भूमंडलोत्तर कहानी – १८ ( संझा : किरण सिंह ) : राकेश बिहारी

(Cavan Ó Raghallaigh is a father, a spouse,
 a political activist and a transgender man)






कथाकार किरण सिंह की  कहानी  ‘संझा’ दो लिंगों में विभक्त समाज में उभय लिंग (ट्रांसजेंडर) की त्रासद उपस्थिति की विडम्बनात्मक कथा है.  इसे ‘रमाकांत स्मृति पुरस्कार’ और प्रथम ‘हंस कथा सम्मान’ से सम्मानित किया जा चुका है.  इस कहानी पर आधारित कुछ  रंगमंचीय प्रस्तुतियाँ भी हुई हैं.

कथा- आलोचक   राकेश बिहारी ने अपने चर्चित स्तम्भ ‘भूमंडलोत्तर कहानी”  के १८ वें क्रम में इस कहानी का चुनाव विवेचन – विश्लेषण के लिया किया है. अपने इस श्रृंखला में उन्होंने कहानियों के चयन में अलग- अलग विषय वस्तुओं का  ख्याल रखा है.  

‘उभय लिंग’  मनुष्य सभ्यता के ही ‘अंग’ हैं. मनुष्य ज्यों ज्यों ‘सभ्य’ होता गया वह इस ट्रांसजेंडर के प्रति उतना ही क्रूर होता गया.  राकेश बिहारी ने  इस कथा से होते हुए गम्भीरता से इस निर्मित मन: स्थिति को समझा है, परखा है. 


यह स्तम्भ अब पुस्तक आकार में आधार –प्रकाशन से प्रकाशित होने वाला है.




भूमंडलोत्तर कहानी १८
कहानी के साथ एक बेतरतीब वार्तालाप उर्फ आत्मालाप या आत्म-प्रलाप...
(संदर्भ: किरण सिंह की कहानी ‘संझा’)

राकेश बिहारी



मालोचन पर इस स्तम्भ की शुरुआत मई 2014 में हुई थी. उसके कुछ ही दिनों पूर्व उच्चतम न्यायालय ने ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को तृतीय लिंग की मान्यता देने का महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया था. चूंकि इस स्तम्भ को मैं कहानियों के बहाने अपने समय की समीक्षा की तरह देखना चाहता हूँ, मैंने  किरण सिंह की कहानी ‘संझा’ पर लिखना तभी तय कर लिया था. पर कई बार कहानी पढ़ लेने और उस पर बात करने की पर्याप्त मानसिक तैयारी कर चुकने के बावजूद कतिपय कारणों से उस पर लिखा जाना स्थगित होता रहा. अब जब यह स्तम्भ समापन के बहुत करीब आ चला है, कुछ अलग से लिखने की कोशिश करने के बजाय अपनी डायरी के उन पन्नों को ही आपके समक्ष रख रहा हूँ, जो उच्चतम नयायालय के निर्णय के बाद ‘संझा’ कहानी को पढ़ते हुये कभी लिखी गई थी. जहां तक मुझे याद है, टुकड़ों-टुकड़ों में यह डायरी करीब पंद्रह-बीस दिनों में लिखी गई थी, पर अब गौर करने पर पाया कि पहले दिन के बाद मैंने कहीं कोई तारीख दर्ज नहीं की है. इसलिए आप चाहें तो इसे कहानी के बहाने खुद से की गई बातचीत, आत्मालाप, एक पाठक-आलोचक के बेतरतीब नोट्स या फिर कुछ और भी कह सकते हैं. प्रस्तावना अनावश्यक लंबी हो जाये उसके पहले आइये सीधे आपको अपनी डायरी तक लिए चलता हूँ.  



पन्द्रह  अप्रैल, 2014
 राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ और अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति के एस राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति ए के सीकरी की खंडपीठ ने आज एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया है. यह निर्णय इन अर्थों में ऐतिहासिक कहा जाना चाहिए कि इसमें उच्चतम न्यायालय ने ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगो को तृतीय लिंग (थर्ड सेक्स) के रूप में पहचान देने के साथ उन्हें सभी विधिक और संवैधानिक अधिकार प्रदान करने का निर्देश केंद्र और राज्य सरकारों को दिया है. यह भी गौरतलब है कि अपने इस निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने ट्रांसजेंडर शब्द के साथ ट्रांससेक्सुअल और ‘हिजड़ा’ शब्द का प्रयोग करते हुये उनके उस अधिकार की रक्षा की बात भी की है जिसके तहत वे अपनी लैंगिक पहचान को तृतीय लिंग की तरह स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्त कर सकें.

उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय को पढ़ते हुये मुझे कोई 20 महीने पहले हंस (सितंबर, 2012) में छपी किरण सिंह की कहानी ‘संझा’ की याद हो आई. उस कहानी की नायिका संझा एक किन्नर स्त्री है जो अपने जीवन के 30 वर्षों तक अपनी लैंगिक पहचान दुनिया से छुपाते हुये खुद को वैद्यिकी का हुनर सीखने में झोंक देती है और एक दिन जब गाँव वालों को उसकी लैंगिक हकीकत का पता चलता है, भीषण हुंकार करते हुये वह स्व-अर्जित सामर्थ्य, कौशल और दक्षता के बूते अपनी अस्मिता का दावा करती है. संझा का वह हुंकार उन सभी गाँव वालों की बोलती बंद कर देता है जो उसकी लैंगिक पहचान से अवगत होने के बाद उसे अपमानित करते हुये अपने समाज से बाहर कर देना चाहते हैं.

