यहूदी
मूल के महान डच दार्शनिक Baruch De Spinoza (२४ नवम्बर १६३२ -
२१ फ़रवरी १६७७) अपने प्रसिद्ध क्रांतिकारी ग्रन्थ 'Ethics’ (१६७७)
के कारण जाने जाते हैं. हिंदी में उनकी चर्चा कहीं-कहीं मिलती है, पर उनकी कृति का
अनुवाद देखने में अभी तक नहीं आया है. उनके दर्शन पर कोई भाष्य भी कहीं दिखा नहीं
है. कोई भाषा बिना स्पिनोज़ा को पढ़े और समझे कैसे आधुनिक कही जा सकती है ?
प्रचण्ड प्रवीर का यह आलेख बारुक स्पिनोज़ा को पढ़े जाने की पूर्वपीठिका है. इसके मूल में
यह आकांक्षा है कि कृति का समुचित अनुवाद भी हिंदी में प्रकाशित हो. (अगर हुआ है
तो वह सर्व सुलभ हो)
संक्षेप
में ही सही इस आलेख में स्पिनोज़ा के दर्शन को समझने और भारतीय चिन्तन परम्परा से
उनकी तुलना का एक सार्थक उद्यम दिखाई
देता है.
बारुक स्पिनोज़ा के ‘नीतिशास्त्र’ को कैसे पढ़ें?
प्रचण्ड प्रवीर
इससे पहले कि हम इस बात पर चर्चा करें कि बारुक स्पिनोज़ा
कौन थे और उनके ग्रंथ को क्यों पढ़ा जाए, एक विद्यार्थी के रूप में मैं यह विचार कर लेना
जरूरी समझता हूँ कि हमारे सामने कौन सी प्रमुख चुनौतियाँ हैं. मेरा मानना है कि
बहुत विद्यार्थी इसलिए पढ़ते हैं कि क्योंकि हमारी परिपाटी है कि पढ़ने से योग्यता मिलेगी. और उससे जीविकोपार्जन का साधन मिलेगा. इसी अर्थ में निहित हो कर
दिन-प्रतिदिन हमारे अध्ययन का दायरा सीमित और सकुंचित होता जा रहा है. इसका परिणाम
यह है कि तर्क, शील, असहमति, सिद्धांत जैसे बहुत से विषयों पर हमारी समझ कम
या न्यून होती जाती है.
छांदोग्य उपनिषद में श्वेतकेतु-उद्दालक के संवाद में यह
प्रश्न उठता है कि वह कौन सी ऐसी चीज है, जिसे जानने से हम सब कुछ जान सकते हैं. अगर हम
उपनिषद के बतलाए उत्तर को न भी माने, तो भी यह सहज विचार उठता है कि मनुष्य सब कुछ
जानने की इच्छा रखता है, पर क्या वह सब कुछ जान सकता है? साधारणतया आलस्य या कायरता से सब कुछ जानने से डरते हैं या उसकी सम्भावना को
नकारते हैं. अगर विचारा जाय कि अगर हम सब कुछ जान सकें, तो यह हम मानेंगे कि जानने की बहुउपयोगिता है और उसके पश्चात जीविकोपार्जन
समस्या नहीं रह जाती. ऐसा भी नहीं है कि सब कुछ जानने योग्य हो, मसलन आपका मकान कितने ईंटों से बना है, उसमें कितना सीमेंट-बालू लगा है? बहुत से इस तरह के निरर्थक ज्ञान की कोई उपयोगिता नहीं है.
