निज घर : अभी मेरे लिए एक कविता लिखो : फराज बेरकदर : यादवेन्द्र






































सीरिया के कवि, पत्रकार फराज अहमद बेरकदर (जन्म: १९५१) को एकाधिकारवादी सत्ता के विरोधी होने के आरोप में १९८७ में गिरफ्तार कर लिया गया, लम्बी यातना के बाद १९९३ में कोर्ट के समझ प्रस्तुत किया गया जहाँ उन्हें १५ वर्ष की सजा सुनाई गयी, अंतर्राष्ट्रीय दबाव के कारण १६ नवम्बर २००० को वे मुक्त किये गये.

फराज की गिरफ्तारी के लगभग ३० वर्ष बाद आज सीरिया एकाधिकारवाद और धार्मिक कट्टरता के कारण पूरी तरह बर्बाद हो गया है. जिन लोगों ने उस समय फराज को गिरफ्तार किया होगा उन्हें भी अपने देश की इस भीषण दुर्दशा का अंदेशा नहीं हुआ होगा.

जहाँ लेखकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों पर हमले होते हैं वह जगह इसी तरह वीरान हो जाती है, ये एकतरह के संकेत हैं जिन्हें इतिहास बार-बार प्रकट करता रहता है.

फराज के जेल में रहते हुए उनकी बेटी से सम्बन्धित एक मार्मिक प्रसंग का अनुवाद यादवेन्द्र ने किया है, जो आज आपके लिये  यहाँ प्रस्तुत है.
  




अभी  मेरे  लिए  एक  कविता  लिखो                 
फराज बेरकदर

अनुवाद : यादवेन्द्र



मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता कि पिता के रूप में मैं सफल रहा या नहीं- दरअसल परिस्थितियाँ ही कुछ ऐसी रहीं कि इस विषय पर विस्तार से सोचना विचारना  हो नहीं पाया. जब बेटी का जन्म हुआ मुझे अपने राजनैतिक कामों के चलते भूमिगत होना पड़ा, वह चार वर्ष की हुई तो मुझे गिरफ़्तार कर लिया गया. गिरफ़्तारी के शुरू के पाँच साल न तो मुझ तक कोई सूचना पहुँचने दी जाती न किसी से मिलने दिया जाता. इन सब पाबंदियों के बावजूद, मुझे लगता है मैं ऐसा बदनसीब पिता हूँ जिसकी आँखों में आँसू हमेशा हमेशा के लिए ठहर गए हैं.


जब मैं भूमिगत था कभी कभार बेटी को देख लेता था, उसका नाम लेकर बुलाता पर वह अलग-अलग मौकों पर मुझे अलग-अलग नाम से सम्बोधित करती- पहचान उजागर न होने देने की खातिर अपने काल्पनिक नामों के बारे में हमने ही उसे बताया था. मैंने उसे सिखा दिया था कि किसी बाहरी के सामने मुझे बाबा कह कर न पुकारा करे और वह बड़ी सावधानी के साथ इस  हिदायत का पालन करती. जब उसे किसी ख़ास  चीज की  इच्छा होती तो मेरी सिखाई हुई बात की जान बूझ कर अनदेखी करती- बार-बार कहने पर भी जब उसकी माँ सोडा खरीद कर नहीं देती तो वह मेरी ओर देख कर टूटे हुए रिकॉर्ड की तरह तेज और हठीली आवाज में सबको सुना कर बार बार दुहराती : बाबा..बाबा..बाबा..  और वह तब तक यह प्यारी सी शरारत करती रहती जबतक उसके मन माफ़िक काम हो नहीं जाता, या उसका आश्वासन न मिल जाता.


जब उसकी माँ भी मेरी तरह गिरफ़्तार गयी तो उसके बाद सिर्फ़ दो बार बेटी को देखने का मौका मिल पाया. जब वह मेरे साथ होती तो मुझे उसकी सुरक्षा को लेकर सबसे ज्यादा चिंता रहती इसलिए कभी यहाँ तो कभी वहाँ छुपते छुपाते भागना पड़ता था. जब कभी हड़बड़ी में उसको अकेले छोड़ कर भागना पड़ा सबसे ज्यादा चिंता यह रहती कि उसको तो अपने पिता का असली नाम भी नहीं मालूम है, वह तो तमाम काल्पनिक नामों से मुझे जानती है. अपना नाम भी वह किसी तरह टूटी फूटी भाषा में बोल सकती थी. मेरे मन में हमेशा यह डर बना रहता कि लुकाछिपी के इस खेल  में कहीं वह मुझसे हमेशा के लिए बिछुड़ न जाए.