यूं तो किन्नरों के जीवन की विडम्बनाओं को दिखानेवाली कई फिल्में बन चुकी हैं, जिनमें फौरन मुझे बॉम्बे, दरम्यान, तमन्ना आदि फिल्मों के नाम याद आ रहे हैं. इस विषय पर लिखे कुछ उपन्यास यथा- तीसरी ताली (प्रदीप सौरभ) पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नाला सोपारा... (चित्रा मुद्गल) आदि भी खूब चर्चित हुये हैं. लेकिन हाल के वर्षों में लिखी गई कोई दूसरी कहानी तुरंत याद नहीं आ रही जिसमें किसी तृतीयलिंगी पात्र को इस प्रभावशाली तरीके से कहानी की केन्द्रीयता प्रदान की गई हो. हिन्दी संसार ने ‘संझा’ कहानी की इस विशिष्टता का सम्मान करते हुये इसे खूब प्यार दिया है. 2012-13 के दौरान दो महत्वपूर्ण सम्मानों- रमाकांत स्मृति पुरस्कार और प्रथम हंस कथा सम्मान (जो अब राजेन्द्र जी के दिवंगत हो जाने के बाद राजेन्द्र यादव स्मृति हंस कथा सम्मान के नाम से जाना जाता है) से विभूषित इस कहानी की नायिका संझा को आलोचकों ने इधर की कहानियों में एक महत्वपूर्ण चरित्र की तरह रेखांकित किया है. मैंने हंस का वह अंक निकाल कर उस कहानी को आज फिर से पढ़ा.


किरण सिंह की यह शुरुआती कहानियों में से है, पर कहानी के ब्योरे, कहानी के पर्यावरण की रचना, कहानी को एक लाइव नाटक की तरह पेश करने की शिल्प-सजगता आदि सब काबिले तारीफ हैं. हाँ, आद्योपांत कहानी में एक सूत्रधार की उपस्थिति - जिसकी टिप्पणियों को लेखिका ने हमेशा कोष्ठक में रखा है, शुरुआत में किसी पहेली या उलझन की तरह जरूर पेश आती है, लेकिन अंत तक आते-आते जब यह स्पष्ट होता है कि वह सूत्रधार कोई और नहीं बल्कि खलनायक भाग्य है, जो कदम-कदम पर संझा के लिए मुसीबतें खड़ा कर रहा था, तो जैसे कहानी के तमाम दृश्य संझा को उसके चरित्र की बृहत्तता के साथ सामने ला खड़ा करते हैं – संझा यानी, अपने कर्म और हुनर की लंबी लकीर खींच कर भाग्य की लकीर को हमेशा के लिए छोटी कर देने वाली स्वघोषित नायिका! सम्मान के अवसर पर दिये गए अनुशंसामूलक वक्तव्यों की स्मृतियों के बीच निर्मित कहानी के सम्मोहन के बावजूद किन्तु-परंतु की कुछ लकीरें भी दिमाग में बन-बिगड़ रही हैं, पर उन पर कोई दृढ़ राय बनाने के पहले मैं सभी बाहरी दबावों से मुक्त होना चाहता हूँ.  कल इसे फिर पढ़ूँगा- महत्वपूर्ण या कि खटकने वाले या फिर दोनों ही तरह के अंशों को बाकायदा रेखांकित करते हुये... 



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आज फिर से कहानी पढ़ना शुरू किया. यह कहानी कुल जमा सौ परिवारों से बने एक चौगांव (चार गावों के समूह) में घटित होती है. कहानी के अनुसार ‘यह इलाका तीन तरफ पठार, एक तरफ छिछली नदी और चारों तरफ बेर के जंगल से घिरा है. यहाँ न कारखाने लग सकते हैं, न जमीन में पैदावार है, न पनबिजली परियोजना बैठाई जा सकती है. इसलिए यह इलाका गरीब है. बेदखल है. स्वायत्त है.’  इसी चौगांव के सबसे इज्जतदार व्यक्ति जो एक वैद्य हैं के घर आठ वर्षों के बाद संझा का जन्म हुआ है. संझा के जन्म से लेकर उसके तीस वर्ष की होने तक इस कहानी में चौंगांव का स्वरूप लगभग एक जैसा बना रहता है. हालांकि बैद्य जी द्वारा हैंडपंप लगवाया जाना और गाँव की एक स्त्री कुनाकी का गर्भाशय निकलवाना दो ऐसी घटनाएँ कहानी में जरूर वर्णित हैं जो इस बात की ओर संकेत करती हैं कि इस गाँव का पास के कस्बे या शहर से संबंध था, लेकिन बावजूद इसके, अद्योपांत कहानी में गाव का एक जैसा रह जाना सायास लगता है.  तीस वर्ष का समय कोई छोटा काल खंड नहीं होता है. इसलिए इस कहानी से गुजरते हुये यह प्रश्न लगातार मेरा पीछा करता रहा कि वह कौन सा स्थान है जो तीस वर्षो का लंबा वक्फ़ा बीत जाने के बावजूद लेश मात्र भी नहीं बदलता? शायद इस प्रश्न का जवाब इस प्रश्न के उत्तर में छिपा हो कि यह कहानी कब की है? लेकिन कहानी ऐसे भी कोई संकेत नहीं देती जिससे उसके काल का सही-सही अंदाज़ा लगाया जा सके. कुछ लोग देश-काल को कहानी के लिए जरूरी नहीं मानते. कुछ कहानियाँ ऐसी होती भी हैं जिनके लिए देश-काल का कोई संदर्भ जरूरी नहीं होता. लेकिन एक ऐसे समय में जब पूरी दुनिया में ट्रांसजेंडर समुदाय के लोग अपनी पहचान और अस्मिता की लड़ाई लड़ रहे हों,  नेपाल (2007) सहित दुनिया के कई देशों में भारत के उच्चतम न्यायालय के इस फैसले से पहले उनके हक में कानून बन चुके हों, ‘संझा’ जैसी कहानी को देश-काल से संदर्भरहित होने की छूट भला कैसे दी जा सकती है?

