भाषा को लड़खड़ाने से बचाना. भाषा के लिए नई जमीन तैयार
करना. भाषा की जमीन में उग आए खर-पतवार को हटाना. भाषा के अन्न में मिल आए
कंकर-पत्थर को बीनना! पर हम हकीकत में क्या करते हैं? हम आँकड़ों को
संजाते-संवारते रहते हैं! हम आँकड़ों को संभालते रहते हैं! हम आँकड़ों को गिरने से
बचाते रहते हैं! हम आँकड़ों में घुस आए खर-पतवार छांटते रहते हैं!
ऐसा करने से आँकड़े मांगने वाले भले हमें माफ कर दें, भाषा हमें माफ
नहीं करेगी! ऐसा करने से भले आपके बॉस खुश हो जाएँ, भाषा कतई खुश नहीं होगी!
ऐसा करने से भले राजभाषा अधिकारी को धड़ाधड़ ‘प्रोमोशन’ मिल जाए, पर यकीन मानिए, भाषा-सेवक का ‘डिमोशन’ ही होगा! क्योंकि
आँकड़ों की ‘कॉस्मेटिक सर्जरी’ से भाषा का कोई भला नहीं
हो रहा है!
विज्ञान की भाषा में कहें तो हम दीवार पर बल (फोर्स) तो लगा
रहे हैं पर हम एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं! तो असल में भाषा की जमीन पर कोई
कार्य ही निष्पादित नहीं हो रहा है क्योंकि ‘वर्क डन इज इक्वल टू
फोर्स अप्लाईड इंटू डिस्टेंस’!
जरा गौर कीजिए! इतनी चाक-चौबंद व्यवस्था और इतना ‘रोबस्ट सिस्टम’ होने के बावजूद
किसी भी ‘पॉलिसी इम्प्लीमेंटेशन’ में इतना लोचा है तो
हमारे ‘ऑफिसियल लैंग्वेज इम्प्लीमेंटेशन’ में कितना लोचा
होगा! संबंधित ‘ऑथरिटी’ के इतने कड़े रूख, इतने कड़े तेवर, इतने कड़े निर्देश, इतनी कड़ी
निगरानी के बावजूद, ‘पॉलिसी इम्प्लीमेंटेशन’ के तत्काल ‘डिजायर्ड
इफेक्ट्स अचीव’ नहीं हो पाते तो ‘ऑफिसियल लैंग्वेज
इंम्प्लीमेंटेशन पॉलिसी’ तो प्रेरणा और प्रोत्साहन पर आधारित है! हम
चाहकर भी एक झटके में शून्य से शतांक तक नहीं पहुँच सकते.
विशेषज्ञता
यह जान लीजिए कि आँकड़े जुटाना, भरना, भेजना महज ऊपरी
काम है! जिसे कोई भी कर सकता है. इसमें राजभाषा अधिकारी की विशेषज्ञता कहाँ है? हमारा असली और अंदरूनी काम है- भाषा का
इस्तेमाल बढ़ाना! पर यह बात किसी से नहीं छिपी है कि आँकड़ों के बढ़ने से भाषा का
इस्तेमाल नहीं बढ़ता! आँकड़ों से भाषा का कभी भला नहीं होता! भाषा के इस्तेमाल से
भाषा का भला होता है! और आँकड़े भाषा का इस्तेमाल नहीं करते! लोग करते हैं भाषा का
इस्तेमाल! पर लाख दावे और छलावे के बावजूद, आँकड़ों के बहुत करीब
पहुँच कर भी हम लोगों से बहुत दूर हैं!
प्रवीणता प्राप्त और कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त कर्मचारियों
की संख्या मात्र बढ़ा देने से भाषा का इस्तेमाल नहीं बढ़ जाता! पर हम यही मानते
हैं! और जब असल में इस्तेमाल नहीं बढ़ पाता है तो हम आँकड़े बढ़ा देते हैं! दरअसल
हम लोगों के पास आँकड़े मांगने जाते हैं, भाषा का इस्तेमाल बढ़ाने
नहीं जाते हैं! इसलिए लोग भी हमें ‘डाटा एंट्री ऑपरेटर’ से अधिक कुछ नहीं
समझते! या कहें, हम भी खुद को ‘डाटा एंट्री ऑपरेटर’ ही समझ बैठे हैं!
