by Cristina Arrivillaga
कविता का नाम हिंदी कथाकारों में सम्मान के साथ लिया जाता है. उनके पांच कहानी संग्रह और दो उपन्यास प्रकाशित हैं. उनकी इस नई कहानी में व्यर्थताबोध और सृजनात्मकता के संकट से जूझते लेखक को केंद्र में रखा गया है.
कविता का नाम हिंदी कथाकारों में सम्मान के साथ लिया जाता है. उनके पांच कहानी संग्रह और दो उपन्यास प्रकाशित हैं. उनकी इस नई कहानी में व्यर्थताबोध और सृजनात्मकता के संकट से जूझते लेखक को केंद्र में रखा गया है.
कहानी
क से ‘कहानी’ ज से ‘जंगल’ घ से ‘घर’
कविता
हर एक मकान के किस्मत में घर होना नहीं बदा होता, पर हर मकान घर होने का सपना अपने भीतर लेकर पैदा होता है. मेरे भीतर भी यह सपना मेरे जन्म के साथ-साथ ही पैदा हुआ होगा, सहोदरों से ज्यादा मेरे किसी जुड़वा की नाईं. सपनों की उम्र हमारे जितनी भले हो सकती है, आँखें चाहे जितनी भी चमकीली हो उनकी, पर जीना उन्हें किसी गरीब और सतमासे बच्चे की तरह ही होता है. हर सांस पर जिसका दम फूले, जिसे जिन्दगी की दुश्वारियां सीधा डग तक भी भरने की इजाजत न दें. मैं समझाता रहा था ताउम्र खुद को, मैं तो एक अतिथिगृह हूँ.
हाँ ...और आप देर तक और दूर तक खड़े रह जाते हैं, ठगे से उसे निहारते हुए. वह ऐसे देख रही थी निविड़ शून्य में, जैसे कि वह तितली अभी-अभी उसके बगल से गुजरी हो.
जाहिर है कि वे बिलकुल भी वह नहीं कह रहे थे, जोकि उन्हें कहना था ... पर इसका मतलब यह भी नहीं था कि वे जो कह रहे थे वह कोई बेमानी और बेमकसद जैसी बात थी....
और अब तो शिखर भी नहीं थे, की जिद करते ...कहतें कुछ. सर पर ला पटकते कुछ अनुवादित किताबें ही, हमेशा की तरह.
उसे उस पल लगा इस जंगल में, इसकी हवा में ही कोई जादू है...अजीब जैसी कोई महक...जो उसे सबकुछ भूलने को,किसी से मन भर बतियाने को बेबस कर रही है.
जो चाहती है इस वक्त, कोई हो जो उसकी बात सुनें. कोई हो जिससे कह सके वह अपने मन में इस पल उमड़ता-घुमड़ता सब कुछ...
उसने हवा की उसी मादक गंध को महसूसते हुए खुद की ही सोच को संशोधित किया था- नहीं जंगल से ज्यादा इस डाक बंगले में, इसके कोने कतरे में...इसकी सायबानों, चहारदीवारियों और दालानों में
..एक अजीब सी सुलगती और चिलकती हुई सी कोई गंध...जो किसी के पास, बहुत पास होने की कामना रचती हो जैसे...
खुद को बेतरह झिड़कते हुए उसने फिर से बातों का सूत्र थामा था जैसे खुद की सोच से उबरने का यही और यही एकमात्र रास्ता हो.
बिना हवा, बिना पानी. बिना ख़ुशी और खुशबू के एकबारगी शून्य हो जाना जैसे. उसकी ऊंगलियों ने उसे समझाने की खातिर एक शून्य रचा था निर्वात में.
‘इन्हें लिखना भी बहुत लाड़ से लिखना होता है, रुककर, ठहरकर, ठमककर. महसूसते हुए इन्हें, इनके गंध और अपनाहियत को...
वह अपने कहे के पक्ष में थोड़ा निठुर हो चला था, थोड़ा -थोड़ा आग्रही.
कविता
हर एक मकान के किस्मत में घर होना नहीं बदा होता, पर हर मकान घर होने का सपना अपने भीतर लेकर पैदा होता है. मेरे भीतर भी यह सपना मेरे जन्म के साथ-साथ ही पैदा हुआ होगा, सहोदरों से ज्यादा मेरे किसी जुड़वा की नाईं. सपनों की उम्र हमारे जितनी भले हो सकती है, आँखें चाहे जितनी भी चमकीली हो उनकी, पर जीना उन्हें किसी गरीब और सतमासे बच्चे की तरह ही होता है. हर सांस पर जिसका दम फूले, जिसे जिन्दगी की दुश्वारियां सीधा डग तक भी भरने की इजाजत न दें. मैं समझाता रहा था ताउम्र खुद को, मैं तो एक अतिथिगृह हूँ.
अतिथि
गृह
रैनबसेरों की नाई होते हैं. तिस पर भी मैं सुंदरवन के घनघोर जंगल में बना हुआ एक
अतिथिगृह. छः महीने से भी अधिक चक्रवातों से घिरा रहनेवाला. जहाँ कुछ ख़ास महीनों
में पर्यटकों को भी आने की मनाही है.
कुलांचे
मारते हिरन, रंग
बिरंगे पंछियों से भरा आकाश, लाल केकड़े, कछुए, तितलियाँ… मुझको
बाँधते तो हैं लेकिन बस पल छिन को. सैलानियों के लिएयह जंगल
कुदरत का एक करिश्मा ठहरा, जादू जैसा खूबसूरत और पल-पल नवीन
होनेवाला, पर मेरे
लिए ये सारे रंग देखे-भाले और पुराने हैं.
