1992 में प्रकाशित रॉबर्ट जेम्स वालर का उपन्यास "द
ब्रिजेज ऑफ़ मेडीसन काउन्टी" बीसवीं शताब्दी के सर्वाधिक बिकने वाले
उपन्यासों में शुमार है और कहा जाता है कि अब तक इसकी चौंसठ संस्करणों में दो करोड़
प्रतियाँ बिक चुकी हैं. दुनिया की छत्तीस भाषाओँ में इसका अनुवाद हुआ है.
न्यूयार्क टाइम्स की बेस्टसेलर्स की लिस्ट में लगातार 164 हफ़्तों तक अपनी
जगह बनाए रखने वाली यह अद्वितीय कृति है.
पेशे से मैनेजमेंट , इकोनोमिक्स और एप्लाइड मैथेमेटिक्स के प्रोफ़ेसर और
कन्सल्टेंट रहे वालर ने अपने रचनात्मक शौक भी बड़ी ठसक से पूरे किये. बास्केटबॉल के
अच्छे खिलाड़ी रहे, नाईट क्लबों और कन्सर्ट्स
में म्यूजिशियन का काम किया और ऊँचे दर्ज़े के प्रोफेशनल फोटोग्राफर रहे. लम्बे
प्रोफेशनल जीवन की सांध्य वेला में उन्होंने अपने विश्वविद्यालय में मेधावी युवाओं
के लिए अनेक छात्रवृत्तियाँ भी चला रखी हैं.
उपर्युक्त उपन्यास के
अलावा उनके अन्य उपन्यास हैं : स्लो वाल्ट्ज इन सेडार बेंड , पुएर्टो वलार्ता स्क्वीज़ , बार्डर म्यूज़िक ,ए थाउजेंड कन्ट्री रोड्स.
कथा से इतर अनेक पुस्तकें भी उन्होंने लिखी हैं. 1995 में क्लिंट ईस्टवुड ने इसी नाम से उपन्यास पर बेहतरीन
फिल्म निर्देशित की जिसमें मुख्य स्त्री किरदार फ्रेंसेस्का की भूमिका निभाने के
लिए मेरील स्ट्रीप को सर्वोत्तम अभिनेत्री के लिए एकेडेमी अवार्ड्स के लिए नामित
किया गया. रचनात्मक और व्यावसायिक दोनों कसौटियों पर इस फिल्म ने सफलता के झंडे
गाड़े.
यह फिल्म फ्रेंसेस्का
जॉनसन नामक इतालियन मूल की एक विवाहित स्त्री की कहानी है जिसके जीवन में अचानक
नेशनल जिओग्राफिक के लिए काम करने वाला एक अधेड़ उम्र का प्रोफेशनल फोटोग्राफर आता
है. परिवार
के अन्य सदस्यों की अनुपस्थिति में चार दिनों के लिए उनका मेल जोल होता है जो बगैर
कभी दुबारा मिले हुए जीवन पर्यन्त चलता है. उद्दाम प्रेम की परिणति दोनों के साथ
साथ रहने में नहीं बल्कि फ्रेंसेस्का के परिवार की खातिर जुदा जुदा रहने के फैसले
में होती है. सारा मामला उजागर तब होता है जब माँ की मृत्यु के बाद बच्चे उसके
सँजो कर रखे सामान खोल कर देखते हैं और उनको उसकी वसीयत के साथ साथ रॉबर्ट के
पुराने कैमरे, नेशनल जिओग्राफिक के
पुराने अंक और रॉबर्ट की फ्रेंसेस्का के नाम और फ्रेंसेस्का की बच्चों के नाम लिखी
चिट्ठियाँ मिलती हैं -- शुरूआती अचरज और आक्रोश के बाद जैसे जैसे उनको पता चलता है
कि उनके भविष्य को ध्यान में रख कर माँ ने अपने प्यार का बलिदान कर दिया था तो
उनको अपने जीवन की कठिनाइयों को सुलझाने का रास्ता भी सूझने लगता है.
इस उपन्यास से लिए गए
दोनों पत्र यहाँ प्रस्तुत है जो उपन्यास
की मुख्य अंतर्धारा को बड़ी ही सादगी पर भरपूर स्पष्टता के साथ उजागर करता है.
यादवेन्द्र
____________________
हाँलाकि मन से मैं अच्छी भली हूँ पर मुझे लगता है कि अपने अफेयर्स के बारे में मौजूद कुछ गलतफहमियों के बारे में बातें कर लेने का सही वक्त आ पहुँचा है (मुझे ऐसा ही बताया गया है).
इस उम्मीद के साथ चिट्ठी लिख रहा हूँ कि तुम अच्छी भली होगी हाँलाकि इसका कोई अंदाज नहीं कि कितने दिनों और किस हाल में तुम्हें यह चिट्ठी मिल पायेगी .. मुझे लग रहा है कि मेरे यहाँ से रुखसत हो जाने के बाद ही शायद. मैंने उम्र के बासठ साल पूरे कर लिए हैं ...और मुझे वह तारीख अब भी एकदम याद है ... आज का ही दिन था, ठीक तेरह साल बीत चुके जब मैं किसी ठिकाने का पता पूछने तुम्हारे घर पर दस्तक देने रुका था.
यादवेन्द्र
‘द ब्रिजेज ऑफ़
मेडीसन काउन्टी’ से दो पत्र
यादवेन्द्र
7 जनवरी,
1987
मेरे प्रिय कैरोलिन और माइकेल,
हाँलाकि मन से मैं अच्छी भली हूँ पर मुझे लगता है कि अपने अफेयर्स के बारे में मौजूद कुछ गलतफहमियों के बारे में बातें कर लेने का सही वक्त आ पहुँचा है (मुझे ऐसा ही बताया गया है).
ये बातें ऐसी हैं जिनकी मेरे
जीवन में बहुत अहम् जगह है ...बेहद महत्वपूर्ण ..तुम्हें भी इनके बारे में जान
लेना एकदम जरूरी है. आज यह चिट्ठी मैं यही सब कुछ सोच कर लिखने बैठी हूँ.
मैं मान कर चल रही हूँ कि सेफ
का दरवाजा खोल कर अब तक तुम लोगों ने 1965 के वाटरमार्क वाला
मेरे नाम का बड़ा मनीला इनवेलप खोल लिया होगा. निश्चय ही ऐसा करने के बाद यह चिट्ठी
तुम्हारे हाथ में होगी. यदि कर सको तो तुम दोनों किचेन की पुरानी मेज पर बैठ कर
इत्मीनान से इस चिट्ठी को पढना ... ख़त पढ़ते-पढ़ते जैसे ही थोडा आगे बढ़ोगे तुम्हें मेरी
इस गुज़ारिश का मर्म समझ आ जायेगा.
मेरा यकीन करना, अपने बच्चों को ऐसा ख़त लिख पाना मेरे लिए बेहद मुश्किल काम था पर मुझे लगा मेरे
सामने इसका कोई विकल्प नहीं है -- ये चिट्ठी लिखी ही जानी थी. यहाँ इस चिट्ठी को पढ़ते वक्त तुम लोगों को कुछ बातें
इतनी कठोर लगेंगी ...कुछ इतनी खूबसूरत भी लगेंगी कि इनको अपने साथ साथ लिए हुए
कब्र में जाकर सदा-सदा के लिए दफन कर देने का ख़याल मुझे बिलकुल बेतुका और
अस्वीकार्य लगा. और यदि तुम लोग साफ़-साफ़ यह जानना चाहते हो कि
तुम्हारी माँ की शख्सियत और हकीकत दरअसल क्या थी -- अच्छी और बुरी दोनों --
तो तुम्हें धैर्य खोये बिना वह सब सुनना भी पड़ेगा जो मैं कहने जा रही हूँ. खुद को इसके लिए तैयार कर लेना मेरे बच्चों.
