२००५ में आई. आई. टी. दिल्ली
से रासायनिक अभियांत्रिकी में स्नातक प्रचण्ड प्रवीर हिंदी के बेहद संभावनाशील लेखक
हैं. विश्व सिनेमा को भरत मुनि के रस सिद्धांत के आलोक में विश्लेषित करती उनकी
पुस्तक ‘अभिनव सिनेमा’ ने आलोचकों का ध्यान अपनी तरफ खींचा है. उनके उपन्यास ‘अल्पाहारी गृहत्यागी’ तथा कहानी
संग्रह ‘जाना नहीं दिल से दूर’ ने बौद्धिक सघनता और नवाचार से हिंदी जगत को
विस्मित किया है. वह अंग्रेजी में भी लिखते हैं.
प्रस्तुत कहानी ‘वृश्चिक
संक्रान्ति’ आई.आई.टी. के छात्रों और बिगड़ैैल वार्डन के बीच की आपसी कथा भर नहीं
है. यह उच्च शिक्षा संस्थानों में सुनियोजित ढंग से हो रहे भीतरी आक्रमण का सच्चा
और आँखें खोल देने वाला वृतांत है. यह कहानी दिलचस्प तो है ही इसकी एक गहरी वैचारिक
तैयारी भी की गयी है.
यह कहानी समालोचन के पाठकों
के लिए ख़ास तौर पर.
लम्बी कहानी
वृश्चिक
संक्रान्ति
प्रचण्ड प्रवीर
सोमवार होने के कारण मैं और सुबह उठ कर जल्दी तैयार हो गया. 8 बजे की क्लास के लिए सवा सात बजे तक नाश्ते के लिए मेस पहुँचना होता है, ताकि उसके बाद पैदल इंस्टिट्यूट समय पर पहुँचा जा सके. कुछ प्रोफेसर देर से आने वालों के लिए बड़े सख्त होते हैं. पर मेरी साइकोलॉजी की प्रॉफेसर बड़ी दयालु थीं. हमेशा कि तरह मैं समय पर पहुँच गया. जहाँ बहुत से लोग खेलने-कूदने, नाचने-गाने, ड्रामा-डिबेट में लगे थे, वहाँ मेरी अभिरुचि पुस्तकों में थी. इंस्टिट्यूट की बड़ी लाइब्रेरी में मैं साहित्य की किताबें पढ़ता रहता हूँ. हॉस्टल में भी अलग सा पुस्तकालय है, जिसमें किताब लड़कों की अभिरुचि से मंगायी जाती है, जिसके लिए वार्डन की सहमति जरूरी होती है. मुझे मानविकी विभाग के कक्षाएँ बहुत पसंद हैं. इसमें थर्ड ईयर और कभी-कभी फोर्थ ईयर वाले भी हुआ करते हैं. इंजीनियरिंग की तुलना में यह मुझे बहुत रोचक लगता है. आज का लेक्चर बहुत शानदार रहा.सुबह के तीन लेक्चर के बाद दोपहर के लिए खाने के लिए आना हुआ. इसके बाद दो बजे से एक-एक घंटे के दो ट्यूटोरियल क्लास थे, लेकिन दोनों ही आज रद्द थे.
बारह बजे के आस पास इंस्टिट्यूट से लौटते हुए शैलेश और मैं साइकोलॉजी के क्लास में हुयी बहस को याद करते हुए बहस कर रहे थे. बहस के दौरान शैलेश ने एकदम से पूछा, “तुम ‘आर्ट आफ लिविंग’ ज्वाइन करने के बारे में सोच रहे हो क्या?”
“एकदम नहीं. मेरे हिसाब से यह पैसे लूटने का एक तरीका है.”
“कुछ बोलो, उसे हर बात में कोई न कोई तकलीफ़ हो जाती है. रूम में ताला न लगा हो तो फाइन, गलती से रूम के अंदर लाइट जलती रह जाए तो दो सौ रूपए फाइन, पंखा चलता रह गया तो पाँच सौ रूपए फाइन, रूम में टेपरिकॉर्डर बजाओ और अपना वार्डन चौकीदार की तरह गश्त लगाता हुआ आएगा और टेपरिकॉर्डर उठा कर ले जाएगा. छुड़ाने के एवज में पाँच सौ रूपए का दण्ड भरो. अगर कोई कॉरीडोर पर सिगरेट पीते हुए पकड़ा जाए तो हज़ार रूपए का फाइन. हम लोग यहाँ पढ़ने आए हैं या जेल में सजा काटने?”
“बिलकुल ठीक कर रहा है वार्डन. हमारे यहाँ हुड़दंगी लड़के बहुत जोर से गाना बजाते हैं. पहली बात है कि सिगरेट पीना खराब बात है. अगर पीना भी है तो अपने रूम में पियो. क्या तुम नहीं मानते कि हमारे कॉलेज में अधिकतर लड़के नैतिक रूप से गिरे हुए हैं. उन सब के लिए वार्डन का डण्डा होना बहुत ज़रूरी है.”
“हद है. परेशां हूँ कि क्यूँ मेरी परेशानी नहीं जाती, लड़कपन तो गया मगर मेरी नादानी नहीं जाती. मैं परेशान रहता हूँ कि मेरे ग्रेड कम आते हैं. इसलिए परेशान रहता हूँ कि समझ नहीं आता ज़िन्दगी में आगे क्या करूँगा? पढ़ना लिखना इतना बड़ा बोझ लगता है. हम चाहते हैं क्या है? नौकरी? मतलब किसी के हाँ में हाँ मिलाते हुए काम करते रहो, अपने मन का कुछ न करो.“
सोमवार को कॉन्टिनेन्टल खाने का मेनू होता था. मतलब मेस में बनाया देसी पिज्ज़ा और बाज़ार से मंगायी सस्ती पेस्ट्री. बाकी दिन मेस के खाने को सभी गाली दिया करते थे, पर सोमवार के खाने के लिए बहुत से लोग उतावले हुआ करते थे. मेस में 7 बजे 8:30 तक खाना मिला करता था. शैलेश और मेरा प्लान था कि डिनर कर के फ़िल्म देखने के लिए इंस्टिट्यूट के मल्टी स्टोरेज बिल्डिंग की तरफ़ डोगरा हॉल (जिसे कॉन्वेकेशन हॉल भी कहते हैं) में जाएँगे. शाम में 06:30 के आस-पास अचानक लाइट चले जाने के कारणजब शैलेश और हमयूँ ही घूमने के लिए नीचे आ गए,हमने रिसेप्शन के पास ही लड़कों का हुज़ूम उमड़ा हुआ देखा. किसी अनिष्ट की आशंका से मैं उस उबलती भीड़ के पास जा कर अपने ईयर के लड़कों से पूछा, “क्या हुआ?”
“माइकल जैक्सन ने फर्स्ट ईयर के गौरव कटारिया की पिटाई कर दी.“
अशोक ने कहा, “मैं वहाँ था. थप्पड़ लगने से कटारिया कोने में गिर गया, तब भी वार्डन रुका नहीं और उसके पेट पर तीन लात लगा दिए!”
थर्ड ईयर और फोर्थ ईयर के सीनियर कुछ मंत्रणा कर रहे थे. हॉस्टल में ऐसी सरगर्मी पिछले साल 9/11 के हमले के बाद देखी थी.ठीक इसके बाद डिनर शुरु हुआ. खाना खा कर के शैलेश के साथ मैं डोगरा हॉल (कॉन्वेकेशन हॉल) की तरफ़ निकल गया. वहाँ 1925 की रूसी फ़िल्म ‘द बैटलशिप पोट्मकिन’ दिखायी गयी. फ़िल्म में नाविकों को ज़ुल्मों का बगावत देख कर मैं अजब से जोश में भर गया.
ऐ फ़लक ऐसा भी इक दिन आएगा
कुछ न कहना ‘शाद’ से हाल-ए-ख़िजाँ
(तीन)
23 अक्टूबर 2002 : दीवान-ए-ग़ालिब
“हिन्दुस्तान में जहाँ फर्ज़ी की डिग्री मिल जाती है, कितना आसान है ऐसे फालतू के नम्बर ले आना. अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग तरह से नम्बर आते हैं, कहीं सत्तर-पचहत्तर प्रतिशत ही अधिकतम नम्बर आते हैं. इस तरह तो राजस्थान और बिहार के लड़के कभी आइआइटी नहीं आ पाएँगे. कोई अंग्रेजी में कमजोर है, पर गणित में बहुत अच्छा है. ऐसे तो मेहनत करने वाले लड़के और रियल टैलेंट वाले लोग कभी आ ही नहीं पाएँगे. दरअसल यहाँ प्रोफेसरों का माइंडसेट ऐसा है कि इलीट स्कूल के लड़के ही यहाँ पढ़ें. और इलीट घर के लड़कों की आँखों में देखो कि किस तरह गरीब घर के लड़कों को उनकी निगाहों से धिक्कारा जाता है.“
“कब की पढ़ ली. ठीक है. मुझे बहुत पसंद नहीं आयी. सेना का मज़ाक उड़ाया गया है, चलता है. लिखा हुआ बहुत पसंद नहीं आया. एक तरह के जोक़ बार-बार रिपीट हो रहे थे. एक बात की दाद देनी पड़ेगी. इस किताब से ऐसा समझ आता है कि डिसीप्लिन के नाम का स्वांग का पूरा मॉडल सेना से उठ कर आया है.“
“तुम खुद इतने डिसीप्लिन्ड हो, तुम्हेँ डिसीप्लिन पसंद नहीं?”
“वार्डन डिसीप्लिन की बात नहीं करता है. रुल्स लागू करने के लिए फाइट मारता है. उसको जो काम मिला है, वो करने की कोशिश कर रहा है.“ सूखा पाला बदल कर जवाब देने लगा, जब कि मैं जानता था कि वो भी माइकल जैक्सन से बहुत चिढ़ता है.
करीब साढ़े पाँच बजे जब पब्लिक अनाउँसमेंट हुयी, सभी लोग मेस में इक्कट्ठा होना शुरु हुए. मेस खचाखच भर चुका था. माइकल जैक्सन सिर झुकाए एक कोने में बैठा था. उसके साथ जोश में भरे हुए डीन और हाउसमास्टर बैठे थे. तभी ख़ामोशी से आ कर डायरेक्टर वहाँ कर बैठ गए. हमने पहली बार डायरेक्टर को रूबरू देखा था. खुशहाल अग्रवाल और बाकी सेक्रेटरी से उनके सवाल जवाब हो रहे थे. डीन आफ स्टूडेंट ने खड़े हो कर हम सबों को सम्बोधित किया, “आज डायरेक्टर साहब हमारे बीच में हैं. इन्होंने अपनी बिजी शेड्यूल से हमारे लिए समय निकाला है. हमें उम्मीद है वे आपकी समस्या का समाधान करेंगे और आप लोग निष्पक्ष हो कर अपनी बात रखेंगे. जिस किसी को भी कुछ कहना है, वो बारी-बारी से अपनी बात कहे.“
बहुत से हाथ खड़े हो गए. खुशहाल अग्रवाल ने फर्स्ट इयर के एक लड़के की तरफ़ इशारा कर के कहा, “तुम बोलो.“
डायरेक्टर ने कहा, “मुझे बहुत दु:ख है मुझे आप लोग से मिलने का समय नहीं मिल पाता.आज आया भी हूँ तो शिकवे-शिकायत सुनने के लिए. मेरे लिए यह कितना बड़ा क्षण है कि जहाँ मैं पढ़ा, जहाँ से मैंने नौकरी की और जहाँ आज मैं डायरेक्टर हूँ; उस संस्थान को अब अखबारों में झूठ-मूठ में बदनाम किया जा रहा है. मैं इस को जस्टीफाइ करने नहीं आया हूँ. मैं इस समस्या को सुलझाने आया हूँ.“
थर्ड इयर के अनिल ने कहा, “सर, जब हम परसा आप के पास शिकायत ले कर आपके पहुँचे तो आपने कटारिया की गलती बतायी. आपने कहा कि जब वार्डन थप्पड़ मार रहे थे तो कटारिया पीछे क्यों हटने लगा? पीछे ईंट थी, अगर ईंट उसके सिर पर लगती, चोट आ जाती तो कौन जिम्मेदार होता? हम यह कहना चाहते हैं कि पिटते वक्त आदमी को होश नहीं रहता कि आगे-पीछे खाई है या नहीं.“
डीन कुछ कहने को हुए, तभी किसी और ने कुछ कहना शुरु किया. हाउस सेक्रेटरी खुशहाल अग्रवाल ने आवाज़ लगाई, “सब एक साथ नहीं बोलें. एक-एक करके.“डीन ने भीड़ को शांत कराते हुए जोर से कहा, “एक मिनट, एक मिनट! तुम लोग को यह पता है कि गौरव कटारिया के घर में यह बात पता चली तो उसके माता-पिता ने क्या कहा?”
मेरे दोस्त सूखे को न जाने कौन सा जोश आ गया, उसने फट से चिल्ला कर कहा, “सर, मेरे घर में मेरे पिता जी ऐसे ही बात किया करते हैं.“डीन की आँखेंफड़क गयीं. उसने आवाज़ कम कर के कहा, “ओह... सच में? यहाँ कितने लोग ऐसे हैं जिनके घर में उनके माँ-बाप ऐसे गाली दे कर उनसे बात करते हैं? अपने हाथ खड़े करो.”
फिर डीन ने गिनना शुरु किया, “एक.. दो.. चार.. आठ नौ... ओह .. तुम सब मिल गए हो.. सब ने हाथ खड़ा कर दिया. (हँस कर) पूरे हॉस्टल के चार सौ लड़के .... अच्छा.. हम सब समझते हैं कि तुम सब मिल कर झूठ बोल रहे हो. किसी के घर में ऐसे कोई बात नहीं करता और तुम लोग यहाँ एकता दिखा रहे हो.“
तभी फोर्थ इयर के निशांत पोद्दार ने कहा, “सर, गाली की ही बात है तो यह दोहरी नीति है. मेरे एक ट्यूटोरियल में एक प्रोफेसर ने गाली दे कर मुझे कहा कि तुम्हें चप्पल से मारूँगा. आपको याद होगा कि पिछले साल मैंने इस सिलसिले मेंआपसे शिकायत भी की थी. आपने मुझे टरका दिया कि वो बहुत प्यार से पढ़ाते हैं. उनका ऐसा लहज़ा है. आज वार्डन की गलती सामने है तो आप मान नहीं रहे हैं?”
“वो दूसरी बात है. उस बात को यहाँ मत लाओ. उस के लिए हमने अलग बातचीत की है.“ कह कर डीन ने कन्नी काटी.
इस के बाद सेकेण्ड ईयर के नागराज ने डायरेक्टर से कहा, “आप हम सबकी हालत सुन ही रहे हैं. वार्डन की मुआफ़ी काफ़ी नहीं है. हमें इनसे आजाद कर दीजिए. जब तक आप ऐसा नहींकरेंगे, मैं यहाँ खाना नहीं खाऊँगा.“
डायरेक्टर ने कहा, “बेटे, तुम्हारा नाम क्या है?” फिर डीन से बोले, “मुझे इसके माँ-बाप से बात करवाइए.“ इतने भीड़ में मैं डायरेक्टर से कहना चाहा, “सर, मुझे भी कुछ कहना है?”
तुला
इस अफ़साने को बयान करने में तमाम तरीके की मुश्किलात हैं. अव्वल तो ज़बान की, जो कभी तत्सम-तद्भव शब्दों से गुज़रती, फारसी-रेख़्ते
लफ़्जों के पास फटकती, अंग्रेजी से हाथ मिलाते हुए अपनी
जगह बनाने की कोशिश में हैं. लेकिन ये मुश्किल बहुत सी सामाजिक पृष्ठभूमि, परिवेश, घटनाओं के मिलने जुलने के कारण है. जो
मैं कहानी सुनाने जा रहा हूँ, उसके लिए मुझे यही भाषा
अनुकूल लगी.
एक समय था जब कहानी का मतलब ‘गल्प’ ही समझा जाता था. बच्चों की बात और है, शायद ही किसी
सयाने को सिन्दबाद जहाज़ी या अलादीन के चिराग के हक़ीक़त में कोई दिलचस्पी रही होगी.
अब माज़रा बदल गया है. लोग-बाग सुनने-पढ़ने से पहले ही पूछ लेते हैं कि यह
कहानी-अफ़साना जो भी आप कह रहे हैं क्या वह आपबीती है? ये बड़ा पेचीदा मुआमला होता जाता है.
हमारी समझ से पूरी दुनिया एक ही है. हम ही पत्थर, हम ही दरिया, हम ही पंछी, हम ही नदियाँ; इसलिए हर कुछ आपबीती है. ऐसा नहीं भी हो तो भी हम ऐसा मानते हैं क्योंकि कहा गया है कि जो ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का जाप करता रहता है, एक दिन स्वयं ब्रह्म बन जाता है. जो लोग अद्वैत दर्शन से इत्तेफाक़ नहीं रखते, वो हमारी बात पर झुँझला के पूछते हैं कि सीधे-सीधे से बताइए आपके साथ ऐसा हुआ था या नहीं? इस अफ़साने में जो तारीख़ें हैं, वो क्या सच हैं? जो किरदार हैं, वो क्या सच में हैं? जो सवाल-जवाब हैं, जो विचार-विमर्श है, उन सबकी हक़ीक़त क्या है?
गंभीर पाठकों को ऐसे सवालों के जवाब के लिए उपनिषदों के इन श्लोकों को पढ़ना
चाहिए -
तानि ह
वा एतानि त्रीण्यक्षराणि सतीयमिति तद्यत्सत्तदमृतमथ यत्ति तन्मर्त्यमथ यद्यं
तेनोभे यच्छति यदनेनोभे यच्छति तस्माद्यमहरहर्वा एवंवित्स्वर्गं लोकमेति ll
- छांदोग्य
उपनिषद्..8.3.5..
सत्य तीन अक्षरों से बना है – स, ती और यम. जो ‘स’ है वो सत् यानी अमृत या अमर को बताता है, जो ‘ती’
है वो मर्त्य या मरणशील को बताता है, और यम इन दोनों को बाँधने का सङ्केत है. चूँकि अमृत और मर्त्य का युग्म सम्भव
है, इसलिए यह संतुलन ‘यम’ है. जो यह जानता है वह प्रतिदिन स्वर्ग पहुँच सकता है.
तदेतत्
त्र्यक्षरँ सत्यमिति स इत्येकमक्षरं तीत्येकमक्षं यमित्येकमक्षरं प्रथमोत्तमे
अक्षरे सत्यं मध्यतोऽनृतं तदेतदमृतमुभयत: सत्येन परिगृहीतं सत्यभूयमेव भवति नैनं
विद्वाँ समनृतँ हिनस्ति ll
- बृह्दारण्यक
उपनिषद् ..5.5.1..
वह सत्य तीन अक्षरों से बना है. ‘स’ पहला अक्षर है, ‘ती’ एक अक्षर है, ‘यम’ एक अक्षर है. पहला और आखिरी अक्षर सत्य है और मध्य का अक्षर अनृत (झूठ) है. इस तरह झूठ दोनों तरफ़ सच से घिरे होने के
कारण, उसमें भी सत्य का ही आधिक्य है. जो ऐसा जानता है उसे अनृत (झूठ) नुकसान नहीं
पहुँचाता.
यह मुझे पता नहीं कि सत्य की ऐसी व्युत्पति महान वैयाकरण और व्युत्पतिकार ‘यास्क’ ने अपने निघण्टु (निरुक्त)में की है अथवा
नहीं. क्या यह एक काव्यात्त्मक अभिव्यक्ति है, जो कि बहुत कम
ही सीधे-सीधे सच से जुड़ी होती हैं. बहरहाल, सरल शब्दों
में इस कहानी के सन्दर्भ में कहें तो कुछ ऐसी बातें हैं जो बिल्कुल सच हैं और
झूठलायी नहीं जा सकती. कुछ ऐसी बाते हैं जो कि सच नहीं है, पर सच बिना इस कल्पना की चाशनी में लिपटे बिना आपके सामने आ भी नहीं सकता. हम
जानते हैं कि शुद्ध आक्सीजन भी मानव शरीर को ग्राह्य नहीं होता.
फिर भी अगर कोई जिद करने लग जाय कि ये कहानी जो विवादास्पद है, जिससे किसी की साख पर बट्टा लग रहा है, किसी को गड़े
मुर्दे के उखड़ने का भय है; क्या यह कहानी मेरी खुद की है?ऊपर के श्लोकों के बावजूद न समझने वाले जिद्दियों के लिए मैं यह स्वीकार कर
लेना ठीक मानता हूँ कि यह कहानी सच है और इसकी सत्यता की जाँच-परख करना पाठकों पर
छोड़ दिया गया है. सीधे-सीधे कह दूँ कि गल्प है तो आप न मानेंगे. सच कबूल करने पर
भी आप न मानेंगे. इसलिए किसी एक उत्तर को चुन कर आगे बढ़ते हैं.
