प्रसिद्ध चित्रकार और हिंदी के सुप्रसिद्ध लेखक अखिलेश की नयी किताब ‘देखने का जादू’ इस वर्ष अनन्य प्रकाशन से प्रकाशित हो रही है, इसकी सुंदर भूमिका अभिषेक कश्यप ने लिखी है. यह भूमिका आपके लिए ख़ास तौर पर.
देखने का जादू
अभिषेक कश्यप
(10 अप्रैल, 2018, धनबाद)
इस किताब का विचार सुप्रसिद्घ चित्रकार जोगेन चौधरी पर लिखे
अखिलेश के आलेख (‘जोगेन का जादू’)
को पढ़ते हुए आया. जोगेन दा के जीवन और कला पर
अपनी संपादित पुस्तक (‘जोगेन’) के लिए मैंने अखिलेश से एक आलेख देने का अनुरोध
किया था और वे सहर्ष राजी हो गये. दरअसल एक महत्वपूर्ण चित्रकार के साथ-साथ अखिलेश
के लेखक-रूप से भी मैं खूब परिचित था. ज़े स्वामीनाथन, मकबूल फिदा हुसेन, वी़ एस़ गायतोंडे, सैयद हैदर रज़ा, क़े जी़ सुब्रमण्यन, भूपेन खख्खर, प्रभाकर बर्वे सरीखे शीर्षस्थ कलाकारों पर समय-समय पर लिखे उनके आलेख मैं पढ़ चुका था. इन
आलेखों में अखिलेश ने अलग-अलग मन-मिजाज के कलाकारों के चित्रों की गहराई में उतर
कर जिस सहज ढंग से इनकी कला पर बात की, जिस सटीक अंदाज में व्याख्या/विश्लेषण किये थे, उससे मैं उनके कला-लेखन का कायल हो गया था. गोकि अखिलेश की
कला-लेखों की 6 और अनुवाद की 2 यानी कुल जमा 8 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं लेकिन फिर भी वे बड़ी
विनम्रता से कहते हैं-
‘‘यार, मैं लेखक तो हूं नहीं, कोई आग्रह करता है तो लिख देता हूं.’’
अखिलेश के
कला-लेखन में कई खास बातें नज़र आती हैं. मसलन किसी कलाकार पर लिखते हुए वे न ही
किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित होते हैं, न अपने व्यक्तिगत आग्रह-दुराग्रह को तरजीह देते हैं. यही नहीं, किसी कलाकार की कला को अब तक कला के दिग्गजों
ने जिन नज़रियों से देखा/परखा है और जो लगभग सर्वमान्य रहे हैं, वे उसके प्रभाव में भी नहीं आते. मनजीत बावा
पर लिखे अपने लेख (‘धागा जो नहीं है’)
के प्रारंभ में वे मनजीत की कला पर लिखे कई
दिग्गजों, यहां तक कि मनजीत से उनकी
कला पर हुई एक बातचीत का भी उद्घरण देते हैं और इसके बाद उनके चित्रों में हास्य
विनोद/wit और अर्थ-विरोधाभास के नये
कोण खोज निकालते हैं. फिर मनजीत के चित्र ‘शेर, केले और चांद’
के जरिये इस अर्थ-विरोधाभास और हास्य विनोद पर
विस्तार से चर्चा भी करते हैं-
“चित्र में शेर, केले और चांद में सिफऱ् केले विस्तार से
चित्रित हैं. शेर में फंतासी है. चांद चुप है. यह सब लयबद्घ है. यथार्थ से सम्बन्ध
दूर-दूर तक नहीं है. इनका आपसी सम्बन्ध इस चित्र में ही उजागर होता है. अपने में
असम्बद्घ इन कथानकों को एक चित्र-स्थिति में मनजीत चित्रित करते हैं. इनकी आपसी
सम्बद्घता का अटपटापन करुण भी है, विचित्र भी और
दर्शक के मन में हास्यबोध जगाता है.
यह मुश्किल काम है. हास्य धूपज को चित्र में ले आना,
बग़ैर चित्रत्मकता को नष्ट किये या चित्र को
काटरून कॉलम होने से बचाये रखते हुए मुश्किल है. ऐसा उदाहरण भी कम ही होगा और
मनजीत सम्भवत: अकेले ही नज़र आयेंगे, जिन्होंने अपने मिथक के हास्य को गम्भीरता से चित्रों में जगह दी.”
