भोपाल स्थित कला संस्थान 'विहान' के संस्थापक, फीचर फिल्मों के लेखक तथा डॉक्यूमेंटरी फिल्म निर्माण में
सक्रिय सुदीप सोहनी (29 दिसंबर 1984, खंडवा) की कुछ कविताएँ आपने
समालोचन में पहले भी पढ़ी हैं.
किसी स्थान या कृति को केंद्र में रखकर कविताएँ हिन्दी में पहले भी लिखी जाती रहीं
हैं, पर सम्पूर्ण संग्रह कम निकले हैं.
पिछले साल प्रकाशित प्रेमशंकर शुक्ल का ‘भीमबैठका एकांत की कविता है’ इसी तरह का संग्रह है. ग़ालिब की बनारस पर केन्द्रित कविताएँ ‘चिराग़-ए-दैर’
नाम से इसी वर्ष रज़ा फाउंडेशन और राजकमल ने प्रकाशित की है. मूल फ़ारसी से इसका
अनुवाद सादिक़ ने किया है.
सुदीप सोहनी की भीमबैठका को केंद्र पर रखकर लिखी ये
सोलह कविताएँ इसी तरह का एक प्रयास है. ये कविताएँ भीमबैठका के बहाने आदम की
बस्तियों के बसने का इतिहास भी बयाँ करती हैं. जिसे इतिहास भुला देता है उसे कविता
याद रखती है.
विचार और कॉन्सेप्ट नोट
मध्यप्रदेश स्थित
भीमबैठका पर्यटन व विश्व मानचित्र पर धरोहर के रूप में जाना जाता है. मानव सभ्यता
की उत्पत्ति से लेकर स्थापत्य और चित्रकला की लय में गुंथा भीमबैठका केवल एक धरोहर
न होकर कलात्मकता की अभिव्यक्ति भी करता है. ‘भीमबैठका’ पत्थरों के भीतर सोये पड़े इतिहास
की कहानी है. यह इतिहास पौराणिक भी हो सकता है, मिथकीय भी, और वैज्ञानिक भी.
प्रकृति से आदिम रिश्ते का सच भी यहाँ देखा जा सकता है और मिथकों का काल्पनिक
अनुभव भी. सभ्याताओं के इतिहास से गुज़रता ‘भीमबैठका’ एक लाख साल पहले के मानव
अस्तित्व को आज भी समेटे है. यह न केवल अद्भुत आश्चर्य है बल्कि भावातिरेक भी.
महाभारत के रूप में एक महान इतिहास भी यहाँ के पत्थरों में धड़कता है.
गद्य-कविता का यह आलेख
भीमबैठका की इन्हीं
अंतर्निहित ध्वनियों को खोजने का उपक्रम करता है.
(भोपाल स्थित भरतनाट्यम प्रशिक्षण
संस्थान प्रतिभालय आर्ट्स अकादमी के कलाकारों ने नृत्य गुरु मंजूमणि हतवलने के
निर्देशन में इस पर आधारित प्रस्तुति कुछ दिनों पूर्व ही भोपाल में दी है.)
रूपरेखा और कथ्य के महत्त्वपूर्ण बिन्दु
मानव सभ्यता की उत्पत्ति
स्थापत्य, चित्रकला और कलाबोध
पत्थर के भीतर सोया
इतिहास
- काल्पनिक
- मिथकीय
- ऐतिहासिक
- वैज्ञानिक
प्रकृति और आदिम रिश्ते
का सच
मिथकों का काल्पनिक अनुभव
भीमबैठका – इतिहास, स्मृति, मिथक, विज्ञान, पुराण
भीमबैठका
पत्थरों की पानीदार कहानी
सुदीप सोहनी
______________________
______________________
1)
लाखों साल पहले
धरती पर केवल
पानी था.
चारों ओर पानी
ही पानी.
सब कुछ जलमग्न
था.
सूरज उगता,
अस्त होता.
धरती पर केवल
पानी बहता.