यह कहानी है हमारे कॉलेज जीवन में हुयी एक उल्लेखनीय घटना की. यह कहानी है नीलगिरि छात्रावास के मेस बॉयकॉट की, जिसे हम आज तक भूल नहीं पाते. इस कहानी के खलनायक (या कहूँ प्रतिनायक?) थे हमारे हॉस्टेल की वार्डन ‘माइकल जैक्सन’, तत्कालीन डायरेक्टर ‘तेजपाल सिंह बटरोही’ और अन्य प्रतिष्ठित लोग जो कभी परदे के बाहर कभी न आए. इस कहानी के नायक हैं मेरे दोस्त- मेरे सहपाठी, मेरे हॉस्टेल मेट, जूनियर और सीनियर - वे सभी जिन्हें आज भी यह कहानी बिल्कुल शीशे की तरह साफ याद है.
मैं इस कहानी के साथ न्याय करना चाहता हूँ. क्योंकि ‘यम’
ही ‘स’ और ‘ती’
का संतुलन करता है. इस उपयुक्त संयोजन का भार मैं अपने ऊपर
ले कर सूत्रधार के रूप में खुद को पीछे धकेल रहा हूँ. पाँच दिन की कहानी मेरे पाँच
मित्रों की जुबानी है. पंद्रह साल बीत जाने के बाद, मैंने अपने मित्रों से निवेदन किया कि वह अपनी-अपनी स्मृति से एक दिन की कहानी
मुझे बताएँ. यह उनकी बतायी हुयी कहानी है, इसलिए मेरी
आपबीती कम मेरे दोस्तों की ज्यादा है. न्याय की तुला मेरे हाथ में हैं. अत: इस कहानी
के प्रस्तुति और सम्पादन के लिए मैं ही ज़िम्मेदार हूँ. तुला न्याय का प्रतीक है.
यह दिलचस्प है कि तुला राशि भी इसी न्याय से जुड़ी है. उसका यहाँ क्या सम्बन्ध है, आगे बताता हूँ.
बिना किसी विशेष भूमिका के यह बताना आवश्यक है कि मैंने भारतीय प्रौद्योगिकी
संस्थान दिल्ली से स्नातक की उपाधि ग्रहण की थी. आज के दिनों मे भारतीय
प्रौद्योगिकी संस्थान का भारत में वही रुतबा है जो कभी पुष्पगिरि महाविहार, विक्रमशिला, तक्षशिला और नालंदा जैसे उच्च शिक्षा के
विश्वविख्यात केन्द्रों का था. प्राचीन विश्वविद्यालय कई सदियों तक निर्बाध चलते
रहे और अंत में विदेशी आक्रमणों से नष्ट हो गए. विदेशी आक्रमण से नष्ट होने का कारण
बहुत हद तक स्वयं के कमजोर होने से जुड़ा होता है. हमारे विश्वविद्यालय को पचास
साल हुए और शायद अगले पचास साल के बाद इसका नाम-ओ-निशान मिट जाएगा, या मिटा दिया जाएगा. क्योंकि इसे अंदर से इसे हम खोखला करते जा रहे हैं.
इस दावे की सचाई का दूसरा पहलू ज्योतिष शास्त्र में भी छुपा हुआ है. ज्योतिष
समझने के लिए खगोलशास्त्र और तारामंडलों की जानकारी जरूर होनी चाहिए. भले ही लोग
ज्योतिष न माने, क्या यह विशेष शर्म की बात नहीं कि सौ
में निन्यानवे लोग तारों भरी रात में मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह आदि राशि
को भी नहीं पहचान सकते? तारामंडलों की पहचान के बारे
में पढ़े लिखे लोग भी बहुधा अनपढ़ हैं? जिस तरह आजकल आम
तौर पर लोग पेड़ों के नाम नहीं जानते, पत्थरों को नहीं
पहचानते,
अरहर और मूंग में भेद नहीं कर सकते; वे अद्वैतवादी नहीं बल्कि अज्ञानी हैं. भेद से भेदाभेद और फिर अभेद पर पहुँचना
ही ज्ञानियों का लक्षण है. वैसे भारतीय ज्योतिष परम्परा में राशियों के नाम
बेबीलोनी-यूनानी राशिनामों के संस्कृत अनुवाद हैं. प्राचीन भारत में नक्षत्रों पर
कथाएँ मिलती हैं, राशियों पर नहीं. राशि की अवधारणा
हमारे यहाँ आयातित है.
कार्तिक महीने की ठंढ़ी रातों में देर रात तक जाग कर मृगशीर्ष नक्षत्र और मृग
तारामंडल (जिसे अंग्रेजी में ओरायन (शिकारी) भी कहते हैं) को उगते देख कर सोना
ग्रामीण लोग की आदतों में शुमार रहा है. हमारे छोटे से शहर जैसा साफ आसमान दिल्ली, बंगलौर, मुम्बई में नहीं नज़र आने वाला. तभी जब
पर्यटक बन कर महानगर निवासी लेह-लद्दाख में रात में तारों भरा आसमान देख लेते हैं, उसी क्षण तारों की खूबसूरती के मोह में पड़ जाते हैं.
खगोलशास्त्र में पृथ्वी की तीन गतियाँ पढ़ायी जाती है –
1. दैनिक गति (अपनी धुरी पर घूमना, जिससे दिन-रात
होते हैं),
2. वार्षिक गति (सूर्य का चक्कर लगाना, जिससे मौसम बदलते हैं), और
3. अयन चलन (Precessional motion, जिससे विषुव बिंदु
बदलते हैं). अयन चलन या प्रिसेशनल मोशन लट्टू के अपने घूर्णन धुरी को चक्कर खा कर
बदलता है,
उस नाचने वाली गति को कहा जाता है. पृथ्वी की अयन चलन
अवधिलगभग 26,000 सालों की है. 3000 ईसा पूर्व कोई और ध्रुव तारा था. इसी तरह सन 14,000 ईसा पश्चात लाइरा तारामण्डल का एक तारा नया ध्रुव तारा बन जाएगा.
आकाश में वह बिंदु, जिसमें सूर्य के रहने पर दिन रात
बराबर होते हैं – विषुव-बिंदु कहलाता है. यह 21 मार्च (वसंत-विषुव) और 22 सितम्बर (शरद-विषुव)
को होता है. प्राचीन काल में शरद-विषुव तुला राशि के विशाखा नक्षत्र के पास होती थी
और वंसत-विषुव मेष राशि में. चूँकि दिन-रात बराबर होते थे, इसलिए राशि का नाम तुला था. अयन चलन के कारण वसंत-विषुव मेष राशि से हट कर अब
मीन राशि में है और शरद-विषुव कन्या राशि में है. इसी तरह किसी दृष्टिकोण से मकर की
संक्रान्ति 14 जनवरी के बजाय 22 दिसम्बर को होती है, जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते
हैं. मकर संक्रान्ति 14 जनवरी को क्यों मनायी जाती है, उसकी चर्चा हम किस्से के अंत में करेंगे.
इतने दिनों के बाद जब मैं घटनाक्रम पर विचार करता हूँ तो मेरा निष्कर्ष यह
निकलता है कि नीलगिरि छात्रावास के मेस बॉयकॉट (भोजनालय बहिष्कार) का एक कारण
बहुविवादित वृश्चिक संक्रान्ति भी रही. जब सूर्य तुला को छोड़ कर वृश्चिक
में प्रवेश करने वाले थे, तभी अशुभ घटनाएँ अपने चरम पर थीं.
प्राचीन बेबीलोनवासियों ने जब राशि का नाम दिया, उस समय यह शरद संपात-बिन्दु वृश्चिक राशि में था, जो कालांतर में तुला और फिर उसके बाद आज कल कन्या राशि में सरक गया है. यूनानी
आख्यान के अनुसार इस बिच्छू का सम्बन्ध महाव्याध (शिकारी) ओरायन से है. दुनिया के
सर्वश्रेष्ठ शिकारी होने से अपने दर्प से चूर ओरायन को देवताओं ने सबक सिखाने के
लिए एक बिच्छू को भेजा. बिच्छू ने ओरायन को काटा जिससे उसकी मौत हो गयी. तब देवी
डायना ने ओरायन (मृग या शिकारी तारामण्डल) को बिच्छू (वृश्चिक) से ठीक विपरीत
स्थापित कर दिया, 180 डिग्री की दूरी पर, ताकि वह बिच्छू के डंक से बचा रहे. आज भी पृथ्वी के किसी भी कोने से वृश्चिक और
ओरायन (मृग) तारामण्डल को साथ-साथ नहीं देख सकते. यहाँ तक कि दक्षिणी ध्रुव में
ओरायन का बहुत थोड़ा ही अंश नज़र आता है.
ऐसी ही कुछ परिस्थिति थी कि हॉस्टल में बहुत से लोग यह मानने लगे थे कि वार्डन
माइकल जैक्सन को हँसते-खिलखिलाते लोग फूटी आँख नहीं सुहाते थे. वार्डन को माइकल
जैक्सन इसलिए कहा जाने लगा था क्योंकि उसके और माइकल जैक्सन के शरीर में कुछ
समानताएँ थी. दोनों ही छरहरे, जिस पर मांस नहीं चढ़ता
हो. गाल चिपके से, तीखी खड़ी नाक थी. चलने से ऐसा लगता
था कि अगले ही पल किसी धुन पर शरीर में वह थिरकन पैदा होगी कि देखने वाले देखते रह
जाएँगे. किसी माइकल जैक्सन के फैन ने ही यह तथ्य ढूँढ निकाला था कि वार्डन की
जन्मतिथि 29 अगस्त 1958 थी,
जो कि वास्तविक माइकल जैक्सन की जन्मतिथि थी. इसी कारण से
वह हम सभी के कोडवर्ड में माइकल जैक्सन के नाम से ही फिट हो गया. अब जब तक बताया न
जाय, इस कहानी में वास्तविक दिवंगत अमरीकी नर्तक और गायक माइकल जैक्सन से कोई लेना
देना नहीं है.
कुछ बातें हमें नीलगिरी ब्वॉयज हॉस्टेल के बारे में जान लेनी चाहिए. लड़कों का
हॉस्टल लम्बी पंक्तियों में बना था, जिसे विंग (पंख) कहते
हैं. यह अनुमान लगाया जाता है कि साठ के दशक में केवल फेसिंग, लॉन्ग, शॉर्ट और परपेंडीकुलर विंग ही रहे होंगे.
न्यू बाद में और अल्ट्रा-न्यू बहुत बाद में जोड़ा गया है. ग्राँउड फ्लोर को ‘ए’
(A), फर्स्ट फ्लोर को बी (B), सेकेण्ड फ्लोर को सी (C) और थर्ड फ्लोर याचौथे तल्ले को डी (D) कहते थे. हर तल्ले पर 76 रूम हैं, जिनमें कुछ सिंगल और कुछ डबल रूम हैं.न्यू, परपेंडीकुलर और
फेसिंग विंग में सिंगल रूम हैं और लॉन्ग, शॉर्ट और
अल्ट्रा न्यू में डबल रूम हैं. बी.टेक के कुछ तीसरे साल वाले और सभी चौथे साल वाले, एम.टेक और पी.एच.डी वाले सिंगल रूम में रहा करते थे. फर्स्ट ईयर और सेकेण्ड ईयर
के लड़के डबल रूम में रहा करते थे, यानी अल्ट्रा-न्यू, लॉन्ग और शॉर्ट विंग में, वो भी ‘डी’
और ‘सी’ फ्लोर पर.
वार्डन का निवास हॉस्टल के साथ ही अलग बने दो मँजिले इमारत में था. नीलगिरि
में भी प्रजातंत्र है, वह इस तरह कि एक हाउस सेक्रेटरी हुआ
करता है जो आम तौर पर बी.टेक. के चौथे या पाँचवे साल के लड़के होते हैं (ज्ञात हो
कि आइ.आइ.टी. में बी.टेक के चार साल और पाँच साल के अलग-अलग शैक्षणिक प्रोग्राम
होते हैं). बाकी महत्त्वपूर्ण सेक्रेटरी जैसे स्पोर्ट्स, मेस,
मेंटेनेंस, कल्चरर आदि तीसरे साल
के लड़के चुने जाते हैं. आम तौर पर एम.टेक. और पी.एच.डी को हॉस्टल की अंदरुनी और
बाहरी राजनीति से बाहर ही रखा जाता है. कुछ महत्त्वपूर्ण चुनाव विश्वविद्यालय स्तर
पर भी होते हैं, जिसके लिए हॉस्टल के सेकेण्ड ईयर के
लड़के,
जो किसी सी निचले पद पर मनोनीत किए जाते हैं, वे वोट आदि देते हैं. चुनाव के कारण से आम-तौर पर हॉस्टल मेंदो गुट बन जाते हैं, जो कि आपसी टकराव, विंग की दोस्ती-यारी और रंजिशों से
बनती-बिगड़ती है. यही गुट चुनाव में आपस में मुठभेड़ कर रहे होते हैं.
जिस समय यह घटना घटी उस समय बी.टेक. के चौथे साल में पढ़ने वाला ‘खुशहाल अग्रवाल’ हाऊस सेक्रेटरी था. उसने बी.टेक.
के फिफ्थ ईयर के वैभव माथुर के गुट को हरा कर चुनाव जीता था. वैभव माथुर बहुत ही
महत्त्वाकाँक्षी था और बाक़ी लोग से अधिक चतुर-चालाक माना जाता था.
जिस समय यह घटना घटी, उस समय स्मार्टफोन क्या साधारण
मोबाइल का जोर भी नहीं पकड़ा था. कुछ बेहद धनी स्टूडेंट्स के पास ही यह ‘स्टेसस सिंबल’ की तरह हुआ करता था. कॉलेज के बाहर
इंटरनेट कम इस्तेमाल हुआ करता था. उन दिनों पेन ड्राइव नहीं, A ड्राइव वाली फ्लापी हुआ करती थीं जिनमें ‘1 एमबी’ का स्पेस हुआ करता था, जिसमें असाइनमेंट सबमिट करना पड़ता
था. सीडी प्रचलन में आना शुरु हुयी थी. उन दिनों फोन करने के लिए एसटीडी बूथ पर
लाइन लगा कर अपनी बारी आने का इंतज़ार करना पड़ता था. उन दिनों दिन में फ़ोन करना, बहुत मँहगा पड़ता था और फ़ोन के लिए शाम के साढ़े आठ बजने का इंतज़ार करना
पड़ता था ताकि पैसे कम लगें. उन दिनों किताबों की पीडीएफ फाइल नहीं मिला करती थी.
विकिपीडिया पर चुटकियों में जानकारी नहीं मिला करती थी. सोशल मीडिया शुरू भी नहीं
हुआ था. हिन्दुस्तान में इतनी गाड़ियाँ नहीं हुआ करती थी. हाँ, इंटरनेट से डाउनलोड कर के फ़िल्मेँ देखना शुरु हो चुका था.
इस कहानी का घटनाक्रम पाँच दिनों तक सीमित है. जिसके लिए मैंने अपने पाँच
दोस्तों से अनुरोध किया कि वे अपनी स्मृति पर जोर दे कर पंद्रह साल पुरानी बात को
यथावत लिखें, ठीक वैसे ही जैसे उस दिन की डायरी
उन्होंने लिखी होगी.
(एक)
21 अक्टूबर 2002 : मयखाना-ए-इल्हाम
21 अक्टूबर 2002 : मयखाना-ए-इल्हाम
[सूत्रधार की
टिप्पणी: मशहूर शायर शाद अज़ीमाबादी (1846-1927) पटना के रहने वाले थे. मीर अनीस
की तरह यह भी मर्सिया के उस्ताद थे. इस बयान के नायक भी शाद अज़ीमाबादी की तरह
फ़क्कड़ है और पटना के ग्रामीण इलाके का रहने वाला है. सन 2001 में भारतीय
प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली में‘इंजीनियरिंग फ़िजिक्स’ की नई ब्राँच
खुली थी. चार साल के उसी नये प्रोग्राम के पहले बैच में पढ़ रहा नायक दूसरे साल में
है और डी अल्ट्रा-न्यू का बाशिंदा है. तसव्वुफ़ (दर्शन) की बहुत सी बारीकियों से
लड़ते हुए हमारा शाद (प्रसन्न) न हो कर बड़ा नाशाद (खिन्न) था.]
कई हिन्दी फ़िल्मों ने मेरे जेहन में यह कहीं गहरे बिठाया था कि कॉलेज में
ढ़ेर सारी मस्ती होती है. खूबसूरत खिलखिलाती परियों जैसी लड़कियाँ बड़ी जल्दी गहरी
दोस्त बनती हैं. पढ़ना कम होता है और कॉलेज से निकलते ही अच्छी नौकरी मिल जाती है.
यहाँ आने के बाद ऐसी छवि बड़ी जल्दी तार-तार हो गयी. ऐसा नहीं है कि लड़के मस्ती
नहीं करते थे. लेकिन इतने प्रतिष्ठित कॉलेज का स्तर ही और है. मैंने जिन्दगी में
कभी कोई बास्केटबॉल का कोर्ट नहीं देखा था. लॉन टेनिस का रैकेट नहीं पकड़ा था.
इतने सारे वायलिन, गिटार, ड्रम नहीं देखे थे. यहाँ आ कर पता चला के साथ पढ़ने वालों के लिए यह आम बात है.
लड़कों ने न केवल बास्केटबॉल खेला है बल्कि राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में
भाग भी लिया है. हर किसी में कोई न कोई उल्लेखनीय टैलेंट है. कोई टेबलटेनिस खेलता
है, कोई अच्छा गाता है, कोई चितेरा है, कोई डिबेट में उस्ताद है. एक ही मैं ही था, जिसे कुछ नहीं
आता था. बड़ी मुश्किल से यहाँ एडमिशन हुआ, पर अभी तक मैं
खुद को यहाँ के लायक नहीं समझता हूँ.
मुझे तो ठीक से अँग्रेजी लिखना बोलना भी नहीं आता है. क्लास में मुँह बंद कर के पिछली सीट पर बैठ कर चुपचाप समझने की कोशिश करता रहता हूँ. ऐसा नहीं है कि मैं बुद्धिमान नहीं हूँ. मेरे ग्रेड ठीक ठाक हैं, पर मुझे इससे कहीं ज्यादा की उम्मीद है. माइनर 2 में खराब नम्बर से मेरा मूड बिगड़ा हुआ है (एक साल का शैक्षणिक सत्र चौदह हफ्तों के दो सेमेस्टरों में होता है. हर सेमेस्टर में तीन परीक्षाएँ होती हैं– माइनर 1, माइनर 2 और अंत में मेजर ). नम्बर लाना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि इससे इज्जत बनी रहता है. भले ही यहाँ लोग खेलते कूदते रहते हैं पर परीक्षाओं के समय सब बड़े गम्भीर हो जाते हैं और बहुत ही अच्छे अंक ले कर प्रोफेसरों को भी चकित कर देते हैं. कान्वेंट के पढ़े लड़कों के बीच अपनी जगह बनाने के लिए मुझे बड़ी मेहनत करनी पड़ती है. एक साल में यह समझ आ गया था कि चुपचाप क्लास लगा लेने से, सारी असाइनमेंट बना लेने से और परीक्षा से पहले एक बार विषय पढ़ लेने से सम्मानजनक जगह बनी रहती है.
मुझे तो ठीक से अँग्रेजी लिखना बोलना भी नहीं आता है. क्लास में मुँह बंद कर के पिछली सीट पर बैठ कर चुपचाप समझने की कोशिश करता रहता हूँ. ऐसा नहीं है कि मैं बुद्धिमान नहीं हूँ. मेरे ग्रेड ठीक ठाक हैं, पर मुझे इससे कहीं ज्यादा की उम्मीद है. माइनर 2 में खराब नम्बर से मेरा मूड बिगड़ा हुआ है (एक साल का शैक्षणिक सत्र चौदह हफ्तों के दो सेमेस्टरों में होता है. हर सेमेस्टर में तीन परीक्षाएँ होती हैं– माइनर 1, माइनर 2 और अंत में मेजर ). नम्बर लाना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि इससे इज्जत बनी रहता है. भले ही यहाँ लोग खेलते कूदते रहते हैं पर परीक्षाओं के समय सब बड़े गम्भीर हो जाते हैं और बहुत ही अच्छे अंक ले कर प्रोफेसरों को भी चकित कर देते हैं. कान्वेंट के पढ़े लड़कों के बीच अपनी जगह बनाने के लिए मुझे बड़ी मेहनत करनी पड़ती है. एक साल में यह समझ आ गया था कि चुपचाप क्लास लगा लेने से, सारी असाइनमेंट बना लेने से और परीक्षा से पहले एक बार विषय पढ़ लेने से सम्मानजनक जगह बनी रहती है.
