लल्द्यद के ललवाख : अग्निशेखर












लगभग चार महीने पहले वेदराही के उपन्यास ‘ललद्यद’ की योगिता यादव द्वारा लिखी समीक्षा समालोचन पर प्रकाशित हुई थी. उस समय यह विचार हुआ था कि उनकी कविताओं (‘वाखों’) के मूल कश्मीरी से हिंदी में अनुवाद प्रकाशित किए जाएँ. और तब एक ही नाम सामने आया – और वह थे हिंदी और कश्मीरी के कवि अग्निशेखर.

‘लल्द्यद’ के ४१ वाखों’ का अनुवाद आपके समक्ष है और ‘लल्द्यद’ के महत्व को रेखांकित करता साथ में यह आलेख भी.

अग्निशेखर ने तमाम संकटों  और दीगर दबावों के बीच यह महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न किया है. सभी पाठकों की तरफ से समालोचन आभार व्यक्त करता है.

  
लल्द्यद :  दुर्गम    तुंग    हिमालय   धवल  श्रृंग                      
अग्निशेखर




"लल्द्यद माउंट एवरेस्ट हैं. पिछले पांच हजार वर्ष में कश्मीर की संस्कृति और सभ्यता की एकमात्र प्रतिनिधि हैं लल्द्यद. देखा जाए तो पूर्व में दो ही महान हस्तियाँ पैदा हुई हैं - रूमी और लल्द्यद. रही बात नुंदऋषि की, वह तो लल्द्यद का शिष्य था जो उसने अपनी कविता में माना भी है. इस तरह लल्द्यद कश्मीर है और कश्मीर लल्द्यद है."

यह सुविचारित वक्तव्य जब प्रतिष्ठित कश्मीरी समालोचक और विचारक मुहम्मद यूसुफ टेंग ने 15 जनवरी २०१५ को जे. एल, भट, की अंग्रेजी पुस्तक ‘लल्द्यद’ का जम्मू के. के. एल. सहगल हाल में लोकार्पण करते हुए दिया तो मेरे मन में हिंदी के दिग्गज समालोचक और विचारक डॉ. नामवर सिंह की यह बात  कौंध गयी-

"अग्निशेखर, महान कवयित्री के अलावा लल्द्यद भारतीय भाषा नवजागरण की प्रणेता हैं." अवसर था  दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला. नामवर जी के यह पूछने पर कि मैं इधर क्या लिख रहा था,जब मैंने उन्हें Fबताया कि लल्द्यद के ललवाखों का अनुवाद कर रहा हूँ तो वह इतने आह्लादित हुए कि बार-बार  मुझसे आश्वस्त होना चाह रहे थे कि मैं सच में ललद्यद के काव्य का रूपांतरण कर रहा हूँ. ऐसा नहीं है कि चौदहवीं शताब्दी की कश्मीरी आदि कवयित्री के वाखों  (संस्कृत वाक्) का अनुवाद न हुआ हो या उनके जीवन तथा उनके अवदान पर हिंदी में न लिखा गया हो. शायद जैसा सटीक, प्रामाणिक और हिंदी के भाषायी  स्वभाव के अनुरूप लिखे जाने की अनिवार्यता की उनकी अपेक्षा रही हो ऐसा मानक लेखन या अनुवाद न बना हो.

यों तो यह हर कालजयी रचनाकार के साथ होता है. इसीलिए किसी बड़े रचनाकार की महत्त्वपूर्ण कृति के हमारे पास एकाधिक अनुवाद उपलब्ध होने के बावजूद भी नये-नये अनुवाद किए जाने के मोह का संवरण न होता हो.

मुझे याद है सन् १९७७ -७८ की बात होगी. नामवर जी कश्मीर विश्वविद्यालय के हमारे हिंदी विभाग में कोई विस्तार भाषण देने आए थे. छात्रों और प्राध्यापकों के अलावा कश्मीरीउर्दू, अंग्रेजी और हिंदी के प्रतिष्ठित लेखकों, कवियों और अन्य बुद्धिजीवियों से भरे कक्ष में लल्द्यद का प्रसंग आने पर उन्होंने जय लाल कौल की अंग्रेजी में लिखी 'लल द्यद' की भूरि भूरि प्रशंसा की थी.

कार्यक्रम की समाप्ति पर विभाग के बरामदे में खड़े खड़े उन्होंने हमसे कहा था कि जय लाल कौल की जैसी पुस्तक हिंदी में आनी चाहिए .उनके वाखों का ढंग का अनुवाद भी हिंदी में आना चाहिए .

यह वास्तव में लल्द्यद के युगांतरकारी संत कवयित्री होने का ही प्रमाण है कि आज सात सौ वर्षों के बाद भी वह मध्यकालीन बर्बरताओं से आक्रांत कश्मीर की धरती पर उग आयी ऐसी अक्षय 'बून्य' (भवानी वृक्ष, फारसी नाम चिनार) हैं जिसकी शीतल और घनी हरियर छाँव में बैठकर कश्मीर की जनता अपनी थकान  उतारती है, आश्वस्त होती है, नयी आशाओं से ऊर्जस्वित और गौरवान्वित होती है. आज भी कश्मीरी हिंदुओं या मुसलमानों के विवाह उत्सवों या अन्य अवसरों पर आयोजित संगीत समारोह लल्द्यद के वाखों से ही शुरुआत होते हैं मंगलाचरण की तरह.

मैंने यहाँ हिंदी पाठकों के लिए लल्द्यद को लेकर कश्मीरी और हिंदी साहित्य के दो बड़े समालोचकों के ही निष्कर्ष वाक्य उद्धृत किए. लल्द्यद पर कश्मीरी विद्वानों, लेखकों सहित अनेक भारतीय और विदेशी विद्वानों ने खूब कलम चलाई है. कुछ-कुछ अनुवाद भी किए हैं. ग्रियर्सन, बूह्लर और टेंपल का तो विशेष उल्लेख किया जाना चाहिए .

अनुवाद की दृष्टि से सबसे पहले १८ वीं शताब्दी में पं.भास्कर राजानक ने लल्द्यद के साठ वाखों का कश्मीरी से संस्कृत में अनुवाद किया जो प्रामाणिक माने जाते हैं.

पं.भास्कर राजानक ने साठ ही वाखों तक  अपने अनुवादों को सीमित क्यों रखा, इसको लेकर निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता. लल्द्यद के वाखों की संख्या एक सौ अड़तीस से दो ढाई सौ, तीन सौ तक की बताई जाती है.