मैन्ग्रोव
की पत्तियों का रंग पीले-हरे रंग की चितकबरियों से बुना होता है ताकि रॉयल
टाइगर जिन्हें दूर-दूर से देखने लोग यहाँ आते हैं, इन
पत्तियों में आसानी से घुल मिल और छिपकर रह सकें... कि कोई आसानी से इनका शिकार
नहीं कर सके. हालाँकि
शिकार अब प्रतिबंधित है यहाँ, पर जब प्रतिबन्ध नहीं था, या फिर
चोरी छुपे जब इन नियमों को बाहरी लोग तोड़ते रहते थे तब भी ये पेड़माँ की आँचल की
तरह समेटे रहते रहते थे इन्हें ताकि देखने वालों को इनके वजूद की अलग से कोई पहचान
ही नहीं हो पाए. यही नहीं ममतालु माँ की नाईउनके लिए
भोजन-पानी सब परोसते रहते हैं, बिना किसी ख़ास प्रयत्न के.निरीह जानवर
देख-समझ नही पाते दूर से इन पत्तियों के मध्य इन शेरों का लुका छिपा होना औरआसानी
से इनका शिकार हो जाते हैं.
मैन्ग्रोव
के इन्हीं 11 -12 फीट ऊँचे,लम्बे
पेड़ों से घिरे होने के बाबजूद सुन्दरी के वृक्षों से लगातार बतियाते हुए भी
मैं रह जाता हूँ सिरे से खाली और अकेला...
54 द्वीपों से घिरे इस
वन में, जिसका कुछ हिस्सा बांग्लादेश से जा जुड़ता
है, के
हिन्दुस्तान के भीतर आनेवाले हिस्से के ठीक मध्य में बसा हुआ हूँ मैं. यहाँ
मुसाफिर आते हैं और चले जाते हैं.
फिर सपनों
की पूरी क्यारी मन में आंगन में बसाए रखने की भला मुझे जरूरत भी क्या ठहरी . यूं
भी जिन्दगी को हमेशा सच से जोड़कर देखे जाने की जरूरत होती है. कल्पनाओं के कितने
भी रंगीन तम्बू इसके इर्द-गिर्द भले ही टांग लिए जाए, एक दिन सच
की धूप इन पर्दों को फाड़कर या फिर कमजोर और बदरंग करती हुई उसके भीतर आ ही जाती है.
तो अकेलापन कैसी और कौन सी बला है, यह मुझसे बेहतर भला और कौन समझ सकता है .
जानता हूँ
एक ही बात अलग अलग तरीके से बार-बार दुहरा रहाँ हूँ मैं, पर इससे
मेरी बेचैनी का अंदाजा लगा सकते हैं आप, मैं अपने दर्द को अभिव्यक्ति देना चाहता
हूँ और इसी बहाने उस कहानी को भी, जिसका सूत्र मैं अभी तक अपनी बातों में
नहीं छोड़ पाया...
पर चाहता
हूँ वह कहानी आपको बताऊँ...
उस कहानी
को आप
तक
पहुंचाने की जद्दोजहद ही समझिये इसे, हालाँकि वह कहानी मेरी भी उतनी ही है
जितनी उनकी. याकि उनके बहाने यह मेरी ही कहानी है, मेरी
अभिशप्तता भरी जिन्दगी की.
हाँ तो मैं कह
रहा था, मौसम
बदलने की चेतावनी के उन ख़ास दिनों में बिलकुल अकेला होता हूँ, बाशिंदे
तो मेरे लिए कल्पना की बात ठहरे, आदमजात का चेहरा देखने को भी तरस जाता
हूँ मैं उन कुछ ख़ास महीनों में.
उन दिनों
में खासकर जिनके लिए बौखलाता-कुहकता हूँ मैं वो हैं- मासूम
बच्चों की भोली मुस्कुराहटें –खिलखिलाहटें...कि उनके होने से, आ जाने भर
से, उनकी
शैतानियों की गूँज में क्षण भर को अपनी अभिशप्तता फना होती लगती है मुझे. शायद
इसलिए भी की दीवारों वाले घर हमेशा इंसानों को ढूंढते हैं कि बस उनकी बसावट में
ही जी लें और बस लें वो थोडा-थोड़ा... वरना ईंट गारे से बनी दीवारों का क्या कब
ढह-ढनमाना लेंगी कौन जानता है भला? कोई घर उतना ही जीता है और खुश रहता है, उसी क्षण
तक जबतक कि उसमें बसे लोग जीते और खुश रहते हैं.
मुझे पता
था यह हमेशा से, मेरी
आबादगी मुझतक आने और जाने वाले लोग हैं. कुछ पल-छिन जीना अगर है तो इनकी खुशियों
में ही जी लूं, पर अपनी
विदेहता को संजोते और कायम रखते हुए... यह बूझते हुए भी कि ये मुसाफिर ठहरे गर
आयें हैं तो इनका जाना भी तय है. दिल लगाने का कोई सवाल फिर यहाँ कहाँ बच जाता था? मैं
बच्चों की हंसी में क्षण भर को जीता, उनकी मुस्कुराहटों में क्षण भर
मुस्कुराता उनके साथ. फिर अपनी जात, अपना वजूद और अपना धरम याद कर निस्पृह हो
लेता इन सब चीजों से. हाँ अतिथिगृह होने का अपना धर्म, निस्पृह
बने रहने का अपना कर्तव्य...
चूंकि यह
जानता था मैं हमेशा से सो कभी अपनी नियति से कोई शिकायत भी नहीं रही. कभी इस या उस
जैसी चाहत ने आकर घर भी नहीं किया मेरे भीतर...
पर ठहरिये
यह कहना गलत होगा सरासर... मैं सही करता हूँ अपना कथन...
उनके आने
से पहले और लौट जाने के बाद कभी मुझमें यह चाहत नहीं जगी ...
अब सोचता
हूँ तो लगता है किसी घोर नींद में देखा हुआ एक नितांत बेतुका सा सपना था वो जो
नींद से जागते ही बेमकसद और बेमतलब जान पड़ा था. मैंने
धो-पोंछ के निकाल बाहर किया उसे अपनी स्मृति से ...
फिर भी
खलिश थी कि उस सपने के व्यर्थताबोध को जानने के बाबजूद जाती ही नहीं थी दिल से.
उनका चेहरा टीसता रहता किसी घाव की तरह, उससे भी
ज्यादा किसी नासूर की तरह रह-रहकर मेरे मन में ...
पूर्व जनम
में कभी अगर विश्वास किया होता मैंने तो मैं ये कहता कि पिछले जनम वे दोनों
सहयात्री रहे होंगे जीवन यात्रा के और मैं उनका प्रिय और पावन घर... या आदम और
हव्वा की शक्लें बिलकुल इन जैसी ही रही होंगी. यहीं कहीं तोड़कर खाया होगा उन्होंने
वर्जित फल.और निष्कासित हो गये होंगे अपने इस स्वर्ग से...