संझा जन्मना किन्नर है जबकि उसका पति कनाई नपुंसक है. कहानी का एक अन्य  पात्र ललिता महाराज जो संझा का ससुर है और जिसने कनाई को गोद लिया हुआ है, सखी संप्रदाय में दीक्षित एक पुजारी है जो अपने संप्रदाय की मान्यताओं के अनुरूप पुरुष होते हुये भी स्त्री का जीवन जीता है. इस तरह इस कहानी के ये  तीनों पात्र  अपनी अलग-अलग पृष्ठभूमि और नियतियों के बावजूद लगभग एक-सा लैंगिक जीवन जीते हैं. लैंगिक आचार-व्यवहार के मामले में एक जैसे धरातल पर खड़ा  होने के बावजूद इन तीनों के प्रति समाज किस तरह अलग-अलग बर्ताव करता है, उसे इस कहानी के ब्योरों में बहुत बारीकी से समझा जा सकता है. उल्लेखनीय है कि धर्म की आड़ में स्त्री की तरह जीनेवाला एक पुरुष जहां आदरणीय और श्रद्धेय की तरह समाज को स्वीकार्य है, वहीं अपनी तथाकथित लंपटई के लिए दंडस्वरूप नपुंसक बना दिया गया कनाई अपनी तमाम हरकतों और करतूतों के बावजूद समाज से बहिष्कृत नहीं है. बल्कि इन दोनों के ठीक उलट जन्मना किन्नर संझा जिसकी लैंगिक नियति में उसकी कोई भूमिका नहीं है, कदम-दर-कदम अपनी पहचान छुपा कर शर्मिंदगी का जीवन जीने को अभिशप्त है. लगभग एक जैसी लैंगिक नियति वाले अलग-अलग व्यक्तियों के प्रति समाज का यह  अलग-अलग व्यवहार धर्म और पितृसत्ता के गठजोड़ से निर्मित न्याय और नैतिकता की दोषपूर्ण आचार-संहिताओं का नतीजा है.

प्रभावोत्पादक भाषावाली में ब्योरों का चाक्षुष अंकन किरण सिंह के कथाकार की बड़ी विशेषता है.  दृश्य रचना और पात्रों (खास कर संझा) के मनोविज्ञान को समझने के क्रम में  भाषा और वर्णनात्मकता के जिन अर्थगर्भी पुलों की संरचना इस कहानी में  हुई है, वह निश्चित तौर पर स्पर्शी और उद्वेलित करने वाले हैं. अपने लैंगिक अभाव से परिचित होने के बाद संझा की मनोग्रंथियों को विश्लेषित करने वाले कई दृश्य बहुत ही प्रभावशाली और विचलित कर देने वाले हैं. लेकिन संझा द्वारा मनचाही लैंगिक संरचना को चाकू से काट कर हासिल करने वाला दृश्य बहुत ही मार्मिक है. उस हिस्से को रेखांकित करते हुये चाकू की नोक को अपनी त्वचा पर महसूस करते हुये संझा के चीत्कार को सुनना एक विरल पाठकीय अनुभव है, जो अब भी मेरी शिराओं में एक अजीब तरह की बेचैनी और सिहरन भरे जा रहा है-

“संझा उन्माद में थी. उसने ढिबरी की लौ धीमी कर दी. आँगन में लगी नीम-तुलसी की पत्ती  पीस कर रख लिया. बंद कोठरी में जमीन पर लेट गई है और दोनों पाँव दीवार पर फैलाकर टिका लिया. शरीर को धनुष की तरह तान लिया. अम्मा की धोती फाड़ कर मुँह में ठूँस लिया. भगवान के नाम पर बाउदी की तस्वीर उभरी और चाकू वहाँ रख लिया. लंबी साँस ली. साँस रोकी. और चाकू की फाल धँसा लिया. वह लंबान में चीर देने के लिए ताकत लगाना चाहती थी. लेकिन चाकू धँसने के साथ ही बदन निचुड़े कपड़े की तरह ऐंठने लगा. आँखें, साँस लेने बाहर निकली मछली के मुँह की तरह खुलने-झपकने लगी. मुँह में ठुँसी हुई माँ की धोती निकाल कर, वहाँ रखते हुए, लहराती आवाज में कहा-‘‘बाऽउऽदी बाऽउऽदी’’