लल्द्यद ने 'वाख' कहे हैं जो एक तरह से चतुष्पदी छंद हैं. कुछ वाख उनके नाम पर चलाए गये लगते हैं. कुछ उनके मौलिक लगते हुए भी अर्वाचीन फारसी शब्दों के लबादे में हमारे सामने हैं.

लल्द्यद की वैचारिक पृष्ठभूमि में कश्मीर शैव दर्शन था. श्रीनगर के पास वितस्ता के किनारे वर्तमान पांद्रेठन (सं. पुराण-अधिष्ठान ) या स्यमपुर गाँव के एक बहुपठित पैतृक परिवार से थीं. घर में सिद्ध श्रीकंठ जैसे शैवाचार्य का आना जाना लगा रहता. यह सिद्ध श्रीकंठ   प्रसिद्ध शैवाचार्य शितिकंठ के वंशज बताए गये हैं .

यही लल्द्यद के गुरु भी थे. बचपन से ही शैव दर्शन तथा अन्य विमर्शों पर चर्चाएँ सुनने से उनके पुष्ट आध्यात्मिक संस्कार बने जान पड़ते हैं. उनके ललवाखों में अपने सीधे सामाजिक और आध्यात्मिक अनुभवों के अलावा ऐसे संकेत हैं जिनसे उनके पढ़े लिखे होने के पर्याप्त  प्रमाण मिलते हैं. जैसे एक जगह कहती हैं :

‘पढ़ी गीता 
और पढ़ रही हूँ ...'

ऐसी निष्णात्, प्रतिभाशाली तथा संवेदनशील शिव भक्त लल्द्यद ने जब ससुराल में सास और पति के अकल्पनीय अत्याचारों से तंग आकर घर छोड़ दिया और खुले में एक घुमंतु विदुषी संत का जीवन जीने लगी, उसने वाख कहे. वो भी संस्कृत की अविरल परंपरा एक ओर छोड़कर तत्कालीन कश्मीरी भाषा में. यह संत कबीर से कोई तीन दशक पूर्व की घटना है जिस कारण डॉ. नामवर सिंह उन्हें भारतीय भाषा नवजागरण की पहली श्लाका पुरुष कहते हैं.

यह क्रांतिकारी बात  थी. ऐसे कश्मीर में जहाँ संस्कृत की अविच्छिन्न परंपरा रही हो. समूचे भारतीय काव्यशास्त्र के आधार ग्रंथ जहाँ कलासिकीय संस्कृत में लिखे गये हों. आचार्य वसुगुप्त के शिवसूत्रों से लेकर, आचार्य अभिनवगुप्त के विश्व प्रसिद्ध 'तंत्रालोक' और  कल्हण की राजतरंगिणी आदि अनेक युग प्रवर्तक ग्रंथ संस्कृत में रचे गये हों, वहाँ एक विद्रोही और गृह त्यागने वाली स्त्री मातृभाषा कश्मीरी में वाख कहकर संस्कृत की प्रतिष्ठा धूल धूसरित कर बैठे !

यह एक बड़ा कारण है कि इस विद्रोही आदि कवयित्री की  तत्कालीन किसी ग्रंथकार ने लल्द्यद की नोटिस नहीं ली. यहाँ तक कि द्वितीय राजतरंगिणि के  इतिहासकार पं. जोनराज तक ने उसके नाम तक का सीधा उल्लेख तक न किया.

लल्द्यद को अपने समय के दिग्गजों के इस पंडिताऊ दर्प और नकारु रवैये से कोई अंतर न पड़ा.

उसने सर्वव्यापी शैव सम्विति का प्रसार मातृभाषा में किया. यह लल्द्यद को समय की ज़रूरत महसूस हुई होगी. उसकी बात सीधे जन जन के हृदय को छू गयी. उसने बाह्याडंबरों का, भेदभाव का, कुरीतियों और प्रदर्शनकारी कर्मकांड का विरोध किया. उसने मूर्ति पूजा का विरोध किया परंतु मुस्लिम कट्टरपंथी  शासकों द्वारा मंदिर और मूर्तियों के तोड़ने का समर्थन नहीं किया.

वह  चौदहवीं शताब्दी के कश्मीर के इतिहास में ऐसे समय में हुईं जब पारंपरिक हिंदू शासन के अक्स्मात् नाटकीय अंत के साथ ही तिब्बती रेंचनशाह के बाद स्वात (मध्य एशिया) से आए शहमीर के मुस्लिम शासन परंपरा को शुरू हुए बहुत अधिक समय न हुआ था.
 
यह वो समय था जब मध्य एशिया में तैमूर के आतंक से मुस्लिम कट्टरपंथी सैयद वहाँ से भाग रहे थे. कश्मीर में तख्ता पलट हो चुका था.

यहाँ यह बताना अप्रासंगिक न होगा कि तैमूर के आतंक से सात सौ शिष्यों के साथ भागकर कश्मीर आए सैयद मीर अली हमदानी की लल्द्यद से कथित भेंट  ऐतिहासिक दृष्टि से संदिग्ध है. वे दोनों आपस में मिले ही नहीं हैं, ऐसा निष्णात् पंडित जय लाल कौल ने अपनी अप्रतिम पुस्तक 'लल द्यद' में अकाट्य तथ्यों से र्सिद्ध किया है.

किंवदंती गढी गयी कि विवस्त्र घूमने वाली लल्द्यद ने एक दिन सामने से आ रहे मीर अली हमदानी, जिसे कश्मीरी मुसलमान अमीर-ऐ- कबीर कहकर पुकारते हैं, को देखा तो उसे मर्द जानकर वह अपनी लाज छिपाने के लिए पहले एक तेली की दुकान में गयी. तेली ने शरण न दी. लल्द्यद एक नानवायी की दुकान में घुसकर उसके दहकते तंदूर में कूदी. वहाँ से सोने के वस्त्र पहनकर उसके सामने गयीं.   लल्द्यद उनके संपर्क में आकर इस्लाम से प्रभावित हुईं.

यही नहीं आगे एक अन्य किंवदंती के अनुसार सैयद सेमनान साहब ने उन्हें इस्लाम अपनाने को प्रेरित भी किया और वह मुसलमान बन गयीं.