उस समय बेटी के पास एक छोटा सा सूटकेस हुआ करता था, मुझे मालूम नहीं किसने दिया पर वह उस सूटकेस को खूब सहेज संभाल कर रखती. एक दिन मैंने उसकी नज़रें बचा कर उस सूटकेस में कागज का एक टुकड़ा रख दिया जिस पर बेटी का नाम और परिवार का पता साफ़ साफ़ लिख दिया था. फिर बाद में उसको बता भी दिया कि वह उस कागज को कभी भी न तो बाहर निकाल कर फेंके न फाड़ कर नष्ट करे.


एकदिन मुझे कुछ ऐसा काम पूरा करना था जिसमें बेटी को साथ रखना संभव नहीं था इसलिए उसे एक परिचित परिवार में छोड़ना पड़ा जहाँ से शाम होने पर उसको मेरे पास कोई पहुँचा देता. पर शाम को जब वह मेरे पास घर लौटी उसके पास न तो वह सूटकेस था और न ही मेरा लिखा हुआ कागज़.
"मैंने तुम्हें जो कागज दिया था वह कहाँ छोड़ आयीं मेरी जान?", मैंने उससे पूछा.
बड़ी मासूमियत से उसने अपने दोनों हाथ हवा में लहराते हुए जवाब दिया :"गुम हो गया."  गिरफ़्तार होने से पहले की बेटी की वह आखिरी छवि थी जो मन के पटल पर अंकित हो गयी.


अपनी माँ के बारे में वह मुझसे पूछती- कभी याचना के स्वर में तो कभी कभी तल्ख़ होकर भी, ऐसे मौकों पर मेरी आवाज भर्रा जाती और मेरा अपने आँसुओं पर से नियंत्रण छूट जाता. एक नहीं सी जान इस तरह मेरी लाचारियों और दुर्बलताओं को नंगा उधेड़ कर रख देती. जब मैं गिरफ़्तार कर लिया गया तो एकबारगी लगा चलो अच्छा हुआ, बेटी के तमाम सवालों से मैं मुक्त हो गया, पर जैसे ही जेल में यातना और पूछताछ का सिलसिला थमता माँ के बारे में बेटी के किये सवाल मुँह बाकर मेरे सामने आ खड़े होते और मैं लाचारी तथा असमंजस में कालकोठरी की दीवारों पर अपना  सिर पटकने लगता.


इतना लाचार और शक्तिहीन होकर मैं कैसे जियूँगा, मन ही मन मैं बेटी से कहता. गनीमत है कि बेटी को गिरफ़्तार नहीं किया गया था- अचानक मेरे मन में बिजली की तरह यह ख्याल कौंधा कि जरूरत पड़ी तो उसे मैं उसकी माँ तक पहुँचाने की अर्जी दे सकता हूँ...  या अपने पास रख सकता हूँ. क्या होता यदि बेटी को कोख में लिए हुए मेरी पत्नी गिरफ़्तार हो जाती, जाहिर है उसको माँ के पास ही जेल में रहने दिया जाता. कुछ लोगों को यह बात बेतुकी और सनक भरी लग सकती है- पर दीना का मामला सबके सामने है जिसका जन्म जेल के अंदर ही हुआ और अब वह वहीँ अपनी माँ के साथ रह रही है- जेल में उस बच्ची के रहने पर कहीं कोई विवाद नहीं है. आप कह सकते हैं कि दीना का मामला अपवाद है पर उस से पहले भी तो मारिया को जेल में उसकी माँ के साथ रहने दिया गया था. जब आँखों के सामने ऐसे उदाहरण हैं तो फिर मेरी बेटी के साथ अलग बर्ताव कैसे किया जाएगा. मुझे इसकी कतई परवाह नहीं कि मेरे बारे में आप क्या सोचते हैं,  सुरक्षाबलों को यह समझाना जरुरी था कि वे उस बच्ची को गिरफ़्तार कर लें जो ढंग से बोल भी नहीं सकती.


