(Photo Credit S. Subramanium)
“मेरे अन्दर एक तरह का नैरन्तर्य (रहता) है”
(मरहूम चित्रकार ‘रामकुमार के साथ पीयूष दईया का संवाद’ से)
भारत के श्रेष्ठम अमूर्त चित्रकार
(23 सितम्बर, 1924 – 14 अप्रैल,2018) रामकुमार हिंदी के लेखक
भी हैं. उनके ‘हुस्ना बीबी तथा अन्य कहानियाँ’, ‘एक चेहरा’, ‘समुद्र’, ‘एक लंबा रास्ता’, ‘मेरी प्रिय कहानियाँ’, ‘दीमक तथा अन्य कहानियाँ’, 'शिलालेख तथा अन्य कहानियाँ' और दो उपन्यास ‘घर बने घर टूटे’, ‘देर सवेर’ आदि प्रकाशित हैं. कथा और चित्रों के आपसी
रिश्तों पर भी उम्मीद है कभी बात निकलेगी.
चित्रकार रामकुमार के महत्व और
विशिष्ठता पर यह आलेख चित्रकार–लेखक अखिलेश ने लिखा है, उनके चित्र – संसार की विविध छबियां यहाँ आपको दिखेंगी.
ख़ा मो श रामकुमार
अखिलेश
बनारस को लेकर रामकुमार का कहना है कि उसके बाद वे कई बार बनारस गए और हर बार अलग अनुभव हुआ, वे कहते हैं -
उधर हुसेन लिखतें हैं
यह स्थिरता जिसे हुसेन ने शिद्दत से महसूस किया रामकुमार का स्थायी भाव बन
गया. उनके चित्र ठहरे हुए हैं. किसी दृश्य को मानो जमा दिया गया हो. रावी नदी जिस
तरह सात हज़ार फुट की ऊँचाई से जमी हुई दिखती है. उसका प्रवाह, चंचलता, वेग सब दूरी
के कारण जम जाता सा दिखता है. रामकुमार के चित्रों में यही दृश्य स्थिर हो जाता है
चाहे वो माचू-पीचू, इंका सभ्यता का अवशेष हो या बहती गंगा. ये स्थिरता रामकुमार की
भी है उनसे मिलकर आपको यही लगता रहेगा कि किसी ठहरे हुए समय में आ गए हैं. ऐसा
नहीं है कि रामकुमार बिलकुल ही उदास और स्थिर व्यक्ति हैं, उनसे ज्यादा सक्रीय और
विनोदप्रिय शायद ही कोई होगा.
उदासी रामकुमार के चित्रों का स्थायी भाव है और इस उदासी को किसी भी रंग से प्रस्तुत करने का कौशल भी उन्ही के पास दिखाई देता है. रामकुमार के चित्र हमें खाली जगहें, सन्नाटा, बंजर वीरान इलाकें, सूनी, उखड़ी हुई स्मृतियाँ, उदास दृश्य, झरे वृक्ष और निपट एकान्त में बहती नदी की याद दिलातें हैं. इन सब में सन्नाटे का मौन फैला है. रामकुमार के चित्र बहुत बोलते हैं और अक्सर उदास रहते हैं. उनका प्रसिद्ध चित्र माचू-पीचू इस उदासी को चमकदार ग्रे रंग से आलोकित करता है. बनारस का असर दोनों चित्रकारों को अपने अतीत में छोड़ आया. हुसेन को वहाँ मिथक मिले और रामकुमार को ख़ामोशी. ये ख़ामोशी रामकुमार के शिमला में बीते बचपन की ख़ामोशी तो नहीं? रामकुमार के चित्रों की ख़ास बात यह भी है कि वे अपनी ख़ामोश उपस्थिति में भी आकर्षित करते हैं. ये दुर्लभ गुण है रामकुमार का.