वरना एक भाषा का सेवक, भाषा का किसान किसी के पास जाए और वह खाली हाथ
लौट आए, ऐसा हो ही नहीं सकता!
राजभाषा अधिकारी
दरअसल राजभाषा नहीं, भाषा अधिकारी होता है. वह ‘ऑफिसियल लैंग्वेज
ऑफिसर’ नहीं, दरअसल ‘लैंग्वेज ऑफिसर’ होता है. वह ‘ट्रांसलेशन ऑफिसर’ होता है. एक
राजभाषा अधिकारी दरअसल भाषाकर्मी होता है. जैसे बैंकिंग क्षेत्र में काम करने वाला
कोई भी व्यक्ति सबसे पहले ‘बैंकर’ होता है. जैसे ‘नॉलेज
इंस्टीट्यूटशंस’ कहे जाने वाले तमाम संस्थानों के बाकी लोग ‘नॉलेज
ऑन्ट्रेप्रेन्योर्स’ हैं, ठीक वैसे ही, हम राजभाषा अधिकारी ‘लैंग्वेज
ऑन्ट्रेप्रेन्योर्स’ हैं! इसलिए हमें भाषा का उद्यमी होना है, आँकड़ों का नहीं!
हमें भाषा का अध्यवसायी बनना है, आँकड़ों का नहीं! हमें अनुवाद का अनुगामी बनना
है, आँकड़ों का नहीं! हमें भाषा का अभ्यासी बनना है, आँकड़ों का नहीं!
पर अफसोस कि आँकड़ों में लगातार लोटते-पोटते, हम ‘आउटपुट-ओरिएंटेड
ऑफिसर’ बन गए हैं! जबकि प्रचलित धारणा के उलट, हमको ‘इनपुट-ओरिएंटेड
ऑफिसर’ बनना है! हम अबतक ‘मैक्रो लेवल’ पर काम करते आए
हैं, जबकि असल में हमें ‘माइक्रो लेवल’ पर काम करना है!
खोजी बनाम खबरी
आँकड़ों के फेर में हम भाषा में अन्वेषी बनना भूल गए हैं.
दरअसल हम आँकड़े बढ़ाने-घटाने के चक्कर में खोजी होने के बजाय, खबरी बन गए हैं!
चाहे सेमिनार हो या सम्मेलन, कोई कार्यशाला हो या कोई बैठक- हम ले-देकर बस आँकड़ों में ही लटपटाए रहते हैं!
राजभाषा सेमिनारों, सम्मेलनों आदि में भी पढ़े जाने वाले पर्चे भी, भाषा और अनुवाद
को छोड़कर, अन्य तमाम मुद्दों पर केन्द्रित होते हैं और उन्ही ‘विषयेतर’ मुद्दों पर
आह-वाह करने की अब तो स्थापित परंपरा भी बन चुकी है! हिंदी को प्रोत्साहन और हिंदी
दिवस मनाने के नाम पर हम सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश करने-कराने वाले सांस्कृतिक
कर्मी में तब्दील हो जाने को तत्पर होते हैं पर शायद ही हम आपस में कभी भाषा पर, अनुवाद पर, किसी नए अंग्रेजी
शब्द के सही, सटीक पर्याय पर गंभीरता से, शिद्दत से बात करते हैं!
शब्दावली-निर्माण आदि को केंद्र में रखकर किए गए हमारे इक्के-दुक्के प्रयास भी
दरअसल खानापूर्ति जैसी औपचारिक और ठस्स मशक्कत ही होते हैं, जिसमें भाषा के
जज्बे से कम ही काम लिया जाता है!
ऐसे में न तो अल्प-प्रचलित हिन्दी पर्यायों को और माँजने, इस्तेमाल में
लाने की कहीं कोई सच्ची कोशिश दिखती है और न ही कहीं कार्यालयीन कामकाज में
प्रयुक्त हो रही हिन्दी और दैनंदिन अनुवाद को और अधिक सहज-सरल बनाने की सतत कोशिश
दिखती है! हम कभी किसी शब्द या अनुवाद को लेकर कभी चर्चा-परिचर्चा नहीं करते जबकि
भाषा और अनुवाद ऐसी अंतःक्रियाएँ हैं जो चौबीसों घंटे हमें अपने आप में डुबोए रखती
है. पर हम भाषा की नदी और अनुवाद के समंदर में कभी तबीयत से छलांग ही नहीं लगाते!