संझा कहानी के चाक्षुष दृश्य विधान और सघन वर्णांत्मकता के लिए मेरे मन में अनुशंसा और आश्वस्ति का जो भाव है, कहानी की घटनाओं तथा उसकी विश्वसनीयता  और तार्किकता को लेकर वही भरोसा पैदा नहीं हुआ. संझा के जन्म के तीन वर्ष बाद बैदाइन यानी उसकी माँ का देहांत, संझा के जन्म के बारह वर्षों बाद घर के सामने पचास कदम की दूरी पर वैद जी का हैंडपंप लगवाना, उसके बाद के दो-तीन वर्षों में अपने लिंग के प्रति संझा की सजगता के बीच अपनी असामान्य जैविक संरचना के कारण उसके भीतर एक खास तरह की ग्रंथि का निर्माण, तत्पश्चात बाहरी दुनिया को देखने-समझने की उसकी सहज-सामान्य लालसा के बाद उसके बाहर निकलने के लिए उसके पिता द्वारा किया गया उपाय, पच्चीस-सत्ताईस की उम्र पार करने के बावजूद  शादी न होने के संभावित कारणों पर गाँव में चल रही कानाफूसियों के बीच संझा की शादी, विवाहोपरांत संझा के निजी, पारिवारिक और सामाजिक जीवन के द्वंद्व आदि से गुजरते हुये लगभग तीस वर्षों के बाद उसकी लैंगिक पहचान जाहिर होने के बाद गाँव वालों की प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं के बीच संझा का अपनी अस्मिता के पक्ष में मजबूती से खड़ा होना.... ये घटनाएँ इस कहानी के वे महत्वपूर्ण पड़ाव हैं जहां से न सिर्फ कहानी को एक नई दिशा मिलती है बल्कि इन अभिसन्धियों के बहाने लेखिका इस कहानी की घटनाओं को अपनी तरफ से एक तार्किकता प्रदान करने की कोशिश भी करती हैं. संझा की विकास-यात्रा की इन महत्वपूर्ण अभिसंधियों पर मैं कई-कई बार ठिठका या यूं कहूँ कि इस कहानी के इन संधि-स्थलों ने मेरे पाठ को बार-बार अवरुद्ध किया.

गौर करने की बात है कि तीस वर्षों के लंबे कालखंड को समेटने वाली कहानी की ये सभी महत्वपूर्ण घटनाएँ अंततः संझा की लैंगिक पहचान को छुपाए रखने का ही जतन करती हैं. अव्वल तो तीस वर्षों तक एक किन्नर का पहचान छुपा कर रहना अपने आप में असंभव जैसा लगता है पर सवाल यह है कि कहानी में ऐसा घटित कराते हुये लेखिका जिन युक्तियों का सहारा लेती हैं, क्या उन्हें हमारा पाठकीय विश्वास अर्जित हो पाता है?



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कल कहानी को पढ़ते हुये इसकी कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं की विश्वसनीयता पर मन में सवाल उठे. उन पंक्तियों को मैंने रेखांकित कर रखा है.
पहली घटना संझा की माँ के अंतिम संस्कार की है-
बेटी की चिता! रात में चिता नहीं जलती. नरक मिलता है. लेकिन कल सुबह बैदाइन को जलाया तो संझा को किसी के पास छोड़ना पड़ेगा. गाँव वाले बेटी को श्मशान नहीं जाने देंगे. जो जिन्दा है, उसे देखना है. उसी समय बैद्य जी ने बैदाइन को महावर सिंदूर लगाया. लाल साड़ी में लपेटा. खटिया पर बाँधा. सोई हुई संझा को कंधे पर लादा. एक हाथ से खटिया घसीटते, हाँफते हुए श्मशान पहुँचे. सुबह गाँव वालों से कहा-‘‘ब्रह्म मुहूर्त में एक घड़ी के लिए मुक्ति का पुण्य योग बन रहा था. आप लोागें को जगाता तब तक समय बदल जाता.’’
एक व्यक्ति द्वारा तीन साल की बच्ची को कंधे पर लेकर किसी लाश को खटिया से बांध कर खींचते हुये गाँव से श्मशान ले जाकर अग्नि को सौंप कर इस तरह लौट आना कि किसी को कानों कान खबर तक न लगे और फिर इसके पक्ष में गढे गए तर्क का गाँव वालों द्वारा मान लिया जाना किसी भी तरह गले नहीं उतरता.

दूसरी घटना घर से पचास कदम दूर लगे हैंडपंप पर कुछ स्त्रियॉं और हमउम्र लड़कियों को देखने के बाद संझा का अपने लैंगिक अभाव के तरफ ध्यान जाने की है-
“दूसरे दिन, सूरज निकलने से पहले ही, हैण्डपम्प चलने की आवाज आने लगी. उनींदी संझा झट खिड़की पर जा बैठी. माएँ नहा रही थीं. खिड़की के नीचे उसकी उम्र की आठ दस लडकियाँ, फ्राक उठाए, उकडू़ बैठी थीं. वे बातें करती हुई खिसकती जा रही थीं. उनके छोटे भाई उसकी दीवार पर पिशाब कर रहे थे.
ये छौड़े-छौड़ी इसी धरती के है न! फिर इनका सबकुछ मेरे जैसा क्यों नहीं है?
हो सकता है मैंने अँधियारे में आँखें फैलाकर देखा हो तो चीजें बड़ी दिखी हों."

जाहिर है कि इस दृश्य में खिड़की पर बैठी बारह वर्षीया संझा अपनी हमउम्र लड़कियों को शौच करते देख रही है. हैंडपंप से लोटे या बोतल में पानी ले कर मुंह अंधेरे गाँव से दूर समूह में स्त्रियॉं का शौच के लिए जाना पिछड़े ग्रामीण इलाकों के लिए कोई अनहोनी बात नहीं है. पर लाख कोशिशों के बावजूद मैं कोई ऐसे गाँव या समाज की कल्पना नहीं कर पा रहा हूँ जहां स्त्रियाँ और किशोरियाँ किसी के दरवाजे पर  (वह भी गाँव के सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति के) इस तरह शौच के लिए जाती हों.
तीसरी घटना बैद्यजी द्वारा संझा के लिए घर से बाहर निकलने की युक्ति निकालने की है -
‘‘मेरी गुडि़या तुम आज रात से बाहर निकलोगी. मैं उपाय करता हूँ."