वे एक चित्रकार की तरह अपने रंगों को बरतते हैं और उनमें से अधिकांश रंगों को उनके रूढ़ स्वाभाव के विपरीत लगाते हैं. एक दूसरा गुण किफ़ायत का है. उनकी रंग पैलेट में वैविध्य नहीं है. रंगों का आकर्षण उन्हें भरपूर है किन्तु अपने रंग प्रयोग में खुद को कुछ ही रंगों तक सीमित रखते हैं. यह भी नहीं है कि उन्होंने कभी रंग पैलेट के साथ प्रयोग नहीं किया. वो भी बहुत है और लगभग सभी रंग कुशलता से इस्तेमाल किये गए हैं. प्रमुख प्रक्षेपण ग्रे रंग का ही है. यह ग्रे रंग रामकुमार की पहचान बन गया हो ऐसा भी नहीं है. वे रंगों का इस्तेमाल चित्रकार की तरह ही करते हैं और उसमें अपना देखना डालते हैं.
रामकुमार सुश्री गगन गिल को दिए साक्षात्कार में कहते हैं
रामकुमार के चित्रों पर लिखने की दुविधा स्वामी जी को भी आयी थी, वे लिखते हैं
'राम के चित्रकर्म पर लिखना किसी भी चित्रकर्मी के कृतित्व पर लिखने की ही
तरह दुस्साहस है.' पिछले हफ्ते भर से मैं भी सोच रहा हूँ कि कहाँ से शुरू
किया जाये. क्या रामकुमार के चित्रों का
संसार इतना सीमित है कि कुछ सूझ नहीं रहा या फिर उनका वितान इतना विस्तृत है कि
पकड़ में नहीं आ रहा. रामकुमार स्वयं लेखक हैं और उन्होंने कहानियाँ लिखी किन्तु
बहुत कम चित्रकारों या चित्रकला पर लिखा. अपने समकालीन मित्रों पर उनका लिखा नगण्य
है.
बहुत खोजने पर उनका एक वक्तव्य, 'The New Generation' जो कॉण्ट्रा मैगज़ीन के तीसरे अंक में छपा है, मिला और उसमें भी रामकुमार कला पर बहुत कुछ कहते नहीं नज़र आते हैं. इस लेख में उनकी चिंता नयी पीढ़ी के कलाकारों द्वारा कुछ न कर पाने की मज़बूरी पर मुखर होती दिखती है. उन्नीस सौ त्रैसठ के इन दिनों रामकुमार के चित्र कहानी कहते दिखते हैं जिसके पात्र चित्र में यहाँ वहाँ उदास खड़े नज़र आते हैं. जिनकी शारीरिकता मोद्ग्लियानी के पात्रों सी है और बाद के चित्र जिन्हें हम अमूर्त कहते हैं, वे भी लम्बी कहानियाँ कहते दिख रहे हैं.
बहुत खोजने पर उनका एक वक्तव्य, 'The New Generation' जो कॉण्ट्रा मैगज़ीन के तीसरे अंक में छपा है, मिला और उसमें भी रामकुमार कला पर बहुत कुछ कहते नहीं नज़र आते हैं. इस लेख में उनकी चिंता नयी पीढ़ी के कलाकारों द्वारा कुछ न कर पाने की मज़बूरी पर मुखर होती दिखती है. उन्नीस सौ त्रैसठ के इन दिनों रामकुमार के चित्र कहानी कहते दिखते हैं जिसके पात्र चित्र में यहाँ वहाँ उदास खड़े नज़र आते हैं. जिनकी शारीरिकता मोद्ग्लियानी के पात्रों सी है और बाद के चित्र जिन्हें हम अमूर्त कहते हैं, वे भी लम्बी कहानियाँ कहते दिख रहे हैं.
हुसेन और रामकुमार की मित्रता किसी से छिपी नहीं है जिसकी प्रगाढ़ता बनारस
यात्रा से शुरू हुई. हुसेन जीवन भर मिथकों और प्रमुख घटनाओं को अपने चित्र का आधार
वाचाल ढंग से बनाये हुए थे,जो इसी बनारस की मुखरता, उत्सव प्रियता और सांस्कृतिक
पृष्ठभूमि से उपजी थी. दूसरी तरफ रामकुमार ने लाल रंग के उदास होने को रेखांकित
यदि किया है तब उसके पीछे बनारस के मणिकर्णिका घाट पर चिता में जल रही लकड़ी के बीच
अज्ञात मृत ख़ामोशी का अनुभव है. बनारस के रहस्य और उसकी विचित्र दृश्यावली रामकुमार के चित्रों में
स्थायी रूप से बस गए.
