(राजा रवि वर्मा) |
गुजराती भाषा के कवि पद्मश्री सितांशु यशश्चंद्र (जन्म:
१८/८/१९४१-भुज) के तीसरे काव्य संग्रह
वखार (२००९) को २०१७ के सरस्वती सम्मान से अलंकृत करने की घोषणा हुई है. ‘अॉडिस्युसनुंं हलेसुंं’ उनका पहला कविता संग्रह है. १९८६ में प्रकाशित उनके दूसरे कविता संग्रह ‘जटायु’
को १९८७ के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
हिंदीभाषी पाठकों के लिए इस अवसर पर जटायु कविता का
देवनागरी में मूल पाठ और श्री महावीरसिंह चौहान द्वारा किया गया उसका हिंदी अनुवाद
दिया जा रहा है. साथ ही इस कविता पर सदाशिव श्रोत्रिय का भाष्य भी आपके लिए
प्रस्तुत है.
जब ‘जटायु' कविता रेखांकित हो रही थी तब हिंदी
का काव्य परिदृश्य क्या था, यह देखना भी दिलचस्प होगा ? १९८७ में हिंदी का साहित्य
अकादेमी पुरस्कार श्रीकान्त वर्मा के कविता संग्रह ‘मगध' को दिया गया था. इसके एक वर्ष
बाद वरिष्ठ कवि शमशेर बहादुर सिंह
का कविता संग्रह ‘काल तुझ से होड़ है मेरी' (१९८८) का प्रकाशन हुआ था.
महत्वपूर्ण कवि आलोकधन्वा की कविताएँ भागी हुई
लडकियाँ (१९८८), ब्रूनो की बेटियाँ (१९८९) इसी के आस–पास प्रकाशित हुई थीं.
चन्द्रकांत देवातले का कविता संग्रह ‘आग हर चीज में बताई गयी थी’ का प्रकाशन वर्ष भी १९८७ है.
इसी वर्ष (१९८७) विमल कुमार की कविता 'सपने
में एक औरत से बातचीत' को भारतभूषण सम्मान मिला था. आदि
आइए सितांशु यशश्चंद्र की ‘कविता’ जटायु पढ़ते हैं और फिर सदाशिव श्रोत्रिय की विवेचना.
जटायु
सितांशु यशश्चंद्र
इस कविता के पाठक को शुरू में लगता है कि रामायण का मिथकीय पात्र जटायु ही इसमें वर्णित कथा का नायक है. कविता में राम, रावण, अयोध्या, लंका, लक्ष्मण, स्वर्णमृग, (लक्ष्मण-) रेखा आदि के उल्लेख से उसका यह विश्वास और बढ़ जाता है. पर एक सावधान पाठक के सामने बहुत जल्दी यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस आदिरूपात्मक (archetypal) जटायु की सृष्टि इस कवि ने की है वह रामायण के जटायु से कई मायनों में भिन्न है. इस जटायु का कुछ-कुछ साम्य संभवतः बाइबिल कथा के उस आदम में ढूँढा जा सकता है जिसे ज्ञान-वृक्ष का फल चखने के दंड-स्वरूप ईडन उद्यान से निष्कासित कर दिया गया था.
नगर अयोध्या उत्तर में , दक्खिन में नगरी लंक,
धवल धर्म-ज्योति, अधर्म की ज्योति लालमलाल ,
वन का हरा अंधेरा जो कुछ कहे वही सब करे ,
दर्पण सा जल पड़ा, पर न कोई जा देखे निज मुख,
वन में विविध वनस्पति, सबके स्वाद अलग बहु खंड,
उड़ें तोते मिरच काज, मधु काज भंवर ले गोत ,
कोकिल आम्र चखे न चखे, आम्रघटा छिप जाय,
यूं देखो तो बिन सोचे वो बैठ रहे बहु काल
गरदन दाएं –बाएं करते, थिर ज्यों की त्यों काय ,
जन्म से ही जो गीध है , पैनी है उसकी ऑंखें
ऊपर ज्यों-ज्यों उठे जटायु ,सहज भाव से मात्र ,
हाथ-माप खग उड़े, तो कूदे बांस-माप वो वन,
कवि जब वन को ठग कहता है तब लगता है कि जटायु की इस कहानी में उसकी भूमिका भी कुछ कुछ बाइबिल के शैतान जैसी है जो हव्वा के माध्यम से आदम को ज्ञान-वृक्ष का फल खाने के लिए उकसाता रहता है. वन की इस ठगी का कारण शायद स्वयं वन की अधिकाधिक फैलने की इच्छा है. जटायु के प्रति वन की नैतिक भूमिका शायद रक्षात्मक भी है जिसके बारे में सोच कर जटायु के माता-पिता कुछ निश्चिन्त रहते हैं :
बीते बरस बहोत , बन गया प्रौढ़ जटायु मुखिया
वन के बीच भरी दुपहर में भक्ष्य खोजने उड़ता था ,
क्षुधा-क्षुब्ध वह उड़ा बहुत ऊंचे , देखा हर ओर
उस खालीपन की ठेस लगी,तो काँप उठा वह थरथर
तो कूद पड़े सब ओर फैलते तुलसी,ताल,तमाल
झुक गई उस भार तले उसके तन की हर चूल
दह्मुह –भुवनभयंकर , त्रिभुवनसुन्दर सीता-राम ,
हवे तरणांय वागे छे तलवार थई मारा बहु दुःखे छे घा,
"मुझे यह जान बड़ी
ख़ुशी हुई कि गुजराती के मूर्धन्य और बहुचर्चित कवि सितांशु यशश्चंद्र को इस बार
बिड़ला फाउंडेशन के प्रतिष्ठित सरस्वती
सम्मान से नवाजा गया है.
मैं स्वयं उनके काव्य
का प्रशंसक हूँ और कई वर्षों पहले पढी़ उनकी कविता “जटाय” मुझे आज भी पठनीय
लगती है. मराठी और पंजाबी की ही
तरह गुजराती भी हिन्दी की ही भगिनी–भाषा है अतः थोड़ा प्रयत्न करने पर इस कविता के मूल पाठ को समझना हम हिंदी भाषियों के लिए बहुत कठिन नहीं होगा."
सदाशिव श्रोत्रिय
1
नगर अयोध्या उत्तरे, ने दक्खण नगरी लंक,
वच्चे सदसद्ज्योत विहोणुं
वन पथरायुं रंक.