यह सत्य है किन्तु लल्द्यद के जीवनकाल में  इस्लाम एक आंधी की तरह कश्मीर घाटी में कब का प्रवेश कर चुका था. तुर्क दुलचा जैसे महाविनाशकारी हमलावर कश्मीर को रौंदकर चला गया था. सुलतान शहमीर के विश्वासघात के चलते अपने स्वाभिमान की रक्षा में अंतिम हिंदू शासक कोटा रानी की आत्महत्या से पूरी घाटी दहल चुकी थी.

विध्वंस और धर्म परिवर्तन शुरू हो चुके थे. भले ही उसकी गतिकी अपेक्षाकृत धीमी रही हो. ऐसे में एक सर्वथा नयी और क्रांतिकारी सामी सोच वाली संस्कृति के साथ पारंपरिक संस्कृति के वर्चस्व की टकराहट के हताश दिनों में लल्द्यद एक विदुषी और  वत्सल माँ की तरह कश्मीर की उपत्यका में उभरी. एक आश्वासन की तरह. एक कौंध की तरह. एक समभाव की तरह. सहिष्णु प्रतीक की तरह. हालाँकि एक वैरागन होने के कारण उसने अपने काव्य में अपने समय के या पूर्ववर्ती राजनीतिक घटनाक्रम पर कहीं भी बात नहीं की. बल्कि उसने अपने  वाखों में भी शैव दर्शन  के गूढ और दृष्टांतिक सिद्धांत मात्र नहीं बखाने. अपनी सृजनात्मक रचनाशीलता को गौण नहीं  होने दिया.

उनकी कविता में जो बिंब विधान, रूपक, प्रतीक योजना या उपमान मिलते हैं, सब लोक-जीवन से लिए गये हैं. यहाँ तक कि उनके वाखों में शिव भी एक सजीव और सामान्य व्यक्ति के रूप में हमें मिलते हैं. वह जीवनानुभवों को, अपने बोध को शैव पृष्ठभूमि में स्वर देती हैं.

घर त्यागने के बाद लल्द्यद जगह जगह घूमीं. अनिकेत थी. बेसहारा थीं. घर हाँट करता रहा होगा. लोकापवादों से घिरीं. उसने परवाह न की. शिवत्व की तलाश थी उसे. छोड़े हुए घर ने रूपाकार बदला. वह घर भव सागर पार का विराट घर बना, जहाँ वह पहुँचना चाहने लगी. उसने तीर्थाटन किए. समय और समाज को निकट से देखा.

लोगों को आश्चर्य हुआ होगा. दुख भी. लेकिन लल्द्यद का विद्रोह, विद्वता, वैराग्य, उनके ज्ञानात्मक कथन आदि से वे चमत्कृत भी हुए होंगे.

उसने वाख कहे. उन्हें लिपिबद्ध नहीं किया. कर सकती थीं. वह मोह से ऊपर उठ चुकी थीं. मौखिक परंपरा में उसके वाख, जिसे लोगों ने उसके नाम ललेश्वरी के लाघवीकृत नाम 'लल' से जोड़कर 'ललवाख' से अभिहित किया.

ये वाख लोकमानस में घर कर गये. कुछ छूट गये होंगे. कुछ टूट गये होंगे .स्त्रियों ने विशेषकर ललद्यद ,जिसका मायकै का नाम ललेश्वरी और विवाह उपरांत ससुराल का नाम पदमावती रखा गया था, की नियति के साथ स्वयं को जोडा.

लल्द्यद के बारे में सोचने मात्र से हम उनके ऐसे विलग अनुभव-संसार में तथा उनके विषय में रचे बुने कथालोक में  पहुँच जाते हैं जहाँ उनका संघर्ष, सत्य, सौन्दर्य, कविता,स्वप्न और कश्मीर शैव दर्शन की ऐसी सम्विति व्याप्त है कि आप अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकते.

लल्द्यद के साहित्यिक अवदान पर, उनके जीवन-दर्शन पर, काव्यानुभवों पर, उनकी अनुमानित मूल  काव्य भाषा के तत्कालीन स्वरूप ,स्वभाव और प्रकृति पर तो सुधी पाठकों ने बेहद जटिल और बौद्धिक चर्चाएँ -परिचर्चाएं सुनी और पढ़ी हैं. आज भी उनपर लेखन जारी है. कश्मीर में भी और कश्मीर से बाहर भी. विस्थापन साहित्य में वह अक्सर प्रतीक और रूपक के रूप में आती हैं .
      
लल्द्यद को लेकर, उसके जीवन को लेकर कई कई कपोल कल्पित किस्से कहानियाँ, विवाद, पूर्वाग्रह हैं. कुछ तो सच में उसके जीवन काल के प्रामाणिक साक्ष्य उपलब्ध न होने के कारण से जनित हैं और अनेक तो धार्मिक -राजनीतिक कारणों से गढे गये लगते हैं. यह बेसिर पैर की किंवदंतियां आश्चर्य में डालने वाली हैं .

कुछ उदाहरण देखें :

लल्द्यद घर त्यागने के बाद नंगी घूमती थी. विवस्त्र. अपनी लज्जा छिपाने के लिए उसने अपनी अलौकिक शक्ति से पेट की तोंद को लटकाया था. तोंद को कश्मीरी भाषा में ‘लल' कहते हैं .इसलिए वह लल-द्यद अर्थात तोंद वाली द्यद (दादी माँ)कहलाई.

लल्द्यद महान थीं क्योंकि उसपर इस्लाम का प्रभाव था. लल्द्यद धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बनी थीं और विजबिहारा में उसकी कब्र है. इन मनगढंत कुतर्कों को पुष्ट करने हेतु उनके नाम पर   ऐसे कृत्रिम वाख भी चलाए गये जो परवान नहीं चढे. कभी कभी यह बात भीतर दबी जुबान से कही जाने लगी कि कोई प्रामाणिक साक्ष्य न होने के कारण यह कैसे माना जाए कि कोई लल्द्यद हुई भी थीं. इस तर्क को मानें तो कल्हण की राजतरंगिणि में सहस्राब्दी पुरूष आचार्य अभिनवगुप्त का उल्लेख नहीं. तब भी आचार्य अभिनवगुप्त थे और हैं.