लेकिन मैं
चाहता था वे कभी भी न जाएं इस दुनिया से कि यहीं कहीं रह लें हमेशा की
खातिर...मछलियाँ पकड़ें, लकड़ियाँ चुने, भोजन
पकाएं, हँसे-
खिलखिलाएं-गुनगुनाएं, प्रेम में आकंठ डूबे रहकर और यहीं जन्म
दें अपनी संततियों को ...
मैं जानता
था उनकी दृष्टि में यह बेबकूफी वाली बात होगी... आगे से पीछे की और पलटना होगा यह- विकास से
प्रारम्भ की तरफ लौटने जैसा कुछ... पर मैं इसे जीवन और सहजता की तरफ लौटने की तरह
देखता और समझता था. जानता हूँ उनकी दृष्टि से ऐसा बिलकुल भी सही नहीं
था. सो उनकी नजरों से देखें तो ऐसा सोचना सरासर बेबकूफी के सिवा और क्या हो सकता
था? इसीलिए
उन्हें लगा हो कि नहीं, मुझे उनके विदा होते ही यह लगा मेरी जिन्दगी
बस उसी रात की थी, बाकी जो जीया सो यूं ही अकारथ...
मैं असमय
ढहने लगा था, जीर्ण
होने लगा था, पलस्तर और
ईंटें गिरने लगी थी मेरे शरीर से...यूं कि जैसे किसी बूढ़े मनुष्य के शरीर का एक-एक
अंग धीरे-धीरे साथ छोड़ता है उसका.
मैं घूम
फिरकर अपने उसी मैं-मैं पर लौट रहा हूँ जबकि पहुंचना तो मुझे उन तक था, उनकी
कहानी तक ...
जी...नहीं
... नहीं बन रहा मुझसे उन तक याकि उनकी उस कहानी तक आना. सो मैं सीधे
आप सबको उस रात तक ले चलता हूँ, ठीक उन्हीं संवादों तक जहाँ मुझे अपनी
बेजुबानी, अपनी
निरीहता सबसे ज्यादा चुभी और खली थी...
हालाँकि
उसके आगे
और पीछे भी बहुत सारे सूत्र फैले हैं इस कहानी के. अब वो उस बातचीत में आ जाते हैं, तो ठीक
वरना इतने से ही काम
चलाना होगा आप सबको.
उसके मतलब
पुरुष लेखक के भीतर समानांतर गति से एक कहानी चल रही थी उन दिनों जबकि कागज़ पर
लिखे उसे बरसों बीत गए थे. हाँ, वह मन ही मन उसे लिख रहा था... लिख लिखकर
मिटा और संशोधित कर रहा था...कभी खाली दरारों को पाटता, कभी
अतिरिक्त कहे गए को मिटाता, संशोधित करता...
बरसों बाद
कहानी जागी थी, चलने लगी
भीतर–भीतर...
वह खुश
हुआ था- कुछ हद तक ठीक उसी तरह, जिस तरह कोई स्त्री पहली बार अपने गर्भ
को अपने भीतर जानकर खुश होती याकि महसूस करती है. उसी पीड़ा और सुख के मिले जुले
भाव के साथ... हालाँकि यह पहली किताब नहीं थी उसकी... तो यूं भी कह लें कि लम्बे
अंतराल के बाद या फिर कई गर्भपातों के बाद गर्भ ठहरने की ख़ुशी की तरह ...
अबकी
भी...
अबकी
तो...
कहानियों
के सिरे हाथ से न जाने कब से छूटे पड़े थे. एक बेचैनी थी मन के
भीतर और उससे भी ज्यादा संशय. कई बार मन ही मन रची गई कहानियों के सूत्र मन के
भीतर ही दबे रह जाते हैं ...उन्हें मन ही मन इतनी बार लिख और पढा जा चुका होता कि लगता है
ख़त्म हुई यह कहानी भीतर से...कोई चार्म नहीं बचा रहता उसे लिखे जाने का... बाकायदा
उसे कागज़ और स्क्रीन पर रचने की चाह जैसे वहीं कहीं अधबीच दम तोड़ देती है.
पिछली
किताब को आये लगभग पांच वर्ष बीत चुके थे... उतना ही जितना कि ऐना को उसकी जिन्दगी
से गये हुए. ऐना की
शिकायत यही थी और लगातार थी- लेखक का घर मतलब जंगल. लेखक के साथ रहने वाले दूसरे
को कुछ यूं ही वीरानियों और अकेलेपन में दिन बिताने होते हैं जैसे किसी जंगल में
दिन काट रहा हो वह, अकेले और निचाट दिन... कोई किसी जंगल में
ऐसे अकेले कैसे जी सकता है भला?
वह नहीं
कह सकता उसे कबसे लगने लगा था ऐसा- रोबर्ट के उसकी जिन्दगी में आने से पहले
से ही या फिर
उसके बाद...
हालांकि
प्रेम के दिनों से ही उसे पता था कि वह लेखक है, हार्डकोर
लेखक.
किसी के
साथ होकर भी नहीं होना उसे दण्डित करने जैसा होता है. अपने अनुभव से जानता है वह.
इसलिए उसने सर झुकाकर ऐना की बात मान ली थी. हालांकि दिल से चाहता था वो ऐना रुक
जाए...
इसीलिए
जंगल-जंगल भटकता रहा था वो, देश और विदेश सब जगह... पर कोई भी
जंगल उसे उस तरह जंगल जैसा जंगल नहीं दिखता था.देश विदेश सब जगह उसकी आने की खबर
उसके पहुँचने से पहले पहुँच चुकी होती थी. कैसी विडम्बना थी यह, जब वह
एक-एक अक्षर को तरस रहा था, मन लायक एक पंक्ति के लिए खुद से झगड़ता
फिरता... एक लेखक के रूप में उसकी मकबूलियत उन्हीं दिनों सबसे अधिक थी और जब
दिन-रात वह रच रहा था लोग उसकी लेखन शैली पर सैकड़ो प्रश्नचिंह लगाते थे... ठीक
उन्हीं दिनों उसे किसी ने सुंदरवन के बारे में कहा था.