ज्ञान के विषयों को अर्जन करना विद्या अर्जित करना कहलाता
है. इस हिसाब से नए विद्या क्षेत्र आते रहने से,
नई विधाओं की जानकारी बढ़ते रहने से, नई चुनौतियाँ भी सामने आती रहती हैं. लेकिन इन सब के बावजूद कार्यों की
तीव्रता के अतिरिक्त, मानव जीवन पर कोई विशेष अंतर नहीं आया. कहने का
तात्पर्य यह है कि सीखने की दर, फिर काम-काज करने की क्षमता, विश्राम की आवश्यकता, पारिवारिक जिम्मेदारियाँ, मानसिक तनाव, कमोबेश समय के हिसाब से थोड़े बहुत बदले हैं पर
बहुत बड़ा अंतर देखने को नहीं मिलता. इतिहास के अध्ययन करते हुए हम पाते हैं कि आज
भी कमोबेश सभ्यता कुछ वैसी ही है जो हज़ारों साल पहले हमारे पूर्वजों की थी, जैसे कि किसी शासक के शासन में, किसी अर्थ व्यापार में लिप्त, पारिवारिक जिम्मेदारियों से जूझते, व्याधि-रोग से लड़ते हुए, तरह-तरह की विभीषिकाओं का सामना करते हुए. समय के साथ हर व्यापार का रूप बदला, पर सिद्धांत में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आया है.
हमारे प्राचीन वाङ्मय में ज्ञान और विद्या में भेद किया गया
है, जहाँ विद्या संकुचित ज्ञान को कहते हैं. आमतौर पर ज्ञान का आशय आत्मिक ज्ञान
से लिया जाता है, जो मेरा आशय नहीं है. ज्ञान का दूसरा अर्थ
नीतिगत आचरण, सही गलत का निर्धारण, स्वतंत्रता- परतंत्रता, प्रकाश-विमर्श,
सम्बन्ध की एकरूपता-विविधता, काल-नियति की सत्ता, स्वभाव-प्रभाव,
गुण-धर्म आदि के अबाधित सम्यक विचार से लिया
जाता है. यहाँ एक आपत्ति की जा सकती है कि यह दर्शन का विषय निर्धारित कर दिया गया
है, इसलिए यह भी एक तरह की विद्या है. बहरहाल,
मेरा कहना है कि विद्यार्थियों के समक्ष महती
चुनौती सब कुछ जान लेने की है, जिसे आम तौर पर उपयोगी समझा जाता है या जिसकी
उपयोगिता को हम नकार नहीं सकते. हम इस बात पर सहमत हो सकते हैं कि हमने अपने जानने
और समझने का दायरा छोटा कर दिया है. जिसमें योग्यता रहती है, उसके लिए आजीविकोपार्जन कभी प्रश्न नहीं रहता क्योंकि विद्वानों का आमतौर पर
स्वागत ही किया जाता है.
जानने का आधार बहुधा तर्क पर छोड़ दिया जाता है. यह भी
विचारणीय कि आम्फलस अवधारणा (नाभि अवधारणा) को कैसे गलत माना जाय जिस के तहत यह
माना जाता है कि विश्व का निर्माण कुछ ही समय पहले हुआ जिसमें सारा अनुमान योग्य
प्रमाण निहित है. नोबल पुरस्कार विजेता, दार्शनिक और गणितज्ञ बर्ट्रेंड रसेल (1872-1970)
यह तर्क देते थे कि समूचा ब्रह्माण्ड कुछ पाँच मिनट पहले ही अस्तित्व में आया है
जिसमें जीवाश्म, स्मृति, पहाड़, पुराने अवशेष वर्तमान में देखे जा रहे रूप में
अस्तित्व में आए हैं. होर्हे लुई बोर्हेज़ की एक प्रसिद्ध कहानी में चिंतन है कि
वर्तमान अंतहीन है, भविष्य आशा के अतिरिक्त कुछ नहीं और भूतकाल
स्मृति के अतिरिक्त कुछ नहीं. ऐसी बातें हमारे कालबोध के लिए चुनौतियाँ खड़ी करती
हैं. तर्क और अन्य प्रमाणों से ऐसे विचारों का निदान या समाहार करते हुए यथार्थ
ज्ञान तक पहुँचना उपलब्धि समझी जा सकती है.
कुछ दशकों पहले तक हिन्दी के अध्ययन में तीन महती परम्पराएँ
थी –
१. संस्कृत वाङ्मय के आधार पर हिन्दी में
विस्तार (उदाहरण के तौर पर जयशंकर प्रसाद, निराला आदि)
२. उर्दू-फ़ारसी के आधार पर हिन्दी में विस्तार, तथा
३. अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषाओं के मानक
ग्रंथों के आधार पर हिन्दी में विस्तार.