किसी को राजनैतिक विचारों के लिए गिरफ़्तार करना जायज नहीं है, यह अन्यायपूर्ण और अमानवीय है. पर बच्ची के मामले में गिरफ़्तारी को जायज ठहराया जा सकता है, आवश्यक और सामान्य कहा जा सकता है. इसी आधार पर मैं देश की सर्वोच्च कानूनी संस्था से अपील करूँगा और अनुरोध न स्वीकार करने की स्थिति में कटघरे में घसीट लाऊँगा कि उसने मेरी बेटी को गिरफ़्तार क्यों नहीं किया. मेरी यह बात कितनी भी निष्ठुर क्यों न लगे पर उन्हें इस मानवीय मुद्दे का हल निकालना ही पड़ेगा.


जेल में सालों साल की तोड़ने वाली बेचैनी ने जैसे मेरे पूरे अस्तित्व पर जड़ता की एक मोटी परत चढ़ा दी थी, बिन बताये एक दिन यह जड़ता अचानक टूट गयी जब कैमरे से खींची तस्वीरों का एक पैकेट जेल में आ पहुँचा. एक-एक कर सभी फ़ोटो साथी कैदियों ने पहचान लिए, सिर्फ़ एक फ़ोटो बची रह गयी. इस बची हुई फ़ोटो को एक-एक कर सभी कैदियों के सामने रखा गया कि शायद किसी से पहचानने में चूक हुई हो. मैंने तय कर लिया था कि मैं उनकी तरफ़ तभी निगाह डालूँगा जब सभी अन्य कैदी देख पहचान लेंगे. तभी एक साथी कैदी ने ज़िद की कि मैं बची हुई इकलौती  तस्वीर एक बार देख तो लूँ, हो सकता है मेरा कोई जानने वाला हो. 


जब मैंने पहली बार उस तस्वीर पर नज़र डाली तो पूरी तरह से अनिच्छा का भाव मन पर छाया हुआ था- तस्वीर एक छोटी बच्ची की थी जो पीले रंग का स्वेटर पहने हुए थी और ऊपर से गुलाबी रंग की हलके लगभग पारदर्शी कपडे की गोल घेर वाली ड्रेस. स्वेटर का कुछ हिस्सा कॉलर के पास से बाहर झाँक रहा था- उसे देख कर  लगता था जैसे स्वेटर पुराना और बदरंग हो चुका था. पर कपड़ों से एकदम उलट  उस लड़की का चेहरा किसी ताजे गुलाब सा खिला-खिला था. मुझे लगा निर्जीव कपड़ों में और सजीव चेहरे में कितना विरोधाभास था- दोनों एक दूसरे से  उलट.


"इस चेहरे को मैं नहीं पहचानता, और इस समय मेरे परिवार में है कौन जो मेरे लिए कोई सामान भेजेगा, और किसी तरह भेज भी दे तो उसका मुझ तक पहुँचना बिलकुल असंभव है.", फ़ोटो देख कर अनमने भाव से मैंने कहा.
"कहीं  यह तस्वीर तुम्हारी बेटी सोमर की तो नहीं दोस्त?",  एक साथी कैदी ने झिझकते हुए मेरे कान के पास आकर कहा.
फिर दूसरा बोल पड़ा :"मुझे पक्का यकीन है कि फ़ोटो सोमर की ही है. "


यह बात सही है कि तस्वीर देख कर मुझे अपनी बेटी सोमर की याद आ गयी थी पर मन में उसकी छवि जो दर्ज थी वह आखिरी बार घर छोड़ते समय की थी, बड़े जतन से मैंने वह  छवि अपने मन में बसा रखी थी, कोई और फोटो मुझे अजनबी लगती थी. अपने मन को समझाने के लिए मैंने यह सोचा कि सोमर तो अभी छोटी सी बच्ची है, इतनी बड़ी कहाँ हुई, पर साथी के आग्रह पर मैंने तस्वीर पर दुबारा नज़र दौड़ाई. जाने कैसे मुझे यह एहसास होने लगा कि हो न हो इस तस्वीर में जो लड़की है वह मेरी दुलारी बेटी सोमर ही है. फिर भी मैं पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो पा रहा था, मेरे मन में घबराहट, उदासी, दुःख और निराशा के भाव एकसाथ उमड़ने घुमड़ने लगे - हो सकता है यह मेरी बेटी सोमर ही हो.

कुछ समय बीतने पर मेरे मन में यह भरोसा पक्का होने लगा कि यह तस्वीर सोमर की ही है...निर्जीव तस्वीर में दो ऑंखें जिन्दा हो उठीं और उन मिचमिचाती आँखों में मुस्कुराहट तैर गयी, वे बोल पड़ीं : "बाबा,पहचाना नहीं मैं आपकी बेटी सोमर हूँ !"