अब तक तुम्हें पता चल चुका
होगा कि मैं जिस व्यक्ति का जिक्र तुमसे करने जा रही हूँ उनका नाम रॉबर्ट
किंकेड था . नाम के बीच में "एल" भी था वह किस शब्द का संक्षिप्त
रूप था मुझे मालूम नहीं. वे एक फोटोग्राफर थे ...और 1965 में वे हमारे घर के आस पास के ढँके हुए पुलों पर एक
एसाइनमेंट करने आये थे.
मुझे अब भी बखूबी याद है जब नेशनल
जिओग्राफ़िक में उनकी ढेर सारी फोटो छपीं तो पूरे शहर ने कितना जश्न मनाया था -- तुम्हें भी याद
होगा बच्चों --- तुम्हें शायद यह भी याद होगा कि उस इश्यू के बाद से मेरे नाम से नेशनल
जिओग्राफ़िक घर पर नियमित आने लगा था. अब तुम्हें समझ आ गया होगा कि उस मैगेजीन
में अचानक मेरी इतनी रूचि कैसे जागृत हो
गयी थी. बाई द वे, सेडार ब्रिज की फोटो में उनके साथ
साथ तुम लोग मुझे भी देख सकते हो .. उनके कैमरे का खाली थैला अपने कंधे पर लटकाये
हुए.
मुझे समझने की कोशिश करो ..मैं
तुम्हारे पिता को बगैर बहुत मुखर हुए बिलकुल शांत भाव से प्यार करती थी. उस समय भी मैं
यह बात उतनी ही शिद्दत से जानती थी जितनी अब जानती हूँ. उनका जीवन भर मेरे प्रति
बहुत नेक बर्ताव रहा. उन्हीं ने मुझे तुम दोनों बच्चों की सौगात दी. तुम दोनों मेरे जीवन की अमूल्य
निधि हो जिनका मुझे हमेश से भरोसा रहा है. उम्मीद है तुम दोनों भी मेरी इस भावना
को विस्मृत नहीं करोगे.
पर रॉबर्ट किंकेड बिलकुल
दूसरी तरह के इंसान थे. इतने अलहदा कि अपने इतने लम्बे जीवन में मैंने उन जैसे किसी
इंसान को न देखा, न सुना. ऐसे किसी
व्यक्ति के बारे में मैंने कभी पढ़ा भी नहीं. मैं लाख कोशिश
कर लूँ उनकी शख्सियत को समग्र रूप को तुम लोगों
को समझा पाना मेरे वश में नहीं. यदि इसकी वजहें ढूँढें तो शायद सबसे पहली वजह जो मेरी समझ में आयी वह है
कि मैं मैं थी. तुम दोनों भले मेरे बच्चे हो पर तुम
फ्रेंसेस्का नहीं कोई और हो. हम दोनों एक नहीं हो सकते.
दूसरे, उनको समझने के लिए तुम्हें उनके आस पास बने रहना पड़ता, उनके चलने फिरने का ढंग नजदीक से देखना पड़ता. खुद को
इवोल्यूशन की प्रक्रिया में छिटक कर दूर जा गिरी किसी शाखा मानने के विचार को
समझाने वाली उनकी बातें सुननी पड़ती.
यदि ऐसा हो पाता तो तुम्हारे लिए उनको समझ पाना सहज होता. उनकी सहेज
कर रखी हुई नोटबुक और क्लिपिंग्स पढोगे तो शायद उनको समझ पाने के और नजदीक पहुँच
सकोगे. पर मुझे लगता है ये चीजें भी उनको पूरा पूरा शायद न
ही समझा पायें.
एक तरह से देखें तो वे देखने
में हमारी तरह के ही इंसान थे पर मैं कहूँगी कि इस धरती के नहीं थे ...किसी अन्य
स्थान से वे यहाँ आ गए थे ...कम से कम मेरे मन में इस बात को कहते हुए कोई द्वंद्व
नहीं है. मैं उनको हमेशा से किसी ऐसे
चीते के रूप में देखती रही हूँ जो किसी धूमकेतु की दुम पकड़ कर अपने ठिकाने से निकल
आया ...मैंने उनको उसी चाल से चलते हुए देखा .. उनका बदन भी बिलकुल चीते जैसा
ही लचीला था. रिश्तों की ऊष्मा और मानवीय करुणा को जाने कैसे उन्होंने इतनी शिद्दत के साथ अपने अन्दर समाहित किया था. पर इस अकूत
ऊर्जा के बावजूद ट्रेजेडी की एक अस्पष्ट पर अक्सर दिख जाने वाली रेखा उनके
व्यक्तित्व को हमेशा लपेटे रही. उनको बड़े गहरे स्तर पर यह आभास होने लगा था कि
कम्प्यूटर और रोबोट के इस उभर रहे ज़माने में अब उनकी कला का कोई ख़ास स्थान रह नहीं
गया था. उनकी उपयोगिता सिकुड़ने लगी थी. उनको लगता था कि काऊ
ब्वाय की पीढ़ी के वे आखिरी वारिस हैं ...और खुद को वे old fangled कह कर पुकारते भी थे.
मैंने रॉबर्ट को उस दिन पहली
बार देखा जब मुझे देख कर उसने रोजमन ब्रिज
का रास्ता पूछने के लिए अपनी गाड़ी रोकी थी.
उस दिन तुम तीनों इलिनॉय स्टेट फेयर देखने गए हुए थे और घर में मैं अकेली थी. मेरा
यकीन करना, मैं किसी ऐडवेंचर के बारे में
सोच कर कोई योजना बना कर बाहर खड़ी होऊँ
ऐसा बिलकुल नहीं था. ऐसी कोई बात मेरे
दिमाग में दूर दूर तक भी नहीं थी. पर मेरी निगाह उनपर पड़ी -- सिर्फ़, हाँ सिर्फ़ पाँच सेकेण्ड के लिए. और मुझे जाने
क्यों एकदम से लग गया कि मैं उनको चाहने लगी हूँ. और उनकी ही
राह ताक रही थी ...हाँलाकि बाद में जैसे- जैसे दिन बीतते गए
मेरे मन में उनकी चाहत निरंतर बढती चली गयी.