भाषा का भ्रष्टाचार
हम भाषा के सेवक हैं. इसलिए हमारा दायित्व भाषा को भ्रष्ट
होने से बचाना भी है. एकदम शुद्धतावादी होने से बचते हुए और भाषायी विवेक का सचेत
इस्तेमाल करते हुए, हमें भाषा को न तो एकदम संस्कृतनिष्ठ ही बनने
देना है और न ही भाषा को एकदम दरिद्र बना देना है! जैसे मौद्रिक नीति के अंतर्गत
नीतिगत ब्याज दर तय करने में हम पीएलआर, बीपीएलआर, बेस रेट से आगे
बढ़ते हुए, आज एलएएफ यानी ‘लिक्विडिटी एडजस्टमेंट फैसिलिटी’ तक चले आए हैं, ठीक वैसे ही, हमारी राजभाषा
हिंदी भी संस्कृतनिष्ठ से बहुत आगे बढ़ते हुए, ‘मॉडर्न’ और ‘मार्केट-फ्रेंडली’ हो गई है. लेकिन
जैसे हम ‘कॉल मनी मार्केट’ के ‘रेट कॉरिडोर’ को चौड़ा (वाइड)
नहीं, संकरा (नैरो) ही रखते हैं ताकि नीतिगत दर ‘निर्धारित’ करने का ‘उद्देश्य’ ही हमारे हाथ से
न निकल जाए, ठीक वैसे ही हम हिंदी में अंग्रेजी की मिलावट के ‘कॉरिडोर’ को भी एकदम ढीला
नहीं छोड़ सकते, नहीं तो हमारी भाषा ही हमारे हाथ से निकल जाएगी! तब यह भले
बहुत कुछ और हो जाए, हिंदी तो जरा भी नहीं रह जाएगी!
संस्कृतनिष्ठ बनाम सहज-सरल पर्याय के इस मामले को इस उदाहरण से भी समझिए. बॉलीवुड की
हिंदी फिल्मों में 'लव-ट्राइंग्ल' का खूब इस्तेमाल होता है!
अंग्रेजी के इस 'लव ट्राइंग्ल' के लिए हिंदी में 'प्रेम-त्रिकोण' कहा जाता है!
लेकिन इसमें 'प्रेम' और 'त्रिकोण' - दोनों शब्द ही
घनघोर संस्कृतनिष्ठ हैं! कइयों को तो इन्हें बोलने में तो कइयों को इन्हें समझने
में भी घनघोर कठिनाई होती होगी! तो इस संस्कृतनिष्ठ 'प्रेम-त्रिकोण' को सरल-सहज करते
हुए क्यों न 'प्यार-तिकोना' कर दिया जाए? लेकिन क्या इसमें वही बात, वही स्वाद है, जो उस
संस्कृतनिष्ठ 'प्रेम-त्रिकोण' में है?? और सबसे मजेदार सवाल तो
यह कि इतना संस्कृतनिष्ठ होने के बावजूद यह हिंदी पर्याय इतना प्रचलित और स्वीकृत कैसे हो गया?? यानी समस्या
संस्कृतनिष्ठ होने में नहीं है, इनके इस्तेमाल के प्रति निर्रथक दुराग्रह और
दुष्प्रचार में है!!
अनवरत
अक्सर संस्कृतनिष्ट हिन्दी और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी पर्याय
के निराधार आरोप की आड़ में लोग हिन्दी में सीधे-सीधे अंग्रेजी शब्दों को ही
स्वीकार कर लेने और इस्तेमाल में ले आने की पुरजोर वकालत करने लगते हैं. और यह
वकालत दबाव और दबदबे की हद तक पहुँच जाती है. ऐसे में राजभाषा अधिकारियों के लिए
अपने घुटने टेक देना सबसे आसान रास्ता होता है. लेकिन इससे भाषा का सीधा-सीधा
नुकसान तो होता ही है, उस गलत धारणा को भी बल मिल जाता है, जिस गलत धारणा के
बल पर हिन्दी पर्यायों की जगह सीधे-सीधे अंग्रेजी शब्दों को आसानी से जगह मिल जाती
है!