मेरा मन हुआ उछल उछल कर सब को वह  फोटो  दिखाऊँ और बताऊँ कि देखो यह मेरी प्यारी बेटी सोमर है. अब बड़ी हो गयी है. पर उसी समय मेरे मन में दूसरा सवाल उभरा और हावी होने लगा- जब मैं अपनी बेटी के सामने आऊँगा, क्या वह मुझे पहचान लेगी ? कोई असमंजस तो उसके मन में नहीं आएगा? फिर मैंने अपने मन के दुचित्तीपन पर कस कर लगाम कसी, नहीं ऐसा कभी नहीं हो सकता, सामने आते ही उसका मन जोर जोर से कहेगा: सोमर, यह तुम्हारे सामने जो इंसान खड़ा है वह तुम्हारा बाबा ही है.


आखिरकार मुझे मिलने जुलने वालों को अपने पास बुलाने की इजाजत मिल गयी- मेरे साथियों ने इधर उधर से मेरे लिए कुछ ठीक ठाक कपड़ों का जुगाड़ कर दिया और बड़े उत्साह से मुलाकातियों से मिलने वाली जगह पहुँच गया. आये हुए लोगों को एक एक कर मैंने गौर से देखना शुरू किया हाँलाकि किसी ख़ास व्यक्ति पर मेरी नज़र नहीं थी- जैसे ही  मेरी नज़र मेरी माँ के पीछे छुपने और मुझे देख लेने की असफल कोशिश करती हुई एक लड़की  पड़ी समझ गया वह सोमर ही है. जब उसके सामने आया तो मैंने अपने आपको संयत और सहज रखने  भरपूर कोशिश की.. बरसों पहले भी ऐसा करने का वाकया याद आ गया.

"तुम मुझे पहचानती हो?, मैंने पूछा.
वह हौले से मुस्कुराई और अपनी आँखें मूँद कर जैसे उसने इशारों इशारों में जवाब दे दिया कि हाँ, बिलकुल पहचान गयी.
मुझे सचमुच शक्ल से पहचानती हो या दादी ने कहा बाबा से मिलने जा रहे हैं इस कारण पहचाना ?
ऐसा नहीं है,  मैं आपको पहले से पहचानती हूँ. उसने मुस्कुरा कर जवाब दिया.
आसमान अभी फट पड़े और इसकी गवाही दे कि मेरी बेटी जो कह रही है वह सौ फ़ीसदी सच है ....दरअसल मुझे अपने कानों पर भरोसा नहीं हो रहा था.


अगली मुलाक़ात में मैंने माँ से यह फिर पूछा कि सोमार सचमुच मुझे पहचान गयी थी .... या मेरा मन रखने को ऐसा कह रही थी? माँ ने कहा कि वह न सिर्फ़ मुझे पहचानती है बल्कि जब भी कोई मेरी बावत पूछता तो  ख़ुशी से पागल हो जाती है. माँ के अनुसार मेरे बारे में वह बड़े गर्व से कहती : मेरे बाबा पूरी दुनिया  निराले हैं .... मैंने उन्हें पहचानने में पल भर भी देर नहीं लगाया. वे जरा भी तो नहीं बदले, बल्कि पहले से ज्यादा खूबसूरत हो गए हैं.


अगले कुछ महीनों में बेटी का मुझसे मिलने जेल में आना मानों अंधेरे में उजाले कौंध जाना होता- मेरी लाचारियों के बीच शक्ति की तरह और गुलामी में आज़ादी की किरण की तरह वह मेरे पास आती. मेरी वह छोटी सी बच्ची- अपनी खामोशियों  भी- मेरा जीवन उम्मीद से लबालब भर देती. दूसरी मुलाकात में उसने  थोड़ी झिझक और संजीदगी के साथ मेरे कानों के पास आकर पूछा : बाबा, क्या आप सचमुच कवि  हैं ?

इस अप्रत्याशित प्रश्न के लिए मैं तैयार नहीं था, बोला : शायद .... हाँ , बेटी.
तब आप मेरे लिए कोई कविता क्यों नहीं लिखते ?
मैंने तुम्हारे लिए कई कवितायेँ लिखी हैं .... जब बड़ी हो जाओगी तब पढ़ना.
बड़े होने पर पढ़ने वाली कवितायेँ मुझे नहीं चाहियें .... मेरे लिए अभी एक कविता लिखो.
उसके कहने पर  मैंने उसी वक्त उसके लिए एक कविता लिखी जिसमें उसे समझ आने वाले बिम्बों और स्मृतियों का प्रयोग किया. अगली मुलाकात में वह मेरे पास आयी और मुझसे लिपट कर धीरे से बोली : बाबा मैंने याद कर ली.