बच्चों मेहरबानी कर के उनको --
रॉबर्ट को -- कोई कैसानोवा मत मान लेना जो यहाँ वहाँ गाँव की भोली
लड़कियों को घूरता हुआ उनपर हाथ डालने मौका ढूँढता फिर रहा हो. रॉबर्ट वैसे तो
बिलकुल नहीं थे ...इस से उलट वे खासे शर्मीले थे और मुझे यह स्वीकार करने में कोई
संकोच नहीं कि हमारे बीच जो कुछ भी पनपा और बढ़ा उसके लिए मैं भी उनके बराबर की
हिस्सेदार हूँ ...सच कहूँ तो मैं रॉबर्ट से ज्यादा ज़िम्मेदार हूँ. उनके ब्रेसलेट
के साथ मेरे हाथ का लिखा जो नोट खोंसा हुआ है वो मैंने मुलाकात के पहले दिन की शाम
रोजमन ब्रिज पर उनके पढने के लिए चिपका दिया था जिस से सुबह आते ही उनकी
निगाह सबसे पहले उसी के ऊपर पड़े. उन्होंने
मेरी जो फोटो खींची उनके आलावा मेरी सिर्फ यही एक दूसरी निशानी रॉबर्ट के पास जीवन के शेष दिनों में रही जो
एहसास कराती रही कि दुनिया में फ्रेंसेस्का नाम की किसी स्त्री का अस्तित्व
है. उस से भी ज्यादा मेरे प्यारे बच्चों यही कागज का टुकड़ा उनको शेष दिनों में
आश्वस्त करता रहा कि मैं हाड़ मांस की सजीव स्त्री थी, उनके ख्वाब में अनायास आ गया कोई सपना नहीं.
मुझे भली तरह से मालूम है कि
बच्चों की अपने पेरेंट्स को एसेक्सुअल (यौन संवेदना से शून्य) रूप में देखने और
मानने की प्रवृत्ति होती है ...इसीलिए मुझे भरोसा है कि जो मैं कहना चाहती हूँ
उसको तुम सहानुभूति के साथ समझ सकोगे ...और खामखा किसी गैर जरूरी सदमे का शिकार
नहीं बनोगे. और इसके साथ ही मुझे पक्का विश्वास है कि मेरी जो भी स्मृति या छवि
तुम्हारे मनों के अन्दर बसी है उसको कोई ठेस नहीं पहुँचेगी.
पुराने किचेन में रॉबर्ट और मैंने
घंटों साथ साथ बिताये हैं. बातें और बातें. दुनिया भर की बातों का
अन्तहीन सिलसिला ...और हमने कैंडललाईट डांस भी किया ...और हाँ हमने वहाँ ...बेडरूम
में ...और पिछवाड़े की नर्म दूब पर भी ...यहाँ तक कि जहाँ-जहाँ
तक तुम्हारी कल्पना जा सकती है वहाँ-वहाँ भी ...हमने डूब कर
एक दूसरे को प्यार किया ...अद्भुत अविश्वसनीय ऊर्जावान और जादुई सम्मोहन से
लबालब भरा हुआ प्यार. एक दिन नहीं ..दिनों तक ..अनवरत अंतहीन प्यार. मैं उनके बारे
में सोचते हुए जब भी कोई बात कहती हूँ तो उसमें अक्सर "पावरफुल"
सबोधन ही उनके लिए मुँह से निकलता है ...लगता है जब हम पहली बार मिले तब भी वे
वैसे ही थे ...और उनकी यह खासियत कभी कम नहीं हुई.
उनकी शख्सियत किसी नुकीले तीर
जैसी थी -- उतने ही फुर्तीले और मारक. जब रॉबर्ट मुझसे प्यार करते थे तो मैं पूरी
तरह असहाय हो जाती थी ..इसका अर्थ तुम किसी दुर्बलता या कमजोरी के सन्दर्भ में मत
लेना ...ईमानदार सचाई यह है कि उनके साथ ऐसा तो एक पल को भी मुझे महसूस नहीं हुआ
...बल्कि उलटा ही मालूम होता था ...बस मैं उनकी घनघोर भावनात्मक और शारीरिक ऊर्जा
के सामने चमत्कृत और बेबस हो जाती थी. एक बार ऐसे ही किसी मौके पर मैंने उनके कान
में फुसफुसा कर अपना हाल बयान किया तो
बिना देर किये उनका सहज सा जवाब था : “I am the
highway and a peregrine and all the sails that ever went to sea.”
बाद में मैंने डिक्शनरी देखी
तो मालूम हुआ कि peregrine कहते ही उसका सबसे पहला जो अर्थ लोगों के दिमाग में आता है
वह है बाज. पर बाज के आलावा और भी अर्थ हैं और मुझे नहीं लगता कि ऐसा कहते हुए
रॉबर्ट को उन अर्थों के बारे में मालूम नहीं रहा होगा. एक मतलब है "परदेसी, दूसरे अजनबी इलाके से आया हुआ".एक और अर्थ मिला मुझे
:"यायावर, निरुद्देश्य भटकता हुआ, प्रवासी". लैटिन में इसका अर्थ अजनबी
होता है ...मुझे लगता है रॉबर्ट के व्यक्तित्व में इन सब अर्थों का समावेश था, बल्कि उनका व्यक्तित्व इन्हीं तमाम विशिष्टताओं से निर्मित
हुआ था-- एक अजनबी ..परदेसी भी ..ज्यादा प्रचलित शब्दावली में कहूँ तो एक वास्तविक
यायावर ...और बाज के गुणों से भरपूर तो थे ही जो बाद में धीरे-धीरे मन में
स्पष्ट होता गया.
मेरे बच्चों, सोचो इस समय अपने जीवन की जिन सचाइयों को समझाने का जिम्मा
मैंने अपने कन्धों पर लिया है उसको कुछ शब्दों में बाँधना संभव नहीं है ...पर मुझे
हमेशा से जाने क्यों यह लगता रहा है कि जिन अनुभवों से मेरा जीवन गुजरा है उन जैसे
क्षण भरपूर मात्रा में तुम्हारे जीवन में भी पूरी शिद्दत के साथ आयें
..हाँलाकि अब मैं यह भी सोचने लगी हूँ कि उनकी गुंजाइश बहुत कम बच गयी है. अक्सर
मेरा मन कहता है कि आज के अपेक्षाकृत बुद्धिवादी (enlightened)
दौर में
मैं जो बातें तुमसे कह रही हूँ उनका प्रचलन नहीं रह गया है. रॉबर्ट किंकेड के पास
ख़ास तरह की जो शक्ति थी मुझे नहीं लगता कि कोई स्त्री उस तरह की ताकत संचित कर सकती है. इसलिए माइकेल , तुम्हारा तो पत्ता साफ़ ...और हाँ कैरोलिन तुम्हारे
लिए निराश करने वाली खबर यह है कि रॉबर्ट तो एक ही नायाब इंसान था. कोई उस जैसा दूसरा नहीं ...और अब रॉबर्ट खुद
इस दुनिया में नहीं रहा ...अफ़सोस.
यदि तुम्हारे पिता और तुम
दोनों का ख्याल मेरे मन में इस कदर हावी न होता तो मैं निश्चय है मैं उसी वक्त
रॉबर्ट के साथ कहीं चली जाती .. उन्होंने मुझसे बार-बार चलने को कहा मेरी कितनी
मिन्नतें कीं. बल्कि हाथ भी जोड़े ...पर मैं थी कि घर छोड़ कर गयी नहीं. वे भी इतने
संवेदनशील और दूसरों का मन समझने वाले जिम्मेवार इंसान थे कि उस दिन के बाद से कभी
भी --- एक बार भी नहीं --- उन्होंने हमारे जीवन में किसी तरह का हस्तक्षेप करने के
बारे में सोचा नहीं.
