साहित्य तो समाज का दर्पण होता ही है, भाषा और साहित्य के आयोजन भी दर्पण ही होते हैं. आइये ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन के इस आयोजन में हम अपना चेहरा देखें.
वैश्विक हिंदी को संकुचित करता सम्मेलन का खटराग
(विश्व हिंदी सम्मेलन पर एक रपट)
संतोष अर्श
मॉरीशस जाने की योजना बहुत पहले से थी. यह संयोग या दुर्योग
विश्व हिंदी सम्मेलन के समय बना यह दीगर बात है. मॉरीशस केवल स्वप्न का सा देश ही नहीं
है बल्कि द्वीप की रंग-बिरंगी मिट्टी और उसके अलबेले समुद्र में भारतीय
अप्रवासियों के लहू और पसीने का रंग भी शामिल है. मॉरीशस जाने के पीछे बड़ी प्रेरणा
थी अश्विनी कुमार पंकज का उपन्यास ‘माटी-माटी अरकाटी’. इस पुस्तक में उन्होंने
गिरमिटियों के ऐतिहासिक संघर्ष को नए- उत्तर-आधुनिक, उत्तर-औपनिवेशिक व भूमंडलीकृत
प्रश्नों के साथ रचा है. इसमें मॉरीशस की भौगोलिकता का जीवंत वर्णन है. यह वर्णन
पढ़ कर पिछले दिनों जब मैं राँची गया था, तो पंकज जी से इस पर बात
हुई थी. मैंने उनसे पूछा था कि आप मॉरीशस गए थे क्या ? उन्होंने कहा, नहीं. कारण आर्थिक
थे. मैंने उनसे कहा कि आपकी इस रचना पर मैं मॉरीशस में ही पर्चा पढ़ूँगा. यही
संकल्प था. इसलिए मॉरीशस की दास्तान में बिना गिरमिटियों के संघर्ष और दर्द को
शामिल किये, यह अफ़साना पूरा नहीं हो सकता. द्वीप पर जितनी
हिंदी भाषा बची हुई है उसके पीछे की संघर्ष-यात्रा को विस्मृत कर देना इस भाषा के
लिए कैसा होगा, हम सभी जानते हैं, किंतु इससे मुँह
चुराना चाहते हैं. दूसरी ओर वे लोग भी हैं जो इस बची-खुची भाषा की देह को
नोंचने-खसोटने में लगे हुए हैं.
मेरी यात्रा के लिए किसी तरह की सरकारी इमदाद नहीं थी. यह
निजी स्तर पर या अन्य स्रोतों से पोषित थी. वैसे भी हिंदी के लिए बोयी जाने वाली
सरकारी हरी चरी चरने वाले छुट्टे मवेशी इतना रगेदते और बेधते हुए दौड़ते हैं कि स्वाभिमानी
बकरियाँ, मुर्गियाँ और भेड़ें घबरा कर दड़बे में लौट आएँ. मरे हुए ढ़ोर
की देह से चीटियों को तभी कुछ मिलेगा जब सियारों और कुत्तों से कुछ बच पाएगा.
लेकिन वे ज़मीन तक चाट लेना चाहते हैं. मैं वहाँ हिंदी भाषा-साहित्य के शोधार्थी
और प्रेमी की तरह जाना चाहता था. उसी तरह गया. और उसी तरह उसे देखा. जैसा देखा है, वैसा ही बताऊंगा.