बनारस को लेकर रामकुमार का कहना है कि उसके बाद वे कई बार बनारस गए और हर बार अलग अनुभव हुआ, वे कहते हैं -
"पिछले तीस बरस में मैं कई बार बनारस गया और हर बार मेरा अनुभव कुछ अलग रहा. यह मुश्किल ही था कि मेरे चित्रों की दृश्यात्मक धारणायें भी बदली उन अनुभव की मेरी व्याख्या के अनुरूप. अस्सी के दशक में मैं कुछ दिनों के लिए बनारस गया और मैंने तय किया कि इस बार यथार्थवादी रेखांकन ही करूँगा बिना किसी तोड़-फोड़ के. मैंने दस रेखांकन किये फिर रुक गया. मैंने सोचा मैं बनारस की आत्मा को दिखाऊंगा."
उधर हुसेन लिखतें हैं
"साठ के दशक के प्रारम्भ में रामकुमार बनारस पहुँचे. अकेले नहीं, हुसेन उनके साथ था. दो चित्रकार, दो ब्रश. एक ब्रश गंगा की बैचेन लहरों से खेला. दूसरा स्थिर-मानो बनारस के घाट पर सदियों से धूनी जमाये है."
दोनों ही चित्रकार बनारस से दीक्षित होकर लौटे.
(बनारस) |
उदासी रामकुमार के चित्रों का स्थायी भाव है और इस उदासी को किसी भी रंग से प्रस्तुत करने का कौशल भी उन्ही के पास दिखाई देता है. रामकुमार के चित्र हमें खाली जगहें, सन्नाटा, बंजर वीरान इलाकें, सूनी, उखड़ी हुई स्मृतियाँ, उदास दृश्य, झरे वृक्ष और निपट एकान्त में बहती नदी की याद दिलातें हैं. इन सब में सन्नाटे का मौन फैला है. रामकुमार के चित्र बहुत बोलते हैं और अक्सर उदास रहते हैं. उनका प्रसिद्ध चित्र माचू-पीचू इस उदासी को चमकदार ग्रे रंग से आलोकित करता है. बनारस का असर दोनों चित्रकारों को अपने अतीत में छोड़ आया. हुसेन को वहाँ मिथक मिले और रामकुमार को ख़ामोशी. ये ख़ामोशी रामकुमार के शिमला में बीते बचपन की ख़ामोशी तो नहीं? रामकुमार के चित्रों की ख़ास बात यह भी है कि वे अपनी ख़ामोश उपस्थिति में भी आकर्षित करते हैं. ये दुर्लभ गुण है रामकुमार का.
(बनारस) |
वे एक चित्रकार की तरह अपने रंगों को बरतते हैं और उनमें से अधिकांश रंगों को उनके रूढ़ स्वाभाव के विपरीत लगाते हैं. एक दूसरा गुण किफ़ायत का है. उनकी रंग पैलेट में वैविध्य नहीं है. रंगों का आकर्षण उन्हें भरपूर है किन्तु अपने रंग प्रयोग में खुद को कुछ ही रंगों तक सीमित रखते हैं. यह भी नहीं है कि उन्होंने कभी रंग पैलेट के साथ प्रयोग नहीं किया. वो भी बहुत है और लगभग सभी रंग कुशलता से इस्तेमाल किये गए हैं. प्रमुख प्रक्षेपण ग्रे रंग का ही है. यह ग्रे रंग रामकुमार की पहचान बन गया हो ऐसा भी नहीं है. वे रंगों का इस्तेमाल चित्रकार की तरह ही करते हैं और उसमें अपना देखना डालते हैं.