मौसम तो कई
ऐसे भी हुए, कि
तापमान की कमी
के कारण
पानी बर्फ भी
बना.
चारों ओर बर्फ
ही बर्फ.
बर्फ और पानी
की इसी ठिठोली के बीच
काल ने इच्छाशक्ति
को जन्म दिया.
इसी
इच्छाशक्ति से दुनिया का पहला पत्थर बना.
बाहर से सख्त, भीतर से नर्म.
कहते हैं
पत्थर के भीतर के पानी और पानी के बाहर के पत्थर ने,
एक-दूसरे से
वादा किया था, हमेशा साथ रहने का.
पानी जब भी पत्थर
के भीतर, इधर से उधर दौड़ता तो पत्थर अपना रंग और सूरत बदल लेते.
धूप, ताप, सर्दी, गर्मी, बरसात,
बिजली, अकाल, प्रलय, विनाश, सृष्टि, उत्पत्ति
- किसी काल और
परिस्थिति में पानी ने पत्थर का साथ नहीं छोड़ा.
पानी और पत्थर
की इसी सृष्टि, प्रेम और सहवास से दुनिया के पहले जीव का जन्म हुआ.
2)
भीमबैठका की
यह कहानी लाखों साल पुरानी है.
हममें से कोई
भी नहीं था तब,
पर यहाँ के
पत्थर तब से हैं,
अब तक.
तब से अब तक
चुपचाप खड़े हैं.
अडिग. बगैर
बोले. मौन.
कोई इतना चुप
कैसे रह सकता है?
मगर, क्या ये वाक़ई
चुप हैं!
सर्दी, गर्मी, बरसात,
पतझड़, बसंत के
हज़ारों-हज़ार
मौसम देखे हैं इन्होंने.
जब धरती पर
चारों ओर पानी था,
तब भी थे ये.
और जब धरती पर
बर्फ की चादर ढँकी पड़ी थी,
तब भी थे ये.
बहुत समय के
बाद
जब पहली बार
कोई जीव पैदा हुआ था
तो पहली झलक
इन्होंने ही देखी थी.
फिर जीव से
मानव का अस्तित्व आरंभ हुआ,
उसे देखने
वाली पहली आँख भी ये पत्थर थे.
मानव को आग भी
इन्हीं पत्थरों ने दी और
रहने के लिए
छाँव भी.
किलकारी के
लिए पहला आंगन भी और
मौत के बाद
दफनाने की जगह भी.
यहीं मानव ने
पहला संसर्ग किया होगा और
यहीं अपनी
दुनिया बसायी होगी.
जब मानव ने
कुछ महसूस करना शुरू किया तो
इन्हीं पत्थरों से कहा.
इन्हीं की पीठ
पर उसने अपने मन की बातें कही.
हम आज तक इन
पत्थरों को
पत्थर ही कहते
आए.
पर सच तो ये
है कि इन पत्थरों ने
खुद को हमेशा
माँ और पिता ही माना.
क्या हम
इन्हें अब भी पत्थर ही कहेंगे ?
3)
हजारों, लाखों और
करोड़ों साल पहले क्या मानव सभ्यता थी?
इसे विज्ञान
के चश्मे से देखें या कल्पना के?
जीव और जीवन
की इस कहानी में
धरती की
उत्पत्ति को हम हो चुका मान लेते हैं.
यह भी कि नदी, पहाड़, समुद्र,
जंगल, आसमान,
पक्षी, पशु और मानव आ
चुके.
एक से दूसरा
और दूसरे से तीसरा, तीसरे से चौथा,
चौथे से
पांचवा और इस तरह कई जन्म होने लगे.
जन्म के साथ
ही हर एक को
विशिष्ट शरीर, आँख, नाक, कान, त्वचा मिलने लगे.
शुरू हुआ इस
तरह पृथ्वी पर जीवन.
जीवन के साथ रास्ते
खुले.
सुबह का सूरज
और रात का चाँद जैसे आता.
धूप, छाँव, शाम और रात
जैसे आती.
अकेलापन जैसे
छाता.