जब वह
जंगल देखने आया तो तय करके आया था कुछ दिन उन्हीं वीरानियों में जिएगा. किसी को
अपने आसपास फटकने भी नहीं देगा. ऐना के भीतर की वीरानगी को महसूसना
चाहता था वह. यह उसका खुद के लिए, खुद की सजा में निर्धारित किया गया दंड
था. यहाँ तक वह सिर्फ इसीलिए तो आया था कि वह ऐना के दुःख को जी सके, जान सके
...
पर गजब यह
कि यह जंगल भी जंगल नहीं लगा था उसे... उसके अन्दर के जंगल शायद ज्यादा घनेरे और
भयावने थे इस बाहर के जंगल से. या फिर उसके होने भर से यह करिश्मा घटित हुआ था... पर वही तो
नहीं थी, तमाम और
लोग भी थे साथ.
उसने यह
तय कर रखा था कि किसी को इर्द-गिर्द फटकने नहीं देना, इतना पास
आने ही नहीं देना कि कोई झाँक सके उसके मन के भीतर .. और फिर वह तो ऐसे थी, जैसे होकर
भी वहां न हो.
इस बार भी
ठीक वही घटित हुआ था कि उसके पहुँचने से पहले उसके आने की खबर पहुँच गई थी सबके
बीच.
अकेला
लेखन ही एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ लोग एक लेखक के रूप में अपनी मृत्यु के बाद भी
अपने मरे हुए को ताउम्र सेलिब्रेट करते हैं या कर पाते हैं. अपने लेखन के कब्र पर
चढ़कर वे अपनी प्रसिद्धि को ताउम्र जीते और भोगते हैं. बहुत कम लोगों को इससे गरज
होता है कि आपने पिछला लिखा तो क्या?
कहाँ अटकी
रह गई आपके लेखन के घडी की सुई. यह फ़िक्र बस आलोचकों की ठहरी. आम पाठक अटके होते
हैं पीछे कहीं किसी एक किताब, किसी आधी अधूरी पंक्ति, किसी
अधजीए चरित्र में. उनका यही लगाव, यह
भावावेश उसे परेशान करता है, हमेशा-हमेशा से. सबसे ज्यादा उसे उनकी अपेक्षाओं की
फ़िक्र होती ऐसे में. अपनी तुच्छता उसे इन हालातों में और ज्यादा सताती. हलक में
अटक आये किसी मछली के कांटे की तरह रह-रहकर चुभती और गड़ती रहती यह टीस.
उस पूरे
टूर में सबलोग उनका परिचय जानकर उछल पड़ते थे, घूमते थे उसके आगे पीछे, जबरन साथ होकर
सेल्फियाँ लेते थे- वे भी जिनका साहित्य सिर्फ उतना ही
वास्ता रहा हो जितना उन्होंने जेनरल नौलेज की परीक्षाओं के लिए कभी रट्टा भर मारा
हो या कोर्स में मजबूरन पढ़ लिया हो...
पर वही
अकेली थी ऐसी जिसे उसके होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता था. उसका ऐसा होना
उन्हें सहज बनाये रखने वाला था. सुकून देने वाला. यह तो वे बाद में जान सके थे, वह
भी...
चौकीदार
ने सख्त ताकीद की थी- रात को कोई बाहर न निकालें. न, कैम्पस
में भी नहीं. पर यह गजब कि कहकर ही जैसे उसने अपने कर्तव्य से मुक्ति पा ली हो. वह
मेरी दीवार से लगा ऊँघ रहा था, उसकी ऊँघी और बोझिल साँसे मुझे भी उनींदा
कर रही थी. नींद की खुमारी ने भी किसी घुसपैठिये की तरह
मेरी ईंट –ईंट में
घुसना और अपना कब्ज़ा जमाना शुरू कर दिया था.
मैं लेखक
की तेज चहलकदमी से नीन्द में ही थोड़ा कुनमुनाया था- अजीब नस्ल के होते हैं ये लोग, भरी पूरी
रात यूं ही चहलकमिदयों में बिता देने वाले... कागज फाड़-फाड़कर बस ढेर लगाते
रहेंगे. नींद से तो इनका जन्म का बैर ठहरा ...और
रात सेउतना ही गहरा राबता...
लेखक ने
चहारवारी पर बैठे उस उल्लू को देखा था, और देखता रहा था उसे. जैसे न जाने क्या
अद्भुत देख लिया हो. उसे हंसी आई थी बेसाख्ता .
बाहर हवा
कि सायं सायं थी... अनाम सी सरसराहटें थी. डाक बंगले का बीहड़ सन्नाटा था और कई तरह
के भरम थे...
कि इसी
भरम में उसने किसी का अपने पास होना महसूसा था. हां, वह दिखी
थी और उसने जैसे
यूं ही बस कुछ भी कहने की खातिर कहा था...
यूं कहा
था जैसे किसी और से मुखातिब न होकर वह खुद से ही मुखातिब हो- ‘बस कुछ
लिखते –लिखते
यूंही बाहर निकल आई .’
शायद
इसीलिए, कि बात
इसी तरह शुरू हो सकती थी...
कि बात से
ज्यादा यह सफाई हो जैसे... और वह भी किसी और से ज्यादा खुद को ही दी गई.
मुझे भी कुछ
यूं ही लगा, शायद
इसलिए भी कि और कोई तरीका या तजवीज हो ही नहीं सकता था आपसी बातचीत का ....
कि शायद
दिन का वह जंगल उनके साथ ही चला आया था उनके भीतर ....
और इसी
तरह वे दोनों भी चले आये थे थोड़े-थोड़े एक दूसरे के हिस्से
...
वे ठीक
इसी जंगल की भाषा में बतिया रहे थे. मुहावरेदारी के उनके बिम्ब और प्रतीक सब इसी
जंगल से उड़ाकर लाये हुए थे. और यूं वो जंगल उनके साथ चला आया था.चल रहा था ..और
भीतर... भीतर ...
‘कहानियाँ तितलियों की तरह होती है.