किंचित संकोच के साथ यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि हमारी ये
तीन महती परम्पराएँ अब मृतप्राय हैं. साहित्य के विद्यार्थियों के पास अवसर रहता
है कि वह इतिहास, दर्शन, राजनीति शास्त्र जैसे अनेक विषयों पर अधिकार रख
सकें. इसी कड़ी में, मेरा मानना है कि सत्रहवीं सदी में एम्सटर्डम
में जन्में यहूदी बारुक स्पिनोज़ा (1632- 1677) का नीतिशास्त्र (Ethics) ऐसी रचना है जो कि संक्षिप्त है पर संसार के सभी प्रमुख विषयों पर गंभीर
चिंतन है. जिसे सब कुछ जान लेने की लालसा है, उन्हें यह छोटी सी किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए, जिसके कारण बीसवीं सदी के महान दार्शनिक जिल्स डेलेयुज ने ‘बारुक स्पिनोज़ा’ को ‘दार्शिनकों का राजकुमार’ की उपाधि दी.
स्पिनोज़ा के नीतिशास्त्र ने यूरोप के चिन्तन को बड़ी गहराई
से प्रेरित किया. कैथोलिक चर्च ने उनकी इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया. भारत में
कई विद्वान उनके चिंतन को, गलती से, अद्वैत वेदांत से जोड़ते रहे. मेरा मानना है कि
हर दार्शनिक परम्परा को उसकी विशिष्ट तत्त्वमीमांसा,
ज्ञानमीमांसा,
मूल्यमीमांसा और परमार्थ मीमांसा से पहचाना और
समझा जा सकता है. स्पिनोज़ा का दर्शन इस मायने में प्रभावशाली है कि ज्यामितीय सूत्रों जैसे उनके विचारों का निरुपण और उसकी सिद्धि तीन सौ सालों से अपराजेय खड़ी
हैं. इनमें जीवन मूल्यों, भावों, नीति की बहुआयामी चर्चा है. इनके नीति के
प्रमेयों को संस्कृत के सुभाषित की सूक्तियों जैसा नहीं समझना चाहिए, बल्कि यह सही अर्थों में सिद्धांत हैं जो कि न्यायशास्त्र की परिभाषा से
निबद्ध होते हैं.
अगर तर्कों की कोई ऐसी अकाट्य श्रृंखला है, जो तीन सौ चालीस साल से अविजित है उसे ज़रूर पढ़ना चाहिए. जहाँ तक मेरी
जानकारी है, स्पिनोज़ा के इस ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद उपलब्ध नहीं है. अगर ऐसा कोई अनुवाद
भारत का कोई भी विश्वविद्यालय शोधकार्य के रूप में भी उपलब्ध करवा पाए, तो मैं समझता हूँ कि बहुत से लोग इस कार्य से बहुत लाभान्वित होंगे.
स्पिनोज़ा का नीतिशास्त्र : संक्षिप्त परिचय
स्पिनोज़ा का नीतिशास्त्र सन् 1677 में उनके मरणोपरांत
प्रकाशित हुआ. मूल रूप से लैटिन में लिखा यह ग्रंथ सन् 1664 और 1665 के बीच लिखा गया था. यह ईश्वर के चमत्कारिता और कृपालु अवधारणा को नकारता है. इनके नीति
के प्रश्न ऐसे नहीं हैं कि क्या झूठ बोला जाय,
पशु-वध हो या न हो, बहुविवाह अपराध है या नहीं. यह समाज में प्रचलित नियमों के अनुसंधान के बजाय
व्यक्ति के विचारों का चिंतन हैं. यह पाँच भागों में हैं –
1. पहला
भाग – ब्रह्म के बारे में (यहाँ भारतीय परम्परा के प्रचलित ईश्वर शब्द का प्रयोग
करने में मुझे हिचकिचाहट है. हालांकि उनके गॉड की अवधारणा निर्गुण ब्रह्म जैसी
लगती है, पर वह अद्वैत वेदांत का निर्गुण ब्रह्म नहीं है. इस लेख के लिए मैं उनके ‘गॉड’ का प्रयोग ‘ब्रह्म’ से ही करूँगा.)