सोमवार होने के कारण मैं और सुबह उठ कर जल्दी तैयार हो गया. 8 बजे की क्लास के लिए सवा सात बजे तक नाश्ते के लिए मेस पहुँचना होता है, ताकि उसके बाद पैदल इंस्टिट्यूट समय पर पहुँचा जा सके. कुछ प्रोफेसर देर से आने वालों के लिए बड़े सख्त होते हैं. पर मेरी साइकोलॉजी की प्रॉफेसर बड़ी दयालु थीं. हमेशा कि तरह मैं समय पर पहुँच गया. जहाँ बहुत से लोग खेलने-कूदने, नाचने-गाने, ड्रामा-डिबेट में लगे थे, वहाँ मेरी अभिरुचि पुस्तकों में थी. इंस्टिट्यूट की बड़ी लाइब्रेरी में मैं साहित्य की किताबें पढ़ता रहता हूँ. हॉस्टल में भी अलग सा पुस्तकालय है, जिसमें किताब लड़कों की अभिरुचि से मंगायी जाती है, जिसके लिए वार्डन की सहमति जरूरी होती है. मुझे मानविकी विभाग के कक्षाएँ बहुत पसंद हैं. इसमें थर्ड ईयर और कभी-कभी फोर्थ ईयर वाले भी हुआ करते हैं. इंजीनियरिंग की तुलना में यह मुझे बहुत रोचक लगता है. आज का लेक्चर बहुत शानदार रहा.सुबह के तीन लेक्चर के बाद दोपहर के लिए खाने के लिए आना हुआ. इसके बाद दो बजे से एक-एक घंटे के दो ट्यूटोरियल क्लास थे, लेकिन दोनों ही आज रद्द थे.
बारह बजे के आस पास इंस्टिट्यूट से लौटते हुए शैलेश और मैं साइकोलॉजी के क्लास में हुयी बहस को याद करते हुए बहस कर रहे थे. बहस के दौरान शैलेश ने एकदम से पूछा, “तुम ‘आर्ट आफ लिविंग’ ज्वाइन करने के बारे में सोच रहे हो क्या?”
“एकदम नहीं. मेरे हिसाब से यह पैसे लूटने का एक तरीका है.”
“ये तुम चौबे के सामने बोल कर दिखाना. इतने फायदे गिनाएगा कि तुम सोचने लगोगे.” शैलेश ने कहा.
“हमारी बहस हो रही थी कि गुस्सा क्यों आता है? ‘आर्ट आफ लिविंग’ तो हमारे वार्डन को करना चाहिए.”शैलेश उन लोग में गिना जाता था जो कि बहुत अनुशासित रहता था. इसलिए उसने पूछा, “अब तुझे उससे क्या प्रॉब्लम हो गयी?”
“हमारा वार्डन कुछ खिसका हुआ है. हॉस्टल के बाहर सीढ़ियों पर बैठा हुआ था, तो मुझे आ कर बोला कि यहाँ बैठोगे तो फाइन कर दूँगा.“
“ठीक बोलता है.“ शैलेश ने कहा, “रास्ते में कोई क्यों बैठै?”
“कुछ बोलो, उसे हर बात में कोई न कोई तकलीफ़ हो जाती है. रूम में ताला न लगा हो तो फाइन, गलती से रूम के अंदर लाइट जलती रह जाए तो दो सौ रूपए फाइन, पंखा चलता रह गया तो पाँच सौ रूपए फाइन, रूम में टेपरिकॉर्डर बजाओ और अपना वार्डन चौकीदार की तरह गश्त लगाता हुआ आएगा और टेपरिकॉर्डर उठा कर ले जाएगा. छुड़ाने के एवज में पाँच सौ रूपए का दण्ड भरो. अगर कोई कॉरीडोर पर सिगरेट पीते हुए पकड़ा जाए तो हज़ार रूपए का फाइन. हम लोग यहाँ पढ़ने आए हैं या जेल में सजा काटने?”
“बिलकुल ठीक कर रहा है वार्डन. हमारे यहाँ हुड़दंगी लड़के बहुत जोर से गाना बजाते हैं. पहली बात है कि सिगरेट पीना खराब बात है. अगर पीना भी है तो अपने रूम में पियो. क्या तुम नहीं मानते कि हमारे कॉलेज में अधिकतर लड़के नैतिक रूप से गिरे हुए हैं. उन सब के लिए वार्डन का डण्डा होना बहुत ज़रूरी है.”
“तुम बताओ शैलेश, आर्ट आफ लिविंग वालों के पास इसका
क्या जवाब होगा? उन लोग के पास दुनिया की समस्याओं का
क्या हल है? मेरे हिसाब से ये वे लोग हैं जो
विवेकानंद की ख्याति की तर्ज पर, ओशो की
जालसाज़ी-बेईमानी-लंफगई वाले मॉडल पर चलते हुए भटके हुए लोग को बरगलाने की कोशिश
है.“
शैलेश मेरी बात सुन कर नाराज़ हो गया. “दूसरों को गाली
देने से पहले अपने गिरेबान में झाँको. तुम अंदर से कितने मजबूत हो? क्या करना चाहते हो ज़िन्दगी में? आधे समय तो
आत्महत्या की बात करते रहते हो.”
“मैं आत्महत्या की बात करता हूँ, आत्महत्या कर
लेने की बात नहीं करता.“
“तुम्हारा मुद्दा क्या है? एक तो तुम इतने परेशान
रहते हो. ‘आर्ट आफ लिविंग’ सीख लोगे तो कम परेशान रहोगे.“ शैलेश ने सुझाया.
“हद है. परेशां हूँ कि क्यूँ मेरी परेशानी नहीं जाती, लड़कपन तो गया मगर मेरी नादानी नहीं जाती. मैं परेशान रहता हूँ कि मेरे ग्रेड कम आते हैं. इसलिए परेशान रहता हूँ कि समझ नहीं आता ज़िन्दगी में आगे क्या करूँगा? पढ़ना लिखना इतना बड़ा बोझ लगता है. हम चाहते हैं क्या है? नौकरी? मतलब किसी के हाँ में हाँ मिलाते हुए काम करते रहो, अपने मन का कुछ न करो.“
“यही तो सीखना है!”
“तुमने सीख लिया है? बताओ मुझे?” मैंने चिढ़ कर कहा. तब शैलेश ने मुस्कुरा कर कहा, “मुझे इतना बड़ा गधा समझते हो कि हज़ार रूपए खर्च कर के ‘आर्ट आफ लिविंग’ का कोर्स करूँगा?”
“फिर मुझे क्यों सुझा रहे हो?”
शैलेश ने मुस्कुरा कर कहा, “तुम्हें वाकई इसकी
ज़रूरत है.”
“आज शाम में ‘फ़िल्म सीरीज़ सोसाइटी’ कॉनवोकेशन हॉल में कोई ब्लैक एंड ह्वाईट फ़िल्म दिखाने वाले हैं. चलोगे?”
“अभी दोपहर का क्या प्लान है? कैरम खेलना है या लैन
से कोई फ़िल्म डाउनलोड कर के देखना है?”
“लाइब्रेरी से प्रेमचंद की ‘मानसरोवर’ लायी है. उसी को पूरा करने का इरादा है.“ मैंने कहा.
सोमवार को कॉन्टिनेन्टल खाने का मेनू होता था. मतलब मेस में बनाया देसी पिज्ज़ा और बाज़ार से मंगायी सस्ती पेस्ट्री. बाकी दिन मेस के खाने को सभी गाली दिया करते थे, पर सोमवार के खाने के लिए बहुत से लोग उतावले हुआ करते थे. मेस में 7 बजे 8:30 तक खाना मिला करता था. शैलेश और मेरा प्लान था कि डिनर कर के फ़िल्म देखने के लिए इंस्टिट्यूट के मल्टी स्टोरेज बिल्डिंग की तरफ़ डोगरा हॉल (जिसे कॉन्वेकेशन हॉल भी कहते हैं) में जाएँगे. शाम में 06:30 के आस-पास अचानक लाइट चले जाने के कारणजब शैलेश और हमयूँ ही घूमने के लिए नीचे आ गए,हमने रिसेप्शन के पास ही लड़कों का हुज़ूम उमड़ा हुआ देखा. किसी अनिष्ट की आशंका से मैं उस उबलती भीड़ के पास जा कर अपने ईयर के लड़कों से पूछा, “क्या हुआ?”
“माइकल जैक्सन ने फर्स्ट ईयर के गौरव कटारिया की पिटाई कर दी.“
“क्या?”मैं चकरा गया.सौरभ ने विस्तार से बताया, “गौरव कटारिया
अपूर्व के साथ अभी इंस्टिट्यूट की तरफ़ जा रहा था. ये दोनों बास्केटबॉल की
प्रैक्टिस से वापस लौटे थे. शायद उनके कोच ने उन्हें बहुत दौड़ाया था. कटारिया
वार्डन के घर के पास गुजरते हुए आपस में बात कर रहा था – “बहनचोद! आज तो कोच ने हमारी ले ली.“ इतना सुनते ही
वार्डन जो उस समय फर्स्ट फ्लोर की बॉल्कनी पर खड़ा था, वहीं से चिल्लाया – “ह्वाट डिड यू से? स्टे देयर!" (क्या कहा तुमने? वहीं रूको!)दोनों सहम कर वहीं खड़े रह गए. नीचे आ कर उसने कटारिया से धमकाते
हुएपूछा,
“ह्वाट डिड यू से जस्ट नॉउ?” (तुमने अभी क्या कहा?) इतना कह के उसने कटारिया को तीन-चार
थप्पड़ रसीद दिए.“
अशोक ने कहा, “मैं वहाँ था. थप्पड़ लगने से कटारिया कोने में गिर गया, तब भी वार्डन रुका नहीं और उसके पेट पर तीन लात लगा दिए!”
नीरज ने टोका, “पेट पर लात नहीं मारी है. तुम बिना
बात के बात बढ़ा रहे हो!”
“वार्डन सनकी है,” मैंने गुस्से से कहा, “जूडो-कराटे की प्रैक्टिस करते-करते लड़कों पर हाथ भी उठाने लगा. कटारिया कहाँ
है?”
“उसे वार्डन ने ले जा कर उसके रूम में बंद कर दिया है. शायद डर होगा कि कुछ
हंगामा न हो!“ विवेक ने बताया.
“अब क्या होगा?” मैंने सहमते हुए पूछा. अनजाने भय ने
मुझे घेर लिया. “वार्डन का कोई भरोसा नहीं, इस बात को वह मुद्दा बना कर उसपे डिसीप्लिनरी एक्शन ले लेगा. कटारिया को एक
सेमेस्टर के लिए ऐसे ही निकाल देगा.“
मेरी बात सुन कर नीरज ने धमकते हुए कहा, “डरना इस बार
वार्डन को पड़ेगा. गलती उसकी है. बीस-पच्चीस लोग इस हादसे के गवाह हैं. डिसीप्लिन
सबके लिए बराबर हो. अगर स्टूडेंट की गलतियों पर सेमेस्टर से निकाल देते हैं तो
हमारे इस वाहियात वार्डन को निकाल देना चाहिए.“
“माइकल जैक्सन की कम्बल कुटाई कर देनी चाहिए.“ गौरीशंकर ने दांत पीसते हुए कहा. यह सुनते ही सौरभ, नीरज और अशोक ने एक ही बात कही, “हम आइआईटी में
पढ़ते हैं. बाकी कॉलेजों की तरह हम भी अगर अपने प्रॉफेसरों की पीटने लगे, तो हममें और बाकी लड़कों में क्या अंतर रह जाएगा.“
थर्ड ईयर और फोर्थ ईयर के सीनियर कुछ मंत्रणा कर रहे थे. हॉस्टल में ऐसी सरगर्मी पिछले साल 9/11 के हमले के बाद देखी थी.ठीक इसके बाद डिनर शुरु हुआ. खाना खा कर के शैलेश के साथ मैं डोगरा हॉल (कॉन्वेकेशन हॉल) की तरफ़ निकल गया. वहाँ 1925 की रूसी फ़िल्म ‘द बैटलशिप पोट्मकिन’ दिखायी गयी. फ़िल्म में नाविकों को ज़ुल्मों का बगावत देख कर मैं अजब से जोश में भर गया.
फ़िल्म देख कर लौटते हुए जब हम हॉस्टल आए तो पता चला कि फोर्थ ईयर और फिफ्थ
ईयर के सीनियर गौरव कटारिया को ले कर शिकायत करने ओल्ड कैम्पस में‘डीन आफ स्टूडेंट’ के घर गए. लेकिन डीन ने चालीस लोग
की भीड़ को सीधे-सीधे टरका दिया. यह कहा गया कि छोटी सी बात को बिना मतलब के
बढ़ाना ठीक नहीं है. क्या तुम लोग भी यही चाहते हो कि यहाँ भी बाकी यूनिवर्सिटी की
तरह छात्र संघ बने जो आये दिन हड़ताल करे और प्रॉफेसरों को परेशान करे, परीक्षा की तारीख़ें बढ़वाए, हुड़दंग किया करे?
यह सुन कर मैंने शैलेश से कहा, “हमें भी बगावत
करनी चाहिए. अनुशासन के नाम पर गुंडागर्दी ठीक नहीं है. माना कि गाली देना ग़लत
बात है,
मैं भी नहीं देता, यहाँ कटारिया ने
किसी को गाली दी ही नहीं. वह तो लैँग्वेज का पार्ट है, एक्सक्लेमेशन है. अगर ऐसा बोलना असभ्यता भी है तो वार्डन को क्या हक़ बनता है
कि वो किसी पर ऐसे हाथ चला दे!”
शैलेश ने हिकारत से कहा, “फ़िल्म देख कर ताज़ा
जोश पैदा हो गया है? ज़मीन पर आओ. ये सिनेमा नहीं चल रहा
है. यहाँ कुछ बोलोगे, अगले दिन डिसीप्लिन के नाम पर लात
मार कर निकाल दिये जाआगे. ऐसे ही उन्होंने यहाँ अनुशासन बना रखा है. एक सेमेस्टर
की पढ़ाई इतनी मँहगी लगती है तुमको. एजुकेशन लोन ले कर पढ़ रहे हो न? आइआइटी से निकाले जाओगे तो काश्मीर से कन्याकुमारी तक बारहवीं पास का
सर्टिफिकेट ले कर घूमते रहोगे, पर किसी कॉलेज में
एडमिशन नहीं मिलेगा. अपनी हैसियत समझो और चुप रहो.“मेरा ज़र्द चेहरा देख कर शैलेश थोड़ा नर्म हो गया, “हर बात का ग़म नहीं किया करते. ज़माने की हर बात पर ग़म खाते रहोगे तो कैसे
चलेगा?”
एक दिन
ऐसा भी नासेह आएगा
ग़म को
मैं और ग़म मुझे खा जाएगा l
ऐ फ़लक ऐसा भी इक दिन आएगा
जब किए
पर अपने तू पछताएगा l
कुछ न कहना ‘शाद’ से हाल-ए-ख़िजाँ
इस ख़बर
को सुनते ही मर जाएगा l
(दो)
22 अक्टूबर 2002 : दाग़-ए-जिगर
“सर, यह वार्डन बदल देना चाहिए!”
हम दोनों अभी रिसेप्शन के पास पहुँचे ही थे कि देखा कि सारी भीड़ छट चुकी थी. एक युवा लड़की कुछ लोग से बातें कर रही थी. हमें देखते ही पास आ कर बताया कि वह एक बड़े अँग्रेज़ी अख़बार से है. बस फिर क्या था, सुंदर संवाददाता और अपना दु:ख. चार लड़के बताने लगे. आते-जाते लोग रूक कर नमक मिर्च लगा कर बताने लगे. कौशिक ने जोश में आ कर जोड़ा, “प्रॉफेसरों ने सज़ा के तौर पर हमारे हॉस्टल का इंटरनेट बंद कर दिया है. वे नहीं चाहते कि हम आप को, मीडियावालों को, यहाँ हो रहे अत्याचार की ख़बर दें. आप देख रहींहैं, ये हॉस्टल लगता है देखने में ... पर आप को यहाँ रहने को कहा जाय तो आप समझ जाएँगी यह जेल है जेल!”
इससे पहले कि कौशिक उस रिपोर्टर को देख कर अपने होश और खोता, मैं उसे पकड़ कर अपने साथ घसीटता हुआ बाहर ले गया. साइकिल पर बैठ कर हम दोनों इंस्टिट्यूट की तरफ़ चल दिए.
खुशहाल अग्रवाल ने पूछा, “कब तक?” इस सवाल के लिए वह तैयार नहीं था. उसने इतना ही कहा कि जब तक हमारी बात नहीं मान ली जाय. कह कर वह टेबल से नीचे उतर गया.
22 अक्टूबर 2002 : दाग़-ए-जिगर
[सूत्रधार की
टिप्पणी: जिगर मुरादाबादी (1890-1960) बीसवीं सदी के प्रमुख उर्दू
शायरों में गिने जाते हैं. शायरी उन्हें विरासत में मिली थी. पेट पालने के लिए कभी
स्टेशन-स्टेशन चश्मे बेचते, कभी कोई और काम कर लिया करते. हमारा
दूसरा नायक भी उनकी ही तरह मुरादाबाद का रहने वाला है. भारतीय प्रौद्योगिकी
संस्थान दिल्ली के कठिनतम प्रोग्राम, पाँच साल वाले ‘मैथेमेटिक्स एंड
कम्प्यूटिंग’ के
इंटिग्रेटेड एम.टेक. का विद्यार्थी है. उन दिनों ‘डी लॉन्ग’ विंग में रहा
करता था. हमारा जिगर मुरादाबादी बहुत ही हाजिर जवाब, साहसी और बाँका
जवान था, जिन्होंने
ज़िन्दगी में कभी हारना नहीं सीखा था. ]
हम ख़ाक-नशीनों के ठोकर में ज़माना है.
इसी धमक से, इसी अकड़ से अपन ज़िन्दगी जीते आए हैं.
कोई पूछे या न पूछे, अपन बता देते हैं कि ‘मैथेमैटिक्स एंड कंप्यूटिंग’ ही आइआइटी का सबसे
मुश्किल प्रोग्राम है. बी.टेक. कंप्यूटर वालों से तो है ही और इलेक्ट्रिक
इंजीनियरिंग वालों से भी है. बाकी ब्राँच वालों को हम मुकाबले के लायक ही नहीं
समझते. अब हमारे ग्रेड कम क्यों रहते हैं, उसका एक ही कारण
है – हमारे प्रॉफेसर. हमें नम्बर देना, कर्ज़ देने से
भी बड़ा पाप समझते हैं.
बहरहाल, सुबह-सुबह हम क्लास में गए. प्रोफेसर
आहलूवालिया ने हमें टोक दिया कि जब आगे की बेंच खाली है तो पीछे क्यों जा रहे हो? हमने कह दिया कि पीछे की बेंच पर सोने में आसानी होती है. प्रोफेसर कूल निकला.
मुस्कुरा कर बोला कि आगे ही सो जाओ, कोई मनाही नहीं
है. फिर क्या था, आगे ही बैठना पड़ा. बेंच की एक
किनारे तितली अपनी सहेली के साथ बैठी थी, इधर हम बैठे थे.
तितली और हमारी मुहब्बत शमा-परवाने की मुहब्बत जैसी थी. आँखों-आँखों में बात होती
थी. कभी हमारी ज़ुर्रत नहीं होती कि हम अपने इश्क़ का परवान चढ़ा सकते. वह भी कुछ
न कहती थी, केवल गुलाबी हँसी हँस के चली जाती थी.
तितली रंग-बिरंगी तितली जैसी थे. बहुत रंगीन चमकदार कपड़े, दिलकश अदाएँ, वो विंड टनेल पर खड़ा हो जाना, उसकी ज़ुल्फ़ों का उड़ना... उसके ढ़ेरों चाहने वाले थे, जिनमें वो शायद किसी को न चाहा करती थी. तितली की फितरत ही ग़ुल से दिल्लगी
करने की है, इसलिए हम ज्यादा ध्यान नहीं देते थे.
आहलूवालिया ने ब्लैकबोर्ड पर कुछ लिखा और अचानक पूरी क्लास से पूछ बैठे, “नीलगिरि हॉस्टल से कौन है?” हम लोग ने हाथ खड़े किए.