कई आलोचक मनजीत बावा और उनके दो समकालीन महत्वपूर्ण
चित्रकारों- जोगेन चौधरी और अमिताभ दास-पर लिखते हुए इन तीनों की
कला में अजीबोगरीब ढंग से साम्यता ढूंढ़ लेते हैं या कहें जबरिया साम्यता स्थापित
करने का प्रयास करते हैं, खास तौर से मनजीत
बावा और जोगेन चौधरी के बीच. लेकिन मेरी पुस्तक के लिए जोगेन दा की कला पर लिखे
छोटे-से आलेख में वे इन तीनों के कला-वैशिष्ट्य कुछ इस तरह रेखांकित करते हैं-
“जोगेन को उनके दो समकालीन, मनजीत बावा और अमिताव दास के बरक्स रख कर देखें
तो मनजीत अपने फूले हुए रूपाकारों में पारंपरिक विषयों को नए ढंग से परिभाषित कर
रहे थे जबकि अमिताभ दास की आकृतियां चपटी और बिना किसी आयतन के हैं. इन तीन
चित्रकारों ने आकृति के साथ अपनी तरह के संबंध बनाए और दर्शक को अजूबा जोगेन के
चित्रों में इस तरह मिलता है कि वो ठीक-ठीक जान नहीं पाता किंतु उसे पता है कि यह
रूप उसी के परिवेश का है.’’
फिर वे जोगेन के वैशिष्ट्य की चर्चा करते हुए पुन: इन तीनों
के अलहदा चित्र-व्याकरण का संकेत देते हैं-
(जोगेन चौधरी) |
“जोगेन यथार्थवादी शैली की जगह भाव को महत्व
देते हैं. जोगेन के चित्र यथार्थवाद से कहीं टकराते नहीं हैं और ऐसा भी नहीं है कि
जोगेन को यथार्थवाद से कोई संबंध तोड़ना है. वे उसके नजदीक न जाकर अपनी शैली
विकसित करते हैं, जिसमें भाव
प्रधान है. उनके चित्रों का विषय ही इतना प्रधान है कि शैली पर ध्यान बाद में जाता
है. दूसरी जो बात
जोगेन के चित्रों का मर्म है वो है, उनमें छिपा श्रृंगारिक (erotic) तत्व. इस पर बात किए बगैर या इसे जाने बगैर आप
जोगेन के चित्रों को नहीं जान सकते हैं. यह श्रृंगारिकता भी उसी परिवेश की देन है
जो जोगेन दा अपने आस-पास महसूस करते रहे. उनके चित्रों में यह उनके स्वभाव से
प्रकट हो रहा है. वे किसी भी तरह का चित्र बनाएं, यह श्रृंगारिकता उसमें आ जाती है. इसके लिए मुङो नहीं लगता
कि वे अतिरिक्त प्रयास करते होंग़े. य़ह विशेषता मनजीत या अमिताव के रूपाकारों में
नहीं मिलेगी.”
चूंकि अखिलेश चित्रकार हैं और कई वरिष्ठ व समकालीन
चित्रकारों से उनके आत्मीय संबंध रहे हैं, इसलिए उनकी कला पर लिखते हुए कलाकारों की निजी जिंदगी से जुड़े प्रसंग,
संस्मरण भी संभवत: अनायास ही उतर आते हैं. कई
शीर्षस्थ कलाकारों से जुड़ी अपनी यादों, अनेक वाकयों की चर्चा करते हुए उनके प्रति अखिलेश की गहरी श्रद्घा भी साफ
झलकती है लेकिन उनकी कला पर बात करते हुए वे तीक्ष्ण दृष्टि और तटस्थ मूल्यांकन का
दामन कहीं छोड़ते नज़र नहीं आते.
सबसे खास बात यह कि ये सारे आलेख भारतीय चित्रकला परिदृश्य
का मूल्यांकन करने की गरज से किसी योजनाबद्घ तरीके से नहीं लिखे गए बल्कि जब-तब
पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों के आग्रह पर लिखे गए हैं. बावजूद इसके किसी भी आलेख
में कहीं यह आभास नहीं होता कि अखिलेश निपटाऊ अंदाज में कोई अखबारी लेखन कर रहे
हैं. आग्रह पर लिखे गये या भदेस भाषा में कहें तो संपादकों की फरमाइश पूरी करने के
लिए भी अखिलेश ने कलाकारों पर ऐसे लेख लिखे, जिनमें दृष्टि की व्यापकता है और इस वजह से इनका महत्व
निश्चय ही लंबे समय तक बना रहेगा.