रामकुमार के चित्रों में सबसे ज्यादा आकर्षित करने वाली बात यही है कि वे रंग
प्रयोग में अपना विशिष्ट देखना शामिल करते हैं. उनके पहले के चित्र यदि
मोद्ग्लियानी प्रभाव से मुक्त नहीं तो बाद के चित्रों में दृश्यचित्रण उनका आधार
है. इस तरह के दृश्य चित्रण की सम्भावना अनेक हैं और रामकुमार भी अपने को इन अनेक
संभावनाओं में नहीं उलझाते वे बस एक दृश्य रचते हैं और रंग-प्रयोग में उसे ख़ास बना
देते हैं. स्वामी ने इसे ही 'विशुद्ध आवर्तन' कहा है. दृश्य-चित्रण का आवर्तन
रंगों के कारण अकेला हो जाता है. यह अकेलापन रामकुमार का भी है.
स्वामी जिसे विशुद्ध आवर्तन कह रहे हैं उसका उदहारण माचू-पीचू है. उन्नीस सौ
अस्सी में रामकुमार इंका सभ्यता के अवशेष पेरू में देखते हैं और न्यूयार्क आकर एक
स्टूडियो किराये पर लेकर 'माचू-पीचू' चित्र बनाते हैं, यह एक बड़ा चित्र है जो अब
भारत भवन के संग्रह में है, इस चित्र को देखने पर दर्शक को बनारस का अहसास भी होता
है. रामकुमार अनजाने ही दो प्राचीन सभ्यताओ के साम्य को इस चित्र के रास्ते सुझा
रहे हैं. यह बनारस उनके अवचेतन में बसा वो शहर है जिसे वे दुनिया के हर कोने में
पा लेते हैं. इस अर्थ में रामकुमार अवचेतन के कलाकार हैं जिसका यथार्थ बनारस है.
अकेलेपन की उदासी रामकुमार के चित्रों का विषय है. शिबू नटेसन संभवतः इसी कारण
इन चित्रों को, जिसे सभी अमूर्त मानते हैं, अमूर्त नहीं कह रहा है. इस अकेलेपन को
दर्शक तक पंहुचा देना ही रामकुमार के चित्रों की सफ़लता कही जाएगी.
भारतीय चित्रकला संसार में रामकुमार ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने अपना समय
महत्वपूर्ण कलाकारों, कवियों, चिन्तक, विचारकों के साथ गुजारा. वे फ़र्नांड लेजे
(Fernand Leger) के स्टूडियो में काम करते थे और लेजे उनके शिक्षक थे. यहाँ मैं
नाम नहीं गिनाना चाहता किन्तु पिकासो को जब शान्ति दूत के रेखांकन के लिए
पुरस्कृत किया जा रहा था उस समारोह वे शामिल थे. यूरोप के अनेक विद्वानों के साथ
उनकी मुलाकातें, बहसें और सम्वाद ने रामकुमार को अपने स्वाभाव तक पहुचने में बड़ी
मदद की होगी. यहाँ भी उनकी शुरूआती प्रदर्शनी (१९५४) का उद्घाटन प्रसिद्ध उर्दू
शायर जोश मलिहाबादी ने किया. उनके छोटे भाई निर्मल वर्मा हिंदी के प्रख्यात लेखक
हैं. इस तरह साहित्य, संगीत और अन्य कलाओं से उनकी समझ और कला का दायरा विस्तृत
होता गया. उनकी खुद की लगभग बारह किताबें हैं जो समकालीन समय के आधुनिक मनुष्य की पीड़ा और सामाजिक
दुविधा के इर्द-गिर्द बुनी गयी हैं. रामकुमार कहते हैं
"मूलतः मेरी कहानियाँ मध्य-वर्गीय मनुष्य के मेरे निजी अनुभव से जुडी हैं. हमारा परिवार बड़ा था और समस्याओं, दिलचस्प घटनाओं की कोई कमी न थी. मैं इतना साहसी न था कि इनसे दूर भाग जाता."