इसलिए इस प्रतिकूल रवैये से पार पाने का एक ही उपाय है कि
हम सीधे-सीधे अंग्रेजी शब्दों को इस्तेमाल में लेने और लाने का भरसक विरोध करें और
उन शब्दों के लिए हिन्दी में उपलब्ध सटीक और समर्थ हिन्दी पर्यायों को सामने रखने
और उनको इस्तेमाल में लाने का दृढ़तापूर्वक प्रयास करें. इसके लिए हम लोगों से खुलकर
चर्चा करें, अन्य भाषाओं से उदाहरण लेकर उन्हें समझाने-बुझाने की कोशिश
करें. उन हिन्दी पर्यायों का उदाहरण दें जो शुरू में अटपटे लगते थे लेकिन इस्तेमाल
में आने के बाद, धीरे-धीरे सहज और अपने लगने लगे. प्रबंधन, प्रसंस्करण, आरक्षण, ई-बटुआ, ई-भुगतान, समय-सारणी, जैव-विविधता, पर्यावरण-हितैषी
आदि-आदि जैसे सैकड़ों शब्द शुरू में लोगों को शायद थोड़े असहज लगे होंगे, लेकिन अब वे
प्रचलित होते-होते मानक और सहज हो गए हैं! इसलिए यदि आप सचमुच भाषा के सेवक हैं तो
भाषा के हक में बिना भरदम कोशिश किए, कभी हार न मानें.
देशज
मुंबई में आप यदि सड़क मार्ग से शहर में या शहर के इर्दगिर्द
यात्रा कर रहे हों तो जरा गौर करें कि अंग्रेजी में लिखे यातायात-निर्देशों को
मराठी में कितनी सहजता से व्यक्त किया गया है! मैं अपनी बात कुछेक उदाहरण की
मदद से स्पष्ट करता हूँ. अंग्रेजी शब्द ‘Flyover’ के लिए मराठी में ‘उड्डानपुल’ लिखा गया है. फिर हम
हिन्दी में सीधे-सीधे अंग्रेजी शब्द ‘फ़्लाइओवर’ ही क्यों लिख
देना चाहते हैं? क्या हम इसके बदले हिन्दी में भी ‘उड्डानपुल’ नहीं लिख सकते? इसी तरह अंग्रेजी
शब्दों ‘Free Way’ और ‘Underpass’ के लिए मराठी में क्रमशः ‘मुक्त मार्ग’ और भुसारी मार्ग’ शब्द प्रयोग किए गए हैं, जो बिलकुल
साफ-साफ समझ में आते हैं. लेकिन हम हिन्दी में सीधे-सीधे ‘फ्री वे’ और ‘अंडरपास’ ही लिख देना
चाहते हैं! क्या हम हिन्दी में भी क्रमशः ‘मुक्त मार्ग’ और ‘भुयारी मार्ग’ शब्द प्रयोग नहीं कर सकते? क्या हम इन्हें
हिन्दी में धड़ल्ले से इस्तेमाल कर प्रचलित नहीं बना सकते?
पर लोगों को तुरंत आपत्ति हो जाएगी कि ये तो अटपटा है! भाई, ये शब्द न तो
मराठियों के लिए अटपटे हैं न हिंदीभाषियों के लिए. मैं पूछता हूँ, जब आप सीधे-सीधे
अंग्रेजी शब्दों को स्वीकार कर लेने को उतावले हैं तो आपको प्रांतीय भाषाओं के
इतने सहज-सुंदर पर्यायों को अपनाने में दिक्कत क्यों हो रही है? मुझे तो ‘Underpass’ के लिए यह ‘भुयारी मार्ग’ बहुत प्यारा पर्याय लग रहा है! मराठी में ‘Accident Prone Zone’ को ‘अपघात प्रवण क्षेत्र’ कहा जाता है. मुझे
तो यह ‘दुर्घटना संभावित क्षेत्र’ से कहीं अधिक सहज-सरल
पर्याय लग रहा है और इसका प्रयोग करने में भी किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए!