पहले मैं उसकी बात समझ नहीं पाया पर जैसे ही पिछली  मुलाकात वाली कविता का  स्मरण हुआ, बोला : यदि तुम्हें वो कविता पसंद आयी और तुमने याद कर ली तो मुझे भी तो सुनाओ. उसने गहरी साँस भरी और कमरे में चारों तरफ़ सतर्क नज़रों से देखा और मुझे निगाहों-निगाहों में समझा दिया कि चोरी छुपे थमाई हुई कविता भला मैं सामने कैसे सुना सकती हूँ.


दमन और  आतंक कितनी दूर तक जाता है उस छोटी सी बच्ची ने मुझे भली प्रकार समझा दिया .... कोई उससे अछूता नहीं था.

अगले दो सालों तक सोमर ने मुझसे मिलने जेल आने का कोई मौका नहीं गँवाया .... सोचता हूँ कि इन मुलाकातों के बारे में लिखूँ ....या उन पलों की मधुर स्मृतियाँ मन के सबसे अंदर के कोने में संजो कर रखूँ जब सोमर मेरे  जीवन से फिर से अनुपस्थित हो जायेगी- अंधेरे में जलने वाली बाती की तरह.


मुझे कभी नहीं समझ आया कि क्या फिर कभी  उसकी सूरत  मुझसे सचमुच इतनी दूर चली जायेगी ? लगने लगा है कि  उसका गुम हो जाना मेरे जीवन का सबसे बड़ा सत्य बन गया है, उसके सिवा कुछ सूझता ही नहीं .....अन्य साथियों की तरह अपने मन को लाख समझाने पर भी मैं तसल्ली नहीं दे पा रहा हूँ. बार बार मुझे लगता है - भाषा निरर्थक है ...  और ख़ामोशी भी उतनी ही अर्थहीन है.... सत्य और भ्रम - और इन दो अतियों के  बीच आवा जाही करने वाली तमाम चीजें और क्रियाएँ - यहाँ तक कि चारों तरफ़ दीवार से घिरी कालकोठरी भी सब कुछ पूरी तरह से  बेमानी हैं.

मुझे लगता है जैसे मैं गुजर गए पलों के ऊपर-ऊपर कहीं तैर रहा हूँ और मेरा अपने आप पर से नियंत्रण छूटता चला जा रहा है.

आज मेरी बेटी 11 साल की हो गयी पर मैं ऐसा बदकिस्मत पिता हूँ कि इसके सम्पूर्ण एहसास से आज भी वंचित हूँ. 

मैंने आपको बताया कि जब बेटी का जन्म हुआ मुझे अपने राजनैतिक कामों के चलते भूमिगत होना पड़ा..... वह चार वर्ष की हुई तो मुझे गिरफ़्तार कर लिया गया. गिरफ़्तारी के शुरू के पाँच साल न तो मुझ तक कोई सूचना पहुँचने दी जाती न किसी से मिलने दिया जाता. इन सब पाबंदियों के बावजूद, मुझे लगता है मैं ऐसा बदनसीब पिता हूँ जिसकी आँखों में आँसू हमेशा हमेशा के लिए ठहर गए हैं. 
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1951 में सीरिया में जन्मे कवि, पत्रकार और पूर्व कम्युनिस्ट कार्यकर्ता फराज बेरकदर देश की एकाधिकारवादी सत्ता के प्रमुख  विरोधियों में रहे हैं जिसके चलते लगभग पंद्रह वर्षों तक जेल में यातना झेलते रहे. उनका पूरा परिवार सीरिया के वामपंथी आंदोलन का हिस्सा रहा. युवावस्था से ही वे कवितायेँ लिखने लगे थे और एक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन करते थे. सीरिया के बुद्धिजीवियों की सज़ा माफ़ी के लिए चलाये गए विश्व्यापी आंदोलन के चलते उन्हें जेल से मुक्त किया गया पर उसके बाद वे अपने देश नहीं लौटे, स्वीडन जाकर बस गए.

सीरिया की तानाशाही के इतिहास के बारे में वे कहते हैं कि जब सीरिया का सांस्कृतिक इतिहास लिखा जाएगा तब जेलों  और कैदियों की  उसमें प्रमुख भागीदारी होगी .... जब यह निरंकुश तानाशाही खत्म होगी हजारों बुद्धिजीवी ऐसे होंगे जिनके पास अपनी यातना और अनुभवों को कागज पर उतारने के लिए बहुत कुछ होगा.