पर मैं निरन्तर एक विडम्बना के
साथ जीती रही हूँ ...यदि मेरे जीवन में रॉबर्ट किंकेड का प्रवेश नहीं हुआ
होता तो मैं पक्के तौर पर नहीं जानती कि अपना बचा हुआ सारा जीवन मैं इस फार्म में
बिता पाती या नहीं. उन गिने चुने चार दिनों में उन्होंने मुझे एक सम्पूर्ण जीवन
जीने को दिया. एक पूरी कायनात से मुझे रु- ब- रु करवाया.
और सबसे बड़ी बात यह की कि मेरे व्यक्तित्व के जो अलग-अलग हिस्से थे उन सब को जोड़ कर मुझे एक मुकम्मल वजूद प्रदान किया. उसके
बाद से मैं इतनी अभिभूत हुई कि एक पल को भी उनके बारे में सोचे बगैर नहीं रह पायी.
सच कहूँ तो एक पल को भी नहीं. उस समय भी नहीं जब सचेतन रूप में मेरे मन के अन्दर
उनकी उपस्थित दर्ज नहीं होती थी तब भी मैं
उनको कहीं अपने आस पास महसूस कर पाती थी. ऐसा कभी नहीं हुआ कि मेरी चेतना से रॉबर्ट कभी अनुपस्थित रहे हों.
पर यह सब होते हुए भी ऐसा
कभी नहीं हुआ जब मैंने तुम दोनों के और
तुम्हरे पिता के बारे में सोचना बंद किया हो. या उसमें कोई कोताही बरती हो. यदि
सिर्फ अपने तईं बात करूँ तो निश्चय के साथ नहीं कह सकती कि जीवन का यह बड़ा फैसला
मैंने सही सही किया. पर परिवार के पक्ष से देखती हूँ तो यह मानने में एक पल भी
नहीं लगता कि मेरा फैसला बिलकुल उचित था.
अपनी सम्पूर्ण ईमानदारी को
साक्षी रख कर कह रही हूँ कि हमेशा से रॉबर्ट मेरी तुलना में यह बात अच्छी तरह
समझते रहे कि हम दोनों के बीच के इस साझेपन का मूल और केन्द्रीय सूत्र क्या है. जहाँ
तक मेरा सवाल है इसका मर्म मुझे देर से समझ आया. और वह भी धीरे-धीरे. मैं आज
स्वीकार सकती हूँ कि रॉबर्ट की तरह उनसे रु- ब- रु होते हुए मेरे मन में भी यदि उस
क्षण ही यह स्पष्टता होती तो मैं संभवतः आज यहाँ नहीं होती- रॉबर्ट के साथ साथ चली
गयी होती.
रॉबर्ट के मन में यह बात घर कर
गयी थी कि अब आपसी रिश्तों पर दुनियादारी
और नफा नुक्सान हावी होता जा रहा है ...और जिस निश्छल जादू की शक्ति का उनको
अटल विशवास था उसके प्रति लोगों का भरोसा
कम होता जा रहा है. अब तो मुझे भी लगता है कि रॉबर्ट के साथ जाने- न- जाने के मेरे
फैसले पर भी यही दुनियादारी और नफा नुक्सान का विचार शायद हावी रहा होगा.
मैं समझ सकती हूँ कि अपनी
अंत्येष्टि के बारे में मैंने जो शर्तें तुम्हें बतायी थीं उनको लेकर तुम लोग गहरे असमंजस और उलझन में रहे
होगे ...यह भी सोचा होगा कि एक संशयग्रस्त बुढ़िया की खब्त है ये सब. तुम जब 1982 का सिएटल के एटॉर्नी
का ख़त और मेरी डायरी पढोगे तो तुम्हें परत- दर- परत सब कुछ समझ आ जायेगा कि मैंने
अपनी वसीयत में यह शर्त क्यों शामिल की. मैंने अपने परिवार को अपना सम्पूर्ण जीवन
दे दिया. रॉबर्ट को वही दे पायी जो इसके
बाद मेरे आँचल में शेष था.
मुझे इस बात की आशंका है कि
रिचर्ड को यह आभास हो गया था कि मेरे अन्दर ऐसा कोई कोन जरूर है जहाँ तक उनकी
पहुँच नहीं हो पायी ...कभी कभी तो यह भी लगता है कि जब मैंने बेडरूम के सेफ़ के
अन्दर सँभाल कर रखा तो उन्होंने वह बड़ा मनीला इनवेलप देख लिया था. अंतिम साँस लेने से पहले जब थोड़ी देर के लिए मैं हास्पिटल
में उनके सिरहाने बैठी हुई थी, रिचर्ड ने मुझसे कहा :
आज मैं बिना किसी शक सुबहे के यह स्वीकार कर सकती हूँ कि मेरे लम्बे विवाहित जीवन में उस से ज्यादा भावपूर्ण क्षण उसके सिवा कभी कोई और नहीं रहा.
"फ्रेंसेस्का, मुझे यह बात खूब अच्छी तरह पता है कि तुम्हारे मन के अन्दर अपने कुछ सपने बसे हुए थे, पर मैं उनको साकार करने में तुम्हारी मदद नहीं कर पाया."
आज मैं बिना किसी शक सुबहे के यह स्वीकार कर सकती हूँ कि मेरे लम्बे विवाहित जीवन में उस से ज्यादा भावपूर्ण क्षण उसके सिवा कभी कोई और नहीं रहा.
ऐसी मेरी कोई मंशा नहीं है कि
इस तरह की बातों से मैं तुमलोगों को किसी अपराधबोध या शर्मिंदगी के कटघरे में खड़ा
कर दूँ ...इस बात के लिए यह चिट्ठी मैं लिख भी नहीं रही हूँ. इन बातों की मार्फ़त
मैं तुमलोगों को सिर्फ यह महसूस कराने की
कोशिश कर रही हुई कि मैं रॉबर्ट किंकेड से
किस कदर प्यार करती थी ...मैं इन उद्वेगों और भावों से बिला नागा हर दिन --और वह
भी सालों साल तक -- रू ब रू होती रही ...जैसे रॉबर्ट होते रहे.
हाँलाकि उन चार दिनों के बाद
हमने एक दूसरे से कभी नहीं -- हाँ, एक बार भी नहीं -- बात
की, पर एक दूसरे के साथ उस शिद्दत
और नजदीकी से जुड़े रहे जिस अकूत शक्ति के साथ कोई भी दो प्राणी एक दूसरे के साथ
जुड़ सकते हैं ...जुड़ाव की यदि कोई सीमा हो तो उसकी पराकाष्ठा तक.
मेरे बच्चों, इन तरल भावों को मुकम्मल तौर पर व्यक्त करने के लिए मेरे
पास पर्याप्त और उचित शब्दावली नहीं है ...हाँ, रॉबर्ट अलबत्ता इसको ज्यादा उपयुक्त शैली में व्यक्त किया करते थे. जानते हो
वे क्या कहते थे? कहते थे कि एक दूसरे
से मिलने के बाद से हम दोनों वो रहे ही नहीं जो पहले हुआ करते थे ...हमारे मेल ने
हमारे अलहदा अस्तित्व को एक दूसरे के अंदर समाहित कर लिया ...हम घुल कर दूसरे के
साथ मिल गए और दो जुदा जुदा शख्सियतों के मेल से किसी तीसरे प्राणी की तरह हमारा
इवोल्यूशन हुआ. और जो नया विकसित हुआ उसमें हमारी पुरानी छवियाँ धूमिल पड़ते पड़ते
लोप हो गईं.