अभी हाल में कोलकाता के एक चिकित्सा जाँचघर में ‘X-Ray’ को हिन्दी में ‘क्ष-किरण’ लिखा हुआ देखा तो मुझे
बहुत खुशी हुई. हम ‘X-Ray’ को हिन्दी में भी ‘एक्स-रे’ ही लिखते आ रहे
हैं. पर देखिए, ‘क्ष-किरण’ के रूप में यहाँ इसका कितना सही, सटीक और
संप्रेषणीय पर्याय इस्तेमाल किया जा रहा है!
इसलिए भाषा में नए शब्दों की आवाजाही सिर्फ एक ही भाषा
(अंग्रेजी) तक सीमित न रह जाए, यह भी हम भाषा के सेवकों को देखना होगा.
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राहुल
राजेश, बी-37, आरबीआई स्टाफ क्वाटर्स, डोवर लेन, गड़ियाहाट, कोलकाता-700029.
मो.:
09429608159
ई-मेल: rahulrajesh2006@gmail.com
भुसारी नहीं भुयारी मार्ग।
जवाब देंहटाएंहाँ, भुयारी सही है। इस चूक की ओर तत्काल ध्यान दिलाने का बहुत बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंराहुल राजेश।
1. सरकारी दफ्तरों में हिंदी मौलिकता और सर्जना की भाषा नहीं है। वहां की अंग्रेजी भी कोई ललित-ललाम नहीं है।
जवाब देंहटाएं2. इन जगहों पर तैनात कार्मिक देश की भाषाई विविधता में पले-बढ़े लोग होते हैं जो हिंदी में लाख प्रशिक्षण के बावजूद सहज नहीं हैं - इसे समझना होगा। लेकिन, फिर भी उनके यथासाध्य हिंदी अपनाने के रुझानों से भी इनकार नहीं किया जा सकता है।
3. अखिल भारतीय सेवाओं वाली नौकरियों में भर्ती होने वाले अधिकारी-कर्मचारी, आप जानते हैं कि अंग्रेजी में पढ़-लिखकर और ज्यादातर अंग्रेजी माध्यम से इम्तिहान पास करके आते हैं। उनकी हिंदी भर्ती के बाद सुधारी जाती है। फिर, आगे की कहानी आप खुद समझ लीजिए। यहां तक की हिंदी प्रदेशों के कार्मिक भी इन अखिल भारतीय नौकरियों में पहुंचकर हिंदी को बहुत कठिन कहने लगते हैं। यह सिर्फ़ उनकी कुलीनता भी नहीं है बल्कि नजदीक से चीजों को ठीक से समझने का दबाव भी है।
4. तकनीकी प्रकार का कामकाज होता है। बहुत कुछ उसमें दुनिया से प्राप्त विशेषीकृत ज्ञान का अनुप्रयुक्त होता है। डिजिटल प्रौद्योगिकी में अंग्रेजी है, भूमंडलीकरण के कारण अंग्रेजी है। अंग्रेजी का तथाकथित रसूख़ तो अलग से है ही। इसलिए सारा कुछ हिंदी में समानांतर तौर पर प्रतिपादित करना लगभग असंभव है। अच्छा, कुछ विषय सरकारी ऐसे भी हैं जो आम आदमी के लिए नहीं भी होते हैं। उसकी हिंदी लिख भी दी जाए तो उसे समझने के लिए विषय-विशेषज्ञ होना होगा। या फिर एमबीए, एम.फिल. करना पड़ेगा। तंत्र की तंत्रिका में एक अबूझ सांध्य भाषा का ही वास होता है। मैंने वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ की अंग्रेजी देखी है। उसे भी देखकर एक औसत अंग्रेजीदां के दांत खट्टे हो जाते हैं।
5. जहां तक आंकड़ों की बात है, यह हिंदी के प्रयोग की स्थिति जांचने की प्रक्रिया का ही एक हिस्सा है। किसी भी नीति या योजना के कार्यान्वयन के लिए कहा जाता है कि - you can't monitor it unless you measure it. राजभाषा अधिकारी को इसे करने में बहुत पीड़ा होती है लेकिन इसी आंकड़े से व्यवस्था पर दबाव भी बनता है। संसदीय राजभाषा समिति अपने निरीक्षणों में इन्हीं आंकड़ों का सत्यापन करती है और झोल पाए जाने पर बहुत जोर से झल्लाती है।