नगर अयोध्या उत्तर में, दक्खिन में नगरी लंक,
सद् –असद् ज्योति
विहीन मध्य में वन फैला है रंक.
धवल धर्मज्योति , अधर्मनो ज्योति रातोचोळ,
वनमां लीलो अंधकार ,वनवासी खांखांखोळ.
धवल धर्म-ज्योति, अधर्म की ज्योति लालमलाल,
वन का हरा अंधेरा, वनवासी की अपनी चाल.
शबर वांदरा रींछ हंस वळी
हरण साप खिसकोलां
शुक-पोपट ससलां शियाळ वरु
मोर वाघ ने होलां.
शबर, हंस,
बन्दर, भालू ,गज, हिरन, गिलहरी, मोर,
शुक, पड़कुल, खरगोश, बाघ,
वृक, कइयों का कलशोर.
वननो लीलो अंधकार जेम कहे
तेम सौ करे,
चरे,फरे , रति करे ,गर्भने धरे, अवतरे,मरे.
वन का हरा अंधेरा जो कुछ
कहे वही सब करे,
चरें, फिरें, रति करें, गर्भ को धरें ,अवतरें, मरें.
दर्पण सम जल होय तोय नव
कोई जुए निज मुख ,
बस, तरस लागतां अनुभवे पाणी पीधानुं
सुख.
दर्पण सा जल पड़ा, पर न कोई जा देखे निज मुख,
प्यास लगे तो पी ले, ले पानी पीने का सुख.
जेम आवे तेम जीव्या करे
कैं वधु न जाणे रंक :
क्यां उपर अयोध्या उत्तरे
, क्यां दूर दक्खणे लंक .
जैसे तैसे जी लेते, कुछ अधिक न जाने रंक,
कहाँ अयोध्या ऊपर उत्तर, कहाँ दक्षिण में लंक.
2.
वनमां विविध वनस्पति , एनी नोखी नोखी मजा ,
विविध रसों नी ल्हाण लो ,तो एमां नहीं पाप नहीं सजा .
वन में विविध वनस्पति, सबके स्वाद अलग बहु खंड,
विविध रसों को चखे कोई तो
नहीं पाप, नहीं दंड.
पोपट शोधे मरचीने, मध पतंगियानी गोत,
आंबो आपे केरी, देहनी डाळो फरती मोत.
उड़ें तोते मिरच काज, मधु काज भंवर ले गोत,
अम्बुआ डारे आम फले, फले देह डाल पर मौत.
केरी चाखे कोकिला अने जई
घटा संताय ,
मृत्युफळनां भोगी गीधो
बपोरमां देखाय.
कोकिल आम्र चखे न चखे, आम्रघटा छिप जाय,
गीध, मृत्युफलभोगी, दोपहरी में प्रगट दिखाय.
जुओ तो जाणे वगरविचारे
बेठां रहे बहु काळ,
जीवनमरण वच्चेनी रेखानी
पकड़ीने डाळ.
यूं देखो तो बिन सोचे वो
बैठ रहे बहु काल
पकड़े जीवन-मरण बीच की
रेखा की इक डाल
डोक फरे डाबी, जमणी : पण एमनी एम ज काय ,
(जाणे) एक ने बीजी बाजु वच्चे भेद
नहीं पकड़ाय.
गरदन दाएं–बाएं करते, थिर
ज्यों की त्यों काय,
मानों दोनों बीच असल में
भेद न पकड़ा जाय.
जेमना भारेखम देहोने मांड
ऊंचके वायु ,
एवां गीधोनी वच्चे एक गीध
छे : नाम जटायु .
जिनकी भारी भरकम देह को उठा न पाये वायु,
ऐसे गिद्धों बीच रहे एक
गीध है नाम जटायु .
3.
आम तो बीजुं कंई नहीं, पण एने बहु ऊडवानी टेव,
पहोच चड्यो ना चड्यो
जटायु चड्यो जुओ ततखेव.
यूं न ख़ास कोई बात थी, बस उसे बहु उड़ने की आदत,
भोर फटा- ना - फटा, जटायु, समझो, चढ़ा फटाफट.
ऊंचे ऊंचे जाय ने आघे आघे
जुए वनमां,
(त्यां) ऊना वायु वच्चे एने थया
करे कंई मनमां.
ऊंचा ऊंचा उड़े, देखता दूर दूर तक वन में,
तप्त पवन के बीच उसे कुछ
हो उठता है मन में.
ऊनी ऊनी हवा ने जाणे
हूंफाळी एकलता,
किशोर पंखी ए ऊड़े ने एने
विचार आवे भलता .
उष्ण वायु है, मानो ऊष्माभरा अकेलापन है,
किशोर खग उड़ता है, उड़ता जाता है, उन्मन है.
विचार आवे अवनवा, ए गोळ गोळ मूंझाय ,
ने ऊनी ऊनी एकलतामां
अध्धर चड़तो जाय.
अनजाने आते विचार, वो वर्तुल-वर्तुल फिरता,
उष्ण अकेलेपन में वो खग
अधिक-अधिकतर चढ़ता.
जनमथी ज जे गीध छे एनी
आमे झीणी आंख,
एमां पाछी उमेराई आ सतपत
करती पांख .
जन्म से ही जो गीध है, पैनी है उसकी ऑंखें
ऊपर से पा गया बड़ी
फुर्तीली सी दो पांखें.
माता पूछे बापने: आनुं
शुंये थशे, तमे केव,
आम तो बीजुं कई नहीं पण
आने बहु ऊड़वानी टेव.
माता पूछे बाप से : क्या
होगा इसका हाल ?
यूं कोई ख़ास बात नहीं, पर बहु उड़ता है यह बाल.
4.
ऊड़ता ऊड़ता वर्षो वीत्यां
अने हजी ऊड़े ए खग,
पण भोळुं छे ए पंखिड़ुं ने
वन तो छे मोटो ठग !
उड़ते-उड़ते वर्ष गए, उड़ रहा अभी तक खग
बेचारा भोला पंखी है और
वन तो है ठग.
(ज्यम) अधराधरमांजाय जटायु सहज भाव
थी साव ,
(त्यम ) जुए तो नीचे वध्ये जाय छे
वन नो पण घेराव .