चूँकि इससे पहले किसी विश्व हिंदी सम्मेलन में शरीक़ नहीं
हुआ था अतः इस आयोजन के बारे में जानता
नहीं था. वहाँ क्या होता है ?किस स्वाद के गुलगुले पकते हैं ? भाषा और साहित्य के
होते हैं या राजनीति के ? कैसे लोग आते हैं ? हिंदी प्रेमी होते
हैं या हिंदूवादी राजनीति प्रेमी ? वगैरह, वगैरह. इन सभी
जिज्ञासाओं के सुलगते काष्ठ पर लोटा भर पानी पहले-पहल हवाईजहाज में जाते समय ही
पड़ा. जब स्वयं को हिंदी पुस्तकों का प्रकाशक बताने वाला एक सम्मेलनी फ्लाइट
अटेंडेंट से वाइन के लिए झगड़ रहा था. ये कैसे लोग थे? जो अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर भारत की इज़्ज़त का फ़ालूदा बना रहे थे. जो समूह के समूह में आए थे. ऐसे ही
दृश्य सम्मेलन में भोजन और नाश्ते के समय दिखते थे. लाइन में खड़ा होना भारतीयों को
आता नहीं. परोसने वाले मॉरीशस के भाई-बंधु इनकी हरकतों को देख कर स्तब्ध और अवाक्
रह जाते थे. वे खीझ सकते थे, या अपना सिर पीटते. लेकिन उन्होंने गुनगुना और
धैर्यपूर्ण स्वागत किया.
सम्मेलनियों में आशाराम बापू और राधे माँ जैसे नर-नारी भी थे. सरकारी प्रतिष्ठानों के सरकारी ख़र्च पर आए कारकून भी थे. आत्म-मुग्ध लेखक-लेखिकाएँ थीं, कवि-कवयित्रियाँ, आध्यात्मिक मॉडल्स जिनकी नंगी कामोत्तेजक पीठ पर वैदिक टैटू गुदे हुए थे, तंत्र-मंत्र वाले औघड़-औघड़नियाँ थे, आर्य वीर और मर्यादा पुरुषोत्तम भी थे. कुछ ठरकी बूढ़े और अधेड़ भी थे जो विदेशी धरती पर भी अपने ठरकपन से बाज़ नहीं आ रहे थे. यह एक अनुभवजनित घटना तब बन गई जब हिंदी का एक घोषित कवि और प्रतिष्ठित प्रकाशनों से छपा एक लेखक अपने दो लफंगे मित्रों के साथ, उनसे किसी प्रकार की सहायता माँगने गई एक छात्रा से द्विअर्थी, कुंठित बातें करने लगा. इससे पहले मैं उससे कहता कि मैं उसे जानता हूँ ‘यति और इंद्रियों से मिश्रित’ लेखक अपनी कुंठा का प्रदर्शन कर बैठा. इसलिए मैंने उसे न पहचान कर उसके इस कृत्य का दण्ड देने की कोशिश की. लेकिन शर्मदारी और बेशर्मी में बड़ा फ़र्क यह है कि शर्म की एक हद होती है. कई बार ऐसा होता है कि जितनी हमें शर्म आती है लोग उससे कई गुना अधिक बेशर्म होते हैं. चुनांचे यक्ष-यक्षिणियाँ, किन्नर, गंधर्व, देव-मनुष्य सब थे. एकाध हम जैसे असुर भी थे. कुछ जनवादी भी थे जो सरकारी ख़र्च पर यात्रा का मोह त्याग नहीं पाए थे और यात्रा को सार्वजनिक करने से बच रहे थे. अतः अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक स्व छाया चित्ररोपण (सेल्फ़ी) कर तो रहे थे, किन्तु उसे थोबड़ पोथी (फ़ेसबुक) पर चस्पा (शेयर) नहीं कर रहे थे. उनके भेद समय स्वयं खोलेगा.
हिंदी को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संकीर्ण बनाने
का पहला प्रयास उसके सवर्णीकरण से शुरू होता है. यद्यपि कुछ लोग उसे हिंदूकरण कहते
हैं. इस सम्मेलन को भी वाम धड़े के विचारक ‘हिंदी नहीं, हिंदू सम्मेलन’ कह रहे हैं. किन्तु
ये विचारक ये नहीं देखते कि हिंदी के थोड़े से साहित्य को छोड़ कर तमाम साहित्य
हिंदूवादी ही है. वह अपनी मूल चेतना में धार्मिक है. सांप्रदायिक राजनीति उसका
सांप्रदायीकरण सरलता से कर लेती है. उसे इन अंतर्विरोधों से मुक्त करने हेतु उदारवादियों
को अभी और श्रम करना होगा. ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ तो आधुनिक हिंदी
साहित्य की बुनियाद के रूप में रखा गया. इसलिए भाषा को दक्षिणपंथ के लिए ढाल देने
में या इच्छित होने पर एक हद तक उसे फ़ासिस्ट बना देने में कोई दिक्कत नहीं आनी है.