कैरोलिन, वो हलके गुलाबी रंग
वाला ड्रेस याद है न एक बार जिसको लेकर तुमने मुझसे बड़ा झगड़ा किया था ...इतना बड़ा
ड्रामा कि उसको भूल जाना मुमकिन नहीं. उस ड्रेस पर जैसे ही नज़र पड़ी,
तुमने
उसको पहनने की जिद पकड़ ली. तुमने उसको लेने के लिए तमाम तर्क दिए ...जैसे कि आपको
तो ये ड्रेस पहने हुए मैंने कभी देखा नहीं ममा ..सालों साल से जब यह ऐसे ही
पड़ा है तो मैं अपने हिसाब से इसकी रीफिटिंग ही करा लेती हूँ
...और जाने क्या क्या. मैं आज तुमसे साझा कर रही हूँ कैरोलिन कि हलके गुलाबी रंग
का यह ड्रेस वही है जो रॉबर्ट से प्रेम करते हुए मैंने पहली रात पहनी थी ..उस रात
यह ड्रेस पहन कर इतनी सुन्दर लग रही थी ...सचमुच इतनी सुन्दर -- कि अपने इतने
लम्बे जीवन में वैसी सजीली मैं कभी नहीं लगी थी. इतना बताने के बाद तुम अब अच्छी
तरह समझ गयी होंगी मेरी बच्ची कि मैंने वो गुलाबी ड्रेस दुबारा कभी क्यों नहीं
पहनी ...और एक बार भी तुम्हें क्यों नहीं पहनने दी ...जाहिर है उन अविस्मरणीय
क्षणों की मेरे पास वही एकमात्र निशानी
बची रह गयी थी ... मामूली और मासूम सा स्मृतिचिन्ह.
1965 में रॉबर्ट के
यहाँ से चले जाने के बाद मुझे एहसास हुआ कि उनके बारे में मैं कितना कम जानती हूँ.
कुछ भी तो नहीं सिवा इसके कि ओहायो के एक छोटे से शहर में उनका जन्म हुआ था
, उनके माँ पिता दोनों गुजर चुके
थे ...और उनके कोई भाई बहन नहीं थे, यानि इकलौती संतान.
हांलाकि अरसे तक मैं इस मुगालते में रही कि मैं उनके बारे में सब कुछ जानती हूँ और
ऐसा कुछ नहीं है जिसकी मुझे जानकारी न हो. पर यह भी सच है कि हमारे आपसी रिश्ते की
बावत जिन जिन बातों का महत्त्व था उनमें ऐसा कुछ नहीं था जो मेरी जानकारी से बाहर
था.
जहाँ तक रॉबर्ट के निजी जीवन
की बात है मुझे पक्के तौर पर इसकी जानकारी नहीं है कि वे कालेज गए थे या स्कूल से
आगे नहीं पढ़ पाये ...पर इतना जरूर पता है कि उनके पास जो बुद्धि और समझ थी वो ऊपरी
तौर पर भले ही अनगढ़, पुरातन और रहस्यवादी
जैसी लगती हो ...पर थी विलक्षण ...और हाँ,
दूसरे
विश्वयुद्ध में वे साउथ पेसिफिक में मेरीन्स के साथ काम्बेट फ़ोटोग्राफ़र का काम भी
कर चुके थे.
उन्होंने एक बार शादी की थी पर
जल्द ही तलाक हो गया. मेरे साथ मिलने से बहुत साल पहले. शादी से उनका कोई बच्चा
नहीं था. उनकी पत्नी म्यूजीशियन थीं ...शायद फ़ोक सिंगर, जहाँ तक मुझे याद आ रहा है रॉबर्ट ने मुझे यही बताया था. पर
फोटोग्राफी के काम में उन्हें लम्बे लम्बे असाइनमेंट्स के लिए घर से बाहर रहना
पड़ता था, सो शादी चल नहीं पायी
...हाँलाकि उन्होंने इस नाकामयाबी के लिए अपनी पत्नी को बुरा भला कभी नहीं कहा
...बस , सार दोष चुपचाप अपने माथे पर
रख लिया और शादी से बाहर आ गए.
जहाँ तक मुझे पता है इस इकलौती
शादी के अलावा रॉबर्ट का कोई और परिवार नहीं था. यही कारण है कि मैं तुम लोगों से
गुजारिश कर रही हूँ कि रॉबर्ट को अपने परिवार में शामिल कर लो, हाँलाकि जानती हूँ कि यह बेहद कठिन और भावपूर्ण फैसला है.
जहाँ तक मेरा सवाल है मेरे पास तो अपना परिवार था. और जैसा कि परिवार के परिवेश
में होता है मुझे मेरे परिवार का सहारा था और मेरे जीवन को साझा करने वाले कई लोग
थे ...पर रॉबर्ट के जीवन में कोई भी तो नहीं था जिसके साथ वे अपने दुःख दर्द या
खुशियाँ साझा कर सकते. वे नितांत अकेले इंसान थे ...और यह रॉबर्ट जैसे स्नेही और
सह्रदय व्यक्ति के साथ निहायत ज्यादती और नाइन्साफी थी ..कम से कम एक मैं थी जो इस
बात को असलियत की गहराई में जानती थी.
मुझे बहुत अच्छा लगेगा ...और
गहरा सुकून भी मिलेगा ...सही है कि नहीं जानती तुम लोगों को कैसा लगेगा ...कि रॉबर्ट की स्मृति को और लोग बाग
हमारे बारे में जो कुछ भी कहते हैं उसको ध्यान में रखते हुए यह सारा मामला जानसन
परिवार के घेरे से बाहर न जाए तो बहुत अच्छा होगा. तुम लोगों के लिए यदि ऐसा करना
सम्भव हो पाये तो मेरी बातों का मर्म समझना ...हाँलाकि उचित यही है कि सारा मसला
मैं तुम लोगों के ऊपर डाल दूँ ...मेरी बात अपनी जगह है पर तुमलोग जैसा उचित समझो
वही करना.
कुछ भी हो मेरे और रॉबर्ट के
बीच के संबंधों को लेकर मैं शर्मिंदा कतई नहीं हूँ .. एक पल को भी इसको लेकर मेरे
मन में किसी तरह का अपराध बोध उत्पन्न
नहीं हुआ ...सच कहूँ तो हुआ इसका उल्टा ही ...मैं खुद को और मजबूत महसूस करने लगी.
इन तमाम बरसों में मैं उनसे बेइंतहाँ प्यार करती रही, हाँलाकि इनमें मेरा स्वार्थ शामिल था. मेरे अपने नितांत
निजी कारण थे जिन्होंने मुझे उनसे किसी तरह का संपर्क साधने से निरंतर रोके रखा, मैं उनसे जान बूझ कर परहेज करती रही. एक बार ..हाँ, सिर्फ एक बार ...मैंने रॉबर्ट से संपर्क साधने की कोशिश की
थी ...वह भी तुम्हारे पिता के इंतकाल के काफी अरसे बाद. दुर्भाग्य से मेरी यह
कोशिश सफल नहीं हो पायी ..जो नम्बर मेरे
पास था उस पर किसी ने फोन नहीं उठाया. इस घटना
के बाद फिर कभी दुबारा फोन करने का
मैं हौसला नहीं जुटा पायी. .मन में एक
दहशत मजबूती से घर कर गयी ...जाने क्या खबर सुनने को मिले .. इस हादसे ने मुझे
इतना भीरू और कातर बना दिया कि हमेशा लगता मुझमें सच्चाई सुनने या बर्दाश्त करने
की कूबत अब बची नहीं है ...मैं अन्दर से टूट चुकी थी. जब मन की दशा ऐसी हो तो मेरे
बच्चों, तुम आसानी से महसूस कर सकते
हो मेरा मन कितना उद्वेलित हुआ होगा जब 1982 में एटॉर्नी के ख़त के साथ साथ यह पैकेट कोई
मेरे पते पर लेकर पहुँचा होगा.