ऊपर ज्यों-ज्यों उठे
जटायु, सहज भाव से मात्र ,
नीचे त्यों-त्यों बढ़े जा
रहे, देखत, वन के गात्र.
हाथवा ऊंचो ऊडे़ जटायु तो
वांसवा ठेके वन ,
तुलसी तगर तमाल ताल तरु
जोजननां जोजन .
हाथ-माप खग उड़े, तो कूदे बांस-माप वो वन,
तुलस, तगर,
तमाल, ताल तरु जोजन के जोजन.
ने एय ठीक छे, वन तो छे आ भोळियाभाईनी मा :
लीलोछम अंधार जे देखाड़े ते देखीए भा !
चलो ठीक है, वन है आखिर इस भोले की
माता.
देखो उतना, जितना हरा अँधेरा तुम्हें दिखाता.
हसीखुशीने रहो ने भूली जता न पेली शरत ,
के वननां वासी , वनना छेड़ा पार देखना मत .
हँसी-खुशी से रहो, मगर मत भूलो इसकी शरत
ओ वनवासी, इस वन के उस पार देखना मत.
5.
एक वखत ,वर्षो पछी, प्रौढ़ जटायु ,मुखी ,
केवळ गजकेसरी शबनां भोजन
जमनारो,सुखी .
बीते बरस बहोत, बन गया प्रौढ़ जटायु मुखिया
केवल गज केसरी-शवों को
खाने वाला सुखिया.
वन वच्चे ,मध्याह्न नभे, कैं भक्ष्य शोधमां भमतो’तो ,
खर बिडाल मृग शृगाल शब
देखाय , तोय ना नमतो’तो .
वन के बीच भरी दुपहर में
भक्ष्य खोजने उड़ता था,
खर, बिडाल, मृग, शृगाल शव तो थे, न किन्तु वह झुकता था.
तो भूख धकेल्यो ऊड्यो
ऊंचे ने एणे जोयुं चोगरदम,
वन शियाळ-ससले
भर्युंभादर्युं, पण एने लाग्युं खालीखम.
क्षुधा-क्षुब्ध वह उड़ा
बहुत ऊंचे, देखा हर ओर
खरहों-स्यारों भरा विपिन, फिर भी खालीपन घोर.
ए खालीपानी ढींक वागी , ए थथरी ऊठ्यो थरथर ,
वन ना-ना कहेतुं रह्युं , जटायु अवश ऊछळ्यो अध्धर .
उस खालीपन की ठेस लगी, तो काँप उठा वह थरथर
रहा रोकता वन, जटायु अवश उड़ पड़ा ऊपर.
त्यां ठेक्यां चारेकोरे
तुलसी तगर तमाल ने ताल ,
सौ नानां –नानां मरणभर्या एने लाग्या साव
बेहाल .
तो कूद पड़े सब ओर फैलते
तुलसी, ताल, तमाल
छोटी-छोटी मृत्यु मरे सब
लगे उसे बेहाल.
अने ए ज असावध पळे
एणे लीधा कया हवाना केडा़ ,
के फकत एक ज वींझी पांख, हों ,ने जटायुए दीठा वन ना छेड़ा .
बस उसी असावध पल लेने किस
पवन लहर का पंथ
एक बार वह घूमा – तो उसने देखा वन का अंत.
6.
नगर अयोध्या उत्तरे ने
दक्षिण नगरी लंक ,
बेय सामटां आव्यां, जोतो रह्यो जटायु रंक .
नगर अयोध्या उत्तर में, दक्षिण में नगरी लंक,
दोनों साथ दिखे, देखता रहा जटायु रंक.
पण तो एणे कह्युं के
जे-ते थयुं छे केवल ब्हार,
पण त्यां ज तो पींछे
पींछे फूट्यो बेय नगरनो भार.
पल भर उसने सोचा, जो कुछ हुआ सो बाहर,कहीं,
पर आया भार दोनों नगरों
का पंख पंख पर यहीं.
नमी पड्यो ए भार नीचे ने
वनवासी ए रांक,
जाणी चूक्यो पोतानो एक
नाम विनानो वांक .
झुक गई उस भार तले उसके
तन की हर चूल
जान गया था वह अपनी एक
नाम बिना की भूल.
दह्मुह –भुवन –भयंकर ,
त्रिभुवन-सुन्दर–सीताराम,
-निर्बळ गीधने लाध्युं एनुं अशक्य
जेवुं काम .
दह्मुह –भुवनभयंकर, त्रिभुवनसुन्दर
सीता-राम,
निर्बल गीध को मिला अचानक
एक असंभव काम.
ऊंचा पवनो वच्चे
उड़तो हतो हांफळो हजी ,
त्यां तो सोनामृग, राघव , हे लक्ष्मण , रेखा ,स्वांगने सजी .
पवन मध्य ऊंचे नभ में उड़
चला अकेला जीव,
तब सोनामृग, राघव, हे
लक्ष्मण, रेखा, स्वांग अजीब
रावण आव्यो, सीता ऊंचक्यां ,दोड्यो ने गीध तुरंत ,
एक युद्धे मच्यो , एक युद्धे मच्यो , एक युद्धे मच्यो ,
हा हा ! हा हा ! हार्यो, जीवननो हवे ढूंकड़ो अंत .
सज आया रावण, सीता ले चला, जटायु तुरंत
टूट पड़ा बस, युद्ध छिड़ गया, युद्ध छिड़ गया, युद्ध
छिड़ गया,
हा हा हा हा हारा, जीवन का यह समीप अब अंत !
7.
दख्खणवाळो दूर अलोप , हे तू उत्तरवाळा आव ,
तुलसी तगर तमाल ताल वच्चे
एकलो छुं साव.
दक्खनवाला दिगंत गत, हे तू उत्तरवाले आ,
तुलसी ,तगर,
तमाल बीच
मैं निरा अकेला यहाँ.
दया जाणी कैं गीध आव्यां छे अंधाराने लई,
पण हुं शुं बोलुं छुं ते
एमने नथी समजातुं कंई .
दया जान कुछ गिद्ध आ गए
लिए चंचु अंधार
पर क्या कहता हूँ मैं, वो कुछ ना समझ सके, इस बार.
झट कर झट कर राघवा ! हवे
मने मौननो केफ चडे़ ,
आ वाचा चाले एटलामां मारे
तने कंई कहेवानुं छे .