...तो कुल मिलाकर का कथा यही है कि आत्मा की वेदना-संवेदना-सीरियल-सिनेमा-गीत-ग़ज़ल को बयां करने में हिंदी का कोई सानी नहीं, क्योंकि वे राजभाषा में तामीर नहीं होते। भाषा न तो सरकारी कार्यालय में बनती है और न ही हिंदी विभागों में, बल्कि वो तो पकती है जनमन की सीझती आंच में। यह हस्र हिंदी ही क्यों, सभी भारतीय भाषाओं का होता जा रहा है।
बहुत बहुत आभार सुशील सर। आपने इस आलेख को निचोड़ कर रख दिया है। आपकी बहुमूल्य टिप्पणी से राजभाषा और हम राजभाषा अधिकारियों की स्थिति एवं भूमिका और अधिक स्पष्ट हो गई है। समालोचन पर बहुत दिनों बाद आपकी उपस्थिति देखकर भी बहुत अच्छा लगा। सादर,
जवाब देंहटाएंराहुल राजेश।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (15-09-2018) को "हिंदी पर अभिमान कीजिए" (चर्चा अंक-3095) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हिन्दी दिवस की शुभकामनाओं के साथ...।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
राजेश हिंदी दिवस के अवसर पर एक अच्छे और सुविचारित लेख के लिए बधाई। मैं अपने पूरे कैरियर में इसी काम से जुड़े रह कर काम करता रहा हूं और आगे पीछे लेखन के जरिए हिंदी और अनुवाद से जुड़ा रहा हूं। तुमने कई ऐसे सवालों की तरफ ध्यान दिलाया है मसलन आंकड़े इकट्ठा करना या भाषा सेवक के रूप में काम करना। मैं पूरी जिंदगी इन नाजुक सवालों से जूझता रहा हूं और सारी ईमानदार कोशिशों के बावजूद न तो अपने काम को निष्ठापूर्वक पूरा कर पाया और न ही आंकड़ों के झूठे प्रपंच के खिलाफ अकेले के बलबूते पर कुछ ठोस काम कर ही पाया। जहां तक राजभाषा को आम बोलचाल की भाषा जैसी सरल बनाने के लिए मैं जरूर कोशिशें करता रहा और खासा बदनाम भी हुआ। मेरे किये गये अनुवाद की हमेशा आलोचना की जाती रही कि ये आम बोलचाल में क्यों है। भटक रहा हूं लेकिन तुमने जो सवाल उठाये हैं उन पर सभी राजभाषा अधिकारियों को ध्यान देने की जरूरत है। एक बात और राजभाषा का जितना अहित सरकार की राजभाषा नीति ने किया है उतना किसी और ने नहीं। हमारी अच्छी खासी समृद्ध भाषा को आंकड़ेबाजी के मक्कड़जाल में फंसा दिया है और राजभाषा अधिकारी मात्र जमूरा बन कर बरसों से ये नकली खेल दिखा कर तालियां बटोर रहा है।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार सूरज प्रकाश सर। आप इस पेशे से शिद्दत से जुड़े रहे और इसमें भरसक बेहतरी की ईमानदार कोशिशें करते रहे। आपकी इस प्रतिक्रिया से ईमानदारी, निष्ठा और जज्बे से इस भाषा कर्म में लगे हम सभी भाषा-सेवकों को बहुत बल मिलेगा। आपके सुदीर्घ अनुभव से पगी आपकी इस बहुमूल्य टिप्पणी से यह भी स्पष्ट है कि मेरे इस आलेख के मर्म को आपने अपने अंतरतम से समझा और सराहा है। पुनः बहुत बहुत आभार।
जवाब देंहटाएं- राहुल राजेश।