मैंने पहले भी तुमसे कहा है
..एक बार फिर इस बात को दुहराती हूँ ...और उम्मीद करती हूँ कि तुम लोग मेरी ऊपर
कही सारी बातों को उनके सिलसिले और
सन्दर्भों के साथ समझ पाओगे ...और अपनी माँ
को लेकर मन में किसी दुर्भावना को घर नहीं करने दोगे ...मेरा दृढ़ विशवास है की यदि
तुम लोग अपनी माँ को सचमुच प्यार करते हो तो माँ के किये तमाम कामों और फैसलों को
भी उसकी तरह ही भरपूर सम्मान दोगे ...उनके साथ मजबूती से खड़े रहोगे.
रॉबर्ट किंकेड ने मुझे समझाया ...या
ये कहूँ कि समझाया तो ज्यादा सही होगा ...कि औरत होने का वास्तविक अर्थ और मकसद
क्या होता है ..और मैं इसको लेकर खुद को इतना भाग्यशाली मानती हूँ कि लगता है इस
सर्वोच्च शिखर पर मैं ही मैं हूँ ..यह सौभाग्य सिर्फ मुझे प्राप्त हो पाया है किसी
और स्त्री को नहीं. दुबारा कहने की दरकार नहीं समझती कि वे बेहद अच्छे, संवेदनशील और सह्रदय इंसान थे ...और शायद यही सबसे बड़ी वजह है कि वे तुम लोगों के सम्मान
के ...और शायद प्यार के भी ... वास्तविक हकदार हैं. मुझे अपने आप पर अपने बच्चों पर यह भरपूर भरोसा
है ...और इसी भरोसे के दम पर मैं तुम लोगों को यह ख़त लिख रही हूँ कि तुम दोनों
रॉबर्ट को ये दोनों चीजें दे पाओगे..सम्मान ...और प्यार भी. मेरा विश्वास करना ...मैं यह पूरे भरोसे से तुम्हें बता सकती
हूँ कि रॉबर्ट अपनी ख़ास शैली में तुम दोनों के हितों और भविष्य को लेकर हमेशा सजग और कंसर्न्ड रहते थे ...उन्होंने हर कदम पर
तुम लोगों का भला सोचा ...और किया भी ...यह अलग बात है कि तुमने उन्हें कभी सामने
नहीं देखा ...पर मैंने जो कहा वह सब उन्हों निष्ठां के साथ किया ...मेरी मार्फ़त.
खूब अच्छे रहना ...मेरे
प्यारे बच्चों ...
माँ
प्रिय फ्रेंसेस्का ,
इस उम्मीद के साथ चिट्ठी लिख रहा हूँ कि तुम अच्छी भली होगी हाँलाकि इसका कोई अंदाज नहीं कि कितने दिनों और किस हाल में तुम्हें यह चिट्ठी मिल पायेगी .. मुझे लग रहा है कि मेरे यहाँ से रुखसत हो जाने के बाद ही शायद. मैंने उम्र के बासठ साल पूरे कर लिए हैं ...और मुझे वह तारीख अब भी एकदम याद है ... आज का ही दिन था, ठीक तेरह साल बीत चुके जब मैं किसी ठिकाने का पता पूछने तुम्हारे घर पर दस्तक देने रुका था.
मैं इस पैकेट की मार्फ़त
तुम्हारे ऊपर एक दाँव लगा रहा हूँ इस निर्दोष उम्मीद के साथ कि मेरी यह कोशिश किसी भी रूप में तुम्हारे जीवन
में उथल पुथल का कारण नहीं बनेगी .. कितना भी मैंने अपने मन को समझाया पर यह इस
बात के लिए राजी नहीं हुआ कि ये कैमरे किसी दूकान पर पुराने सेकेण्डहैण्ड सामानों
के कोने में पड़े हुए धूल फाँकते रहें ...या फिर किसी अजनबी के हाथ पड़ें. मुझे इसका
बखूबी एहसास है कि तुम्हारे पास पहुँचते पहुँचते इनकी शक्ल सूरत और भी बिगड़ चुकी
होगी पर फ्रेंसेस्का चारों तरफ निगाह
फेरने के बाद भी मुझे तुम्हारे सिवा ...हाँ,
सचमुच
तुम्हारे सिवा ...और कोई नहीं सूझा जिसके पास इन्हें छोड़ने का हौसला कर पाऊँ ...
तुम्हारे पास इन्हें भेज तो रहा हूँ पर मन में यह आशंका भी भरपूर है कि इनके कारण
तुम खामखा किसी अप्रत्याशित संकट में न पड़ जाओ ...मेरी इस सनक के लिए मुझे माफ़ कर
देना फ्रेंसेस्का ...
1965 से लेकर 1975 तक ... पूरे दस साल
... मेरे पैर निरंतर सफ़र ही सफ़र में चलते रहे ... अब तुमसे क्या छुपाना खुद के ऊपर
ओढ़ी हुई इस व्यस्तता की बड़ी वजह तो यह थी कि मन के अन्दर लगातार सिर उठाती हुई इस
ख्वाहिश के आगे कहीं मैं घुटने न टेक दूँ कि तुमसे फोन पर बात करनी है ...या सीधा
तुम्हारे सामने जाकर खड़े हो जाना है ... तुम्हें छोड़ कर चले आने के बाद एक भी दिन
ऐसा नहीं बीता जब जगी हुई अवस्था के एक एक पल में मेरे मन में यह इच्छा बलवती न
होती रही हो ....यही ख़ास वजह रही जो मुझे जबरदस्ती जितनी भी मिल पायें वैसी विदेशी
असाइन्मेंट्स की और धकेलती रही. बार बार मन में यह आता भी था कि आखिर भाग भाग कर कहाँ जा रहा हूँ मैं ...कर
क्या रहा हूँ ...भाड़ में जायें सारे
असाइन्मेंट्स ...अब इसी पल मुझे विंटरसेट, आयोवा की ओर रुख करना है ...और चाहे जो भी कीमत चुकानी पड़े
मैं फ्रेंसेस्का को अपने साथ लेकर ही वहाँ
से चलूँगा ...उस के बगैर अब एक पल
भी नहीं जीना.
पर जब-जब भी यह आवेग आता मुझे
तुम्हारे शब्द सुनाई देते ... तुम्हारी भावनाओं की मेरे मन में बेहद कद्र है
...शायद तुम सही कहती भी थीं, मुझे इनका एहसास शायद
नहीं हो पाता था.
और जीवन की शेष घड़ी में भी उस से ज्यादा कठिन फैसला मेरे सामने कभी नहीं आएगा ...अपनी ही बात क्यों करूँ, दरअसल शायद ही कुछ गिने चुने ऐसे बदनसीब मर्द होंगे जिनके सामने यह जान निकाल लेने वाली चुनौती पेश आई होगी.