झट कर, झट कर, राघवा, मुझे चढ़े मौन का मद,
जब तक बाती चले,तुझे कुछ कहने हैं दो सबद.
तुं तो समयनो स्वामी छे ,क्यारेक आववानो ए सही ,
पण हुं तो वनेचर मर्त्य
छुं – हवे झाझुं तकीश नहीं .
तू तो समय का स्वामी है, तू आएगा तो सही;
पर मैं तो वनचर मर्त्य
हूँ, अब टिकनेवाला नहीं.
हवे तरणांय वागे छे तलवार
थई मारा बहु दुःखे छे घा,
आ केड़ा विनाना वनथी
केटलुं छेटुं हशे अयोध्या ?
तृण-तृण अब तलवार बने हर
व्रण पीड़े चकचूर,
बिन- पथ इस वन से वह
अयोध्या होगी कितनी दूर.
आ अणसमजु वन वच्चे शुं
मारे मरवानुं छे आम ?
- नथी दशानन दक्षिणे अने
उत्तरमां नथी राम.
इस अबोध वन में यूं मरना, मेरा यही अंजाम ?
न तो दशानन दक्षिण में अब, न ही उत्तर में राम.
II जटायु : सितांशु यशश्चंद्र II
सदाशिव श्रोत्रिय
इस कविता के पाठक को शुरू में लगता है कि रामायण का मिथकीय पात्र जटायु ही इसमें वर्णित कथा का नायक है. कविता में राम, रावण, अयोध्या, लंका, लक्ष्मण, स्वर्णमृग, (लक्ष्मण-) रेखा आदि के उल्लेख से उसका यह विश्वास और बढ़ जाता है. पर एक सावधान पाठक के सामने बहुत जल्दी यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस आदिरूपात्मक (archetypal) जटायु की सृष्टि इस कवि ने की है वह रामायण के जटायु से कई मायनों में भिन्न है. इस जटायु का कुछ-कुछ साम्य संभवतः बाइबिल कथा के उस आदम में ढूँढा जा सकता है जिसे ज्ञान-वृक्ष का फल चखने के दंड-स्वरूप ईडन उद्यान से निष्कासित कर दिया गया था.
जटायु जिस वन में रहता है उसके निवासी सद्–असद् के किसी
विचार से शून्य हैं. कवि यदि इस कविता में श्वेत रंग को अच्छाई तथा लाल को बुराई
के प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल करता है तो
इस वन का रंग इन दोनों से भिन्न गहरा हरा है:
नगर अयोध्या उत्तरे, ने दक्खण नगरी
लंक,
वच्चे सदसद्ज्योत विहोणुं वन पथरायुं रंक.
नगर अयोध्या उत्तर में , दक्खिन में नगरी लंक,
सद् –असद्
ज्योति विहीन मध्य में वन फैला है रंक .
धवल धर्मज्योति, अधर्मनो ज्योति रातोचोळ ,
वनमां लीलो अंधकार, वनवासी खांखांखोळ .
धवल धर्म-ज्योति, अधर्म की ज्योति लालमलाल ,
वन का हरा अंधेरा, वनवासी की अपनी चाल
कविता का प्रथम पद हमें इस बात का आभास करवाता है कि इस वन में रहने वाले
प्राणी एक प्रकार का सहजवृत्ति से संचालित जीवन जीते हैं - कि उनका
जीवन केवल इन्द्रिय-परायणता का सुख
खोजने और अंततः उनकी जीवन लीला समाप्त कर देने
तक सीमित है :
वननो लीलो अंधकार जेम कहे तेम सौ करे ,
चरे,फरे, रति करे, गर्भने धरे, अवतरे, मरे.
वन का हरा अंधेरा जो कुछ कहे वही सब करे ,
चरें, फिरें, रति करें, गर्भ को धरें, अवतरें, मरें
इन वनचरों के केवल भौतिक, पाशविक, अनुभवों तक सीमित रहने और आत्मचिंतन जैसी किसी गतिविधि में सर्वथा
असमर्थ होने का संकेत भी
यह कवि एक सशक्त बिम्ब द्वारा अपने
पाठकों को देता है :
दर्पण सम जल होय तोय नव कोई जुए निज मुख,
बस, तरस लागतां अनुभवे पाणी पीधानुं सुख.
दर्पण सा जल पड़ा, पर न कोई जा देखे निज मुख,
प्यास लगे तो पी ले, ले पानी पीने का सुख.
इसके निवासियों की अनुभव-सीमा को भी यह वन ही निर्धारित
करता है. उन्हें इस बात का कतई एहसास नहीं है कि उनके इस
वन के उत्तर में अयोध्या स्थित है(जिसका
नाम सद्
के, अच्छाई के, धर्मपालन के प्रतीक राम से जुड़ा है) और इसके
दक्षिण में लंका है (जहाँ बुराई और अधर्म
का प्रतीक रावण निवास करता है).
ईडन उद्यान के
निवासियों की तरह ही इन वनवासी
प्राणियों का जीवन भी बड़े मज़े से बीत रहा
है :
वनमां विविध वनस्पति, एनी नोखी नोखी
मजा ,
विविध रसों नी ल्हाण लो, तो एमां नहीं पाप
नहीं सजा .
वन में विविध वनस्पति, सबके स्वाद अलग बहु खंड,
विविध रसों को चखे कोई तो नहीं पाप, नहीं दंड.
पोपट शोधे मरचीने, मध पतंगियानी गोत,
आंबो आपे केरी, देहनी डाळो फरती मोत.
उड़ें तोते मिरच काज, मधु काज भंवर ले गोत ,
अम्बुआ डारे आम फले , फले देह डाल पर मौत .
केरी चाखे कोकिला अने जई घटा संताय,
मृत्युफळनां भोगी गीधो बपोरमां देखाय.
कोकिल आम्र चखे न चखे, आम्रघटा छिप जाय,
गीध, मृत्युफलभोगी, दोपहरी में प्रगट
दिखाय .
बहरहाल जटायु नामक इस विशाल गृद्ध की शरीर-रचना और व्यवहार
भी कवि की कल्पना को कुछ अन्य विशिष्ट
बिम्ब सुझाते हैं :
जुओ तो जाणे वगरविचारे बेठां रहे बहु काळ,
जीवनमरण वच्चेनी रेखानी पकड़ीने डाळ.