आहलूवालिया ने मुझे इशारे से पूछा, “क्या हुआ है
तुम्हारे हॉस्टल में वार्डन के साथ? आज सुबह के
अख़बार में आया है.“ मैं खड़ा हो कर पूरे क्लास के सामने
संक्षिप्त में बताया कि किस तरह एक जूनियर पर वार्डन ने हाथ उठा दिया. पशोपेश में
पड़े प्रोफेसर ने कहा, “तुम लोग ने हौजखास थाने में जा कर
एफ.आ.आर. क्यों नहीं लिखवाया?”
अपने ही हॉस्टल के शिवचरण ने कहा, “सर हम आइआइटी की
बदनामी नहीं चाहते. हमारे वार्डन ने आतंक मचा रखा है. कभी भी किसी के रूम
में रात-बेरात दरवाजा खटखटा कर के तलाशी लेने आ जाता है कि कहीं कोई हीटर नहीं चल
रहा, कोई सिगरेट तो नहीं पी रहा, और न जाने क्या-क्या.
रूम खुला रह गया हो तो फाइन. कोई रूम खुला छोड़ कर नहाने चला गया तो फाइन. हर बात
पर कुछ न कुछ फाइन. ऐसा लगता है हम लोग जेलखाने में रहते हों.”
“देखो बेटा,” आहलूवालिया ने पहली बार हम लोग को बेटा
कह कर बुलाया, “तुम लोग चार-पाँच साल में यहाँ से निकल
जाओगे. पर आइआइटी को हम चलाते हैं. मैं यहाँ के पहले डायरेक्टर डोगरा के ज़माने से
हूँ. आज भी सिविल सर्विसेस के इंटरव्यू लेने के लिएमुझे बुलाया जाताहै. जब आइआइटी
का ग्रांट नहीं पास होता है तो मिनिस्ट्री को मैं फोन करता हूँ. डायरेक्टर मुझसे
पूछते हैं कि मिस्टर आहलूवालिया, बताओ क्या किया जाय.
अभी ये डायरेक्टर और ये वार्डन ठीक काम नहीं कर रहे. तुम लोग को सीधेपुलिस में
रिपोर्ट लिखा देनी चाहिए.“
मैं क्या कहता कि मुझे पता है वार्डन नियमों के पीछे ऐसे हाथ धो कर क्यूँ पड़ा
है? इसलिए कि उसे आगे चल कर डीन बनना है और न जाने क्या-क्या. पता नहीं क्या पढ़ता
है और पढ़ाता है कि उसे जूडो-कराटे, बॉक्सिंग करने
के अलावा रातों में कमरे की तलाशी लेने का भी समय मिल जाता है? एक हम हैं कि जिसे मरने की भी फुरसत नहीं.
सुबह के लेक्चर के बाद जब लंच के लिए हॉस्टल के रास्ते में था तभी खबर मिल गयी
कि हम लोग ने मेस बॉयकॉट किया है. अब किसी को मेस में नहीं खाना है जब तक यह सनकी
माइकल जैक्सन हॉस्टल से हटा कर कहीं डांस करने न लगा दिया जाय. सीधे-सीधे कहने में
मतलब यह है कि ब्रेकफास्ट नहीं, लंच नहीं, डिनर नहीं. अभी हॉस्टल के रास्ते जूस शॉप तक ही पहुँचा था कि विंध्याचल हॉस्टल
का ग्राफ थ्योरी वाला मटका (एम.टेक)मिल गया (मतलब वह एम.टेक. स्टूडेंट ग्राफ
थ्योरी कोर्स पढ़ाने वाले प्रॉफेसर का अस्सिटेंट है). उसने बताया कि ‘माइनर टू’ के साथ जो असाइनमेंट सबमिट करना था, उसमें मेरे और तितली को जीरो नम्बर मिले हैं. सुन कर मेरे दिमाग की बत्ती ऐसी
जली कि रॉकेट बन के सीधे आकाश में फूटी. मैं समझ गया कि तितली को जो मैंने समझाने
के लिए असाइनमेंट दिया था कि थोड़ा बहुत बदल के सबमिट कर दे, उससे हुआ नहीं होगा. पगली ने सीधे के सीधे सबमिट कर दिया है. अब प्रॉफेसर ने
पकड़ लिया, हम दोनों के जीरो! इस में मुझे सबसे
ज्यादा ग्रेड मिलते, वहीं इसी में मुझे अब सी (6/10) भी मिल जाए तो बहुत है. एक पर एक मुसीबत!
हॉस्टल पहुँच कर सोचा कि अब खाने का क्या किया जाय? मेस के पास लड़के जुटे हुए थे. हर कोई एक-दूसरे को इत्तला दे रहा था कि यहाँ
नहीं खाना है. ग़ज़ब की मजबूती दिखी कि एक लड़का उधर नहीं फटका. बी.टेक. क्या, एम.टेक. क्या, पी.एच.डी. वाले भी हमारी बात में
हाँ में हाँ मिला रहे थे. मैंने सोचा कि अब ट्यूटोरियल के लिए कॉपियाँ ले लूँ.
इंस्टीट्यूट के होलिस्टिक फूड में खाया जाएगा, नहीं तो मेन गेट
के बाहर एस.डी.ए. मार्केट में कुछ ले लेंगे. नहीं तो फाँका मारा ही जा सकता है.
मैंने मन ही मन सोचा कि बहुत से लड़कों के लिए यह बॉयकॉट भी एक बहाना है ताकि मेस
का घटिया खाना न खाना पड़े. वैसे ही वे लोग अक्सर हॉस्टल गेट के बाहर सस्सी ढ़ाबे
में खाते हैं, एक तगड़ी वज़ह मिल गयी है इन लोगों को.
जाने से पहले मैंने कॉमन रूम में जा कर मशहूर अंग्रेज़ी अख़बार को पलट कर
देखने लगा. अंदर के किसी पन्ने पर एक छोटी सी ख़बर आयी थी कि फर्स्ट ईयर के
विद्यार्थी के वार्डन द्वारा कथित पिटाई नीलगिरि छात्रावास में रोष है. इस पर
टिप्पणी के लिए वार्डन उपलब्ध नहीं थे. ख़बर के साइज से मुझे निराशा हुयी कि संसार
के लिए हमारा पीड़ा बस इतने छोटी सी जगह रखती है, जब के पहले पेज पर किसी नेता के उलजलूल बयान को छापा जाता है. उमड़ती सिकुड़ती
भीड़ से पता चला कि हमारे काबिल फोर्थ ईयर वालों के समाचार पत्रों से कॉन्टैक्ट
हैं. हो न हो फिफ्थ ईयर के वैभव माथुर ने ही अपने प्रभाव से यह ख़बर छपवायी है. मन
ही मन मैंने सोचा कि यह होता है दिल्ली के होने वाले का फ़ायदा. हमारे मुरादाबाद
में ऐसा होता तो हम क्या-क्या करवा चुके होते. अव्वल तो वार्डन ही रातोरात उठ चुका
होता.
शाम में जब वापस हॉस्टल लौटना हुआ तो देखा कि फोर्थ ईयर और फिफ्थ ईयर के
लड़कों से बीच ‘डीन आफ स्टूडेंट’, हाउसमास्टर केमिकल इंजीनियरिंग का पानवाड़ी लाल होठों वाला प्रॉफेसर और
एसोसिएट डीन शदाक़त खान जैसे प्रॉफेसर जो प्रशासनिक काम देख रहे थे, लड़कों से बहस कर रहे थे.
“सर, यह वार्डन बदल देना चाहिए!”
“तुम लोग से पहले भी कह चुका हूँ कि एडमिनिस्ट्रेशन इस पर ग़ौर फ़रमाएगा.“
“आपको पता नहीं किस बेदर्दी से वार्डन सर ने गौरव कटारिया को मारा है.“
“क्या हुआ? घर में भी गलती करने पर माँ बाप से डाँट
सुनते होगे. कभी मार भी खाया होगा?“
एक और आवाज़ आयी, “सर, मेरे पिता जी ने मुझ पर कभी हाथ नहीं उठाया. ऐसी ग़लती की जाँच होनी चाहिए.
ऐसे वार्डन को हटाना चाहिए.“
“देखो,
तुम लोग समझ नहीं रहे. बीच सेमेस्टर में किसी को नहीं हटाया
जा सकता. कमसे कम दिसम्बर तक तो रहना ही पड़ेगा. इतना बड़ा इंस्टिट्यूशन ऐसे थोड़े
ही चलेगा.“
“हमारा आंदोलन भी चलता रहेगा. जोर से बोलो – वार्डन हाय, हाय. वार्डन हाय, हाय.“
कोरस में बुलंद आवाज़ आने लगी. “वार्डन हाय हाय.
वार्डन हाय, हाय.“ ऐसे में मोटे
मुदितदास ने दाहिनी हाथ हवा में मार कर जोर से हमारे हॉस्टल का नारा लगाया, “वीर बहादुर लड़के कौन, नीलबुल्स, नीलबुल्स.“
भीड़ चिल्लाने लगी, “सबसे आगे लड़के कौन. नीलबुल्स, नीलबुल्स. वार्डन हाय, हाय. वार्डन हाय, हाय.“
तीनों प्रॉफेसर लाल-पीले हो गये. वे गुर्राये, “ऐसे करोगे तो तुम सब पर डिसीप्लिनरी एक्शन लेना पड़ जाएगा.“
धमकी सुन कर लड़कों में और जोश आ गया. तक़रार होने लगी. कभी कोई एम.टेक.
विद्यार्थी कुछ बोलता, कभी कोई पी.एच.डी.. सब क़िस्से सुनाने
लगे कि कब वार्डन रात में ग्यारह बजे चक्कर लगाता है, कब सुबह पाँच बजे. नियमपालन के नाम पर पागलपन की इंतिहा तक कैसे फाइन लगाता है.
माइकल जैक्सन वहीं खड़ा बिना एक शब्द बोले सब को एकटक देख रहा था. जैसे उसे
ऊपर से हिदायत मिली हो कि एक शब्द नहीं कहना है.
मैं भीड़ को छोड़ कर अपने रूम में आ कर बैठ गया. मुझे तितली पर गुस्सा आ रहा
था. भगवान् ने उसे थोड़ी अकल दी होती तो समझ कर असाइनमेंट कर लेती. एक तो यहाँ
होमवर्क मिलता है कि कोई सारा होमवर्क असाइनमेंट खुद से करने बैठे तो हो गया, किसी हाल में उसकी डिग्री नहीं निकल सकती. एक-दूसरे की मदद तो करनी ही पड़ती है.
यहाँ तो मदद करने के चक्कर में अपना बंटाधार हो गया. कंप्यूटर चालू कर करके आज का
असाइनमेंट करने बैठा, देखा कि इंटरनेट ही नहीं आ रहा है.
निकल कर मैं कौशिक के रूम में गया. उसने भी कहा कि दो घंटे से इंटरनेट नहीं आ रहा
है.
गुस्से में मैंने कुछ कहना ही चाहा कि कौशिक ने कहा, “ये सब डीन का किया-धरा होगा. पिछले साल हॉस्टल में इंटरनेट दिया है उन्होंने.
जैसे एक्साम से पहले अक्सर बत्तियाँ गुल कर देते हैं, हमारे प्रोटेस्ट के कारण यहाँ का इंटरनेट बंद कर दिया है. कराकोरम हॉस्टल में
आ रहा है,
मैंने इंटरकॉम से फोन कर के पता किया है.“
“यार ये असाइनमेंट करना ज़रूरी है. इंस्टिट्यूट चल कर अपने लैब चलते हैं. वहीं
काम करते हैं.“ कौशिक को मेरी बात पसंद आयी.
हम दोनों अभी रिसेप्शन के पास पहुँचे ही थे कि देखा कि सारी भीड़ छट चुकी थी. एक युवा लड़की कुछ लोग से बातें कर रही थी. हमें देखते ही पास आ कर बताया कि वह एक बड़े अँग्रेज़ी अख़बार से है. बस फिर क्या था, सुंदर संवाददाता और अपना दु:ख. चार लड़के बताने लगे. आते-जाते लोग रूक कर नमक मिर्च लगा कर बताने लगे. कौशिक ने जोश में आ कर जोड़ा, “प्रॉफेसरों ने सज़ा के तौर पर हमारे हॉस्टल का इंटरनेट बंद कर दिया है. वे नहीं चाहते कि हम आप को, मीडियावालों को, यहाँ हो रहे अत्याचार की ख़बर दें. आप देख रहींहैं, ये हॉस्टल लगता है देखने में ... पर आप को यहाँ रहने को कहा जाय तो आप समझ जाएँगी यह जेल है जेल!”
इससे पहले कि कौशिक उस रिपोर्टर को देख कर अपने होश और खोता, मैं उसे पकड़ कर अपने साथ घसीटता हुआ बाहर ले गया. साइकिल पर बैठ कर हम दोनों इंस्टिट्यूट की तरफ़ चल दिए.
जब हॉस्टल के साथियों को मैसेंजर पर आनलाइन देखा तो मैंने मेसेज कर के पूछा कि
बगैर इंटरनेट कैसे आनलाइन हो. पता चला कि इंटरनेट कुछ तकनीकी ख़राबी से बंद था और
अब वापस बहाल किया जा चुका है. मैंने कहा, “कौशिक, तूने रिपोर्टर को अपना नाम तो नहीं बताया था न? कल ये ख़बर छपेगी और डीन को पता चला, फिर तेरा एक
सेमेस्टर तो पक्का ही फेल कर दिया जाएगा.“ कौशिक रोआँसा हो
गया.
शाम में ‘हॉलिस्टिक फूड कैंटीन’ में खाना खाने के बाद जब हम नीलगिरि लौटे, देखा मेस में
सन्नाटा छाया हुआ है. लड़के कहीं-कहीं ढ़ाबे से या किसी रेस्तराँ से खाना खा कर
लौट रहे हैं. सुनने में आया कि वार्डन ने गले मिल कर गौरव कटारिया से माफ़ी माँगी.
कहा कि बेटा समझ कर हाथ उठ गया. डायरेक्टर ने गौरव कटारिया को बुला कर पूछा कि उसे
कोई तक़लीफ़ है, जिस पर गौरव ने किसी तक़लीफ़ से इन्कार
कर दिया.
करीब साढ़े आठ बजे पी.ए. सिस्टम (पब्लिक अनाउँसमेंट सिस्टम) से आवाज़ आयी, “मेस बॉयकॉट के मद्देनज़र सभी लोग मेस में इक्कट्ठा हों. सभी सेक्रेटरी, सेकेण्ड ईयर के सभी रेप्रेजन्टेटिव हाउस सेक्रेटरी से फौरन मिलें.“ लाइन तीन-चार बार लगातार कही गयी. सारे हॉस्टल निवासी अपने कमरों से निकल-निकल
कर झुंड बनाते हुए मेस में इकट्ठे होने लगे. करीब पाँच सौ लोग हॉस्टल में रहा करते
थे. चार सौ से ज्यादा लोग मेस में आ कर खड़े हो चुके थे.
खुशहाल अग्रवाल बड़ा माना हुआ हॉकी का खिलाड़ी था. उसके माँ-पिताजी दोनों
सरकार में बड़े ओहदे में थे. जूनियरोंमें उसका रुतबा था. उसने आवाज़ बुलंद कर के
कहा, “साथियों, हम सभी जानते हैं कि वार्डन किस तरह हमारे
फर्स्ट ईयर के छात्र पर हाथ उठाया. इसके विरोध को दर्ज़ करने के लिए हम मेस बॉयकॉट
कर रहे हैं. हमारी माँग है कि वार्डन को हटाया जाय. आज शाम में डीन और अन्य
अधिकारियों ने हमारे हॉस्टल की माँगें मानने से इन्कार कर दिया है. यह फोरम इसलिए
बुलाया गया है कि आप सभी अपनी बातेंकहें और कोई भी विचार हो तो वह सामने आया. जिसे
अपनी बात कहनी है वह इस टेबल पर खड़ा हो जाय और हम सभी को अपने विचार बताए.“
मौका देख कर एक एम.टेक. लड़के ने टेबल पर चढ़ कर कहना शुरु किया, “हमें अपना मेस बॉयकॉट ज़ारी रखना चाहिए.“
खुशहाल अग्रवाल ने पूछा, “कब तक?” इस सवाल के लिए वह तैयार नहीं था. उसने इतना ही कहा कि जब तक हमारी बात नहीं मान ली जाय. कह कर वह टेबल से नीचे उतर गया.
टेबल पर चढ़ कर फर्स्ट ईयर के एक लड़के ने कहा, “हमें प्राइम मिनिस्टर रेसिडेंस के पास जा कर ध्यान देना चाहिए.“ कुछ हँसी में सबने उसे झिड़क दिया तो वह नीचे उतर आया. किसी ने चढ़ कर कहा, “हम सबको रात भर डायरेक्टर के निवास के पास जा कर चुपचाप खड़े हो जाना चाहिए.
मौन सत्याग्रह करना चाहिए. सोचो, चार सौ लड़के रात भर
उसके घर के बाहर खड़े रहेंगे तो उसकी क्या हालात होगी?“
भीड़ में से वैभव माथुर ने कहा, “डायरेक्टर बहुत
बड़ी चीज़ है. उसे हज़ारों काम लगे रहते हैं. हमारी बात डीन को सुननी चाहिए थी.“
भीड़ में तरह-तरह की आवाज़े आ रही थी. मैं न जाने किस जोश में भर आया. झट से
टेबल पर चढ़ कर मैंने आवाज़ लगायी, “हमारी आवाज़
ज़ुल्म के ख़िलाफ़ है. हम लड़ेंगे. हम मेस बॉयकॉट करेंगे, चाहे जो भी हो.“ मैंने देखा कि समूचे मेस में मेरी
ज़ोरदार आवाज़ से सन्नाटा छा गया. जोश मेंमैंने दहाड़ लगाया, “भाईयों, इस मशाल को हमें जलाए रखना है. ज़रूरत
पड़ी तो हम अपनी डिग्री भूल जाएँगे. ज़रूरत पड़ी तो हम जेल जाएँगे. लेकिन जब इस
जलजले से हम निकलेंगे तो तप कर सोना बन जाएँगे. हम इंसान बन जाएँगे! क्यों भाइयों?”
मैंने देखा कि मेरी बात सुनते ही भीड़ तितर-बितर होने लगी. कोई अपनी डिग्री
भूलना नहीं चाहता था. किसी को ज़ुल्म के ख़िलाफ़ नहीं लड़ना चाहता. इस बात को
समझते हुए मुझे बहुत अफ़सोस हुआ और मैं चुपचाप टेबल से नीचे उतर कर फिर से इक बार
उस भीड़ का मामूली हिस्सा बन गया. किसी ने मुझसे कुछ कहा नहीं, पर मुझे अपनी भाषण पर ख़ुद ही बड़ी शर्म आयी.
किस-किस बात की शर्म करूँ, तितली के धोखे का या
मतलबी दुनिया का?
मेरी हिम्मत
देखना मेरी तबीयत देखना
जो सुलझ जाती है
गुत्थी फिर से उलझाता हूँ मैं l
देखना उस इश्क़
की ये तुर्फ़ाकारी देखना
वो जफ़ा करते
हैं मुझ पर और शर्माता हूँ मैं l
एक दिल है और
तूफ़ान-ए-हवादिस ऐ "ज़िगर"
एक शीशा है कि
हर पत्थर से टकराता हूँ मैं l
(तीन)
23 अक्टूबर 2002 : दीवान-ए-ग़ालिब
[सूत्रधार की टिप्पणी: मिर्ज़ा ग़ालिब (1797-1869) उर्दू के महानतम
शायरों मे गिने जाते हैं. हमारे मिर्ज़ा भी आगरे में पैदा हुए थे, पर किशोरावस्था
से ही दिल्ली में ही रहने लगे थे. उन दिनों ये थर्ड ईयर में थे. भारतीय
प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली के कंप्यूटर साइंस के चार साल वाले बी.टेक. प्रोग्राम
के छात्र होने के कारण लोग उसकी जहीनीयत से ख़ौफ़ खाते थे और उसकी अंग्रेजी
लफ़्फ़ाज़ी पर अचरज करते थे. ग़ालिब ने कोई सेक्रेटरी का पोस्ट नहीं लिया था पर
उन्हें हॉस्टल के अंदर और बाहर की पॉलिटिक्स की ख़ूब खबर रहती थी. उनके प्रताप से
वार्डन क्या, डीन भी
उसे बहुत अच्छे परिचित थे. उन दिनों यह ‘बी’ परपेंडीकुलर विंग में रहा करते थे. ]
बुधवार को लंच के बाद आफ्टरनून फ्री हुआ करता है, मतलब किसी भी ईयर के लड़कों के लिए कोई ट्यूटोरियल या प्रैक्टिकल नहीं. इसलिए
मैंने और सूखे ने प्लान बना रखा था कि पुरानी दिल्ली जा कर ‘ग़ालिब की हवेली’ देख कर आएँगे. फच्चों से (फर्स्ट
ईयर वाले को फच्चा कहने का रिवाज़ है) मैंने ग़ालिब के बारे में सुना. तब से मैं
दीवान-ए-ग़ालिब पढ़ रहा हूँ और सूखे को भी इसमें इंटरेस्ट आने लगा. लेक्चर के बाद
हमने प्लान बनाया कि उधर से बस पकड़ कर पुरानी दिल्ली चले जाएँगे. बाहर ही कहीं
खाना-वाना होगा और शाम तक लौट ही आएँगे. सुबह-सुबह पता चला कि हमारे मेस बहिष्कार
के बारे में अखबार में उल्टी-सीधी ख़बरें छप गयीं है. किसी ने ‘गौरव कटारिया’ का नाम ‘सिद्धार्थ रहेजा’ छाप दिया था. कहीं यह खबर आ रही थी
कि नीलगिरि में इंटरनेट काट दिया गया है. अखबार वालों को मसाला मिल गया था.