मॉरीशस में हिंदी की इन्हीं प्रवृत्तियों का लाभ उठाया जा रहा था. और वह प्रवृत्ति
क्या है ? ‘हत्या’ को ‘वध’ में तब्दील कर देना.
सरकारी प्रतिनिधि मण्डल में भी तमाम लोग थे. जो दरबार के
चारण हैं उनका क्या कहना है? वे तो विशिष्टजन हैं. नाती-पोते, बिटिया-दामाद, वधू-पुत्र सभी
डेलीगेशन में थे. हो सकता है कुछ लोग अपने कुत्तों को भी साथ लाये हों. अंग्रेज़ी
का मुहविरा है कि मुझसे मुहब्बत करो, और मेरे कुत्ते से भी (Love me and my dog also). सबके तीन-चार-पाँच सितारा होटलों में अलग-अलग कमरे थे. अन्य
तमाम तरह के व्यय, जिसका भार भारत की जनता पर पड़ने वाला था.
जिसमें हिंदी पट्टी की ग़रीब जनता भी है. हिंदी ग़रीब-गुरबों, कुलियों, मजूरों, रिक्शाचालकों, खेतिहरों, खोमचेवालों और
भिखारियों की भी भाषा है. लेकिन डेलीगेशन के नाम पर लोगों ने अपने विदेशों में बस
गए, हिंदी को त्याग चुके रिश्तेदारों तक को बुला रखा था.
सम्मेलन की थीम ‘हिंदी विश्व और
भारतीय संस्कृति’ थी. लेकिन वहाँ जो प्रस्तुत की जा रही थी, क्या वह भारतीय
संस्कृति थी? मुद्राराक्षस के शब्दों को उधार लूँ तो क्या ‘सवर्ण संस्कृति ही
भारतीय संस्कृति है ?’ क्या दलित-पिछड़ों आदिवासियों की संस्कृति भारतीय
संस्कृति नहीं है? महान विविधतापूर्ण संस्कृति वाले भारत देश की
संस्कृति को इस एकांगी रूप में विश्व-पटल पर रखना सांस्कृतिक इल्यूज़न पैदा करना है.
प्रतिनिधि मण्डल से लेकर प्रतिभागियों तक में दूसरे वर्गों का प्रतिनिधित्व कितना
था? क्या यह भारत के चंद लोगों का विश्व हिंदी सम्मेलन था? क्या हिंदी केवल वर्ग
या जाति विशेष की भाषा है ? हिंदी को जिन गिरमिटियों ने अपने हाँड़-माँस और
ख़ून से सींच-पोस कर मॉरीशस में स्थापित किया था, क्या उन्होंने कभी
सोचा था कि हिंदी के नाम पर वहाँ ऐसे लोग आएंगे ? उसे इतना संकुचनशील
बना देंगे. और उस पर भी क्षेत्रीय लेखकों की उपेक्षा की गयी.
मॉरीशस के एक वरिष्ठ लेखक ने जिसे मॉरीशस सरकार ने
प्रतिनिधि मण्डल में भी सम्मिलित किया था, अपनी फ़ेसबुक वाल पर
लिखा है कि सम्मेलन के एक सत्र से उसका नाम बिना उसे बताये हटा दिया गया और वहाँ जो
कवि सम्मेलन हुआ उसमें मॉरीशस के क्षेत्रीय कवियों को बुलाया तक नहीं गया. इसी तरह
वैश्विक हिंदी बनेगी ?
गिरमिटियों ने एक जाति-पाँति विहीन मॉरीशस बनाया था और लंबे
समय तक उसे बनाए रखने में कामयाब भी रहे किंतु जब से वहाँ एम्बेसी और अन्य
संस्थानों में एक ख़ास तरह के लोग नियुक्त होने लगे हैं तब से वे भारत से उसी ख़ास
तरह के लोगों को ही मॉरीशस बुलाते हैं ऐसा मॉरीशस के ही एक लेखक ने मुझसे बताया.