यूं देखो तो बिन सोचे वो बैठ रहे बहु काल
पकड़े जीवन-मरण बीच की रेखा की इक डाल .
डोक फरे डाबी, जमणी : पण एमनी एम ज काय ,
(जाणे) एक ने बीजी
बाजु वच्चे भेद नहीं पकड़ाय.
गरदन दाएं –बाएं करते, थिर ज्यों की त्यों काय ,
मानों दोनों बीच असल में भेद न पकड़ा जाय .
कविता कहीं हमें इस बात का संकेत भी देती है कि इस वन में
रहने वालों के लिए बाहरी दुनिया से संपर्क
वर्जित है :
हसी खुशी ने
रहो ने भूली जता न पेली शरत ,
के वननां वासी , वनना छेड़ा पार देखना मत .
हँसी-खुशी से रहो, मगर मत भूलो इसकी शरत
ओ वनवासी, इस वन के उस पार देखना मत .
आगे बढ़ने पर कविता हमें बतलाती है इस वन के वासी जटायु की
प्रकृति में एक घातक दोष है जो आगे चल कर उसके लिए मुसीबत का कारण बन जाता है :
आम तो बीजुं कंई नहीं,
पण एने बहु ऊडवानी टेव,
पहोच चड्यो ना चड्यो जटायु चड्यो जुओ ततखेव.
यूं न ख़ास कोई बात थी,
बस उसे बहु उड़ने की आदत ,
भोर फटा- ना - फटा, जटायु, समझो ,चढ़ा फटाफट.
ऊंचे ऊंचे जाय ने आघे आघे जुए वनमां,
(त्यां) ऊना वायु
वच्चे एने थया करे कंई मनमां .
ऊंचा ऊंचा उड़े, देखता दूर दूर तक वन में ,
तप्त पवन के बीच उसे कुछ हो उठता है मन में.
ऊनी ऊनी हवा ने जाणे हूंफाळी एकलता,
किशोर पंखी ए ऊड़े ने एने विचार आवे भलता .
उष्ण वायु है, मानो ऊष्माभरा
अकेलापन है ,
किशोर खग उड़ता है, उड़ता जाता है, उन्मन है.
विचार आवे अवनवा, ए गोळ
गोळ मूंझाय ,
ने ऊनी ऊनी एकलतामां अध्धर चड़तो जाय.
अनजाने आते विचार, वो वर्तुल-वर्तुल
फिरता,
उष्ण अकेलेपन में वो खग अधिक-अधिकतर चढ़ता.
जनमथी ज जे गीध छे एनी आमे झीणी आंख,
एमां पाछी उमेराई आ सतपत करती पांख .
जन्म से ही जो गीध है , पैनी है उसकी ऑंखें
ऊपर से पा गया बड़ी फुर्तीली सी दो पांखें .
कविता के इस तीसरेपद की अंतिम पंक्तियाँ पाठक को बतलाती है
कि जटायु की प्रकृति का बहुत ऊपर तक उड़ने की कोशिश का यह घातक दोष उसके माता –पिता की सतत उद्विग्नता का कारण बना रहता है :
माता पूछे बापने: आनुं शुंये थशे, तमे केव,
आम तो बीजुं कई नहीं पण आने बहु ऊड़वानी टेव.
माता पूछे बाप से : क्या होगा इसका हाल ?
यूं कोई ख़ास बात नहीं,
पर बहु उड़ता है यह बाल.
कविता हमें कहती है कि जटायु जैसे जैसे अधिक ऊपर की ओर उड़ता
है वैसे वैसे ही वन को भी जैसे अधिक फैलने का मौका मिल जाता है :
ऊड़ता ऊड़ता वर्षो वीत्यां अने हजी ऊड़े ए खग,
पण भोळुं छे ए पंखिड़ुं ने वन तो छे मोटो ठग !
उड़ते-उड़ते वर्ष गए ,उड़ रहा अभी तक खग
बेचारा भोला पंखी है और वन तो है ठग .
(ज्यम)
अधराधरमांजाय जटायु सहज भाव थी साव ,
(त्यम ) जुए तो
नीचे वध्ये जाय छे वन नो पण घेराव .
ऊपर ज्यों-ज्यों उठे जटायु ,सहज भाव से मात्र ,
नीचे त्यों-त्यों बढ़े जा रहे ,देखत , वन के गात्र .
हाथवा ऊंचो ऊडे़ जटायु तो वांसवा ठेके वन,
तुलसी तगर तमाल ताल तरु जोजननां जोजन .
हाथ-माप खग उड़े, तो कूदे बांस-माप वो वन,
तुलसी, तगर, तमाल,ताल तरु जोजन के जोजन .
कवि जब वन को ठग कहता है तब लगता है कि जटायु की इस कहानी में उसकी भूमिका भी कुछ कुछ बाइबिल के शैतान जैसी है जो हव्वा के माध्यम से आदम को ज्ञान-वृक्ष का फल खाने के लिए उकसाता रहता है. वन की इस ठगी का कारण शायद स्वयं वन की अधिकाधिक फैलने की इच्छा है. जटायु के प्रति वन की नैतिक भूमिका शायद रक्षात्मक भी है जिसके बारे में सोच कर जटायु के माता-पिता कुछ निश्चिन्त रहते हैं :
ने एय ठीक छे , वन तो छे आ भोळियाभाईनी मा :
लीलोछम अंधार जे देखाड़े ते देखीए भा !
चलो ठीक है, वन है आखिर इस
भोले की माता.
देखो उतना, जितना हरा अँधेरा तुम्हें दिखाता.
पर आखिर एक दिन
जटायु से वह भूल हो ही जाती है जिसका अंदेशा उसके मां-बाप को शुरू से रहा था. इस समय तक जटायु प्रौढ़ हो चुका है,
गिद्धों ने उसे अपना मुखिया चुन लिया है और वह अब किन्हीं अन्य छोटे-मोटे जानवरों के
शवों के बजाय केवल गजकेसरी शवों का ही भक्षण करता है. एक दुपहर, भोजन की तलाश में उड़ते हुए लगता है वह अहंकार की चपेट में आ
जाता है और तब वह मन ही मन अपने जीवन के
प्रति एक प्रकार के रिक्तता भाव से भर
उठता है. नीचे फैले
तुलसी-तगर-तमाल-ताल वृक्ष और उनके बीच घूमते खरगोश–सियार
उसे अत्यंत क्षुद्र व मर्त्य लगने लगते हैं और असावधानी के उस क्षण में एक
तीव्र उड़ान से वह वन की सतत वर्जना के बावजूद उसकी सीमा पार कर जाता
है :
एक वखत ,वर्षो पछी, प्रौढ़ जटायु ,मुखी ,
केवळ गजकेसरी शबनां भोजन जमनारो,सुखी .