रामकुमार सुश्री गगन गिल को दिए साक्षात्कार में कहते हैं
"और इससे क्या फर्क पड़ता है कि एक चित्र का शीर्षक है 'फूलों के साथ लड़की' या 'नीले सूट में आदमी'- इस तरह के शीर्षक का क्या अर्थ है? जब मैं चित्र बनता हूँ- मैं किसी विशेष तत्व के बारे में नहीं सोचता, चाहे वो आध्यात्मिक हो या प्रकृति का कोई अलौकिक तत्व, ये चित्र हैं, शुद्ध, साधारण, सहज, चित्रित रंगों के प्रस्ताव, जो किसी के अनुभव से उपज रहे हैं"
यह सही भी है इन रंग प्रस्ताव और इस विशुद्ध आवर्तन के समक्ष हम कई बार हतप्रभ
रह जाते हैं. साधारण, सहज यथार्थ की उपस्थिति, उसका प्यार से सींचा गया स्वरुप,
रंग योजना, और सम्भला हुआ रंग लेपन हमें भी लपेट लेता है. हम अनुभव के पाले में
प्रवेश कर जाते हैं और उसका विस्तार हमारे अनुभव को जन्म देता है.
रामकुमार हमारे
समय के विशुद्ध चित्रकार हैं जिनके सीमित संसार का विस्तार विराट है. वे कहने को ख़ामोश
हैं किन्तु उनका रचा संसार मुखर और अपने में समेट लेने वाला है. उनका जाना भारतीय
कला संसार के लिए उतना ही असहनीय है जितना बनारस में दिसंबर की कड़कड़ाती ठण्ड में
गंगा-डुबकी.
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अखिलेश
२ मई २०१८ भोपाल
२ मई २०१८ भोपाल
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रामकुमार जी हिंदी समाज की आधुनिक जातीय चेतना के अतुलनीय चित्रकार-कथाकार हैं. अनेक कला फार्मों में काम करते हुए इस रचनाकार की केन्द्रीय विधा को चिह्नित कर पाना लगभग असंभव है. एक विधा को दूसरे में रिपीट न करते हुए उन्होंने प्रत्येक विधा की अपनी मौलिकता बचाए रखी है.
जवाब देंहटाएंउनकी paintings सरीखी ही उनकी कहानियाँ हैं जिन पर बात अभी होनी बाक़ी है I
जवाब देंहटाएंअद्भुत कहानियां हैं वे जिन्हें पढ़ते हुए रामकुमार पाठक के मन के कैनवस पर शब्दों की कूंची से चित्र पेन्ट करते रहते हैं। हां, वे अपनी कहानियों में मौजूद रहते हैं।
जवाब देंहटाएंउदासी रामकुमार के चित्रों का स्थायी भाव है और इस उदासी को किसी भी रंग से प्रस्तुत करने का कौशल भी उन्ही के पास दिखाई देता है ..... राजकुमार जी के चित्र देख कर यही अहसास होता है, उनकी कहानियों की एक अलग ही दुनिया है।
जवाब देंहटाएंBehtrin aalekh. Akhilesh shabd-shabd saurm rachte ramkumar ke chitro kee deeth sujhaate hain. Samalochan kaa aabhar.
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (06-05-2018) को "उच्चारण ही बनेंगे अब वेदों की ऋचाएँ" (चर्चा अंक-2962) (चर्चा अंक-1956) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
अखिलेश जी को पढ़ना हमेशा ही समृद्ध करता है। रामकुमार जी के कलाकर्म पर सधा हुआ लेखन। इसे स्क्रीन पर नही प्रिंट ले पढ़ने, और फिर लेखक से पत्र के जरिये बात करने के दिन याद आते हैं। यहां उस तरह से उन्मुक्त मन लिखा नही जा पाता। ये आज सुबह ही अखिलेश जी को बताया था। समालोचन अपने समय के संजीदा लोगों से जुड़ समृद्ध होता जा रहा है।
जवाब देंहटाएंAkhilesh ji writes all memoires so picturesquely....u feel u are sitting in that time zone. No doubt he is brilliant writer too.
जवाब देंहटाएंसुंदर लेख और चित्र
जवाब देंहटाएंअत्यंत ज्ञानवर्धक लेख।।
जवाब देंहटाएंसमालोचन से जुड़कर समय की नित- नूतनता का पता चलता रहता है।।
धन्यवाद अरुण सर।।
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