यह आलेख एक राजभाषा अधिकारी की वाजिब चिंता है जो कार्यालय में राजभाषा की वास्तविक स्थिति को दर्शाता है, साथ ही राजभाषा अधिकारी के पद पर कार्यरत राजभाषा अधिकारियों को भी कठघरे में खड़ा करता है। आंकड़े के खेल में राजभाषा हिन्दी का विस्तृत रूप से आकलन करते हुए वस्तुस्थिति को उजागर करता यह लेख निश्चित तौर पर सरकारी कार्यालयों और विभिन्न उपक्रमों में राजभाषा हिन्दी के बारे में सोचने को बाध्य करता है। केवल खानापूर्ति के तर्ज पर ड्यूटी निभा देने से राजभाषा अधिकारी का दायित्व पूरा हो जाता है,यह एक सवाल है जिसका उत्तर स्वयं इस पद पर काम कर रहे अधिकारियों को देना है। बहुतों को यह नागवार भी लग सकता है। राजभाषा हिंदी को सजाने संवारने उसमें सहजता और उसके प्रयोग के प्रति लोगों को जोड़ा जाए,इस दिशा में एक अधिकारी के रूप में हम क्या कर रहे हैं,यह सवाल स्वयं लेखक भी अपने आप से करता है जो राजभाषा अधिकारी भी है। केवल आंकड़ेबाजी से राजभाषा हिंदी का विकास नहीं हो सकता। प्रोन्नति और सीमित सोच के चलते क्या एक अधिकारी के रूप में हम अपना उत्तरदायित्व ठीक ठीक निभा रहे हैं लेखक ने यह सवाल भी उठाया है, जाहिर है यह सवाल बहुतेरे राजभाषा अधिकारियों को असहज तो कर ही देगा। बावजूद इसके उन्हें इससे रूबरू होना चाहिए।
जवाब देंहटाएंभारत सरकार एक बड़ी धनराशि राजभाषा हिंदी के लिए खर्च करती है क्या इससे राजभाषा हिंदी का अपेक्षित विकास हो रहा है। उत्तर है, नहीं। राजभाषा हिंदी की विभिन्न परीक्षाओं को पास कर प्रमाणपत्र और पुरस्कार पाने वाले कितने कर्मचारी इस कार्यसाधक ज्ञान का कार्यालय के काम में प्रयोग करते हैं इस पर कभी विचार किया गया है। नहीं,तो राजभाषा हिंदी का प्रयोग कैसे बढ़ेगा? जब तक एच ओ डी /विभागीय प्रमुख को इसके लिए जिम्मेदार नहीं बनाया जाएगा तब तक बात बनती नजर नहीं आती। हिंदी सप्ताह, हिंदी पखवाड़ा, हिंदी माह के रूप में केवल बाध्यता मूलक सांस्कृतिक अनुष्ठान मना लेने भर से राजभाषा हिंदी का विकास और प्रयोग बढ़ेगा,ऐसा बिल्कुल नहीं है।
राहुल राजेश ने जिस स्पष्ट वादिता के साथ बहुतों की नाराज़गी काखतरा मोल लेते हुए यह आलेख लिखा है,इसके लिए बधाई के पात्र हैं।
बहुत बहुत आभार जितेंद्र धीर जी। आपकी यह सुदीर्घ टिप्पणी मेरे इस आलेख की नीर-क्षीर विवेचना के साथ-साथ राजभाषा और राजभाषा अधिकारियों की भूमिका की भी बहुत निष्पक्ष किंतु मार्गदर्शी पड़ताल है। पुनः बहुत-बहुत आभार।
जवाब देंहटाएंएक तो राजभाषा अधिकारी अपने काम के प्रति न तो स्वतः प्रेरित है न उन्हें सिस्टम ईमानदार रहने दे रही है। ऐसे में भाषा अधिकारी वे कहां हो पाएंगे। अधिकांश राजभाषा अधिकारी अपने कैरियर में इस से बेहतर कुछ नहीं पाने के बाद यहां पहुंचते हैं और इस कुंठा में जीवन भर भाषा को मारते रहते हैं।
जवाब देंहटाएंमराठी बांग्ला ओड़िया आदि भाषाओं से काफी शब्द आयात कर हिंदी को समृद्ध किया जा सकता है लेकिन वह कार्य नहीं हो रहा है। कारण अंग्रेज़ी से मोह, हिंदी का अति सरलीकरण दोनों है।
बहुत दिनों के बाद सरकारी काम-काज की भाषा पर एक सुविचारित लेख पढ़ा . वरना हिंदी के औसत विद्वान तो इसका नाम आते ही ऐसा बचते हैं जैसे यह कोई वर्जित या निषिद्ध इलाका हो .