चिड़ियों की तरह होती है. हसीन, खुशमिजाज, सतरंगी और
चंचल. आप जिंदगी भर उनके पीछे भागते रहते हैं...और वो हैं कि कभी
आपके हाथ आती ही नहीं... बस एक नन्हीं सी झलक दिखाती हैं और आप जबतक उनकी सुध
लेंआपके दायें-बाएं, ऊपर या नीचे से सर्र निकल लेती हैं .....
आप ठगे से
खड़े रहते हैं- वही,उसी
पुराने मोड़ पर.
चेहरा अभी
भी यूं ,जैसे उसने
कुछ कहने भर के लिए ही कहा हो यह सब. बस इसलिए की सन्नाटा और अजनबीयत टूटे...बीच
की पसरी हुई चुप्पी टूटे... टूटे सबकुछ या कुछ भी टूटे.
जबकि वह
जानता है कि तोड़ना इतना आसान नहीं होता... गरचे टूटते टूटते ही टूटता
है कुछ भी...
तोड़ने-टूटने
की कोशिश में ही इधर उसका सारा वक़्त बीता है. अकेलापन, उनींदापन, दिमागी
शून्यता, लेखकीय
जड़ता...इधर तो खासकर अपने जीवन का वह निविड़ सन्नाटा... जिसको तोड़ने की कोशिश में
उसके मन और तन सब लहूलुहान हुए जा रहेथे ...
कोशिश
करना उसका स्वभाव ठहरा. जिद ...या फिर कहें कि आदत .
हाँ ...और आप देर तक और दूर तक खड़े रह जाते हैं, ठगे से उसे निहारते हुए. वह ऐसे देख रही थी निविड़ शून्य में, जैसे कि वह तितली अभी-अभी उसके बगल से गुजरी हो.
या फिर
किसी लोकप्रिय विज्ञापन की तरह अभी-अभी बस उसके कांधे से उड़कर गई ही हो.
जाहिर है कि वे बिलकुल भी वह नहीं कह रहे थे, जोकि उन्हें कहना था ... पर इसका मतलब यह भी नहीं था कि वे जो कह रहे थे वह कोई बेमानी और बेमकसद जैसी बात थी....
उसने गौर
किया ...वह उस खेल
में सायास शरीक हो आई थी, जिसे लोग आम बोलचाल
की भाषा में ‘बातचीत’ कहते हैं .
पुरुष लेखक की तरह या फिर कहें तो उसके साथ-साथ मैं भी हैरान हो आया था ...
सचमुच यह हैरत
वाली बात थी, कल तक उसे
कोई दिलचस्पी नहीं थी इस शख्स में. रास्ते भर ठीक से एक बार भी उसने झांका तक नहीं
होगा इस शख्स की ओर... यह जानने के बाद भी कि वह भी लेखक है.
उसे दूसरी
भाषाओं को जानने-पढने में कभी दिलचस्पी नहीं रही. हद हुआ तो कुछ अनुवाद-शनुवाद पढ़
लिया...वह भी इसलिए कि सब इसे एक लेखक के तौर पर उसकी सबसे बड़ी जरुरत बताते थे, हालांकि
उसकी दृष्टि में यह दकियानूस होने जैसा ही कुछ था-अब लिखने का इस उस भाषा की
किताबों से भला क्या सम्बन्ध..दुहराना है क्या यहाँ वहां की किताबों को...अनूठा
लिखने के लिए अनुभव बिलकुल रॉ होने चाहिए, और शैली बिलकुल निजी और अनूठी...और यह सब
कहीं भीतर होते है
हमारे...इस या फिर उस भाषा की किसी किताब में नहीं...
और अब तो शिखर भी नहीं थे, की जिद करते ...कहतें कुछ. सर पर ला पटकते कुछ अनुवादित किताबें ही, हमेशा की तरह.
लेकिन न
जाने क्यों उसे आज पहली बार अपने सीमित अंग्रेजी ज्ञान का दुःख साल और कचोट रहा था.
गोकि वह शख्स बोल रहा था- काम लायक हिंदी, समझने लायक अंग्रेजी के शब्द...क्योंकि
दिन में ही शायद उसकी भाषिक सीमा को बूझ चुका था वह .
पर उसे लग
रहा था कि काश वह धड़ल्ले से अंग्रेजी बोल सकती और ठीक-ठीक वही कह समझ और समझा पाती, जोकि वह
कहना चाहती थी एकदम.
चाहतें और
शिकायतें साथ चलती हैं जिन्दगी में... पर वह तो ठीक-ठीक यह भी नहीं समझ पा रही थी
कि वह क्या चाह रही है? जो चाह रही है कुछ तो वह ऐसा चाह ही
क्यूं रही थी आखिर?
फिर भी वह
कहने की कोशिश में लगातार प्रयासरत थी...
यूं कि
बरसों बाद किसी से और वह भी किसी गैर से ...
क्या कुछ
था जो जोड़ रहा था उसे उससे?
बस उनके
पेशे की वह बाह्य एकरूपता?
लेकिन
लेखक तो वह दिन में भी था ...
साथ भी कई
दिनों से...
उसे उस पल लगा इस जंगल में, इसकी हवा में ही कोई जादू है...अजीब जैसी कोई महक...जो उसे सबकुछ भूलने को,किसी से मन भर बतियाने को बेबस कर रही है.
जो चाहती है इस वक्त, कोई हो जो उसकी बात सुनें. कोई हो जिससे कह सके वह अपने मन में इस पल उमड़ता-घुमड़ता सब कुछ...
उसने हवा की उसी मादक गंध को महसूसते हुए खुद की ही सोच को संशोधित किया था- नहीं जंगल से ज्यादा इस डाक बंगले में, इसके कोने कतरे में...इसकी सायबानों, चहारदीवारियों और दालानों में
..एक अजीब सी सुलगती और चिलकती हुई सी कोई गंध...जो किसी के पास, बहुत पास होने की कामना रचती हो जैसे...
और अपने
इस सोच पे ही जैसे
चिढ और झल्ला गई हो वह ...फालतू बात...फालतू खयाल ...
खुद को बेतरह झिड़कते हुए उसने फिर से बातों का सूत्र थामा था जैसे खुद की सोच से उबरने का यही और यही एकमात्र रास्ता हो.