बैद्य जी दो रात पहले संझा बिटिया का नाम लेकर चिल्लाते हुए क्यों भाग रहे थे ? वे गद्दी पर क्यों नहीं बैठ रहे हैं ? चैगाँव के सवाल का जवाब तैयार था-‘‘तुम लोग गँवई ही रहे. बूढ़ा बैद कुछ सोच कर दो दिन से दम साधे है. पास आओ, उस रात डकैत आए थे.’’
 ‘‘डकैत!’’
‘‘
हाँ!’’ अपने चोटिल साथी को लेकर. मेरी खिड़की के नीचे बैठे थे. संझा बिटिया ने उन्हें देख लिया. मैंने छोड़ा नहीं, उनको दौड़ लिया. बिटिया का नाम इसलिए ले रहा था जिससे उसे हिम्मत बनी रहे और तुम सब जाग भी जाओ. अरे हाँ सुनो! भागते-भागते वे कह गए कि सारा जंगल छोड़कर, मेरे घर के ठीक पीछे वाले जंगल में छिपे रहेंगे. मुझसे बदला लिए बिना वहाँ से नहीं जाएँगे. इसलिए तुम लोग सब दिशा में जाना, मेरे घर के पीछे के जंगल की ओर मुँह करके मूतना भी मत.’’


गौरतलब है कि बैद्य जी के घर के पीछे डाकुओं के छिपे होने की यह कहानी गाँव वाले सच मानकर उधर जाना छोड़ देते हैं और चौदह की उम्र पार कर चुकी संझा रात के समय जंगल जाकर औषधि लेकर आने का काम शुरू कर देती है जो उसकी शादी होने तक बदस्तूर जारी रहता है आर इस दौरान वह अपनी लैंगिक पहचान छुपाने में पूरी तरह कामयाब हो जाती है. यह भी उल्लेखनीय है कि बैद्य जी के अनुसार उस  रात उनेक ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने का एक कारण यह भी था कि गाँव वाले जाग जाएँ. संझा की माँ की मृत्यु के वक़्त बैद्य जी द्वारा उसकी लाश अकेले खींच कर श्मशान ले जाने के दौरान गहरी निद्रा में सोये रहने वाले गाँव का एक भी आदमी बैद्य जी के चिल्लाने से भला कैसे जागता! तभी दो दिनों बाद गाँव वाले बैद्य जी से उनके चिल्लाने का कारण पूछने आते हैं. हास्यास्पद होने के हद तक की यह अतार्किक घटना शायद ही किसी पाठक का भरोसा जीत पाये. पहले पाठ के दौरान कहानी की समृद्ध वर्णनात्मकता पर जिस तरह मैं रीझ रहा था, इन घटनाओं की अविश्वसनीय  कृत्रिमता मन में उतनी ही खीझ पैदा कर रही है.

***
“बहुरिया! आज महराज जी पूजा नहीं करेंगे. तुम्हें ही करना है.” अगली सुबह देवथान आने पर उसकी सास ने कहा.
‘‘क्यों?’’  संझा की दो पल की चुप्पी में यह सवाल था.
‘‘महीना हुए हैं. तीन दिन असुद्ध रहंगे.’’

तीन दिन बाद संझा ने अपनी माँ की पुरानी साड़ी फाड़ी. उस पर सहतूत कूच कर लगाया. जहाँ ललिता महराज की माहवारी के कपड़े धोकर फैलाए गए थे, वहीं वो कपड़े फैला दिए. पेड़ पर धारी खींचने लगी कि सत्ताइसवाँ दिन याद रहे. वह तो कहो कि गाँव की स्त्रियों से उनकी पीड़ा के बारे में सीधे बात करने के बाद वह माहवारी के बारे में जान गई थी.

पहले पाठ में शायद इस हिस्से को मैं ठीक से नहीं समझ पाया था, पर आज इस हिस्से तक आते-आते रुक गया. ललिता महाराज तो पुरुष हैं! फिर उन्हें माहवारी? बात बहुत अटपटी लगी, पर किरण सिंह जैसी लेखिका से ऐसी चूक कैसे हो सकती है. सहज संकोच और झिझक को किसी तरह परे धकेलते हुए मैंने आज उन्हें फोन किया. सखी संप्रदाय के लोग स्त्रियॉं सा जीवन जीते हैं, यह तो मुझे मालूम था, पर महीने के तीन दिन वे रजस्वला होने का अभिनय करते हुये खुद को अशुद्ध मानते हैं,  यह मुझे आज किरण सिंह से पता चला. निश्चित तौर पर वे एक शोध-समृद्ध लेखिका हैं. पर क्या सखी संप्रदाय की इस विशेषता का संकेत कहानी में नहीं दिया जाना चाहिए था कि मेरे जैसे लोगों के पाठ में कोई गतिरोध न उत्पन्न हो?