बस में बैठ कर सूखे ने पूछा, “तुम्हारी इस
पंक्चुअलिटी से तौबा कर लेनी चाहिए. हर जगह टाइम से आना-जाना. हर काम समय पर करना.
क्या ज़रूरत है इसकी?” मैं सोच में पड़ गया. “शायद तुम सोचते हो कि इस तरह की आदत से कुछ पुरस्कार मिलना चाहिए. मेरे हिसाब
से समय पर काम करना अपने आप में पुरस्कार है. अच्छी बात है. वैसे देखो, अपने आइआइटी में आ कर दो तरह की विचारधारा हो जाती है. आधे से अधिक क्लास
लगाना नहीं चाहते. कोई काम सही समय पर नहीं करना चाहते और उस पर तुर्रा यह कि हम
हिन्दुस्तान के बादशाह हैं.“
सूखे ने कहा, “भाई, जेईई (ज्वाइंट एंट्रेन्स एक्सामिनेशन) पास कर के आये हैं, मज़ाक है क्या? डेढ़-दो लाख लड़के इस परीक्षा में
बैठते हैं और बमुश्किल तीन हज़ार पास करते हैं. उसमें भी आइआइटी दिल्ली आना मज़ाक
तो नहीं?”
“यही घमण्ड हम सबको ले डूबेगा. लड़कों को घमण्ड कि यहाँ पढ़ते हैं. प्रोफेसरों
का घमण्ड कि यहाँ पढ़ाते हैं, दुनिया-जहान में इतना
नाम है,
इतनी शोहरत है.“
“तुम क्या चाहते हो?” सूखे ने ताना मारा.
“पता है हमारे डायरेक्टर ने एक लेख लिखा है कि जेईई बंद हो जानी चाहिए और
बारहवीं के अंक के आधार पर एडमिशन होना चाहिए.“
सूखा के मुँह से निकला, “बहनचोदऽऽ!”
“हिन्दुस्तान में जहाँ फर्ज़ी की डिग्री मिल जाती है, कितना आसान है ऐसे फालतू के नम्बर ले आना. अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग तरह से नम्बर आते हैं, कहीं सत्तर-पचहत्तर प्रतिशत ही अधिकतम नम्बर आते हैं. इस तरह तो राजस्थान और बिहार के लड़के कभी आइआइटी नहीं आ पाएँगे. कोई अंग्रेजी में कमजोर है, पर गणित में बहुत अच्छा है. ऐसे तो मेहनत करने वाले लड़के और रियल टैलेंट वाले लोग कभी आ ही नहीं पाएँगे. दरअसल यहाँ प्रोफेसरों का माइंडसेट ऐसा है कि इलीट स्कूल के लड़के ही यहाँ पढ़ें. और इलीट घर के लड़कों की आँखों में देखो कि किस तरह गरीब घर के लड़कों को उनकी निगाहों से धिक्कारा जाता है.“
हम दोनों ने ग़ालिब की हवेली घूमी. वापस आते समय फुटपाथ पर बिकती जोजेफ हेलर
की ‘Catch
22 (कैच 22)’ को देख कर उसने
पूछा,
“तुमने कैच 22 पूरी पढ़ ली? कैसी लगी?”
“कब की पढ़ ली. ठीक है. मुझे बहुत पसंद नहीं आयी. सेना का मज़ाक उड़ाया गया है, चलता है. लिखा हुआ बहुत पसंद नहीं आया. एक तरह के जोक़ बार-बार रिपीट हो रहे थे. एक बात की दाद देनी पड़ेगी. इस किताब से ऐसा समझ आता है कि डिसीप्लिन के नाम का स्वांग का पूरा मॉडल सेना से उठ कर आया है.“
“तुम खुद इतने डिसीप्लिन्ड हो, तुम्हेँ डिसीप्लिन पसंद नहीं?”
“मैं वार्डन के ख़िलाफ हूँ. इस तरह के डिसीप्लीन के ख़िलाफ हूँ.“
“वार्डन डिसीप्लिन की बात नहीं करता है. रुल्स लागू करने के लिए फाइट मारता है. उसको जो काम मिला है, वो करने की कोशिश कर रहा है.“ सूखा पाला बदल कर जवाब देने लगा, जब कि मैं जानता था कि वो भी माइकल जैक्सन से बहुत चिढ़ता है.
मैं सोचने लगा कि वार्डन ने सेना वाली फ़िल्मों में से ग्रेगरी पेक की ‘ट्व्लेव ओ क्लॉक हाइ’ (Twelve O'Clock High : 1949) और डेविड लीन की ‘द ब्रिज आन दी रिवर क्वाइ’ (The Bridge on
the River Kwai : 1957) कई बार देखी है. तभी उसे इस तरह
डिसीप्लिन का भूत सवार हो गया है. उसे लगता है कि किसी जोर जबरदस्ती से हॉस्टल
वाले उसकी तरह सुबह उठ कर ताइक्वांडो की प्रैक्टिस करने लगेंगे. नियम और नियम पालन
अपने आप से किया जाय तो ठीक है, उसके बाद यह अनुशासन
नहीं शासन बन जाता है. हम लोग सेना की टुकड़ी नहींहैं, जो उसके कहे पर चलें. हमें नहीं पसंद कि वह रात को हमारे कमरों में दस्तक दे कर
यह चेक करने आए कि हम हीटर जलाते हैं या नहीं. हम यहाँ कोई युद्ध नहीं लड़ रहे हैं.
वैसे मुझे लगता है जब डिसीप्लिन से इतना ही प्यार है तो वार्डन को हम्फ्रे बोगार्ट
की ‘द केन म्यूटिनी’ (The Caine Mutiny : 1954) देखनी चाहिए, जिसमें नेवी के आफिसर अपने
लेफ्टिनेंट कमांडर को दिमागी तौर पर पागल घोषित कर उसके खिलाफ विद्रोह कर देते हैं.
शाम में यह खबर मिली कि डायरेक्ट, डीन आफ स्टूडेंट
और हाउसमास्टर आ रहे हैं. सबकी बातें सुनी जाएगी.
करीब साढ़े पाँच बजे जब पब्लिक अनाउँसमेंट हुयी, सभी लोग मेस में इक्कट्ठा होना शुरु हुए. मेस खचाखच भर चुका था. माइकल जैक्सन सिर झुकाए एक कोने में बैठा था. उसके साथ जोश में भरे हुए डीन और हाउसमास्टर बैठे थे. तभी ख़ामोशी से आ कर डायरेक्टर वहाँ कर बैठ गए. हमने पहली बार डायरेक्टर को रूबरू देखा था. खुशहाल अग्रवाल और बाकी सेक्रेटरी से उनके सवाल जवाब हो रहे थे. डीन आफ स्टूडेंट ने खड़े हो कर हम सबों को सम्बोधित किया, “आज डायरेक्टर साहब हमारे बीच में हैं. इन्होंने अपनी बिजी शेड्यूल से हमारे लिए समय निकाला है. हमें उम्मीद है वे आपकी समस्या का समाधान करेंगे और आप लोग निष्पक्ष हो कर अपनी बात रखेंगे. जिस किसी को भी कुछ कहना है, वो बारी-बारी से अपनी बात कहे.“
बहुत से हाथ खड़े हो गए. खुशहाल अग्रवाल ने फर्स्ट इयर के एक लड़के की तरफ़ इशारा कर के कहा, “तुम बोलो.“
उस लड़के ने बड़ी हिम्मत से कहा, “वार्डन का हम
लोग पर हाथ उठाना किस तरह जस्टीफाइड है?”
डायरेक्टर ने कहा, “मुझे बहुत दु:ख है मुझे आप लोग से मिलने का समय नहीं मिल पाता.आज आया भी हूँ तो शिकवे-शिकायत सुनने के लिए. मेरे लिए यह कितना बड़ा क्षण है कि जहाँ मैं पढ़ा, जहाँ से मैंने नौकरी की और जहाँ आज मैं डायरेक्टर हूँ; उस संस्थान को अब अखबारों में झूठ-मूठ में बदनाम किया जा रहा है. मैं इस को जस्टीफाइ करने नहीं आया हूँ. मैं इस समस्या को सुलझाने आया हूँ.“
दो पल के लिए सन्नाटा छा गया. खुशहाल अग्रवाल ने किसी फोर्थ इयर के लड़के को
कुछ कहने की अनुमति दी.
“सर,
हमारी बात कौन सुनता है? आज जब पानी सर
से ऊपर गुज़र गया है तो आप सुनने आए हैं. वरना वार्डन जो कभी भी किसी पर भी इतने
फाइन लगा दे, किसी के रूम की तलाशी लेने लगे, हम क्या कर सकते हैं?”
एक और आवाज़ आयी, “आज अगर यह खबर मीडिया में नहीं आती, अखबारोंमें नहीं छपती तो शायद आप हमारी बात भी नहीं सुन रहे होते.“
सुन कर डीन ने कहा, “ये गलत है. मैंने हमेशा तुम लोग की
बात सुनी है.“
थर्ड इयर के अनिल ने कहा, “सर, जब हम परसा आप के पास शिकायत ले कर आपके पहुँचे तो आपने कटारिया की गलती बतायी. आपने कहा कि जब वार्डन थप्पड़ मार रहे थे तो कटारिया पीछे क्यों हटने लगा? पीछे ईंट थी, अगर ईंट उसके सिर पर लगती, चोट आ जाती तो कौन जिम्मेदार होता? हम यह कहना चाहते हैं कि पिटते वक्त आदमी को होश नहीं रहता कि आगे-पीछे खाई है या नहीं.“
डीन कुछ कहने को हुए, तभी किसी और ने कुछ कहना शुरु किया. हाउस सेक्रेटरी खुशहाल अग्रवाल ने आवाज़ लगाई, “सब एक साथ नहीं बोलें. एक-एक करके.“डीन ने भीड़ को शांत कराते हुए जोर से कहा, “एक मिनट, एक मिनट! तुम लोग को यह पता है कि गौरव कटारिया के घर में यह बात पता चली तो उसके माता-पिता ने क्या कहा?”
सब चुप रहे.
डीन ने आगे कहा, “उन्होंने कहा कि वार्डन सर ने ठीक
ही किया. वैसे शिक्षक माँ-बाप जैसे होते हैं. यहाँ गाली-गलौज करना क्या सही बात है? वार्डन ने हाउसमास्टर के सामने गौरव कटारिया से गले मिल कर माफ़ी माँग ली है.
अपनी सफाई में उन्होंने ये कहा है कि वो अपने परिवार के साथ रहते हैं. इस तरह की
भाषा से उनकी पत्नी और बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा.“
भीड़ से आवाज़ आयी – “इसलिए हाथ उठा देंगे?”
डीन बिफ़र कर चिल्लाये, “वार्डन क्या तुम्हारे गार्जियन जैसे
नहींहैं?
एक मिनट, एक मिनट... एक मिनट..
शांति,
शांति .... क्या गाली दे कर बात करना ठीक बात है?”
मेरे दोस्त सूखे को न जाने कौन सा जोश आ गया, उसने फट से चिल्ला कर कहा, “सर, मेरे घर में मेरे पिता जी ऐसे ही बात किया करते हैं.“डीन की आँखेंफड़क गयीं. उसने आवाज़ कम कर के कहा, “ओह... सच में? यहाँ कितने लोग ऐसे हैं जिनके घर में उनके माँ-बाप ऐसे गाली दे कर उनसे बात करते हैं? अपने हाथ खड़े करो.”
फिर डीन ने गिनना शुरु किया, “एक.. दो.. चार.. आठ नौ... ओह .. तुम सब मिल गए हो.. सब ने हाथ खड़ा कर दिया. (हँस कर) पूरे हॉस्टल के चार सौ लड़के .... अच्छा.. हम सब समझते हैं कि तुम सब मिल कर झूठ बोल रहे हो. किसी के घर में ऐसे कोई बात नहीं करता और तुम लोग यहाँ एकता दिखा रहे हो.“
तभी फोर्थ इयर के निशांत पोद्दार ने कहा, “सर, गाली की ही बात है तो यह दोहरी नीति है. मेरे एक ट्यूटोरियल में एक प्रोफेसर ने गाली दे कर मुझे कहा कि तुम्हें चप्पल से मारूँगा. आपको याद होगा कि पिछले साल मैंने इस सिलसिले मेंआपसे शिकायत भी की थी. आपने मुझे टरका दिया कि वो बहुत प्यार से पढ़ाते हैं. उनका ऐसा लहज़ा है. आज वार्डन की गलती सामने है तो आप मान नहीं रहे हैं?”
“वो दूसरी बात है. उस बात को यहाँ मत लाओ. उस के लिए हमने अलग बातचीत की है.“ कह कर डीन ने कन्नी काटी.
एक पी.एच.डी. स्टूडेंट ने अपना परिचय देते हुए कहा, “सर मैं जबलपुर के पास एक कॉलेज में लेक्चरर हूँ. यहाँ पी.एच.डी. कर रहा हूँ.
मेरे दिल में वार्डन साहब के लिए बहुत सम्मान था कि वह हॉस्टल के लिए इतना चिंतित
रहते हैं. बगीचे की देख-भाल, साफ-सफाई, मेस का निरीक्षण ... सब अच्छी बाते हैं. एक दिन मैं स्कूटर से आ रहा था. यहाँ
रिसेप्शन के पास स्कूटर लगाना माना है, जो मुझे नहीं
पता था,
हालाँकि वहाँ बोर्ड लगा है, पर मुझे नहीं पता था. जैसे ही मैंने स्कूटर खड़ा किया, इन्होंने आ कर मुझे डेढ़ हज़ार का फाइन कर दिया. मैंने मुआफ़ी माँग कर कहा कि
गलती हो गयी है, मुझे नहीं पता था. कहीं और गाड़ी कर देता
हूँ, पर वे नहीं माने. सर, मेरे डेढ़ हज़ार रूपए लग गए. मेरे
दिल में वार्डन साहब के लिए इज्जत और बढ़ गयी, कि वो नियम के
लिए इतने सख्त हैं. आप मिसाल देखिए, इनकी सख़्ती
इतनी है कि किसी के भी रूम पर छह लीवर से कम का ताला लगा हो तो दो सौ रूपये का
फाइन लगा देते हैं. हम सब मानते हैं, सुरक्षा ज़रूरी
है. बहुत से वार्डन इन सब छोटी-छोटी बातों पर ध्यान ही नहीं देते. लेकिन सच कहूँ
डायरेक्टर साहब, मेरे दिल में एक ख़लिश रह गयी कि वार्डन
साहब मेरी मजबूरी समझते. मुझे अपना घर भी चलाना होता है और पी.एच.डी. भी करनी होती
है. हमारे बहुत से पी.एच.डी. दोस्त यहाँ अभी भी खाना खा लेते हैं, क्योंकि उनके पास पैसे नहींहैं. मेरे पास भी नहीं कि मैं बाहर खाना खा सकूँ और
मेस का बिल भी भरूँ. मैं अंडरग्रैजुएट बच्चों की तरह हॉस्टल गेट के बाहर सस्सी
ढ़ाबे पर नहीं खा सकता. मुझे बीमारी हो जाएगी. मेरा लीवर इतना मजबूत नहीं है. मेरे
पास इतने पैसे नहीं है कि रोज अरावली के सामने वाले निजी रेस्तराँ में खाना खाऊँ.
मैं भूखा रह जाता हूँ पर मैं इन मासूम बच्चों की आवाज़ के साथ खड़ा हूँ कि इन्हें यह
न लगे कि ये अकेले हैं.“
इस के बाद सेकेण्ड ईयर के नागराज ने डायरेक्टर से कहा, “आप हम सबकी हालत सुन ही रहे हैं. वार्डन की मुआफ़ी काफ़ी नहीं है. हमें इनसे आजाद कर दीजिए. जब तक आप ऐसा नहींकरेंगे, मैं यहाँ खाना नहीं खाऊँगा.“
डायरेक्टर ने कहा, “बेटे, तुम्हारा नाम क्या है?” फिर डीन से बोले, “मुझे इसके माँ-बाप से बात करवाइए.“ इतने भीड़ में मैं डायरेक्टर से कहना चाहा, “सर, मुझे भी कुछ कहना है?”
डीन ने मेरी तरफ़ देख कर कहा, “तुम तो समझदार हो. तुम
ही बताओ क्या मिल रहा है तुम लोग को? यहाँ मेस का
पैसा भी दे रहे हो, बाहर रेस्तराँ में भी खा रहे हो.
साथ में गरीब लड़कों पर जोर बना रहे हो कि वे भी यहाँ नहीं खाए. मुझे क्या दिक्कत
हो सकती है कि तुम लोग साल भर रेस्तराँ में खाना खाओ. तुम कुछ लोग के कारण गरीब
स्टूडेंट भूखे रह जाते हैं. मानवता के नाम पर तुम लोग को यह सोचना चाहिए.“
मैंने कहा, “मुझे अफ़सोस है कि आप केवल उन लोग का
भूखा रहना देख रहे हैं, यह नहीं देख रहे कि नियम के नाम पर
कोई किस हद तक ग़ुजर रहा है. यह ठीक है कि बहुत से लोग यहाँ नहीं खाते, उनके लिए यह मज़े की बात है. पर कुछ तो सच्चाई भी है कि एक बार आवाज़ लगाने पर
हम सब हॉस्टल के लोग अन्याय के खिलाफ़ खड़े हुए हैं. तरीका मेस बॉयकॉट के अलावा
कुछ और भी हो सकता था. तरीके पर मत जाइए. हमारी तक़लीफ़ समझिए.“
“मुझे नहीं लगता कि सच में किसी को कोई तक़लीफ है!” ऐसा कह कर डीन ने डायरेक्टर की तरफ़ मुड़ कर कहा, “ये लोग हमारी बात नहीं समझना चाहते हैं.“ डायरेक्टर के
खड़े होत ही सभी खड़े हो गए. डायरेक्टर ने कहा, “मैं दोहराता हूँ
कि हम सब इस समस्या के समाधान के लिए प्रतिबद्ध हैं. आप से अनुरोध है कि मेस
बॉयकॉट वापस लीजिए. मीडिया में झूठी खबरें मत फैलाइए.“
न हुई गर मेरे
मरने से तसल्ली न सही
इम्तिहाँ और भी
बाक़ी हो तो ये भी न सही l
एक हंगामे पे
मौक़ूफ़ है घर की रौनक़
नौहा-ए-ग़म ही
सही नग़्मा-ए-शादी न सही l
न सताइश की
तमन्ना न सिले की पर्वा
गर नहीं हैं
मिरे अशआ'र में मा'नी न सही l
(चार)
24 अक्टूबर 2002: फ़ैज-ए-मीर
“अब कोई बहाना बनाने की ज़रूरत नहीं है. मैंने कुक बोला कि तुम सब लोग के लिए कुछ बना दे. चलो भी!”
उसकी फिलॉसफी सुन कर हम सब हँसने लगे.
शाम में फिर पब्लिक अनाउँसमेंट हुयी. मेस हम सब इक्कट्ठा हुए. खुशहाल अग्रवाल के चेहरे पर मायूसी छायी हुयी थी. सबके आ जाने के बाद उसने कहना शुरु किया, “साथियों, डीन और डायरेक्टर हमारी बात मानने को तैयार नहीं है. डीन ने मुझे आठ लोग के नाम की लिस्ट दी है, जिसमें मेरा भी नाम है, जिन्हें कल इंस्टिट्यूट से अनुशासनिक कारणों से निकाल दिया जाएगा. उन्होंने कहा कि अगर यह मेस बॉयकॉट ख़त्म नहीं हुयी, तो हमें न केवल सेमेस्टर के लिए बल्कि हमेशा के लिए यहाँ से निकाल दिया जाएगा.“
यह सुन कर सब को साँप सूँघ गया. एक आवाज़ आयी, “ऐसे कैसे निकाल देंगे? हम धरना देंगे.”