कुछ
कहानियाँ बचपन की सखियों सी होती हैं, या फिर नन्हीं मुन्नी बिटिया सी...बुरा
लगता है इनका छूट
जाना याकि फिर रूठ जाना ...’
‘जिनसे न आप उंगलियाँ छुडाना चाहते है, न जिनकी
उंगलियाँ छोड़ना. उनका पीछे छूट जाना आपका अकेले खलाओं में छूट जाना होता है.
बिना हवा, बिना पानी. बिना ख़ुशी और खुशबू के एकबारगी शून्य हो जाना जैसे. उसकी ऊंगलियों ने उसे समझाने की खातिर एक शून्य रचा था निर्वात में.
‘इन्हें लिखना भी बहुत लाड़ से लिखना होता है, रुककर, ठहरकर, ठमककर. महसूसते हुए इन्हें, इनके गंध और अपनाहियत को...
वह जान
रहा था....वह अपनी नई कहानी की बात कर रही शायद. जैसे वह जान रही थी, वो अपने
ही डर, कहानियों के
अक्सरहां खो जाने के भय को कह कर रहा है. पर उसके इस रुक रुक कर कहने का कारण भी
वह समझ रहा था या नहीं उसे यह ठीक तरीके से नहीं पता था.
वह फिर
कुछ कह रहा था –कुछ
कहानियाँ जंगली फूलों सी होती हैं, बहुत खूबसूरत.और साथ ही रस,रंग और
गंध से सहज परिपूर्ण...कहते हुए पर न जाने वह देख क्यों रहा था उसे लगातार...एक
अजीब सी मासूम और सलोनी दृष्टि से ...
उसने उन
निगाहों से नजरें चुराते हुए बात के सिरे को आआगे बढाया था,और कुछ कटी-छंटी, संवरी. नख
से शिख तक सानुपातिक रूप से सुन्दर..
दोनों ही
कहानियाँ ही तो हैं, किसे पसंद करें और किसे क्यों नापसंद
करें..यह तो पाठकों का मसला है न?
मुत्तासिर
होने के भी तो अपने अपने अंदाज होते है.
यह तो
पाठक की सोच है या फिर जिम्मेदारी की वह अपने मन की जमीन किसे दे...
बड़ी देर
की चुप्पी के बाद, जैसे हवा में रेंगती
हुई किसी बनैली गंध को मुठ्ठियों में बांधते हुए उसने कहा था-
‘कुछ कहानियों के जिस्म पर नुकीले कांटे होते हैं...शाही या फिर मगर जैसे...वह लिखने और पढनेवाले दोनों को बराबर मात्रा में लहूलूहान करती है....'
‘लिखने वाले को ज्यादा. वह कहता है.
याकि यह
लगता भर है हमें, क्योकि रचनाकार है हम. अपने हर दर्द को
कहना. ग्लोरिफाई करना हमारी आदत ठहरी...
इसे गलत
अर्थों में न लें, उसके चेहरे पर उग आये बेजुबान बिल्लियों
के चेहरे को भांपते हुए उससे कहा था उसने ‘क्योंकि महसूस तो ज्यादा अपनी ही तकलीफ
सकते हैं न हम..’
‘रचनाकार सिर्फ अपना दर्द नहीं समझता-भोगता. सबके दर्द को भोगता और आत्मसात करता है. पात्रों की पीड़ा को भी कई बार जबरन उधारी ले लेते हैं हम’ ...
वह अपने कहे के पक्ष में थोड़ा निठुर हो चला था, थोड़ा -थोड़ा आग्रही.
भोगना अलग
बात है और उधार लेना अलग... द्रष्टा और भोक्ता होने का फर्क है यह... हम
कितना भी जुड़े हों किसी कहानी से पर भोक्ता नहीं होते. एक महीन-सी सूत भर फांक
कहीं न कहीं बची रह ही जाती है...
उसने सोचा,
क्या ठीक वही अंतर या कि अंतराल उन दोनों के बीच पसरा हुआ है फिलवक्त?
शायद ...
शायद नहीं सचमुच...उसने उसकी बात मान ली थी कि कोई चारा ही नहीं था इतनी मासूमियत
भरे जिद से कही गई बात को दरकिनार कर देने का....
उसकी हां
में हां मिलाने के क्रम में ही जैसे एक नई बात, एक नया तर्क आ लगा था हाथ उसके- कुछ
कहानियाँ शेरनी की तरह होती हैं, आप भागते रहते हैं उससे दूर और वो दहाड़ती
हुई आती रहती हैं आपके पीछे. ये कहानियाँ हर पल आपको चबाने की ताक और
फ़िराक में बनी रहती हैं. कबीर ने कहा है न –‘सेज हमारी स्यंध भई, जब सोउं
तब खाए...’
वह हैरत
में थी...अंग्रेजी भाषा का यह लेखक और तुलना किससे, कबीर से?
एक वह है
कि भागती रहती है दूसरी भाषाओ, उनके लेखकों और किताबों से ...वह छोटी
होने लगी थी अपनी नजरों में... उसे अपना कद अभी बहुत घिसा हुआ-सा जान पड़ा
था...बित्ता भर का होता हुआ सा ...
वह उसकी
हैरत को न ताड़ लें, उसके इस बौनेपन को भी, इसलिए बहुत
हड़बड़ी और थोड़ी जल्दबाजी में ही उसने कुछ अन्य बुद्धिमानी वाले रूपक गढे थे -कुछ
कहानियों की बहुत लम्बी पूंछ होती है...और कुछ कहानियाँ बे- पर(की) भी उड़ती हैं...
और कहकर न जाने क्यों हंस दी थी एक मासूम-सी हंसी...
मैं हैरत
में रह गया था, हंसी उसे
आती थी
अभी भी. उसके झरझर –खिल-खिल हंसने की आवाज से मेरे कंधों से उड़कर एक गीध पंख
फड़फडाता हुआ निकल उड़ा था, औरत के काँधे को छूता हुआ...
वह जैसे
उसके निकट हो आई थी बिलकुल...
उसने उसे
पनाह दिया था. ऐसे जैसे घेरे हुए भी उसे, उससे सूत भर दूर ही रहे उसका तन...पर
आत्मा ने आत्मा के ऊपर एक आवरण लपेट दिया था.