2. दूसरा
भाग – मन के उत्पत्ति और उसकी प्रकृति के बारे में
3. तीसरा
भाग – भाव के उत्पत्ति और उसकी प्रकृति के बारे में
4. चौथा
भाग – मानवीय बंधन या भावों के बल के बारे में
5. पाँचवा
भाव – समझ की शक्ति के बारे में या मानवीय स्वतंत्रता के बारे में
इस पुस्तक की विशेषता है कि यह अपने सिद्धांत को यूक्लिड की
ज्यामिति की तरह कुछ स्वयंसिद्ध और कुछ परिभाषा से कई प्रतिज्ञा और उपसिद्धांत
प्रतिपादित करती है तथा उसे सिद्ध करती है. हर भाग में यह उत्तरोत्तर जटिल होती
जाती है, तथा कोई-कोई सिद्धांत बहुत से प्रमेय और उपसिद्धांत की मदद से सिद्ध होता है.
इस आधार पर मानवीय व्यवहार के लिए वह अद्भुत नीतिशास्त्र का निर्माण करते हैं, जिसकी कुछ प्रतिज्ञा और सम्बन्धित परिभाषाएँ इस तरह से हैं:
• आशा की परिभाषा - आशा अस्थायी प्रसन्नता है, जो कि किसी भूतकाल के या भविष्य से सम्बन्धित विचार से उत्पन्न होती है जिसके
बारे में हम किसी हद तक सशंकित होते हैं. (भावों की परिभाषा १२ – भाग ३ )
• भय की परिभाषा - भय अस्थायी वेदना है जो कि किसी
भूतकाल के या भविष्य से सम्बन्धित विचार से उत्पन्न होते हैं, जिसके बारे में हम किसी हद तक सशंकित होते हैं. (भावों की परिभाषा १३ – भाग ३)
व्याख्या –इन दो परिभाषाओं से यह स्थापित होता है कि कोई
भी आशा बिना भय के मिले नहीं हो सकती और कोई भी भय बिना आशा के नहीं हो सकता है.
जो व्यक्ति, आशा पर निर्भर होता है और भविष्य के बारे में सशंकित रहता है, वह निश्चित तौर पर भविष्य में उसके न होने के बारे में विचार कर चुका होता है, जिसके कारण किसी हद तक उसे वेदना होती है. फलस्वरूप आशा पर निर्भर होने के कारण, वह भय से जुड़ा रहता है. इसी तरह, जो व्यक्ति भय से,
दूसरे शब्दों में उस विषय में सशंकित है जिसका
वह तिरस्कार करता है, उसी समय वह तिरस्कृत वस्तु के अस्तित्व पर भी
प्रश्न लगाता है. फलस्वरूप उसे प्रसन्नता होती है,
और वह यह आशा करता है कि उसके इच्छानुसार चीजें
घटेंगी.
प्रतिज्ञा ४१ –
भाग ४- प्रसन्नता अपने आप में बुरी नहीं पर
अच्छी है, लेकिन वेदना अपने आप में बुरी है
व्याख्या –प्रसन्नता भाव है,
जहाँ शरीर की कार्यशक्ति या तो बढ़ती है या
सहायक होती है. वेदना भाव है जिसमें कार्यशक्ति या तो कमती है या बाधित होती है.
अत: प्रसन्नता अपने आप में अच्छी है. (देखें: भाग ४,
प्रतिज्ञा ४७)
प्रतिज्ञा ४७ –
भाग ४ - आशा और भय के भाव अपने आप में कभी अच्छे
नहीं हो सकते.