मन भी थोड़ा-थोड़ा
घबराता.
दिन पर दिन,ऐसे बीतने लगे.
जीवन में
अनुभव हर पल के जुड़ने लगे.
एक-एक दिन इस
तरह बीतता.
धरती पर जीवन
इस तरह खिलता.
एक बार की बात
है, मानव अभी जानवर ही था.
न बोलता था न
सुनता था.
केवल घुनघुन
करता रहता था.
उसका एक ही
काम था.
सुबह उठना, दिन भर घूमना,
भूख लगने पर
भोजन की खोज करना,
कुछ मिलने पर
भूख शांत करना,
फिर सोना, फिर उठना.
मानव अब अपने
में
परिवर्तन
महसूस कर रहा था.
एक बार भोजन
की तलाश में
उसका सामना
जानवर से हुआ.
दोनों देखने
में एक जैसे.
रहन – सहन में
भी एक जैसे.
एक दूजे के
सामने आने से डर गए.
शिकार कौन
किसका बना,
यह तो हुई अलग
बात
पर बुद्धि ने मानव को
उसकी अलग जाति
के बारे में चेताया.
समय के साथ मानव
के
स्वरूप में
बदलाव आया.
पैरों को उसने
हाथ बनाया,
रीढ़ के बल
सीधे खड़ा होना उसे आया.
निकल पड़ा होगा
मानव तब से,
जंगल के बाहर.
जंगल में रहने
वाले कई और मानव भी,
ऐसे ही निकल पड़े होंगे.
कहीं एक दूजे
से मिले होंगे.
आगे-पीछे होने
की जुगत में,
एक दूजे को
पहचानने की जुगत में,
कुछ निशान
कहीं छोड़े होंगे.
भटकते हुए,
जानवरों से
बचने के लिए,
अंधेरे से
बचने के लिए,
धूप, गर्मी, बरसात से
बचने के लिए
किसी पत्थर के
नीचे टिके होंगे!
5)
भटकते-भटकते
शायद पत्थरों
के नीचे, छुपने और
रहने के आश्रय
उन्होंने खोजे होंगे.
कुछ यूं ही
मिले होंगे,
कुछ उन्होंने
बनाए होंगे.
नदियों के
किनारे शायद, ऐसे जंगल होंगे
जहाँ कुछ
पत्थर, पानी और पेड़ यानि भोजन भी हो.
जब चाहें वे
इनमें छुप जाएँ.
जब चाहें निकल
आयें.
अपनों के साथ
रहें.
सुरक्षित और
आबाद रहें.
पत्थरों को
ढूंढते, काटते-छाँटते
ऐसे ही किसी
ठिकाने पर
किसी ने पहली
बार
किसी पत्थर को
किसी पत्थर से रगड़ा होगा.
आग निकली होगी.
और फिर, आग पैदा करने
की यह इच्छा
भीतर से बाहर
निकली होगी.
शुरू हुआ होगा
एक डर,
जिसने बाद में
खेल का रूप ले लिया होगा.
पत्थर से किसी
लकड़ी में आग लगी होगी
जिसने रात में
उजाला किया होगा.
कोई जानवर डरा
भी होगा.
कोई जंगली फूल
और फल इसमें,
गिर कर अपने
रूप से बदला भी होगा.
मानव बुद्धि
ने इन दोनों ही परिवर्तनों को समझा होगा.
यानि ताकतवर
जानवर डर सकता है और
उसका मांस या
और कुछ भोजन इसमें पक सकता है.
बुद्धि ने आगे
बढ़ने की राह ढूंढ ली.
भोजन का स्वाद
मनुष्य ने पहचाना.
आग को पैदा
किया.
रहने के आश्रय
ढूँढे.
अब उसके भीतर
खोज की इसी प्रवृत्ति ने
बहुत कुछ ढूँढने की ठान ली.
अगला क़दम, जानवर को
काबू करने का था.
जैसे ही उसने
मशक़्क़त के बाद
किसी एक को
काबू किया,
फिर तो एक के
बाद दूजा, दूजे के बाद तीजा....