किरण सिंह एक तर्क-सजग कहानीकार की तरह कहानी में वर्णित तथ्यों की तार्किकता के पक्ष में प्रमाण भी जुटाती चलती हैं. तभी आयुर्वेद की तमाम पुस्तकों के अध्ययन के बावजूद तृतीय लिंग के बारे में संझा को कोई जानकारी न होने का कारण बताते हुये वे एक जगह कहती हैं कि जो तकलीफ संझा को है उसकी चर्चा चरक, सुश्रुत, धन्वन्तरि तक की किताबों में नहीं. हालांकि इस प्रसंग के कुछ ही  अनुच्छेद पूर्व कहानी में यह भी उल्लिखित है कि संझा ने बाउदी की किताब में अपनी लैंगिक संरचना जैसी फोटुयेँ तो देखी थी, पर तब वह इसे बूझ नहीँ पाई थे. मुझे  इस बात का ज्ञान नहीँ कि आयुर्वेद में तृतीय लिंग की जैविक संरचना के बारे में कोई जिक्र है या नहीं, लेकिन संझा की ये परस्पर विरोधी बातें उलझनें पैदा करती हैं. उल्लेखनीय है कि संझा ने आयुर्वेद का ज्ञान अपने बैद्य पिता के सान्निध्य में प्राप्त किया है. इस क्रम में उसने आयुर्वेद की किताबों का गहन अध्ययन भी किया है. ऐसे में गाँव की स्त्रियॉं से उनकी पीड़ा के बारे में बात करते हुये उसे माहवारी के बारे में  पता चलना भी तर्कसंगत नहीँ लगता है. मतलब यह कि ससुराल में संझा द्वारा अपनी लैंगिक पहचान छुपाने का तरकीब ढूँढने के क्रम में कपड़े में शहतूत लगाकर माहवारी का भ्रम रचने के चक्कर में लेखिका कुछ ऐसा भी कह गई हैं जिससे कहानी में वर्णित अन्य प्रसंगों की तार्किकता भी विखंडित होती है.

उल्लेखनीय है कि संझा के पिता उसकी लैंगिक पहचान इसलिए छुपाए रखना चाहते हैं कि यह पता चलने के बाद किन्नर समुदाय के लोग उसे छीनने आ जाएँगे. लेकिन आश्चर्य है कि इस गाँव के पास की पहाड़ी पर बसने वाले किन्नर इस गाँव की तरफ तीस वर्षों में एक बार भी नहीं आते. किन्नरों का गाँव-गाँव घूम कर बच्चों के जन्म पर बधाई गाना या जन्मना किन्नरों की टोह में जचगी वाले घरों का पता करते रहना एक आम बात है. पर एक गढ़ी हुई घटना को अंजाम देने के लिए कहानीकार ने उन्हें सायास इस गाँव से दूर रखा है जिससे कहानी की स्वाभाविकता क्षतिग्रस्त हुई है.


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इस कहानी से गुजरते हुए जो सबसे बड़ा प्रश्न मेरे मन में चलता रहा वह है - तृतीय लिंग की समस्या बनाम अस्मिता की पहचान का. गौर किया जाना चाहिए कि शुरू से अंत तक लगभग तीस वर्षों की लबी समयावधि में संझा के लैंगिक पहचान को छिपाए रखने का जो अविश्वसनीय उपक्रम चलता हैं, लगभग नब्बे प्रतिशत कहानी उसी की नाटकीय परिणति है. कहानी के लगभग आखिर में संयोगवश अपनी लैंगिक पहचान जाहिर हो जाने के बाद संझा जिस तरह अपना प्रतिरोध दर्ज करती है, वह भी कम नाटकीय नहीँ है-

“हवा को काटती संझा की भीगी आवाज ऐसी लग रही थी जैसे बहुत सारे जल पंछी, फड़फड़ा कर उड़े हों -‘‘एक पर सौ, तुम सब मर्द हो ? ये ललिता महराज आदमी है और मैं हिजड़ा ? ये कनाई जो अपनी प्रेमिका की थंभी नही बन सकता ? वो बसुकि का चचेरा भाई जो उसके साथ रोज जबरदस्ती करता था, जिसे डर था कि बसुकि कनाई के साथ भाग न जाए, वो बड़ा मर्द है. मैं गर्भपात की औषधि लेकर रोज रात को न बैठूँ तो तुम मर्दो के मारे चैबासे की लड़कियों को नदी में कूदने के सिवाय क्या रास्ता है ? तुम सबों की मर्दानगी-जनानगी के किस्से नाम लेककर सुनाऊँ क्या? उस रात जब मैं सोमंती के तीनों बच्चों को दवा देने आई थी...सोमंती ने ही अपने बच्चों को जहर दिया था अपने प्रेमी के साथ मिल कर ...उन्नइस साल की कुनाकी, जिसने झंझट खतम करने के लिए अपना गर्भासय निकलवा दिया... उसका आदमी खुद उसे लेकर कस्बे के साहबों के पास जाता था... जब खून नहीँ रुक रहा था तब रोती हुई मेरे पास आई...  चैगाँव के एक एक आदमी की जन्मकुंडली है मेरे पास.

न मैं तुम्हारे जैसी मर्द हूँ. न मैं तुम्हारे जैसी औरत हूँ. मैं वो हूँ जिसमें पुरुष का पौरुष है और औरत का औरतपन. तुम मुझे मारना तो दूर, अब मुझे छू भी नहीं सकते, क्योंकि मैं एक जरुरत बन चुकी हूँ. सारे चैगाँव ही नही, आस-पास के कस्बे-शहर तक, एक मैं ही हूँ जो तुम्हारी जिन्दगी बचा सकती हूँ. अपनी औषधियों में अमरित का सिफत मैंने तप करके हासिल किया है. मैं जहाँ जाऊँगी, मेरी इज्जत होगी. तुम लोग अपनी सोचो. तो मैं चैगाँव से निकलूँ या तुम लोग मुझे खुद बाउदी की गद्दी तक ले चलोगे.’’