इस बात की तस्दीक तब हुई जब सम्मेलन में भारत से आई एक स्त्री मुझसे मेरा सरनेम जानने
के लिए झगड़ पड़ी. यानी भारतीय संस्कृति और हिंदी के नाम पर पूरे विश्व में
जाति-पाँति बाँटी जा रही है. मॉरीशस की इमारतों की दीवारों पर लिखा Kill Racism का काला नारा मेरी आँखें कैसे भूल सकती हैं?
सम्मेलन में राजनीतिक लोग थे. भारत के सत्तारूढ़ दल के
मंत्रीगण थे. बातें हुईं, भाषण हुए. हिंदी संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनेगी
ऐसा बहुत पहले से कहा जा रहा है. संयुक्त राष्ट्र संघ में 6 भाषाओं को आधिकारिक
भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है – अरबी, चीनी, अंग्रेज़ी, फ्रांसीसी, रूसी और स्पैनिश. संचालन की भाषाएँ अंग्रेज़ी और फ्रांसीसी हैं.
हिंदी का अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में संवर्द्धन करने और विश्व हिंदी सम्मेलन
के आयोजन को संस्थागत व्यवस्था प्रदान करने के उद्देश्य से ‘विश्व हिंदी सचिवालय’ की स्थापना का निर्णय लिया गया था. इसकी
संकल्पना 1975 के नागपुर में आयोजित प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान की गयी थी.
मॉरीशस के तत्कालीन प्रधानमंत्री सर शिवसागर रामगुलाम ने मॉरीशस में ‘विश्व हिंदी सचिवालय’ की स्थापना का
प्रस्ताव प्रस्तुत किया. 12 नवंबर 2002 को मॉरीशस के मंत्रिमंडल द्वारा विश्व
हिंदी सचिवालय अधिनियम पारित किया गया तथा विश्व हिंदी सचिवालय की स्थापना की गयी.
विश्व हिंदी सचिवालय ने 11 फरवरी 2008 से औपचारिक रूप से कार्य करना शुरू कर दिया.
हिंदी को वैश्विक स्तर पर सक्रिय भाषा के रूप में विकसित
करने के लिए प्रत्येक 10 जनवरी को अंतर्राष्ट्रीय हिंदी दिवस मनाया जाता है. इस
बार फिर हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने की पुरानी पड़ चुकी बात दोहराई
गई. उसके लिए कई हज़ार करोड़ रुपए ख़र्चे जाएँगे यह भी कहा गया.
लेकिन विश्व हिंदी सम्मेलन का क्या हुआ ? वह भारत के
सत्तारूढ़ दल के एक दिवंगत नेता की शोकसभा बन कर रह गया. इसके अतिरिक्त और भी कुछ ? भाषा और साहित्य के
सम्मेलनों में जो सर्जनात्मक ऊर्जा होती है वह वहाँ से गायब थी. चारों ओर नज़र आ
रहे थे जुगाड़ू चेहरे. समय काटने वाले हिंदी के अध्यापक. प्रोफ़ेसर, कुलपति, प्रभावहीन-संपादक, अप्रासंगिक प्रकाशक और उनके रिश्तेदार.
गिने-चुने हिंदी पढ़ने वाले छात्र, जिनकी वहाँ सबसे ज़्यादा आवश्यकता थी. कुछ
खाये-अघाए लोग जिनके लिए भाषा और साहित्य विलास है. राजनीति हावी थी. इतनी कि
प्रतिभागियों को जो बस्ता (किट) मिला उसमें भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री और उसके
मंत्रियों की विदेश यात्राओं के विवरण का एक चिकने और महँगे कागज़ वाला मोटा कैटलॉग
रखा हुआ था.