लल्द्यद अपने जीवनानुभवों में तथा उसकी काव्य व्यंजना में अद्वितीय ऊंचाइयों को छूती नज़र आती हैं. वह शून्य के मैदान लांघती हैं. वह जन्मों के पार देखती हैं. वह दिक् और काल से ऊपर उठी मिलती हैं. एक वाख में देखिए :

वाख मनस अक्वल न अते
छ़पि मुद्रि अति ना प्रवीश.
रोज़आन शिव शाक्त न अते
म्वच़ई कुंह तुम सुय वोपदीश..
अर्थात्

जहाँ वाक्, मानस,
कुल अकुल नहीं
जहाँ नहीं मौन व मुद्रा से भी
संभव प्रवेश
जहाँ नहीं शिव और शक्ति भी
उसके इतर है जो
इंगित मेरा उपदेश उधार
--

है न लल्द्यद तुंग हिमालय धवल श्रृंग  !


__________


ll  लल्द्यद के ललवाख l l

(1)
मैं खींच रही कच्चे धागे से
समुद्र में नाव
काश, सुन लें देव मेरे
 
तारें मुझको भी उस पार
मैं छीज रही
मिट्टी के कच्चे सकोरों में
 
ज्यों पानी
मेरा जी भरम रहा
कब घर लौटूं.
 


(2)
मैं बैन  विलाप करूँगी लय में 
रे चित्त! तू रमा मोह में इतना
 
परछायी तक साथ न देगी माया की
बिसर गया तू निज स्वरूप, हा.
 


(3)
है नीचे खाई
और ऊपर तू नाच रहा
प्यारे, मन कैसे देता है साथ तुम्हारा
सब जोड़ बटोरकर है यहीं छूटता
प्यारे, अन्न तुझे है कैसे रुचता.
 


(4)
मेरे काठ धनुष का बाण
बन गया घास का
बुद्धू मिला बढ़ई मेरे इस राजभवन को
बिन ताले के हाट सी हुई बाजार में
 
हो गयी तीर्थ शून्य मैं
 
कौन जाने पीर यह मेरी.
  


(5)
आई मैं  सीधे पथ से
गई न सीधी राह
स्व-मन सेतु पर चलते चलते
अस्त हो गया दिवस मेरा
एक न पाई कौडी जेब में
 
क्या दूंगा अब नाविक को
 
पार तरावा.
  


(6)
मैं करूँ क्या
इन पाँच*,दस*,और
 
ग्यारह* का
 
जो खुरच गये
 
भीतर हंडिया मेरी
काश, खींच चलते एक ही रस्सी को सब
  मिलकर
फिर कहां खो जाती
ग्यारहों की गाय*.
--
*पाँच=पंचभूत,दस=इंद्रियां,ग्यारह =मन सहित दस इंद्रियां, ग्यारह गवालों की गाय खो जाना लोकोक्ति परक है.


(7)
अविच्छिन्न
हमारा आना जाना
चलते चलना
दिन और रात
जिधर से आए
 
उधर ही जाना
कुछ तो है, कुछ है
कुछ.
 



(8)
किस दिशा
किस पथ से मैं आई
किस दिशि जाऊँ
 
वो पथ कैसे जानूं
अंत में वहाँ कौन सा
 
धन दाय आएगा काम
इस निरी श्वास साधना का
क्या विश्वास.
      


(9)
एक बुद्धिमान को देखा
भूखों मरते
पूस की हवा में ज्यों
 
पत्ते देखे झरते
 
एक बुद्धिहीन को देखा
रसोइए को पीटते
 
तब से मैं लली
 
बाट जोह रही
कब मेरा मोह टूटे.



(10)
अभी देखी नदी उफनती
अभी न सेतु
 
न कोई पार
फूलों लदी
 
अभी टहनी देखी
अभी न पुष्प
 
न कोई शूल.





(11)
अभी देखा जलता चूल्हा
अभी धुआँ न कहीं आग
अभी थी वह
 
पांडवों की माता
अभी कुम्हारिन मौसी
अज्ञातवास.



(12)
अभी थी
मैं नन्हीं बालिका
अभी थी
यौवना भरपूर
 
अभी थी
 
खूब घूम फिर रही
अभी जलकर हुई.
 



(13)
ये चँवर,छत्र,
रथ और सिंहासन
 
ये आह्लाद,नाट्य-रस,
और सजी सेज
 
क्या समझे हो
थिर हैं साथ चलेंगे
 
कैसे निपटोगे
 
मृत्यु भय से.



(14)
क्यों डूबे 
भव सागर मोह में
क्यों धंसे
तमस पंक में बांध तोड़
 
जब यम किंकर
 
ले जाएंगे घसीट
तब मृत्यु का भय
निवारेगा कौन.



(15)
मनुष्य रे,क्यों बटते हो
रेत की रस्सी
 
इससे नहीं खिंचेगी तेरी नाव
तेरे लेखे जो लिख गये नारायण
 
उसे न बदल सके कोई
 
सुत मेरे.



(16)
क्यों चित्त, रे !
चढ़ी पर-मदिरा है तुम पर
क्यों भासित तुम्हें
सत्य हुआ झूठ
निष्बुद्ध ने किया
तुमको है पर-धर्म के वशीभूत
फँस गये हो
जन्म मरण के क्रम में.




(17)
तूने चर्म उतारी अपनी
फैलाई
 
खूँटों से बाँधी
ऐसा क्या बोया तूने
फलित होता जो
तेरे लेखे
मूढ़ को देना उपदेस
है मृण्भाण्ड को फोड़ना
कंकरिया से.





(18)
की थी गर्भ में
प्रतिज्ञा तूने
कब चेतोगे
याद करोगे
मर जाओ जीते जी
मान बढ़ेगा
मरणोपरांत तेरा.



       

(19)
नहीं मूढ़ को बतलाना
ज्ञान की बातें
 
काहे खर को गुड़ खिलाना
समय गवाँना
कभी न करना
बालूचर में बीज बुआई
भूसी रोटी को
चूपडी करना
तेल गवाँना.
__________
पाठभेद :
दूध से
नहीं सींचना बिच्छू-बहूटी
कभी न सेना सांपिन के अंडे
करेगा जो जैसा
 
भरेगा वैसा
गिरना मत कुएँ में
  तुम






(20)
जान सकती हूँ 
कब दक्षिण से छाएँगे मेघ
पीठ पर लाद सकती हूँ
 
मैं समुद्र
 
कर सकती हूँ
 
असाध्य रोग का उपचार
 
मूढ़ को समझा न पाई बात.