24 अक्टूबर 2002: फ़ैज-ए-मीर
[सूत्रधार की टिप्पणी: खुदा-ए-सुखन मीर
तक़ी मीर (1723-1810) भले ही
पैदा आगरे में हुए,पीरी
मेंलखनऊ में इंतक़ाल फरमा गए, पर ज़िन्दगी का बड़ा औरबेहद ख़ूबसूरत हिस्सा उन्होंने
दिल्ली में बिताया. कहा जाता है कि नादिरशाह के आक्रमण के दौरान अपने मरने की झूठी
अफवाह फैलाने के बदले एक ही दिन में बीस-बाईस हज़ार आदमियों का क़त्ल करवा दिया था.
अब्दाली और नादिरशाह के हमलों से कटी-फटी दिल्ली को मीर तक़ी मीर ने अपनी आँखों से
देखा. सेकेण्ड ईयर में पढ़ने वाले हमारे ‘मीर तक़ी मीर’ मेकैनिल इंजिनियरंग ब्राँच के खुदा माने जाते थे. ये
सी-शार्ट में रहा करते थे. ]
जहाँ तक मेरा मेस बॉयकॉट को ले कर मानना रहा है, मेरे हिसाब से यह एक बेईमान विरोध है. बी.टेक. के बहुत से लड़के बाहर खाना
खाना पसंद करते हैं और उनको एक मौका मिल गया कि वार्डन से अपनी खुन्नस निकाली जाय.
ज्यादा चिढ़ मुझे उन लोग से है जो कि कराकोरम और अरावली छात्रावास जा कर मुफ्त में
नाश्ता,
लंच और डिनर कर के आते हैं. न तो वे हॉस्टल गेट के बाहर सस्सी
ढ़ाबे में खाते हैं, न ही अरावली हॉस्टल के सामने वाले
रेस्तराँ में.
कल शाम डायरेक्टर के विजिट के समय मैं इंस्टिट्यूट में था. सुनने में आया कि
रात में नागराज के माँ-पिता जी को फोन किया गया है. धमकी दी जा रही है कि एक्सपेल
कर दिया जाएगा. एक तो ब्रेकफस्ट करना छूट ही गया है, दूसरे इस तरह की मुसीबत.
सुबह के लेक्चर के बाद हम नीलगिरी वाले ‘टूएलटी- टू’ से बाहर निकल कर हमेशा की तरह एक्जीबिशन हॉल से होते हुए विंड टनेल में आ कर
खड़े थे कि खाने के लिए कहाँ चला जाए. तभी उधर से शालू आयी. शालू अटैची थी, मतलब डे स्कॉलर. (जिनका घर आइआइटी से पंद्रह किलोमीटर के दायरे में होता है, वे चाहें तो हॉस्टल में नहीं रह सकते. पर उन्हें किसी हॉस्टल से अटैच किया
जाता है,
इस लिए उन्हें अटैची कहते हैं.) शालू ने मुस्कुरा कर कहा, “मैं तुम नीलगिरि वालों के लिए घर से खाना बनवा कर लायी हूँ.“ हम सब उसका चेहरा देखते रह गए. उसने कहा, “चलो मेरी गाड़ी
के पास. बैंक के पास गाड़ी खड़ी है. उसी में टिफिन भी रखा है और प्लेटें भी है.“ हमने शराफ़त से कहा, “तुमने खामखाँ हमारे लिए इतनी
तक़लीफ़ की.“
“अब कोई बहाना बनाने की ज़रूरत नहीं है. मैंने कुक बोला कि तुम सब लोग के लिए कुछ बना दे. चलो भी!”
विंड टनेल की ठंढी हवा को छोड़ कर जाने का दिल नहीं कर रहा था पर भूख जबरदस्त
भी लगी थी. सो हम लोग मल्टी स्टोरेज बिल्डिंग के बीच से ही सेमिनार हॉल से होते
हुये बैंक की तरफ़ निकल गये. शालू ने हम सब के लिए पूड़ी-भुजिया पैक करवाया था.
खाते हुए मैंने सोचा कि मेकैनिकल वालों के लिए तो शालू जैसा वरदान मिल गया, बाकियों का न जाने क्या हाल है. शालू ने पूछा, “कब तक चलेगा तुम लोग का हड़ताल? मैंने सुना कल
डायरेक्टर आया था.“
“हाँ,
आया था. मैं वहाँ था नहीं. धमकी दे कर गया है. एक लड़के ने
कहा कि मैं खाना नहीं खाउँगा. उसके घर फोन कर के धमकी दी है कि एक सेमेस्टर के लिए
निकाल देंगे.“
“ये कोई बात हुयी!” शालू ने हैरत से कहा.
“ऐसे ही है दुनिया. जिसको मौका मिलता है दूसरे को दबाता है.“ मेरी बात सुन कर रचित ने कहा, “वार्डन की गलती है. उसे
कटारिया को नहीं पीटना चाहिए था.“
“मेरे हिसाब से पूरे घटनाक्रम में अगर किसी को सबसे कम तकलीफ है तो वह गौरव
कटारिया ही है. सब का अटेंशन उसे मिल रहा है. अब कोई उसे कुछ कहेगा भी नहीं. उसे
कोई फर्क हीं नहीं पड़ता कि वार्डन ने मार दिया. मुद्दा तो वो रहा ही नहीं. मुद्दा
तो यह है कि वार्डन हटेगा या नहीं.“
शालू ने कहा, “मुझे नहीं लगता कि यहाँ का
एडमिंशट्रेशन पीछे हटेगा. हर बात पर अपनी बात लागू करवाना यहाँ का ऊसूल रहा है. बस
यही लॉजिक है.“
“और नहीं तो क्या. लॉजिक की बात पर याद आया. जब हम फर्स्ट ईयर में हॉस्टल आये
थे, उस समय वार्डन ने स्पीच दी. कंप्यूटर साइंस के दुबले-पतले फिट्टू को खड़ा कर
दिया और साथ में सिविल के हट्टे कट्टे पहलवान अमरदीप चौधरी को. कहने लगा जब अमरदीप
फर्स्ट ईयर में आया था तब वह फिट्टू के जैसा दुबला पतला था. अब मेस का खाना खा कर
वह ऐसा तंदुरूस्त हो गया है. तभी अशोक ने पूछ लिया, अगर अमरदीप ऐसा हट्टा-कट्टा हो गया है तो फिट्टू क्यूँ दुबला रह गया. जो ठहाका
लगा कि क्या कहने. वार्डन ने बात बदल दी.“
रोहित ने कहा, “अपने वार्डन के घर में ड्राइंग रूम
में सीलिंग से काले रंग का सिलिंडरिकल पंचिग बैग लटका हुआ है. वार्डन को रोज लगता
होगा कि पंचिग बैग पर बहुत प्रैक्टिस कर ली. उसका भी दिल करता होगा कि कोई ‘ह्यूमनआब्जेक्ट’ मिले प्रैक्टिस के लिए, जैसे नाज़ीअपने कैदियों के साथ करते थे वैसा ही कुछ एक्सपेरिमेंट करे.“
“तुम लोग की मेस खाली रहती है? या सब के लिए खाना बना
करता है?”
शालू ने पूछा.
“पहले दिन तो मेस का खाना बरबाद गया. आज कल बहुत कम बनाते हैं. कुछ पी.एच.डी.
मेस में ही खाते हैं. एम.टेक. का बहुत सपोर्ट रहा है. एक है जो माइकल जैक्सन के
अंदर पी.एच.डी. कर रहा है, वो हमेशा मेस में ही खाता है. उस
गद्दार को हम ‘जैक्सन का पिल्ला’ कहा करते हैं.“ मैंने कहा.
“अपना माइकल जैक्सन साइको केस है.“ तुषार ने राय दी
, “चर्चिल के शब्दों में – उसके पास वो सारे गुण है जिससे मैं
चिढ़ता हूँ और एक भी ऐसा दोष नहीं जिसे मैं पसंद करता हूँ.“
“मेरा खयाल है यह सब उसके उदास बचपन के कारण रहा होगा. सिगमंड फ्रॉयड का कहना
था कि हर मानसिक बीमारी का कारण बचपन हुआ करता है.उसे अपना इलाज करवाना चाहिए.“
“अगर नियम-कानून के लिए इतना ही पागलपन है तो क्या कहा जा सकता है. एक टीचर को
उदार होना चाहिए कि उसपे विश्वास किया जा सके. यहाँ किसी प्रोफेसर को हमपें
विश्वास नहीं. मानते हैं कि हममें से कई हैं जो सिस्टम का फायदा उठाना चाहते हैं, लेकिन अगर टीचर इतनी सख्ती से पेश आए कि स्टूडेंट का दम घुटने लगे फिर क्या
फायदा.“
वेकेंटेश ने कहा, “हमारे तरफ़ तेनकलइ में ‘वैडाली धृति’ की बात होती है. इसे
मार्जार-किशोर-न्याय भी कहते हैं. जिस तरह बिल्ली अपने बच्चे को मुँह से पकड़ के
एक-जगह से दूसरी जगह ले जाती है, उसी तरह प्रॉफेसर को भी
स्टूडेंट के लिए नरमी दिखाना चाहिए. बिल्ली जब मुँह में बच्चे को रखती है, न तो दाँत से उसे चोट पहुँचाती है न ही इतने धीमे पकड़ती है कि वह गिर जाए.“
उसकी फिलॉसफी सुन कर हम सब हँसने लगे.
पूरे दिन लगातार लेक्चर, ट्यूटोरियल और
प्रैक्टिकल कर के मैं थक के चूर हो कर शाम छह बजे हॉस्टल पहुँचा. रूम पर अभी कपड़े
बदले ही थे कि मेरा इंदौरी रूम-पार्टनर कहने लगा, “पता है अपने डायरेक्टर ने साफ-साफ धमकी दी है.“
“किसे?”
“हाउस सेक्रेटेरी, मेस सेक्रेटरी, नागराज और पाँच लोग हैं....” अपनी उँगलियों पर सबके
नाम गिनते-गिनते उसने सिर उठा कर कहा, “सबके घर फोन भी
किया गया है कि अगर मेस बॉयकॉट वापस नहीं लिया गया तो इन सब का एक सेमेस्टर तो गया.
यहाँ से निकाल दिया जाएगा.“
“अच्छा.“ मैं शांति से अपनी कुर्सी पर बैठ गया.
इंदौरी मेरे पास आ कर बोला, “तुम्हें तो कोई फर्क ही नहीं पड़
रहा है.
“इसके अलावा हो भी क्या सकता है?” मैंने कहा, “वार्डन की सूरत देखो. बाघ से बकरी बन गया है. इंस्टिट्यूट वाले अपनी आदत छोड़
देंगे क्या? मीडिया कब तक इसको मुद्दा बनाएगी?”
मेरी बात सुन कर इंदौरी शांत हो गया. मैंने समझाया, “हर चीज़ का समय होता है. किसी का मर्डर या रेप नहीं हुआ. हर जगह कुछ न कुछ
दिक्कते रहती हैं. रहेंगी ही. जो पिटा, उसको मलाल ही
नहीं है. हमने कर दिया प्रोटेस्ट, अब छोड़ो.“
“तो वार्डन नहीं हटेगा?” इंदौरी ने मुझसे कहा.
“मैं क्या जानूँ? मैं कोई डायरेक्टर हूँ या डीन हूँ?” मैंने कहा.
“पागल माइकल जैक्सन को ऐसा छोड़ देना ठीक नहीं है. आगे आने वाले स्टूडेंट्स के
लिए खतरा बन सकता है.“ कह कर इंदौरी रूम के बाहर चला गया.
शाम में फिर पब्लिक अनाउँसमेंट हुयी. मेस हम सब इक्कट्ठा हुए. खुशहाल अग्रवाल के चेहरे पर मायूसी छायी हुयी थी. सबके आ जाने के बाद उसने कहना शुरु किया, “साथियों, डीन और डायरेक्टर हमारी बात मानने को तैयार नहीं है. डीन ने मुझे आठ लोग के नाम की लिस्ट दी है, जिसमें मेरा भी नाम है, जिन्हें कल इंस्टिट्यूट से अनुशासनिक कारणों से निकाल दिया जाएगा. उन्होंने कहा कि अगर यह मेस बॉयकॉट ख़त्म नहीं हुयी, तो हमें न केवल सेमेस्टर के लिए बल्कि हमेशा के लिए यहाँ से निकाल दिया जाएगा.“
यह सुन कर सब को साँप सूँघ गया. एक आवाज़ आयी, “ऐसे कैसे निकाल देंगे? हम धरना देंगे.”
“दे तो रहे हैं चार दिन से. किसने सुनी आज तक?” नागराज ने मायूस आवाज़ में कहा.
एक एम.टेक. स्टूडेंट ने कहा, “हम तो आगे बढ़ चुके हैं.
क्या एक बार भी डीन या डायरेक्टर ने कहा कि वार्डन ने ग़लत किया है? क्या उनके अंदर ग़लती का कोई अहसास भी है? हमें तो यह भी
यकीन नहीं है कि बॉयकॉट वापस लेने के बाद भी कहीं इन आठ लोग को इंस्टिट्यूट से न
निकाल दें?”
यह सुनते ही खुशहाल अग्रवाल ने झुँझला कर कहा, “बंद करो यार. बहुत हुआ ये सब. वार्डन ने गौरव कटारिया से माफ़ी माँग ली. हम भी
भूल जाते हैं.“ सब ख़ामोश उस हॉकी के खिलाड़ी को देख रहे
थे, जो कभी घबराता न था, पर आज हार चुका था.
“किस बात के लिए धरना दें? आधे हॉस्टलर मुझे दोष
दे रहे हैं कि मेरी वजह से उन्हें बाहर पैसे दे कर खाना पड़ रहा है. आज भी करीब
पच्चीस-तीस लोग नाश्ता करने पहुँच गए थे. कब तक हम ये आंदोलन चला पाएँगे?” खुशहाल बेहाल हो चुका था.
फिफ्थ ईयर के वैभव माथुर ने कहा, “हमारे पास अब
कोई चारा नहीं बचा है. पता नहीं इस बॉयकॉट को जारी रख कर कुछ कर पाएँगे भी या नहीं.
हम नहीं चाहते कि खुशहाल की, नागराज की, या हॉस्टल के किसी रहने वाले की डिग्री पर कोई आँच आए.“
और भी कुछ बातें होती रहीं, पर मैं निकल आया. बाहर
आ कर इंदौरी और मैं लॉन में बैठ गए. मैंने आकाश की तरफ़ दिखा कर कहा, “आज आसमान साफ़ दिख रहा है.“
इंदौरी निराश था. मैंने समझाया, “उदास क्यों हो
प्यारे?
ज़िन्दगी में इससे भी बड़ी लड़ाइयाँ आएँगी. तब लड़ लेना
प्यारे. जान है तो जहान है प्यारे.“
क़स्द गर
इम्तिहान है प्यारे
अब तलक नीम-जान
है प्यारे l
सिजदा करने मे
सर कटे है जहाँ
सो तेरा आस्तान
है प्यारे l
‘मीर’ अम्दन भी कोई मरता है
जान है तो जहान
है प्यारे l
(पांच)
ऐसे में यह विद्रोह क्या किसी एक का होगा? यह विरोध पूरी विचारधारा का है. इस सड़ रही व्यवस्था में है. हिन्दुस्तान के बेहतरीन दिमाग को मशीन की तरह धौंकनी में झोंक देना, यह क्या है? मेस बॉयकॉट क्या केवल गौरव कटारिया के पिट जाने के ख़िलाफ़ हुआ? इस रामायण में क्या माइकल जैक्सन ही रावण है? मैं यह नहीं कहता कि सारे प्रॉफेसर हरामजादे हैं, बहुत से अच्छे भी हैं. वे न तो अटेंडेंस के चक्कर में पड़ते हैं, न वार्डन बनने के चक्कर में. अच्छे लोग को क्यूँ नहीं ऐसी जिम्मेदार पोस्ट मिला करती हैं?मैं पूछता हूँ कि जब माइकल जैक्सन ने गौरव कटारिया से मुआफ़ी माँगी, उसी समय लगे हाथोँ अपना इस्तीफ़ा क्यूँ नहीं दे दिया? जब हॉस्टल के चार-साढ़े चार सौ लोग आपके खिलाफ़ झंडा बुलंद कर के खड़े हैं, तब वह कौन सी मजबूरी थी कि आप वार्डन के पोस्ट पर चिपके रहे? इन डीन, डायरेक्टर को समझ नहीं आता कि उन्होंने एक बार भी वार्डन से सार्वजनिक माफ़ी नहीं माँगने को कहा? हम कौन सा उसे कान पकड़ कर उठक-बैठक करने को कह रहे थे?
बारह बजे जब लेक्चर ख़त्म हुआ, तब मैं वापस हॉस्टल की तरफ़ रवाना हुआ. जाने आने वालों के बीच यह ख़बर फैल गयी थी कि नीलगिरि का मेस बॉयकॉट ख़त्म हो गया. हॉस्टल पहुँच कर मैंने देखा कि हाउस सेक्रेटरी, डीन, वार्डन, हाउस मास्टर और एसोसिएट डीन मेस के बाहर खड़े थे. पास लगे नोटिस बोर्ड पर लड़कों का झुण्ड नोटिस पढ़ रहा था. मैंने भी जगह बनायी और नोटिस को पढ़ा.
25 अक्टूबर 2002: तल्खियाँ
[सूत्रधार की टिप्पणी: साहिर लुधियानवी (1921-1980) बीसवीं सदी के
प्रमुख शायर और हिन्दी फ़िल्म गीतकार थे. हमारे ‘साहिर लुधियानवी’ टेक्स्टाइल
इंजीनियरिंग (वस्त्र प्रौद्योगिकी) के चार साल के बी.टेक. प्रोग्राम के सेकेन्ड
ईयर के छात्र थे और उन दिनों सी ‘अल्ट्रा-न्यू’ विंग में रहा करते थे. ये स्वभाव से इंकलाबी और
जज्बाती थे. जमीनी हक़ीक़त इनके दिल में तीर की तरह लगता था और यह ग़म का खा कर रह
जाया करते थे. ]
आज ही के दिन साहिर मरा था. आज के ही दिन मैं भी ज़रा सा मर गया.
कभी कभी सोचता हूँ कि यह लुधियाने के पानी का असर है जो मैं इतना तल्ख मिजाज़
का हूँ. हर बात से मुझे नाराज़ी हो जाती है. सब से बड़ी नाराज़ी तो मेरी ख़ुद से
ही हुआ करती है. सुबह-सुबह सबने सोचा था कि नाश्ता किया जाएगा. मुझे यही बात
नागवार गुज़री और मैं सबसे पहले तैयार हो कर सीधे इंस्टिट्यूट की तरफ़ निकल पड़ा.
मुझे यह बहुत बड़ी खामी लगती है कि सब एक तरह के कपड़े पहने, एक तरह एक समय पर खाना खाए, एक ही किताबेंपढ़ें और
एक ही परीक्षा दें. आज की तारीख में आदमी आदमी न हो कर भेड़ बन चुका है. हर कोई
उसे हाँकने में लगा है.
यहाँ आइआइटी में आने के लिए इतने पापड़ बेले. इतनी मेहनत की और यहाँ क्या
मिलता है – दिन रात पढ़ाई का प्रेशर. पचहत्तर प्रतिशत
से कम क्लास लगाने पर अटेंडेंस के नाम पर फेल कर देना. अटेंडेंस प्रॉक्सी (नकली
हाज़िरी) पकड़े जाने पर ग्रेड पेनल्टी या क्लास में फेल. ऊपर से इतने असाइनमेंट का
बोझ. चल भाई, पढ़ाई इतनी मुश्किल भी नहीं है. कम ग्रेड
से भी काम चल जाता है. पर जिसको देखो इस लहजे से बात करता है जैसे वह ख़ुदा है. जो
सीखने लायक चीज़ है, वह है विनम्रता, बोलने का लहज़ा, मीठी बोली, एक दूसरे का आदर और प्रेम. यहाँ हर दूसरा स्टूडेंट किसी न किसी से जल रहा है.
प्रॉफेसर स्टूडेंट से ऐसे पेश आते हैं जैसे कि मौका मिलने पर पानी का गिलास चेहरे
पर फेँकने में हिचकेंगे नहीं.