कहाँ थी हिंदी भाषा? कहाँ थी भारतीय
संस्कृति ? मॉरीशस से हिंदी भाषा को संयुक्त राष्ट्र संघ
की भाषा बनाने की बात उठती रहती है. मॉरीशस के हिंदी प्रेमी इसके लिए संयुक्त
राष्ट्र संघ में प्रयास भी कर चुके हैं. जब मैंने मॉरीशस के एक राजनीतिक व्यक्ति
से पूछा कि मॉरीशस में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा क्यों नहीं दिया जा रहा है, तो उत्तर में उसने
कहा कि यह असंभव है. मुझे उत्तर सुनकर कोई अचरज या क्षोभ नहीं हुआ. मॉरीशस के
अप्रवासी भारतीयों की तरक़्क़ी का कारण उनका अपने जीवन में फ्रेंच संस्कृति को
स्वीकृति देना है. वे फ्रेंच में अपनी मूल भाषा को मिला कर क्रियोल बनाते हैं और
बोलते हैं. मुझे सुबह-सुबह अपने मेजबान के घर विश्व हिंदी सम्मेलन की जानकारी भी
फ्रेंच रेडियो पर मिली थी. अँग्रेजी मॉरीशस की राजभाषा है. अतः हिंदी को मॉरीशस की
आधिकारिक भाषा बनाए जाने के प्रश्न पर मिले उत्तर से मैं हैरान नहीं हुआ.
मॉरीशस के प्रधानमंत्री ने सम्मेलन के उदघाटन भाषण में कहा
कि “मैं हिंदी बहुत ज़्यादा नहीं बोल पाता हूँ, लेकिन कुछ-कुछ
बोलने की कोशिश करता हूँ.” उन्होंने भरपूर कोशिश की बोलने की, क्योंकि हिंदी से
उन्हें प्रेम है. हिंदी को उन्होंने अपने एंसेस्टर्स (पुरखों) की भाषा कहा. पुरखों
की भाषा के लिए वे सब कुछ करने को तैयार हैं, ऐसी प्रतिबद्धता भी
है उनमें. मॉरीशस की भारतीय मूल की जनता में भी हिंदी के लिए सच्चा प्रेम है. वह
कारों में हिंदी गाने बजाती है. घरों में हिंदी फिल्में देखती है. लेकिन जैसा कि
मॉरीशस के प्रधानमंत्री ने कहा, कि ‘यह उनके पुरखों की’ भाषा है.
ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन के लिए एक पचास सेकेंड की
एनीमेशन फ़िल्म बनाई गई थी. जिसमें मोर और डोडो पात्र हैं. दोनों ही दोनों देशों के
राष्ट्रीय पक्षी हैं. फ़िल्म में मोर डोडो को बचाने जाता है, लेकिन डोडो है कहाँ
? वह तो सत्रहवीं सदी में ही विलुप्त हो गई थी. और उस पर एक
अँग्रेजी मुहावरा बना दिया गया-“Asdumb as dodo.” इसी फ़िल्म में एक स्थान
पर मॉरीशस कॉमर्शियल बैंक (MCB) की इमारत को दिखाया गया है. मॉरीशस के एक
बुज़ुर्ग हिंदी लेखक ने मुझे बताया कि यह बैंक ग़ुलामी का प्रतीक है क्योंकि इसमें मॉरीशस
के भारतीय मूल के लोगों को नौकरी नहीं दी जाती है, भले ही नियुक्तियाँ
रिक्त पड़ी रहें. उनके इस कथन के बहुतेरे अर्थ थे. अर्थों से गहरी थी पीड़ा.
सम्मेलन में कई देशों के हिंदी से जुड़े लोग आए हुए थे. उन
सब को वहाँ क्या प्राप्त हुआ, कह नहीं सकते. आशाजनक और स्मरणीय घटना थी
यूक्रेन के एक हिंदी-अध्यापक से मिलना. वह कीव यूनिवर्सिटी में हिंदी पढ़ाते हैं. जो
सदन में चुपचाप बैठे हुए थे. जब मैंने उनसे अँग्रेजी में बात शुरू की तो उन्होंने
कहा कि ‘हिंदी बोल-समझ सकता हूँ.’ मैंने उनसे यूक्रेन
में हिंदी के बारे में पूछा तो वे कहने लगे, ‘छात्र पढ़ने आते हैं
लेकिन कम, क्योंकि हिंदी में रोज़गार नहीं है.’ उन्होंने स्वयं
द्वारा किये गये उक्राइनी गीति-नाट्य के हिंदी अनुवाद की पुस्तक हिंदी ऑटोग्राफ के
साथ भेंट की. यही एक घटना थी जिसने हिंदी के प्रति उम्मीद पैदा की. यह ओपेरा उन्नीसवीं
सदी की यूक्रेन की बड़ी कवयित्री लेस्या उक्राईंका का है. जिसका अनुवाद ‘वनगीत’ नाम से यूरी
बोत्विंकिन ने किया है. इस गीति-नाट्य की पात्र ‘मावका’ कहती है-
नहीं मैं जीवित हूँ ! तथा सदा रहूँगी !