उपपत्ति -
आशा और भय के भाव बिना वेदना के अस्तित्व में नहीं आ सकते. क्योंकि भय एक
तरह की वेदना है (देखें भावों की परिभाषा १३ –
भाग ३) और आशा (भावों की परिभाषा १२ और १३ – भाग ३) बिना भय के हो सकती; अत: यह भाव अपने आप में अच्छे नहीं हो सकते
(प्रतिज्ञा ४१- भाग ४), लेकिन तभी तक जब वे अत्यधिक प्रसन्नता को बाधित
करने में सफल हों.
स्पिनोज़ा के विचारों ने यूरोप के दार्शनिकों को बड़े
पैमाने पर प्रभावित किया. चूँकि इसे कैथोलिक चर्च द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया
था, कई दार्शनिक जैसे जॉन लॉक (1632-1704), लाइबनिज (1646-1716), डेविड ह्यूम (1711-1776), और इमानुएल कांट (1724-1804) आदि ने छुप कर इस
ग्रंथ का अध्ययन किया. साहित्य के विद्यार्थियों के लिए यह बड़ी सुखद जानकारी है
कि इसका पहला अंग्रेजी अनुवाद सन 1856 में प्रख्यात लेखिका व अंग्रेजी की महान
उपन्यासकार जॉर्ज इलियट (मेरी इवान्स –1819-1880) ने किया था.
आधुनिक दार्शनिक उनके अकाट्य प्रमाणों की श्रृंखला पर वैचारिक
मतभेद जताते हुए तर्क-प्रणाली पर ही प्रश्नचिह्न लगाते हैं, कि हमारी बुद्धि और तर्क की सीमा होती है इसलिए हम परमसत्य को कभी नहीं जान
सकते. यह करीब-करीब बौद्धों का भी विचार है.
बहरहाल, मेरा मंतव्य किसी बौद्धिक सम्प्रदाय विशेष की
तत्त्वमीमांसा पर विमर्श करना नहीं है. उपरोक्त उदाहरण से मैं कई ऐसे सिद्धांतों
की तरफ़ ध्यान ले जाना चाहता हूँ. स्पिनोज़ा की दार्शनिक प्रणाली में न्याय की
अवधारणा नहीं है. न ही सौन्दर्यशास्त्र से उन्हें कोई-लेना देना है. फिर भी नीति
को ले कर किया गया उनका चिंतन अपनी सीमा में परिपूर्ण व बहुत गहरा है.
अनुवाद की समस्या और सावधानियाँ : मूल लैटिन या अंग्रेज़ी से अनुवाद
पहला प्रश्न यह है कि इसका हिन्दी में अनुवाद कैसे उपलब्ध
हो! उससे पहले यह ग्रंथ अपने आप में दुर्भेद्य प्रतीत होता है. अगर हम इसका लैटिन
से हिन्दी अनुवाद नहीं कर सकते तो बहुत से उपलब्ध अंग्रेजी अनुवादों से इसका
हिन्दी अनुवाद किया जा सकता है. मेरा मानना है कि सबसे पहले हमें स्पिनोज़ा के
प्रतिपादित सिद्धांतों को पढ़ना चाहिए. इसमें भी पहले भाग ३ (भाव के उत्पत्ति और
उसकी प्रकृति के बारे में) और भाग ४ (मानवीय बंधन या भावों के बल के बारे में) के
सारे सिद्धांतों को कई-कई बार पढ़ना चाहिए. इसके बाद हमें भाग ५, फिर भाग १ से भाग ५ तक पूरी किताब पुन: पढ़नी चाहिए.
इस पुस्तक का अनुवाद एक महती और विशिष्ट शोध परियोजना है.
जहाँ अनुवाद की बड़ी सावधानी बरतनी होगी. जैसे Love
(लव) का अनुवाद प्रेम नहीं प्यार ठीक होगा.