इस तरह अपनी
ताक़त को बढ़ते देखा.
जानवर अब साथ, मगर काबू में
रहने लगे.
शिकार उसी पर
चढ़ कर होने लगे.
भोजन भी पकने
लगा.
आग से बहुत
कुछ सुंदर होने लगा.
अब मन उसका
प्रफुल्लित हुआ.
नाचने वह लगा.
खोज ली उसने
चिड़ियों, पक्षियों, जानवरों,
पत्थर से
पत्थर रगड़
और
नदियों के
पत्थर से टकराने गिरने,
बादल की
गड़गड़ाहट की आवाज़ें.
इन्हीं आवाज़ों
की नकल की.
मन की आवाज़ भी
सुनी होगी.
खुशी और दुख
के भाव भी.
पहला शब्द
निकलने के बाद वह रोया था.
इसके बाद तो
वह खूब झूमा,
खूब नाचा,
खूब मज़े से.
रात भर, दिन भर.
7)
फल-फूल को
डालने और निकालने में
उसके हाथ आग
में जलते थे.
लकड़ी काटने
में मुट्ठियों के वार भी कम पड़ते थे.
पत्ते-फूल-मांस
को मथने में
घुटने छिलते
थे.
फिर उसने
बुद्धि लगाई.
पत्थर के नीचे
मिट्टी, कंकड़, राख़,
हवा, पानी से एक
धातु पाई.
भीतर की
इच्छाशक्ति से ठोस उसे बनाया.
उसे ही तपाया, गलाया.
लोहा इस तरह
उसने पाया.
यह लोहा उसका
साथी बना.
पकड़ भी ऐसे ही
बनी.
लोहे से
मिट्टी को आकार वह देने लगा.
और इस तरह जीवन
गढ़ना शुरू हुआ.
8)
सुविधा जीवन
की ऐसे बढ़ने लगी.
इच्छाओं ने नए
रूप लिए.
परिवार और
समूह बनने लगे.
पुकार और
आवाज़ों में अलग-अलग स्वर गूंजने लगे.
भोजन की खोज
में अब धातु भी जुड़ गई.
और फिर एक दिन
चाक पर मिट्टी गूँथी गई.
पहिया इस तरह परिवार
में शामिल हुआ.
अब हर मौसम
में चल सकने वाला चाक भी जुड़ गया.
पुरुषों ने
भोजन और जीवन का बाहरी स्वरूप अपने हाथ लिया.
महिलाओं ने उस
धड़ के बीतर धड़कना शुरू करते हुए
पत्थरों से
कुछ कहना शुरू किया.
आँगन को
बुहारा,
पत्थर को
सजाया.
बच्चों की
किलकारियों को सँवारा.
पहला चित्र और
संगीत जीवन से इसी तरह आया.
9)
भीमबैठका की
कहानी यहीं कहीं छुपी हुई है.
ऐसे ही किसी
मानव के पास.
या उसके समूह
के पास.
उसकी
स्त्रियों के पास.
उसकी सुविधाओं
के पास.
उसके आविष्कारों
में दबी हुई है.
उसकी इच्छाओं
में कहीं खोई हुई है.
उसके भरपूर
सृजन का गवाह है भीमबैठका.
उसकी भयावह
निराशाओं का साक्षी भी.
उसकी
परेशानियों को इन पत्थरों ने दूर से देखा है.
उसकी तकलीफ़ों
को अपने भीतर पिरोया है.
भीमबैठका ने
उसके प्रेम को जगह दी.
पहली हूक और
कूक,
मादकता और गंध
भी समेटी.
ये पत्थर हँसे
भी, रोये भी.
गवाह हैं
लाखों सालों के.
पहली बारिश के, पहली धूप के.
अँधेरे और
उजालों के.
पत्थरों का मन
भी पिघला होगा, जब
कोई मानव दहाड़
मार कर
चुपचाप रोया
होगा.
10)
बरसों पुरानी
बात है.