(21)
कडुवा है मधुर
विष है मीठा
जिस क्षण जो अनुभव
 
जिसका जैसा
जिसने ठान लिया
कठिन को पाना
वही पहुँचा ध्येय प्रदेश.




     (22)
कहा गुरु ने 
वचन एक ही मुझसे
 
चली जा बाहर से
  
निज में भीतर
सध गया वही वाक् वचन
मुझ लली को
लगी नाचने तभी
मैं निरावरण.





(23)
खड्ग हस्त जो
राज्यसुख भागी
स्वर्ग का भागी
दान तप करें जो
गुरु का सुने जो
सहज पद का भागी  
स्वयं ही हम पाते
पुण्य पाप का फल.




(24)
कांधे धरी कूजा मिश्री की
गाँठ पड़ गयी ढीली
धनुष सी मेरी
हुई देह टेढ़ी
अब कैसे भार ढोऊं
गुरु-कथन से झेली
खोने की अंगार सी पीड़ा
मैं रेवड़
बिना गडरिये सी हुई
अब क्या हो.




(25)
पूछा गुरु से
सहस्रों बार मैंने
जो अनाम है
क्या है उसका नाम
पूछ पूछ मैं थक हारी
अस्त हुई
कुछ है वो जिसमें से
प्रकट हुआ कुछ.

  


(26)
पाया जन्म 
नहीं सराहा वैभव मैंने
लोभ भोग में रमा न मन
अतुलित जाना सम-आहार
झेले दुःख अभाव झेला
साध लिया देव.





(27)
आई भी हूँ सीधे
जाऊँगी भी सीधे
मैं सीधी सादी
कर लेगा कोई क्या मेरा
मैं अनादि से
चिर विदित उसकी
निर्भय उसकी मैं वत्सला, विज्ञ.





(28)
खा खाकर नित पेट भरोगे
क्या होगा
अन्न तजोगे दंभ जगेगा
क्या होगा
सम-भाव रहेगा
कम न अधिक खा
सम-अन्न ग्रहण से
बंद खुलेंगे द्वार.




(29)
सहन है
बिजलियां कौंधतीं और गाज
सहन है
मध्याह्न में अंधकार
सहन है
चक्की से निकलना पिसकर
तू धैर्य धर ले
वह स्वयं मिलेगा.

  


(30)
चल चित्तवा ,
भयभीत न हो
स्वयं अनादि को चिंता तेरी
कब तेरी क्षुधा हरण हो
तू क्या जाने
चेत ले केवल नाद उसी का.





(31)
खाने पीने से
न वस्त्र सज्जा से होगा
शमित मन
भरम तजा जिन्होंने
चढ़े शिखर
शास्त्र सुनकर मृत्युभय
लगता है क्रूर
वो धनी जो पड़ा नहीं
इसके फेरे.




 
(32)
देह चेतना में ही
घिरे रहे तुम
देह को जाना
अपना रूप
भोगी यह देह
विलास किया
खिलाए कितने इसे
भोग मीठे
पर  शेष बचेगी
राख इसकी.





(33)
इस तन में खोज उसे
सच्चे मन से
यह तन सोहे और सुरूप
लोभ-मोह रहित यह तन
निखरेगी भव्य रूप
तेजस्वी,सूर्य सी उज्ज्वल.





(34)
शीत निवारें वो पहनो अंबर
क्षुधा निवारे
वो अन्न ग्रहण कर
चित्त है नृप
सुविचारी बन
रे चित्त! इस देह को*
क्या ज्ञान बघारूं मैं.
___________________
पाठभेद :
यह देह वन-कागों का आहार




(35)
तरसाओ नहीं
भूख-प्यास से देह को
लगे भूख से बुझने 
तुरंत सुध लो इसकी
वृथा है व्रत धारणा
संवरना तेरा
परोपकार है साधना
असल में.





(36)
पकड़ मत छोड़
गधे को  तू
चर जाएगा लोगों की
केसर- बगिया
कौन वहाँ तेरे बदले
अपनी पीठ
करेगा आगे
जब तलवार पड़ेगी
नंगी देह पर तेरी.




(37)
लोभ,काम और मद
ये मारे जिसने
तीनों चोर
पथ-दस्युओं का वध करके
जो बना रहा
दास भाव में
उसी ने जाना सब भस्मावशेष.




(38)
मारो मारभूतों* को
मारक हैं तुम्हारे
ये मारेंगे वरन्
बाणों से तुमको ही
मन से इन्हें खिलाओ
यदि अल्प भी (--)**
तब शुष्क होंगी इच्छाएं.

---
* काम,क्रोध, लोभ का अभिप्राय
**स्व-विचार भी मिलता है पाठांतर में .
***यह वाख मैंने ''ललवाक्याणि"-ग्रियर्सन से अनुवाद हेतु चुना है.





(39)
वे गाली दें मुझको
या बोल कसें
जो मन में आए
कह दें मुझको
चाहे पूजा करें
     कुसुमों से मेरी
मैं अ-मलिन
निर्लिप्त रहूंगी.





(40)
हँस लें मुझपर
बोल हजारों कस लें
क्षुब्ध नहीं है मेरा मन
यदि शंकर की 
हूँ मैं भक्तिन
तो दर्पण को
क्या मलिन करेगी राख.




(41)
मूढ दिखो ज्ञानी होकर
देखकर भी
दिखो जैसे हो अंधे 
मूक बधिर दिखो सुनकर
जैसे हो तुम जड़ रूप
जो बोले जैसा
वैसा उससे बोलो*
है तत्त्वविद् का अभ्यास यही
___________________
पाठभेद :
* जो कोई बोले जितना
उतना ही तू सुन
_________________


अग्निशेखर 
कश्मीर में जन्में अग्निशेखर हिंदी के सुपरिचित कवि और लेखक हैंलोक -जीवन, संगीत  तथा पर्वतारोहण में गहरी रूचि रही है, लोकवार्ता  सम्बंधी लेख चर्चित रहे हैं.

'किसी भी समय ' (1992 ), 'मुझसे  छीन ली गयी मेरी नदी' (1996), 'कालवृक्ष की छाया में’’ (2002), 'जवाहर टनल '(2009 ) और 'मेरी प्रिय कविताएँ ' जैसी कविता  पुस्तकों  के अतिरिक्त 'मिथक नंदिकेश्वर ' एवं आतंक ग्रस्त कश्मीर - केंद्रित अलग अलग भाषाओँ  की कहानियों का  संकलन 'दोज़ख' सम्पादित. 'अंग्रेजी में अनूदित उनकी  हिंदी कविताओं का संकलन  'No Earth Under Our  Feet' प्रकाश्य.