क्योंकि स्पिनोज़ा ने प्यार की परिभाषा प्रसन्नता के रूप में की है, जो किसी बाहरी कारण के विचार से जुड़ा होता है. हमारे यहाँ प्रेम की अवधारणा
में परस्पर विश्वास और आत्म संतुष्टि समाहित है,
अत: इसका अनुवाद प्रेम में करना भ्रामक सिद्ध हो
सकता है. इसी तरह God (गॉड) का अनुवाद ईश्वर या भगवान की अपेक्षा
ब्रह्म करना निकटतम होगा, क्योंकि अनेक दर्शनों में ईश्वर की परिभाषा
सर्वशक्तिमान इच्छा करने वाला परमतत्त्व जैसा माना गया है.इसी तरह Existence (एक्सिज्टेंस)का अनुवाद अस्तित्व में और Essence (एसेंस) का अनुवादसार करना ठीक होगा.
भावों का चिंतन और जीवन मूल्य
स्पिनोज़ा सारे भावों को सूचीबद्ध करके हर भाव को प्रसन्नता, वेदना या इच्छा से जुड़ा बतलाते हैं. वे अच्छे का अर्थ किसी भी चीज के हमारे
उपयोगी होने से लेते हैं. बुरे का अर्थ किसी भी अच्छे का अवरोध को कहते हैं. मूल्य
को शक्ति ही बताते हैं. स्पिनोज़ा के विभिन्न सिद्धांत जैसे कि ‘स्वतंत्र आदमी मृत्यु से कम कुछ नहीं सोचता’,
‘अगर आदमी स्वतंत्र पैदा होता तो जब तक वो
स्वतंत्र रहता कभी अच्छे और बुरे की अवधारणा नहीं सोच सकता’, ‘दया, जो मनुष्य तर्कों पर जीता है उसमें, अपने आप में बुरा और अनुपयोगी है’ गहन चिंतन की ओर ढ़केलते हैं. जिस ह्यूमिलिटी (humility) की लोग दुहाई देते हैं, उसे स्पिनोज़ा इस तरह परिभाषित करते हैं –
ह्यूमिलिटी अथवा दीनता एक तरह की वेदना है, जो मनुष्य को अपने शरीर या मन की कमजोरी के विषय में सोचने से उत्पन्न होती है
(भाव की परिभाषा- २६, भाग ३). फिर उसी दीनता पर उनकी प्रतिज्ञा (भाग ४, ५३) – ‘दीनता अपने आप में मूल्य नहीं है या विवेक बुद्धि से
उत्पन्न नहीं होती’; हमारे पारम्परिक ‘दया’ की महत्ता को तुच्छ और दीनता के प्रति सहानुभूति
को त्याज्य मानता है.
स्पिनोज़ा के नीतिशास्त्र से असहमति या सहमति से पहले, उनका ग्रंथ गम्भीर चिंतन और ईमानदार निष्कर्षों के लिए प्रतिबद्धता की मांग
करता है. संक्षिप्तता और विशिष्टता के कारण, उनका ग्रंथ सभी अनीश्वरवादी, नास्तिक, घोर आस्तिक,
प्रगतिशील, बुद्धिजीवी तथा क्रांतिकारियों के लिए आवश्यक है.
अपूर्व मेधा के सामने असहाय पाठक इस ग्रंथ के अकाट्य तर्कों को पढ़ने के बाद अपने
अंदर एक नवीन दृष्टि का सृजन कर पाता है. मेरा मानना है, ऐसा चिंतन सर्वथा कल्याणकारी है.