मुझे तो सिर्फ इतना पता है कि शुक्रवार की उस बेहद गर्म सुबह तुम्हारी गली की ओर अंतिम बार देख कर पीठ करके वापसी का सफ़र शुरू कर देना मेरे जीवन की सबसे मुश्किल घड़ी थी ...
और जीवन की शेष घड़ी में भी उस से ज्यादा कठिन फैसला मेरे सामने कभी नहीं आएगा ...अपनी ही बात क्यों करूँ, दरअसल शायद ही कुछ गिने चुने ऐसे बदनसीब मर्द होंगे जिनके सामने यह जान निकाल लेने वाली चुनौती पेश आई होगी.
मैंने 1975 में "नेशनल जियोग्राफिक" का काम छोड़ दिया और बाद
के तमाम सालों में अपनी मन मर्जी का काम करता रहा ...कभी कहीं कोई ऐसा कोई पसंदीदा
काम मिल गया तो ठीक ...पर वह भी ऐसा जो मुझे घर से कुछ दिनों के लिए बाहर ले जाने
वाला हो. हाँलाकि इस मनमौजी काम से पैसे नहीं मिलते और मेरे हाथ भी हमेशा तंग रहे, पर मैंने बगैर किसी गिले शिकवे के जैसे -तैसे गुजारा कर ही लिया. अपनी सारी
जिन्दगी में मैंने ऐसा ही तो किया है.
मेरा ज्यादातर काम पुगेट साउण्ड (वाशिंगटन के उत्तर पश्चिम में
स्थित प्रशान्त महासागर का भाग) के इर्द
गिर्द घूमता रहा ...मुझे इसमें बहुत आनन्द आता रहा है ... मुझे लगने लगा है फ्रेंसेस्का जैसे-जैसे आदमी की उम्र बढती
जाती है पानी की ओर उसका खिंचाव भी बढ़ता जाता है.
और हाँ ...तुम्हें एक बात तो
बताना ही भूल गया ...मैंने एक कुत्ता भी पाल लिया है, गोल्डन रीट्रीवर ...उसको मैं "हाइवे"
कह कर पुकारता हूँ और अपने ज्यादातर
असाइन्मेंट्स में उसको साथ साथ भी ले जाता हूँ ...उसकी गर्दन गाड़ी की खिड़की
से इस तरह बाहर निकली रहती है जैसे मैं नहीं असल में वो है जिसको एक अच्छे शानदार
शॉट की तलाश है.
कुछ साल पहले की बात है
...शायद 1972 की, मैं काम के सिलसिले में एकेडिया नेशनल पार्क गया
हुआ था और संतुलन खो जाने पर एक पहाड़ी चोटी
से फिसल कर नीचे गिर पड़ा ...मेरा घुटना टूट गया. इसी गिरने के दौरान मेरी
चेन और मेडेलियन भी टूट फूट गए, हाँलाकि गनीमत यह रही
कि टूटे हुए टुकड़े मेरी नजरों के सामने ही दिखाई देते रहे. मैंने उन टुकड़ों को
बटोरा और एक सुनार से दुबारा ठीक करा लिया.
तुम्हारे सामने मुझे यह कबूल
करने में कोई शर्म नहीं कि मैंने अपने दिल के ऊपर समय की धूल गर्द की परतें जमने
दी, उनको झाड पोंछ कर साफ़ करने का
जतन कभी नहीं किया -- खुद को कम से कम मैं ऐसे ही देखता हूँ.
यह भी बिलकुल साफ़ है कि मुझे ब्रह्मचर्य या नैतिकता अनैतिकता जैसी किसी बात में यकीन नहीं है ... बस, तुमसे मिलने के बाद मुझमें किसी अन्य स्त्री के लिए दिलचस्पी की कहीं कोई गुंजाइश शेष नहीं रही.
ऐसा नहीं है कि तुम मेरे जीवन में आने वाली पहली स्त्री हो ... तुमसे पहले भी कुछ स्त्रियाँ मेरे जीवन में आयीं पर आज यह स्वीकार करते हुए मुझे फख्र होता है कि तुम्हारे साथ मुलाक़ात के बाद किसी स्त्री को मैंने अपने घर के दरवाजे पर दस्तक नहीं देने दी.
यह भी बिलकुल साफ़ है कि मुझे ब्रह्मचर्य या नैतिकता अनैतिकता जैसी किसी बात में यकीन नहीं है ... बस, तुमसे मिलने के बाद मुझमें किसी अन्य स्त्री के लिए दिलचस्पी की कहीं कोई गुंजाइश शेष नहीं रही.
एक बार किसी असाइन्मेंट के सिलसिले में मैं कनाडा गया
हुआ था ...वहां मैंने एक नर बतख देखा जिसकी मादा को शिकारियों ने गोली मार दी थी
...तुम्हें मालूम ही होगा फ्रेंसेस्का कि इन पक्षियों की शारीरिक बनावट ऐसी है
जिसमें जीवन जीने के लिए सेक्स करने की अनिवार्यता है. व्यथित नर कई दिनों तक
बावला होकर तालाब के चक्कर लगाता रहा ...काम ख़तम करके जब मैं वापस लौटने लगा तब भी
वह पानी में बेचैन होकर अकेला चक्कर काट रहा था ... सभी दिशाओं में बार-बार गर्दन
घुमा-घुमा कर आशा भरी नज़रों से देखता हुआ. मुझे भली भाँति एहसास है कि ऐसे
समानार्थी उदाहरण आम तौर पर साहित्य की दुनिया में दिए जाते हैं पर मैंने उस अकेले
बतख देखने के बाद से निरंतर खुद को उसके उसकी दयनीय दशा में ही पाया है ... क्या
करूँ अपने इस मन का ?
जब जब भी मैं धुंध भरे सबेरे
उठ कर पहली दफा अपनी आँखें खोलता हूँ ...या दोपहर बाद उत्तर पश्चिम दिशा में सूरज
को पानी के साथ अठखेलियाँ करता हुआ देखता हूँ तो मेरा मन अचानक ही बड़ी शिद्दत से
तुम्हें ढूँढने लगता है --- बेताबी यह जानने के लिए बढती जाती है कि इस वक्त जब मैं तुम्हारे बारे में इस शिद्दत के
साथ सोच रहा हूँ, तुम क्या कर रही होगी
-- तुम्हें मेरी बेताबी का कुछ आभास होगा भी कि नहीं. और जानती हो फ्रेंसेस्का
हमारे साथ को लेकर अपनी कल्पना में मैं कभी कुछ ख़ास या और उलझाने वाली बात नहीं
सोचता --- बस सीधी सरल छोटी छोटी मामूली
बातें, जैसे तुम्हारे घर के पिछवाड़े के गार्डन में टहलना, तुम्हारे सामने बरामदे में पोर्च पर बैठ जाना, तुम्हारी किचेन की सिंक के पास खड़े रहना ...ऐसी ही तमाम
बातें जेहन में आती रहती हैं.
मेरी स्मृति में एक एक बात
बिलकुल स्पष्ट तौर पर दर्ज है ..तुम्हारे बदन से कैसी महक आती थी, कैसे तुम्हें छूते ही
एकदम से गर्मियों के मौसम का आभास हो जाता था. मेरी देह के साथ तुम्हारी
देह का छूना ...और उस अस्पष्ट सी तैरती हुई फुसफुसाहट का एक एक लफ्ज ...उसके आरोह
अवरोह ... मुझे बखूबी याद है जो प्यार करते हुए तुम्हारे मुँह से निकले थे.