इनकी अनेक रचनाओं के तेलुगु, कन्नड, तमिल, कश्मीरी, डोगरी, पंजाबी, गुजराती, मराठी, बांग्ला, उर्दू में अनुवाद हुए हैं.  अग्निशेखर ने क़श्मीरी  से प्रतिनिधि आधुनिक कश्मीरी कवियों की रचनाएं हिंदी में अनूदित की हैं. प्रतिष्ठित हिंदी पत्रिका 'पहल'- 36 , और 'वसुधा' -74, के चर्चित कश्मीरी अंकों का इन्होंने अतिथि संपादन किया. एक कहानी पर 'शीन' शीर्षक से फ़िल्म भी बनी.

राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा के हाथों 1994 में केंद्रीय हिंदी निदेशालय  का हिंदी लेखक पुरस्कार, 2003 में वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु प्रभाकर तथा 2006 में वरिष्ठ कवि विनोद कुमार शुक्ल के हाथों 'सूत्र - सम्मान' से  सम्मानित. कविता - संग्रह 'जवाहर टनल' पर घोषित जम्मू - कश्मीर की कला, संस्कृति और भाषा अकादमी का वर्ष 2010  का  सर्व-श्रेष्ठ पुस्तक  पुरस्कार लेखकीय स्वाभिमान और विरोध के चलते ठुकरा दिया. इक्यावन हज़ार की धन-राशि, महंगे शॉल और ट्रॉफी वाले इस पुरस्कार की राज्य में सर्वोच्च मान्यता है.

सन 1990 से अलगाववाद और जेहादी आतंकवाद के चलते कश्मीर से निर्वासित अग्निशेखर  धार्मिक कट्टरता, 'जीनोसाइड ' तथा ' एक्सोडस के विरुद्ध  लगातार सक्रिय, हिटलिस्ट पर होने के बावजूद  विस्थापितों के भू - राजनैतिक प्रश्न और मांगों  के लिए जुलूसों, जलसों, धरनों, जेल भरो  अभियानों के अलावा वह हेग, एम्स्टर्डम, लन्दन, अमेरिका , फ्रांस  के अन्तरराष्ट्रीय मंचों  पर अपनी उपस्थिति दर्ज करते रहे हैं.

संपर्क :बी - 90 /12, भवानी नगर, जानीपुर, जम्मू -180007
ई - मेल : agnishekharinexile @gmail.com   मोबाइल : 09697003775

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  1. दिव्य अनुभव। अग्नि शेखर जी और आपको कोटि धन्यवाद।

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  2. कश्मीर की 14वीं सदी की प्रसिद्ध शैव कवयित्री लल्ल-दय्द जिन्हें लल्लेश्वरी के नाम से भी जाना जाता है, उनकी 41 वाखों के इस अनुवाद के लिये अग्निशेखर जी अशेष धन्यवाद के पात्र है ।
    लेकिन लल्ल-दय्द का परिचय देते हुए अग्निशेखर जी ने जिस प्रकार से तत्कालीन कश्मीर में ‘संस्कृत की अविच्छिन्न परंपरा’ का जिक्र किया है, वह अनावश्यक और अनैतिहासिक भी है । लल्ल-दय्द 14 वीं सदी में कबीर की लगभग समकालीन थी । कश्मीरी शैवमत के सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक गुरु अभिनवगुप्त तो उनके तीन सौ साल पहले के थे और उन्होंने अपने सबसे प्रमुख ग्रंथ तंत्रलोक के हर आह्निक के अंत में एक प्राकृत भाषा के पद को देकर इस बात का संकेत दिया था कि न सिर्फ वैचारिक- दार्शनिक स्तर पर वेदांत की परंपरा को वहाँ तोड़ दिया जा रहा था, बल्कि भाषाई स्तर पर भी एक परिवर्तन शुरू हो चुका था । लल्ल-दय्द का समय पूरे भारत में भारतीय भाषाओं के उदय का समय था । हिंदी का भक्ति साहित्य, कबीर, मीरा, तुलसी, सूर सभी इसके उदाहरण हैं । इनकी चर्चा करते हुए तो कोई ‘संस्कृत की अविच्छिन्न परंपरा’ की बात नहीं करता है । फिर लल्ल-दय्द के संदर्भ में ही क्यों ? शायद यह एक खास मनोदशा है, जिसकी वजह से ही अग्निशेखर जी ने कश्मीर के जगत प्रसिद्ध चिनार को ‘संस्कृत की अविच्छिन्न परंपरा’ में ‘भवानी वृक्ष’ के नाम से याद किया है ! चिनार को विदेशी, फ़ारसी शब्द बताया है । और शायद इसी वजह से वे शैवमत के मंदिर-विरोधी नजरिये को समझने में असमर्थ है और उसकी चर्चा करते वक्त अनायास ही इस्लाम मतावलंबियों के द्वारा ‘मंदिरों को तोड़ने की परंपरा’ से लल्ल-दय्द को अलग करते हैं !

    बहरहाल, फिर एक बार लल्ल-दय्द के कृतित्व को सामने लाने के लिये उन्हें धन्यवाद । लल्ल-दय्द की पंक्तियों से ही अपनी बात का अंत करता हूँ:

    चल चित्तवा ,
    भयभीत न हो
    स्वयं अनादि को चिंता तेरी
    कब तेरी क्षुधा हरण हो
    तू क्या जाने
    चेत ले केवल नाद उसी का

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  3. ये अनुवाद छापने के लिए धन्यवाद। अनुवाद बेहतर हो सकते थे। कई जगह स्वर टूटता है। इन पर और काम हो सकता है।