बीते बरस बहोत , बन गया प्रौढ़ जटायु मुखिया
केवल गज केसरी-शवों को खाने वाला सुखिया .
वन वच्चे, मध्याह्न नभे, कैं भक्ष्य
शोधमां भमतो’तो ,
खर बिडाल मृग शृगाल शब देखाय, तोय ना नमतो’ तो .
वन के बीच भरी दुपहर में भक्ष्य खोजने उड़ता था ,
खर, बिडाल, मृग, शृगाल शव तो थे, न किन्तु वह
झुकता था.
तो भूख धकेल्यो ऊड्यो ऊंचे ने एणे जोयुं चोगरदम,
वन शियाळ-ससले भर्युंभादर्युं, पण एने लाग्युं
खालीखम.
क्षुधा-क्षुब्ध वह उड़ा बहुत ऊंचे , देखा हर ओर
खरहों-स्यारों भरा विपिन , फिर भी खालीपन
घोर.
ए खालीपानी ढींक वागी,
ए थथरी ऊठ्यो थरथर ,
वन ना-ना कहेतुं रह्युं, जटायु अवश ऊछळ्यो
अध्धर .
उस खालीपन की ठेस लगी,तो काँप उठा वह थरथर
रहा रोकता वन, जटायु अवश उड़ पड़ा ऊपर .
त्यां ठेक्यां चारेकोरे तुलसी तगर तमाल ने ताल ,
सौ नानां –नानां मरणभर्या एने लाग्या साव बेहाल .
तो कूद पड़े सब ओर फैलते तुलसी,ताल,तमाल
छोटी-छोटी मृत्यु मरे सब लगे उसे बेहाल.
अने ए ज असावध पळे एणे लीधा कया हवाना केडा़ ,
के फकत एक ज वींझी पांख, हों ,ने जटायुए दीठा
वन ना छेड़ा .
बस उसी असावध पल लेने किस पवन लहर का पंथ
एक बार वह घूमा – तो उसने देखा वन का अंत.
कविता के इस बिंदु पर
पाठक को एक अदिरूपात्मक मोड़ तब दिखाई देता है जब वन की सीमा पार करते ही
जटायु न केवल अयोध्या और लंका को एक साथ देखने में समर्थ हो जाता है बल्कि वह यह
महसूस करता है कि इस गतिविधि के परिणामस्वरूप उसके ऊपर एक नए किस्म का भार आ
पड़ा है :
नगर अयोध्या उत्तरे ने दक्षिण नगरी लंक ,
बेय सामटां आव्यां, जोतो रह्यो जटायु रंक .
नगर अयोध्या उत्तर में, दक्षिण में नगरी
लंक,
दोनों साथ दिखे , देखता रहा जटायु रंक.
पण तो एणे कह्युं के जे-ते थयुं छे केवल ब्हार,
पण त्यां ज तो पींछे पींछे फूट्यो बेय नगरनो
भार.
पल भर उसने सोचा, जो कुछ हुआ सो बाहर, कहीं,
पर आया भार दोनों नगरों का पंख पंख पर यहीं .
नमी पड्यो ए भार नीचे ने वनवासी ए रांक,
जाणी चूक्यो पोतानो एक नाम विनानो वांक .
झुक गई उस भार तले उसके तन की हर चूल
जान गया था वह अपनी एक नाम बिना की भूल.
दह्मुह –भुवन –भयंकर , त्रिभुवन-सुन्दर–सीताराम,
-निर्बळ गीधने
लाध्युं एनुं अशक्य जेवुं काम .
दह्मुह –भुवनभयंकर , त्रिभुवनसुन्दर सीता-राम ,
निर्बल गीध को मिला अचानक एक असंभव काम .
पल भर वह अपने आप को इस मुगालते में रखने की कोशिश करता है
कि इस बदलाव से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है – कि यह सब कहीं उससे बाहर घटित हुआ है – पर शीघ्र ही उसे
इस बात का आभास हो जाता है कि दो परस्पर विरोधी शक्तियों के ज्ञान के
परिणामस्वरूप आई एक प्रकार की नैतिक ज़िम्मेदारी से अब वह बाख नहीं सकता – कि इनमें से किसी
एक के पक्ष में खड़ा होना उसके लिए अनिवार्य हो गया है .
रामायण में दशरथ और जटायु के संबंधों को याद करके पाठक
स्वयं यह निर्णय कर सकता है कि जटायु के लिए केवल धर्म की, राम की पक्षधरता ही संभव है जबकि उसकी वर्तमान
परिस्थितियों में अधर्म की शक्ति अधिक बढ़ी हुई है. उसका मुकाबला
स्वाभाविक रूप से सीता-हरण करते रावण से होता है और वह मरणान्तक रूप से घायल हो
जाता है :
ऊंचा पवनो वच्चे उड़तो हतो हांफळो हजी ,
त्यां तो सोनामृग, राघव , हे लक्ष्मण , रेखा ,स्वांगने सजी .
पवन मध्य ऊंचे नभ में उड़ चला अकेला जीव ,
तब सोनामृग, राघव , हे लक्ष्मण, रेखा, स्वांग अजीब
रावण आव्यो, सीता ऊंचक्यां ,दोड्यो ने गीध तुरंत ,
एक युद्धे मच्यो , एक युद्धे मच्यो , एक युद्धे मच्यो ,
हा हा ! हा हा ! हार्यो, जीवननो हवे
ढूंकड़ो अंत .
सज आया रावण, सीता ले चला, जटायु तुरंत
टूट पड़ा बस ,युद्ध छिड़ गया,युद्ध छिड़ गया ,युद्ध छिड़ गया ,
हा हा हा हा हारा ,जीवन का यह समीप अब अंत !