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सम्बन्धित लिंक
1. https://en.wikisource.org/wiki/Ethics_(Spinoza)
2. Part I: Concerning God:
https://en.wikisource.org/wiki/Ethics_(Spinoza)/Part_1
3. Part II: On the Nature and Origin of the
Mind: https://en.wikisource.org/wiki/Ethics_(Spinoza)/Part_2
4.Part III: On the Origin and Nature of
the Emotions: https://en.wikisource.org/wiki/Ethics_(Spinoza)/Part_3
5.Part IV: Of Human Bondage, or the
Strength of the Emotions: https://en.wikisource.org/wiki/Ethics_(Spinoza)/Part_4
6.Part V: Of the Power of the
Understanding, or of Human Freedom: https://en.wikisource.org/wiki/Ethics_(Spinoza)/Part_5
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प्रचण्ड प्रवीर बिहार के मुंगेर जिले में जन्मे और पले बढ़े हैं. इन्होंने सन् २००५ में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली से रासायनिक अभियांत्रिकी में प्रौद्योगिकी स्नातक की उपाधि ग्रहण की. सन् २०१० में प्रकाशित इनके पहले उपन्यास 'अल्पाहारी गृहत्यागी: आई आई टी से पहले' ने कई युवा हिन्दी लेखकों को प्रेरित किया. सन् २०१६ में प्रकाशित इनकी दूसरी पुस्तक, 'अभिनव सिनेमा: रस सिद्धांत के आलोक में विश्व सिनेमा का परिचय', हिन्दी के वरिष्ठ आलोचकों द्वारा बेहद सराही गई. सन् २०१६ में ही इनका पहला कथा संग्रह'जाना नहीं दिल से दूर' प्रकाशित हुआ. इनका पहला अंग्रेजी कहानी संग्रह ‘Bhootnath Meets Bhairavi (भूतनाथ मीट्स भैरवी )’सन् २०१७ में प्रकाशित हुआ. इन दिनों प्रचण्ड प्रवीर गुड़गाँव में एक वित्त प्रौद्योगिकी संस्थान में काम करते हैं .
prachand@gmail.com
महत्वपूर्ण है यह नैतिकता का एक वाजिब ज्ञान संदर्भ रचते हुए
जवाब देंहटाएंस्पिनोज़ा को पढने की रूचि जगाता प्रचण्ड प्रवीर का यह आलेख अच्छा है. इसका अनुवाद होना चाहिए. मै तो चाहूँगा की विश्व के जितने भी क्लाकिस्क्ल दार्शनिक हैं उन पर एक श्रृंखला के अंतर्गत अनुवाद कार्य किया जाए.
जवाब देंहटाएंसबसे पहले प्रचंड प्रवीर जी एवं अरुण जी बधाई।आलेख से गुजरना एक सर्जनात्मक अनुभव है,प्रवीर जी ही अनुवाद का बीड़ा उठाएं उत्तम होगा।
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो हिंदी में स्पिनोज़ा के अनुवाद के न होने पर ध्यान दिलाने के लिए प्रवीर जी का साधुवाद. जरुर यह अनुवाद होना चाहिए. लेख अच्छा है.
जवाब देंहटाएंस्पिनोजा की पुस्तक नीति बहुत पहले ही अनुवादित है,
जवाब देंहटाएंअनुवादक- दीवानचन्द
प्रकाशक- हिन्दी समिति उत्तर प्रदेश
प्रकाशन वर्ष- 1964
हालांकि हिन्दी समिति का विलय उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान में हो गया, पुस्तक मिलना इसलिए असम्भव सा, खैर हमारे प्रयासों के बारे में क्या ही कहना, आजकल हिन्दी संस्थान, अकादमियां प्रतियोगी परीक्षा सहयोगी पुस्तकें छापने लगी हैं।
पुराने विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयो मे इस पुस्तक की अनुवादित प्रति प्राप्त हो सकती है। जैसे कि मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय के केन्द्रीय पुस्तकालय में प्राप्त हुई थी। पर इस पुस्तक की स्कैन प्रति अभी प्राप्त नहीं हो रही है।
Online Public Access Catalogue
जवाब देंहटाएंSubmit Submit
Serial : 20
Record No : 199182
Source of Record : Arts Library
Call No : R3xK32,1 15
Title : स्पिनोजा : नीति
Author(s) : स्पिनौजा, बैरूक; नीति दीवानचन्द/थ्ज्तण्
Publication Year : 1964
Publisher Details : उतर प्रदेश, हिन्दी समिति प्र0, भारत
Pages : 268पृ0
Series Statement : हिन्दी समीति ग्रन्थमाला,62
Type of Material : Textual
Physical Medium : Paper Form
Language : Hindi
Descriptor(s) : दर्शनशास्त्र
Accession Number : AL0228461, 152;
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