मेरे हृदय में वह है जो नहीं मरता.
बेबाक टिप्पणी।
जवाब देंहटाएंहिंदी की हत्या हिंदी के लोगों द्वारा होनी तय है और गुनहगार अंग्रेजी को बनाया जा रहा है।
बहुत शर्मनाक । ये आयोजन सामूहिक दुष्कर्म है ।
हटाएंइसे कहते हैं नंगों के कपड़े उतार देना (जो होते नहीं हैं)। वाह । पर ये सब आज की डिग्रियाँ और स्टार हैं आगे बढ़ने के लिये जरूरी और जरूरी है फिर भी स्वानत: दुखा:य लिखना। मरे हुऐ ढोरों को नोचने के नये नये तिकड़म बनते रहेंगे।
जवाब देंहटाएंbebaak,badhai.
जवाब देंहटाएंमैंने एक गिरमिटिया के बेटे भवानी दयाल सन्यासी की 'आत्मकथा' संपादित की है | उनके पिता जयराम सिंह बिहार के सासाराम के निकट के एक गाँव के थे जो गिरमिटिया बन कर १८८१ के लगभग द. अफ्रीका गए थे | भवानी दयाल की आत्मकथा में हिंदी-प्रचार की बहुत विस्तार से चर्चा है | मैं चाहूँगा 'समालोचन' में इस पुस्तक की थोड़ी चर्चा हो | संतोष अर्श का लेख या रिपोर्ताज बहुत सी गंदगियों पर रोशनी डालता है | राजनीति सभी ओर अपना दुष्प्रभाव फैला रही है| जिस भारत मूल के देश मॉरिशस में हिंदी को मान्यता नहीं है वहां हिंदी का विश्व सम्मलेन करना अपने आप में एक विडम्बना है | जो लोग इस सम्मलेन में गए उन्होंने पाया जो भी हो, प्रतिष्ठा अपनी अवश्य गवांई | वहां हिंदी के नाम पर जाना ही क्यों जहाँ का राजनीतिक यह कहे कि मॉरिशस में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्ज़ा मिलना असंभव है |शिवसागर रामगुलाम मेरे जवारी गाँव इटाढ़ी(बक्सर) के थे | वे वहां आये भी थे | पर इस लेख से जो तस्वीर दिखाई देती है वह एक औपनिवेशिक गुलामी की सडांध-भरी तस्वीर है | हिंदी को सम्मान देना है तो पहले भारत में उसको पूरा सम्मान देना होगा | और यह हिन्दीवालों की ही जिम्मेवारी है | इसके लिए मॉरिशस जाने की ज़रुरत नहीं है |
जवाब देंहटाएंमॉरीशस की तरह भारत की भी असली राजभाषा अंग्रेज़ी ही है,रहेगी और रहनी चाहिए.अन्यथा आई.आई.टी.कानपुर के शोधार्थियों का आई.आई.टी.मद्रास के शोधार्थियों से अकादमिक संवाद कैसे संभव होगा. हिन्दी समेत तमाम भारतीय भाषाओं का भविष्य अपने बोलने वालों की अपनी भाषा के प्रति निष्ठा पर निर्भर है.जाहिर है कि हर औपचारिक काम के लिए भारत का शिक्षित मध्यवर्ग और भारत सरकार प्रथमत: केवल और केवल अंग्रेज़ी का ही इस्तेमाल करती है.बाद में जिनको अंग्रेज़ी नहीं आती है उनके लिए और सरकारी खानापूर्ति के लिए दस्तावेजों का हिन्दी में अनुवाद होता है.