कविता का सातवाँ और अंतिम पद सर्वाधिक महत्वपूर्ण है
क्योंकि हमारे समय का संवेदनशील पाठक इसे पढ़ते समय इसके आदिरूपात्मक कथन को कहीं
अपने ऊपर भी लागू होते हुए पाता है. व्यक्ति जब तक एक ही प्रकार के सोच से जुड़ा था
तब उसके लिए कोई समस्या नहीं थी पर विश्व
आज जिस संक्रमण काल से गुजर रहा है उसमें उसकी मुठभेड़ जगह जगह विरोधी प्रकार की विचारधाराओं से होती है. आस्थावान
व्यक्ति आज भी यह विश्वास करके चलता है कि
विजय अंततः धर्म की होगी पर उसे क्षितिज पर राम अब भी कहीं दिखाई नहीं देते. उसके एकाधिक विचारधाराओं
से परिचित होने के कारण उसकी बहुत सी बातें भी उन लोगों
की समझ में नहीं आती जो दुनिया को अब भी परंपरागत ढंग से देखने के आदी हैं:
दया जाणी कैं
गीध आव्यां छे अंधाराने लई,
पण हुं शुं बोलुं छुं ते एमने नथी समजातुं कंई
.
दया जान कुछ गिद्ध आ गए लिए चंचु अंधार
पर क्या कहता हूँ मैं, वो कुछ ना समझ
सके, इस बार.
इस कविता के उद्गम पर विचार करते हुए पाठक यह भी पूछ सकता
है कि क्या यह एक डायस्पोरा कविता है? क्या यह उन
भारतीयों की मनस्थिति का चित्रण करती है जिन्होंने अपने देश की सीमाओं का उल्लंघन
कर अन्य पश्चिमी देशों में जाने का साहस
किया और जो वहां भी कुछ समय इस मुगालते में रहे कि विदेश में विदेशियों से अलग रहते हुएवे वहां भी अपनी भारतीय सांस्कृतिक
पहचान बनाए रख सकेंगे ? उनकी अगली पीढ़ियों
के विदेशी संस्कृति में पूरी तरह रंग जाने
पर उनकी संतानों की छोटी छोटी हरकतें भी उनके लिए गहरे दुःख, पश्चाताप और
मानसिक क्लेश का कारण बनने लगीं :
हवे तरणांय वागे छे तलवार थई मारा बहु दुःखे छे घा,
आ केड़ा विनाना वनथी केटलुं छेटुं हशे अयोध्या ?
तृण-तृण अब तलवार बने हर व्रण पीड़े चकचूर,
बिन- पथ इस
वन से वह अयोध्या होगी कितनी दूर.
जटायु की निराशा एक आत्यंतिक रूप ले लेती है जब वह कहता है
कि क्या अपने लोगों द्वारा न समझे जाने और राम को अपनी बात बतलाए बिना इस संसार से कूच कर जाना ही उसकी नियति है
:
आ अणसमजु वन वच्चे शुं मारे मरवानुं छे आम ?
- नथी दशानन दक्षिणे अने उत्तरमां नथी राम .
इस अबोध वन में यूं मरना, मेरा यही अंजाम ?
न तो दशानन दक्षिण में अब, न ही उत्तर में
राम.
किसी आदिरूपात्मक बिम्ब
की विशेषता इस बात में भी निहित होती है कि उसे व्यक्ति, समय और परिस्तिथियों के अनुसार एकाधिक प्रकार से व्याख्यायित किया जा सकता है. सितांशु जी
द्वारा की गई जटायु की यह मिथकीय सृष्टि इस पैमाने पर भी खरी उतरती है. इसे पढ़ते समय
किसी पाठक के मन में महात्मा गाँधी का
ख्याल भी आ सकता है . हमारे जिन
देशवासियों ने वैश्वीकरण, उदारीकरण, राजनीति, पूंजीवाद, सामाजिक क्रांति, तकनीकी विकास आदि के फलस्वरूप उन तमाम मूल्यों
को धीरे धीरे नष्ट होते हुए देखा है जो पीढ़ी दर पीढ़ी इस देश के सांस्कृतिक मूल्य
बन कर रहे थे वे भी निश्चित रूप से इस
कविता को पढ़ते समय कहीं न कहीं अपने आप को इस कविता के केन्द्रीय पात्र की जगह रख
कर देखने में समर्थ होंगे. यह कविता तब उनके
उन जटिल मनोभावों को अभिव्यक्ति देती हुई लगेगी
जिन्हें वे स्वयं आसानी से अभिव्यक्त नहीं कर सकते.
__________________________
sadashivshrotriya1941@gmail
सदाशिव श्रोत्रिय को क्लिक करके यहाँ पढ़ें.