ऐसे में यह विद्रोह क्या किसी एक का होगा? यह विरोध पूरी विचारधारा का है. इस सड़ रही व्यवस्था में है. हिन्दुस्तान के बेहतरीन दिमाग को मशीन की तरह धौंकनी में झोंक देना, यह क्या है? मेस बॉयकॉट क्या केवल गौरव कटारिया के पिट जाने के ख़िलाफ़ हुआ? इस रामायण में क्या माइकल जैक्सन ही रावण है? मैं यह नहीं कहता कि सारे प्रॉफेसर हरामजादे हैं, बहुत से अच्छे भी हैं. वे न तो अटेंडेंस के चक्कर में पड़ते हैं, न वार्डन बनने के चक्कर में. अच्छे लोग को क्यूँ नहीं ऐसी जिम्मेदार पोस्ट मिला करती हैं?मैं पूछता हूँ कि जब माइकल जैक्सन ने गौरव कटारिया से मुआफ़ी माँगी, उसी समय लगे हाथोँ अपना इस्तीफ़ा क्यूँ नहीं दे दिया? जब हॉस्टल के चार-साढ़े चार सौ लोग आपके खिलाफ़ झंडा बुलंद कर के खड़े हैं, तब वह कौन सी मजबूरी थी कि आप वार्डन के पोस्ट पर चिपके रहे? इन डीन, डायरेक्टर को समझ नहीं आता कि उन्होंने एक बार भी वार्डन से सार्वजनिक माफ़ी नहीं माँगने को कहा? हम कौन सा उसे कान पकड़ कर उठक-बैठक करने को कह रहे थे?
हमारे सेक्रेटरी.... जब क्रान्ति संभाल नहीं सकते तो मशाल क्यूँ जलाई? यही रही तुम्हारी अक्टूबर क्रान्ति? आज इंस्टिट्यूट
से निकाल देने की धमकी पर सब की हवा टाइट हो गयी. चंद लोग ने सोचा कि क्रान्ति
करते हैं और उन चंद लोग का जब मन हुआ तब क्रान्ति बंद करने को कह रहे हैं? ये हक़ उन्हें किसने दिया? ये बगावत वे ख़त्म करने
वाले कौन हैं? ये वही लोग हैं जो बगावत अपने अहंकार के
लिए कर रहे थे. ये वही लोग हैं जिन्हें व्यवस्था बदलने से, अन्याय ख़त्म होने से कोई सरोकार नहीं है. ये ज़िन्दगी में वे हार जाने वाले
लोग हैं,
जो मोटी तनख्वाह पा जाने में अपनी जीत समझते हैं. ये वही
लोग हैं जो केले को खा कर छिलके बिखरने में शान समझते हैं. ये वही लोग हैंजिन्हें
सही-ग़लत ही पहचान नहीं है और दूसरे के विचारों का सहारा ले कर तर्क-वितर्क करते
हैं. ये वही लोग हैंजिन्हें ‘आर्ट आफ लिविंग’ के नाम पर ‘आर्ट आफ लविंग’ की तलाश होती है.
मैं यह सब सोच रहा था कि आठ बजे वाली पहली क्लास में मोटे चश्में वाले बंगाली
प्रॉफेसर ने मुझसे कोई सवाल किया. सारी क्लास मेरी ओर देखने लगे. मुझे खोया हुआ
पाना कोई हँसने की बात तो न थी, न जाने किस बात पर
कहकहा लगा और फिर सुबह की क्लास पहले जैसी चलती रही. एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी क्लास .... मैं इस कशमकश में जूझता रहा है कि ये क्यूँ हुआ? क्या इस घटनाक्रम का इसके अलावा कोई और अंत भी हो सकता था?
बारह बजे जब लेक्चर ख़त्म हुआ, तब मैं वापस हॉस्टल की तरफ़ रवाना हुआ. जाने आने वालों के बीच यह ख़बर फैल गयी थी कि नीलगिरि का मेस बॉयकॉट ख़त्म हो गया. हॉस्टल पहुँच कर मैंने देखा कि हाउस सेक्रेटरी, डीन, वार्डन, हाउस मास्टर और एसोसिएट डीन मेस के बाहर खड़े थे. पास लगे नोटिस बोर्ड पर लड़कों का झुण्ड नोटिस पढ़ रहा था. मैंने भी जगह बनायी और नोटिस को पढ़ा.
नोटिस का मजमून यह था कि नीलगिरि में हुए मेस बॉयकॉट की जाँच पड़ताल की गयी.
यह तय किया गया है कि अलगे तीन महीने तक नीलगिरि के वार्डन के सभी कार्यकलाप ‘एसोसिएट डीन’ और कराकारोम हॉस्टल के वार्डन के
निरीक्षण में होंगे. कोई भी निर्णय लेने से पहले वार्डन को इन दोनों की सलाह लेनी
पड़ेगी.
मुझे बड़ी निराशा हुयी. कहाँ तो इस बात की चर्चा चल रही थी कि तीन महीने बाद
वार्डन बदल दिया जाएगा, यहाँ उस वादे का कोई नाम-ओ-निशान
नहीं था. कुछ लड़के बड़े खुश थे कि चलो, डीन और
डायरेक्टर को झुकना तो पड़ा. यह उनकी जीत हुयी. मैं सही सही देख पा रहा था कि
हमारी साफ-साफ हार हुयी है. लेकिन मेरी बात कौन सुनता है? कौन समझ सकता है? यह किसी के लिए घटना नहीं रही शायद, सभी अपने जीवनधारा में पहले ही की तरह मग्न हो गये थे.
हाउस सेक्रेटरी ने मुझसे आ कर कहा, “चलो, चलो खाना खा लो.“यहीबाकियों को कहने के लिए झट से वह
आगे बढ़ा. मैंने देखा कि एक टेबल पर बैठ कर डीन और तमाम अधिकारी हाउस सेक्रेटरी और
अन्य प्रमुख सेक्रेटरी के साथ खाना शुरु करने लगे थे. मेस में टिड्डियों की तरह
भीड़ उमड़ने लगी. सारे भूखे-प्यासे एम.टेक. और गद्दार पी.एच.डी., तमाम बेशर्म बी.टेक. झट से थालियों के स्टैकसे एक-एक थाली और चम्मच ले कर लाइन
लगाने में जुट गए. मेस के बटलर पहले के दिनों की तरह खाना देने में जुट गए.मैंने
देखा कि उनके चेहरे पर वही मुस्कान थी, जो बचपन में खेल
दिखाने आए मदारियों के चेहरे पर देखी थी. मदारी भीड़ के आने का इंतज़ार करते हैं, और फिर भीड़ के आ जाने पर अपनी कामयाबी के लिए पूरे आश्वस्त रहते हैं. फर्क इतना
है कि हममें से कुछ ही तमाशबीन थे और बाकी ढ़ेर सारे बंदर थे जो मदारियों की
डुगडुगी पर नाच रहे हैं.
मैं मेस के एक कोने में खड़ा बाकी साथियों को खाने पर टूट पड़ते देखने लगा. हर
आने वाले चेहरे की खुशी पढ़ने में मशगूल हो गया. मानों वे सभी इस हड़ताल के ख़त्म
होने का इंतज़ार ही कर रहे थे. जैसे मंदिर का प्रसाद मुफ़्त में बँट रहा हो, जैसे परीक्षा का नतीज़ा नोटिस बोर्ड पर आ गया हो. उन सब के उल्लास का जवाब
मेरे पास कड़वाहट के सिवा कुछ नहीं था. गुस्से के मारे में बिना कुछ खाये निकल कर
अपने रूम में चला आया.
करीब डेढ़ बजे जब मैं वापस भूखे पेट ही कंधे पर बैग लिए ट्यूटोरियल के लिए
जाने को हुआ, देखा कि फिर से मेस खाली पड़ा है, जबकि खाना सवा दो-ढ़ाई बजे तक मिलता था. मेस की तरफ से आते हुए मोटे रवीन्द्र
सैनी ने कहा, “बहनचोद, आज साला मेस स्ट्राइक टूटा और आज इन भोसड़ी बटलरों ने खाना ही कम बनाया. खाना
कम पड़ गया और फिर बाहर ही खाना पड़ेगा. भक बहनचोद!”
मैंने देखा कि वार्डन वहीं नोटिस बोर्ट के पार खड़ा था पर हमारी बातें सुन कर
भी कुछ नहीं बोला.
मेरा दिल कर रहा था कि मैं भी मोटे भुक्खड़ रवीन्द्र को चार थप्पड़ इतने जोर
से रसीद दूँ ताकि वह गिर पड़े. इतने पर ही न रुकूँ, बल्कि उसके पेट पर चार किक वैसे ही रसीद दूँ जैसे माइकल जैक्सन ने शायद गौरव
कटारिया को मारे थे.
तंग आ
चुके हैं कशमकश-ए-ज़िन्दगी से हम
ठुकरा न
दें जहाँ को कहीं बे-दिली से हम l
लो आज
हम ने तोड़ दिया रिश्ता-ए-उम्मीद
लो अब कभी
गिला न करेंगे किसी से हम l
उभरेंगे
एक बार अभी दिल के वलवले
गो दब
गए हैं बार-ए-ग़म-ए-ज़िन्दगी से हम l
इतिहास के घटनाएँ विवादित होती हैं. हर पक्ष से हम कारणकार्यवाद स्थापित करना चाहते हैं. तथ्यों से विचार निगमित स्थापित करना, यही इतिहासकारों का काम है. किन्तु अगर कोई मुझसे मेरे निजी विचार पूछे तो मैं ज्योतिषचार्य होने के बावजूद इस तरह के संयोगों पर ध्यान नहीं दूँगा.इसकेबहुत से कारण और मान्यताएँ हैंजिस पर और विचार करना विषयांतर हो जाएगा. अत: इसे यहीं समाप्त करना उचित जान पड़ता है.
वृश्चिक
उपरोक्त घटना के उपसंहार के रूप में इतना ही कहना है कि माइकल जैक्सन ने
वार्डन का न केवल तीन साल का कार्यकाल पूरा किया, बल्कि प्रशासन से नीलगिरि छात्रावास के लिए छह महीने का एक्सटेंशन भी
प्राप्तकिया. यह भी उनकी उपलब्धि रही कि अक्टूबर क्रान्ति के ठीक अगले साल उसने
बी.टेक. के कुछ लड़कों को रैगिंग के आरोप में हॉस्टल से निकाला भी और एक सेमेस्टर
फेल भी करवाया. हालांकि वह घटना अलग विमर्श मांगती है. सार यह है कि अनुशासन के
भौंडे आदर्श पर चलते हुए, अपने उच्चाधिकारियों को प्रसन्न
करते हुए माइकल जैक्सन ने सफलता की मनवांछित सीढ़ियाँ चढ़ी और आज भी यह सिलसिला
ज़ारी ही है.
मशहूर फ़िल्म निर्देशक ‘आर्सन वेल्स’ की फ़िल्म ‘मिस्टर अर्कादिन’ (1954) में बिच्छू और मेढ़क की एक नैतिक कथा का वर्णन है.
एक बार एक बिच्छू नदी पार कराने के लिए एक मेढ़क से विनती करता है. मेढ़क
हिचकिचा कर कहता है कि तुम तो मुझे काट सकते हो. इस पर बिच्छू उसे तर्क देता है
कि ऐसा करना तो विवेक के विपरीत होगा, क्योंकि अगर नदी
की बहती धारा के बीच में बिच्छू अगर उसे काटेगा, तो दोनों ही डूब
कर मर जाएँगे. इस पर सहमत हो कर मेढ़क बिच्छू को नदी पार कराने लगता है. बीच
रास्ते में उसे महसूस होता है कि बिच्छू ने उसे काट लिया है. मरते-मरते मेढ़क
चिल्ला कर पूछता है, “तुम्हारा विवेक कहाँ मर गया?” इस पर डूबते हुए बिच्छू का जवाब आता है, “मैं क्या करता? यह तो मेरा चरित्र है”.
बिच्छू यानी वृश्चिक के चरित्र पर हम फिर आएँगे. हमें एक बिंदु पर चर्चा करनी
थी, वह था जब 22 दिसम्बर को सूर्य उत्तर की तरफ बढ़ना
शुरु कर देते हैं, उस समय ही उत्तरायण मानना चाहिए. इस
तरहप्रश्न यह उठता है कि मकर संक्रान्ति22 दिसम्बर के
बजाय14 जनवरी को क्यों मनायी जाती है.
खगोलशास्त्र में वर्ष की दो तरह की परिभाषाएँ हैं–1. नाक्षत्र वर्ष (sidereal year) 2. उष्णकटिबंधीयवर्षसे
(tropical
year). नाक्षत्र वर्ष 365.2563 दिनों का होता है, वहीं निरयण वर्ष 365.2422 दिनों का होता है.नाक्षत्र वर्ष में सूर्य और अन्य ग्रहों की चाल के अलावा
बहुत दूर स्थित स्थिरमान तारों को भी गणना में लिया जाता है, वहीं उष्णकटिबंधीय वर्ष में सूर्य और सौर मंडल के ग्रहों के चाल को विषुव
बिंदु या संपात (equinox) से निर्धारित करते हैं.
वसंतविषुव से चलकर और एक चक्कर लगाकर जितने काल में सूर्य फिर वहीं लौटता है उतने
को एक सायन वर्ष कहते हैं. किसी तारे से चलकर सूर्य के वहीं लौटने को नाक्षत्र
वर्ष कहते हैं. यदि विषुव चलता न होता तो सायन और नाक्षत्र वर्ष बराबर होते. अयन
के कारण दोनों वर्षों में कुछ मिनटों का अंतर पड़ता है. भारतीय ज्योतिष गणना के
लिए नाक्षत्र वर्ष का प्रयोग करते हैं.
नाक्षत्र वर्ष ‘निरयण निकाय’ (sidereal system)
से सम्बन्धित हैं और उष्णकटिबंधीय वर्ष ‘सायन निकाय’(tropical system) से सम्बन्धित हैं. जिस
पंचांग में वसंत-विषुव को आरंभस्थान माना जाता है, उसको "सायन" पंचांग कहते हैं और जिस पंचांग में इस विषुव के
अतिरिक्त किसी और बिंदु को आरंभस्थान माना जाता है, उसको "निरयण" पंचांग कहते हैं. भारतीय ज्योतिष पद्धति निरयण निकाय
पर चलती है. जबकि पाश्चात्य ज्योतिष सायन पर आधारित है.
दोनों निकाय क्रांतिवृत को बारह भागों में बाँट कर राशियों से सम्बद्ध करते
हैं. अयन चलन (precession of the equinoxes) के कारण यह दोनों निकाय
हर सदी में 1.4 आर्क डिग्री से एक दूसरे से दूर होते
जाते हैं.करीब सन 285 ईस्वी में यह दोनों निकाय बराबर
रहे होंगे. निरयण निकाय मेंअयन-चलन का विचार करने के लिए अयनांश जोड़ा जाता है, जो आज कल लगभग 23.8 डिग्री या 24दिनों का है.
भारतीय पंचाङ्ग जो निरयण निकाय से सम्बन्धित है,राशियों का क्रांतिवृत्त का विभाजन चित्रा नक्षत्र के सापेक्ष करता है, जहाँ से सूर्य के ठीक 180 डिग्री विपरीत होने पर वर्ष का
प्रारम्भ माना गया है (चित्रा या स्पाइका नक्षत्र स्थिर माना जाता है, जो कि ठीक क्रांतिवृत्त पर है. यह पृथ्वी से 160 प्रकाश वर्ष दूर है). किसी समय कन्या राशि के चित्रा नक्षत्र में ही शरद
विषुव हुआ करता था. अब अयन-चलन के कारण स्थिति बदल गयी है.इस तरह मकर संक्रान्ति, पाश्चात्य जगत के अपनायेसायन निकाय के अनुसार 22 दिसम्बर को होनी चाहिए थी. लेकिन नाक्षत्र (निरयण) निकाय से यह मकर
संक्रान्ति14 या 15 जनवरी को मनायी
जाती है,
क्योंकि वर्ष तभी शुरु माना जाता है जब सूर्य अपने मार्ग
(क्रांतिवृत्त) पर चित्रा नक्षत्र से ठीक 180 डिग्री विपरीत
रहते हैं. इसी तरह भारतीय पारम्परिकपंचाङ्ग (विक्रम संवत) से वृश्चिक संक्रान्ति, सायन निकाय के23 अक्टूबर के बजाय निरयण निकाय के
अनुसार 16 नवम्बर को मानी जाती है.
भारत का राष्ट्रीय पंचाग (शक संवत) जो ऐस्ट्रोफिजिस्ट डॉक्टर मेघनाद साहा की
अध्यक्षता वाले कैलेण्डर रिफॉर्म कमिटी में सन 1955 में बनी थी, उसमें वृश्चिक राशि से सम्बद्ध
कार्तिक महीना(जोकि कुछ और नहीं बल्कि वृश्चिक सौर मास है) है, 23 अक्टूबर को ही शुरु होती है. मैं
ज्योतिष गणना के लिए खगोलशास्त्र की बारीकियों का ध्यान रखता हूँ और अयनांश के24 डिग्री से घटाने वाले झंझट से बचने के लिए सायन निकाय की परिभाषा से फलित
ज्योतिष पर विचार करता हूँ. इसलिए 23 अक्टूबर की
घटना मेरे हिसाब से वृश्चिक संक्रान्ति के दिन घटी थी, जिसमें इंस्टिट्यूट के डॉयरेक्टर और डीन ने नीलगिरि हॉस्टल के वार्डन के गलत
आचरण पर पर्दा डाला.
ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार जब सूर्य वृश्चिक राशि में प्रवेश करते हैं तो यह
राक्षसी संक्रान्ति चोर, पापकर्मों में लिप्त रहने वालों और
दुष्टों के लिए अनुकूल होता है. जो बेशर्मी से अपना लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं, उनकी सहायता करता है. उन लोग के लिए यह बड़ा सहायक होता है, जो चालाक और होशियार होते हैं. जिन लोग को काम निकलते ही पल्ला झाड़ना आता है
और जो झूठे वादे करने में माहिर होते हैं, यह उनकी मदद
करता है. जिनका व्यवहार सबों के प्रति रूखा होता है और जो अपने स्वार्थ में रत रहते
हैं, उन्हें यह संक्रान्ति सुखद फल देती है.
मैं समझ सकता हूँ कि निरयण निकाय को ही फलित ज्योतिष के लिए उपयुक्त मानने
वाले भारतीय पण्डित मुझसे ज्योतिष की सूक्ष्मताओं पर बहस करने आएँगे, पर मैंने टालेमी के समय से चलने वाले पाश्चात्य ‘सायन निकाय’ के अनुसार वृश्चिक संक्रान्ति के सही
होने का प्रमाण उपरोक्त घटनाओं के प्रभाव के रूप में दे दिया है. उनके लिए फिर से Quod Erat
Demonstrandum (Q.E.D.) लिखने में मुझे कुछ विशेष प्रयत्न
नहीं करना पड़ेगा.
राशियों के आधार पर ज्योतिष जहाँ से आयी है, वहीं यूयान में प्राचीन लेखों में भी इस वृश्चिक संक्रान्ति को अशुभ ही माना
गया. इसका एक उदाहरण हमें पाँचवी सदी का इतिहासकार ‘कुस्तुनतुनिया का सुकरात’ (ईस्वी 380- 439 के आसपास) की किताब ‘चर्च का इतिहास’ में मिलता है. इतिहासकार प्राचीन अप्राप्य ग्रंथों के संदर्भ में घोषित करता है
कि सन 48 ईसा पूर्व में जूलियस सीजर के सैनिकों ने महारानी क्लियोपेट्रा के समय मिस्र
के अलेक्जांद्रिया शहर का पुस्तकालय इसी वृश्चिक संक्रान्ति के मनहूस समय में जला
डाला था. वह यह भी लिखता है कि आगजनी की ऐसी पुनरावृत्ति प्राचीन अलेक्जांद्रिया
के पुस्तकालय का छोटा आरूप ‘अलेक्जान्द्रिया के
सेरापियम’
के साथ भी हुयी जिसे सन 391 में थियोफिलियस के कोप्टिक पोप ने जलवा डाला. यह बड़ी विडम्बना रही कि फिर
वृश्चिक संक्रान्ति का ही प्रकोप ही तो था जब सन 642 में मुसलमानों के मिस्र विजय के दौरान बचा खुचा पुस्तकालय जला डाला. इस हादसे
की तारीख और वृश्चिक संक्रान्ति का सम्बन्ध मिस्र के फातिमिद खलीफाओं के वक़्त ‘अल-मुस्तनसिर बिल्लाह’ और ‘अल-हफीज़ ली- दिन-अल्लाह’ जैसे इतिहासकारों ने
सन् 1032 में अपनी किताब में लिखा है जो उस समय से आज तक चले आ रहे काहिरा के अल-अजहर
विश्वविद्यालय में सुरक्षित है.