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    1. आदरणीय अरुण माहेश्वरी जी,
      (1) लल्द्यद के ललवाखों के अनुवादों की सराहना के लिए हार्दिक आभार ।इसका एक बड़ा श्रेय प्रिय अरुण देव जी को जाता है।
      (2) जब मैंने कश्मीर में लल्द्यद के समय तक रही संस्कृत की अविच्छिन धारा की बात कही तो कहने का अभिप्राय यह है कि लल्द्यद चाहतीं तो कदाचित संस्कृत में भी वाख कह सकती थीं ।
      मुझे कश्मीरी भाषा के उद्गम और विकास का थोड़ा बहुत ज्ञान है। तंत्रालोक के आठों खंड मेरे पास भी हैं ।मैं इस बात से भी अवगत हूँ कि कल्हण की राजतरंगिणि में भी उसके समय की प्राकृतिक /अपभ्रंश कश्मीरी भाषा के एकाधिक उदाहरण मिलते हैं ।जैसे स्नानपट ति छीना या रंगस हेलि द्युना आदि। उसके बाद महाकवि बिल्हण ने कर्णाट ( कर्नाटक ) जाकर लिखे 'विक्रमांकदेवचरितम्' में साफ शब्दों में कश्मीर की स्त्रियों की विद्वता की बात करते लिखा है कि वे संस्कृत, प्राकृत और देशभाषा जानती हैं ।
      मैंने कश्मीरी भाषा के विषय में प्रोफेसर श्रीकंठ तोषखानी,डाॅ त्रिलोकीनाथ गंजू तथा डाॅ शशिशेखर तोषखानी को पढ़ा हैं और सर जाॅर्ज ग्रियर्सन की भ्रांत स्थापनाओं को भी।इस तरह कश्मीरी भाषा की सुगबुगाहट लल्द्यद से लगभग दो ढाई सौ वर्ष पूर्व से दिखाई पड़ती है।वो चाहे छुम्म सम्प्रदाय हो, महानय प्रकाश हो या लल्द्यद के निकटतर परवर्तीकाल में रची बाणासुरकथा हो।चूंकि हमारे लिए लल्द्यद कश्मीरी साहित्य की आदि कवयित्री हैं और वह निष्णात् विदुषी हैं ।इसलिए यह उनका क्रांतिकारी कदम है कि उन्होंने काश्मीरी में कविता कहीं,संस्कृत में नहीं जिसमें कम से कम आचार्य वसुगुप्त से लेकर भट्ट नारायण, आचार्य उत्पलदेव से लेकर कल्हण से बिल्हण ,क्षेमेंद्र और उनके निकट के परवर्ती जोनराज संस्कृत में ही रच रहे थे।
      (3) इसमें क्या मतभेद है कि लल्द्यद का समय पूरे भारत में भारतीय भाषाओं के उदय कांग्रेस समय है।कबीर, मीरा,तुलसी, सूरज आदि की तरह लल्द्यद की भाषायी पृष्ठभूमि हिंदी की न होकर मुख्य रूप से संस्कृत की थी। कश्मीरी अभी अपने विकास क्रम में ही प्रतीत होती है।इसलिए संस्कृत की परंपरा को ठेंगा दिखाना बहुत बड़ी बात है।
      (4) जी आप इसे घुमा फिराकर मेरी ''एक खास मनोदशा'' कहिए या और भी कुछ, कोई कश्मीरी हिंदू या मुसलमान आज भी 'बून्य' को चिनार नहीं कहता। आपको इसकी संस्कृत व्युत्पत्ति से ऐतराज़ क्यों न हो, 'चिनार' फारसी शब्द ही है जिसका अर्थ होता है-" क्या आग है!" क्योंकि मुगलों ने चिनार को जाडों में दहकते हुए रंग में देखकर कहा होगा-' यह आग !"। आपको शायद पता न हो कश्मीरी स्त्रियों के लोकप्रिय नामों में बून्यमाल यानी बून्यद्यद होता था । क्योंकि बून्य स्त्रीलिंग वाची शब्द है ।धातु है भुवन व्यापिनी।
      (5) बहरहाल आपकी अपनी राय है।मैं सम्मान करता हूँ आपका।
      अंत में आपका पुनः आभार ।
      स्नेहांकित
      अग्निशेखर

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  4. लल द्यद उर्फ़ ''लल्ला आरिफ़ा'' पर प्रो. जयलाल कौल द्वारा प्रणीत जिस अंग्रेज़ी लघु-पुस्तक ( मोनोग्राफ ) का उल्लेख किया गया है वह लगभग चालीस वर्ष पहले केन्द्रीय साहित्य अकादेमी से प्रकाशित हुई थी.जब अकादेमी ने ही कुछ ही वर्षों में शिब्बनकृष्ण कौल द्वारा किया गया उसका हिंदी अनुवाद छापा तब नागरी लिपि के ज़रिये पहली बार व्यापक रूप से सही उच्चारण ''लल द्यद'' का पता चला.मुझे अब सही-सही याद नहीं है कि दोनों में वाखों के अनुवाद थे या नहीं लेकिन कुछ तो रहे होंगे.उनके बिना वह प्रकाशन अधूरे रहते.अग्निशेखर को भी मालूम होगा - उल्लेख कर देते तो उपयोगी रहता.वैसे शुक्र है यह दोनों पुस्तिकाएँ अकादेमी से अभी-भी उपलब्ध हैं,कुछ पुरानी ज़रूर हो गई होंगी.

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  5. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (19-03-2018) को ) "भारतीय नव वर्ष नव सम्वत्सर 2075" (चर्चा अंक-2914) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  6. ये चयन और यह भूमिका दोनों शातिरी से भरी है. लल्ल द्यद की मूर्तिपूजा और धार्मिक कट्टरपन के विरोध सम्बन्धी भूमिका को एकदम नज़रन्दाज़ कर दिया गया है. उस तरह का एक भी वाख नहीं चयनित किया गया है.