रॉबर्ट पेन वारेन ने कभी एक मुहावरा
इस्तेमाल किया था :"एक ऐसी दुनिया जिसको रुष्ट ईश्वर त्याग कर कहीं दूर
चला गया"...बात किसी अधूरे आशियाने की भले ही हो पर मैं अक्सर तुम्हें
याद करते हुए इस मुहावरे की छुअन महसूस करता हूँ. पर मेरी मजबूरी कि मैं इसी
मनोदशा में हमेशा नहीं बना रह सकता ...अब तो यह एक लम्बा सिलसिला बन गया है ...मैं
करता ये हूँ कि जब बार-बार सिर उठाते एहसास हद से ज्यादा कचोटने लगते हैं तो मैं
अपनी गाड़ी पर साजो सामान लादता हूँ और
हाइवे को साथ में लेकर कुछ दिन के लिए घर से दूर कहीं बाहर निकल जाता हूँ.
ऐसा बिलकुल नहीं है कि मुझे अपने जीवन को लेकर कोई अफ़सोस या ग्लानि है
--- तुम जानती हो मैं इस स्वभाव का इंसान भी नहीं हूँ ...साथ ही यह भी उतना ही सच
है कि मैं हरदम ऐसी ही मनोदशा में नहीं रह सकता ...ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करता
हूँ कि उसने मुझे तुम तक पहुँचने का
रास्ता सुझाया ...तुम मेरी अन्तरंग दुनिया में इस कदर शामिल रहीं. यह भी तो हो सकता था कि हम एक दूसरे
को देख कर आकाश में दो उल्काओं की मानिन्द चमकते और अगले ही क्षण अलग-अलग
दिशाओं में जाकर एक दूजे का हाल जाने हमेशा हमेशा के लिए विलुप्त हो जाते.
अब कुदरती सन्तुलन या तरतीब की
इस ख़ूबसूरत और सुगठित व्यवस्था को ही देखो
-- इसको ईश्वर कहें या ब्रह्माण्ड, या मन माफ़िक कोई और
नाम दे दें -- यह धरती पर समय की हमारी परिचित रफ़्तार के अनुशासन को मान कर
संचालित नहीं होता. इस खगोल तंत्र में हमारे चार दिन वैसे ही हैं जैसे चार बिलियन
प्रकाश वर्ष -- आज की बात नहीं है प्रिय मैं हमेशा से इसी सोच का कायल रहा हूँ.
पर कहने को कहूँ चाहे कुछ भी, ज़मीनी हकीकत यही है कि
मैं एक हाड़ मांस का बना मामूली इंसान हूँ
...दुनिया जहान की तमाम दार्शनिक तार्किकताओं का वज़न एक तरफ़, और टूट कर तुम्हें चाहने की उतनी ही मूल्यवान निर्बन्ध
कामना दूसरी तरफ ---मैं चाहे कितना भी
यत्न करूँ लाचार कर डालने वाली इस घनघोर चाहना से मेरी मुक्ति नहीं हो पायेगी
...एक एक दिन ...एक एक क्षण ...मेरे पूरे अस्तित्व पर हावी रहा है लाचार अस्फुट रुदन का वह निर्मम समय जब मैं
तुम्हारे साथ होने की कामना करता रहा हूँ पर वास्तव में ऐसा कर नहीं पाया ...मेरे
माथे के अन्दर एक के बाद एक झंझावात अनवरत उभरते और टक्कर मारते रहे.
अंतिम सचाई यह है कि मैं तुमसे
बेपनाह प्रेम करता हूँ ...भरपूर उद्वेग और सम्पूर्ण निष्ठा के साथ ...और अंतिम
साँस लेते हुए भी ऐसे ही तुम्हें चाहता रहूँगा, इस से मेरी मुक्ति नहीं.
तुम्हारा बिछुड़ा हुआ काऊब्वाय
रॉबर्ट
नोट : पिछली गर्मियों में मैंने अपनी
गाड़ी में नया इंजन डलवा लिया था ... यह
बिलकुल ठीक ठाक और बढ़िया काम भी कर रहा है.
(सभी चित्र 'द ब्रिजेज ऑफ़ मेडीसन काउन्टी’ पर इसी नाम से बनी फ़िल्म से लिए गए हैं- मेरील स्ट्रीप और ईस्ट वुड क्रमश: फ्रेंसेस्का और रॉबर्ट की भूमिका में हैं. )
___________
यादवेन्द्र
बिहार से स्कूली और इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1980 से
लगातार रुड़की के केन्द्रीय भवन अनुसन्धान संस्थान में वैज्ञानिक.
रविवार,दिनमान,जनसत्ता, नवभारत टाइम्स,हिन्दुस्तान,अमर उजाला,प्रभात खबर इत्यादि में विज्ञान सहित
विभिन्न विषयों पर प्रचुर लेखन.
विदेशी समाजों की कविता कहानियों के अंग्रेजी से किये अनुवाद नया ज्ञानोदय, हंस, कथादेश, वागर्थ, शुक्रवार, अहा जिंदगी जैसी पत्रिकाओं और अनुनाद, कबाड़खाना, लिखो यहाँ वहाँ, ख़्वाब का दर जैसे साहित्यिक
ब्लॉगों में प्रकाशित.
मार्च 2017 के स्त्री साहित्य पर केन्द्रित "कथादेश" का अतिथि
संपादन. साहित्य के अलावा सैर सपाटा, सिनेमा और
फ़ोटोग्राफ़ी का शौक.
yapandey@gmail.com
सुन्दर ख़त. अति संयम और विवेक से लिखे हुए. मैं इस उपन्यास और फ़िल्म के बारे में जानता था पर उन्हें पढ़ने, देखने का अवसर कभी नहीं मिला. ख़त छापने के लिए शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंयह उपन्यास किसी कारण से अमेरिका के दिल में बस गया। इस पर बनी फ़िल्म स्टार पावर और उत्कृष्ट अभिनय के कारण बड़ी सफल रही।
जवाब देंहटाएंपर है यह साधारण प्रेम-कथा। मेरी अल्प मति में इसका साहित्यिक मूल्य इतना अधिक नहीं है।
बड़ी विनम्रता से शुक्रिया अरुण जी । कभी कभी अफसोस होता है कि बड़ी देर में जुड़ा आपसे ।जाने क्या क्या खो चुका अब तक...
जवाब देंहटाएंपश्चिमी समाज की स्त्री की यही एक ख़ूबसूरती है कि वह अपनी हरेक सम्वेदना में बेबाक़ है और पूर्णरुपेण अभिव्यक्त भी, अद्भुत है।
जवाब देंहटाएंअनूठे पत्र हैं.
जवाब देंहटाएंकितना दिलचस्प है कि पिछली रात में यह फ़िल्म देखी । यह पत्र अपने रूपबंध में दृश्य-दर-दृश्य परदे पर घटित होती जाती है । दृश्य के पाठ की प्रक्रिया का सांद्र लिखे हुए के पाठ से कम नहीं है ।
जवाब देंहटाएंअनुवाद के लिए यादवेंद्र जी का शुक्रिया । उपलब्ध कराने के लिए आपका आभार ।
एक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.