कभी भीम जैसा
विशालकाय मानव
समस्त मानव
प्रजाति का दुख छुपा कर,
सारा आक्रोश
और समुंदर बराबर आँसू लेकर
यहीं सबसे
पहले निराशा में रहा था.
वह अपनी
स्त्री द्रोपदी को अपमान से भरा और
मुरझाया हुआ
नहीं देख पाता था.
भीम शायद
इन्हीं पत्थरों से कहता होगा !
अपनी मुट्ठी
से अपना आक्रोश इन पत्थरों पर धरता होगा.
किसी पत्थर को
उठा कर पटक देता होगा.
किसी पेड़ को
पानी की तरह चकनाचूर कर देता होगा.
भीतर की
हलचलों को भीम
यहीं भस्म
करता होगा.
यहीं द्रोपदी
ने
भीम की
बेचैनियों को
तड़प की शक्ल
में देखा होगा.
इन्हीं पत्थरों
पर उसने अपने
खुले केशों को
रखा होगा.
ये पत्थर आज
भी उस स्पर्श,
तड़प और गुस्से
को जानते होंगे.
नहीं विश्वास
तो
कछुए से पूछो!
जो आदि काल से
इन सबका गवाह रहा है.
11)
समुद्र मंथन
के समय, जब
देवता और असुर
संग्राम का दृश्य था.
तब कछुए की पीठ
पर कल्पवृक्ष धरकर ही सागर को मथा गया था.
एक ओर देवता
और दूसरी ओर दानव
यानि
एक ओर सृष्टि
और दूसरी ओर संहार.
एक ओर जीवन, दूसरी ओर
मृत्यु.
एक ओर सृजन, दूसरी ओर
विनाश.
यह कछुआ,
जो भीमबैठका की कुंडली पर बैठा है,
देख रहा है समय को,
अंतहीन समय से.
देखता रहेगा,
अंतहीन समय तक.
कल्पवृक्ष भी
तमाम इच्छाओं के साथ
पेड़, पौधे, वनस्पति,
कंद-मूल, जड़ी, बूटी
के रूप में
धरती पर फैल गया.
यह सृजन की
शक्ति का स्त्रोत है.
जब केवल पत्थर
थे और धरती थी,
यह कछुआ तब भी
था.
यह जड़ियाँ तब
भी थीं.
ओ भीमबैठका की
आदिम संजीवनियों,
कुछ तो कहो
हमसे इन पत्थरों के बारे में?
संसार के पहले
मनुष्य के बारे में ?
12)
हम भीम तक हो
आये.
द्रोपदी की
मुस्कान और आँसू ढूँढ लाये.
यहीं बैठे-बैठे, कछुए ने
उस मानव से
किसी दिन यह
सब कुछ
कहा होगा
और
उस दिन के बाद
से, शायद
कछुआ
हमेशा के लिए
चुप हो गया होगा.
13)
इन पत्थरों को
मानव ने
अपनी तरह
देखना शुरू किया.
कहीं
भीम-द्रोपदी,
कहीं
शिव-पार्वती,
कहीं
मानव-मानवी.
मनुष्य की
हथेली ने, जो भी
जीवन में सहा,
इन पत्थरों को
दिया.
औज़ार और
हथियार,
आँसू और
मुस्कान,
शब्द और मन की
आवाज़, इन
पत्थरों पर
रची.
जैसे ढोल
बजाते नाचना.
नाचना और गाना.
शिकार पर जाना.
तीर कमान और
भाले बनाना.
जानवर पर चढ़ना.
पत्थरों को
खोजना.
हाथ फेरना. उ
न्हें सुनना.
उन पर सोना.
उन पर जागना.
दिन भर, पत्थर और
नुकीले औजारों से
अपना सब कुछ
इनसे कहा होगा.
और फिर यही सब
करते, कहते, सुनते,
इन्हीं पत्थरों की गोद में दफन हुआ होगा.
14)
पर उसके पहले
भी,
एक खिलन्दड़
जीवन बीच में है.