जवाब देंहटाएंमॉरीशस में विश्व हिन्दी सम्मलेन का आयोजन उस देश में रह रहे भारतवंशियों के भारत के प्रति भावनात्मक जुड़ाव का लाभ उठाकर उसे अपने साथ मिलाकर रखने के उद्देश्य से उठाया गया एक कूटनीतिक कदम है.वजह यह कि चीन की नज़र उसके समुद्री तटों पर है और चीन वहाँ श्रीलंका की तरह अपना नौसैनिक अड्डा स्थापित करने के लिए मॉरीशस को बहुत कुछ देने को तैयार है.
वहाँ जाकर मालूम हुआ कि मॉरीशस के वर्तमान प्रधानमंत्री प्रवीण कुमार जगन्नाथ समेत भारतवंशियों की युवा पीढ़ी का रोज़गार आदि के कारण हिन्दी के मुकाबले अंगरेजी और फ्रेंच भाषाओं से ज्यादा लगाव है और उनको हिन्दी लिखने-पढ़ने में कठिनाई होती है.सुबह से शाम तक वे क्रियोल का प्रयोग करते हैं.जाहिर है कि कांग्रेस के शासन काल में इस तरह के तमाम सरकारी आयोजनों का कमोबेश यही हाल था.
रविरंजनजी। आपने बड़ी निर्ममता से कहा है पर सचाई यही है। भारत से अंग्रेजी कभी जाने वाली नही है और हिंदी के चेहरे पर सरकारी चमक दमक हमेशा विद्यमान रहेगी। रही संस्कृति यह उत्तरोत्तर पूंजी के घटाटोप में अपनी शुद्धता खो रही है। यह हिंदी भाषियों के यहां आगामी दो तीन पीढी तक बोलचाल की भाषा तो जरूर बनी रहेगी पर यदि इसे हिंदी भाषी स्वाभिमान से नही अपनाएंगे और यह भाषा रोटी रोजी का साधन न बन सकी तो यह अपना महत्व खोती जाएगी।
जवाब देंहटाएंचालीस साल से भाषा के रोजगार में लगा हूँ पर हिंदी का कोई स्वत:स्र्फूत वातावरण बन सका, ऐसा दावे से नहीं कह सकता।
पर तस्वीर के कुछ और सकारात्मक पहलू भी हैं। उन पर भी बात होनी चाहिए। मारीशस हिंदी से अनुराग बनाए रखे। वे अपने पुरखोंकी भाषा को सम्मान देते रहें यही बहुत है कि वे हमें अभी भी पहचानते हैं वरना जो दबदबा फ्रेंच का है विश्व में, वह हिंदी का क्योंकर होने लगा।
Om Nishchal सच है .हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषा-भाषियों को अपनी भाषाओं को क्रियोलीकरण से बचाना और ख़ास तौर से लिपि को बचाना सबसे बड़ी चुनौती है.राष्ट्रीय स्तर के राजनेताओं और बुद्धिजीवियों के भाषणों को मीडिया बार-बार दिखाता-सुनाता है और उस भाषा का आम जनता पर सीधा प्रभाव पड़ता है.अब हमारे इन महानुभावों को कौन समझाए कि उन्हें हिन्दी में दिए जानेवाले भाषणों में अनावश्यक अंग्रेज़ी शब्दों को ठूंसने से हर हालत में बचना चाहिए और यदि बहुत ज़रूरी हो तो शुद्ध अंग्रेज़ी में अपनी बात रखनी चाहिए.
जवाब देंहटाएंNice report, very well u have told.