‘वृश्चिक संक्रान्ति’ के बारे में ऐसी एक घटना मध्यकालीन
भारत के महान विश्वविद्यालय‘पुष्पगिरि महाविहार’ के विषय में चीनी यात्री जुआनजैंग (602-644 के आस पास) के तिब्बती लेखपत्रों में स्पष्ट मिलता है. वर्तमान उड़ीसा के
जजपुर जिले में सन 1996 से 2006 के बीच उत्खन्न से प्राचीन विख्यात बौद्ध विश्वविद्यालय ‘पुष्पगिरि महाविहार’ के अवशेष को प्राप्त कर लिया गया है. इस
तरह ‘पुष्पगिरि महाविहार’ की बरसों पुरानी गुत्थी, जो कि आलेखों में विद्यमान थी पर भौगोलिक स्थिति के बारे में अनुमान ही लगाया
जा रहा था, अब सुलझा ली गयी है.
जुआनजैंग ने ‘पुष्पगिरि महाविहार’ के विवादित आचार्यों जैसे भ्रष्ट पुरुषदत्त, महत्त्वाकांक्षी स्थिरमति और अन्य उद्दण्ड प्रशासनिक अधिकारियों के
दुर्व्यवहारोंका उल्लेख किया है, जो वृश्चिक संक्रान्ति
को हुए थे. तिब्बती भाषा के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों के उपलब्ध अनुवाद से आधुनिक
इतिहासकारों, जैसे ‘रमेशचंद्र सरकार’ और ‘प्रद्युम्न पाल’ का मानना है कि विद्यार्थियों की
शिकायत पर उन भ्रष्ट कुलपति और प्रशासनिक अधिकारियों को कोई दण्ड नहीं मिला
क्योंकि उन्हें तत्कालीन राजा के साले का संरक्षण प्राप्त था.
छात्रों में असंतोष तब और बढ़ गया जब पुरुषदत्त को राजकीय सम्मान से अलंकृत कर के गुजरात के वल्लभी विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में अनुशंसित किया गया. विवादित आचार्य स्थिरमति, जिस पर छात्रों से दुर्व्यवहार का आरोप था, उसे कालांतर में नागार्जुनकोंडा स्थित बौद्ध विश्वविद्यालय में कुलपति के रूप में भेजा गया. तिब्बती भाषा की विद्वान इतिहासकार ‘गीता मिर्ज़ी ’ने पूर्ववर्ती जापानी इतिहासकार ‘शोहेई इशीमुरा’ के मत की पुष्टि ही की है कि ‘इक्ष्वाकु वंश’ द्वारा पोषित नागार्जुनकोंडा के उस प्रसिद्ध महाविद्यालय का पतन राजनैतिक दखलअंदाज़ी के कारण हुयी, जब स्थिरमति ने महायान के आचार्यों की अनदेखी कर के बर्मा के थेरवादी आचार्यों नियुक्त किया. इस तरह वृश्चिक संक्रान्ति से शुरु हुयी अप्रिय घटना ने विश्वविद्यालय को मंझधार में डुबो दिया.
छात्रों में असंतोष तब और बढ़ गया जब पुरुषदत्त को राजकीय सम्मान से अलंकृत कर के गुजरात के वल्लभी विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में अनुशंसित किया गया. विवादित आचार्य स्थिरमति, जिस पर छात्रों से दुर्व्यवहार का आरोप था, उसे कालांतर में नागार्जुनकोंडा स्थित बौद्ध विश्वविद्यालय में कुलपति के रूप में भेजा गया. तिब्बती भाषा की विद्वान इतिहासकार ‘गीता मिर्ज़ी ’ने पूर्ववर्ती जापानी इतिहासकार ‘शोहेई इशीमुरा’ के मत की पुष्टि ही की है कि ‘इक्ष्वाकु वंश’ द्वारा पोषित नागार्जुनकोंडा के उस प्रसिद्ध महाविद्यालय का पतन राजनैतिक दखलअंदाज़ी के कारण हुयी, जब स्थिरमति ने महायान के आचार्यों की अनदेखी कर के बर्मा के थेरवादी आचार्यों नियुक्त किया. इस तरह वृश्चिक संक्रान्ति से शुरु हुयी अप्रिय घटना ने विश्वविद्यालय को मंझधार में डुबो दिया.
समकालीन चर्चित इतिहासकार ‘गीता मिर्ज़ी’ और ‘गरट्रूड इमरसन सेन’ने तिब्बती बौद्ध ग्रंथों के शोध
में यह निष्पादित किया गया है कि भारत में वृश्चिक संक्रान्ति का वीभत्स रूप
बख्तियार ख़िलजी द्वारा सन 1193 में बिहार के विशाल
नालन्दा विश्वविद्यालय को जलाने में आता है. समकालीन बांगलादेशी कवि अल महमूद
(जन्म 1936)
अपनी चर्चित कविता ‘बोख्तियारेर
घोड़ा’
में भी इस वृश्चिक संक्रान्ति का वर्णन करते हैं, जिसमें बहादुर बख्तियार ख़िलजी ने बौद्ध भिक्षुओं को मौत के घाट उतार कर
मुस्लिम शासन को और मजबूत किया. हालांकि यह मत इतिहासकारों में पूरी तरह स्वीकृत
नहीं हो पाया है. हालांकि यह मत सिद्ध हो जाने पर यह अंगिका प्रदेश के योग्य
ज्योतिषों की इस धारणा को पुष्ट ही करेगा कि निस्संदेह यह वृश्चिक संक्रान्ति ही
तो है जो लोक में विद्या का दुश्मन बन कर बार-बार पुस्तकों, विश्वविद्यालयों और विद्यार्थियों के विरूद्ध खड़ा हो जाता है.
इतिहास के घटनाएँ विवादित होती हैं. हर पक्ष से हम कारणकार्यवाद स्थापित करना चाहते हैं. तथ्यों से विचार निगमित स्थापित करना, यही इतिहासकारों का काम है. किन्तु अगर कोई मुझसे मेरे निजी विचार पूछे तो मैं ज्योतिषचार्य होने के बावजूद इस तरह के संयोगों पर ध्यान नहीं दूँगा.इसकेबहुत से कारण और मान्यताएँ हैंजिस पर और विचार करना विषयांतर हो जाएगा. अत: इसे यहीं समाप्त करना उचित जान पड़ता है.
इति श्री.
__________________________________
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (04-07-2018) को "कामी और कुसन्त" (चर्चा अंक-3021) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
प्रचंड प्रवीर हिंदी साहित्य और दर्शन के मौन युवा साधक हैं । मेरे प्रिय लेखक । इनका गद्य सचमुच ज़माने की मार से बचा हुआ है । यह कहानी अभी पढूंगा । इन्होंने सिनेमा पर भी शास्त्र रचा है । शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएंकहानीकार प्रचण्ड प्रवीर की सर्जनात्मकता और इस कहानी का रचनात्मक अभिप्राय और प्रभाव मन को झकझोड़ देने में सक्षम है.
जवाब देंहटाएंभारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में छात्रों की बदहाली का यथातथ्य चित्रण करने के बावजूद यह कहानी हमारे ज्यादातर उच्चशिक्षा संस्थानों में विचारधारात्मक कट्टरता के कारण अतिशय राजनीतिकरण के कारण दिनानुदिन फैलती जा रही अराजकता को सामने नहीं ला पायी है.भारत के ज्यादातर विश्वविद्यालय ऐसे हैं जिनमें पढ़ने-पढ़ानेवालों को वे सुविधाएँ नहीं मिल पातीं जो आई.आई.टी.परिसर में सहज उपलब्द्ध हैं.जाहिर है कि व्यापक समाज से कटे होने के कारण उन अभिजन शैक्षिक परिसरों में लम्बे अरसे तक रहनेवालों में अनेक झक्की या सिनिकल लोग पाए जाते हैं.वे विशिष्टता के बोध से ग्रस्त होते हैं और उनका अपने साथ काम करनेवालों या विद्यार्थियों के साथ व्यवहार कई बार असामान्य होता है.
किन्तु,हमारे देश में ऐसे संस्थान ज्यादा हैं जिनकी इमारतें रहने लायक नहीं हैं,जहां शिक्षकों और शिक्षकेतर कर्मचारियों को वेतन और विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति प्राय: समय पर नहीं मिलती.विश्वविद्यालय परिसरों और ख़ास तौर पर छात्रावासों में राजनीतिक दलों और जाति,प्रांत,भाषा,मजहब आदि के आधार पर छात्रों के संगठन सक्रिय हैं जिन्हें अकादमिक जगत में असफल कुछ महत्त्वाकांक्षी प्राध्यापकों का समर्थन प्राप्त होता है.'जिसकी लाठी उसकी भैंस' के मुहावरे को चरितार्थ करते हुए इन संगठनों से जुड़े लोग गरीब परिवारों के आम विद्यार्थियों को अपने संगठन में लाने के लिए इतना दबाव बनाते हैं कि उनका जीना दूभर हो जाता है.विश्वविद्यालय के छात्रावास में अपने कोर्स के लिए निर्धारित अवधि समाप्त हो जाने के बावजूद लोग कमरा खाली नहीं करते और कई बार खुद निजी कारणों से परिसर के बाहर रहने के बावजूद छात्रावास का कमरा किसी अनधिकृत व्यक्ति को किराए पर दे देते हैं.इन संस्थाओं में छात्रावास अधीक्षक या वार्डन छात्रावास में जाने से डरते हैं.कुलपति,कुलसचिव आदि के साथ प्राय: विश्वविद्यालय का सुरक्षा अधिकारी होता है,पर दूसरे अध्यापक या वार्डन कभी भी अपमानित किये जा सकते हैं.इस वजह से वे विद्यार्थियों के समूह से प्राय: अलग रहते हैं.इतना ही नहीं, दस हज़ार छात्रों वाले किसी विश्वविद्यालय परिसर में सौ-दो सौ छात्र छोटे-बड़े मुद्दे पर अफरातफरी फैलाने और पूरे विश्वविद्यालय में घूम-घूमकर जबरन कक्षा का बहिष्कार करवाने के लिए काफी होते हैं.यदि कोई अध्यापक या छात्र बहिष्कार न करने के लिए अड़ जाए तो वह बदतमीजी ही नहीं,बल्कि भीड़ की हिंसा का शिकार हो सकता है.इन विद्यार्थियों में कुछ ऐसे भी मिलेंगे जो कक्षा में न आने या बहुत कम आने और परीक्षा में अच्छा उत्तर न दे पाने के बावजूद अध्यापक पर उपस्थिति और अंक के लिए दबाव बनाते हैं.यह समस्या केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में ज्यादा है जहां उत्तरपुस्तिकाओं का मूल्यांकन बाहरी परीक्षक नहीं करता.कहने की ज़रूरत नहीं कि परिसर में अधिकाँश समाजविज्ञान और मानविकी संकाय से सम्बद्ध लोग अराजक माहौल पैदा करते देखे गए हैं. 'हरि अनंत हरि कथा अनंता'. इन सारी बातों को समेटने के लिए महाकाव्यात्मक उपन्यास की दरकार है.
प्रचंड प्रवीर हिंदी कहानी के इतिहास में सबसे बीहड़ प्रतिभा है.यही देखना है कि वह कहाँ पहुँचकर पूरा ''वयस्क'' होता है.उसे पढ़ना आसान नहीं है.वह अपनी हर कहानी में अपने और अपने पाठकों के लिए ऊँची और लम्बी कूद का 'बार' ऊँचा करता चलता है.सबसे बड़ी बात शायद यह है कि लिखते समय वह ख़ुद से और किसी भी क़िस्म के पाठक से नहीं डरता.हिंदी गल्प में वह एक नया कथ्य,नयी भाषा और नयी शैली ईजाद कर रहा है.यह बहुत आत्महंता ज़िद और अन्वेषण है.ठेठ भारतीयता और वैश्विकता का साँसत-भरा यौगिक उसके यहाँ है.वह ऎसी असफलता को न्यौत रहा है जो आज की हिंदी कहानी के लिए कल्पनातीत है.
जवाब देंहटाएंबोधगम्य एवम् प्रभावशील कहानी प्रारम्भ से अंत तक बांधे रखी रही,,,, कहानी को पढ़ते हुए समय का पता ही नही चला।कहानी पढ़कर अनेक पहलुओं के प्रति सजगता आई।
जवाब देंहटाएंआभार।
"प्रचंड प्रवीर हिंदी कहानी के इतिहास में सबसे बीहड़ प्रतिभा है", यह कहना स्नेह की वैसी ही अभव्यक्ति है , जैसी यह कहना कि चंद्रभूषण का संग्रह पिछले कई सालों का सबसे अच्छा संग्रह है।
जवाब देंहटाएंखैर, कहानी दिलचस्प है। लेखक आख्यान की किसी विराट शैली की खोज में है, यह भी ठीक है। मगर ख़ास इस कहानी के लिए किसी जटिल शिल्प की जरूरत न थी। सूत्रधार न भी होता तो इस कहानी पर ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता।
विष्णु खरे जी की टिप्पणी पढ़ने के बाद प्रचंड प्रवीर जी वृश्चिक संक्रांति कहानी को पढ़े बिना कम से कम मेरे जैसा व्यक्ति नहीं रह सकता .अभी अभी कहानी पढ़ कर समाप्त की .प्रचंड जी ने ज्योतिष , पौराणिक आख्यानों और इतिहास के गहन अध्ययन का बहुत सुन्दर प्रयोग किया है .अपनी बातों को बड़ी निडरता से कहते गए .शैली को लेकर किया जा रहा उनका प्रयोग भी उनके साहस का परिचायक है .जिसे मठाधीश शायद पचा न पाएं. जड़वादियों के लिए कुछ कहना समय बर्बाद करना है. हमें इस बात से सहमत होना चाहिए कि नया कुछ जन्म लेता है उसमें नयी ऊर्जा, क्षमता है तो वह अपना स्थान पा ही लेता है. जड़वादी, मठाधीश या कुछ भी उसे रोक नहीं सकता.
जवाब देंहटाएंअरुण जी एक आम पाठक की दृष्टि से यदि इस शैली पर ध्यान दें तो यह मानना होगा कि यह कथा प्रवाह, कथा रस को उचित गति देने में बहुत सक्षम नहीं दिख रही. प्रवाह और रस दोनों की राह में सूक्ष्म बाधा पैदा करती है. लेकिन क्योंकि यह एक सूक्ष्म सी बात है इसलिए प्रचंड जी को उनकी इस उत्कृष्ट कहानी के लिए बहुत बहुत बधाई, अशेष शुभकामनायें कि वह हिंदी कथा के क्षेत्र में एक नया प्रतिमान स्थापित करें.
अरुण जी आपको भी बहुत बहुत धन्यवाद कि आपने मैसेज भेजा. और शुभकामनायें कि समालोचन आपके माध्यम से हिंदी साहित्य की अनवरत सेवा करता रहे.
धन्यवाद
प्रदीप
प्रचंड प्रवीर जी की बिलकुल नई शैली में लिखी गई कहानी, भूत भविष्य का विराट समय समेत रही है .बिना कहे भी भविष्य में शिक्षा संस्थानों के नष्ट होने या किये जाना का संकेत भयावह दिखाई दे रहा है .
जवाब देंहटाएंबधाई .
बहोत खुब
जवाब देंहटाएंकहानी पढ़ी।शुरू करने के बाद छोड़ना संभव न था। प्रचंड जी की रिसर्च उम्दा है और शैली नवाचार का उत्कृष्ट उदाहरण। साहित्य के कितने पंडित इस नवाचार से सहमत होंगे पता नहीं। कहानी की कहन आथेंटिक है। आई आई टी में हर चीज का नामकरण है और उन नामों के उच्चारण का आनंद अकल्पनीय है। कानपुर में पी एच डी के छात्रों को फुद्दा कहा जाता था। मेरे परिचित पी एच डी के एक छात्र जो अक्सर कुर्ता पायजामा पहने और झोले में किताबें लिए पूरे कैंपस में घूमते रहते थे को एक बार किसी ने एनटीपी कहा। उन्होंने सुना और मासूमियत से पूछा इसका मतलब तो बताओ। उतनी ही मासूमियत से उत्तर मिला "नानकारी टाइप पीपल". नानकारी आई आई टी कानपुर के पीछे एक गांव है। हंसते हंसते दम निकल गया। दिल्ली के हालात इस कदर बिगड़े होंगे यकीन नहीं होता। पढाई के लिए तो ये संस्थान बदनाम हैं, प्रेशर बहुत है। मेरा अनुभव तो यह है कि मेरे समय के कानपुर संस्थान की संस्कृति और खुलेपन का कोई सानी नहीं है एसा मुझे आज भी लगता है। इस कहानी की स्थिति से वर्तमान में कई संस्थान गुजर रहे होंगे इस बात को तो स्वीकार करना ही होगा और यह भी कि इन प्रीमियर संस्थानों में पढने पढाने वालों के एथोज की दशा दिशा क्या है इस पर संभवतः यह एक यथार्थवादी टिप्पणी भी हो सकती है। पुरानी कई यादें ताजा हो गई। शुक्रिया अरूण जी। प्रचंड जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंइक लफ्ज़ मोहब्बत का, अदना सा फ़साना है
जवाब देंहटाएंसिमटे तो दिले-आशिक,फैले तो जमाना है
प्रचंड का क्षितिज बहुत विस्तृत है, उनकी कहानियों, लेखों और उपन्यासों के विषय विविध हैं, शुद्ध हिंदी से हिंदुस्तानी, हिंदुस्तानी से अंग्रेजी, संस्कृत श्लोक, शोरा के अशआर, अंकगणित के सिद्धांत, खगोलशास्त्र, ज्योतिष यहाँ सबकुछ मिलता है और अपनी पूरी गहराई में
चमन का ये दीदावर हमे यूँ ही पुरनूर रखे इस कामना के साथ :-)
जवाब देंहटाएंजिन्हें मेरे उपरोक्त कथन में शको-शुबहे की गुंजाइश लगे, एक बार भिन्न पढ़ के देखें 😊
http://www.sadaneera.com/bhinn-a-story-by-hindi-writer-prachand-praveer
बिना मतलब की कहानी है। शिल्प में नवीनता है पर उसका उद्देश्य क्या है? मीर से लेकर साहिर तक कोई भी वाचक न तथ्य न दृष्टि की कोई भिन्नता दिखाता है। एक जहाँ कहानी को छोड़ता दूसरा वहीं से उठाता है। इसमें अस्वाभाविकता तो है ही, कई लोगों से कथा कहलाने का कोई तुक नहीं समझ में आता। फिर यह सायन-निरयण का बवाल जो आधी से ज्यादा जगह घेरे है, इसका कोई मतलब नहीं समझ में आता।
जवाब देंहटाएंकथाकार विद्वान है , ज्ञानी है लेकिन अपने ज्ञान से उसने एक संस्मरणात्मक आख्यान की , जो अन्यथा बहुत सहज हो सकता था, विकट घेरेबन्दी कर दी है. मुझे अच्छी लगी क्योंकि इसका लोकेल मेरा परिचित है लेकिन शिल्प को लेकर अतिरिक्त महत्वाकांक्षा ने इसकी पहुँच में गतिरोध का काम किया है.
जवाब देंहटाएंRavi Ranjan भाई साब और Tewari Shiv Kishore जी की बातों से मैं सहमत हूँ । पहलीबार इनका नाम सुन रहा हूँ । नवाचार के लिए शीर्षक बदलना जरूरी नही है आप शिल्प और थीम में प्रयोग कर सकते हैं भाषा और कहन पर परिवर्तन कर सकते है ।जब इन चीजों में बदलाव होता है कहानी हो या कविता दोनो आकर्षित करती हैं ।यहाँ तो एक भी नवाचार मुझे नही दिखा अरुण सर । मुझे लगता है संवेदना और भाषा दोनो अखबारी चलताऊ और पेशेवर है ।
जवाब देंहटाएंकहानी किस तरह से लिखी जाए। ऐसे भी लिखी जाए। लम्बी मगर पठनीय और अच्छी है।
जवाब देंहटाएंप्रचण्ड जी को पिछले दो सालों से पढ़ रहा हूँ। वे विषय और शिल्प को लेकर लगातार प्रयोग करते हैं। वे बहुत ज्यादा लिखते हैं। छपते कम हैं। उनसे मेरा अनुरोध है कि वे हिन्दी पत्रिकाओं में छपने के लिए कहानियाँ भेजें। आलोचना सहन करें। वे जितना छपेंगे उतनी ही उन पर बात होगी।
इधर ब्लॉग पर पाठक टिप्पणी करना छोड़ चुका है। यह सुखद है कि आपको अग्रज पढ़ रहे हैं। लिखे पर कुछ कह रहे हैं।
शुभकामनाएँ ... 💐 💐
कहानी अच्छी है ,लेकिन पाठक को ज्ञान से चमत्कृत कर डालने का भाव ज्यादा है .भाषा पर मेहनत की जानी चाहिए .मल्टी स्टोरेज बिल्डिंग का मतलब क्या है ,व्याकरणिक त्रुटियाँ बहुत हैं- इस कहानी पर और बहुत मेहनत की जानी चाहिए थी.
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