जवाब देंहटाएंराज थोड़ा कम हो, और भाषा-प्रयोग थोड़ा ज्यादा तो बहुत-सी बातें ठीक-ठिकाने आ जाएं . आंकड़ों का उलझाव थोड़ा कम हो और प्रयोग की सहज उत्कण्ठा कुछ अधिक तो यह कठिन,बल्कि कई बार असम्भव-सा दिखाई देने वाला काम सुगम-संभव हो . इसलिए पदनाम भाषा अधिकारी या प्रबंधक (भाषा) निस्संदेह ज्यादा संगत होगा . केदार जी की कहन का सहारा लें तो कह सकते हैं :
मेरा अनुरोध है —
भरे चौराहे पर करबद्ध अनुरोध —
कि राज नहीं — भाषा
भाषा — भाषा — सिर्फ़ भाषा रहने दो
मेरी भाषा को ।
इसमें भरा है
पास-पड़ोस और दूर-दराज़ की
इतनी आवाजों का बूंद-बूंद अर्क
कि मैं जब भी इसे बोलता हूं
तो कहीं गहरे
अरबी तुर्की बांग्ला तेलुगु
यहां तक कि एक पत्ती के
हिलने की आवाज भी
सब बोलता हूं जरा-जरा
जब बोलता हूं हिंदी ।"
तय तो यही हुआ था कि हिंदी को भारत की सामासिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करना है . सिर्फ कार्यालयों में ही नहीं, बाहर बृहत्तर समाज में भी .
बहुत बहुत आभार अरुण जी और प्रियंकर जी। आपकी टिप्पणियों से इस आलेख को एक विमर्शमूलक विस्तार मिला है।
जवाब देंहटाएं- राहुल राजेश।
अव्वल तो मैं राहुल राजेश सर को इस सुविचारित आलेख के लिए हार्दिक बधाई देता हूँ। दरअसल भाषाकर्मी और डाटा एंट्री ऑपरेटर की भूमिकाओं के बीच झूलते रहने का दंश झेलना राजभाषा अधिकारियों की नियति बन चुक है। जो है और जो होना चाहिए के फ़र्क को आपने बखूबी चिन्हित कर एक सचेत राजभाषा अधिकारी के दायित्व को निभाया है। अधिकांश राजभाषा अधिकारी आंकड़ा अधिकारी के रूप में अपनी भूमिका ज्यादा सहज, सुविधाजनक और प्रोफेशनल रूप से लाभकारी पाते हैं। ये और बात है कि ऐसा करते करते अंततः उनके अंदर का भाषाकर्मी समय से बहुत पहले ही रिटायर हो जाता है।
जवाब देंहटाएंमेरे इस आलेख पर इतनी सटीक और महत्वपूर्ण टिप्पणी देने का बहुत बहुत आभार डॉ. घनश्याम शर्मा जी। आपकी टिप्पणी ने मेरे आलेख के सार और मर्म को एक बार फिर उद्घाटित और रेखांकित कर दिया है। आपने सही कहा है कि जो मन-मिजाज से वाकई भाषा-कर्मी और भाषा-सेवक होते हैं, वे ताउम्र रिटायर नहीं होते। आपने भाषा अधिकारी और आंकड़ा अधिकारी के बीच के बारीक किंतु महती फर्क को समझने की आवश्यकता की भी शिनाख्त की, यह जानकर भी बहुत तसल्ली हुई कि इस आलेख में मैंने जिन चिंताओं की तरफ इशारा किया है, वे बेजा और निराधार नहीं हैं। आलेख पढ़कर कुछ लोगों ने फोन पर भी विस्तृत मंतव्य दिया है, जिससे इन चिंताओं की गंभीरता का पता चलता है और यह भी कि यह भाषा कर्म रस्म अदायगी भर बिल्कुल नहीं है!
जवाब देंहटाएंआपको पुनः बहुत बहुत धन्यवाद।
- राहुल राजेश।
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