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन टीम की और मेरी ओर से आप सब को रक्षाबंधन के अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएं|
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, आओ रक्षा करें इस "बंद - धन" की “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बेबाक राय। सरकारी आयोजनों का अमूमन यही हाल होता होगा।मन में यह ख्याल हमेशा से रहता था। इस वृत्तान्त को पढ़कर सच भी साबित हो गया।
जवाब देंहटाएंhttps://www.youtube.com/watch?v=HozqzN26lLg
जवाब देंहटाएंतथ्यकरुण वृत्तांत पर यह आलेख देकर आपने फिर एक और बहुत उपकारी काम किया है अरुण देव जी। धन्यवाद। संतोष अर्श जी की आदर सहित सराहना करता हूं। बधाई ।
जवाब देंहटाएंउचित टिप्पणी। मेरा अनुभव भी कमोबेश ऐसा ही रहा। संतोष जी और समालोचन को इस हस्तक्षेप के लिए धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंआपका लेख बहुत अच्छा लगा । यह बिलकुल सत्य है कि आज हिंदी का प्रचार प्रसार करने की ठेका वैसे लोगों ने ले रखा है जिन्हें हिंदी से दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं है । इसके साथ ही आज हिंदी रोजगार की भाषा नहीं है । यही कारण है कि लोगों को हिंदी से प्यार नहीं हो रहा है ।
जवाब देंहटाएंइस तरह के आयोजन सरकारी महाभोज की तरह होते है । उसमें भाषा के उन्नयन और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी स्वीकृति के लिए कोई कोशिश नही की जाती ।
जवाब देंहटाएंअर्श की रपट इस वास्तविकता को उजागर करती है । भाषाएं हमारे लिए खेल हो चुकी है ।
हिंदी दिवस का अंतरराष्ट्रीय विस्तार .इसे हिंदी पर्यटन कहो तो क्या बुरा है ? प्रधानमन्त्री मोदी देशवासियों से गैस और रेल की सब्सिडी छोड़ने की अपील करते हैं और हिंदी के नाम पर मुफ्तखोर अय्याशों को दो चार्टर्ड विमानों से मारीशस ले जाते हैं .इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी ?यह रपट सतही और ऊपरी है .अंदर की खबर मेरे पास है .चाहो तो भेजूं .
जवाब देंहटाएंजो देश अपनी भाषा को सम्मान नहीं देता वह दरिद्री उसे संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा कभी नहीं बनवा सकता .यह भी हिंदी के भकुओं को बेवकूफ बनाने का जुमला है .पहले यह काम कांग्रेस करती थी अब बीजेपी करती है .
दरिद्री उसे संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा नहीं बना सकता
संतोष जी ने हिंदी के दर्द को समझते हुए छिलाई की है।
जवाब देंहटाएंयह जरुरी भी थी। अखबारों में मौखिक सांस्कृतिक रपट लिखने वालों को उनकी इस कारीगरी से सीखना चाहिए। सैर -सपाटे पर निकले भांड,आर्य वीरों तथा अमर्यादित मुखोटों को इसे पढ़ कर .,शर्मशार होने की बेला में
आईना देखना चाहिए। यह कौन बेशर्म ,कुंठित कवि और
लेखक वहां रायता फैला कर गौरवान्वित महसूस कर रहा था,अब उन्हें चिह्नित कर देना बुराई नहीं है। लंदन में हांके गए हिन्दी के इस रथ की कभी वि. खरे जी ने ऐसी ही धुनाई की थी। इसे पढ़कर उस रपट की याद आ गई। बहुत से हनुमान वहां भी चालीसा के भार से मुक्त होकर इधर-उधर उड़ते फिरे थे।।
जनसत्ता में छपी वह रपट भी मार्के की थी और यह भी।
प्रताप सिंह ।।
धन्यवाद सन्तोष । विश्व हिंदी सम्मेलन कैसा था? आपकी इस रिपोर्ट को पढकर जाना जा सकता है। ऐसे सम्मेलन निश्चित ही अच्छे के लिए आयोजित किए जाते हैं, लेकिन हिन्दी प्रेमी शायद भूल गए हैं। काफी जानकारी शोध परक जुटाई है।
जवाब देंहटाएंबनने चली विश्व भाषा जो अपने घर में दासी
जवाब देंहटाएंसिंहासन पर अंग्रेजी है लख कर दुनिया हांसी. अटल बिहारी वाजपेयी
jb tk hindi ko rojgar se nhi judi jaygi,y bhash hashiy per hi rahegi
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.