संझा द्वारा अपने सम्मान का यह मेलोड्रामाई दावा अस्मिता की पहचान के लिए एक शोषित का उठ खड़ा होना है या दूसरे पक्ष की कमजोरियों को जानते हुये एक तरह का ब्लैकमेल या बंद कमरे में घिर जाने के बाद किसी बिल्ली की आक्रामकता इस पर बहस की जा सकती है लेकिन पूरी कहानी में संझा के लैंगिक पहचान को छुपा कर रखने की कोशिश इसकी सबसे बड़ी कमजोरी है. किसी विशेष और दुर्गम स्थिति में पहचान छुपाना की युक्ति को अपवाद मान लें तो, अस्मिता का संघर्ष अपनी पहचान को जाहिर करने के बाद उत्पन्न हुई प्रतिकूलताओं का सामना करते हुये अपनी जगह पुख्ता करने में ही निहित होता है. पर जिस तरह यह कहानी संझा की लैंगिक पहचान छुपाने का हर जतन करती है उसे देखते हुये यह प्रश्न सहज ही उठता है कि यदि किन्हीं कारणों से संझा की लैंगिक पहचान जाहिर न हुई होती तो? कहने की जरूरत नहीं कि तब सबकुछ उसी तरह चलता रहता- संझा लोगों की आँखों में धूल झोंक कर न सिर्फ अपनी पहचान छुपाए रहती बल्कि बैदई के हुनर की बदौलत चैगाँव में व्याप्त तमाम कुत्सित और अनैतिक गतिविधियों को जारी रखने में अपना योगदान भी देती रहती. संझा के इस कृत्रिम प्रतिरोध के बरक्स मुझे थर्ड जेंडर समुदाय के उन नायक-नायिकाओं की कहानियाँ भी याद आ रही हैं जिन्होंने अपनी पहचान को जाहिर करते हुये न सिर्फ विभिन्न क्षेत्रों में अपने लिए मजबूत जगहें बनाई हैं बल्कि अपने समुदाय के अधिकार और पहचान के लिए सतत संघर्षरत भी हैं. दो-दो विषयों में स्नातकोत्तर तथा चर्चित समाजसेवी.कलाकार और पत्रकार कल्कि सुब्रमण्यम, प्रसिद्ध कथक नृत्यांगना मिस ट्रांसजेंडर पद्मिनी प्रकाश, रायगढ़ (छतीसगढ़) की मेयर मधु बाई किन्नर, कृष्णानगर महिला महाविद्यालय (पश्चिम बंगाल) की प्राचार्य मानबी बंदोपाध्याय, प्रसिद्ध भरतनाट्यम नृत्यांगना लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी जैसे असली जिंदगी के तृतीयलिंगी नायक/नायिकाओं के सामने संझा का व्यक्तित्व कहीं नहीं ठहरता तो उसका बड़ा कारण उसकी लैंगिक पहचान नहीं जाहिर होने देने का उपक्रम ही है. नतीजतन प्रभावशाली भाषा, चाक्षुष दृश्य रचना और सजग शिल्पबोध के बावजूद  संझा ट्रांसजेंडर समुदाय का प्रतिनिधि चेहरा नहीं बन पाती है. एक ऐसे समय में जब पूरी दुनिया में तृतीयलिंगी समुदाय के लोगों को अपनी लैंगिक पहचान को अभिव्यक्त करने का अधिकार दिया जा रहा हो, संझा कहानी का कदमताल अपने समकाल से बहुत पीछे छूट गया है.

***
इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि संझा और उसेक पिता को छोड़ दें तो कहानीकार ने अन्य सभी पात्रों को सायास खल पात्र बना दिया है. कहानी की घटनाओं के बीच कहानी में वर्णित ‘स्वायत्त’ गाँव का जो स्वरूप निकल कर आता है वह एकांगी होने के हद तक विद्रूप है. ‘गंवई गंध’ के सम्मोहन के विरुद्ध गाँव का यह (वि)रूप सच के कितना करीब है इस पर भी बात की जानी चाहिए.   

और अंत में भाग्य
कहानी के अंत में भाग्य का कथन ‘किसी मजबूर पर ताकत आजमाने वाला और किसी मजबूत की ताल से दुबका हुआ मैं, सबसे बड़ा हिजड़ा हूँ’ में हिजड़ा शब्द का जिस हिकारत के साथ प्रयोग हुआ है, वह मुझे लगातार परेशान कर रहा है. कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि भाग्य से कहलवाए जाने के कारण यहाँ हिजड़ा शब्द को उसके परंपरागत अर्थबोध के साथ ही ग्रहण किया जाना चाहिए. पर जब पूरी कहानी ही एक शिल्प-सजग गढ़ंत हो तो कहानीकार से ‘पोलिटिकली करेक्ट’ होने की मांग क्यों नहीँ की जानी चाहिए?


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  1. Laxman Singh Bisht Batrohi27 दिस॰ 2017, 1:18:00 pm

    इस लेखमाला के जरिये अरुण देव बहुत बड़ा काम कर रहे हैं. किरण सिंह की कहानी पर विस्तार से लिखने की दरकार है. कभी फिर लिखूंगा. राकेश विहारी और अरुण देव का हृदय से आभार.