वे अलग
हुए थे... और वहीं सीढ़ियों पर बैठ गए थे एक साथ. पता नहीं कहने को कितनी बातें एक
साथ दोनों के मन में उमड़ी थी.
पर एक साथ
उन्होंने जैसे सुला दिया था सबको, थपकी देकर. मीठी लोरियां सुनाकर.
कहा था तो
बस औरत ने... और बड़े उदास और मुलामियत वाले लहजे में... कहानियों के जंगले में घुस
जाने का रास्ता बहुत आसान है, पर लौटने वाली राह बहुत मुश्किल.
आप फिर
भटकते रहते हैं उसमें हमेशा, अग-जग सब भूल भुलाकर. और यह भटकाती रहती है आपको
दुनियादारी, रिश्ते-नाते, दोस्त-दुश्मन, रीत-प्रीत
सब भुलाकर ...
आम शिष्टाचार
और समीकरण भी ..
पर मुझे न
ज़ाने यह क्यों लगा, अबकी उसने कहानी के बदले प्रेम कहा है.
पुरुष
लेखक ने सुना था कि नहीं. पर मेरे बूढ़े कान अभी भी सुनते थे, वह भी कि
जिसे मन में भी कह और बुदबुदा रहा हो कोई. अकेला और अभिशप्त होना बहुत कुछ सुनने
और समझने की शक्ति दे देता है शायद.
फिर यह
आपका चुनाव नहीं होता. मजबूरी होती है आपकी ...
और मजबूर
होना, क्या
सजायाफ्ता होना नहीं है...मैंने उनदोनों से कहा था, बहुत हौले
से ...
उन्होंने
सुना कि नहीं मैं नहीं जानता, पर वे दोनों सिहरे थे एक साथ, लगभग ...
सुबह होने
होने को आई थी...
और वे
दोनों वहीं, सीढ़ियों
पर बैठे कहते सुनते रहे थे न जाने क्या क्या ...
रात को
डूबते और सुबह को उगते उन्होंने देखा था एक साथ...पर न जाने रात क्यों अटकी रह गई
थी वहीं की वहीं...
जाते-जाते
उन दोनों ने कुछ भी नहीं कहा एक दूसरे से ...
पर बारी
बारी मैने दोनों की आँखों में छपी इबारतों को आदतन पढ़ा था- कहानियों के जंगल से
लौट भले ही आओ, वे फिर भी दबे पाँव पीछे चली आती हैं. साथ-साथ चलती होती हैं, अकसर आपके
जाने-अनजाने...
दरअसल
जंगलों से लौट आने का रास्ता एक भ्रम है..
शायद
लौटना ही एक भ्रम ...
कहानियों
का जंगल हमारे भीतर ही होता है.
सारे जंगल
तो दरअसल हमारे भीतर ही होते हैं...
‘और भीतर से बाहर आनेवाली राह हर एक के
हिस्से नहीं होती...’ अबकी मैंने उनके सुनने न सुनने की परवाह
छोड़ बहुत ऊँचे स्वरों में कहा था...
कुछ तो
हुआ या घटा था… अलग-अलग
राह जाते वे दोनों एकबारगी रुके थे.
मेरी और
उन्होंने भर नजर देखा था...
उन आँखों
की लबरेजियत में न जाने कितना कुछ था अनकहा-सा, मैं जिसे समझते हुए भी जिसकी तर्जुमानी
के लिए न जाने कौन कौन-कौन सी भाषाएँ इजाद कर रहा था...
कि एकबारगी लगा- ये मेरी
गलतअन्दाजी ही थी शायद…
उन्होंने जाते-जाते
बहुत निचाट और सादी-सी निगाहों से एक बार-बस एक दूसरे को एक टुक देखा था...
सुबह के उगते सूरज का कोई अक्स, कोई रंग
नहीं था उन आँखों में...
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कविता
15 अगस्त, मुजफ्फरपुर (बिहार)
मेरी नाप के कपड़े, उलटबांसी, नदी जो अब भी बहती है, आवाज़ों वाली गली, गौरतलब कहानियाँ (कहानी संग्रह), मेरा पता कोई और है, ये दिये रात की
ज़रूरत थे (उपन्यास).
मैं हंस नहीं पढ़ता, वह सुबह कभी तो
आयेगी (संपादन), जवाब दो विक्रमादित्य (साक्षात्कार),
अब वे वहां नहीं रहते (राजेन्द्र यादव का मोहन राकेश, कमलेश्वर और नामवर सिंह के साथ पत्र-व्यवहार)
मेरी नाप के कपड़े, कहानी के लिये
अमृत लाल नागर कहानी प्रतियोगिता पुरस्कार.
चर्चित कहानी ‘उलटबांसी’ का अंग्रेज़ी अनुवाद जुबान द्वारा प्रकाशित (‘हर पीस
ऑफ स्काई’ में शामिल).
कुछ कहानियां अन्य भारतीय भाषाओं
में अनूदित
सम्पर्क : एन एच 3 / सी 76, एन टी पी सी, पो. विन्ध्यनगर, जि.