_______________
४.राजेश जोशी (बिजली सुधारने वाले)
५.देवी प्रसाद मिश्र (सेवादार)
साहित्य अकादमी पुरस्कार-प्राप्त कविता-संग्रह का हिंदी अनुवाद तो उपलब्ध होना चाहिए। टिप्पणीकार ने शायद अपना अनुवाद इस्तेमाल किया है जो बिलकुल अच्छा नहीं है। इस पर टीका करना संभव नहीं है।आप एक अन्य अनुवाद पोस्ट कर दें तो कृपा होगी।
जवाब देंहटाएंअभी के लिए -
1. आर्कीटाइपल बिम्ब होगा तो एसेंशन का होगा, गार्डन ऑफ़ ईडन का नहीं।
2. वन को सेटन का प्रतीक नहीं मान सकते। सेटन ईविल का प्रतीक है जब कि कविता में वन सेल्फ़ अवेयरनेस से रहित आद्य संस्कृति का रूपक है।
3. डायस्पोरा, महात्मा गांधी, वैश्विक बाज़ार के युग में भारतीय पाठक - ये सब बड़ी दूर की कौड़ियां हैं।
अनुवाद में तो कमियाँ हैं ही। बहुत जगह rhythm टूटता है। कविता में यह स्पष्ट नहीं है कि वन ठग क्यों है। फिर भी वह शैतान का प्रतीक तो नहीं ही है। भाष्यकार खुद मानते हैं कि वन जटायु के बचाव की कोशिश करता है; हम देखते हैं कि वह जटायु को ऊँचा उड़कर दूर जाने से रोकता है। यह भी स्पष्ट है कि जटायु को निष्कासित नहीं किया जाता; वह अपनी इच्छा से वन के दायरे से बाहर निकलता है। इसलिए भी बाइबल का ज़िक्र ठीक नहीं। गाँधी और Indian Diaspora का ज़िक्र तो वाकई दूर की कौड़ी है। खुद कविता पर भी कुछ प्रश्न उठाए जा सकते हैं। जैसे राम को अभी भी अच्छाई का प्रतीक मानना, जिस धारणा पर प्रश्न उठ चुके हैं, इत्यादि। इस कविता में राम-रावण प्रसंग की आधुनिक व्याख्या नहीं है, जबकि काव्य से इतर इस तरह की व्याख्याएं हुई हैं। भाष्यकार भी परम्परा की बात ऐसे करते हैं जैसे कि अपनी परम्परा के मूल्य न टूटे, व्यक्ति परम्परा के दायरे के भीतर रहे तो सब ठीक चलता रहता है, जबकि इतिहास को देखें तो अपनी परम्परा से मोहभंग एक आम बात रही है।
जवाब देंहटाएंकविता साधारण है, व्याख्या भी प्रभावित नहीं करती। सार्थकता बस इतनी है कि हिंदी का पाठक गुज़रती कविता की दशा दिशा से परिचित हो जाता है। गुजराती कविता का फ्लेवर उसे मिल जाता है। भूमिका में उस समय की हिंदी कविता का भी ज़िक्र है। वास्तव में मगध के सामने तो यह कविता कहीं नहीं ठहरती।
जवाब देंहटाएंलगभग चालीस वर्ष पहले लिखी गई एक कवि की एक रचना से किसी एक स्थापित भाषा की कविता की दशा-दिशा का अनुमान लगा लेना हास्यास्पद है।
हटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, अमर क्रांतिकारियों की जयंती और पुण्यतिथि समेटे आया २८ मई “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंगुजराती भाषा मुझे हमेशा हिंदी के बहुत करीब लगती रही है | इसका कारण मेरा नाथद्वारा में रहना भी हो सकता है जहाँ अधिकतर पुष्टिमार्गीय वैष्णव दर्शनार्थी गुजरात से आते हैं और कुछ गुजरात के से वातावरण की सृष्टि करते हैं | मेरे गुजरात प्रवास के दो वर्षों ने भी ,हो सकता है , मेरे मन में गुजराती के प्रति विशेष लगाव पैदा किया हो |
जवाब देंहटाएंपर मुझे यह उम्मीद हरगिज़ नहीं थी कि 700 वर्ष पुरानी और लगभग साढ़े पांच करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली भारत की एक आधिकारिक भाषा में लिखने वाले और अभी अभी सरस्वती सम्मान से अलंकृत होने वाले एक कवि की एक बहुचर्चित रचना हिंदी के इतने कम कविता –प्रेमियों को आकर्षित करेगी |
यह सच है कि जटायु का हिन्दी अनुवाद संतोषजनक नहीं था किन्तु मेरा मानना है कि किसी काव्य –कृति का अनुवाद न केवल कठिन बल्कि सामान्यतः असंभव होता है | इस सन्दर्भ में किसी ने ठीक ही कहा है कि किसी काव्य-रचना का अनुवाद न किया जा सकने वाला भाग ही कविता होता है | थोड़ा बारीकी से देखने वाला पाठक यह देख सकता है कि जटायु के चौथे पद के अंत में हिंदी के वाक्यांश “ देखना मत ” से जो विशेष प्रभाव कवि इस गुजराती कविता में उत्पन्न करता है वह प्रभाव सावधानी न बरतने पर हिन्दी अनुवाद में पूरी तरह गायब हो जाएगा | यदि हम सितांशु की “ मृत्यु ” शीर्षक कविता , रावजी पटेल की “ म्हारी आँखे कंकू ना सूरज आथम्या “ या e e cummings की “ what if a much of a which of a wind” जैसी कविता का हिंदी या किसी अन्य भाषा में अनुवाद करना चाहें तो वैसा इन कविताओं के अधिकांश काव्य-तत्व को खोकर ही किया जा सकेगा | मेरी इच्छा इसीलिए यह थी कि एक उपलब्ध साधारण अनुवाद और देवनागरी लिप्यान्तरण की सहायता से हिन्दी पाठक को जटायु के मूल पाठ के आस्वाद तक ले जाया जा सके | किन्तु लगता है उस आस्वाद के लिए आवश्यक श्रम करने के लिए हमारे अधिकांश पाठक तैयार नहीं हुए |
इस कविता के सन्दर्भ में मुझे गांधीजी का खयाल इसलिए आया कि बाहरी दुनिया के साथ उनके संपर्क ने ही उन्हें छुआछूत , धर्मनिरपेक्षता , अहिंसा , ब्रह्मचर्य ,औद्योगिक उत्पादन , चिकित्सा , न्याय-व्यवस्था , शिक्षा आदि के बारे में नए ढंग से सोचने में समर्थ बनाया और विरोधी बलों से उनके संघर्ष ने उन्हें कई तरह घायल किया | गुजराती डायस्पोरा को भी मैं अपने मूल सांस्कृतिक परिवेश से कट कर विरोधी विचारों वाले परिवेश में स्थानांतरित होने की जोख़िम उठाने वाले लोगों के रूप में देखता हूँ | बहुत प्रयत्न करके भी यह डायस्पोरा शायद आज “ ज्यां ज्यां वसे एक गुजराती ,त्यां त्यां सदा काळ गुजरात ” जैसी धारणा को कायम नहीं रख पाया है | एक अच्छी कविता हमारे मन में कई तरह के विचार ला सकती है | मूल पाप ( Original Sin) वाला विचार भी इसके सन्दर्भ में अस्वाभाविक नहीं था |
मेरी मान्यता है कि उत्तर भारत की अन्य भाषाओं के साहित्य से हम हिंदी-भाषियों का परिचय हिन्दी को कई तरह से समृद्ध कर सकता है | इस समय मुझे लगता है उत्तर की अन्य भाषाएं तो हिन्दी से अपने आपको समृद्ध कर रही हैं पर हिंदी अपनी समृद्धि के लिए अपनी अन्य भगिनी –भाषाओं की ओर न देख कर अब भी विदेशी भाषाओं -खास तौर से अंग्रेज़ी- की ओर ही ऑंखें लगाए है | यदि हम सचमुच अपनी भाषा , अपने देश और अपने देशवासियों से प्रेम करते हैं तो इस स्थिति में बदलाव लाना निहायत ज़रूरी है |
વાહ...
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.