यह कहने में भी मुझे कोई गुरेज नहीं कि ज़े स्वामीनाथन,
मकबूल फिदा हुसेन,
वी़ एस़ गायतोंडे,
सैयद हैदर रज़ा, अम्बादास, मनजीत बावा आदि पर लिखे और इस संकलन में शामिल ये आलेख इस पाये के हैं कि इन शीर्षस्थ
कलाकारों पर अब कोई भी शोध-अध्ययन इन आलेखों के संदर्भ के बिना अधूरा ही
रहेगा.
अखिलेश ‘देखने’ को बहुत महत्व देते हैं और किसी भी कलाकार की
कला से सीधा संवाद करने, उसमें पैठने में
भरोसा रखते हैं.
चित्र से सीधा संवाद, उसमें पैठने के कौशल के ही जीवंत उदाहरण उनके ये कला-लेख
हैं. यहां वे कलाकारों के बारे में कोई सतही या बायोडाटानुमा गैर-जरूरी विवरण नहीं
देते, न ही दूर की कौड़ी लाने
की फिराक में वे कोई हवाई किला बनाते हैं. वे भारी-भरकम शब्दावली ; लंबे, अपठनीय
वाक्य-विन्यासों के जरिये शब्दों के वाग्जाल में फंसाने की जुगत भी नहीं भिड़ाते,
न ही उन्हें किसी निर्णय पर पहुंचने या कोई
फैसला सुनाने की जल्दबाजी है. वे किसी प्रसंग विशेष की चर्चा से सहज ही अपनी बात
शुरू करते हैं और फिर धीरे-धीरे कलाकार की कला-दृष्टि और रंग-युक्तियों की गहराई
में उतरते चले जाते हैं. संभवत: चित्र की तरह लेखन में भी वे प्रतीक्षा और धीरज के
महत्व को समझते हैं और किसी कलाकार के जटिल-से-जटिल कला-व्याकरण को अपने पाठ में
परत-दर-परत खोल कर रख देते हैं. वह भी सरल, सहज, रसपूर्ण भाषा
में.
अखिलेश के ये पाठ (आलेख) मूर्धन्य चित्रकारों के रंगलोक को
नयी रोशनी में देखने को ही प्रेरित नहीं करते बल्कि किसी भी चित्र को अनेक
दृष्टियों से देखने, अनेक पाठ रचने के
लिए भी उकसाते हैं.
ये पाठ देखने की अनेकानेक प्रविधियों से हमारा परिचय कराते
हैं, देखने का जादू जगाते हैं.
हमारे यहां कला-आलोचना का दारिद्रय या साफ-साफ कहें तो
कला-आलोचना की अनुपस्थिति जग जाहिर है. कई तथाकथित प्रतिष्ठित कला-आलोचक हैं,
जिन्होंने बने-बनाये चलताऊ किस्म के
वाक्य-विन्यास गढ़ रखे हैं, जिन्हें थोड़े
हेर-फेर के साथ वे हर कलाकार के ऊपर चिपका देते हैं. दूसरी तरफ कई मूर्धन्य (?)
आलोचक हैं, खास तौर से अंग्रेजी में लिखने वाले, उनमें से अधिकांश चित्र देखने, कला की अंतश्चेतना में पैठ कर कुछ कहने की बजाय अत्यंत
अपठनीय भाषा में दूर की कौड़ी निकाल लाते हैं, जिनका चित्र के भाव बोध से कहीं कोई सरोकार नहीं होता.
ऐसे हालात में अखिलेश की यह किताब एक सविनय निवेदन है कि
कला-आलोचना को गंभीरता से लिया जाये ; इसे गंभीर रचनात्मक कर्म माना और इसी भाव से बरता जाये.
कला के विद्यार्थियों, कला-रसिकों के लिए ही नहीं, निश्चय ही यह किताब कलाकारों और कला-अध्येताओं के लिए भी
समान रूप से उपयोगी होगी.
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(10 अप्रैल, 2018, धनबाद)
मैं पूरा लेख दो बार पढ़ूँगी तब जा कर इस शब्दावली को भीतर रख सकूँगी।
जवाब देंहटाएंकितना नया है ये सब समझना और सहेजना मेरे लिए जैसे ये हिस्सा-
‘हास्य धूपज को चित्र में ले आना, बग़ैर चित्रत्मकता को नष्ट किये या चित्र को काटरून कॉलम होने से बचाये रखते हुए मुश्किल है.’
शुक्रिया Arun Dev जी
हर बार हमें कुछ बेहतर सीखने का मौक़ा देने के लिए
अभिषेक जी का अच्छा मूल्यांकन। शुक्रिया समालोचन। कला पर एक अच्छी किताब।अखिलेश जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (13-06-2018) को "कलम बना पतवार" (चर्चा अंक-3000) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
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