    रिन्चन या रेंचन को "रेंचन शाह" कहकर दिक्भ्रमित किया गया है. सच यह कि रिंचन या रेंचन कोई "शाह" नहीं बल्कि बौद्ध था जिसने दुलचा नामक तुर्क के आक्रमण के समय वहाँ के शैव राजा सहदेव के पहाड़ों में भाग जाने के समय वहां के दुर्गपति रामचंद्र की बेटी कोटारानी और शाहमीर के साथ मिलकर लोगों की रक्षा की। दुलचा के जाने के बाद इन्हीं की सहायता से दुर्गपति की हत्या कर सत्ता में आया और कोटा रानी उसकी पत्नी बनी।

    वह हिन्दू बनना चाहता था लेकिन जोनाराज का कहना है कि कश्मीर के पंडित समाज ने उसे अपनाने से इनकार किया। बाद में सूफी बुलबुल शाह के प्रभाव में वह सुल्तान सदरुद्दीन बन गया। उसके बाद पहला धर्मपरिवर्तन किया उसके साले रावण चंद्र ने। चार साल बाद जब वह मरा तो उसका बेटा हैदर चार साल का था और कोटा रानी को गद्दी पर बैठाने की जगह पुराने राजा को गद्दी पर बिठाया गया। कोटा रानी उसकी भी महारानी बन गईं।

    इसके बाद फिर एक आक्रमण हुआ जिससे बड़ी सूझबूझ से कोटा रानी और शाहमीर ने कश्मीर को बचाया। उसके बाद भी वह राजा कुछ दिनों तक सत्ता में रहा। उसकी मृत्यु के बाद शाहमीर और कोटा रानी में सत्ता संघर्ष हुआ। कुछ स्रोत कहते हैं कि कोटा रानी ने शाहमीर से शादी की थी, कुछ का कहना है कि शाहमीर ने कोटा और उसके बेटे को मरवा दिया। कुछ आत्महत्या की बात करते हैं।

    अब आप ही सोचिये, अपने पिता की हत्या में बौद्ध रिंचन का साथ देने वाली, उसके इस्लाम स्वीकार करने के बाद भी उसकी पत्नी बने रहने वाली, हैदर की मां, फिर रिंचन की मौत के बाद हिन्दू राजा की पत्नी बनने वाली कोटा रानी और शाहमीर के सत्ता संघर्ष को "धर्म की लाज बचाने" से जोड़ना किस राजनीति का हिस्सा है?

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    1. प्रिय अशोक कुमार पाण्डेय,
      ललवाखों के मेरे चयन और अनुवादों की भूमिका दोनों को शातिरी से भरा बताना आप ही को शोभा देता है।
      इस विषय वमन के लिए धन्यवाद ।

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    2. प्रिय अशोक कुमार पाण्डेय,
      ललवाखों के मेरे चयन और अनुवादों की भूमिका दोनों को शातिरी से भरा बताना आप ही को शोभा देता है।
      इस विषय वमन के लिए धन्यवाद ।

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  7. जयालाल कौल की किताब (जिसका हिंदी अनुवाद शिबेन रैना ने किया है) आसानी से उपलब्ध है. उसे पढ़ते हुए बहुत सहजता से लल्ल की उस क्रांतिकारी भूमिका को समझा जा सकता है जिसे यह भूमिका और यह चयन छिपा ले जाता है. इस लिंक में कुछ दूसरी बातों के साथ उनकी किताब का लिंक भी है.

    http://asuvidha.blogspot.in/2018/03/blog-post.html

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    1. प्रिय अशोक,
      आपको मैंने कितनी बार कहा कि फिलहाल मेरे पास 40-41 अनूदित ललवाखों के ही फाइनल ड्राफ्ट तैयार थे जो मैंने अरुण देव जी को भेजे।
      मैं शेष अनुवादों पर अभी समय रहते काम करूँगा ।यह अनुवाद एक पुस्तक रूप में आएगा ।उसमें विस्तृत भूमिका होगी ।यहाँ ढाई तीन सौ शब्दों में भूमिका लिखने की सीमा थी। ऐसा अरुण देव जी ने कहा था।
      आप यह मुझे समझा रहे हो कि लल्द्यद ने तत्कालीन हिंदूधर्म की पतनशील कट्टरता और मूर्तिपूजा का विरोध किया है ! मैंने ललवाख पढ़े नहीं, पिये हैं ।
      संक्षिप्त भूमिका लिखने के दबाव में आप कई बातों को मुख्तसर लिखते हुए आगे बढ़ते हैं ।लल्द्यद को संक्षिप्ति में कितना समेटा जा सकता है !
      मैं जानता हूँ आपने लल्द्यद के बारे में पढ़ा है, शायद हमने आपके जितना नहीं पढ़ा हो।
      हमने ललवाखों का पान किया है। कश्मीर मेरी धमनियों में बहता है।रेशे रेशे मे है।
      मैंने कश्मीर की लोकवार्ता के अध्ययन और कुछ दुर्लभ जानकारियों की संकलन योजना को अपने जीवन के बारह वर्ष दिए हैं ।इसलिए मैं कश्मीर के लोकमानस को गहराई से जानता हूँ । समाजशास्त्रीय दृष्टि से लिखे मेरे चर्चित लेखों कोई आपने पढ़ा नहीं है।
      कश्मीरी जनता से आपके संवाद को मैं कहाँ नकारता हूँ!
      आज भी आम कश्मीरी से रेंचन या रेंचनशाह ही कहेगा, सुल्तान सदरुद्दीन नहीं ।
      आपने यह कहकर ''कभी आपको बड़ा भाई कहता/मानता था,अब नहीं." सम्बंध विच्छेद किया।मैंने ऐसा नहीं किया।
      मेरे लिए किसी से वैचारिक असहमति सम्बंध विच्छेद का कारण नहीं बनती।
      आपने मुझे 'शातिर' कहकर आहत और अपमानित किया है।
      बड़ा भाई न रहते हुए भी मैं आपको ढेरों शुभकामनाएँ देता हूँ ।
      जीते रहो और सपरिवार सुखी रहो।
      और बेहतरीन लिखो।

      अलविदा।

      सस्नेह
      अग्निशेखर

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  8. अब मैं यह बता पाने की स्थिति में हूँ कि मित्र शिबनकृष्ण रैणा ने प्रो. जियालाल कौल द्वारा अपने उपरोक्त अंग्रेज़ी मोनोग्राफ के लिए अंत में लल द्यद के जो 139 वाख अंग्रेज़ी गद्यानुवाद में दिए थे,उन्हीं के हिंदी गद्यानुवाद वैसे ही अपने अनुवाद में दिए हैं.
    मैं अधिकतम धर्मनिरपेक्ष कट्टरता से मानता आया हूँ कि जम्मू-कश्मीर-लद्दाख को किसी भी क़ीमत पर किसी भी रूप में भारत से अलग नहीं किया जा सकता.यह भी कि वहाँ हिन्दू अल्पसंख्यकों पर भी पर्याप्त अन्याय हो रहे हैं.किन्तु लल्ला आरिफ़ा लल द्यद और नूरुद्दीन नुन्द ऋषि जैसी परम्पराओं के साथ हिन्दू-मुस्लिम राजनीति कम खतरनाक नहीं है.

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