किसी पेड़ की
डाली पर छड़कर,
कभी फुदककर, कभी लचककर,
किसी झूलती
डाली को पकड़कर,
किसी कंधे पर पैर
रख कर,
कभी लड़कर, कभी प्रेम
में बहकर,
कभी डर कर,
कभी सहम कर, लड़खड़ाकर,
ज़िद कर, खुशी में झूम
कर,
मद में चूम कर,
जब इस पत्थर
को
उसने छुआ होगा
तो
पत्थर अपने आप
ही
खुशी से रो
पड़ा होगा.
तब शायद, पत्थर ने
बोलना सीखा होगा
और मनुष्य ने
सुनना.
प्रेम का जन्म
हुआ होगा.
और तब पत्थर
के भीतर से एक कली
चुपचाप फूट
पड़ी होगी, हरी भरी.
लचकन से भरी.
ज़िद की कोई झीर-सी.
सुंदरता ने तब,
घेर लिया होगा
भीमबैठका को
इस तरह चारों ओर से.
15)
ऋतुओं ने भी
सब कुछ लुटाया होगा.
पहली बारिश के
बाद पहली गंध बारिश की,
यहीं कहीं
होगी.
पहला बीज और
पहला फूल भी,
यहीं कहीं
खिला और अंकुरा होगा.
पहला वसंत
यहीं कहीं ठहरा होगा.
जीवन के सृजन
का हर बिन्दु,
इन्हीं पत्थरों के भीतर कहीं दुबका होगा.
ओ पत्थरों,
ओ अपने भीतर
नदियों को समो
लेने वाले जीवन के चित्रकारों,
ओ दुनिया के
पहले छायाकारों
क्या बताओगे
कि
पहले पहले
जीवन की
कौन-कौन सी
अनुभूतियों को
अपने भीतर
जज़्ब किए हुए हो तुम?
16)
क्या ऐसा कोई
क़िस्सा बचा होगा
जो तुमने न
सुना हो ?
या कोई दृश्य,
जो तुमने न
देखा हो ?
भीमबैठका,
तुमने मानव
सभ्यता की
आदिम हरकतों
को देखा होगा.
और बदलते हुए
समय को भी.
कितने चित्र
बने होंगे.
कितने फिर से
बने होंगे.
कितने एक के
ऊपर एक बने होंगे.
कितने मिटे
होंगे.
कितने केवल
इच्छाओं में दबे रहे होंगे.
तुम सब जानते
हो.
धरती से आकाश
और पाताल तक,
आग से हवा तक
और राख़ तक,
पानी और अकाल
तक,
पुराण से
स्मृति,
आदिम से नगरीय
तक,
कला से कहने
की बेचैनी तक तक
सब कुछ...
सब कुछ...सब
कुछ!
क्या हमें वो
सब फिर कहोगे?
या अगर हम तुम
तक आते रहेंगे तो
क्या हमको उन
कहानियों के रास्ते दोगे
जो हमने न
सुनी, न देखी, न पढ़ी,
पर फिर भी
विश्वास है कि
इस धरती पर
तुम्हारे रहते
कुछ तो ऐसा
घटा है
जो असंभव से
भी अधिक संभव है,
अदृश्य के भी
परे है पर,
फिर भी कहीं
ध्वनित है,
साँस ले रहा
जीवित है.
तुम बोलो तो,
हम बार-बार
यहीं उसे
अपने तरीकों
से,
महसूस करने की
कोशिश करेंगे.
तुम न बोलोगे, तब भी
सुनने की
कोशिश करेंगे.
तुम्हारे साथ
हर बार
पीछे चलने की
कोशिश करेंगे.
ओ संसार के
पहले बिछौनों,
ओ संसार के
पहले झूलों,
ओ दुनिया के
पुरखों
हमें भी अपने
आँचल की छाँव दोगे न,
हर बार.
बोलो, बोलो न!
(समाप्त)
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जगदीशचन्द्र माथुर और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंसरलता से सजीवता की अनुपम रचना।।
जवाब देंहटाएंबहुत बधाई।
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