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  2. राकेश जी की खिड़की से इस कहानी को पढ़ा। शिल्प सजग गढ़ंत! पोलिटिकली इंकरेक्ट! पर संझा किस वर्ग से आती है? किस जगह से आती है? किन और कितने समयों से आती है, ये सारे प्रश्न मुझे संझा से मिलवाते हैं। बदलता क्या है? आमुख? आवरण के भीतर क्या है? दुःख के खूँटे पर प्रहार करती है कहानी। वह उस भीतर को बदलने के लिए बेचैन है।
    'एक पर सौ, तुम सब मर्द हो ? ये ललिता महराज आदमी है और मैं हिजड़ा ?'ये प्रश्न संझा का किससे है? मुझे यहां हिजड़ा शब्द आपत्तिजनक नहीं लगा। शब्द अक्सर शक्ति के साकार रूप की तरह हमारे बीच विचरण करते हैं-जैसे लिंग निर्धारित करने वाले शब्दों को गौर से देखने पर मुझे उनकी काया बाद में दिखाई देती है और पावर कंस्ट्रक्ट करने की तीव्रता का बोध पहले होने लगता है। जैसे औरत होना गाली नहीं, लेकिन पितृसत्ता के सारे वेपन उसे निस्तेज करने में लगे रहते हैं और उसे गाली का पर्याय बना देते हैं। तृतीयलिंग के संघर्षों के कई स्ट्रेंड्स हैं।
    राकेश जी, कमिंग आउट क्या इतना आसान है?
    अपर्णा

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  3. 'संझा' मर्मस्पर्शी कहानी है .किरन जी ने ऐसा विषय चुनकर साहस का परिचय दिया है.राकेश बिहारी जी ने गहराई से कहानी की पड़ताल की है .वही मैंने पढी .कहानी नहीं .
    ललिता पुरूष है पर सखी संप्रदाय मे दीक्षित होने के कारण स्त्री जीवन जीते हैं ,समाज उन्हे पर्याप्त आदर देता है क्योंकि पूजारी समाज के काम की चीज़ है . अपने लंपट चरित्र और उसके लिये दंड भुगत रहा ' कनाई ' भी समाज मे उपेक्षित नहीं .लेकिन 'संझा ' जो वैद्यकी मे प्रवीण है और इसलिये समाज के काम की है उसे भी समाज स्वीकार करता है .पर जैसे ही यह रहस्य उद्घघाटित होता है कि वह किन्नर है ,समाज उसे अपमानित और बहिष्कृत करने पर आमादा हो जाता है .
    तीनों पात्र एक हिसाब से समान हैं .जो पुरूष है ,उसने अपने को स्त्री बना लिया .इस विक्षेप को धर्म की ओट मिलती है .लम्पट न स्त्री न पुरूष ,नपुंसक है ,उसकी ओट उसकी लंम्पटियाई है .ल म्पटियाई भी समाज मे निन्दित भले हो .अस्वीकृत तो नहीं . अब रही संझा ,हालांकि वैद्यिकी की ओट मे वो सुरक्षित रही ,पर अंतत : वो किन्नर निकली . लेकिन प्रवीणता और साहस के दम पर वह समाज से लोहा लेती है .शेष दोनो पात्रों को इसकी आवश्यकता नहीं .
    समस्या पीढ़ादायी है . उसका समाधान ,भले ही किन्नर को तीसरे लिंग के रूप मे मान्यता मिल गयी हो ,न्यायिक व्यवस्था मे नहीं ,हमारे समाज के नजारिये के बदलाव मे है .समाधान स्वयं संझा मे है .वह प्रतिरोध करती है .उसके प्रतिरोध को ताकत उसकी काबिलियत से मिलती है .अंतत: समाज को शिक्षित ,संवेदित होना पड़ेगा . समाधान तो वहीं है .
    यूरोप ,अमेरिका जैसे देशों मे किन्नरों को सर्कस मे 'विचित्र इंसान ' के रूप मे तमाशे की तरह प्रस्तुत किया जाता रहा .बिली कृष्टिना ,मोना हैरिस ,मोंडू इसके कुछ विदित उदाहरण है .गोकि ,समाधान संझा ही है .संझा यानि शिक्षा ,सम्वेदना ,समानता का आग्रह .तीसरे लिंग के रूप मे कानूनी नहीं ,सामाजिक स्वीकार.मुझे उद्वेलित करने के लिये धन्यवाद .

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  4. रत्नेश लखनऊ21 जन॰ 2018, 2:25:00 pm

    कहानी को परत-दर-परत खोलता लेख। आजकल आलोचक इतनी बारीकी से कहानियाँ शायद ही पढ़ते हैं। ऐसे में यह आलेख आलोचना के प्रति पाठकों में भरोसा जगाता है। किसी बहुसम्मानित कहानी पर इतना बेबाक लिखना साहस का भी काम है। राकेश जी को बधाई। समालोचन को धन्यवाद।

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  5. कहानी मार्मिक तो है ही साथ ही प्रेरक भी ।एक पुरुष ,पुरुष होकर स्त्री के वेश में रह सकता है क्योंकि उसे तथाकथित धर्म का पोषण प्राप्त है ,उसकी अकर्मण्यता पर भी उसी का पर्दा है लेकिन संजा ,जिसके शारीरिक विकार में स्वयम का कोई दोष नही होता ,उसे समाज परिवार से निष्कासित करना चाहते है।कैसी बुनावट है सामाजिक नियमावली की ।इसका तोड़ संजा ही है ।
    कहानी की सफलता संजा का हुंकारता प्रतिकार ही है ।

    कहानी की गुणवत्ता और बढ़ जाती है जब उसके साथ राकेश बिहारी जी की तथ्यात्मक समीक्षा साथ हो जाती है ।

    शुभकामनाएं

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