सिंगरौली,486885 (म.प्र.)/07509977020/ kavitasonsi@gmail.com
कविता जी मेरी प्रिय कथाकार हैं । बहुत दिनों बाद उनकी नई कहानी पढ़ने को मिली । थोड़ा भाव और परिवेश गत बदलाव लगा पर जमीन वही । ये मन को एक तरह की आश्वशति देता है ।वो अपने आसपास से उपादान उठा बड़ी बात कर जाती है । दूर की कौड़ी की खोज में भटकना उन्हें पसंद नही। इस कहानी का प्रथम वाक्य ही " हर मकान की किसमत में घर होना नही होता" बता देता है कि उनकी जिद्दोजहद इसी के खिलाफ है। मकान को घर होना चाहिए । पूरे परिवेश की बुनावट उसका चुनाव बहुत कुछ कह जाता है । कविता जी की खास बात वो जो दिखाना चाहती हैं उसे जी रही होतीं है । यही बात कथा रस को बनाये रखती है।
जवाब देंहटाएंकहानीकार को कहानी और उसके पात्रों को गढ़ने में शायद ही कोई दिक्कत हुई हो,पर पाठकों को शायद शीर्षक को समझने में थोड़ी दिक्कत अवश्य होगी।किन्तु, जितनी तसल्ली से कहानी के पात्रों को गढ़ा गया है उतनी ही तसल्ली से कहानी को पढ़ना जरुरी है।
जवाब देंहटाएंभावुकता नहीं,इसमें यथार्थ है।यदि कुछ खोजेंगे तो खुद को डुबोना पड़ेगा, और डूबकर वापस आना मैं नहीं, पर यह कहानी जरूर कहती है।
आभार अरुण सर
और कविता मैम ।
उम्दा कथ्य, नया शिल्प और अलग तेवर। कहानी ने मुझे अभिभूत किया। बहुत बधाई, कविता जी @
जवाब देंहटाएंकिस्सागोई का अंदाज़ एकदम अलग है। कहीं कहीं आत्मबोध हावी होता जान पङता है। बहरहाल, पठनीयता गजब की है। प्रशंसनीय।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रेरक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंकहानी आज पढ़ पाया।कविता ने जब कहानी लिखने की शुरुआत की थी तभी से मैं उनके शिल्प संयोजन और भाषिक संरचना का प्रशंसक हूँ।यहाँ शिल्प थोड़ा जटिल है लेकिन भाषा की मोहकता बनी हुई है।व्यथा को व्यवधान न बनाकर निरर्थक निवारण से बचाया।कविता की यह कहन सजगता उनकी विशेषता भी है और ताकत भी।
जवाब देंहटाएंबधाई कविता..!
जवाब देंहटाएंएक पाठक के रूप में पढ़ता हूं तो एक नई कविता दिखती है। एक नई जमीन पर नई भाषा के साथ खड़ी कविता। एक लेखक के रूप में पढ़ता हूं तो यह कहानी डराती है... क्या यह कहानी हर लेखक के भीतर-बाहर कभी न कभी घटित हो कर रहती है?
और हां "अभिशप्तता भरी जिंदगी" की जगह सिर्फ अभिशप्त जीवन रखें तो कैसा लगेगा?
कथनाक में गज़ब की रवानगी है.
जवाब देंहटाएं'कुछ कहानियों के जिस्म पर कांटे होते है जो लिखने वाले और पढ़ने वालों को लहूलुहान कर देते हैं'
मकान का दिल खोलकर रख दिया है. जाने कितने मकानो मे कितने दिलचस्प किस्से बंद होते हैं, मैं ये सोच रहा हूँ. मैंने बहुत कम पढ़ा है और जितना भी पढ़ा है, ऐसा नहीं पढ़ा. बस अख़्तर की नज़्म याद आ गयी 'मेरा कमरा' जिसमें उन्होंने भी लिखा है 'वो कमरा बात करता था'
आपको ढेरों शुभकामनाएं
कहानी मैंने कल नहीं पढ़ी थी। इसे फ़ुर्सत से पढ़ना चाहती थी। आपकी सघन भाषा की मैं शुरू से कायल हूँ, कवियों सी भाषा है आपकी, इस कहानी में भी। कई पंक्तियाँ अपने आप में एक स्वतंत्र कविता सी लगती है। एक ठहरी हुई सी कहानी लेकिन जितना सन्नाटा, उतना ही शोर, पात्र जितना बोल नहीं रहे, उससे ज़्यादा उनका द्वन्द चीख रहा। एक अतिथि घर का द्वन्द, एक लेखक, एक स्त्री, हर कोई अपने सवालों में गुम है, उत्तर खोज रहा जो है ही नहीं। हर लेखक को पढ़नी चाहिए यह कहानी। एक बार फिर से पढूंगी यह कहानी, एक पाठ काफ़ी नहीं इसका।
जवाब देंहटाएंबधाई आपको इस कथा कविता के लिए
भावनाओं का एक बवंडर है ये कहानी। जैसे कोई तूफान के बीचोंबीच खडा हो कर इसके रुक जाने का इंतजार कर रहा हो। सर से पैर तक धूल में भरा, मूसलाधार बारिश में पानी के थपेडे सहता हुआ। रेत है कि फिर भी चिपकी हुई है। आत्मा का आर्तनाद। सच कहूं तो आपकी कहानी ने मुझे पीडा से भर दिया है। इस तरह लिखना मजबूत दिल का इंसान ही कर सकता है। मेरा सलाम!!! मैं इस कहानी को बहुत मुश्किल से पढ पाई हूं। उसका कारण मेरा अपना अंतर्मन है। आपकी कहानी में कोई कमी नहीं। बहुत बधाई कविता
जवाब देंहटाएंपढ़ गया कहानी ....... मूल प्लॉट तो अच्छा है, मगर जो बात आनी चाहिए थी आ नहीं पाई। सूक्तियों जैसी बातें तो कई हैं कहानी में, जिन्हें सहेज कर रखा और बार-बार गुना जा सकता है मगर मेरी दृष्टि में कहानी की मांग इससे ज्यादा की होती है। इसमें बिखराव और अलगाव ज्यादा लगा। तुम्हारी अन्य कहानियों से इस कहानी का मिज़ा़ज बिलकुल अलग है। मगर यह अलग होना पूरी तरह से सधा नहीं शायद। तुम इससे बेहतर लिखती हो....... एक मित्र होने के नाते मेरी सलाह यही है कि अपने लेखन में बदलाव जरूर लाओ मगर उन विशेषताओं को छोड़े बिना, जो तुम्हें भीड़ से अलग करती हैं। बाकी कोई कहेगा तो मैं मान लूंगा कि कहानी की कोई खास समझ मुझे है नहीं इसलिए इतनी तारीफों के बीच विरोधी बात कर रहा हूँ। :)
जवाब देंहटाएंकहानी बेहद खूबसूरत है कविता जी। भाषा में कविता सरीखी लयात्मकता है। लेकिन कई बार यह लगा कि दार्शनिक होते हुए संवाद कहीं और जा रहे हैं या कि जो कहना था न कहकर शब्द किसी और गली में मुड़ गए। बहरहाल एक अच्छी कहानी के लिए आपको हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं 💐
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