यू आर नॉट एलोन, ए न्यू डांस ऐट द कोर्ट ऑफ़ हार्ट, एशियन रेसाइटल, मिरर्स ऑफ़ ऐब्सेंस फराज बेरकदर की अंग्रेजी में अनूदित रचनाओं के प्रमुख संकलन हैं. उन्हें साहित्य और मानवाधिकारों के संघर्ष के लिए अनेक पुरस्कार मिले हैं.


यहाँ प्रस्तुत रचना अरबी साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिका "अल जदीद" में 2006 में संस्मरण कह कर छापी गयी थी पर मुझे इसमें किसी भावपूर्ण कहानी के प्रमुख तत्व दिखाई देते हैं सो इसका अनुवाद कर रहा हूँ. 
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यादवेन्द्र
yapandey@gmail.com 

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  1. कई सबक समेटे अद्भुत संस्मरण।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (28-08-2018) को "आया भादौ मास" (चर्चा अंक-3077) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. यादवेंद्र जी को समयान्तर, ज्ञानोदय के बाद यहां उनकी वैश्विक-दृष्टि के गहरे आस्वाद के साथ एक अपने ही अंदाज में दर्ज होते देख रहा हूँ। खला के ओनो-कोनोंं में छिपी या
    चर्चित रही प्रतिभाओं को खोज-खोज कर , अनुवाद के माध्यम से उन्हें सार्वभौम सुलभ कराने के यज्ञ की इस परम्परा में एक नाम द्रोणवीर कोहली का भी अग्रणी रहा कभी। भीष्म जी ने भी लोटस पत्रिका के लिए यह विस्मयी श्रम चुपचाप किया। अमृतराय भी इस दिशा में दूर तक गए। पर वर्तमान में यादवेंद्र जी ही सिनेमा, साहित्य दोनों में ओरों से हटकर कुछ ऐसा कर दिखाते हैं, जो अपनी प्रौढ़ होती जा रही उस बौद्धिकता को भी चौंका सकता है, जो विश्व कवियों का एक खांचा तैयार कर, अपने अनुवादों से उन्हें बारम्बार भुनाने में लगे रहे हैं। कच्चे-पक्के ये तत्पर अनुवाद साहित्य अकादमी की मुहर लगने के पश्चात *सबद** सिद्ध मान लिए गए हैं।।खैर...
    यादवेंंद्र जी इस कलावंत जमात के बाहर रहकर ही सरहदों के पार जब भी अनुवाद के वलय में किसी हस्ताक्षर का चयन करते हैं। तो कोई कोर -कसर नहीं छोड़ते। बाकी की तरह...
    मैं इस संस्मरण के करुण पाठ से पहले उनके दृश्य को बुनने की शैली से दूसरे हलकों में भी हतप्रभ रहा हूँ। खासकर ,ईरान सिनेमा के दिग्गजों की पहचान कराने के उनके तौर-तरीकों से या किसी एक कलम अथवा सिनेकारों की मुठभेड़ों के दिलचस्प वृतांत को किस्सागोई जैसा पेश करने की उनकी कलाओं और नूतन जानकारी से। यह संस्मरण भी एकांतिक हो गई एक बिछुड़ी हुई दुनिया के भीतर के उजास के बचे रहने का गहरा एहसास कराता है।
    इसके लिए उन्हें साधुवाद ।।

    प्रताप सिंह .

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  4. बहुत ही मार्मिक और संप्रेषणीय संस्मरण...। पढ़कर लगा जैसे मैं स्वयं उस त्रासद जीवन का हिस्सा हूँ।

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  5. इस संस्मरण को पढ़कर भावुक हो गया । फराज जैसे लोग इस समाज को बदलते है और दुनियां भर के दुख उठाते हैं । ऐसे जिद्दी लोगो के कारण हमारी सम्वेदना बची हुई है । यादवेंद्र जी और समालोचन को ऐसी दुर्लभ सामग्री प्रस्तुत करने के लिए शुक्रियां

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  6. राहुल द्विवेदी28 अग॰ 2018, 10:00:00 am

    बेहतरीन संस्मरण । इतनी ईमानदारी के साथ बेबाक विवरण । बहुत बहुत बधाई यादवेंद्र जी और समालोचन

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